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नज़्म
ऐ ग़ाफ़िल तुझ से भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर मिस्री क़ंद गरी क्या सांभर मीठा खारी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जो मिस्री और के मुँह में दे फिर वो भी शक्कर खाता है
जो और तईं अब टक्कर दे फिर वो भी टक्कर खाता है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
फिर भी जाने किस तरह शीर-ओ-शकर थे हम
हमारी छोटी छोटी ख़्वाहिशें हर तौर हम-आहंग थीं इतनी
इशरत आफ़रीं
नज़्म
भगवान भगत ने हिम्मत की इक प्रेम-ज्वाला जाग उठी
करवा कर शीर-ओ-शकर सब को दिखला दिया गाँधी बाबा ने
आफ़ताब रईस पानीपती
नज़्म
लगती है सब के दिल को ग़रज़ प्यारी शब-बरात
शक्कर का जिन के हलवा हुआ वो तो पूरे हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कभी गंगा कभी कौसर से मिलें जाम पे जाम
यूँ बनें शीर-ओ-शकर तेरी हुकूमत में अवाम