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आलिया

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    ‘‘इंटरव्यू वाले रोज़ मै वेटिंग रूम में बे-चैनी से अपनी बारी का इंतिज़ार कर रहा था कि दफ़अतन एक तवील क़ामत और क़दरे पतली जसामत वाली एक जवान ख़ातून झट से अंदर आगई और मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। उसने निसबतन चुस्त लिबास पहन रखा था और सफ़ेद रंग का पुतला दुपट्टा गले में लटकाया हुआ था। उसके जूते अर्ग़वानी रंग के थे और उसके एक हाथ में सफ़ेद हैंड बैग और दूसरे हाथ में ख़ाकिस्तरी रंग की एक फाईल थी।

    मेरी दिलचस्पी उस ख़ातून में कुछ ऐसी बढ़ी कि मैं इंटरव्यू के मुतअल्लिक़ सब कुछ भूल भाल गया और मैं जो कुर्सी में ढीला बैठा था, तन कर और ज़रा आगे झुक कर बैठ गया।

    अब जो मैं ने ग़ौर किया तो देखा कि उसने अपने पुतले और नाज़ुक होंटों पर हल्के रंग की सुर्ख़ी लगाई हुई थी और उसके कानों में चांदी की दायरा-नुमा बड़ी बड़ी पतली बालियां थीं।

    सच पूछो तो मुझे उसके लिबास, होंटों की सुर्ख़ी, बालियों और जूतों के रंग में कोई ख़ास रब्त समझ में नहीं आया लेकिन उन लड़कियों के फ़ैशन वग़ैरा--- मुनीब भाई तुम्हें तो पता ही है।

    ख़ैर जिस बात पर मैं चौंका वो ये थी कि मेरी तेज़ नज़रों के बा-वजूद उसने मेरी तरफ़ ज़र्रा बराबर भी तवज्जोह ना की, बल्कि फाईल की वर्क़-गरदानी में मसरूफ़ रही। मैं अभी उस नज़ारे से महज़ूज़ ही हो रहा था कि इतने में अरदली ने इस का नाम पुकारा और पश्तो-नुमा लहजे में क़दरे ऊंची आवाज़ में कहा,

    ‘‘आलिया सीबा (साहिबा)! आप इंटरव्यू के लिए अंदर आजाओ।’’

    वो एक शान-ए-इस्तिग़ना से उठी, बालों में जल्दी जल्दी हाथ फेरा, गर्दन हिलाई और फिर एक छोटे बैज़वी किस्म के दस्ती आईने में अपनी शक्ल देखी, होंटों की सुर्ख़ी ताज़ा की, उनको मिलाया और हल्की आवाज़ के साथ दायरे की शक्ल में मुँह खोल कर दुबारा अपने पूरे चेहरे को देखा और अपनी तवज्जोह बटाए बग़ैर, फ़ौरन इंटरव्यू वाले के कमरे के अंदर चली गई।

    मुनीब मेरे भाई! ये सब कुछ इतनी सुरअत से हुआ कि मुझे उसके जाने के बाद महसूस हुआ जैसे मैं यक-दम बे-जान सा हो गया हूँ।

    बात चल पड़ी तो अब्बास कुछ खुला और जहाँ मुझे कुछ सुनने को मिला वहाँ ये भी पता चला कि अब वो कराची नहीं रहेगा क्योंकि ब-क़ौल उसके, उसने अपनी मुलाज़मत छोड़ दी थी या बहुत मुम्किन है कि उसकी मुलाज़मत की मीआद ख़त्म हो चुकी थी। आज सुब्ह सुब्ह उसका फ़ोन आया और उसने एक बहुत ही ज़रूरी बात बताने के लिए मुझे अपने फ़्लैट पर बुलाया।

    ये बात वो सिर्फ़ मुझे ही बताना चाहता था--- वो भी रू-ब-रू।

    जब मैं उस से मिला तो उसकी हवाईयाँ उड़ी हुई थीं और यूँ मुझे मुआमले की नज़ाकत का दुरुस्त अंदाज़ा लगाने में ज़्यादा देर नहीं लगी। कोई तो बात थी जिस सबब अब्बास इस क़दर परेशान था।

    यार अच्छा हुआ आप आगए।

    उसने क़दरे धीमी आवाज़ में कहा।

    ‘‘मैंने देखा कि उसकी मुट्ठीयाँ तक़रीबन भिंची हुई थीं, बालों में जैसे हफ़्तों से कंघी नहीं हुई थी---एक आसतीन अध-चढ़ी---दूसरी, बग़ैर बटन के---चेहरे पर शदीद तनाव के आसार--- और वो अपने फ़्लैट के नियम खुले दरवाज़े के पीछे मग़्मूम सूरत बनाए खड़ा था। दिसम्बर के दिनों में भी उसके माथे पर पसीने के छोटे छोटे क़तरे चमक रहे थे।

    अरे भाई क्या हुआ? अंदर आने भी दोगे या नहीं,

    ‘‘यार आई एम रियली सॉरी, पता नहीं मुझे क्या हो गया है, आप आएँ, अंदर--- आएँ प्लीज़।’’

    उसने माथे से पसीना पोंछा और क़दरे मुदाफ़िआना अंदाज़ में पीछे हट कर एक तरफ़ हो गया।

    रास्ता मिला तो मैं अंदर आगया। मुझे यूँ महसूस हुआ कि जैसे वो हफ़्तों से उस नीम-तारीक फ़्लैट में बंद था।

    पूरा फ़्लैट एक किस्म की बे-तरतीबी की तस्वीर नज़र आया; हर जगह किताबें, कुछ बंद कुछ अध-खुली, बिखरी पड़ी थीं। जूते इधर उधर और कॉफी के कई बड़े मग, कुछ औंधे, कुछ सीधे पड़े थे।

    दरवाज़े की ओट में मुझे एक बंद सूटकेस जबकि बिस्तर पर एक अध-खुला बैग औंधा पड़ा नज़र आया जिस में दो तीन मैली-कुचैली क़मीज़ें, शायद एक पतलून और कुछ गंदी जुराबें ठुँसी हुई थीं। बैग के पास एक और सफ़ैद बेड-शीट भी तह करके रखी हुई थी।

    ‘‘यार ये आप-वाप क्या है? ख़ैर तो है? क्या हुआ तुम्हें, मुझे पहचाना भी या नहीं? मुनीब हूँ मैं, मुनीब काज़मी, तुम्हारा दोस्त।’’

    ये कहते हुए मैंने उसे कंधों से पकड़ कर बहुत आराम से झंझोड़ा। असल में मुझे उसके रस्मी रवय्ये और एक तरह की हैजानी कैफ़ीयत से शक सा हो गया कि शायद उसे अंदाज़ा ही नहीं हुआ कि मैं कौन हूँ वर्ना वो इस तरह पुर-तकल्लुफ़ इस्तिक़बाल भला क्यों करता।

    ‘‘मुनीब, हाँ मुनीब, तुम्हें ही तो बुलाया था मेरे दोस्त--- यार मैं पेशावर जा रहा हूँ वापस--- नहीं यार, मेरा मतलब है लाहौर--- मैं भी क्या कह रहा हूँ।’’

    उसने हिज़यानी सी कैफ़ीयत में बालों में बायाँ हाथ फेरते हुए कहा और मुँह ही मुँह में कुछ बड़बड़ाया जो मैं ठीक तौर पर सुन नहीं पाया लेकिन मैंने उसके रवय्ये से ये तास्सुर लिया कि इस वक़्त उसकी ज़ेहनी हालत ऐसी नहीं थी कि उस से सवाल पूछे जाएँ या मैं कोई तफ़्तीशी रवय्या अपनाऊँ।

    जब कुछ ना सूझा तो मैंने आगे बढ़कर उसे बेसाख़ता गले लगाया और वो रो दिया।

    मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूँ। औरतों को दिलासा देना एक अलग बात है और शायद मर्द के लिए फ़ित्री-तौर पर निसबतन आसान भी, लेकिन मर्दों के साथ, और वो भी वो मर्द, जिसके साथ इस किस्म का वास्ता पहली बार पड़े, बड़ा मुश्किल होता है कि बंदा क्या कहे और क्या ना कहे।

    ख़ैर उसकी ढारस बंधाई और उसे सोफ़े पर बिठाया। कुछ सोच कर कि शायद इस तरह उसे कुछ ज़्यादा सुकून मिले, उसे तक़रीबन खींच कर, सोफ़े पर लिटा कर उसकी जुराबें उतारीं और उसके क़मीस के बटन ढीले किए और उसके लिए काफ़ी बनाई। हम दोनों कुछ देर ख़ामोश रहे और जब उसकी तबीआत कुछ संभली तो वो उठ बैठा और गला खनकार के भर्राई हुई आवाज़ में बोलना शुरू किया।

    शुरू में उसकी बातें बे-रब्त थीं, ख़्यालात मुंतशिर थे और इस लिए उसने पूरा मुआमला बहुत दिक्कत से और ख़ास्सा वक़्त लेकर बयान किया और इसी वजह से मैं कुछ इख़्तिसार से काम लूँगा ताकि बे-जा तवालत से आप कहीं बोर ना हो जाएँ।

    ‘‘मुनीब यार! मैं बहुत अजीब सूरत-ए-हाल से गुज़रा हूँ, बयान नहीं कर सकता कि कहाँ से शुरू करूँ। जब मैं पहली बार कराची नौकरी के लिए आया था, तो मैं कितना ख़ुश था लेकिन शायद ये मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती थी।’’

    ‘‘हाँ तुम तो कह रहे थे कि ये तुम्हारी ड्रीम जॉब है, शकर कितनी लेंगे आप?’’

    मैंने ‘‘आप’’। ज़रा चबा कर कह तो दिया लेकिन, फ़ौरन ख़्याल आया कि ये वक़्त तंज़ का हरगिज़ नहीं, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था तो अब क्या करता। उसने इस तंज़ को महसूस नहीं किया,

    ‘‘दो ठीक हैं?’’

    उसने दाहने हाथ से मिग उठाया, गर्म काफ़ी की एक चुस्की ली और सिलसिला कलाम जोड़ा,

    ‘‘हाँ तुम ठीक कहते हो, थी तो ड्रीम जॉब लेकिन--- ख़ैर--- क्या ये बेहतर ना होगा कि मैं बिलकुल शुरू से तुम्हें सब कुछ बता दूं ताकि तुम्हें अंदाज़ा हो कि मेरी ये ड्रीम जॉब कैसे मिरे लिए सोहान-ए-रूह बन गई और तुम्हें आलिया के बारे में भी बताना होगा जो मैं तुम्हें नहीं बता सका, यार बस ज़िंदगी भी ना---’’

    उसने एक लम्बी सर्द आह भरी और सर पीछे कर लिया---

    ‘‘हाँ हाँ--- ज़रूर--- इतमिनान से--- मुझे कोई जल्दी नहीं है।’’

    मैंने इंतिहाई ताकीद से कहा क्योंकि उसके बयान में अब मिरी दिलचस्पी बहुत बढ़ चुकी थी। मैंने सोचा भला ये आलिया का क्या चक्कर है और ये है कौन? मुझे मंघू पीर कॉलोनी की क़दरे साफ़ रंगत वाली एक दुबली पतली आलिया कुछ-कुछ याद थी जो बात करते हुए बार-बार ग़ैर इरादी तौर पर अपने होंट काटती रहती थी लेकिन जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उसे शादी किए और दुबई गए कई साल हो चुके थे।

    बहर कैफ़ मैंने ग़ौर से अब्बास की बात सुननी शुरू की,

    ‘‘यार एकाउंटंसी ख़त्म की तो लाहौर में करने को कुछ भी नहीं था। नौकरी मिलना तो दूर की बात है किसी ने इंटरव्यू के लिए भी नहीं बुलाया और इसी तौर पर जूते चटख़ाते महीनों पर महीने गुज़र गए। इस ना-उम्मीदी की कैफ़ियत में फैसलाबाद के एक वज़ीर के बेटे से बात हुई तो वो बहुत हंसा।

    ‘‘शाह जी नौकरी ते जान पछान (पहचान) नाल मलदी और जान पछान का गुर सियासत से आता है।

    मसले का हल तो वो बता गया लेकिन मदद करने में अलबत्ता उसने पहल नहीं की। मुझे भी ख़जालत आड़े आई कि अब उस से क्या मदद का कहूं। यार अब तुम ही बताओ भला मैं कहाँ लोगों के दरों पे नासिया-फ़रसा रहूँ या सियासत में कूद के वोटों की गिनती पर लोगों से दस्त-ओ-गरीबाँ होता फिरूँ।

    मैंने कहा भाड़ में जाए ऐसी नौकरी और घर आकर, मुस्तक़बिल से मायूस, बाहर जाने की ठानी कि यही एक क़ाबिल-ए-अमल रास्ता नज़र आया। तुम्हें तो याद ही होगा आरिफ़, जो हमें क़ुरैशी साहब के हाँ मिला था--- शादी की तक़रीब में।

    मैंने इनकार में सर हिलाया तो उसकी बेचैनी और बढ़ी,

    ‘‘यार वो जो अमेरिका चला गया--- स्यासी पनाह की दरख़ास्त जो दी थी उसने। तुम्हें कैसे भूल सकता है--- यार वो जिसके चचा-ज़ाद भाई को कराची के किसी हंगामे में गोली भी लगी थी--- ख़ैर वो अमेरिका क्या गया उसके तो दिन ही फिर गए और जब पहली मर्तबा पाकिस्तान वापस आया तो उसने मुझे भी बाहर जाने का मश्वरा दिया लेकिन ये सारी बातें उसने ऐसे टेढ़े मुँह वाली अंग्रेज़ी में कीं कि मुझे घिन सी आई पर अब जो सोचा तो उसकी बात में वज़न था।’’

    मुझे आलिया के ज़िक्र से दिलचस्पी थी सो मैंने उसकी बात काटी।

    ‘‘यार तुम किसी आलिया का भी ज़िक्र कर रहे थे, वो क्या क़िस्सा है?’’

    ‘‘हाँ बताता हूँ लेकिन पहले थोड़ा पस-ए-मंज़र बता दूं वर्ना तुम्हें बात समझने में दिक़्क़त होगी और फिर पलट पलट कर कहानी दोहरानी पड़ेगी और यूं मैं असल बात तसलसुल से समझा नहीं पाऊँगा, ठीक है ना भाई?’’

    उसने मुसिर हो के कहा और मैंने इस्बात में सर हिला के काफ़ी का ख़ाली मग उसके हाथ से लेकर क़ालीन पर पड़ी किताब पर रख दिया।

    ‘‘हाँ तो मैं बता रहा था कि सख़्त ना-उम्मीदी की हालत में एक नौकरी का इश्तिहार मेरी नज़र से गुज़रा। एक बड़ी फ़र्म थी कराची वाली और उन्हें एक अकाउंटेंट की ज़रूरत थी। ये तो ठीक है, लेकिन मसला ये था कि नौकरी के पहले तीन साल कराची में गुज़ारने थे, कुछ काम के तजर्बे के सिलसिले में और उस दौरान तनख़्वाह भी कुछ कम थी लेकिन अंधा क्या चाहे, दो आँखें, मैंने उनको फ़ोन किया।

    तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा कि फ़र्म के मालिक नोमान ख़ां थे जिनके वालिद साहब दिल्ली में नामी-गिरामी अकाउंटेंट थे। बड़े ख़ां साहब तो अल्लाह बख़्शे गुज़र चुके थे, लेकिन उनके बेटे से मिरे वालिद साहब की किसी ज़माने में बड़ी शनासाई रही थी और यहाँ मुझे उस वज़ीर ज़ादे की बात याद आई।

    उसी शाम मैं कुछ हिम्मत जमा करके वालिद साहब के पास आया।

    वालिद साहिब को ये बात हद दर्जा नागवार गुज़री और वो, जो दाहिने हाथ में अख़बार पकड़े कुर्सी पर बिराजमान थे, तिलमिलाए, दो एक-बार करवट बदली, अख़बार साथ वाली मेज़ पर पटख़ कर बोले,

    ”बरखु़र्दार हम सादात हैं, नजी-बुत-तरफ़ैन हैं, हमारे पास खाने को कुछ भी ना हो, हम भूके सोएँ या भले से मर भी जाएँ, सब्र करते हैं और इस हद तक कि भूक मिटाने के लिए सदक़ा तक नहीं लेते अगर्चे देख लो मियाँ कि यही सदक़ा तमाम उम्मत पर जाएज़ है, हम पर नहीं।

    अब तुम बरखु़र्दार, अब्बास हुसैन नक़वी, मुझे यानी अतहर हुसैन नक़वी को इस बात की तरग़ीब दे रहे हो कि मैं तुम्हें किसी का हक़ दिलवा दूं, तुम्हारी सिफ़ारिश करूँ? अरे मैं कहता हूँ तुम ये सब कुछ अपने बलबूते पर क्यों नहीं करते, इस में क्या मज़ाइक़ा है कि तुम दरख़ास्त दे दो, ज़ाबते की कार्रवाई हो लेने दो, अगर तुम्हारे अन्दर लियाक़त होगी तो तुम्हें नौकरी मिल ही जाएगी।

    अब बताओ इस पूरे तरीक़-ए-कार में कहाँ पेचीदगी है? ये सब करने में क्या दिक्कत है? हैं।

    इस के बाद वो इमाम ज़ैनुलआबिदीन के फ़ुक़्र और शायद यज़ीद के ज़ुल्म के क़िस्से सुनाते रहे। मैं बस यही कहता रहा,

    ‘‘हाँ अब्बू जान, आप दुरुस्त फ़रमाते हैं, ठीक कहते हैं ये नहीं होना चाहिए था।’’

    अब्बास का लेहजा इंतिहाई तंज़-आमेज़ हो गया।

    ‘‘ख़ैर मैंने उनसे बिल्कुल भी बहस नहीं की क्योंकि उनको अक्सर ये दौरा पड़ता रहता है और ये उनका काफ़ी पुराना मर्ज़ है लेकिन जब मौक़ा हाथ से निकल जाए तो फिर हाथ मिलते रह जाते हैं। मैंने वहाँ से उनकी बात सुनी और दूसरे कमरे में आकर अम्मी से राज़दाराना लहजे में बात की।’’ देखो अम्मी जान इस से भली नौकरी और अच्छा मौक़ा हाथ नहीं आने लगा और दूसरा उस में एक फ़ायदा ये भी है कि मैं तीन साल बाद लाहौर वापस सकूँगा और फिर तुम्हारे लिए प्यारी सी बहू भी ला के दूँगा, और वो भी वहाँ से जहाँ से तुम चाहो, यानी तुम्हारी पूरी मर्ज़ी, अब बोलो, मंज़ूर है?

    अम्मी ने सरकता दुपट्टा सँभाला,

    ‘‘है है मैं कब कहती हूँ तुम ग़लत कह रहे हो, मैं वही करूँगी जो तुम चाहते हो लेकिन देख लीजियो बेटा नक़वी साहब उसूलों के पक्के हैं, दिल्ली वाले जो हैं। अब कहने को तो मैं कह दूँगी लेकिन जो उन्होंने ना करने का तहय्या कर रखा हो तो मुझसे ना लड़ियो--- मेरी सुनता भी कौन है इस घर में।’’

    शाम को अम्मी ने बात की, कुछ उनके माबैन हील-ओ-हुज्जत हुई, फिर अगले दो दिन घर में लोग रूखे से रहे और तीसरे दिन घर की हालत वापस लौट आई। उसके बाद पांचवें या शायद छटे रोज़ रजिस्टर्ड ख़त का एक भूरा लिफ़ाफ़ा हमारे घर आया जिसमें मेरे इंटरव्यू की नवेद थी---

    मैंने ख़ुशी से अम्मी का माथा चूम लिया,

    ‘‘अम्मी जान तुम ना, बस इतनी ख़ूबसूरत हो, मीठी हो, प्यारी हो---’’

    ‘‘बस-बस, मुँह-बंद रखियो अपना। अच्छा ध्यान से सुनियो, सकीना के बारे में क्या ख़्याल है? तुम्हारी ज़ैनब आंटी की बेटी? सआदत-मंद है, एम पास है, अपनी देखी भाली है कहो तो बात पक्की---’’

    ‘‘अम्मी जान तुम भी ना? जॉब हो लेने दो, कुछ दमड़ियाँ जोड़लूँ उसके बाद देखते हैं।’’

    इंटरव्यू वाले दिन मैंने नए कपड़े पहने और इमाम-ए-ज़ामिन हाथ में लेकर देखा जो वालिदा ने कराची आने से पहले बाँधा था। मैंने एक एक कर के उन तमाम सवालों के जवाबात दिल में दोहराए जो नोमान साहब के मँझले बेटे अदील ख़ां ने मुझे एक दिन पहले फ़ोन पर बता दिए थे।

    ‘‘मियाँ यही सवाल हैं बस अगर उनका जवाब बेअयनिही दोगे तो कुछ हमारी भी इज़्ज़त रह जाएगी आपको तो पता ही है कि आपके वालिद साहब को हम टाल नहीं सकते लेकिन कुछ दिखाना भी तो होता है कंपनी फ़र्म वालों को कि हम हर एरे ग़ैरे को अकाउंटेंट नहीं रखते--- हाँ ब्राउन जूते पहन कर नहीं जाना डायरेक्टर को उनसे सख़्त नफ़रत है।

    आख़िर में एक बात और बता दूं, इंटरव्यू अंग्रेज़ी में होगा लेकिन अगर उर्दू में सवाल पूछें तो ‘‘क़’’। का तलफ़्फ़ुज़ दुरुस्त रखना और ग़ल्ती ना कहना गलती कहना--- मामूली बातें हैं लेकिन आप कहीं कहीं चूक जाते हैं--- वर्ना सिद्दीक़ी साहब--- आपको तो पता ही है, वो बंदे को क़ाबिलीयत से ज़्यादा शीन क़ाफ़ पर परखते हैं।’’

    ये कह कर उसने फ़ोन रख दिया,

    जब वो कमरे के अंदर चली गई तो उसके ठाट-बाट देख के, मैंने सोचा कि नौकरी इसी ही की है और सारा इंटरव्यू बस एक ड्रामा है और तो और मुझे कराची इस लिए बुलाया गया है ताकि इस खेल में कुछ रंग-ए-हक़ीक़त का हो। ड्रामे का ये ग़ैर मुतवक़्क़े उरूज मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया---

    मुझे बेचैनी सी हुई लेकिन फिर सोचा मशीयत-ए-एज़दी है भाई, अल्लाह ने हम सादात को उन बेईमान लोगों के टुकड़ों पर पलने से बचाए रखा जो इंटरव्यू भी दिखावे तक का लेते हैं।

    मैंने कुछ देर रुकने का इरादा किया और दिल में ये बाँधा कि अगर वो बाहर आती है और उसके चेहरे पर ख़ुशी के आसार हूँ तो नौकरी उसको मिल चुकी होगी और अगर ऐसा हुवा तो मैं इंटरव्यू भी नहीं दूंगा। इस किस्म की ख़जालत उठाने से बेहतर है बंदा नौकरी ही ना करे और वैसे भी अब फ़ाक़ों की नौबत तो नहीं आई जो इस किस्म के ड्रामों के लिए कराची तक का सफ़र करूँ और ज़लील होता फिरूँ।

    आधा घंटा गुज़र गया, ख़ातून वहाँ से बाहर नहीं आई और फिर अरदली ने मेरा नाम पुकारा और अगले लम्हे में पैनल के सामने था। रस्मी सा इंटरव्यू हुआ और मुझसे वही सवाल पूछे गए जो मुझे पहले से बता दिए गए थे। मैं बाहर आया तो अदील ख़ां ने मुझे ताय्युनाती का ख़त थमा दिया, जो ग़ालिबान पहले से ही टाइप हो चुका था।

    ‘‘कमाल कर दिया आपने अब्बास साहब, क्या बात है आपकी--- सब इतने मुतास्सिर हुए कि आपने तन्क़ीद की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी--- वाह भई वाह--- क्या सलीक़े की गुफ़्तगू करते हैं आप, क्या सुलझाव है आपके उठने बैठने में।

    अब आप ऐसा करें--- यहाँ--- ये निशान वाली जगह--- हाँ यहाँ पर दस्तख़त कीजिए और आपकी नौकरी पक्की, मुबारक हो।

    उसने एक मुजल्लद रजिस्टर मेरे सामने रख दिया और साथ ही रोशनाई वाला एक निहायत क़ीमती क़लम मुझे थमा कर वो जगह उंगली से दिखाई जहाँ मुझे दस्तख़त सब्त करने थे।

    मैं ख़ुशी से फूले ना समाया, यक़ीन नहीं आया कि मुझे नौकरी मिल चुकी थी और इस दीवानगी की कैफ़िय्यत में सय्यद-उस-सादातﷺ और उनकी आल पर दुरूद पढ़ना भी भूल गया।

    बाहर आकर पी- सी- ओ- से अम्मी को फ़ोन मिलाया और उनको ख़ुश-ख़बरी सुनाई, उन्होंने ढेरों दुआएं दीं। मैंने वालिद साहब का पूछा,

    ‘‘वो अभी सो रहे हैं, कहो तो जगा दूं उन्हें?’’

    मैंने उनको जगाना मुनासिब नहीं समझा और उन्हें बताने का काम अम्मी के सपुर्द किया और ख़ुद को हवाओं में उड़ता महसूस किया। मेरी ड्रीम जॉब मेरे हाथ में थी, मैंने अपने अंदर एक तवानाई सी महसूस की, चारों तरफ़ रंग ही रंग नज़र आए और हर अंदर जाती सांस में ताज़गी का एहसास हुआ जैसे बेरोज़गारी कोई क़फ़स हो और मुझे वहाँ से आज़ादी का परवाना मिल गया हो

    दस दिन बाद नौकरी ज्वाइन की। काम बस सिर्फ़ इतना था कि करीम ख़ां, जो अदील ख़ां साहब के बड़े बेटे थे और एकाउंटंसी सीख रहे थे, उनके काग़ज़ात की जांच पड़ताल करूँ, जहाँ कमी बेशी हो दरुस्त करूँ, उनकी रहनुमाई करूँ और महीने के पैसे खरे करूँ।

    उसी दिन दोपहर को वो फ़ोटोस्टेट मशीन के साथ खड़ी नज़र आई।

    मुनीब मेरे भाई! मेरे अंदर एक हरारत सी ऊद कर आई और में जो तक़रीबन उसे उसके मुताल्लिक़ात समेत भूल चुका था, यकदम उसे बहुत अहम महसूस करने लगा। किसी बहाने से इस के पास पहुंच कर सलाम किया,

    ‘‘मेरा नाम अब्बास है। आपका इंटरव्यू मेरे साथ हुआ था, लेकिन देखा आपको आज ही है।’’

    उसने मेरे लहजे में शोख़ी महसूस की लेकिन बग़ैर किसी तअस्सुर के मुझसे इंतिहाई रूखे लहजे में कहा

    ‘‘अब्बास साहिब मेरा नाम आलिया है। मेरी ताय्युनाती भी आपके साथ ही हुई थी, बारह अगस्त को, उसी दिन। आपको कुछ और पूछना है मुझसे?’’

    ‘‘आप कराची की हैं? आपकी उर्दू बड़ी साफ़ है। मैं लाहौर से आया हूँ लेकिन असल में मेरे दादा तक़सीम के बाद कराची आकर आबाद हुए थे।’’

    ‘‘मैं कराची की नहीं हूँ, अब्बास साहब! और अगर आप इजाज़त दें तो मैं चलूं।’’

    ये जाने की इजाज़त से ज़्यादा एक हुक्म था और उसका लहजा बदस्तूर रूखा था और चेहरा तास्सुरात से यकसर आरी। वो अपने ऑफ़िस में चली गई जो अदील ख़ां के दफ़्तर के बाद वाले बरामदे में था। रूखा लहजा अपनी जगह लेकिन कोई बात तो ऐसी ज़रूर थी कि मेरे लिए इस में बहुत कशिश थी। ख़ैर छुट्टी के वक़्त वो मेरे पास ख़ुद चल कर आई।

    ‘‘अब्बास साहब आपसे एक सिलसिले में मदद लेना चाहती हूँ।’’

    उसे मेरी ज़रूरत थी, मुझे और क्या चाहिए था, सो मैंने हामी भर ली। बात सिर्फ़ इतनी थी कि मैं उसे रोज़ाना काम के बाद इम्प्रेस मार्कीट छोड़ जाया करूँ और मुझे भला इस में क्या ताम्मुल हो सकता था अगर्चे उसे वहाँ छोड़ने में रिज़्वी सोसाइटी और ऐम जिनाह रोड को उ’बूर कर के, मीलों लंबा रास्ता और ट्रैफ़िक के गंदे और कसाफ़त से भरे समुंद्र में से रोज़ाना गुज़रना पड़ता था लेकिन एक जवान लड़की की रिफ़ाक़त साथ हो तो बंदा क्या नहीं करता, मुनीब! मेरी तो अक़्ल घास चरने चली गई थी।’’

    मैंने अभी तक इस कहानी में कोई ख़ास बात नहीं देखी। दफ़्तरों में बे-तहाशा ऐसे वाक़िआ’त होते रहते हैं, मर्द लड़कियों की घात में रहा करते हैं, गाड़ियों में फिरा करते हैं और कुछ का अंजाम मंतक़ी तौर पर शादियाँ भी हो जाया करती हैं लेकिन अब्बास की हालत देखकर मुझे शक था कि मुआमला सिर्फ़ एक जवान लड़की की रिफ़ाक़त तक महिदूद नहीं बल्कि इस वाक़िये का ज़ावीया कुछ ज़्यादा ही टेढ़ा है और गुमान-ए-ग़ालिब है अभी तक उसने वो तान ही नहीं छेड़ी सो मैंने सर हिला के उसकी ताईद की ताकि वो मुआमला जल्द ही खोल दे।

    ‘‘ऐसे कई दिन आए जब मुझे इसे इम्प्रेस मार्कीट से उठा कर दफ़्तर भी लाना पड़ा लेकिन मुझे इस में कोई मज़ाइक़ा नज़र नहीं आया। एक शाम बोल्टन मार्कीट में एक बहुत अच्छी महंगी घड़ी नज़र से गुज़री और मैंने उसे आलिया के लिए लेने का इरादा किया लेकिन जब क़ीमत पूछी तो चौदह तबक़ रौशन हो गए।

    मैंने घड़ी ख़रीद तो ली लेकिन सोचा और तबीअत कुछ बोझल सी हुई कि ये में क्या कर रहा हूँ, किस चक्कर में हूँ। मैं जो ऐसे ख़ानदान का इकलौता बेटा हूँ जिसके पैसों पर उसके बूढ़े वालिदैन का हक़ है उसे में एक अजनबी ख़ातून पर दोनों हाथों से लुटा रहा हूँ जिससे मेरा तअल्लुक़ सिर्फ़ इतना है कि साहब मैं उसका ड्राईवर हूँ और बस।

    ख़ैर उस शाम मैंने उसके घर के पास गाड़ी रोकी और उससे कहा कि मैंने उसके लिए एक तोहफ़ा ख़रीदा है।

    उसने आहिस्ता से अपना हाथ आगे किया और अपनी आसतीन थोड़ी सी खिसका ली जैसे उसे पहले से पता था कि मैंने उसके लिए घड़ी ही ली है, मुझे ये बात अजीब सी लगी।’’

    ये बताते हुए उसने सर झुका लिया,

    ‘‘यार एक आदमी को यहाँ से होशयार होना चाहिए लेकिन मैं अंधा हो गया था, अक़ल का अंधा। ख़ैर जब मैंने उसके हाथ पर घड़ी बाँधी तो मेरे रोंघटे खड़े हो गए, उसका हाथ यख़ सर्द था जैसे बर्फ़ की ठंडी सिल, यक़ीन करो मुनीब जैसे वो एक बे-जान--- बे-रमक़।।। अब मैं क्या कहूं। मैं अगले कई रोज़ दफ़्तर ना जा सका, बहुत ज़ोर का बुख़ार रहा।’’

    इस मुक़ाम पर में भी चौंका लेकिन अपने अंदरूनी तास्सुरात छुपाए और उसकी बिप्ता सुनता रहा,

    ‘‘ख़ैर जब मैं दफ़्तर वापिस आया तो वो नज़र नहीं आई जिससे मैं बेचैन तो बहुत हुआ लेकिन अब किसी को बता भी तो नहीं सकता था तुम्हें तो पता ही है लोग ऐसी बातों का क्या से किया बना देते हैं। जब बात महीने से भी ऊपर हो गई तो मेरा माथा ठनका और मैंने अरदली से ज़रा राज़दारी में डरते डरते पूछा,

    ‘‘आलिया साहबा से एक फाईल मंगवानी है, नज़र नहीं आरही हैं, क्या छुट्टी पर हैं?’’

    उसने हैरान नज़रों से मेरी तरफ़ देखा,

    ‘‘कौन सा आलिह सैबा? आप आईशा सैबा का बात तो नहीं करता ऐ? वो चट्टी पर नही ए, कहो तो---?

    मुझे जैसे करंट लगा लेकिन तमाम तास्सुरात दिल में छुपाए मैं अपने डेस्क पर आया

    ये मुझे बाद में पता चला कि जब तनख़्वाह की जदवलें मेरे पास आईँ तो उस में आलिया नामी किसी ख़ातून का ज़िक्र तक ना था और अब मुझे अपने नफ़सियाती मरीज़ होने का पूरा यक़ीन हो चला था। मैंने ऑफ़िस का रिकार्ड तफ़सील से छान मारा और मुनीब तुम यक़ीन नहीं करोगे लेकिन बारह अगस्त को सिर्फ़ मुझे ही नौकरी दी गई थी।

    ये सब देखकर मैं कुछ डरा और मुझे कुछ अजीब भी लगा लेकिन क्या करता

    एक दिन कुछ सोच कर अदील ख़ां साहब के दफ़्तर के साथ जुड़ा बरामदा देखा लेकिन वहाँ सिर्फ़ एक पुराना स्टोर रुम था और मैं गू-मगू के आलम में काफ़ी देर खड़ा ताने-बाने सुलझाता। पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा,

    ‘‘अब्बास सेब आप टेक तो ए?

    ‘‘हाँ हाँ ज़मुर्रद ख़ान सब ठीक है, सब ठीक है।’’

    उसी दिन काम से बाहर निकला तो अक़ब से उसकी आवाज़ सुनाई दी,

    ‘‘अब्बास साहिब आप मुझे इम्प्रेस मार्कीट छोड़ आएंगे?

    मुझे झटका तो ज़रूर लगा लेकिन अपना ख़ौफ़ छुपा कर उसे क़दरे ग़ुस्से से मुख़ातब किया,

    ‘‘आलीया साहबा आप कौन हैं, ये सब क्या है और आप मुझसे क्या चाहती हैं?’’

    ‘‘आप मेरे वजूद पर शक कर रहे हैं? यही है नाँ?, लीजिए मैं आपका शक दूर किए देती हूँ।’’

    उसने एक फूल बेचने वाले से गेंदे के फूलों के दो हार ख़रीदे और उसे पैसे दिए। अब ज़ाहिर है अगर आलिया मेरे बीमार ज़हन का तख़य्युल थी तो वो भला फूल वाले से क्योंकर--- लेकिन ये गुत्थी पूरी तरह अब भी नहीं सुलझी थी।

    हम दोबारा गाड़ी में बैठे और इम्प्रेस मार्कीट तक का सफ़र ख़ुशगवार रहा और यूं महीने से मुनक़ते सिलसिला दोबारा जुड़ गया। मुनीब अब मैं तुम्हें तफ़सीलात से क्या बोर करूँ लेकिन सिन्फ़-ए-नाज़ुक की महज़ मौजूदगी ही काफ़ी ना सुलझने वाली बातों के लिए दलील होती है और जब मुझे ये यक़ीन हो चला कि वो दर-हक़ीक़त मेरा ख़्वाब नहीं थी बल्कि उसका अपना वजूद भी था तो एक दिन जज़बात से मग़्लूब हो कर मैंने उससे शादी की दरख़ास्त ही कर डाली ताकि ये मुआमला अपने अंजाम को जा पहुंचे।

    ‘‘अब्बास साहब आप ऐसी बातें क्यूँ कर रहे हैं जिनकी आप में सकत नहीं।’’

    उसने क़द्र-ए-तुर्श-रूई से कहा।

    ‘‘मैं समझा नहीं, इस में सकत वाली भला क्या बात है?

    ‘‘अब्बास साहब आप क्या चाहते हैं? शादी? जिस्मानी तअल्लुक़? लेकिन क्या आप ने मुझसे पूछा है मैं क्या चाहती हूँ? देखिए आप बुरा ना मानें लेकिन आप एक छोटे से अकाउंटेंट हैं--- छोटे से दफ़्तर में। आप बताएँ क्या औक़ात है ऐसे काम की।?

    मुझे ग़लत ना समझें लेकिन पता है, मुझे क्या चाहिए? मुझे चाहिए घर, कैरियर, नाम, दौलत, बड़ा बंगला और हर तरह की आसाइश ना कि सिर्फ़ एक डेस्क पर बैठ कर दस्तख़त जो आप कर रहे हैं।

    आ’म हालात में ऐसी सर-ज़निश से भरी गुफ़्तगु को मैं बदतमीज़ी या यूं कहिए अपनी तौहीन समझता लेकिन उस वक़्त ये बात पता नहीं क्यों माक़ूल नज़र आई, और वो ठीक ही तो कह रही थी, दुनियादारी भी ज़रूरी होती है। मुझे अब भी हल्का सा शक था जो उसने मेरी आँखों में भाँप लिया।

    ‘‘अब्बास साहब आपको पहले यक़ीन करना पड़ेगा कि मैं हक़ीक़त हूँ, मुझे लगता है आपको शक है कि जैसे में कोई---’’

    ‘‘नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं, लेकिन बस---’’ मैं मिनमिनाया।

    ‘‘आप मुझे छू कर देखें—लीजिए--- मेरे हाथ थामें।

    उसने मुझे क़दरे तहक्कुमाना लहजे में मुख़ातब किया,

    ‘‘अब जब मैंने उसका दाहिना हाथ छुवा, तो कुछ देर बाद इस में हरारत महसूस की, मैंने उसे देर तक हाथ में रखा--- इतमिनान के बाद भी--- बहुत देर तक। मुझे एक तरह की तमानियत सी महसूस हुई और अब मुझे जैसे सारी कड़ियाँ मिल गई थीं, वो हक़ीक़त थी, जैसे मेरा वजूद वैसे ही उसका वजूद। इम्प्रेस मार्कीट से वापसी पर मैं पर इतमिनान, और सरवर से भरा घर वापिस आया और अपने लिए काफ़ी बनाई लेकिन मुनीब पता है क्या हुआ।’’

    उसने बहुत गहिरी आवाज़ में कहा,

    ‘‘क्या हुआ?’’

    ‘‘मैंने जैसे ही गर्म काफ़ी को छुवा वो बर्फ़ बन गई और मेरा हाथ--- मुनीब तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा--- गोया मुंजमिद था, बर्फ़ की मानिंद, सर्द, यख़-बस्ता’’

    ‘‘हैं?’’

    मैं उछला और अब हैरान होने की बारी मेरी थी---

    ‘‘हाँ मुनीब वो मेरे दाहिने हाथ की हरारत थी जो उसके सर्द जिस्म में मुंतक़िल हुई, और उसे मैंने उसके जिस्म की गर्मी गुमान किया। असल में उसका हाथ बे-जान था, पहले की तरह।।। उसकी अपनी कोई हरारत नहीं थी, वो एक सर्द सिल की मानिंद थी, तमाम जज़्बात से आरी, बग़ैर किसी तपिश के, गोया मुर्दा जिस्म। अब मुझे सब समझ आगया कि उसका हैंड बैग सफ़ेद क्यों था, उसके लिबास और जूतों में रब्त क्यों नहीं था, उस के लहजे में रूखापन क्यों था।’’

    अब्बास के लहजे में शदीद अफ़सोस का अंसर था, बिलकुल एक हारे हुए जुवारी की तरह लेकिन अब कहानी में मेरी तवज्जो बढ़नी शुरू हुई, कि भला ये माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत किस्म की ख़ातून कौन थी? जो अब्बास के बदन की हरारत पर जी रही थी।

    ‘‘मुनीब उसके बाद मैंने बहुत मेहनत की--- बहुत ज़्यादा--- ख़ूब कमाया। काम इतना बढ़ गया कि घर महीनों फ़ोन भी ना कर सका। एक दिन मेरी गाड़ी ने स्टार्ट होने में ताख़ीर की जिससे उसके चेहरे पर नागवारी के आसार उभर आए और मैंने सिर्फ़ उसके लिए नई गाड़ी ली, ब्रांड न्यू, लेकिन क़िस्तों पर और पहली बार मेरे अकाउंट में पैसे ना रहे सो मैंने और टाइम शुरू किया। और यूं मेरे भाई एक नई मुसीबत गले पड़ गई कि जो कमाता था, सूद-ख़ौर बैंकों के महाजनों के जेबों में जाता था।

    एक दिन लाहौर से फ़ोन आया कि वालिद साहब नहीं रहे लेकिन मेरे पास ना तो वक़्त था और ना हिम्मत कि वहाँ जाता बस टेलीफ़ोन पर वालिदा को तसल्ली दी और उन्हें सिसकता बिलकता छोड़ के हैलो हैलो कह कर, जैसे राब्ते में मसला है, टेलीफ़ोन ख़ुद ही बंद कर दिया।

    काम बहुत बढ़ गया था और इतना बढ़ा कि ईद पर भी ना जा सका और फिर मामूं जान का फ़ोन आया कि अम्मी भी फ़ौत हो चुकीं हैं। जनाज़ा तो ख़ैर छोड़ें में तो चेहलुम पर भी ना जा सका और अगरचे ख़ुद को मलामत किया लेकिन आलिया को पाने की जुस्तजू और इस से जुड़ा सुरू इतना मीठा था कि रिश्ते-नाते पस-ए-मंज़र में चले गए।

    मुनीब आज मेरे पास क्लिफ्टन में दो बुनगे हैं जो किराए पर चढ़े हुए हैं, और मेरा बहुत फैला कारोबार है--- अरबों का। मुनीब मैंने उस औरत को पाने के लिए सब कुछ किया लेकिन उस ज़ालिम औरत ने मुझे छोड़ दिया है, तन्हा, यकसर तन्हा। उसके अंदर तरस नाम को नहीं, ज़ालिम है वो।’’

    फिर उसने सूटकेस और बैग की तरफ़ इशारा किया,

    ‘‘देखो उसने मेरा सूटकेस पैक कर दिया है और बैग मेरे कपड़ों से भर दिया है--- मैले-कुचैले कपड़ों से--- धोने की फ़ुर्सत भी ना दी। वो ऐसा क्यूँ-कर रही है? मैंने उसे क्या नुक़्सान दिया है? उसको पूजने की हद तक चाहा है, उसके लिए माँ बाप मज़हब धर्म रिश्ते-नाते सब छोड़ दिए, मैंने उसका पूरा साथ निभाया। मैं अब भी उसके लिए मरता हूँ, वो मेरी क्यों नहीं हो सकती? बोलो ना मुनीब क्यों नहीं? उसने मेरी पच्चास साल की तपस्सया का कुछ भी लेहाज़ ना क्या, कुछ भी नहीं, मेरे रब मैं क्या करूँ? बू तुराब कुछ हौसला दे।’’

    वो रोहांसा हो गया, बिलक बिलक कर रोने लगा और मैं जो अभी तक सर नीवहड़े बैठा उसकी और आलिया की बिप्ता सुन रहा था, पच्चास साल के लफ़्ज़ पर चौंक पड़ा और मैं ने जब सर उठा कर देखा तो मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गई।

    मैंने देखा कि मेरे सामने अब्बास नहीं बल्कि एक उम्र रसीदा शख़्स, नक़ाहत से चूर, सोफ़े पर फूली साँसों में धँसा बैठा था। उसके तमाम बाल रूई के गालों की तरह सफ़ेद थे,, चेहरा झुर्रियों से भरा और आँखों पर दबीज़ शीशों की ऐनक थी जिसके उस पार उसकी बेपनाह ज़हीन आँखों की पुतलियों के गिर्द गहरे सफ़ैद दायरे उसकी गुज़री उम्र की चुग़ुली खा रहे थे।

    उसकी उंगलियों के तमाम जोड़ गोया दोनों उतरफ़ से उभर आए थे, उसके दाँत झड़ चुके थे और दाहने हाथ में हल्का सा रअशा था और उसकी तक़रीबन लटकती जिल्द पर बीती उम्र का असर बिलकुल वाज़ेह लिखा था।

    इस ग़ैर मुतवक़्क़े सूरत-ए-हाल से दो-चार मेरा गला ख़ुश्क हो गया। दफ़अतन मुझे ख़्याल आया और मैंने अपनी हथेली के उभार को दाँतों से हल्का सा काटा लेकिन मैं ख़्वाब नहीं देख रहा था मेरे सामने हक़ीक़तन एक बूढ़ा आदमी बैठा था जो बस क़रीब-उल-मर्ग था। अब जब उसको ग़ौर से देखा तो उसमें और अब्बास में बेपनाह मुशाबहत थी।

    अब्बास की कहानी में मेरी दिलचस्पी यक-दम ख़त्म हो गई और वो इस लिए क्योंकि मेरे ऊपर ख़ौफ़ सा तारी हो गया। मैंने उससे रुख़स्त तक ना ली और बस आहिस्ता से खिसकने की ठानी।

    निकलते हुए दरवाज़े के क़रीब मेज़ पर दो तस्वीरें पड़ी नज़र आईं और दोनों पर तारीख़ सब्त थी, एक पच्चास साल पुरानी जिसमें जवान अब्बास एक ख़ूबसूरत जवान लड़की के साथ महटा पैलेस के सामने खड़ा था। दूसरी तस्वीर जो तीन हफ़्ते पहले ली गई थी, को देखकर तो मेरे रोंघटे खड़े हो गए कि बूढ़ा अब्बास, झुकी कमर के साथ उसी लड़की के साथ जो अभी तक बिलकुल वैसे ही जवान थी, और उसी ही लिबास में मलबूस थी, बंस रोड पर फ़ालूदे वाले के पास खड़ा था।

    उन दिनों तस्वीरों के पीछे ला-तादाद तमग़े, सर्टीफ़िकेट और अस्नाद थे जो चीफ़ अकाउंटेंट अब्बास हुसैन नक़वी के नाम के थे और ऐसी कई और तस्वीरों से पूरा फ़्लैट भरा हुआ था जहाँ उसे बड़े मुल्की और बैन-उल-अक़वामी लोगों से एवार्ड मिल रहे थे।

    अब मुझे सब कुछ समझ आगया, ना तो अब्बास ने जॉब छोड़ी थी और ना वो लाहौर वापिस जा रहा था बल्कि वो तो रिटायर हो चुका था, एक भरपूर ज़िंदगी गुज़ार के, पूरा कैरियर तय कर के, अपनी तमाम सलाहियतें ब-रू-ए-कार लाकर मलिक का सबसे बड़ा अकाउंटेंट बन चुका था जिसकी शोहरत का डंका हर जगह बज रहा था और ये तस्वीरें, अस्नाद और सर्टीफ़िकेट उसका मुँह बोलता सबूत थीं। तब मुझे ये बात समझने में देर ना लगी कि जवान जहाँ आलिया उसको क्यों छोड़ गई, कड़ियाँ मिल गईं, अब मैं इतना बच्चा भी तो नहीं।

    वहाँ से निकलने से पहले जब मैंने तय-शूदा सफ़ेद बेडशीट की तरफ़ दोबारा देखा तो उसके साथ दो लंबी और पतली सफ़ेद पट्टियाँ भी नज़र आईं और मेरी हालत ग़ैर हो गई।

    वो बेडशीट नहीं थी बल्कि अब्बास के रहलत का लिबास था और उसकी अगली मंज़िल लाहौर तो हरगिज़ नहीं थी। निकलते हुए मेरे सामने एक क़द-ए-आदम आईना आया और अगरचे मैंने अपनी आँखों पर हाथ रख लिए, फिर भी, उंगलियों के बीच रख़नों में मुझे अपनी जगह एक सन-रसीदा आदमी दिखाई दिया।

    ख़ैर मैं और क्या कहूँ इतना कुछ देखकर में बस वहाँ रुक ना सका। मैं वहाँ से निकल कर सीधा अपनी जवान जहाँ अज़मी के पास चला आया।

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