आख़िरी कोशिश
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जिसने बेहतर ज़िंदगी की तलाश में अपनी ज़िंदगी के 25 साल कोलकाता में गुज़ार दिए, मगर हासिल कुछ नहीं कर पाया। जैसा वह 25 साल पहले शहर गया था वैसा ही वापस लौट आता है। गाँव में भी उसके सामने बदहाली और ग़रीबी मुंह फाड़े खड़ी रहती है। घर की हालत को लेकर उसका अपने छोटे भाई से कई बार झगड़ा भी होता है। फिर दोनों भाई मिलकर एक नया काम शुरू करने का मंसूबा बनाते हैं।
टिकट बाबू ने गेट पर घसीटे को रोक कर कहा,
“टिकट!”
घसीटे ने घिघिया कर बाबू की तरफ़ देखा। उन्होंने माँ की गाली देकर उसे फाटक के बाहर ढकेल दिया। ऐसे भिक्मंगों के साथ जब वो बिला टिकट सफ़र करें और किया ही क्या जा सकता है?
घसीटे ने स्टेशन से बाहर निकल कर इत्मिनान की सांस ली कि ख़ुदा ख़ुदा कर के सफ़र ख़त्म हो गया। रास्ते भर टिकट बाबुओं की गालियां सुनीं, ठोकरें सहीं, बीसियों बार रेल से उतारा गया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक पैदल भी चलना पड़ा, एक दिन के सफ़र में बाईस दिन लगे मगर इन बातों से क्या? किसी न किसी तरह अपने वतन तो पहुंच गए वतन! पच्चीस बरस के बाद वतन। हाँ पच्चीस ही बरस तो हुए जब मैं कलकत्ता पहुंचा तो काली मिल खुली थी और अब लोग कहते हैं कि इसको खुले पच्चीस बरस से ज़्यादा हो गए। आ गए वतन। हाँ अब फ़ासिला ही क्या है। अगर याद ग़लती नहीं करती है तो दो कोस का कच्चा रास्ता और दो घंटे की बात।
अपना घर! अपने लोग! वो नेअ’मतें जिनका पच्चीस साल से मज़ा नहीं चखा। कलकत्ता में घर के नाम को सड़क थी या दुकानों के तख़्ते या फिर शहर से मीलों दूर ठेकेदार की झोंपड़ियाँ जिसकी ज़मीन पर इतने आदमी होते थे कि करवट लेने भर की जगह न मिलती थी। रहे अपने लोग सो वहां अपना कौन था? सब ग़रज़ के बंदे, बेईमान, हराम-ज़ादे, एक वो साला था भोंदू और दूसरा था भूरा और वो डायन भंगवी जो खोंचे की सारी आमदनी खा गई, वो मिलों के मज़दूर। भाई हैं भाई हैं, मगर मज़दूरी का मौक़ा आया कि हर एक को अपनी अपनी पड़ गई। जहां जाओ कोई दूसरा मज़दूर सिफ़ारिश लिये मौजूद, यहां सिफ़ारिश करने वाला कौन था? जब जेलर ने आ कर मुझे हुक्म सुनाया है कि तेरी मीयाद ख़त्म, तो आँखों से न जाने क्यों आँसू निकल आए। बस एक दम से घर की याद आ गई। घर! क्या चीज़ है?
घसीटे को यक़ीन था कि पच्चीस साल की थकी-माँदी आत्मा को घर पहुंचते ही सुख मिल जाएगा, और घर अब क़रीब था।
स्टेशन से कुछ दूर आ कर घसीटे भौंचक्का सा रह गया। यहां की दुनिया ही अब और थी। खेतों और बाग़ों की जगह एक शक्कर मिल खड़ी धुआँ उड़ा रही थी। जिसकी इमारतें यहां से वहां तक नज़र आती थीं। कच्ची सड़क की जगह अब पक्की सड़क थी और उसके बराबर मिल तक रेल की पटरियाँ बिछी हुई थीं। सड़क ख़ूब आबाद थी। मज़दूरों के बहुत से छोटे छोटे ग़ोल आ जा रहे थे। इतनी देर में कई मोटरें फ़र्राटे भर्ती निकल गई थीं। एक मालगाड़ी छक-छक करती जा रही थी। ग़रज़ कि जुग़राफ़िया इतना बदल गया था कि रास्ता पहचानना बस से बाहर था लेकिन फिर भी घसीटे का दिल इस बात पर राज़ी न हुआ कि मैं अपने स्टेशन पर उतर कर अपने ही क़स्बे का रास्ता पूछूँ। ये आप ही आप एक तरफ़ मुड़ गया। थोड़ी दूर आ कर जब शकर मिल की हदें ख़त्म होने लगीं, और ईख के खेतों और बाग़ों का सिलसिला आ गया। तब उसके दिल ने धड़क कर कहा मेरा रास्ता ठीक है।
डेढ़ कोस चलने के बाद अपने क़स्बे के ताड़ दिखाई देने लगे। ज़रा और चल कर शाही ज़माने की एक टूटी हुई मस्जिद मिली जिसका एक मीनार तो नाचती हुई बेलों से मंढा और जंगली कबूतरों से आबाद था और दूसरा तक़रीबन मुसल्लम ज़मीन पर लेटा काई की मख़्मलीं चादर ओढ़े था। उस पर नज़र पड़ना थी कि बचपन की बहुत सी छोटी छोटी यादें जो कब की भूल चुकी थीं। पच्चीस बरसों के भारी बोझ के नीचे एकदम फड़फड़ा कर तड़प कर निकल आईं और कमसिन देहाती छोकरियों की तरह सामने उचकने-कूदने लगीं। वो ज़माना आँखों के सामने फिर गया जब इस मस्जिद के गिर्द पानी भर जाता और गांव भर के लौंडे नंगे इसमें नहाते थे। उस वक़्त भी ये खड़ा मीनार यूँही खड़ा था और लेटा मीनार यूँही लेटा था।
आगे चल कर बरगद का दरख़्त मिला। ये वो जगह थी जहां हीरा, बफाती, बुलाक़ी, तीनो, नेवला, सूरज, बल्ली और कनवा साला क्या नाम था उसका और कौन कौन सारी की सारी टोली जमा होती थी और दिन-भर सियार मार डंडा उड़ा करता था। वो गढ़य्या के उस पार अमरूद का एक बाग़ था। उस पर कभी कभी लौंडा डाका पड़ा करता था। लौंडे घुस गए और चुपके-चुपके कच्चे-पक्के अमरूद नोच-नोच कर जेबों में भरने लगे। और रखवाला माँ बहन की सुनाता दौड़ा और उधर आनन-फ़ानन में सब हवा हो गए। एक-बार ऐसा हुआ कि लौंडे अमरूद खसूट रहे थे कि उधर से एक फ़क़ीरनी आ निकली जो मिनमिना मिनमिना कर गा रही थी। कुछ लौंडों को सूझी शरारत। वो चुड़ैल-चुड़ैल चिल्ला कर भागे। फिर क्या था। सब सर पर पांव रखकर भागे। बुलाक़ी रह गया। अरे डर के मारे उसकी जो घिग्घी बंधी है और जो लगा है फ़क़ीरनी के सामने हाथ जोड़ने...
घीसटे ये याद कर के बे-इख़्तियार हंस पड़ा।
सूरज दिन-भर का सफ़र तय कर के उफ़ुक़ के क़रीब पहुंच चुका था। धूप में मुलाइमत आ गई थी और हवा में ख़ुश्गवार ख़ुनकी। रास्ते के एक तरफ़ पतावर के हरे-भरे झुण्ड थे। जिनके बीच बीच से बूढ़ी सिरकियाँ सरों को निकाले जवानों की तरह खड़ी होने की कोशिश कर रही थी। दूसरी तरफ़ आसमान के किनारे तक खेतों और अमरूद के बाग़ों का सिलसिला चला गया था। बसेरा लेने वाली मैनाओं और कव्वों का शोर खेतों से वापस आने वाले बैलों की घंटियाँ, हलवाहों की हट-हट, बाग़ों के रखवालों की हो हो, इन सबसे हवा उसी तरह बसी हुई थी, जैसे पतावरों की भीनी-भीनी, मीठी-मीठी ख़ुशबू से मा’लूम होता था कि सारी दुनिया एक बहुत बड़ा घर जिसके रहने वाले या’नी खेत, दरख़्त, हवा, आने वाली सदाएँ और ख़ुशबू, सब क़रीबी रिश्तेदार हैं और ख़ुशी-ख़ुशी मिल-जुल कर रहते हैं।
किसानों का एक जत्था खेतों से वापस आता हुआ मिला। आगे-आगे एक लड़की फटी ओढ़नी सर से लपेटे गाती चली जा रही थी। उसके पीछे हलों को कंधे पर रखे, बैलों को हँकाते छः सात मर्द थे। उन लोगों ने फटे हाल घीसटे की तरफ़ तवज्जो न की। मगर जैसे ही घीसटे की उनमें से एक शख़्स से निगाह मिली। वो बे-इख़्तियार मुस्कुरा दिया जैसे कोई दूर दराज़ सफ़र से आने वाला अपने अ’ज़ीज़ों को देखकर मुस्कुरा देता है।
उधर सूरज उफ़ुक़ के दामन में छिपा और इधर क़स्बा आ गया। इसका निशान एक अक्ल खड़ा ताड़ था जिससे कुछ दूर हट कर आम के दो-चार बूढ़े दरख़्त शाम का धुँदलका ओढ़े किसी याद में खोए खड़े थे। इस मुक़ाम से एक बहुत रूमान भरी याद अंगड़ाई लेकर उठी और घीसटे के पांव थाम लिये। वो बिला इरादा खड़ा हो गया। वो सामने की झाड़ी और गढ़य्या, यहीं दुलारी से छुप-छुप कर मिलते थे। वो भरे जिस्म की जहंना ऐसी दुलारी जिसके न रूठने का ठीक पता चलता था और न मनने का। वहां बैठ कर वो दुलारी का इंतिज़ार करता था, तो दिल में क्या-क्या नक़्शे बनते थे। शहर जाऊँगा, नौकरी करूँगा। दोनों वक़्त चने चबाऊँगा मगर रुपया जोड़ जोड़ कर रखूँगा। फिर जब ढाई सौ रुपया हो जाएगा तो वापस आऊँगा और हीरालाल की तरह एक दम से एक गोई बैल लेकर खेती शुरू करूँगा। उस वक़्त दुलारी मेरी कितनी ख़ुशामदें करेगी। मैं तो कम से कम दो महीने तक उससे बात भी न करूँगा। बस उस जगह टहलते आ जाया करूँगा। वो आएगी ज़रूर और वहां दरख़्त की जड़ पर बैठ, गढ़य्या में ढेले फेंकेगी, गुनगुनाएगी, मेरी तरफ़ कन-अँखियों से देख देख कर हँसेंगी। बड़ी चुड़ैल थी न जाने अब कहाँ है?
घीसटे दरख़्तों के अंदर घुस कर देखने लगा कि पुरानी गढ़य्या अब तक है? हाँ है तो और वो सामने जमुनी का दरख़्त भी है जिसकी जड़ पर वो बैठती थी। क्या ज़माना था।
घीसटे दरख़्तों से निकल कर सड़क पर आ गया और क़स्बे के अंदर चला। मगर अब उसकी चाल धीमी थी। वो उन यादों में ऐसा डूब गया था कि आँखें देखना और कान सुनना भूल गए थे। एका-एकी एक मोड़ पर चौंक पड़ा जैसे कोई बिसरी बात इक-दम याद आ गई हो। यही जगह तो है। हाँ यहीं अब्बा ने दो चाँटे मारकर मेरे गले से शब्बन मियां की क़मीस का बटन नोच लिया था। इधर शब्बन मियां घर के अंदर आये और उधर डाँट लगाई। घीसटे! “घीसटे! घीसटे! किधर मर गया?” टांगें फैला कर दोनों बूट मेरे मुँह की तरफ़ बढ़ा दिये। इनको उतारो, फिर जुराबें उतारो, फिर उंगलियों को तौलिए से पोंछो, फिर जूती ला कर पांव के नीचे धरो... शब्बन मियां की चीज़ें देख देख कर जी चाहता था कि उनमें से दो एक हमारे पास भी होतीं! हमारे पास क्या था? एक फटा कुर्ता पाजामा पहने रहते थे। जब वो बिल्कुल चीथड़े हो जाता तो ख़ां-साहबिन फिर किसी का पुराना-धुराना जोड़ा दे देतीं। “फिर फाड़ लाया? इसके बदन पर तो कांटे हैं। ये कहाँ से खोंचा लगाया? कमीने को कभी तमीज़ न आएगी।” एक-बार शब्बन मियां के कमरे में जो गया तो देखता क्या हूँ कि क़मीस के कफ़ के दो बटन पलंग पर पड़े चमचम कर रहे हैं। इस वक़्त कुछ ऐसे प्यारे मालूम हुए कि मैं चुपके से एक मुट्ठी में दबा लिया। थोड़ी देर में शब्बन मियां चिल्लाने लगे, “एक बटन क्या हुआ? कौन ले गया?” मैंने जी में कहा। मैं लाया हूँ। कहो क्या कहते हो? बटन तो न दूँगा चाहे कुछ करो। बल्कि अब तो तुम्हारे घर का काम भी न करूँगा। सबकी आँख बचा कर बाहर चला आया। मेरी क़मीस में आस्तीन कहाँ थी? मैंने वो बटन गले में इस तरह लगाया कि बटन और ज़ंजीर दोनों चीज़ें बाहर चमचम करें और फिर दिन-भर भूका प्यासा खेतों खेतों घूमता रहा। जब रात आ गयी तब फ़िक्र हुई कि अब कहाँ जाऊँगा। मैं इधर उधर दुबकता फिरता था कि अब्बा ने जो मेरी खोज में लगे थे, देख लिया। “तू शब्बन मियां का सोने का बटन ले आया... सोने का बटन।” दो थप्पड़ पड़े थे कि मैं भागा। सोने का बटन। कलकत्ता में चार पैसे पत्ता मिलता है जितने चाहो इतने ले लो।
छप्परों और नीची-नीची कच्ची दीवारों पर शाम की साँवली रंगत छा गई। फ़िज़ा में हल्की-हल्की ख़ुनकी थी। जिससे दिल को अ’जब सुकून मिलता था। घरों में चूल्हे जल गए थे जिनका धुआँ और सुर्ख़ी छप्परों से निकल निकल कर बिला किसी घबराहट के ऊपर चढ़ रहे थे। पुकारने और ज़ोर ज़ोर से बातें करने की आवाज़ें आ रही थीं जो अपने साथ दिन-भर की तकान को लिये भागी जा रही थीं। द्वारे पर लड़के लड़कियां ऊंचा-नीचा खेल रहे थे और बेहद शोर मचा रहे थे जैसे बसेरा लेते वक़्त जंगली मैनाएं एक घोड़ा दिन-भर दौड़ धूप कर के अभी-अभी थान पर आया था और ख़ुशी से हिनहिना रहा था।
आख़िर मस्जिद आ गई। उसी की बग़ल से घसीटे का रास्ता जाता था। पहली तारीख़ों का हिलाल मस्जिद के एक मीनार से लगा हुआ चमक रहा था। उसे देखकर घीसटे को एक बारात याद आ गई। जो बाजे गाजे लिये मशअ’लें जलाए एक कमज़ोर सी नाव पर, चढ़ी गंगा की ख़ूनी लहरों को पार कर के किनारे आ उतरी थी।
बगिया भी आ गई। उस के पार आबादी से ज़रा निकल कर घर था। घसीटे का दिल उम्मीदों बीम से ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और साथ-साथ ख़ुशी के मारे आँसू निकल पड़े। आँखों के सामने घर की तस्वीर फिर गई। बड़ा सा साफ़ सुथरा लीपा-पोता छप्पर। दो बड़ी-बड़ी अनाज की खट्टियाँ। रात को न मा’लूम कब से उठकर अम्मां का घरड़ घरड़ चक्की पीसना और उस पर गाना। “मोरी छागल न बोले।” दिन को काम काज करके घर आओ और लाख चिल्लाओ, “अम्मां रोटी दे दो, अम्मां रोटी दे दो।”और चिल्लाते-चिल्लाते थक जाओ रो धो कर अम्मां उसी तरह पीसे चली जाती हैं। जब उसका जी चाहता तब उठ कर चूल्हा जलाती जुमिया और शबरातन! ओफ़्फ़ो! दोनों को अम्मां कितना मारती थी। और थीं वो भी दोनों बड़ी हरामज़ादी। कभी जो काम करतीं इधर अब्बा कुल्हाड़ी कंधे पर रखे बकरियां हाँकता घर में घुसता और उधर चिल्लाने लगता। उधर अम्मां पर ग़ुस्सा आया और जोंटे पकड़ कर धोईं-धोईं... वाह री अम्मां जहां किसी का जी ख़राब हुआ उसके जी को लग गई। फिर तो ये है, ‘अरे आ तिरा सर दाब दूं” इधर आ बख़र गजर उतारूं... चांदनी में बैठ कर न खा।” दोनों वक़्त मिलते न चिल्ला। हर वक़त टोटका उतार रही है। आने-जाने वालों से पूछ-पूछ दवा पिला रही है... खाने की कितनी शौक़ीन थी। कच्चे पक्के, गले सडे, खट्टे मीठे जैसे ही आम मिल जाएं बड़े मज़े से बैठ कर सब खा जाती थी। कच्चे पक्के अमरूद, झर बेरियाँ, कैथे और क्या-क्या सब शौक़ से खाती थी मगर बच्चों का खाना उसे बुरा नहीं लगता था। वो क़िस्सा जो हुआ था कि अम्मां को कहीं से गुड़ की भेली मिल गई। उसने ताक़ में रख दी। मैं इधर से आऊँ चुरा कर एक टुकड़ा मुँह में रख लूं। शाम को अब्बा ने जो देखा तो ज़रा सा गुड़ था। वो लगे डकरने। “कौन खा गया?” अम्मां समझ गईं। सहूलियत से बोलीं, “चूहा खा गया होगा...”, “तू खा गई है तो क्या चूहे बिल्ली गुड़ खाते हैं?” अम्मां ने कहा, “क्यों? क्या उनमें जान नहीं है?” मैंने जी में कहा कि देखो जब शहर से कमा कर लौटूँगा तो गुड़ की एक पारी भी लाऊँगा। तब तो यही अब्बा चटख़ारे मारेंगे। “वाह क्या मजा है।” जुमिया और शबरातन आँखें फैला फैला कर तकेंगी। मुँह से पानी छूटेगा।
घर में अब कौन होगा? अब्बा अम्मां भला क्या ज़िंदा होंगे? सत्तर अस्सी बरस कौन जीता है। जुमिया और शबरातन कहीं ब्याह दी गई होंगी। हाँ फ़कीरा तो जवान होगा। भूरे के तो बीवी बच्चे होंगे और बकरियां? ओफ़्फ़ो कल्लू के नातिनों की नातिनें होंगी। कल्लू ज़िंदा हो तो पहचानेगी? जब भूकी होती थी तो मेरी तरफ़ देख देख कर कैसा में... में करती।
(2)
सामने घर है कि नहीं? बग़िया से बाहर आते ही घीसटे के दिल ने धड़क कर बड़ी बे-ताबी से पूछा वो जगह थी वो... हाँ... वहां कुछ है तो ज़रूर।
शुरू तारीख़ों की ओस की मारी बीमार चांदनी में अंधेरे-उजाले का एक ढेर नज़र आया। एक दीवार थी जिसका आधा हिस्सा तो टीले की तरह ढेर था। आधा जो खड़ा था। उस पर एक टूटा फूटा छप्पर था जिसका फूंस धुआँ खाए हुए मकड़ी के जाले की तरह हर तरफ़ झूल रहा था। छप्पर के सामने की तरफ़ चौहद्दी की जगह झाँकड़ों, ताड़ के पत्तों और किसी सूखी बेल का मिला-जुला एक अड़म था जिनके पतले-पतले टेढ़े-मेढ़े साये केचुओं और खनखजूरों की तरह ज़मीन पर बजबजा रहे थे। घर और अपने सन्नाटे में क़ब्रिस्तान था। अंदर न चूल्हा जल रहा था न चिराग़। घर की एक एक चीज़ पुकार पुकार कर कह रही थी कि “हम ख़ुद टुकड़े के मुहताज हैं... तुमको क्या खिलाएँगे?”
यही घर था जहां मुसाफ़िर की थकी माँदी आत्मा को चैन की तलाश थी। घसीटे की उम्मीदों का चमन जिसे वो बाईस रोज़ से पच्चीस बरसों के कुचले अरमानों के ख़ून से सींच रहा था, एकबारगी मुरझा गया। उसका दिल बार-बार शक दिलाता कि ये घर ख़ाली होगा। वो लोग कहीं और उठ गए होंगे, और बार-बार बकरियों के मौत की करान्ध और नाबदान की सड़ांध जो बोझल हवा से दबी हुई घर के गिर्द मुक़य्यद थीं, उन बालू के घरौंदों को ढा देतीं। घसीटे आध घंटे तक जहाँ-तहाँ खड़ा रहा। उसमें इतनी हिम्मत न हुई कि अंदर जाता या किसी को आवाज़ देता।
दूर कहीं पर एक पिल्ला रो रहा था। रफ़्ता-रफ़्ता उसकी आवाज़ से एक तरह की ढारस बंधी और ये खखारा, जवाब न मिलने पर फिर खखारा, बार-बार खखारने पर कोई दबे-पाँव बाहर आया और राज़ दाराना लहजे में बोला,
“अन्दर चली आओ ना।”
इस धोके से घसीटे की हिम्मत और सिकुड़ गई। अब वो सहारा लेने को सच-मुच खखारा, फिर कहने लगा:
“कौन फकीरा?”
“हाँ!”
फकीरा ज़रा चिड़ कर बोला, “तुम कौन हो?”
“ज़रा इधर आओ।”
फकीरा निकल कर क़रीब आया और बोला, “तुम कौन हो? यहां क्या कर रहे हो?”
“ज़रा सुनो तो भाई, तुम फकीरा होना?”
“हाँ, कह तो दिया।”
“तुम यहीं रहते हो।”
घसीटे की आवाज़ में कुछ इतना प्यार था कि फक़ीरा का ग़ुस्सा तो ग़ायब हो गया, मगर उसकी समझ में न आया कि ये शख़्स कौन है और क्या चाहता है। दूसरी तरफ़ घीसटे की समझ में न आता था कि अपने को कैसे पहचनवाए। उसे ख़याल तक न आया था कि अपने घर पहुंच कर ये काम भी करना होगा। आख़िर दिल कड़ा कर के बोला, “मैं बाईस रोज़ का सफ़र कर के आ रहा हूँ... तुम्हारे पास।”
अब भी फक़ीरा कुछ नहीं समझा मगर बिला इरादा उसकी ज़बान से निकल गया, “तो अंदर आओ।”
अंदर आकर घसीटे की हिम्मत बंधी और साथ ही राहत पाने की उम्मीद भी बिला वजह हरयाने लगी। फक़ीरा ने दिया-सलाई खींच कर चिराग़ जलाया। छप्पर के नीचे सात बकरियां और बकरियों के बच्चे बंधे थे। उन्हीं से शायद घराने की रोटी चलती थी। ज़रा इधर हट कर ज़मीन पर एक छीधा टाट बिछा था जिस पर एक मैली सी चीज़ जो शायद कभी रज़ाई हो मगर चीथड़ा हो कर गुमनाम हो गई थी, ओढ़ने के लिए पड़ी थी। घसीटे ने टाट पर बैठ कर कपकपाते चिराग़ की धुँदली रौशनी में फक़ीरा को ग़ौर से देखा। दुबला पतला, आँखें अन्दर धंसी हुई और बे-नूर चेहरे की खाल जूते के चमड़े की तरह खुरदुरी और इस पर दोनों तरफ़ दो लंबी-लंबी झुर्रियाँ, जैसे कच्ची दीवार पर बरखा के पानी की लकीरें। बाल खिचड़ी जिनमें सफ़ेदी ज़्यादा। ये था घसीटे का जवान भाई फक़ीरा! मुसीबतज़दा घसीटा देखने में उससे ज़्यादा जवान था।
घसीटे उसकी तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखकर बोला, “भय्या तुम तो जवानी ही में बुढ़ाए गए।”
फकीरा ठंडी सांस भर कर बोला,
“जवानी तो खिलाई पिलाई से ठहरती है।”
“सच्च है भय्या... भूरा, जुमिया और शबरातन कहाँ हैं?”
अब फक़ीरा ठिटुका, “पहले तुम ये बताओ कि तुम कौन हो...? घसीटे तो नहीं हो।”
“हाँ घसीटे हूँ और कौन। बाईस दिन ठोकरें खा कर आ रहा हूँ।”
भय्या कह कर फक़ीरा उस से लिपट गया। घसीटे ने भी भींच कर उसे लिपटा लिया और जैसे कोई सोता फूट जाये, उसके आँसू धुल धुल बहने लगे। फक़ीरा भी रो दिया... थोड़ी देर तक दोनों रोते रहे। फिर फ़क़ीरा ने अपने आँसू पोंछे और घसीटे को ढारस दिलाई कि “अब न रो, ये तो ख़ुशी की बात है कि तुम घर आ गए। अम्मां को देखोगे?”
घसीटे की आँसूओं से लबरेज़ आँखें हैरत से फैल गईं।
“अम्मां! है क्या?”
“हाँ।”
छप्पर के एक कोने में चिथड़ों का ढेर लगा था। फ़क़ीरा उसकी तरफ़ उंगली उठा कर बोला, “वो पड़ी है।”
घसीटे मुहब्बत और इश्तियाक़ के जोश में उधर भागा।
यहां चिथड़ों के अंबार में दफ़न एक इन्सानी पिंजर पड़ा था जिस पर मुरझाई हुई बदरंग गंदी खाल ढीले कपड़ों की तरफ़ झूल रही थी। सर के बाल बीमार बकरी के दुम के नीचे के बालों की तरह मैल कुचैल में लुथड़ कर नमदे की तरह जम गए थे। आँखें धूल में सोंदी कौड़ियों की तरह बेरंग वीरान हलक़ों में डगर-डगर कर रही थीं। उनके कवे कीचड़ और आँसुओं में लत-पत थे। गाल की जगह एक पतली सी खाल रह गई थी जो दाँतों के ग़ायब होने से कई तहों में हो कर जबड़ों के नीचे आ गई थी। गाल के ऊपर की हड्डियों पर कुछ फूलापन सा था, बदगोशत हो या वर्म! जैसे रोते-रोते वर्म आ गया हो। गर्दन इतनी सूखी थी कि एक-एक रग नज़र आ रही थी। नंगे सीने पर छातियां लटक रही थीं जैसे भिंची हुई उल्टी बंडी की ख़ाली जेबें। चेहरे की एक-एक झुर्री सख़्त घिनावनी मुसीबतों की मुहर थी जिसे देखकर बे-इख़्तियार धाड़ें मार-मार कर रोने को जी चाहता था।
फ़क़ीरा चिराग़ लेकर आया। रौशनी देखते ही बुढ़िया कुछ बकने लगी और दाहिने हाथ की उंगलियों से झूट-मूट का निवाला बना कर अपने मुँह की तरफ़ बार-बार ले जाने लगी। जैसे गूँगा खाने को मांगे। बुढ़िया न मा’लूम क्या कह रही थी मगर सुनने में सिर्फ़ ये आया था... बाब... बाब। बाब बाब।
उसकी आवाज़ ऐसे वीरानी के मारे गांव की याद ताज़ा करती, जहां के रहने वाले आग से जल मरे थे और अब उसके खंडरों में दिन को बंदर चीख़ते और रात को सियार रोते थे।
फ़क़ीरा ने घसीटे की तरफ़ देखकर कहा, “जब उसके पास आओ ये इसी तरह खाना मांगने लगती है। चाहे जितना खिलाओ इसका जी नहीं भरता। मुँह से निकल निकल पड़ता है, फिर भी मांगे जाती है।”
आख़िर घीसटे बड़ी कोशिश से बोला, “अम्मां।”
आवाज़ बता रही थी कि उसका दिल अंदर ही अंदर कराह रहा था।
फ़क़ीरा ने कहा, “न वो सुनती है न समझती है। बस खाने की बात समझती है।”
बुढ़िया का पोपला मुँह धूँकनी की तरह चल रहा था, बाब की आवाज़ निकल रही थी और उंगलियों का बना हुआ निवाला बार-बार मुँह की तरफ़ जा रहा था मगर इन हरकतों पर भी यक़ीन न आता था कि ये पिंजर ज़िंदा है।
ये वही चौड़ी चकली तंदरुस्त अम्मां थी जो मुंह-अँधेरे से दोपहर तक मुसलसल चक्की पीसा करती थी! जिसे दिन रात यही धुन सवार रहती थी कि किसी तरह घर की हालत सँभल जाये। उसने कैसा कैसा अपना जी मारा। ज़रा-ज़रा सी चीज़ के लिए कैसा-कैसा तरसती रही।
घसीटे के दिल में माँ के लिए तरस भरा प्यार उबल पड़ा जो हाथ फैला-फैला कर ये दुआ’ मांगने लगा कि ऐ ख़ुदा इसकी मुश्किल आसान कर और अब तू इसे नापाक दुनिया से उठाले। अगर उस वक़्त घसीटे की आँखें रो देतीं तो उसे सुकून मिल जाता, मगर अफ़सोस आँसुओं जैसी नेअ’मत कोसों दूर थी।
फ़क़ीरा के लिए इस नज़्ज़ारे में कोई ख़ास बात नहीं थी। उसने कहा, “भय्या! तुम ज़रा हाथ मुँह धोलो। मैं खाने-पीने का कुछ सुबीता करूँ।”
फ़क़ीरा भागता हुआ बगिया के उस पार जोगियों के घर से आध सेर ज्वार का आटा उधार मांग लाया और फिर चूल्हा जला कर रोटियाँ पकाने बैठ गया। घसीटे भी चूल्हे के पास आ बैठा और बोला, “इतना आटा? क्या तुमने अभी नहीं खाया?”
“नहीं, आज आटा ख़त्म हो गया था तो मैंने कहा कि एक रात यूँही सही।”
“अब खेती नहीं होती?”
“वो कब की बंद हो गई। अब्बा के मरने के बाद भूरे को जेल हो गई। मैं अकेला रह गया। दो बरस तक तरकारियां वरकारियां बोएँ मगर वो बिकीं बिकाईं नहीं। लगान तक नहीं अदा हुआ।”
“भूरे काहे में पकड़ा गया?”
“सोनी चंद की एक बकरी बेच ली थी। फिर जब जेल से छूट कर यहां आया तो उसकी बीवी दूसरे के घर बैठ चुकी थी। ये फ़ौजदारी करने पर तैयार हो गया। मगर उसकी तरफ़ से कोई काहे को खड़ा होता? दो महीने सबको गालियां देता रहा। फिर एक रात कहने लगा, “फकीरा! मुझसे तो अब तेरी तरह न भूकों मरा जाएगा और न इस गांव में रहा जाएगा। बला से जेल हो जाएगी चार दिन, ऐस तो कर लेंगे...” दूसरे दिन मुँह-अँधेरे कहीं निकल गया... बांके कहता था कि अब फिर जेल पहुंच गया है।”
“जुमिया और शबरातन कहाँ हैं?”
“जुमिया हरामज़ादी किसी के साथ भाग गई। शबरातन का दस कोस पर तकिया वालों में ब्याह हो गया है। एक अमरूद का बाग़ है किसी तरह गुज़र बसर हो जाती है। मगर कभी माँ को नहीं पूछती।”
ज़रा देर ख़ामोशी रही। फिर फ़क़ीरा रोटी के किनारों को अंगारों पर सेंकते हुए बोला, “तुम्हारे जाने के बाद भय्या वह आफ़तें आईं। सब घर मिट गया। वो भी क्या जमाना था, अब्बा कहा करते थे कि “ये सब पले पेट भरे में पेट भरे।” सच कहते थे। उस ज़माने में तो कोई रात ऐसी नहीं गुज़री, जब चूल्हा न जला हो।”
घसीटे लंबी सी ठंडी सांस भर कर चुप हो गया और लपकते कोयलों की तरफ़ तकने लगा जैसे उनमें पुराने दिनों को ढूंढ रहा हो।
फ़क़ीरा ने उस सन्नाटे को तोड़ा, “कहाँ कहाँ रहे घसीटे?”
हम कलकत्ता जाकर ऐसे फंसे कि ख़त पत्तर को भी चार पैसे न बचे। घर याद कर कर के कितनी बार रोना आया। बड़ी कठिन गुज़री वहां, मिलों की ख़ाक छानी, उम्मीदवारी में काम किया, भूत घर में रुई ढोई, हफ़्तों क़ब्ज़ रहता था, चार साल रिक्शा चलाई, फिर खोंचा लगाया। अरे फ़क़ीरा बड़ा कठिन है कलकत्ता में रहना। जिसके दो-चार जानने वाले हों और जिसके पास लेने देने को ज़रा पैसा हो उसके लिए तो वहां सब कुछ है। लेकिन ऐसे वैसों को तो कोई पूछता ही नहीं। वहां तो रोये रुलाई नहीं आती थी। मरने की दुआएं मांगा करते थे।
फ़क़ीरा ने लाल रोटी कपड़े पर रख दी और दोनों टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे।
फ़क़ीरा बोला, “भय्या ज़रा चुपके-चुपके खाओ, अम्मां सुन लेगी तो चिल्ला-चिल्ला कर रात-भर ना सोने देगी।”
घसीटे ने शक और हैरत से फ़क़ीरा की तरफ़ देखा। “तुम तो कहते हो वो बिल्कुल नहीं सुनती।”
“हाँ , मगर न जाने क्या बात है कि खाना खाने की आवाज़ सुन लेती है और खाने की बू भी पा लेती है, और फिर बाब, बाब करने लगती है।”
घसीटे बुझते अंगारों की तरह तकने लगा। उसका हलक़ इतना सूख गया कि मुँह का निवाला बिला पानी के घूँट के न उतार सका।
(3)
घसीटे घर के द्वारे होंटों पर बकरी का मस़्का मिले, धूप में नंगे बदन बैठा, अपने मैले कुरते के चिलवे चुन रहा था। कई रोज़ से हाथों, पैरों और होंटों को चटख़ा देने वाली सर्द हवा के तेज़ झक्कड़ चल रहे थे जिनमें सैकड़ों मील का गर्द-ओ-ग़ुबार भरा था जो नाक और हलक़ में घुस रहा था। खेतों के पौदे और दरख़्त हवा की चोट खा कर झुक जाते थे और बे कसी से अपने पत्ते फड़फड़ाते थे जैसे हवा से फ़र्याद कर रहे हों कि अब तो लल्ला जान छोड़ दे। खेतों में किसान अपनी चादरों को बदन पर समेटे, हाथ पांव सिकोड़े कंधों को आगे झुकाए सू-सु कर रहे थे। हर जगह इतनी उजाड़ उजाड़ थी और हर चीज़ इतनी दुख-भरी कि बे-इख़्तियार जी घबरा घबरा कर कहता था कि चलो कहीं भाग चलें।
घसीटे धूप में बैठा काँप रहा था और कलकत्ता को याद कर रहा था। आने के दूसरे ही दिन वो टूटे फूटे वीरान छप्पर बकरियों के मौत की खरान्द और अपनी माँ की बाब, बाब से घबरा गया था। दिन-भर भूक बहलाना और बकरियां चराना और रात को बर्रे की रूखी-सूखी रोटी और कभी-कभी तो रात को भी फ़ाक़ा फिर यहां की सर्दी! ओफ़्फ़ो! बदन है कि कटा जाता है। ओढ़ने को कहो या पहनने को दो आदमियों के बीच में एक, सबसे बड़ी कोफ़्त ये कि जवानी के पच्चीस साल कलकत्ता में गँवाने के बाद घसीटे को यहां की किसी चीज़ से अब लुत्फ़ न आता था। चौपाल की बातें रूखी-फीकी। गांव की औरतों में शर्म और खिचाव फिर जिस सफेदपोश को देखो थानेदार की तरह अकड़ दिखाता है और फ़क़ीरा? वो तो बात बात में बाप बनता है। सब मुसीबतों से बड़ी मुसीबत ये कि पैसा कमाने का कोई रास्ता नहीं, दमड़ी-दमड़ी के लिए फ़क़ीरा की मोहताजी। हर बात में उसका दस्त-ए-नगर रहना।
घसीटे चिलवे मार रहा था और कलकत्ता से आने पर पछता रहा था। वो दुकानों के तख़्तों पर रात काटना, वो सड़कों पर जो जाड़ों में बर्फ़ की सिल्ली और गर्मियों में दहकता हुआ तवा होती थीं, ख़च्चर की तरह रिक्शा लेकर दौड़ना। वो कभी-कभी तीन-तीन फ़ाक़े कर लेना। अपने घर की इस ज़िंदगी से लाख दर्जा बेहतर था। वो कलकत्ता की एक पैसे वाली सिंगल चाय। वो धेले वाला पान का बीड़ा! वो पैसे की पच्चीस बीड़ियाँ! ये वो नेअ’मतें थीं जिनके लिए वो यहां तरस गया था।
घसीटे ने एक ठंडी सांस भरी और दूर तक फैले हुए मटर के खेतों की तरफ़ देखा। मेरी ज़िंदगी भी क्या ज़िंदगी रही है। पंद्रह सोलह बरस के सिन तक बाप के जज्मानों की मार खाई। खाने पीने को तरसते रहे, फिर हिम्मत कर के कमाने खाने के लिए शहर भागे, वहां महीनों ठोकरें खाईं, कहा चलो कलकत्ता चलो, वहां पहुंचते ही अच्छी सी नौकरी मिल जाएगी और सब पाप कट जाएगा, कलकत्ता के पच्चीस बरस! ओफ़्फ़ो! कोई कोशिश उठा नहीं रखी, रिक्शा तक चलाई, सेठ जी ने कहा कि गाड़ी लेना है तो, जमानती लाओ। मैं किसे लाता? जो वहां के रहने वाले थे एक दूसरे को जानते थे, घराने के घराने रहते थे। जमानती ले आते थे। लछमन बोला, दो आने रोज़ दो तो कलूटा महाजन जमानती हो जाएगा। दो आने रोज़ उसे दिये, फिर भी साले सेठ ने टूटी फूटी गाड़ी दी। उसे दूर ही से देखकर लोग दूर हट जाते थे। जब सेठ से ख़ुशामद करो कि एक अच्छी गाड़ी दे दो तो वो अकड़ कर कहता था कुछ रुपया जमा कराओ ना। रुपया बचता तो कैसे बचता? आमदनी भर तो कलूटा खा जाता था। चार साल दौड़े मगर रहे वही मोची के मोची। बुख़ार जो आया तो किसी तरह गया ही नहीं। अस्पताल में पड़े पड़े महीनों बीत गए, अच्छे हुए तो डाक्टर साहिब ने कहा। अब ख़बरदार रिक्शा न चलाना और न ज़्यादा मेहनत का काम करना। फिर दो रुपया क़र्ज़ उधार कर के पान सिगरेट, दिया-सलाई का खोंचा लगाया। अब जो आता कहता सीज़र लाओ, नेबी कट लाओ, ये लाओ वो लाओ, यहां क्या था? कहते, नहीं है साहिब, नहीं है हुजूर। वो भी तमाशा कुछ दिनों रहा, न बैठने को अच्छी जगह थी न अच्छा सामान था। इस पर जो कुछ भी आया हरामज़ादी भंगोई खा गई, न जाने मुझ साले को औरत रखने की क्या पड़ी थी... लंगोटी में फाग।
घसीटे को अपने ऊपर सख़्त ग़ुस्सा आया और अपने को ख़ूब गालियां देने लगा। इतने में फ़क़ीरा सामने से आया और आते ही कड़ेपन से बोला, “फिर तुमने चुरा कर दूध बेच लिया। अब हमारा तुम्हारा गुज़र नहीं हो सकता। जहां जाना हो चले जाओ।”
घसीटे ने जवाब दिया, “कैसी चोरी? कुछ पागल हो गया है तू? रोज़ का यही क़िस्सा, रोज़ का यही क़िस्सा, बड़ा आया है घर से निकालने वाला। जैसे घर में मेरा हिस्सा ही नहीं और बकरियों में मेरा हिस्सा ही नहीं।”
“घर में हिस्सा, बकरियों में हिस्सा, तू हिस्सा बटाएगा? काम का न काज का, दुश्मन अनाज का। पच्चीस साल कलकत्ता में गंवा कर हमारी जान को आया है, गया था रुपया कमाने!”
घसीटे गर्म हो कर बोला, “कलकत्ता में कमाना कुछ आसान है? तो ख़ुद तो ज़िंदगी-भर क़स्बा से बाहर नहीं गया और चला है कलकत्ता की कमाई की बातें करने। वहां वो कमाता है जिसके दस जानने वाले हों जो उसके लिए तिकड़म लगाएं। वो कमाता है जिसके पास रुपया हो कि कुछ खो कर सीखे। काम कुछ दिनों के बाद आता है कि आप ही आप?”
फ़क़ीरा ने तअ’न से कहा, “हाँ जो यहां से जाते हैं रुपये के ढेर तो लेकर जाते ही हैं। बल्ली जो इतना रुपया लाया है तो कैसे लाया है?”
अब तो घसीटे तिलमिला गया। वो सब कुछ सुन सकता था मगर ये कि उसने कलकत्ता में रह कर कुछ नहीं किया बिल्कुल ही नहीं सुन सकता था। वो चिल्ला कर बोला,
“और तू ने क्या कर लिया है चोट्टा कहीं का। इन बकरियों में, इस घर में क्या मेरा हिस्सा नहीं था? सब का सब बेच कर खा गया। ला मेरा हिस्सा दे। मैं आज ही इस मनहूस गांव से जाता हूँ। बेईमान कहीं का...”
घसीटे से बन नहीं पड़ता था कि अपना सर फोड़ डाले या जान निकाल कर रख दे। क्या करे जो फ़क़ीरा को यक़ीन दिला दे कि कलकत्ते में मैंने कोई कोशिश उठा नहीं रखी।
कुछ यूँही तू-तू मैं-मैं होती रही। फिर फ़क़ीरा बड़बड़ाता हुआ अन्दर चला गया। देर तक वो अंदर से और ये बाहर से बड़बड़ाते रहे।
ये क़िस्सा आज कुछ नया नहीं था बल्कि पूरे चार महीने से हो रहा था। रोज़ यही झगड़ा उठता, रोज़ यही बातें होतीं और रोज़ दोनों इसी तरह बड़बड़ा बड़बड़ा कर चुप हो जाते।
रात जब रूखी रोटी खा कर घसीटे बिस्तर पर बैठ कर हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगा तो फिर एक ठंडी सांस के साथ कलकत्ता की याद आई और वो सोचने लगा कि शायद अब मैं हमेशा के लिए इस उजाड़ गांव में दफ़न हो गया। अब बाक़ी ज़िंदगी इसी तरह बिताना है। काश एक-बार सिर्फ़ एक-बार मेरे पास कुछ पैसा आ जाता जो मैं कुछ दिनों अपनी थकी माँदी आत्मा को सुख दे लेता। चालीस बरस की थकी माँदी आत्मा! मैं ये नहीं कहता कि बड़ा सा घर हो, द्वारे भैंस बंधी हो, कठियों में अनाज भरा हो। घर-वाली हो जो सारी के पल्लू से थाली साफ़ करे, उसमें दाल-भात ला कर सामने रख दे, उसके पांव में मोटे-मोटे कड़े पड़े हों जो बध्धी की तरह आड़े आड़े एक तरफ़ झुके हों जैसे शरमाई साली का सर। बस मुझे तो बस इतना मिल जाये कि अपना एक अलग छप्पर हो, दोनों वक़्त अपनी रूखी सूखी हो। बस अरे हाँ अपने पास कुछ तो हो। अब कहाँ घर-वाली की ख़्वाहिश और कहाँ बच्चों का अरमान। चालीस का सिन होने को आया।
सिन का ख़याल आते ही दिल में एक तेज़ हूक उठी कि अब दो-चार बरस जवानी और है फिर अंधेरा पाख़। जाने कब मौत आ जाए।
एक ज़बरदस्त उमंग उठी कि जैसे बन्ने एक-बार और हाथ पांव मॉरो। थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर उसने फ़क़ीरा को पुकारा, “भय्या फ़क़ीरा!”
फ़क़ीरा प्यार की पुकार सुनकर फ़ौरन पास आ गया। जब वो आराम से बैठ गया और हुक़्क़ा का एक दम ले चुका तो घसीटे बोला, “मैं ये कब कहता हूँ कि मैं कुछ करूँगा ही नहीं। मगर कोई काम भी तो ऐसा हो कि जिससे कुछ मिले। अरे भय्या तुम कहते हो कि कलकत्ता में मैंने पच्चीस बरस भाड़ झोंका, मगर मैं कहता हूँ कि मैं कम से कम इतना तो सीख ही गया हूँ कि कौन काम चल सकता है और कौन नहीं। तुम कहते हो फेरी लगायें, ये करें वो करें, सच कहता हूँ कि उनमें कुछ नहीं धरा है। पैसे वालों के सामने कौन अपना रोज़गार जमा सकता है?”
घसीटे ये कह कर इस तरह ख़ामोश हो गया जैसे अभी बात नहीं हुई। फिर फ़क़ीरा की तरफ़ देखकर बोला, “अगर कुछ मिल सकता है तो उसी तरह जैसे हम कहते हैं। मगर जो हम कहते हैं... वो तो तुम मानते ही नहीं... इसमें तुम्हारा भी भला, हमारा भी भला। कौन जानेगा कि हम कैसे कमाते हैं? और जान भी गया तो क्या? जब हमारे पास पैसे होंगे तो सब हमारी बुराई को भी अच्छाई कहेंगे। जोगियों को देखो, उनके घर हुन बरस रहा है हुन। कहने को हम शरीफ़ और वो रज़ील। मगर कौन किसकी ख़ुशामद करता है? हम ही हैं जो आए दिन दौड़े जाते हैं कि अच्छे मंगलू सेर भर आटा उधार दे दो, दो कंकड़ियां नमक दे दो, ज़रा सी तंबाकू दे दो। वो टाल मटोल भी करते हैं, धुतकार भी देते हैं, मगर हम फिर जाते हैं न जाएं तो करें क्या?”
फ़क़ीरा बैठा चुप-चाप सुनता रहा, घसीटे दम लेकर फिर कहने लगा, “और हम तो कहते हैं कि सब हमको छोड़ भी दें तो क्या? क्या कोई लड़का-लड़की ब्याहने को बैठे हैं हम? हम दोनों चैन से अलग ही रह लेंगे।”
घसीटे ने एकदम से कुछ याद कर के फ़क़ीरा की तरफ़ मा’नी-ख़ेज़ नज़रों से देखा और फिर कहा,
“हाँ तुम्हारा सादी-ब्याह करना है रुपया देखकर सब ही लड़की देने को राज़ी हो जाते हैं और नहीं तो फिर अपनी बिरादरी में न सही किसी और में सही। अरे हाँ! इस तरह तो कहीं भी नहीं कर सकते और फिर ये अम्मां के लिए भी अच्छा है। जब पैसे होंगे तो उनको भी ख़ूब खाने को मिलेगा।”
फ़क़ीरा अब भी कुछ नहीं बोला। इससे पहले भी घसीटे कई बार यही बातें कर चुका था। मगर तब उन्हें सुनकर फ़क़ीरा को ग़ुस्सा आ गया था। रुपये के लिए कहीं शराफ़त बेची जाती है? रुपया है क्या? हाथ का मैल। आज आया तो कल गया और शराफ़त वो धन है जो पीढ़ियों चलता है और ख़र्च नहीं होता है। शरीफ़ फूल का बर्तन है जितना भी कीचड़ में सोंद जाये, जब भी मांझो चमचम करने लगता है और जहां शराफ़त गई फिर आदमी मिट्टी हो जाता है, मिट्टी। माना जोगियों के पास रुपया है, पैसा है, घर गिरहस्ती है, हम ही उनकी ख़ुशामद करते हैं वो नहीं करते, हम ही उनसे रोटी उधार मांगते हैं, वो नहीं। मगर उससे क्या? हाथी लाख लुट जाये फिर भी सवा लाख टके का। हम और वो मुखिया के घर जाएं तो हम तो चबूतरे पर बैठेंगे और वो दूर ज़मीन पर।
फ़क़ीरा पाँच बरस का था जब घसीटे रुपया कमाने शहर भाग गया था, तब से उसके दिल में भी कमाने की तमन्ना पैदा हो गई थी। लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते गए और घसीटे रुपये का गट्ठर लेकर नहीं लौटा, उसकी ख़्वाहिश मरती गई। ग़रीबों को कहाँ पैसा मिलता है। पैसा मिल जाता तो कोई ग़रीब ही क्यों रहता? इस जीवन में बस यही है कि अपना दोज़ख़ पाट लो और मौक़ा मिले तो किसी से हंसी, दिल-लगी करलो, और क्या धरा है? भूरे का हश्र देखकर तो रही सही आस भी गहरी नींद सो गई। लेकिन अब जो घसीटे रोज़ाना शाम को, जब ये दोनों काम-काज से फ़ारिग़ हो कर बैठते, आस जगाने का ये मंत्र इसी मोहिनी से पढ़ता रहा तो रफ़्ता-रफ़्ता फ़क़ीरा की सोई हुई आस चूंकि, अंगड़ाई लेकर उठी और पर पुर्जे़ निकालने लगी। वही फ़क़ीरा जिसे कल तक की कोई फ़िक्र न थी, आज जो माया के मंदिर की राह सुझाई दी तो लगा कुछ और ही सपने देखने, ज़रा ये छप्पर बदल जाता, थोड़ी सी बकरियां और हो जातीं और ज़रा चार-पाँच रुपये इकट्ठे हो जाते तो फिर हमारा घर बस जाता, अरे हाँ अब घर न बसा तो फिर कब बसेगा, वो रमज़ानी की बेवा, आँख मिलाओ तो कैसा हँसती है, उससे आज कहो तो आज घर बैठ जाये, कैसा गदराया बदन है। जैसे पक्का आम। कैसा ठुमक ठुमक चलती है! और कितनी मेहनती है वो। दूध वो दुहे, ओपले वो थापे, दही वो मथे, अकेली झोओं पांस उठा उठा कर खेतों में वो डाले, क्या औरत है! मैंने देर की तो कोई और अपने घर बिठा लेगा फिर में मुँह तकता रह जाऊँगा।
जिस दिन से फ़क़ीरा के दिल में ये ख़यालात गूँजने लगे, वो रमज़ान की बेवा से कनाई काटने लगा। उधर वो सामने दिखाई देती और ये राह कतरा कर निकल जाता। पंद्रह-बीस रोज़ यूँही कट गए। एक दिन ये लकड़ी चीर रहा था कि वो एकबारगी पीछे से आ गई। उसे भागते न बनी, कुछ बातें हुईं, कुछ हंसी दिल-लगी हुई, फिर वही जिसका फ़क़ीरा को धड़का था या’नी उसी दिन उसने घसीटे की बात मान ली।
(4)
अभी पहर रात बाक़ी थी कि घसीटे ने फ़क़ीरा को जगाया। दोनों तारों की मद्धम रौशनी में उठे और एक टोकरे को बाँस से लटका कर एक डोली सी बना ली और उसमें ख़ूब सा पियाल भर दिया और फिर बुढ़िया के पास गए। घसीटे ने एक हाथ गले में और एक कमर में डाल कर उसको छिपकली की तरह उठा लिया। आँख का खुलना था कि वो लगी बाब, बाब, बाब कर के इशारे से खाना मांगने, घसीटे ने पहली बार उसे छुवा था। उसे एक अजीब अज़िय्यत हुई जिससे उसका चेहरा अ’जब हवन्नक़ हो गया। एक तरफ़ तो आँखों में आँसू आ रहे थे और दूसरी तरफ़ बदन के रोएँ खड़े हो गए थे।
घसीटे ने उसे ले जाकर आहिस्ता से जैसे कोई शीशे का बर्तन हो, टोकरे में रख दिया और फिर उसे चीथडों में छुपा दिया।
एक तरफ़ का बाँस फ़क़ीरा ने थामा और दूसरी तरफ़ का घसीटे ने और दोनों घर के बाहर चले। बकरियां उन लोगों को जाते देखकर बे-कसी से में-में करने लगीं। जैसे ये लोग उनको हमेशा के लिए बे-यार-ओ-मददगार छोड़े जा रहे हों।
जब ये दोनों रात के काले काले पर्दों की ओट में मुँह छुपाए हुए गांव के नुक्कड़ पर आ गए तो पौ फटी और नसीम इठला इठला कर चलने लगी। ये ख़ुश थे कि चलो हम नज़रों से बच कर निकल आए कि अचानक एक तरफ़ से एक किसान कंधे पर हल रखे निकल पड़ा और पहचान कर पूछने लगा, “कहाँ चले फ़क़ीरा?”
हवा का ठंडा झोंका फ़क़ीरा के कलेजे को बर्माता निकल गया। उसके कंधे का बाँस काँपा। किसी वजह से घसीटे घबरा कर फ़क़ीरा की जगह ख़ुद बोल उठा, “शबरातन का हाल ख़राब है। अम्मां को लिये वहां जा रहे हैं”।
“अम्मां को लिए?” किसान इतना मुतास्सिर हुआ कि बे-इख़्तियार कह उठा, “शाबाश तुम लोगों को... अपनी महतारी की इतनी सेवा करते हो!”
शहर की जामा मस्जिद में जुमा की नमाज़ का ख़ुतबा शुरू हो चुका था, उस वक़्त फ़क़ीरा और घसीटे ने मस्जिद से ज़रा हट कर, एक गली में आ कर डोली रखी, घसीटे ने बुढ़िया को जो कुंडली मारे टोकरे में सो रही थी, उठा कर टेक लगा कर बिठा दिया और फिर उसके काँपते हुए हाथ को टोकरे में दो चीथड़े बांध कर उस पर रख दिया। ये एहतियात थी इस बात की कि कहीं ऐसा न हो कि बाब-बाब करते वक़्त कहीं हाथ बजाय मुँह की तरफ़ आने का काँप कर किसी और तरफ़ निकल जाये। मगर एहतियात फ़ुज़ूल थी क्योंकि दस बरस से इस हाथ का सिर्फ़ यही काम रह गया था कि मुँह की तरफ़ जा-जा कर इशारे से खाना मांगा करे अब सिवाए इधर के और किसी तरफ़ जाने की हाथ में सकत ही न थी।
बुढ़िया जाग पड़ी मगर वो हिचकोले खाते-खाते और रात रहे से इस वक़्त तक बाब-बाब करते-करते इतनी थक गई थी कि बिला चिल्लाए और खाना मांगे, जैसे बिठाई गई थी वैसी ही बैठी रही। ये तो बुरी रही। सारे किए कराए पर पानी फिरा जाता था, ज़रूरत ईजाद की माँ है, फ़ौरन घसीटे ने लपक कर सामने की हलवाई की दुकान से एक पैसे का जलेबियों का शिरा मांगा। उसने थाल पर चिम्टी हुई भड़ों और भनकती हुई मक्खियों को उड़ा कर थाल एक तरफ़ झुका दिया और जितना शिरा बह आया उसे उंगली से पोंछ पांछ कर एक पत्ते पर टपका कर घसीटे को थमा दिया। उसने लाकर शिरे की एक उंगली बुढ़िया को चटा दी। उसका चटाना था कि वो फ़ौरन बाब-बाब कर के और मांगने लगी।
चलो अ’मल कामयाब रहा। बुढ़िया की कूक हाथ आ गई। घसीटे ने पत्ता फ़क़ीरे को पकड़ा कर हिदायत की कि मौक़े पर बुढ़िया को एक उंगली चटा देना। फ़क़ीरा ज़िंदगी में तीसरी बार शहर आया था। यहां की गहमागहमी, भीड़भाड़ और बड़ी बड़ी दुकानों से वो भौंचक्का हो गया था, अक़्ल चुंधिया गई थी, इसके बरख़िलाफ़ शहर की हवा लगते ही घसीटे की हर बात में ख़ुद-ए’तिमादी आ गई थी। घसीटे मुश्ताक़ पैराक की तरह था जो दरिया में उतरते ही चुहलें करने लगता है और फ़क़ीरा नौ सीखिए की तरह जो पानी देख देखकर सहमा जाता है, घसीटे फ़क़ीरे को हुक्म दे रहा था और वो कल की तरह उसके इशारों पर चल रहा था।
दोनों डोली लेकर मस्जिद के सामने आए। ख़ुदा के घर के सामने इन्सानी कूड़े का ढेर लगा था। कई उंगलियां और बैठी नाक वाले कोढ़ी। मिनमिना कर डरावनी आवाज़ में बोलने वाली आतिशकी बुढ़ियां, चंदे चुपड़े बच्चे जिनके हाथ पांव सूखे और पेट बढ़े हुए थे, जो न जाने क्यों मुसलसल रें रें कर रहे थे, फीके, बे-हया दीदों वाली जवान औरतें जिनके सर पर जूड़ों का जंगल और बदन पर मैल की कहगिल, चीथड़े, ठिकरे, मैल, आख़ूर, बलग़म, नाक, पीप, मक्खियां, जरासीम, फ़रेब, झूट, और उन सबको ढांक देने वाली, लोरियाँ दे देकर, थपक थपककर सुला देने वाली महा पापिन बे-हिसी!
उस समुंदर में घसीटे और फ़क़ीरा ने भी माँ की डोली लेकर ग़ोता मारा। मैल कुचैल हो, चाहे ज़िल्लत हो, हैवानियत हो, चाहे इन्सानियत हो, माया के मंदिर को यही रास्ता जाता है। इस वक़्त जब कि सब दरवाज़े बंद हो चुके हैं। अकेला ये खुला हुआ है। साफ़ और सीधा रास्ता, तन्हा रास्ता, फूटी आँख का दीदा।
डोली रखी ही थी कि पास के एक बुड्ढे फ़क़ीर ने माँ की गाली देकर कहा, “अबे इधर कहाँ आया? भाग यहां से।”
फिर तो आस-पास के सब फ़क़ीर गालियां देने और गुल मचाने लगे। क्योंकि उनकी डोली देखकर हर एक को अपनी रोज़ी की पड़ गई। फ़क़ीरा की तो ये हंगामा देख कर जान ही निकल गई।
उसने झट डोली का डंडा कांधे पर रख वहां से टलना चाहा मगर घसीटे ने देखा कि इन गीदड़ भपकियों से अगर दबा तो फिर इस बिरादरी में घुस चुका। उसने दो-चार माँ बहन की सुना कर कहा, “तुम्हारे बाप की ज़मीन है। चुप रहो, वर्ना सब के सर फोड़दूंगा।”
डाँट सुनते ही फ़क़ीर तो ज़रा ज़रा बड़बड़ा कर चुप हो गए मगर बुढ़ियां उसी तरह काएं काएं करती रहीं। आख़िर एक नमाज़ी ने जो जमात के लालच में दौड़ा जा रहा था, उनको डाँटा, “चुप रहो बद नसीबो नमाज़ हो रही है।”
नमाज़ के ख़याल से या डाँट के डर से, किसी न किसी वजह से ख़ामोशी हो गई। अगर कोई बात न होती तो भी ख़ामोशी हो जाती। क्योंकि इससे ज़्यादा एहतिजाज करने का बूता उन लोगों में था ही नहीं और दूसरे घसीटे भी अब जगह पर पूरा क़ब्ज़ा पा चुका था।
अभी नमाज़ी निकलना नहीं शुरू हुए थे। लेकिन वहां की फ़िज़ा से फ़क़ीरा ऐसा मुतास्सिर हुआ कि उसने बे-समझे बूझे बुढ़िया को एक उंगली शिरा चटा दिया। शिरा लगते ही ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह वो बजने लगी और मशीन की तरह उसके जबड़े और हाथ चलने लगे। उसे देखकर एक दो बरस के बच्चे ने जिसे एक शख़्स फूंक डलवाने को लाया था, गोद में सहम कर ज़ोर से चीख़ मारी और बिसोरने लगा। एक जवान ऐंग्लो इंडियन लड़की हाथ में बटुवा लिए उधर से गुज़र रही थी। उसने जो बुढ़िया को देखा तो एक-बार सर से पांव तक काँप गई।, जैसे ऐसा ही भयानक बुढ़ापा उसका पीछा कर रहा हो। उसने बे-तहाशा दो पैसे निकाल कर बुढ़िया के आगे फेंक दिए। बिल्कुल इसी तरह जैसे कोई बूढ़े कुत्ते के सामने तर निवाला फेंक देता है कि वो हमें भूल कर उसमें जुट जाये। पैसे बुढ़िया के सामने लगे हुए चीथडों के अंबार में डूब कर ग़ायब हो गए। अब घसीटे को अपनी एक ग़लती का एहसास हुआ। भीक कोई उसके हाथ में थोड़ी देगा, देगा बुढ़िया को, इसके सामने कोई चादर होनी चाहिए जिस पर आ कर पैसे गिरें। घसीटे ने जल्दी से अपना अंगोछा बुढ़िया की गोद में फैला दिया।
नमाज़ ख़त्म हुई और नमाज़ी ग़ोल के ग़ोल बाहर निकलने लगे। फ़क़ीरों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। भूका हूँ बाबा, भूका हूँ बाबा, एक फ़क़ीरनी घिघियाने लगी जैसे कोई नई-नवेली बेवा सिसकियाँ भर्ती हो। एक तगड़ा फ़क़ीर हलक़ फाड़ फाड़ कर आवाज़ें लगाने लगा, “जब देगा अल्लाह ही देगा।” फ़क़ीरा भीड़-भाड़, धम धक्का और शोर हंगामे से ऐसा भौंचक्का हुआ कि मुँह फैला कर एक तरफ़ तकने लगा और शिरा चटाना भूल गया। घसीटे ने चिल्ला चिल्ला कर उसे कई बार हुक्म दिया मगर जब देखा कि उसके हवास बिल्कुल ग़ायब हैं तो जल्दी से पत्ता छीन कर ख़ुद ही चटा दिया। शिरे का लगना था कि मशीन फिर तेज़ी से चलने लगी। मगर फिर भी लोग इधर मुतवज्जा नहीं हुए। घसीटे ने फ़ौरन महसूस किया कि क्या कमी है। पहले से उसने कोई सदा तो सोची नहीं थी। जल्दी में उसके मुँह से निकला, “अल्लाह हर आफ़त से बचाए।” इस सदा को इस तरह देने लगा, जैसे कोई वालंटियर ‘इन्क़िलाब ज़िंदाबाद’ कहे, क्यों कि दूसरी लय उसे याद ही न आई। उसकी सदा में अगर तासीर थी तो सिर्फ़ इतनी कि लोग उधर देख लेते थे, देखते ही बुढ़िया पर निगाह पड़ जाती थी। ये दर्द अंगेज़ नज़ारा दिल को वीरानी और वहशत से भर देता था जिसकी दवा सिर्फ़ भीक के चंद पैसे थे। बुढ़िया के सामने पैसों की बारिश होने लगी। आस-पास के फ़क़ीर या तो ख़ाली हाथ या एक एक दो दो पैसे लिये हसरत से उन दोनों नसीबों को तक रहे थे और दिल ही दिल में कुड़ रहे थे कि हमारे पास भी कोई ऐसी ही बढ़िया चीज़ क्यों नहीं है। घसीटे अपनी इतनी कामयाबी देखकर ख़ुशी और ग़ुरूर से मतवाला हो गया। और ख़ूब कड़क कर सदा लगाने लगा। आज ज़िंदगी में पहला दिन था कि जिस पेशे में वो घुसा था उसमें चोटी पर जगह मिली थी। हसरत रही कि कभी ऐसा होता कि जिस पेशे में घुसूं उसका अच्छा सामान, उसका सब ऊंच-नीच मा’लूम हो मगर आख़िर आज दोनों नेअ’मतें मयस्सर आ ही गईं। मेरे पास जो सामने है वो किसी के पास नहीं और मैं सदा भी क्या ख़ूब लगा रहा हूँ। सब ख़ुदा की देन है। आख़िर वो कब तक अपने बंदे का इम्तिहान लेता। देखो पैसे कैसे बरस रहे हैं! तू ही दाता है और तू ही जीवन का खेवन-हार है मालिक। अम्मां ज़िंदगी-भर कोशिश कर मरीं कि कुछ पैसा जोड़ कर घर की हालत सुधारें। एक एक बात के पीछे जान दे मरीं मगर कुछ न हुआ और अब हुआ भी तो कैसी आसानी से ये ख़ुदा के कारख़ाने हैं। हीले रोज़ी बहाने मौत।
सह पहर की सुनहरी धूप में घसीटे और फ़क़ीरा डोली लिये शहर के बाहर एक शाही खन्डर के पास आए। दोनों सारा दिन डोली लादे लादे फेरी लगाते रहे थे, तकान से चूर-चूर थे मगर फिर भी आँखों में इत्मिनान और ख़ुशी मौजें मार रही थी। मस्त थे, गा रहे थे और ज़ोर-ज़ोर से हंस हंस कर बातें कर रहे थे।
एक खन्डर के साये में डोली उतार दी गई। घसीटे ने भीक की झोली खोली। उसमें पाँच-छः आदमियों के खाने भर रोटियों के टुकड़े, दाल-भात और तरकारियां मिली जुली भरी थीं। उन पर एक नज़र डाल कर माँ की गाली दे कर एक तरफ़ फेंक दिया। फिर ज़रा इत्मिनान से बैठ कर एक पोटली खोली जिसमें थी बहुत सी तेल की पूरियां, कई क़िस्म की तरकारियां, सेर भर पच मेल मिठाई, चटपटे कबाब, मूलियाँ और बीड़ी का बंडल। आज के फेरे में पौने दो रुपये मिले थे। जिसमें से डेढ़ की ये सब ख़रीदारी थी और चार आने अभी घसीटे की जेब में उछल रहे थे। घसीटे ने सब नेअ’मतें निकाल कर सामने यहां से वहां चुन दीं। सब मिला कर चार आदमियों भर खाना था। दोनों की ज़िंदगी में ये पहला मौक़ा था कि सामने नेअ’मतों का ढेर था। जिस तरह चाहे खाओ और जो चाहे फेंको। पहले दोनों ने मिठाई की एक एक डली मुँह में डाली और बदहवासी से उनको निगल गए फिर मर भुक्कों की तरह मिठाई पर टूट पड़े। गोया ज़िंदगी-भर की भूक। इसी एक आन में बुझा देंगे। पूरियों की बारी आई, एक एक पूरी का एक एक निवाला। कस-कस कर दो-चार दाँत मारते और फिर गप् से दोज़ख़ में उतार लेते। इस शोर से बुढ़िया जो सो रही थी जाग पड़ी और जागते ही खाना मांगने लगी। अब इन दोनों को वो भी याद आई। घसीटे उसकी तरफ़ प्यार से देखकर हंसा और उसे उठा कर टेक लगा कर बिठा दिया।
“लो आज तुम भी मज़े-दार चीज़ें ख़ालो। कभी काहे को खाई होंगी।”
घसीटे ने कुछ नुकतियां उसके मुँह में दे दीं। वो जल्दी से उनको निगल गई और निगलते ही बदहवासी से बाब-बाब करने लगी। हैरत की बात है कि वो किसी न किसी तरह हाथों पैरों को हिला जुला कर आगे सरक आई। गोया कि चाहती थी एक झपट्टा मार कर सब कुछ एक ही दफ़ा अपने मुँह में भर ले। फ़क़ीरा और घसीटे के लिए दुशवारी ये थी कि ख़ुद खाएँ या उसे खिलाएँ। उधर उसके मुँह में कुछ देते और इधर वो निगल कर मांगने लगती घसीटे झल्लाकर बोला, “लो तुम भी क्या याद करोगी।”
दाँत से काट कर मूली का एक टुकड़ा बुढ़िया के मुँह में दे दिया। बुढ़िया फ़ौरन ख़ुश ख़ुश उसे चबाने लगी मगर चबता क्या वो बार-बार मुँह से निकल आता और फिर किसी न किसी तरह काँपते हाथों से उसे अंदर ठेल लेती।
दोनों फिर अपना पेट पाटने में जुट गए। ज़रा देर में बुढ़िया खांसी। उसके हलक़ में टुकड़ा फंस गया था। आँखें चढ़ गईं और आगे पीछे झूम-झूम कर सूँ सूँ करने लगी। मा’लूम होता था कि अब दम निकला और तब दम निकला। घसीटे उसे मरते देखकर खाना भूल गया और जल्दी से उंगली डाल कर उस के हलक़ से टुकड़ा निकाल लिया। निकलते ही बुढ़िया ने एक चीख़ मारी जैसे किसी ने उसका ख़ज़ाना लूट लिया हो और हलक़ फाड़ फाड़ उसे फिर मांगने लगी। अब घसीटे ने उसे मशग़ूल रखने को हाथ में एक रस गुल्ला पकड़ा दिया। बुढ़िया ने उसे अपनी मुट्ठी में ज़ोर से दबा लिया और मुँह की तरफ़ ले चली। मगर एक तो हाथ काँप रहा था और दूसरे रस गुल्ले की पकड़ बे-तुकी थी, वो किसी तरह मुँह के अंदर न जा सका। रस गुल्ला दब रहा था। उसका शिरा ठुड्डी बाछों से होता हुआ गले पर और गले से छातियों में बह रहा था। बुढ़िया सारी की सारी मीठी हो गई थी।
माँ और बेटे खाते चले जाते थे। न ये थकती थी और न वो। रफ़्ता-रफ़्ता बेटों का हाथ तो सुस्त होता गया मगर माँ का बाब-बाब तेज़ ही होता गया। आख़िर जब घसीटे और फ़क़ीरा में निगलने की बिल्कुल सकत न रही तो दोनों ने बचा खुचा खाना आगे से सर का दिया, और वहीं पड़ कर बीड़ियाँ पीने लगे। बुढ़िया चिल्लाती रही। आख़िर चिल्लाते चिल्लाते थक कर वो भी टोकरे में गिर पड़ी।
फ़क़ीरा बहुत ख़ुश था। उसके दिल में अब तो ये ख़याल तक न था कि अगर कहीं किसी को मा’लूम हो गया तो क्या होगा? अब उसके सामने एक दुनिया थी जिसमें छप्पर नया हो गया था। उसमें एक तरफ़ लिपा पुता चूल्हा था जिसे रमज़ानी की बेवा झुकी हुई फूंक रही थी। जब चिराग़ जले बकरियों का एक बड़ा सा गल्ला लिये वह वापस आता है तो रमज़ानी की बेवा जल्दी जल्दी गर्मा गर्म व सुर्खा-सुर्ख़ रोटियाँ पका कर सामने रख देती है। थाली में (घर में एक फूल की थाली भी आ गई है) एक तरफ़ बकरी का मस़्का भी है फ़क़ीरा ख़ुश था। बहुत ख़ुश।
घसीटे की तबीयत भी ज़ोरों पर थी। ज़िंदगी में पहली बार कामयाबी हुई थी। कामयाबी सी कामयाबी! पौने दो रुपये और सिर्फ़ एक दिन में। पच्चास रुपया महीना ओफ़्फ़ो! अगर हम कहीं कलकत्ते में होते तो वहां कितनी आमदनी होती! फिर जब रुपया हो तो कलकत्ता की ज़िंदगी! सिंगल चाय, बीड़ियाँ, ताड़ी ख़ाना, भुना गोश्त, वो साली नख़रीली रंडियां, वो उनका मटक मटक चलना, गोद में बल खा खा जाना। घसीटे मुस्कुराने लगा। कुछ देर इन्ही ख़यालों में डूबा रहा। फिर ज़रा संजीदा हो गया। सोचने की बात ही थी। फ़क़ीरा ने सारे घर पर क़ब्ज़ा कर लिया है। सब बकरियां अपनी कर ली हैं। हिस्सा मांगा तो ससुरा बिगड़ता है। जी चाहता है सर फोड़ दूं साले का। अब अम्मां में भी हिस्सा बटाएगा... नहीं ऐसा नहीं हो सकता। मैं घर दे दूँगा, बकरियां दे दूँगा, मगर अम्मां को नहीं दे सकता। आख़िर मैं भी तो इसका लड़का हूँ और अब फ़क़ीरा का हक़ ही क्या है? वो सब कुछ तो ले चुका। इतने दिनों तक अम्मां भी उसी की रही, आख़िर मुझे भी तो कुछ मिले। अम्मां को मैं नहीं दे सकता। अगर वो तकरार करेगा तो मारूंगा, सर फोड़ दूँगा हरामी साला फ़क़ीरा!
घसीटे सोच सोच कर खौलने लगा। फ़क़ीरा इतनी देर में ऊँघ गया था। घसीटे ने उसको झिंझोड़ कर जगाया और कहा, फ़क़ीरा सोना बाद को पहले हिस्सा बांट लो। आज ये झगड़ा चुक जाना चाहिए।”
“काहे का हिस्सा बांट?”
“हाँ अब तो कहोगे काहे का हिस्सा। अरे घर का, बकरियों का और जो कमाया है उसका।”
फ़क़ीरा तिलमिला कर उठ बैठा।
“फिर वही घर, फिर वही बकरियां। हज़ार बार कह दिया कि अब्बा का बनाया हुआ छप्पर पंद्रह बरस हुए जब ही सड़ गल कर ख़त्म हो गया था। ये मैंने बनवाया है। और वो बकरियां भी मर खप गईं। ये सब मेरी पाली हुई हैं, चला है हिस्सा बांट करने और इतने दिनों तू जो हमारी रोटी तोड़ता रहा है?”
फ़क़ीरा अब शहर वाला फ़क़ीरा नहीं था। शहर से निकलते ही फिर शेर हो गया था।
घसीटे ग़ुस्से में मगर समझाने के अंदाज़ में कहने लगा, “अच्छा चलो घर तुम ले जाओ और बकरियां भी तुम ही ले जाओ। मगर लाओ हमारी अम्मां को हमें दे दो। इतने दिनों अगर तुमने खिलाया है तो अब हम खिलाएँगे।
“हाँ अब तो तू खिलाए ही गा? पंद्रह बरस मैं पालता रहा। गू, मूत साफ़ करता रहा। तब अम्मां की याद न आयी। अब जो कमाई के क़ाबिल हो गई तो अम्मां तेरी है। तुझे दे दूं? मजाल है तेरी तू ले जाये?”
घसीटे पर भूत सवार हो गया और वो ग़ुस्से में माँ की तरफ़ लपका। जैसे उसको ज़ब्त ही में तो रख लेगा, मगर फ़क़ीरा फ़ौरन कूद कर सामने आ गया और लगा घसीटे को गालियां देने। घसीटे का पारा हद से ऊंचा हो गया। उसने बढ़कर फ़क़ीरे को ज़ोर से धक्का दिया और दौड़ कर बुढ़िया को इस तरह हाथों में दबोच लिया गोया वो कोई गठरी है। जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है फ़क़ीरा बुढ़िया पर झपटा और उसके सर और कमर में हाथ देकर अपनी तरफ़ खींचने लगा। बुढ़िया उस बिल्ली की तरह जिसका बच्चा मर गया हो ओ-ओ कर के हलक़ फाड़ फाड़ रोने लगी। मगर उन दोनों की गालियों और गुल ग़पाड़े के नीचे उसकी आवाज़ दब गई। थोड़ी देर छीना-झपटी हुई थी कि बुढ़िया फ़क़ीरा के हाथों में आ गई थी। न जाने फ़क़ीरा ने ज़ोर कर के छीन लिया या घसीटे ने बुढ़िया के मरजाने के डर से उसे ख़ुद ही छोड़ दिया। मगर फ़क़ीरा जैसे ही उसको गालियां देता पीछे हटा है घसीटे भूके भेड़िये की तरह उस पर फाँद पड़ा। वो तड़ से खड़े क़द नीचे गिर पड़ा। और बुढ़िया चीख़ती, कलाबाज़ी खाती एक तरफ़ जा पड़ी। घसीटे फ़क़ीरा पर चढ़ बैठा और दोनों हाथों से उसका गला घोंटने लगा। फ़क़ीरा का और तो कोई बस नहीं चला वो नीचे से उसके सीने और मुँह पर घूँसे जमाने लगा। घसीटे जैसे जैसे घूँसे खाता वैसे ही वैसे ज़ोर से गला दबाता। आख़िर फ़क़ीरा के हाथ पांव ढीले पड़ गए। घसीटे ने कस-कस कर दो झटके और दिए। फ़क़ीरा की आँखों के डेले गुलों की तरह बाहर निकल आए, मुँह भयानक हो गया और हाथ पांव बर्र गए। अब घसीटे का ग़ुस्सा उतरा और पता चला कि मैंने क्या-किया। वो काँप कर खड़ा हो गया और सकते की सी हालत में फ़क़ीरा को घूरने लगा। उसका चेहरा राम लीला के बेचा की तरह हवन्नक़ हो गया।
थोड़ी देर में घसीटे ने अपने हवास दुरुस्त कर लिये। कलकत्ता में ऐसे ऐसे कई क़िस्से ये देख चुका था। कई बार ऐसा हुआ कि उसके साथियों में आपस में लड़ाई हुई और एक ने दूसरे को मार डाला। डर किस बात का? फ़क़ीरों के मरने-जीने की किसे पर्वा होती है। मर गया... मर गया... हा फ़क़ीरा... नाहक़ मरा। मान लेता मेरी बात। मैंने क्या बुरा कहा था कि इतने दिनों तक अम्मां तुमने रखी है। अब मुझे दे दो। अरे हाँ। मैं भी तो कुछ दिनों ज़िंदगी की बिहार देख लूं। मरके भी तो जान है। मुझे ईंट पत्थर समझा था, जैसा किया वैसा भुगता।
हाँ अब जल्दी से अम्मां को लो और भागो... प्यारी अम्मां... कलकत्ता वहां की भीक का क्या कहना! अब मज़ा लेगा कलकत्ता का।
घसीटे जल्दी से बुढ़िया की तरफ़ मुड़ा। देखा तो वो आधी चित्त आधी पट, मिट्टी के चोंथ की तरह ढेर है, आँखें चढ़ गई हैं। मुँह कुल्हिया की तरह खुला हुआ है और उसमें से रह-रह कर बलग़म और थूक में लिथड़ी आधी चबी आधी पूरी ग़िज़ा निगल रही है। नुकतियां, गुलाब जामुन, पूरी के भीगे हुए टुकड़े। लोंदे के लोंदे। ज़र्द ज़र्द फ़ेन। घसीटी ने बढ़कर हाथ लगाया... बुढ़िया में कुछ नहीं था।
सूरज डूब गया था। खन्डर का हर कोना बलाओं का भट्ट मालूम होता था। पतझड़ हवा के झक्कड़ सैंकड़ों मील से दरख़्तों को ताराज करते मुर्दा पत्तियों को उठा उठा कर पटकते। वहशत-नाक सुरों में साएँ साएँ करते एक तरफ़ से आ रहे थे और दूसरी तरफ़ भागे जा रहे थे। मा’लूम होता था कि हर चीज़ को उड़ा कर ले जाएंगे, घसीटे हक्का बक्का खड़ा था। उसके एक तरफ़ भाई की लाश थी और दूसरी तरफ़ माँ की। दोनों पहलू में उसकी आख़िरी कोशिश की भी लाश थी। जब तक माँ ज़िंदा थी भीक का ठीकरा थी मगर मर कर वो उस के दिल में सच-मुच माँ बन गई थी। ये वही माँ थी जो उसके हर दुख पर बेताब हो जाती थी। उसकी हर ख़ुशी पर अपनी ख़ुशी क़ुर्बान कर देती थी। फ़क़ीरा भी आख़िर भाई ही था। ज़िंदगी का सहारा उसकी याद कलकत्ता की बेकसी में भटके मुसाफ़िर का दीया थी। इन दोनों के मरते ही जो रहा सहा दुनिया का रिश्ता था वो भी टूट गया। समझता था कि अब तो कश्ती किनारे लग चुकी है पेशा मिल गया है और उसका बेहतर से बेहतर सामान हाथ आ गया है। सब कुछ मिल गया था मगर अभी ख़ुद उसके क़ाबिल नहीं बना था... उम्मीद की आख़िरी किरन डूब गई। अब ज़िंदगी की अथाह मुसीबतें, तूफ़ानी समुंदर की तरह आगे पीछे, दाएं बाएं, ऊपर नीचे हर तरफ़ थीं। उसके भयानक भंवर मुँह फाड़े बढ़ रहे थे और पास तिनके तक का सहारा न था।
घसीटे सर झुकाए उफ़ुक़ की तरफ़ चल खड़ा हुआ।
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