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नज़्म
कितनी रौशन क्यूँ न हो 'आज़ाद' आख़िर एक दिन
शम-ए-हस्ती मौत के झोंकों से गुल हो जाएगी
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
मैं इस ख़याल में था बुझ चुकी है आतिश-ए-दर्द
भड़क रही थी मिरे दिल में जो ज़माने से