आख़िरी आदमी
स्टोरीलाइन
यह पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर रची गई कहानी है। समुंद्र के किनारे एक बस्ती है, जिसके लोग मछली पकड़ कर अपना गुज़र-बसर करते हैं। उन्हें एक विशेष दिन को मछली पकड़ने से मना किया जाता है, लेकिन लोग इस बात की अनसुनी कर मछली पकड़ते हैं और वह बंदर में बदल जाते हैं। बस एक आख़िरी आदमी बचता है, जो बंदर न बनने के लिए हर मुमकिन कोशिश करता है।
अलियासफ़ उस क़रिए में आख़िरी आदमी था। उसने अहद किया था कि माबूद की सौगन्द में आदमी की जोन में पैदा हुआ हूँ और मैं आदमी ही की जोन में मरूंगा। और उसने आदमी की जोन में रहने की आख़िर दम तक कोशिश की।
और इस क़रिए से तीन दिन पहले बंदर ग़ाएब हो गए थे। लोग पहले हैरान हुए और फिर ख़ुशी मनाई कि बंदर जो फ़सलें बर्बाद और बाग़ ख़राब करते थे नाबूद हो गए। पर उस शख़्स ने जो उन्हें सब्त के दिन मछलियों के शिकार से मना किया करता था ये कहा कि बंदर तो तुम्हारे दरमियान मौजूद हैं मगर ये कि तुम देखते नहीं। लोगों ने उस का बुरा माना और कहा कि क्या तू हम से ठट्ठा करता है और उसने कहा कि बेशक ठट्ठा तुम ने ख़ुदा से किया कि उस ने सब्त के दिन मछलियों के शिकार से मना किया और तुमने सब्त के दिन मछलियों का शिकार किया और जान लो कि वो तुम से बड़ा ठट्ठा करने वाला है।
उसके तीसरे दिन यूँ हुआ कि अलीउज़्र की लौंडी गजरोम अलीउज़्र की ख़्वाब-गाह में दाख़िल हुई और सहमी हुई अलीउज़्र की जोरू के पास उल्टे पांव आई। फिर अलीउज़्र की जोरू ख़्वाब-गाह तक गई और हैरान-ओ-परेशान वापस आई। फिर ये ख़बर दूर दूर तक फैल गई और दूर दूर से लोग अलीउज़्र के घर आए और उस की ख़्वाब-गाह तक जा कर ठिठक ठिठक गए कि अलीउज़्र की ख़्वाब-गाह में अलीउज़्र की बजाए एक बड़ा बंदर आराम करता था और अलीउज़्र ने पिछले सब्त के दिन सब से ज़्यादा मछलियाँ पकड़ी थीं।
फिर यूँ हुआ कि एक ने दूसरे को ख़बर दी कि ऐ अज़ीज़ अलीउज़्र बंदर बन गया है। उस पर दूसरा ज़ोर से हंसा, तूने मुझ से ठट्ठा किया। और वो हँसता चला गया, हत्ता कि मुँह उसका सुर्ख़ पड़ गया और दाँत निकल आए और चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल खींचते चले गए और वो बंदर बन गया। तब पहला कमाल हैरान हुआ। मुँह उस का खुला का खुला रह गया और आँखें हैरत से फैलती चली गईं और फिर वो भी बंदर बन गया।
और अलियाब इब्न-ए-ज़बलून को देख कर डरा और यूँ बोला कि ऐ ज़बलून के बेटे तुझे क्या हुआ है कि तेरा चेहरा बिगड़ गया है। इब्न-ए-ज़बलून ने इस बात का बुरा माना और ग़ुस्से से दाँत किचकिचाने लगा। तब अलियाब मज़ीद डरा और चिल्ला कर बोला कि ऐ ज़बलून के बेटे! तेरी माँ तेरे सोग में बैठे, ज़रूर तुझे कुछ हो गया है। इस पर इब्न-ए-ज़बलून का मुँह ग़ुस्से से लाल हो गया और दाँत खींच कर अलियाब पर झपटा। तब अलियाब पर ख़ौफ़ से लर्ज़ा तारी हुआ और इब्न-ए-ज़बलून का चेहरा ग़ुस्से से और अलियाब का चेहरा ख़ौफ़ से बिगड़ता चला गया। इब्न-ए-ज़बलून ग़ुस्से से आपे से बाहर हुआ और अलियाब ख़ौफ़ से अपने आप में सिकुड़ता चला गया और वो दोनों कि एक मुजस्सम ग़ुस्सा और एक ख़ौफ़ की पोत थे आपस में गुथ गए। उनके चेहरे बिगड़ते चले गए। फिर उनके आज़ा बिगड़े। फिर उनकी आवाज़ें बिगड़ीं कि अलफ़ाज़ आपस में मदग़म होते चले गए और ग़ैर मलफ़ूज़ आवाज़ें बन गए। फिर वो ग़ैर मलफ़ूज़ आवाज़ें वहशियाना चीख़ बन गईं और फिर वो बंदर बन गए।
अलियासफ़ ने कि उन सब में अक़लमंद था और सब से आख़िर तक आदमी बना रहा। तशवीश से कहा कि ऐ लोगो! ज़रूर हमें कुछ हो गया है। आओ हम उस शख़्स से रुजू करें जो हमें सब्त के दिन मछलियाँ पकड़ने से मना करता है। फिर इलियास लोगों को हमराह लेकर उस शख़्स के घर गया। और हलक़ा ज़न हो के देर तक पुकारा किया। तब वो वहाँ से मायूस फिरा और बड़ी आवाज़ से बोला कि ऐ लोगो! वो शख़्स जो हमें सबत के दिन मछलियाँ पकड़ने से मना किया करता था आज हमें छोड़कर चला गया है। और अगर सोचो तो उस में हमारे लिए ख़राबी है। लोगों ने ये सुना और दहल गए। एक बड़े ख़ौफ़ ने उन्हें आ लिया।
दहशत से सूरतें उनकी चपटी होने लगीं। और ख़द-ओ-ख़ाल मस्ख़ होते चले गए। और अलियासफ़ ने घूम कर देखा और बंदरों के सिवा किसी को न पाया। जानना चाहिए कि वो बस्ती एक बस्ती थी। समुंदर के किनारे। ऊंचे बुर्जों और बड़े दरवाज़ों वाली हवेलियों की बस्ती, बाज़ारों में खोई से खोह छिलता था। कटोरा बजता था। पर दम के दम में बाज़ार वीरान और ऊंची ड्युढ़ियाँ सूनी हो गईं। और ऊंचे बुर्जों में आलीशान छतों पर बंदर ही बंदर नज़र आने लगे और अलियासफ़ ने हर उस से चारों सिम्त नज़र दौड़ाई और सोचा कि मैं अकेला आदमी हूँ और इस ख़याल से वो ऐसा डरा कि उसका ख़ून जमने लगा। मगर उसे अलियाब याद आया कि ख़ौफ़ से किस तरह उसकी सूरत बिगड़ती चली गई और वो बंदर बन गया। तब अलियासफ़ ने अपने ख़ौफ़ पर ग़लबा पाया और अज़्म बांधा कि माबूद की सौगन्द में आदमी की जोन में पैदा हुआ हूँ और आदमी ही की जोन में मरूंगा और उसने एक एहसास-ए-बरतरी के साथ अपने मस्ख़ सूरत हम जिंसों को देखा और कहा। तहक़ीक़ में इनमें से नहीं हूँ कि वो बंदर हैं और मैं आदमी की जोन में पैदा हुआ। और अलयासफ़ ने अपने हम जिंसों से नफ़रत की। उसने उनकी लाल भबुका सूरतों और बालों से ढके हुए जिस्मों को देखा और नफ़रत से चेहरा उसका बिगड़ने लगा मगर उसे अचानक ज़बान का ख़याल आया कि नफ़रत की शिद्दत से सूरत उसकी मस्ख़ हो गई थी। उसने कहा कि अलियासफ़ नफ़रत मत कर कि नफ़रत से आदमी की काया बदल जाती है और अलियासफ़ ने नफ़रत से किनारा किया।
अलियासफ़ ने नफ़रत से किनारा किया और कहा कि बेशक मैं इन्ही में से था और उसने वो दिन याद किए जब वो उनमें से था और दिल उसका मोहब्बत के जोश से मुंडने लगा। उसे बिंत-ए-अलख़िज़्र की याद आई कि फ़िरऔन के रथ की दुधिया घोड़ियों में से एक घोड़ी की मानिंद थी। और उसके बड़े घर के दर सर्व के और कड़ियाँ सनोबर की थीं। इस याद के साथ अलियासफ़ को बीते दिन याद आ गए कि वो सर्व के दरों और सनोबर की कड़ियों वाले मकान में अक़ब से गया था और छप्पर खट के लिए उसे टटोला जिस के लिए उसका जी चाहता था और उसने देखा लंबे बाल उसकी रात की बूंदों से भीगे हुए हैं और छातियाँ हिरन के बच्चों के मुवाफ़िक़ तड़पती हैं। और पेट उसका गंदुम की ड्योढ़ी की मानिंद है और पास उसके संदल का गोल प्याला है और अलियासफ़ ने बिंत-ए-अलख़िज़्र को याद किया और हिरन के बच्चों और गंदुम की ढेर और संदल के गोल प्याले के तसव्वुर में सर्व के दरों और सनोबर की कड़ियों वाले घर तक गया। सास ने ख़ाली मकान को देखा और छप्पर खट पर उसे टटोला। जिसके लिए उसका जी चाहता था और पुकारा कि ऐ बिंत-ए-अलख़िज़्र! तू कहाँ है और ऐ वो कि जिसके लिए मेरा जी चाहता है। देख मौसम का भारी महीना गुज़र गया और फूलों की क्यारियाँ हरी भरी हो गईं और क़मरियाँ ऊंची शाख़ों पर फड़फड़ाती हैं। तू कहाँ है? ऐ अख़्ज़र की बेटी! ए ऊंची छत पर बिछे हुए छप्पर खट पर आराम करने वाली तुझे दश्त में दौड़ती हुई हिरनियों और चट्टानों की दराड़ों में छपे हुए कबूतरों की क़सम तू नीचे उतर आ। और मुझ से आन मिल कि तेरे लिए मेरा जी चाहता है। अलियासफ़ बार बार पुकारता कि उसका जी भर आया और बिंत-ए-अलख़िज़्र को याद करके रोया।
अलियासफ़ बिंत-ए-अलख़िज़्र को याद कर के रोया मगर अचानक अलीउज़्र की जोरू याद आई जो अलीउज़्र को बंदर की जोन में देख कर रोई थी। हालाँकि उसकी हड़की बंध गई और बहते आँसूओं में उसके जमील नुक़ूश बिगड़ते चले गए। और हड़की की आवाज़ वहशी होती चली गई यहाँ तक कि उसकी जोन बदल गई। तब अलियासफ़ ने ख़याल किया। बिंत-ए-अलख़िज़्र जिनमें से थी उनमें मिल गई। और बेशक जो जिन में से है वो उनके साथ उठाया जाएगा और अलियासफ़ ने अपने तईं कहा कि ऐ अलियासफ़ उनसे मोहब्बत मत कर मबादा तू उनमें से हो जाए और अलियासफ़ ने मोहब्बत से किनारा किया और हम जिंसों को न जिन्स जान कर उनसे बे-तअल्लुक़ हो गया और अलियासफ़ ने हिरन के बच्चों और गंदुम की ढेरी और संदल के गोल प्याले को फ़रामोश कर दिया।
अलियासफ़ ने मोहब्बत से किनारा किया और अपने हम जिंसों की लाल भबुका सूरतों और खड़ी दुम देख कर हंसा और अलियासफ़ को अलीउज़्र की जोरू याद आई कि वो इस क़रिए की हसीन औरतों में से थी। वो ताड़ के दरख़्त की मिसाल थी और छातियाँ उसकी अंगूर के ख़ोशों की मानिंद थीं। और अलीउज़्र ने उससे कहा था कि जान ले कि मैं अंगूर के ख़ोशे तोड़ूंगा और अंगूर के ख़ोशों वाली तड़प कर साहिल की तरफ़ निकल गई।
अलीउज़्र उसके पीछे पीछे गया और फल तोड़ा और ताड़ के दरख़्त को अपने घर ले आया और अब वो एक ऊंचे कंगुरे पर अलीउज़्र की जुएँ बिन बिन कर खाती थी। अलीउज़्र झुर झुरी लेकर खड़ा हो जाता और वो दुम खड़ी करके अपने लिजलिजे पंजों पर उठ बैठी। उसके हँसने की आवाज़ इतनी ऊंची होती कि उसे सारी बस्ती गूंजती मालूम हुई और वो अपने इतनी ज़ोर से हँसने पर हैरान हुआ मगर अचानक उसे उस शख़्स का ख़याल आया जो हंसते हंसते बंदर बन गया था और अलियासफ़ ने अपने तईं कहा। ऐ अलियासफ़ तू उन पर मत हंस मबादा तू हंसी की ऐसा बन जाए और अलियासफ़ ने हंसी से किनारा किया।
अलियासफ़ ने हंसी से किनारा किया। अलियासफ़ मोहब्बत और नफ़रत से ग़ुस्सा और हमदर्दी से रोने और हँसने से हर कैफ़ियत से गुज़र गया और हम जिंसों को न जिन्स जान कर उनसे बे-तअल्लुक़ हो गया। उन का दरख़्तों पर उचकना, दाँत पीस पीस कर किलकारियाँ करना, कच्चे कच्चे फलों पर लड़ना और एक दूसरे को लहू लुहान कर देना। ये सब कुछ उसे आगे कभी हम जिंसों पर रुलाता था, कभी हंसाता था। कभी ग़ुस्सा दिलाता कि वो उन पर दाँत पीसने लगा और उन्हें हिक़ारत से देखता और यूँ हुआ कि उन्हें लड़ते देख कर उसने ग़ुस्सा किया और बड़ी आवाज़ से झिड़का। फिर ख़ुद अपनी आवाज़ पर हैरान हुआ। और किसी किसी बंदर ने उसे बे-तअल्लुक़ी से देखा और फिर लड़ाई में जुट गया। और अलियासफ़ के तईं लफ़्ज़ों की क़द्र की जाती रही। कि वो उसके और उसके हम जिंसों के दरमियान रिश्ता नहीं रहे थे और इस का उसने अफ़सोस किया। अलियासफ़ ने अफ़सोस किया अपने हम जिंसों पर, अपने आप पर और लफ़्ज़ पर। अफ़सोस है उन पर ब-वजह उसके वो उस लफ़्ज़ से महरूम हो गए। अफ़सोस है मुझ पर ब-वजह उस के लफ़्ज़ मेरे हाथों में ख़ाली बर्तन की मिसाल बन कर रह गया। और सोचो तो आज बड़े अफ़सोस का दिन है। आज लफ़्ज़ मर गया। और अलियासफ़ ने लफ़्ज़ की मौत का नौहा किया और ख़ामोश हो गया।
अलियासफ़ ख़ामोश हो गया और मोहब्बत और नफ़रत से, ग़ुस्से और हमदर्दी से, हँसने और रोने से दर गुज़रा। और अलियासफ़ ने अपने हम जिंसों को न जिन्स जान कर उनसे किनारा किया और अपनी ज़ात के अंदर पनाह ली। अलियासफ़ अपनी ज़ात के अंदर पनाहगीर जज़ीरे के मानिंद बन गया। सब से बे-तअल्लुक़, गहरे पानियों के दरमियान ख़ुशकी का नन्हा सा निशान और जज़ीरे ने कहा मैं गहरे पानियों के दरमियान ज़मीन का निशान बुलंद रखूंगा।
अलियासफ़ अपने तईं आदमियत का जज़ीरा जानता था। गहरे पानियों के ख़िलाफ़ मुदाफ़अत करने लगा। उसने अपने गिर्द पुश्ता बना लिया कि मोहब्बत और नफ़रत, ग़ुस्सा और हमदर्दी, ग़म और ख़ुशी उस पर यलग़ार न करें कि जज़्बे की कोई रौ उसे बहा कर न ले जाए और अलियासफ़ अपने जज़्बात से ख़ौफ़ करने लगा। फिर जब वो पुश्ता तैयार कर चुका तो उसे यूँ लगा कि उसके सीने के अंदर पथरी पड़ गई है। उसने फ़िक्रमंद हो कर कहा कि ऐ माबूद मैं अंदर से बदल रहा हूँ तब उसने अपने बाहर पर नज़र की और उसे गुमान होने लगा कि वो पथरी फैल कर बाहर आ रही है कि उसके आज़ा ख़ुश्क, उसकी जिल्द बदरंग और उसका लहू बे-रस होता जा रहा है। फिर उसने मज़ीद अपने आप पर ग़ौर किया और उसे मज़ीद वस्वसों ने घेरा। उसे लगा कि उसका बदन बालों से ढकता जा रहा है। और बाल बद-रंग और सख़्त होते जा रहे हैं। तब उसे अपने बदन से ख़ौफ़ आया और उसने आँखें बंद कर लीं। ख़ौफ़ से वो अपने अंदर सिमटने लगा। उसे यूँ मालूम हुआ कि उसकी टांगें और बाज़ू मुख़्तसर और सर छोटा होता जा रहा है तब उसे मज़ीद ख़ौफ़ हुआ और आज़ा उसके ख़ौफ़ से मज़ीद सिकुड़ने लगे और उसने सोचा कि क्या मैं बिल्कुल मादूम हो जाऊँगा।
और अलियासफ़ ने अलियाब को याद किया कि ख़ौफ़ से अपने अंदर सिमट कर वो बंदर बन गया था। तब उसने कहा कि मैं अंदर के ख़ौफ़ पर इसी तौर ग़लबा पाऊँगा जिस तौर मैंने बाहर के ख़ौफ़ पर ग़लबा पाया था और अलियासफ़ ने अंदर के ख़ौफ़ पर ग़लबा पा लिया। और उसके सिमटते हुए आज़ा दोबारा खुला और फैलने लगे। उसके आज़ा ढीले पड़ गए। और उसकी उंगलियाँ लंबी और बाल बड़े और खड़े होने लगे। और उसकी हथेलियाँ और तलवे चपटे और लिजलिजे हो गए और उसके जोड़ खुलने लगे और अलियासफ़ को गुमान हुआ कि उसके सारे आज़ा बिखर जाएँगे तब उसने अज़्म कर के अपने दाँतों को भींचा और मुट्ठियाँ कस कर बांधा और अपने आप को इकट्ठा करने लगा।
अलियासफ़ ने अपने बद हैय्यत आज़ा की ताब न ला कर आँखें बंद कर लीं और जब अलियासफ़ ने आँखें बंद कीं तो उसे लगा कि उसके आज़ा की सूरत बदलती जा रही है।
उसने डरते डरते अपने आप से पूछा कि मैं मैं नहीं रहा। इस ख़याल से दिल उसका ढहने लगा। उसने बहुत डरते डरते एक आँख खोली और चुपके से अपने आज़ा पर नज़र की। उसे ढारस हुई कि उसके आज़ा तो जैसे थे वैसे ही हैं। उसने दिलेरी से आँखें खोलीं और इत्मिनान से अपने बदन को देखा और कहा कि बे-शक मैं अपनी जोन में हूँ मगर इसके बाद आप ही आप उसे फिर वस्वसा हुआ कि जैसे उसके आज़ा बिगड़ते जा रहे हैं और उसने फिर आँखें बंद कर लीं।
अलियासफ़ ने आँखें बंद कर लीं और जब अलियासफ़ ने आँखें बंद कीं तो उसका ध्यान अंदर की तरफ़ गया और उसने जाना कि वो किसी अंधेरे कुँवें में धंसता जा रहा है और अलियासफ़ कुँवें में धंसते हुए हम जिंसों की पुरानी सूरतों ने उसका तआक़ुब किया। और गुज़री रातें मुहासिरा करने लगीं। अलियासफ़ को सब्त के दिन हम जिंसों का मछलियों का शिकार करना याद आया कि उनके हाथों मछलियों से भरा समुंदर मछलियों से ख़ाली होने लगा। और उसकी हवस बढ़ती गई और उन्होंने सब्त के दिन भी मछलियों का शिकार शुरू कर दिया। तब उस शख़्स ने जो उन्हें सब्त के दिन मछलियों के शिकार से मना करता था कहा कि रब की सौगंद जिसने समुंदर को गहरे पानियों वाला बनाया और गहरे पानियों की मछलियों का मामन ठहराया समुंदर तुम्हारे दस्त-ए-हवस से पनाह मांगता है और सब्त के दिन मछलियों पर ज़ुल्म करने से बाज़ रहो कि मबादा तुम अपनी जानों पर ज़ुल्म करने वाले क़रार पाओ। अलियासफ़ ने कहा कि माबूद की सौगन्द मैं सब्त के दिन मछलियों का शिकार नहीं करूंगा और अलियासफ़ अक़्ल का पुतला था। समुंदर से फ़ासले पर एक गढ़ा खोदा और नाली खोद कर उसे समुंदर से मिला दिया और सब्त के दिन मछलियां सत्ह-ए-आब पर आईं तो तैरती हुई नाली की राह गढ़े पर निकल गईं। और सब्त के दूसरे दिन अलियासफ़ ने उस गढ़े से बहुत सी मछलियाँ पकड़ीं। वो शख़्स जो सब्त के दिन मछलियाँ पकड़ने से मना करता था। ये देख कर बोला कि तहक़ीक़ जिसने अल्लाह से मकर किया अल्लाह उस से मकर करेगा। और बे-शक अल्लाह ज़्यादा बड़ा मकर करने वाला है और अलियासफ़ ये याद कर के पछताया और वस्वसा किया कि क्या वो मकर में घिर गया है। उस घड़ी उसे अपनी पूरी हस्ती एक मकर नज़र आई। तब वो अल्लाह की बारगाह में गिड़गिड़ाया कि पैदा करने वाले ने तो मुझे ऐसा पैदा किया जिसे पैदा करने का हक़ है। तूने मुझे बेहतरीन केंडे पर ख़ल्क़ किया। और अपनी मिसाल पर बनाया। पस-ए-पैदा करने वाले तू अब मुझ से मकर करेगा और मुझे ज़लील बंदर के उस्लूब पर ढालेगा और अलियासफ़ अपने हाल पर रोया। उसके बनाए पुश्त में दराड़ पड़ गई थी और समुंदर का पानी जज़ीरे में आ रहा था।
अलियासफ़ अपने हाल पर रोया और बंदरों से भरी बस्ती से मुँह मोड़ कर जंगल की सम्त निकल गया कि अब इस बस्ती उसे जंगल से ज़्यादा वहशत भरी नज़र आती थी। और दीवारों और छतों वाला घर उसके लिए लफ़्ज़ की तरह मानी खो बैठा था। रात उसने दरख़्त की टहनियों पर छुप कर बसर की।
जब सुबह को वो जागा तो उसका सारा बदन दुखता था और रीढ़ की हड्डी दर्द करती थी। उसने अपने बिगड़े आज़ा पर नज़र की कि उस वक़्त कुछ ज़्यादा बिगड़े बिगड़े नज़र आ रहे थे। उसने डरते डरते सोचा क्या मैं मैं ही हूँ और इस आन उसे ख़याल आया कि काश बस्ती में कोई एक इंसान होता कि उसे बता सकता कि वो किस जोन में है और ये ख़याल आने पर उसने अपने तईं सवाल किया कि क्या आदमी बने रहने के लिए ये लाज़िम है कि वो आदमियों के दरमियान हो। फिर उसने ख़ुद ही जवाब दिया कि बे-शक आदम अपने तईं अधूरा है कि आदमी आदमी के साथ बंधा हुआ है। और जो जिन में से है उनके साथ उठाया जाएगा। और जब उसने ये सोचा तो रूह उसकी अंदोह से भर गई और वो पुकारा कि उसे बिंत-ए-अलख़िज़्र तू कहाँ है कि तुझ बिन मैं अधूरा हूँ। इस आन अलियासफ़ को हिरन के तड़पते हुए बच्चों और गंदुम की ढेरी और संदल के गोल प्याले की याद बेतरह आई।
जज़ीरे में समुंदर का पानी उमड़ा चला आ रहा था और अलियासफ़ ने दर्द से सदा की। कि ऐ बिंत-ए-अलख़िज़्र ऐ वो जिसके लिए मेरा जी चाहता है। तुझे मैं ऊंची छत पर बिछे हुए छप्पर खट पर और बड़े दरख़्तों की घनी शाख़ों में और बुलंद बुर्जियों में ढूंडूंगा। तुझे सरपट दौड़ी दूधिया घोड़ियों की क़सम है। क़सम है कबूतरों की जब वो बुलंदियों पर परवाज़ करे। क़सम है तुझे रात की जब वो भीग जाए। क़सम है तुझे रात के अंधेरे की जब वो बदन में उतरने लगे। क़सम है तुझे अंधेरे और नींद की। और पलकों की जब वो नींद से बोझल हो जाएँ। तू मुझे आन मिल कि तेरे लिए मेरा जी चाहता है और जब उसने ये सदा की तो बहुत से लफ़्ज़ आपस में गड्ड मड्ड हो गए जैसे ज़ंजीर उलझ गई हो। जैसे लफ़्ज़ मिट रहे हों। जैसे उसकी आवाज़ बदलती जा रही हो और अलियासफ़ ने अपनी बदलती हुई आवाज़ पर ग़ौर किया और ज़बलून और अलियाब को याद किया कि क्यूँ कर उनकी आवाज़ें बिगड़ती चली गई थीं। अलियासफ़ अपनी बदलती हुई आवाज़ का तसव्वुर कर के डरा और सोचा कि ऐ माबूद क्या मैं बदल गया हूँ और उस वक़्त उसे ये निराला ख़याल सूझा कि ऐ काश कोई ऐसी चीज़ होती कि उसके ज़रिए वो अपना चेहरा देख सकता। मगर ये ख़याल उसे बहुत अनहोना नज़र आया। और उसने दर्द से कहा कि ऐ माबूद मैं कैसे जानूँ कि मैं नहीं बदला हूँ।
अलियासफ़ ने पहले बस्ती को जाने का ख़्याल किया मगर ख़ुद ही इस ख़्याल से ख़ाइफ़ हो गया, और अलियासफ़ को ख़ाली बस्ती और ऊंचे घरों से ख़फ़क़ान होने लगा, और जंगल के ऊँचे दरख़्त रह-रह कर उसे अपनी तरफ़ खींचते थे, अलियासफ़ बस्ती वापिस जाने के ख़्याल से ख़ाइफ़ चलते-चलते जंगल में दूर निकल गया। बहुत दूर जाकर उसे एक झील नज़र आई कि पानी उस का ठहरा हुआ था। झील के किनारे बैठ कर उसने पानी पिया, जी ठंडा किया। इसी अस्ना में वो मोती ऐसे पानी को तकते तकते चौंका। ये मैं हूँ? उसे पानी में अपनी सूरत दिखाई दे रही थी। इस की चीख़ निकल गई और अलियासफ़ को अलियासफ़ की चीख़ ने आ-लिया। और वह भाग खड़ा हुआ।
अलियासफ़ को अलियासफ़ की चीख़ ने आ-लिया था। और वो बे-तहाशा भागा चला जाता था।वो यूं भागा जाता था जैसे झील उस का तआक़ुब कर रही है। भागते भागते तलवे उसके दुखने लगे और चपटे होने लगे और कमर उस की दर्द करने लगी, पर वो भागता रहा और कमर का दर्द बढ़ता गया और उसे यूं मालूम हुआ कि उसकी रीढ़ की हड्डी दोहरी हवा चाहती है और दफ़अ़तन झुका बेसाख़्ता अपनी हथेलियाँ ज़मीन पर टिका दीं।
अलियासफ़ ने झुक कर हथेलियाँ ज़मीन पर टिका दीं और बिन्तुल अख़ज़र कोसों घुमाता हुआ चारों हाथों पैरों के बल तीर के मुवाफ़िक़ चला।
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