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नज़्म
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मगर एहसास अपनों सा वो अनजाने दिलाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं
इरफ़ान अहमद मीर
नज़्म
कभी रिफ़अ'तों पे लपकीं कभी वुसअ'तों से उलझीं
कभी सोगवार सोएँ कभी नग़्मा-बार जागीं