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नज़्म
वो दोशीज़ा भी शायद दास्तानों की हो दिल-दादा
उसे मालूम होगा 'ज़ाल' था 'सोहराब' का दादा
जौन एलिया
नज़्म
नज़र आता है यूँ लगता है जैसे ये बला-ए-जाँ
मिरा हम-ज़ाद है हर गाम पर हर मोड़ पर जौलाँ
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
यही कुल असासा-ए-ज़िंदगी है इसी को ज़ाद-ए-सफ़र करूँ
किसी और सम्त नज़र करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
परवीन शाकिर
नज़्म
ज़द में कोई चीज़ आ जाए तो उस को पीस कर
इर्तिक़ा-ए-ज़िंदगी के राज़ बतलाती हुई