आख़री मोमबत्ती
हमारी फूफीजान को तो बुढ़ापे ने ऐसे आ लिया जैसे क़िस्मत के मारों को बैठे बिठाए मर्ज़ आ दबोचता है। मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि बाज़ लोग अचानक कैसे बूढ़े हो जाते हैं। आंधी धांधी जवानी आती है, बुढ़ापा तो धीरे धीरे सँभल कर आया करता है। लेकिन फूफीजान बूढ़ी नहीं हुईं बुढ़ापे ने उन्हें आनन फ़ानन आन दबोचा। जवानी, जवानी से बुढ़ापा। हम जिस वक़्त वहाँ से चले हैं तो उस वक़्त वो अच्छी ख़ासी थीं, गौरी चिट्टी, काले-काले चमकीले घने बाल, गठा हुआ दोहरा बदन, भरी-भरी कलाइयों में शीशे की चूड़ियाँ, पिंडलियों में तंग पाइजामे का ये हाल कि अब मस़्का। लिबास उन्होंने हमेशा उजला पहना। वसली की जूतीयाँ भी ज़्यादा पुरानी नहीं हो पाती थीं कि बदल जाती थीं। हाँ ये ज़रूर है कि नई जूती की एड़ी दूसरे तीसरे दिन ही पटख़ जाती थी, बे-तहाशा पान खाती थीं और बे-तहाशा बातें करती थीं। मुहल्ले के लड़ने वालियों की सफ़ अव़्वल में उनका शुमार था। लड़ने पे तो बस उधार खाए बैठी रहती थीं और उधार उन्हें ख़ूब मिलता था, ज़रा सी बात हुई और बिखर पड़ें। तबीयत में रंगीनी थी। लेकिन न ऐसी कि उछाल छक्का कहलाएँ। बस यही था खुल कर बात करती थीं और बेसाख़ता हँसती थीं। हाँ मैं एक बात और बताता चलूँ। फूफीजान मेरी सगी फूफी नहीं हैं। अपनी वालिदा का फ़िक़रा अगर मुझे ग़लत याद नहीं है तो वो मेरे मरहूम वालिद के चचाज़ाद... या ख़ालाज़ाद... या शायद फूफीज़ाद भाई की बेटी हैं।
हमारे ख़ानदान में सब छोटे उन्हें फूफीजान ही कहते हैं और शायद मेरी तरह किसी को भी ये मालूम नहीं कि उनसे उनका क्या रिश्ता है। वैसे ख़ानदान में सब उनका पास भी करते हैं और उनसे डरते भी हैं। फ़सादाद के मारों की गन्नौर दल के साथ साथ हम चलने लगे तो फूफीजान से ख़ानदान के एक एक शख़्स ने इसरार किया कि पाकिस्तान चली चलो। मगर उनके दिमाग़ में तो ये समा गई थी कि अगर वो चली गईं तो इमाम बाड़े में ताला पड़ जायेगा। ख़ैर, ये बात ठीक ही है। अज़ादारी की सारी ज़िम्मेदारी अब तो उनके सर है ही लेकिन पहले भी इसका इंतिज़ाम वो ही करती थीं। दरअस्ल हमारा जद्दी इमाम बाड़ा इस घर का एक हिस्सा है जहाँ फूफीजान के घर में मेहमानी। ख़ानदान के जो लोग सरकारी मुलाज़मतों पर क़रीब-ओ-दूर के शहरों में गए होते थे उन दिनों ज़रूर घर का फेरा लगाते थे और जिसको कहीं ठहरने की जगह न मिलती थी वो फूफीजान के हाँ जाकर डेरे डाल देता था। हाँ मेरे लिए ये पहला मौक़ा था कि मैं उनके घर जाकर ठहरा। बात ये है कि मेरी ख़ालाएं और मामियाँ इतनी थीं कि मुझे ये तय करना दुशवार हो जाता था कि किस के यहाँ जाकर ठहरूँ। जिसके यहाँ न ठहरो उसी के बुरे बनो। मैंने तो तंग आकर ये दुआ माँगनी शुरू कर दी थी कि अल्लाह मियाँ मेरी ख़ालाओं, मामियों और चाचियों की तादाद में थोड़ी सी कमी कर दे। वो कम तो न हुईं, तितर बितर हो गईं। ब-हर-हाल दुआ क़ुबूल हुई लेकिन मसला फिर भी जहाँ का तहाँ रहा। मुझे यहाँ से चलते वक़्त एक मर्तबा फिर ये सोचना पड़ा कि ठहरना कहाँ है और इस दफ़ा सिवाए फूफीजान के घर के और कोई ठिकाना ही ज़हन में न आया। मैं अभी क्या कह रहा था कि फूफीजान बूढ़ी हो गई हैं। मैं उन्हें देख के चकरा सा गया। बिलकुल ढल गई हैं। बाल खिचड़ी, चेहरे पर झुर्रियाँ, नीचे के दो दाँत झड़ गए हैं, सफ़ेद दुपट्टा और नंगी कलाइयाँ रांडापे के तुफ़ैल हैं, वर्ना पहले तो वो रंगा-चुना दुपट्टा ओढ़े रहा करती थीं और शीशे की रंगीन फंसी फंसी चूड़ियाँ उनकी कलाइयों में खन-खनाया करती थीं। सरोता पे मुझे याद आया कि फूफीजान का पान छालिया का ख़र्च अब बहुत कम हो गया है। उनके घर बीबियों का वो जमघटा भी तो नहीं रहता। पान छालिया का ख़र्च आपसे आप कम होगा। अब उनका सरोता भी कम चलता है और ज़बान भी कम चलती है।
मैं हंस के कहने लगा, “फूफीजान आप तो बिलकुल बदल गईं। किसी से अब लड़ाई नहीं होती।”
फूफीजान तो कुछ न बोलीं। उनके न बोलने पे मुझे भी ख़ासी हैरानी हुई। हाँ शमीम बोल उठी, “लड़ें किस से भंडेलियाँ तो पाकिस्तान चली गईं।”
शमीम सच कहती थी। अब तो अड़ोस-पड़ोस में शरणार्थी ही शरणार्थी नज़र आते हैं। बराबर के मकान में पहले पिंड रावल वाली रहती थी। फूफीजान की या तो उससे लड़ाई ठनी रहती या गाढ़ी छनती थी। अब वहाँ एक सरदारनी रहती है। उससे फूफी जान यूँ भी इक ज़रा दब कर बात करती हैं। फिर बड़ी दिक़्क़त ये है कि सरदारनी ठेठ पंजाबी बोलती है और फूफीजान उर्दू मुहावरे से इन्हिराफ़ नहीं करतीं। कभी कभी हक़ हमसायगी अदा करते हुए सरदानी टूटी फूटी उर्दू में बात कर लेती है और फूफीजान एक-आध लफ़्ज़ पंजाबी का भी इस्तेमाल कर लेती हैं। लेकिन ये तो समझौते की बात हुई और लड़ाई समझौतों से नहीं लड़ी जाती। सरदारनी का जिस्म अब ढल गया है लेकिन लौ अब तक देता है। अजीब बात है कि सरदारनी के लौंडे को ये चमक दमक ज़रा भी विरसा में नहीं मिली है। वो गोरा चिट्टा ज़रूर है, मिट्टी में भी नहीं खेलता, लेकिन उसके चेहरे पे वो शादाबी फिर भी नज़र नहीं आती जो इस उम्र के बच्चों के चेहरे पे खेलती नज़र आया करती है। शायद ये शादाबी और चमक दमक का सारा क़िस्सा मिट्टी ही का क़िस्सा हो। सरदारनी का बच्चा इस मिट्टी की बू-बास से ग़ालिबन अभी मानूस नहीं हुआ है।
वैसे ये मानूस और ना-मानूस का सवाल है टेढ़ा। अब मैं ही हूँ मुझे ये मुहल्ला मानूस भी नज़र आता है और अजनबीयत का एहसास भी होता है। अस्ल में अपने मुहल्ले का रंग-ढंग अजीब ढब से बदला है। उसके क़िस्से से नींदें न उड़ीं मगर है वो अजब तौर ही की कहानी। पहली नज़र में तो तबदीली का एहसास ख़ुद मुझे भी नहीं हुआ था। मैं सुबह मुँह-अँधेरे घर पहुँच गया था। उसे भी अजब बात ही कहना चाहिए कि दुनिया बदल गई, हमारे मुहल्ले का बल्कि हमारे पूरे नगर का तौर बदल गया। लेकिन रेल का वक़्त अब भी वही है। रेल अब भी वहाँ तड़के पहुँचती है। रेल का वक़्त नहीं बदला और स्टेशन वाली सड़क नहीं बदली। मैंने जब से होश सँभाला है दोनों को एक ही वज़ा पे देखा और अब भी दोनों की वही वज़ा नज़र आई। सड़क ख़स्ता पहले ही थी, अब और ख़स्ता हो गई है। कई मर्तबा तो ये हुआ कि ये पता ही ना चला कि इक्का आगे बढ़ रहा है कि पीछे हट रहा है। सामने कई इक्के और भी चले जा रहे थे। सुबह के धुँदलके और उड़ती हुई गर्द में वो भी बस यूँ नज़र आते थे कि चल नहीं रहे हैं बल्कि चर्ख़ खा रहे हैं। कभी-कभी हमवार सड़क आ जाती और सब इक्के पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगते। उनके पहियों के शोर से बे-हंगम और मीठा-मीठा तरन्नुम पैदा होता और पूरी फ़िज़ा पे छा जाता। फिर पहिया अचानक धम से किसी गढ़े में गिर पड़ता और यूँ मालूम होता कि इक्का अब उल्टा और अब उल्टा। सड़क से हट कर टेलीग्राफ़ के तार पर एक शामा चिड़िया इस कैफ़ीयत से अपनी नन्ही सी दुम को गर्दिश दे रही थी गोया उसमें किसी ने पारा भर दिया है। लब-ए-सड़क एक शीशम का घना पेड़ खड़ा था। जिसके सारे पत्ते चिड़ियों के मिठास भरे शोर से बज रहे थे लेकिन चिड़िया कहीं नज़र ना आती थी। इक्का फिर तेज़ी से चलने लगा। मिठास भरा शोर धीमा पड़ता गया, धीमा पड़ता गया और सुबह के उमँडते हुए धीमे राग में हल हो गया। हवा में इक महक पैदा हो चली थी। सड़क से लगी हुई मिट्ठन लाल की बग़ीची थी जहाँ बेला चम्बेली के दरख़्त सफ़ेद-सफ़ेद फूलों से लदे खड़े थे। उनसे वरे एक नीम के नीचे रहट चल रही थी। चबूतरे पर लाला मिट्ठन लाल खड़े थे। नंगे पैर नंगे-सर, बदन पे लिबास के नाम एक बदरंग धोती, गले में सफ़ेद डोरा, एक हाथ में पीतल की गुड़ाई, दूसरे में नीम की दातून।
लाला मिट्ठन लाल के तौर अत्वार में ज़रा भी तो फ़र्क़ नहीं आया है। इसी अंदाज़ से सवेरे मुँह अंधेरे टट्टी और अश्नान को घर से निकल बग़ीची पहुँचते हैं। जंगल से वापसी पर रहट पे बैठ कर पीली मिट्टी से गुड़ाई मांझते हैं, नीम की दातून करते हैं और जितनी दातून करते हैं उतना ही थूकते हैं। लाला मिट्ठन लाल की बग़ीची से बस ज़रा आगे बुरा कर आबादी शुरू होजाती है। बाज़ार भी बंद था। हाँ मोती हलवाई की दुकान खुल गई थी लेकिन चूल्हा अभी गर्म नहीं हुआ था। जलेबियों और कचौरियों के इब्तेदाई इंतेज़ामात हो रहे थे। दुकान के सामने झूटे दोनों, कुल्हड़ों और इल्ला बिल्ला का एक ढेर पड़ा था। जिस पे एक दो कुत्ते बड़ी बेदिली से मंडला रहे थे। मिहतरों ने झाड़ू का सिलसिला अभी बंद नहीं किया था। सड़क पे जाबजा गर्द उड़ रही थी और अपनी गली के नुक्कड़ पे तो इतनी गर्द थी कि थोड़ी देर तक कुछ नज़र ही न आया। बस एक धुँदला सा साया हरकत करता दिखाई देता था। इक्का जब बिलकुल क़रीब पहुँच गया तब मुझे पता चला कि ये झालो मेहतरानी है। उसने मुझे बड़ी रऊनत से देखा और फिर झाडूँ देने में मसरूफ़ हो गई मुझे उसकी इस रऊनत पे पाँच छः साल पहले वाला ज़माना याद आ गया। मैं और वहीद अक्सर अलीगढ़ से इसी गाड़ी से आया करते थे और हर मर्तबा झालो मेहतरानी उसी अंदाज़ से झाड़ू देती नज़र आती। रऊनत से हमें देखती और फिर झाड़ू देने लगती।
वहीद आजकल कराची में है। लेकिन कराची जाकर उसने तो ऐसा चोला बदला है कि ठेठ पाकिस्तानी नज़र आता है। एक्सपोर्ट इम्पोर्ट का काम करता है और गुलछर्रे उड़ाता है। पिछले साल इत्तेफ़ाक़न उससे मुलाक़ात हो गई थी। बड़ी गर्मी में बातें करता था। कराची की रौनक के क़सीदे, तिजारत की नैरंगियों का अहवाल, वो कहता रहा, मैं सुनता रहा। उसके नए रंग को देखकर तो मैं हक्का बक्का रह गया। मोटर की सवारी पर मुनहसिर नहीं, वहीद का तो चोला ही बदल गया है। अमरीकी तर्ज़ की बुशर्ट और पैंट तो ज़ाहिरी ठाट बाट हुए, उसका तो बात करने का लहजा तक बदल गया है। बंदरगाह कराची की हवा की तासीर से मैं नावाक़िफ़ नहीं हूँ। वहाँ मुहाजिर इसी तरह चोला बदलता है। वो या तो किसी फ़ुट-पाथ पे डेरा डाल देता है और समुंद्र की नम हवाओं के सहारे जीता है या फिर छैला बन कर मोटरों में घूमता है। लेकिन वहीद की नई वज़ा क़ता देखकर मुझे वाक़ई बहुत ताज्जुब होता है। मेरा ये अक़ीदा रहा था कि जिसे अलीगढ़ नहीं बिगाड़ सकता उसे दुनिया की कोई बुराई नहीं बिगाड़ सकती।
मैं और वो अलीगढ़ एक साल के फ़र्क़ से पहुँचे थे। बात ये हुई कि मैं मैट्रिक में एक साल लुढ़क गया था। एक साल बाद जब मैं अलीगढ़ पहुँचा तो वहीद में मुझे ज़रा भी तबदीली नज़र न आई। एक मैली काली अचकन के सिवा और कोई नई चीज़ उसे अलीगढ़ से तोहफ़े में नहीं मिली थी। अब भी इसी मेहनत, इसी ज़ौक़-ओ-शौक़ से पढ़ता था। वहीद को हमारी फूफीजान ही ने पढ़ाया लिखाया है।
क़िस्सा अस्ल में ये था कि वहीद की शमीम से मंगनी हो गई थी। उसे मामूली मंगनी भी नहीं कहना चाहिए। यूँ अब मुझे ये लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, फिर भी मैं यही कहूँगा कि कम्बख़्त को शमीम से इश्क़ था। इसके लिए मेरी दलील ये है कि अगर ये मामूली लगाव होता तो अलीगढ़ में जाकर उसका ज़ोर टूट जाता। अलीगढ़ में यारों का अजब तौर था। जिस लड़के ने इम्तेहान के डेढ़ दो महीने किसी लड़की को ट्यूशन पढ़ा दिया, उससे अपनी लगावट का ऐलान कर दिया। जो लड़का किसी नए तालिब-इल्म के साथ तीन दिन मेरिस रोड पर घूम लिया। उसकी ख़बर मुश्तहिर कर दी। अलीगढ़ में इश्क़ कम इश्क़ का चर्चा ज़्यादा था। लेकिन वहीद ने लड़कियों के ट्यूशन किए और मुसलसल किए लेकिन अपनी आन क़ायम रखी। हफ़्ते की छुट्टी आई और वो अलीगढ़ से रस्सा तुड़ा कर भागा। उधर शमीम भी शायद उसकी बाट ही देखती रहती थी। मैं तो जब भी वहीद के साथ गया उस गली के गुज़रते वक़्त यही देखा कि ऊपर की खिड़की से कोई झांक रहा है। शमीम इतनी हसीन-ओ-जमील तो न थी कि उसे हूर और परी कहा जाये, लेकिन उसमें एक अजब सी कशिश ज़रूर थी। छरेरा बदन, लंबा क़द, खिलता हुआ रंग, आँखें... मुझे उन आँखों का ज़िक्र ज़रा ज़्यादा जोश से करना चाहिए। अगर उसकी आँखें ऐसी न होतीं तो वो मामूली शक्ल-ओ-सूरत वाली लड़कियों में शुमार होती। शेअर और अफ़साना किस्म की चीज़ों से मुझे चूँकि कोई रब्त नहीं है। इसलिए मेरे ज़हन में कोई ख़ूबसूरत तशबीह नहीं आ रही। बस कुछ ऐसा तास्सुर पैदा होता था कि केवड़े से भरी दो प्यालियाँ हैं जो छलक जाने को हैं। उसकी पुतलीयाँ गर्दिश करती हुई नहीं बल्कि तैरती नज़र आती थीं। मैंने उसे कई मर्तबा शलवार पहने भी देखा है। लेकिन शलवार तो वो शौक़िया पहन लिया करती थी उसका रोज़मर्रा का लिबास ढीला पाएजामा था और वाक़िया ये है कि ढीला पाएजामा उसके छरैरे बदन और लंबे क़द पे ख़ूब फ़बता था। फूलों की बड़ी शौक़ीन थी। गरमियों में सुबह के वक़्त में जब भी फूफीजान के हाँ गया यही देखा कि शमीम बैठी बेले के फूल गू रही है। जितने फूल कानों में पहन सकती थी कानों में पहन लेती थी। बाक़ी के गजरे पिरोकर कोरे कोरे घड़ों पर फैला देती थी।
मैंने अगर माज़ी का सीग़ा इस्तेमाल किया है तो इससे कोई ग़लत फ़हमी पैदा नहीं होनी चाहिए। शमीम ज़िंदा है। अस्ल बात यूँ है कि मुझे अपना ये पूरा मुहल्ला ही माज़ी का सीग़ा नज़र आता है।अब शमीम को मैं इससे कैसे अलैहदा समझूँ और फिर अब शमीम में वो बात भी तो नहीं रही। उसमें जो अजब क़िस्म की लहक थी उसने एक धीमी धीमी हुज़्निया कैफ़ीयत की शक्ल इख़्तेयार कर ली। शमीम अब ख़ासी झटक गई है उसका छरेरा जिस्म कुछ और ज़्यादा छरेरा नज़र आने लगा है, चेहरा भी सुंत गया है और उसकी आँखों की शादाबी से वो केवड़े वाली कैफ़ीयत अब पैदा नहीं होती, ये अलग बात है कि उसके जिस्म की महक कम नहीं हुई है उसकी आँखों से अब कुछ और ही कैफ़ीयत पैदा होती है मैं उसके लिए “अफ़्सुर्दगी का लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं करूँगा। उसकी आँखों की इस नई कैफ़ीयत के सिलसिले में मुझे ये लफ़्ज़ कुछ हामियाना सा नज़र आता है लेकिन क्या ज़रूरी है कि में कोई तरशा-तरशा या लफ़्ज़ इस्तेमाल ही करूँ। दरअस्ल उस घर की पूरी फ़िज़ा में अब एक अजीब सी कैफ़ीयत रच गई है जिसे मैं लफ़्ज़ों में ठीक तौर से बयान नहीं कर सकता।
फूफा का इंतिक़ाल हमारे जाने के थोड़े दिन बाद ही हुआ था। शायद इस घर का तौर इसी वजह से बदल गया है। हमारे फूफा अच्छे ख़ासे ज़मींदार थे। उनके ज़माने में घर में तर्कारियों की वो रेल-पेल रहती थी कि फूफीजान मुहल्ले वालियों पे ख़ूब ख़ूब इनायत करती थीं और फिर भी तरकारी बहुत सी सूख जाती थी। ख़रबूज़ों की फ़सल पे ये आलम होता कि फूफीजान के घर का आँगन बसंती हो जाता और इधर मीना का छींटा पड़ा, उधर ख़रबूज़ों की आमद बंद और आमों के टोकरों की आमद शुरू । बूँदा-बाँदी का आलम है, सहन में पानी से भरी टब रखी है और उसमें आम पड़े हैं। लेकिन अब तो फूफीजान के आँगन में झाड़ू सी दी रहती है, न ख़रबूज़ों के छिलके नज़र आते हैं, न आमों की गुठलियाँ दिखाई देती हैं, ना गोभी और मूली के पत्ते बिखरे होते हैं। सुबह के वक़्त फूलों के आने का दस्तूर भी बंद हो गया है। शमीम के कानों में बस दो हल्के फुल्के रुपहली बुंदे हलकोरे खाते रहते हैं। फूफीजान के लिबास में तो ख़ैर नुमायाँ फ़र्क़ पैदा हो ही गया है, लेकिन शमीम भी अब उतनी उजली नहीं रहती। इस तबदीली से क़त-ए-नज़र मुझे तो शमीम को वहाँ देखकर ताज्जुब सा हो रहा था। मेरे ज़हन में यही बात थी कि शमीम की शादी हो गई है और वहीद के साथ कराची में है। मैं यही तसव्वुर कर लेता कि शमीम कराची से आई हुई है। मगर उसके चेहरे पे भी तो इस आसूदगी का कोई निशान नज़र न आता था जो शादी के बाद लड़कियों के चेहरों पे पैदा हो जाया करती है।
मैंने मौक़े पर बात छेड़ ही दी। “फूफीजान, वहीद तो आजकल कराची में है ना?”
फूफीजान उस वक़्त गेहूँ साफ़ कर रही थीं। सहन में छोटा सा टाट बिछा था। उसपे गेहूँ का एक ढेर पड़ा था और फूफीजान छाज में थोड़े-थोड़े गेहूँ डाल कर फटकतीं, बीनतीं और अलग एक ढेर लगाती जातीं। मेरे फ़िक़रे का उन पे कोई शदीद रद्द-ए-अमल तो नहीं हुआ, वो उसी तरह कंकरीयाँ बीनती रहीं। हाँ लहजे में फ़र्क़ ज़रूर पड़ गया। लहजे की ये कैफ़ियत ग़ुस्से और अफ़्सुर्दगी के बैन-बैन थी। कहने लगीं, “ख़ाक डालो कम्बख़्त पे, हमारी बला से वो कहीं हो।”
मैं और चकराया। पहले तो मैं चुप रहा कि फूफीजान ख़ुद ही खुलेंगी लेकिन वो तो उसी तरह गेहूँ के ढेर पर झक्की रहीं। फिर मैंने ही बात चलाई, “तो शमीम...”
फूफीजान मेरी बात काटते हुए बोलीं। “अरे भइया उसने तो करांची जाके तोते की तरह आँखें फेर लीं। कोई चलती फिरती मिल गई उससे ब्याह कर लिया।” उन्होंने छाज उठाया और आहिस्ता से दो दफ़ा गेहूँ फटक कर फिर कंकरीयाँ बीननी शुरू कर दीं। कंकरीयाँ बीनते-बीनते उसी तरह छाज पे नज़रें जमाए हुए वो फिर बोलीं, “डूबा हमारा तो लहना ही ऐसा है मिटे को पढ़ाया लिखाया, पाला परवरिश किया और उसने हमारे साथ ये दग़ा की... याँ से कह कै गया कि कराँची जाते ही ख़त भेजूँगा। ले भइया उसने तो वाँ जाके ऐसी केंचुली बदली। दुनिया-भर के फ़ेल करने लगा।”
फूफीजान चुप हो गईं। उनकी नज़रें उसी तरह गेहूँ की ढेरी पर जमी हुई थीं। ढेरी के दानों को आहिस्ता-आहिस्ता फैला तीं, कुरेदतीं और कंकरीयाँ चुन के एक तरफ़ फेंकती जातीं। कंकरीयां चुनते-चुनते वो फिर आहिस्ता से ठंडा साँस भरते हुए बोलीं, “ख़ैर, हमने जैसा किया हमारे आगे आएगा।” और उन्होंने छाज में गेहूँ डाले और ज़ोर से फटकने शुरू कर दिए।
“कम्बख़्त गेहूँ में निरा कूड़ा है। आधे जौ मिले हुए हैं।” और उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से गेहूँ फटकने शुरू कर दिए।
मेरा वहाँ एक हफ़्ते क़ियाम रहा। मगर फिर कभी ये ज़िक्र नहीं निकला। दुखते हुए घाव पे एक मर्तबा में उंगली रख चुका था। दुबारा उसकी जुर्रत न हुई। फूफीजान ने ख़ुद ये ज़िक्र छेड़ा नहीं मगर ऐसा भी नहीं है कि वो उसे भूल बिसर गई हों। उनकी चुप-चुप, उनके पूरे तर्ज़-ए-अमल से ये ज़ाहिर होता था कि ये फोड़ा हर वक़्त दुखता है, दर्द करता है। शमीम उस हद तक तो मुतास्सिर नहीं मालूम होती थी।
इस घर की चहल-पहल न जाने कहाँ रुख़स्त हो गई थी। घर में सारे दिन ख़ामोशी सी छाई रहती। बातें होतीं तो ख़ामोशी का तास्सुर और गहरा हो जाता। फूफीजान अक्सर बेमानी तौर पर बावर्चीख़ाने से सहन में और सहन से किसी कमरे में जातीं और ख़्वाह-म-ख़्वाह की मसरूफ़ियतें पैदा करतीं और यूँ मालूम होता कि ये फूफीजान नहीं हैं, फूफीजान का साया इस घर में मंडला रहा है। मुझे ख़फ़क़ान होने लगता और मैं बाहर निकल जाता। बाहर गली में शरणार्थियों के साए चलते फिरते नज़र आते और ख़ामोश गली बदस्तूर ख़ामोश रहती।
उसे परमिट सिस्टम की सितम ज़रीफ़ी से भी ताबीर किया जा सकता है। वैसे मैं उसे इत्तेफ़ाक़ ही कहूँगा कि वहाँ से मेरी रवानगी ठीक यक्म मुहर्रम को हुई। ये पिछले साल की बात है। पिछले साल चांद २९ का हुआ था। २९को सारे दिन फूफीजान और शमीम इमाम बाड़े की झाड़ पोंछ में मसरूफ़ रहीं। शमीम को मजलिसों, ज़यारतों और नौहे मरसिए से पहले भी बड़ा लगाव था। लेकिन अब तो यूँ मालूम होता है कि उसने अपने को अज़ादारी ही के लिए वक़्फ़ कर दिया है। किस इन्हिमाक से वो सारे काम कर रही थी। फूफीजान ने तो बस वाजिबी वाजिबी काम किया। बाक़ी इमाम बाड़े को पोतने, अलमों को धोने, पाक करने, सजाने और झाड़-फ़ानूस के झाड़ने साफ़ करने के सारे काम शमीम ही ने किए। मैं हैरान रह गया। इस काम में न जाने कौन-कौन फूफीजान का हाथ बटाता था और आज सारा काम शमीम कर रही थी।
मैं तीसरे पहर को बाहर निकल गया। क़दम ख़्वाह-म-ख़्वाह स्टेशन की तरफ़ उठ गए। प्लेटफ़ॉर्म पे ख़ामोशी छाई हुई थी। पटरी के दर्रे दरख़्तों पे कहीं-कहीं मुरझाई हुई धूप फैली दिखाई देती थी। एक दरख़्त पे बहुत से कव्वे बैठे थे। जो मुसलसल शोर किए चले जा रहे थे। कभी कभी कोई कव्वा घबराहट के आलम में शाख़ों से निकल कर फ़िज़ा में बुलंद होता और बैठे हुए कव्वों की मुज़ाहमत के बावजूद फिर उसी शाख़ पे बैठने की कोशिश करता और कामयाब रहता। मुझे ख़्याल आया कि आज ग़ालिबन चाँद-रात हो जाएगी, मुहर्रम की तक़रीब से लोगों को आना चाहिए। पहले तो हर साल यही होता था कि चाँद-रात हुई, परदेस में गए हुए लोगों के आने का ताँता बंध गया। इतनी देर में रेल के आने की घंटी बजी। थोड़ी देर के लिए प्लेटफ़ॉर्म की ख़ामोश फ़िज़ा में एक गहमा गहमी हो गई। गाड़ी आई, चंद मिनट ठहरी, आने वाले उतरे, जाने वाले सवार हुए, जानी-पहचानी सूरत बिराजने वालों में दिखाई दीं न सिधारने वालों में। गाड़ी रवाना हो गई। प्लेटफ़ॉर्म ख़ाली होने लगे। मैं प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकल कर घर की तरफ़ हो लिया।
शाम हो चली थी। दिन का उजाला मद्धम पड़ता जा रहा था। ताशों की आवाज़ ने गली की फ़िज़ा में हल्की सी गर्मी पैदा कर दी थी। कल्लू और शराफ़त ताशा बजा रहे थे। कल्लू जूते बनाने का काम करता है और शराफ़त आजकल चुंगी की चौकी पे मुंशी लगा हुआ है। बर में सिया क़मीसें, गले में ताशे, हाथों में क़मचियाँ। तीसरा ताशा शराफ़त के छोटे भाई के गले में था। मगर उसकी क़मची बार-बार ग़लत पड़ती थी और ताशे की बनी बनाई गति बिगड़ जाती थी। मैं सोच रहा था कि अभी ताशा बजना शुरू हुआ है। घर से और लोग निकलेंगे, किसी के गले में ताशा होगा, कोई महज़ देखने वाला होगा और फिर एक लंबा जलूस बन जाएगा जो गलियों और महल्लों में गश्त करता हुआ सारे इमाम बाड़ों में पहुँचेगा और मुहर्रम की आमद का ऐलान करेगा। हर साल यही हुआ करता था। मगर बहुत देर हो गई और सिवाए चंद बच्चों के इस मुख़्तसर गिरोह में कोई इज़ाफ़ा न हुआ। एक बड़े मियाँ कहीं बाहर से लाठी टेकते हुए आ रहे थे। ताशों को सुनके रुके, पूछा। “भाई मुहर्रम का चांद देख गया?”
“हाँ जी देख गया,” एक छोटे से लड़के ने जवाब दिया।
बड़े मियाँ ने ऐनक माथे पर बुलंद की, चंद मिनट तक ताशे वालों को तकते रहे और फिर लाठी टेकते हुए आगे बढ़ गए और घर में दाख़िल हो गए।
रफ़्ता-रफ़्ता कल्लू और शराफ़त के हाथ धीमे पड़ने लगे। वो आगे बढ़ लिए, आगे-आगे शराफ़त और कल्लू, पीछे चंद बच्चे और ये जुलूस गली से निकल कर किसी दूसरी तरफ़ मुड़ गया। गली में फिर ख़ामोशी छा गई।
मैं जब घर में दाख़िल हुआ तो अंधेरा छा चुका था। इमाम बाड़े में रौशनी हो रही थी। झाड़ फ़ानूस अपने इसी पुराने एहतिमाम से जिगर-जिगर कर रहे थे। फ़र्श पे जाजिम बिछी थी जिस पे जा-बजा सुराख़ हो रहे थे। मेज़ पर चढ़ा हुआ सिया ग़लाफ़ भी ख़ासा बोसीदा नज़र आ रहा था। उसके बाएं सिम्त जो क़ालीन बिछा हुआ था वो बोसीदा तो नहीं मैला ज़रूर हो गया था। शमीम अगर-बत्तियाँ जला जला कर ताक़ों के सुराख़ों में उड़स रही थी। सर से पैर तक सिया लिबास पहन रखा था, सिया ढीला पाएजामा, सिया क़मीस, सिया जॉर्जट का दुपट्टा। शीशे की नाज़ुक आसमानी चूड़ियाँ उतार दी थीं। लेकिन वो रुपहले बुंदे उसी तरह कानों में लहरा रहे थे।
मुझे देखकर उसने आवाज़ दी, “भाई जान अलमों की ज़यारत कर लो।”
दरवाज़े में जूते उतार कर मैं अंदर दाख़िल हुआ। अलम अंदर अज़ा-ख़ाने में सजे हुए थे जिसका दरवाज़ा मिंबर के बराबर खुलता है। मैंने काला पर्दा उठाया और अंदर चला गया, मुझे ऐसा लगा कि गीली ज़मीन पे चल रहा हूँ। अज़ा-ख़ाने का फ़र्श कच्चा है, वो आज ही लीपा गया था। वहाँ अंधेरा तो नहीं था चंद एक मोमबत्तियाँ ताक़ों में जल रही थीं। दो ज़र्द सुर्ख़ मोमबत्तियां अलमों की चौकी पे भी जमी हुई थीं, लेकिन उनकी रौशनी को उजाला तो नहीं कहा जा सकता था। अलमों की चौकी पे मोम-बत्तियों के बराबर मिट्टी की प्याली में लोबान सुलग रहा था। चौकी पे एक क़तार में अलम सजे रखे थे। मुख़्तलिफ़ क़द की छड़ें, मुख़्तलिफ़ रंग के पटके।
मुख़्तलिफ़ धातों के बने हुए मुख़्तलिफ़ शक्लों के पंजे। कई एक अलमों पे फूलों के गजरे पड़े थे। एक सोने का छोटा सा अलम सबसे ज़्यादा चमक रहा था। सोने का पंजा, सुर्ख़ रेशमी मलमल का पटका, चम्बेली के फूलों का नाज़ुक पतला सा हार। अलग एक कोने में लकड़ी का एक झूला रखा था। ये झूला छः की शब को हमारे इमाम बाड़े से निकलता है। सब्ज़, सुर्ख़ और सिया पटकों में लिपटे हुए जगमगाते हुए अलम, मोम-बत्तियों की हल्की धीमी रौशनी, लिपि हुई गीली मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू, लोबान से उठता हुआ हल्का-हल्का ख़ुश्बूदार धुआँ, इन सब चीज़ों ने मिलकर एक पुर-असरार सी फ़िज़ा पैदा कर दी थी। एक अजीब सी कैफ़ीयत मेरे हवास पर छाती जा रही थी। मैंने जल्दी से अलमों की ज़ियारत की और बाहर जाने के लिए मुड़ा। लेकिन शमीम ने टोक दिया। “भाई जान दुआ तो मांग लीजीए।”
उस वक़्त मेरे जी में न जाने क्या आई। मैं बे-इख़्तियार उसके क़रीब पहुँच गया और आहिस्ता से बोला, “इन अलमों ने जब तुम्हारी दुआ क़ुबूल न की तो मेरी दुआ क्या क़ुबूल करेंगे।”
शमीम एक दम से सर से पैर तक काँप गई। उसने फटी-फटी आँखों से मुझे ग़ौर से देखा और सहमी हुई आवाज़ में बोली, “भाई जान आप तो बिलकुल वहाबी हो गए।” वो तेज़ी से बाहर निकल गई।
ग़र्रा ख़ाने से बाहर निकला तो क्या देखता हूँ कि शमीम मिंबर के दूसरी तरफ़ एक ताक़ पे झुकी खड़ी है, पुश्त मेरी तरफ़ है और चेहरा तक़रीबन आधा ताक़ के अंदर... एक हाथ में जली हुई मोम-बत्ती जिसे ग़ालिबन इसलिए झुका रखा है कि मोम के गर्म क़तरे ताक़ में टपकाकर उन पे मोम-बत्ती को जमा दिया जाये, लेकिन मोम-बत्ती की गर्म-गर्म बूँदें ताक़ पे गिरने की बजाय आहिस्ता-आहिस्ता जाजिम पे गिर रही थीं।
इमाम बाड़े से मैं आहिस्ता से निकल आया। ऊपर पहुँचा तो शायद फूफीजान मेरा इंतिज़ार ही कर रही थीं कि फ़ौरन ही खाना ला के चुन दिया। मैं खाना खा रहा था और वो बराबर आ बैठी थीं। अगर वो उस वक़्त बहुत चुप-चुप थीं तो इसमें मेरे चौंकने की ऐसी क्या बात थी। मैंने उन्हें इन सात दिनों में चहकते किस दिन देखा था जो उनकी ख़ामोशी पे चौंकता। मैंने ध्यान नहीं दिया और खाने में मसरूफ़ रहा। थोड़ी देर में क्या देखता हूँ कि फूफीजान घुटने पे सर रखे रो रही हैं।
“फूफीजान क्या हो गया?” मैं वाक़ई घबरा गया और खाना वाना सब भूल गया।
वो हिचकियाँ लेते हुए बोलीं, “भइया अब तुम्हारे इमाम बाड़े में ताला पड़ेगा।”
“आख़िर क्यों ताला पड़ेगा। आप जो यहाँ हैं।”
“मैं राँड दुखिया क्या करूँ। “ फूफीजान भराई हुई आवाज़ में कहने लगीं
“मर्दानी मजलिस बंद हो गई, न कोई इंतिज़ाम करने वाला था न कोई मजलिस में आता था... और भइया बुरा मानने की बात नहीं है। पाकिस्तान वालों ने ऐसा ग़ज़ब किया है कि जब से सिक्का बदला है किसी ने फूटी कोड़ी जो मुहर्रमों के लिए भेजी हो।”
फूफीजान ने दुपट्टे से आँसू पोंछे। उनकी रिक़्क़त ख़त्म हो गई थी। अब वो सँभले हुए अंदाज़ में बातें कर रही थीं, अगरचे उसमें हल्का हल्का दुख अब भी झलक रहा था।
“तुम्हारे फूफा ज़िंदा होते तो कोई बात न थी मगर अब तो ख़ुद हमारा हाथ तंग है। हाथ पैरों से हाज़िर हूँ।” वो ज़रा चुप हुईं, ठंडा साँस लिया और बोली। “अब तो भइया मेरे हाथ पैर भी थक गए। शमीम का दम है कि इतना वितना इंतज़ाम हो जावे है मगर शमीम हमेशा मेरे कूल्हे से लगी थोड़ा ही बैठी रहेगी।” फूफीजान बात करते करते रुक गईं।
वो फिर किसी ख़्याल में खो गई थीं। लेकिन चंद ही लम्हों बाद वो फिर बोलीं। उनकी आवाज़ अब और धीमी पड़ गई थी और यूँ मालूम होता था कि वो मुझसे नहीं बल्कि अपने आपसे कह रही हैं। “जवान लौंडिया को कब तक लिए बैठी रहूँ, कोई बुरा-भला लड़का मिले तो वहीं आ जाऊँगी और क्या करूँ।”
फूफीजान फिर उसी कैफ़ीयत में खो गईं। मैं क्या बोलता, चुप बैठा रहा। इतने में शमीम आ गई और इतने दबे-पाँव आई थी कि मुझे उसकी आहट भी तो न हुई। बस वो अचानक आहिस्ता से फूफीजान के पास आ खड़ी हुई। शायद वो मुझसे आँख भी बचा रही थी। वो आहिस्ता से फूफीजान से बोली, “अम्मी जी बीबिएं आ गईं, चल के मजलिस शुरू करा दीजीए।” और इस फ़िक़रे के साथ साथ उसने एका एकी उड़ती सी नज़र से मुझे देखा। उसकी आँखों में उदासी का रंग और गहरा हो गया था।
सुबह रुख़स्त होना था। सुबह की रुख़स्त बड़ी तकलीफ़-दह होती है। सफ़र की फ़िक्र में रात-भर नींद नहीं आती। मैं सवेरे ही से सो गया था। लेकिन बारह बजे के क़रीब फिर आँख खुल गई। नीचे इमाम बाड़े में मजलिस जारी थी और तो कुछ समझ में ना आता था मगर थोरी-थोड़ी देर बाद एक मिसरा ज़रूर सुनाई दे जाता था।
आलम में जो थे फ़ैज़ के दरिया वो कहाँ हैं।
कई औरतें मिलकर पढ़ रही थीं, लेकिन शमीम की आवाज़ अलग पहचानी जाती थी। ये मर्सिया वो पहले भी बड़ी ख़ुश्गुलूई से पढ़ती थी। अब उसकी आवाज़ में ज़्यादा सोज़ पैदा हो गया है, एक ग़ुनूदगी की कैफ़ीयत फिर मुझपे छाती चली गई।
मैं न जाने कितनी देर सोया, शायद ज़्यादा देर नहीं क्योंकि जब दुबारा आँख खुली है तो मजलिस अभी ख़त्म नहीं हुई थी, हाँ ख़त्म हो रही थी। कहीं बहुत दूर से, शायद ख़्वाब की वादी से, सोज़ में डूबी हुई एक नर्म और शीरीं आवाज़ आ रही थी।
आलम में जो थे फ़ैज़ के दरिया वो कहाँ हैं।
आवाज़ में अब वो उठान नहीं थी वो डूबती जा रही थी, फिर वो आहिस्तगी से ख़ामोशी में घुलती चली गई। रात ख़ामोश थी। हाँ थोड़ी-थोड़ी देर बाद ज़ोर से किसी नौहे की आवाज़ हवा की लहरों के साथ बहकती हुई आ जाती और फिर कहीं खो जाती। अलबत्ता ताशों की मद्धम आवाज़ मुसलसल आ रही थी। शायद किसी इमाम बाड़े में मातम हो रहा था। नीचे हमारे इमाम बाड़े में भी सुकूत टूट चुका था और औरतों के आहिस्ता आहिस्ता मातम करने और आँसूओं से धुली हुई मद्धम आवाज़ों में “हुसैन-हुसैन” का सिलसिला शुरू हो चुका था।
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