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नज़्म
दिखा वो हुस्न-ए-आलम-सोज़ अपनी चश्म-ए-पुर-नम को
जो तड़पाता है परवाने को रुलवाता है शबनम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बरस रही है गुल-ए-मुद्दआ' पे शबनम-ए-कैफ़
यही नशात के दिन हैं यही है आलम-ए-कैफ़
सय्यद आबिद अली आबिद
नज़्म
चाहत से किसी की सीखा था ग़म सहना और आँसू पीना
लेकिन अब तो हर अश्क-ए-अलम आँखों से टपक ही जाता है
राबिया सुलताना नाशाद
नज़्म
सारी रौनक़ गुलशन-ए-आलम की तेरे दम से है
ताज़गी-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल क़तरा-ए-शबनम से है
हामिद हसन क़ादरी
नज़्म
सर्द रातों का हसीं इक ख़्वाब है चेहरा तिरा
क्या कहूँ बस मंज़र-ए-नायाब है चेहरा तिरा
जय राज सिंह झाला
नज़्म
उफ़ ये शबनम से छलकते हुए फूलों के अयाग़
इस चमन में हैं अभी दीदा-ए-पुर-नम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
उरूस-ए-शब की ज़ुल्फ़ें थीं अभी ना-आश्ना ख़म से
सितारे आसमाँ के बे-ख़बर थे लज़्ज़त-ए-रम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी
सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
वो इस कॉलेज की शहज़ादी थी और शाहाना पढ़ती थी
वो बे-बाकाना आती थी वो बे-बाकाना पढ़ती थी