अजनबी मुलाक़ातें
मैं घर आया तो नीलोफ़र ने घबराए हुए लहजे में कहा
“जल्दी करें अम्मी आपका इंतिज़ार कर रही हैं, बहुत ज़रूरी बात करना चाहती हैं आप से, प्लीज़ जल्दी करें।”
उसकी साँसें फूली हुई थीं। मैंने जल्दी से मोटर साईकल अंदर खींच कर पानी की टैंकी के साथ खड़ी की और क़दरे दौड़ कर अम्मी के कमरे में गया।
अम्मी जाएनमाज़ पर आँखें बंद किए बैठी कुछ विर्द कर रही थीं और उनकी हालत ग़ैर थी
मैंने सलाम किया और अम्मी ने उठना चाहा लेकिन मैंने हाथ के इशारे से उनको मना किया
“अम्मी आप आराम से बैठी रहें।, नीलू बता रही थीं आप मुझसे कोई बहुत ज़रूरी बात करना चाहती हैं।
इतने में नीलोफ़र अंदर आ गई,
“बेटा दुल्हन से पूछियो, मेरे तो हवास ठिकाने नहीं रहे, हाय अल्लाह रहम।
मैंने मुड़ कर नीलोफ़र की तरफ़ देखा
“हाँ नीलू क्या बात है, तुम ही कुछ बताओ।
“बात ये है कि आपके आने से कोई तीस मिनट पहले किसी ने बेल बजाई और जब मैं बाहर गई तो जवान साल मर्द को देखा जिसने सफ़ैद सी गोल टोपी पहनी हुई थी और वो शलवार क़मीस में मलबूस था। मुझे लगा कि कोई चंदे वाला आया है लेकिन फिर सोचा ये हज़रात तो तीन चार के जोड़ों में आते हैं।।।
“नीलू यार अफ़साने छोड़ो, मतलब की बात करो, सफ़ैद टोपी शलवार क़मीस!! सोहराब गोठ जाऐ सौ फ़ीसद लोगों ने पहनी होती है, बात क्या है इस में अचंभे की? क्या वजह है कि आप दोनों बिलावजह हलकान हो रहे हैं?
मैंने क़दरे झुँझला कर लेकिन लहजा पुर सुकून रखकर उस से पूछा
“देखें नाँ अम्मी मुझे डाँट रहे हैं।
और फिर उसने रोना शुरू किया जिसे देख कर अम्मी की आँखों में भी आँसू आ गए
इस नई मुसीबत से दो-चार मैंने इन दोनों को तसल्ली देनी शुरू की जिसका असर उल्टा हुआ और आख़िर में मुझे हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगना पड़ी
“हाँ चंदे वाला आदमी था फिर, आगे क्या हुआ?
नीलोफ़र ने हिचकियाँ लेनी शुरू कीं
“उसने मेरा, अम्मी का और आपका नाम लिखा, सर हिला के पूछा कि सिर्फ तीन ही लोग हैं उधर? मैंने कहा हाँ। फिर जब मैंने पूछा कि आप क्यों हमारे नाम लिख रहे हैं? तो उसने कहा आपको बता दिया जाएगा, और फिर नाँ
“उफ़ आप दोनों भी, कसम से, भई होगा कोई सरकारी महकमे का आदमी, मर्दुम-शुमारी वाला, सादा लिबास में कोई अहल-ए-कार, कोई इश्तिहार बांटने वाला, चंदे वाला। इसी हुलीए वाले भांत भांत के लोग हैं कराची में।।। अब एक मसला थोड़ी है इस मुल्क में।।। और फिर कराची यहाँ कोई दहश्तगरदों को ढूंढ रहा है तो कोई अफ़्ग़ान मुहाजिरीन की टोह में है और कोई किसी सियासी जमात वालों के तआक़ुब में और कोई करप्शन वालों के पीछे, में समझा पता नहीं कौन सा आसमान टूट पड़ा।
फिर मैंने नीलोफ़र की तरफ़ तनी भँवों से देखा
“और नीलू अम्मी तो आसाबी मरीज़ा हैं, घबरा जाती हैं तुम्हें तो इल्म ही है इन बातों का। तुम तो ठीक ठाक हो, बा-हवास हो, तुम्हारा ये रोना धोना? तुम भी कसम से ना।
“आप कोई बात संजीदा ही नहीं समझते।।। मेरी सुनते ही नहीं, देखें अम्मी!मैं कहती थी कि ये मेरी हर बात सुनी अन-सुनी कर देते हैं। उतनी ही बुरी लगती हैं मेरी बातें तो उन से कह दीजिए कर लें दूसरी शादी ।।। मैं कुछ भी नहीं कहूँगी।।। रोज़ रोज़ की झंझट से तो जान छोटेगी उन की।।। ख़ुश रहेंगे ये।
“अच्छा बाबा में देखता हूँ, किसी से पूछता हूँ, मेरा दोस्त जव्वाद काम करता है इन्कम टैक्स ऑफ़िस में, उस की पहुँच है बड़े लोगों तक। आप अल्लाह पर भरोसा रखें, थोड़ा इतमीनान रखें, कुछ करता हूँ मै। अब ठीक है?
मेरी इस बात से उनको तसल्ली तो ख़ैर क्या होती दोनों ने एक दम चुप साध ली
मैंने इंतिज़ार किया और जब उनकी हालत क़दरे बेहतर हुई तो मुझे खाने को कुछ मिला। मैंने जल्दी जल्दी खाना खाया, लेकिन फिर याद आया कि इस सारे हंगामे में मग़रिब की नमाज़ तो बीच में ही रह गई, सो इशा के साथ मिला कर पढ़ी और बिस्तर पर लेट कर ऑफ़िस के ऑडिट के प्लान के बारे में सोचने लगा जिसके बारे में ज़ैदी साहब ने ख़ासी ताकीद की थी
इतने में नीलोफ़र कमरे में आ गई तो मैंने पूछा
“अम्मी सो गईं?”
“ये सोने वाले हालात हैं? देखा नहीं आपने क्या हालत थी अम्मी की? मैं तो समझी जान ही निकल जाएगी उनकी। अल्लाह हिफ़ाज़त में रखे उनको और उनका साया हमारे सर पर क़ायम रहे।
“यार तुम हर बात उल्टा कर मेरे इस मुँह पर मल क्यों देती हो? सवाल पूछा है अम्मी सो गईं, जवाब में कहो हाँ या नहीं, अब चुभता हुआ जवाब देना ज़रूरी है?”
“अच्छा ठीक है जितना भी डाँटना है आज ही डाँट लीजीए, किसी और से शादी की होती तो आपको तिगनी का नाच नचा देती।“
उसके लहजे से रूखापन झलकने लगा और फिर आँखें बंद कर के दोनों हाथों से सर थाम लिया
“हाय मेरा तो सर फटा जा रहा है।
“अच्छा अब ये नाटक छोड़ो, इधर आ जाऐ प्लीज़।
इस का कुछ असर ना हुआ और उस का उतरा चेहरा बरक़रार रहा तो मैंने कहा
“अच्छा बाबा, ये कान पकड़ता हूँ, अब इधर आव, प्लीज़।“
इस पर वो पहले मेरे पहलू में आई और फिर मेरे सीने पर सर रख कर सिसकियाँ लेती रही और उस के आँसू मेरे खुले गरीबां से झाँकते सीने पर गिरने लगे
मुझे कुछ खटका सा हुआ कि नीलोफ़र भला क्यों इस क़दर परेशानी में है पर मैंने सब्र किया और जब उस की हालत थोड़ी संभली तो मैंने इंतिहाई आराम से और धीमे लहजे में पूछा
“नीलू जान मुझे पूरी बात तफ़सील से बताओ किया हुआ?”
उस के बाद उसने जो बताया उस से मुझे भी परेशानी हुई
“नईम कोई चार एक बजे का वक़्त था मैं किचन में दूध उबाल रही थी लेकिन एक तो निगोड़ी लोड-शेडिंग और ऊपर से गैस का प्रैशर इंतिहाई कम था इस लिए मुझे इस से शदीद उलझन हो रही थी और फिर मुझे जैसे घुटन सी महसूस हुई। मैंने सोचा मैं किचन से बाहर निकलूं, कुछ ताज़ा हवा में साँस लूँ तो तबीयत शायद कुछ बेहतर हो। ख़ैर मैं किचन से निकली तो बिजली आ गई, और फिर नईम कोई बहुत ही बेताबी से घंटी बजाने लगा
मुझे अजीब सा लगा, इस क़दर तावर-तोर से भला कौन घंटी बजाता है, मैं दूध भूल के कमरे में भाग के गई, दुपट्टा लिया और जल्दी से गेट की तरफ़ दौड़ी। मैं समझी पता नहीं किसी को क्या एमरजैंसी पेश आ गई है। ख़ैर, जब मैं गेट के क़रीब पहुँची तो घंटी बजाने वाले ने हाथ रोक लिया और फिर उसने पहले गेट खटखटाया लेकिन फिर यकायक ज़ोर ज़ोर से हिलाना शुरू किया
मैं डर गई पता नहीं कौन है लेकिन फिर भी एहतियात के साथ गेट की दर्ज़ से देखा तो मुझे शलवार क़मीस में मलबूस एक नौजवान नज़र आया। मुझे समझ नहीं आई कि क्या करूँ। दरवाज़े के उस तरफ़ एक अजनबी था और दूसरी तरफ़ किचन में दूध उबल रहा था। मैंने कुछ सोच कर और आड़ लेकर दरवाज़ा हल्का सा खोल दिया और उस से पूछा
“जी फ़रमाईए, क्या काम है?
उसने इंतिहाई भारी आवाज़ में और क़दरे गरजदार लहजे में पूछा
“इस घर में जितने भी लोग रहते हैं उनके नाम बताएँ।“
मेरे मुँह से ना जाने बे-इख़्तियार क्यों निकला
“नईम अली, मिसिज़ नीलोफ़र अली और मिसिज़ राशिदा अली।
“सिर्फ़ तीन?”
उसने ऐसे पूछा जैसे उसे शक सा हो
“हाँ सिर्फ तीन, लेकिन क्यों?
लेकिन उसने मेरे क्यों का जवाब नहीं दिया
फिर नईम उसने नाँ वो नाम एक रजिस्टर नुमा किताब में कच्ची पैंसिल से लिखे।।।
“कच्ची पैंसिल? क्या तुम्हें यक़ीन है?
“हाँ नईम कच्ची पैंसिल?
“हूँ, ये अजीब बात है सरकारी आदमी कच्ची पैंसिल से भला क्यों लिखने लगा।।। अगर वो सरकारी आदमी ही था और सरकारी ही काम से आया था।।। बात समझ में नहीं आई।।। ख़ैर उस का हुलिया दुबारा बताओ।
इस पर नीलोफ़र ने लंबी साँस ली, कुछ सोचा जैसे ज़हन पर ज़ोर देकर बताना चाहती हो
“वो लग भग बीस बाईस साल का होगा और उसने सफ़ैद सी गोल टोपी पहनी हुई थी।।। हू-ब-हू ऐसी जैसे चंदे वाले लौंडे पहनते हैं। उस की आँखें गहिरी सबज़ थीं, तेल लगे बाल, सलीक़े से कटे हुए थे, उस की रंगत काफ़ी साफ़ थी लेकिन लहजा पठानों वाला नहीं था।
उस की क़मीस में दाहिनी तरफ़ एक ही जेब थी जिसके कोने पर एक छोटा सा काला और मुस्ततील नुमा टूकरा था और उस पर बोनीनज़ा लिखा हुआ था, जैसे दर्ज़ी आम तौर पर जेब के साथ सी देते होते हैं। हाँ उस की क़मीस में साईड जेब भी थी क्योंकि उसने पैंसिल वहाँ से निकाली थी ।
पहले मुझे ये लगा कि कोई चंदे वाला ही है लेकिन फिर शक हुआ कोई भत्ता मांगने वाला तो नहीं आया। आपको तो याद ही होगा गुलिस्तान जोहर में ख़दीजा आंटी के हाँ इसी तरह मदरसे के तलबा वाला लिबास पहने तीन आदमी आए थे। पहले उन्होंने बदतमीज़ी से बात की तो आंटी ने भी तुर्की बा तुर्की जवाब दिया लेकिन फिर उन्होंने आंटी पर पिस्तौल तान लिया, उनसे भत्ता मांगा और ना देने पर जान से मारने की धमकी दी तो आंटी की तो जान ही निकल गई। वो तो अच्छा हो शाहिद अंकल ने रेंजरज़ के ज़िम्मेदारों को फ़ोन किया तो ही बला टली वर्ना उनकी तो जान पर ही बन गई थी।
फिर उसने तहनियती लहजा अपनाया।
“मैंने आपको दो तीन रिंग किए लेकिन आपने हसब-ए-आदत मेरा फ़ोन उठाया ही नहीं सो फिर सोचा जब आप आएँगे तो ही कुछ लाइहा -ए-अमल के बारे में सोचेंगे,
“फिर क्या हुआ?”
“फिर क्या होना था, नाम लिखे, अपनी मोटर साईकल स्टार्ट की, ये जा वो जा, तीर हो गया वो और फिर गली में सन्नाटा छा गया। उस वक़्त ध्यान में ही नहीं रहा वर्ना इस ख़बीस का नंबर नोट कर लेती।।। ख़ैर।
“तो उसने किसी और घर जा कर ये सवाल नहीं किए, सिर्फ हमारे घर आया था।
मैंने ख़ुद-कलामी के अंदाज़ में कहा जिसे मेरी बीवी सवाल समझ बैठी
“हाँ वो सिर्फ़ हमारे ही घर आया और चला गया। मैंने पड़ोसन की बड़ी बेटी नदिरत से पूछा तो उसने क़तअन ला-इल्मी का इज़हार किया बल्कि उसने तो किसी मोटर साईकल की आवाज़ भी नहीं सुनी जिससे मुझे हैरत तो हुई लेकिन फिर याद आया हमीदा आपा ने बताया था कि इस लौंडिया की समाअत क़दरे कमज़ोर है जभी तो इस की शादी नहीं हो रही
ख़ैर मैं घबरा कर अम्मी के पास आ गई और फिर अम्मी ने इतना रोना धोना मचा दिया कि बता नहीं सकती। सच पूछो नईम मुझे तो बहुत डर लग रहा है, कुछ दिन आप ऑफ़िस ना ही जाएँ तो बेहतर है, क्या पता वो कल दुबारा आ जाए। मेरी तो डर के मारे जान ही निकल रही है, हाय अल्लाह क्या मुसीबत है।
मैं सोचों में गुम हो गया और नीलोफ़र थोड़ी देर मुझसे लिपटे मेरे सीने पर सर रखे रही और फिर मुझे यूँ लगा कि गोया वो सो गई है सो मैंने भी बत्ती गुल कर दी और करवट बदल कर ख़ुदा जाने कब सो गया
सुबह मैंने जव्वाद का मोबाइल मिलाया लेकिन इस पर पहले से रिकार्ड शूदा मैसेज आ रहा था, शायद बंद होगा या बेड़ी ढल चुकी थी। मुझसे सब्र ना हो सका और लैंडलाइन से इन्कम टैक्स ऑफ़िस फ़ोन किया और जव्वाद को सारी बात बताई जिस पर उसने ख़ासी हैरत का इज़हार किया
“यार कराची में अपरेशन के बाद बा-क़ौल हुकूमत के ये भत्ते वग़ैरा के वाक़ियात, लगता है कि तक़रीबन ख़त्म हो चुके हैं लेकिन मेरा ख़्याल है ये बात सिर्फ मीडीया की हद तक है। पिछले दिनों फ़ारूक़ भाई बता रहे थे कि पस-ए-मंज़र में कुछ ना कुछ जराइमपेशा सेल हैं जो अब भी किसी दर्जे में फ़आल हैं। ये कच्ची पैंसिल वाला मुआमला अजीब है लेकिन इतने अचंभे वाली बात भी नहीं। वो ऐसे कि फ़र्ज़ करो वो कोई सरकारी महकमे का आदमी है या अगर जराइमपेशा भी है और उस के पास क़लम ना हो तो कच्ची पैंसिल से ही लिखेगा जो बहर-ए-हाल याददाश्त से तो बेहतर है, क्यों जी?
बात में वज़न था सो मैंने हूँ। कह कर ख़ामोशी इख़तियार की और उसने बात जारी रखी
“मैं देखता हूँ लेकिन एक बात का ख़्याल रखो पुलिस वग़ैरा को तो बिल्कुल ही ना बताओ वो इस क़िस्म के मुआमलात से उल्टा फ़ायदा उठाने की करते हैं, तुम्हें तो पता ही है पुलिस के तरीक़ा-ए-कार का, लेने के देने पड़ जाते हैं। पिछले से पिछले अगस्त गोली मार में नवेद भाई का बेटा अग़वा हो गया था और वो पहुँच गए पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने। पुलिस वाले रिपोर्ट तो ख़ैर क्या लिखते, सालों ने उनको उठा कर थाने में बंद कर दिया और कहा
“कहाँ छिपा रखा है बंदे को साफ़ साफ़ बताओ, उगलवाना हमें आता है।
“नहीं नहीं जोजी मैं भला क्यों पुलिस को बताऊंगा, मुझे इल्म है, मुफ़्त में पेचीदगी में इज़ाफ़ा होगा। तुम बस कुछ पता करो, मतलब पता करवाव, यही काफ़ी है।“
मैं घर वापिस आया तो माहौल में अभी तक तनाव था और अम्मी परेशान थीं
“मैंने कहा था यहाँ ना आइयो, इस कम्बख़्त मनहूस जगह में, अरे इस से तो वो बलदिया टाउन हज़ार दर्जे बेहतर था और वो यूनीवर्सिटी रोड के पास वाला घर, जो तौफ़ीक़ मियाँ की ख़ुशदामन ने ले लिया, वो लेते तो ये मुसीबत तो ना आती सर पर। चार साल हो गए हैं यहाँ एक दिन भी चैन से नहीं गुज़ारा। एक आदमी ढंग का नहीं देखा मैंने यहाँ। जब देखो कमबख़्त मुहल्ले के ये ओबाश लौंडे सारा दिन केरकट (क्रिकेट खेलते हैं, ये आउट, वो कैच, ये छक्का।।। नगोड़े जा निहार चीख़ चीख़ के आसमान सर पर उठा लेते हैं और उनकी ग़लीज़ गेंद आए दिन हमारे बरामदे में आती रहती है एक लम्हा चैन नहीं, मोए लफ़ंगे कहीं के
और उस दिन देखो भला क्या किय’ इन ख़बीसों ने, मौलवी-साहब की सफ़ैद क़मीस को कीचड़ भरी गेंद से पलीद करवा छोड़ा, सलीक़ा तो नाम को नहीं उनमें, कोई एक बात हो तो कहूँ। मेरी मानियो याँ से वापिस नाज़िम आबाद चलते हैं मेरा तो जी घुट रही है उधर।
फिर दुआ के अंदाज़ में हाथ उठाए,
“हाए अल्लाह, मेरे रब, उन बदबख़्तों के हाथ पैर तोड़े उनको भी तो मज़ा आ जाए, जहन्नुम बना रखा है इस जगह को इन बेमुरव्वत और बे-क़ाइदा लोगों ने, पता नहीं कहाँ कहाँ से आगए हैं हमारी ज़िंदगीयों में ज़हर घोलने।“
फिर जैसे कुछ याद आया
“दुल्हन अरी ओ दुल्हन मेरी प्रैशर वाली दवाईयाँ लेती आना इस हंगामे में सुब्ह की ख़ुराक भूल गई हूँ, ख़ुदा जाने हाफ़िज़े को क्या हो गया है, लगता है निस्यान हो गया है मुझे।”
“अम्मी मैंने जव्वाद से बात की तो उसने काफ़ी तसल्ली दी। पहले की बात और थी लेकिन अब आर्मी और रेंजर के ऑप्रेशन के बाद इस क़िस्म के वाक़ियात ख़त्म हो चुके हैं। जव्वाद का ये भी ख़्याल है कि ये ज़रूर कोई सादा लिबास वाला आदमी था जो हो ना हो हमारी हिफ़ाज़त के लिए ये सब कुछ कर रहा था, आख़िर हुकूमत हाथ पे हाथ धर के तो नहीं बैठ सकती, लोगों की अम्न-ओ-अमान की ज़िम्मेदारी है उनके कंधों पर।”
मैंने इन तसल्ली आमेज़ जुमलों का असर देखने के लिए अम्मी की तरफ़ देखा और ऐन उसी वक़्त नीलोफ़र उनकी दवाई भी ले के आगई और गुमान ग़ालिब है उसने पूरी बात सुन ली थी
“वो तो ठीक है हमारी हिफ़ाज़त करे लेकिन पूरे मुहल्ले में सिर्फ हमारी ही क्यों? और ये कच्ची पैंसिल से लिखना? ये बात सच पूछिए तो मुझे काटती है।।। देख लें नईम आज या कल।।। ज़रूर दाल में कुछ काला है।”
उसने अम्मी को दवाएँ पकड़ाएँ और अम्मी सर पकड़ कर बैठ गईं और हाय अल्लाह हाय अल्लाह करना शुरू हो गईं। मैंने कहा तो कुछ नहीं लेकिन अपनी पूरी मेहनत यूँ अकारत जाती देखकर नीलोफ़र की तरफ़ इंतिहाई ग़ुस्से से देखा और दाँत पीसते हुए, मुट्ठीयाँ भेंच कर उसे इशारों किनाइयों में बताया कि ये वक़्त इस किस्म के इस्तिदलाल का नहीं था लेकिन वो तीर दाग़ चुकी थी अब क्या हो सकता था।
मैं उठकर अपने कमरे में आगया कि जव्वाद का फ़ोन आया। उसने बताया कि कल हमें सिविल लाईन्ज़ जाना होगा।
सिविल लाईन्ज़ में हेडक्वार्टर की उजली और सफ़ैद इमारत बड़ी शानदार थी और सिर्फ ये देखकर मुझे तसल्ली सी हो गई कि मेरा मसला बस हल ही हो गया है। कर्नल साहब के हवालदार ने हम दोनों को बरामदे में एक छोटे से बग़ली कमरे में बिठाया, चाय और बिस्कुट से तवाज़ो' की और फिर कर्नल साहब से फ़ोन पर बात की और कुछ देर तक यस सर यस सर कहता रहा।
“ये कर्नल साहब ओहदे के लिहाज़ से पक्के कर्नल हैं।”
”पक्का? पक्के से क्या मुराद है तुम्हारी जोजी?”
“अरे यार उनके कॉलर देखना उस पर एक सुर्ख़ पट्टी सी लगी होगी और ये जो हवालदार है ना, देखो उस के कंधों पर रेंजर लिखा हुआ है, ये उनके कंधों पर नहीं होगा। बड़ा अफ़्सर है ये।”
इतने में हवालदार ने हमें साथ चलने को कहा और फिर में और जव्वाद कर्नल साहब के कमरे के सामने खड़े हो गए। दरवाज़ा चौड़ा था और इस के साथ कर्नल साहब के नाम की तख़्ती लगी थी जिस पर काले पस-ए-मंज़र में अंग्रेज़ी में उनका नाम किसी चमकीली धात से लिखा हुआ था
उनके हवालदार ने ऑफ़िस के सामने आईने में अपनी टोपी का टेढ़ापन और वर्दी की सिलवटें दरुस्त कीं और दरवाज़ा हल्के दबाव से खोल कर हमें अंदर आने का इशारा किया
कमरे में सामने बाबाए क़ौम की बड़ी तस्वीर थी जिनकी आँखों की चमक से मेरा दिल उनकी ताज़ीम से लबरेज़ हो गया। सामने एक बड़ी मेज़ के पीछे, जिस पर दबीज़ शफ़्फ़ाफ़ शीशा और उस के नीचे हरे रंग का कपड़ा था और जिस पर दो क़लम, कुछ फ़ाईलें और दस्तावेज़ात सलीक़े और तर्तीब से रखे थे, कर्नल साहब एक चोबी कुर्सी पर जिसके चरमी ग़लाफ़ थे, उजली और कलफ़ वाली वर्दी पहने, बिराजमान थे।
हवालदार ने एक चुस्त क़िस्म का स्लयूट किया। मुझे तो फ़ौजी ज़ाबतों का कुछ नहीं पता था लेकिन हवालदार की तक़लीद में मैंने भी हाथ उठा कर सलाम किया जिस पर उन्होंने हमें हाथ के इशारे से बैठने को कहा। मैंने पूरी सरगुज़श्त एक ही साँस में सुना डाली।
“हूँ, वैसे तो घबराने की बात नहीं। लेकिन। ये कोई हिन्दुस्तानी या इसराईली जासूस हो सकता है, जो तुम्हारी टोह में है और मेरे ख़्याल में ये काफ़ी परेशान-कुन बात है। दो क़ौमी नज़रिए के सबसे बड़े दुश्मन यही दो लोग हैं, भेस बदल कर आते हैं, छुप के वार करते हैं।”
अगले आधे घंटे हम वहाँ बैठे कर्नल साहब के क़िस्से सुनते रहे कि कैसे उन्होंने एक हिन्दुस्तानी जासूस को पकड़ा था जो बहावल नगर के आस-पास के गाँव में मस्जिद का इमाम था लेकिन जब तिब्बी मुआइना किया गया तो पूरी बात खुली।
हम आख़िर-कार वहाँ से निकल आए।
“जोजी यार कर्नल साहब भी कमाल करते हैं वैसे। मेरा, अम्मी और मेरी बेगम का नाम जान कर हिन्दोस्तान पाकिस्तान पर भला क्या अस्करी फ़ौक़ियत हासिल करेगा?और ये इस्राइली जासूस वाली बात।।।, उसका तो जवाब ही नहीं। भला ये क्या बात हुई इसराईली जासूस कराची की गलीयों में खुले बंदों फिर रहे हैं और शफ़्फ़ाफ़ उर्दू में लोगों से हम-कलाम हैं, वाह वाह।
मैं दूसरे दिन शाम को जव्वाद से पार्क में मिला और हमने पूरे मुआमले का अज़ सर-ए-नौ जायज़ा लिया।
“भाई एक आदमी, शलवार क़मीस में मलबूस।।। आम सा आदमी।।। मेरे घर वालों के नाम लिख के ले गया है, और कर्नल साहब उन्हें हिन्दुस्तानी और इसराईली जासूस बना बैठे। हद होती है, अब किसी और से पूछेंगे तो वो कहेगा इलाक़ा ग़ैर का बुर्दा-फ़रोश है, कोई कहेगा ये मेरी बोरी का नाप लेने आया था। मुझे कोई परवाह नहीं कि वो कौन है भाई, मसला ये है वो चाहता किया है।”
“यार मैंने कब कहा कि मैंने उसे हिन्दुस्तानी या इसराईली जासूस बनाया है, कर्नल साहब का ख़्याल है ये और ग़ुस्सा तुम मेरे ऊपर हो रहे हो? अरे भाई तेरे भले ही की बात की है उन्होंने। वो शरीफ़ आदमी हैं और यहाँ पोस्टिंग से पहले सादी लिबास वाले डिपार्टमैंट में त’ईनात थे।।। तजर्बा-कार आदमी हैं।।। इस किस्म के लातादाद वाक़ियात से उनका साबिक़ा पड़ा होगा।”
“सॉरी जोजी, यार समझा करो यार मेरे घर में दो इंतिहाई हस्सास क़िस्म की ख्वातीन हैं जिनका काम किसी भी मुआमले का मनफ़ी तरीन पहलू देखना होताहै। मैं परेशान ज़रूर हूँ लेकिन आप पर ग़ुस्सा नहीं हूँ। यार समझा करो यार। मेरा ख़्याल है कि ये मुआमला सुलझाना कर्नल साहब के बस की बात नहीं और अगर आपको भी यही लगता है, तो क्यों ना किसी और के पास चलें जिसको कुछ ज़रा बेहतर एडिया हो, क्या ख़्याल है?”
“हूँ, मेरे ख़्याल में अनवार साहब से बात करते हैं वो प्रॉपर्टी डीलर है और।।।”
“रहने ही दो यार इन प्रॉपर्टी डीलरों को, पता है क्या, ख़्वा-मख़्वाह मुफ़्त में तशहीर हो जाएगी।।। हर क़िस्म के लोग उन के हाँ आकर बैठते हैं और एक बात जो शायद कुछ है भी नहीं गले की हड्डी बन जाएगी, ना उगली जाये ना निगली जाये।”
“यार में आपका नाम थोड़ी लूँगा, किसी फ़र्ज़ी नज्मी साहब का नाम ले दूँगा, जो गुलिस्तान-ए-जोहर में रहता है और नेवी में सिवल मुलाज़िम है, क्या ख़्याल है?”
उसने सताइश-ए-तलब नज़रों से मेरी तरफ़ देखा”
“नहीं यार गुलिस्तान-ए-जोहर का नाम ना ही लों तो बेहतर है वहाँ मेरे ससुराल वाले रहते हैं, ऐसा करो कह दो लांधी का कोई आदमी है और नज्मी ना कहो, ग़ुलाम नबी या इस तरह का कोई आम सा नाम ले दो।”
“नहीं यार लांढी का एक आदमी हमारे दफ़्तर में काम करता है उस को क्यों फंसाते हो? दूसरी बात ये कि ग़ुलाम नबी, ग़ुलाम अली इस क़िस्म के नाम तो ज़्यादा तर पठानों और पंजाबीयों के होते हैं। वो समझ जाएगा कि ये झूट-मूट का कोई नाम है, आख़िर को वो बरसों से इस कारोबार में है, उड़ती चिड़िया के पर गिन लेता है, तदबीर के नाख़ुन लों, मेरा ख़्याल है कुछ और सोचना पड़ेगा।”
हम थोड़ी देर सर जोड़े बैठे रहे और कराची, जो बिल-फ़े'ल एक बड़ा शहर है इस में एक जगह और एक निसबतन बेज़रर क़िस्म के नाम को ढूंडते रहे जिसको सुनकर वो प्रॉपर्टी डीलर ना तो चौकें और ना ही उसे हमसे या हमारे किसी जानने वाले के साथ जोड़ सके।।। साँप भी मरे और लाठी भी ना टूटे। आख़िर-ए-कार, बाहमी मुशावरत से हमारा इत्तिफ़ाक़ इंचोली के एक फ़र्ज़ी सलीम सिद्दीक़ी पर हो गया जो के -इलैक्ट्रिक में काम करता है और उस के साथ इस क़िस्म का मिलता-जुलता वाक़िया पेश आया है। अब जब ये तै हो गया तो सर से एक बड़ा बोझ उतर गया और मैं घर आ गया।
“बेटा बड़ी देर कर दी, ख़ैरीयत तो थी मुझे तो हौल आ रहे थे और दुल्हन से भी नहीं बोला जा रहा।”
“अम्मी, में इसी मसले में ही सारा दिन पड़ा रहा। एक ब्रेगिडियर साहब से भी मुलाक़ात की। अव्वल तो उन्होंने काफ़ी तसल्ली दी और कहा कोई ग़लतफ़हमी हुई होगी किसी को, क्योंकि अब हालात पूरी तरह क़ाबू में हैं और ये भी कहा कि अगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता कोई जराइमपेशा लोग हुए तो वो उनको सीधा करने में एक मिनट से भी ज़्यादा नहीं लगाएँगे।”
मैंने उनकी आखों में देखते हुए बात जारी रखी
“अम्मी वो काफ़ी शरीफ़ और बुर्दबार किस्म के आदमी थे और उन्होंने तो बल्कि याँ तक कह दिया कि वो दो एक सिपाहीयों को घर पर पहरे पर मामूर करते हैं ताकि उनके रोब से वो दुबारा पास भी ना फटके। वो तो इस बात पर मिस्र थे लेकिन मैंने सोचा इस तरह तो तमाशा लग जाये और फिर भला आप किस-किस को क्या क्या बताती फिरेंगी कि घर पर क्यों पहरा है, सो मैंने इस बात से मा’ज़रत कर ली।”
मैंने पेचिदा क़िस्म की एक कहानी गढ़ कर अम्मी को सुना तो दी और मेरे इस तखय्युलाती क़िस्म के झूट से अम्मी की कुछ ढारस भी बंधी लेकिन मुझे साफ़ नज़र आ गया कि नीलोफ़र को इस कहानी पर हल्का भी एतबार नहीं आया।
जब मैं कमरे में आया तो उसने दरवाज़ा बंद करके मेरी आँखों में अपनी आँखें गाड़ दीं,
“ये कौन से ब्रिगेडीयर साहब हैं जो आप पर इतने मेहरबान हैं? झूट बोला है नाँ आप ने।”
“यार नीलू!समझा करो मै अब अम्मी से क्या कहता, तुम ही बताओ, अम्मी का तो तुम्हें पता ही है, हर बात से कितनी परेशान हो जाती हैं क्या से क्या बना लेती हैं और अगर इस झूटी तसल्ली से उनको तसकीन पहुँचती है तो इस में हर्ज ही किया है?मेरी जान यक़ीन करो इस पूरे मुआमले में कोई ख़तरे वाली बात नहीं है। मैंने और जव्वाद ने मुकम्मल तसल्ली कर ली है।।। सारा दिन ईसी तसल्ली ही के लिए तो जूतीयाँ चटख़ाते फिरे हैं।”
नीलोफ़र ने मेरी आँखों में आँखें डालें और एक एक लफ़्ज़ चबा-चबा कर पूछा,
“और ये बात आप बिल्कुल ठीक और सच्च बता रहे हैं?”
“सौ फ़ीसदी मेरी जान सौ फ़ीसदी, बस? या अब क़सम भी खालों।
मैं अगले दिन जव्वाद से मिला तो उसने, जो थोड़ी बहुत पेश-रफ़्त हुई थी, बताई,
“अनवार साहब ने बताया कि ऐसे वाक़ियात आए दिन होते रहते हैं और ये भत्ते वाले लोग नहीं लगते बल्कि प्लाट या घर के क़बज़े के चक्कर में हैं, ये बात अलबत्ता उनको समझ नहीं आई कि इस क़बील का एक बेज़रर क़िस्म का आदमी इस वज़ा-क़ता में सिर्फ मोटर साइकल लेकर ऐसा क्यों करने लगा, ये लोग उमूमन तीन या चार लोगों के झुण्ड में आते हैं?”
“यार जोजी मसला तो जूँ का तूँ रहा, ये तो मेरे ख़्याल में हम शायद अनवार साहब से मिले बग़ैर भी इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि ये भत्ता मांगने वालों का आदमी नहीं लगता, मुझे तो लगता है हम इस मसले के ग़ैर ज़रूरी जुज़इयात के गिर्द ही तवाफ़ कर रहे हैं और अभी तक जितनी भी तिलावत इन कर्नल साहब और तुम्हारे अनवार साहब ने मिलकर की है लगता है उन्होंने झक ही मारा है, नहीं?”
मैंने अपनी झुँझलाहट छिपा कर लेकिन हल्के फुल्के तंज़िया अंदाज़ में जव्वाद को अपना तब्सिरा बताया,
“यार कोई नहीं बंद करने वाला तुझे बोरी में, हौसला करो मै कोई ना कोई पता कर के तुम्हें बता ही दूँगा। अच्छा ये बताओ आंटी का क्या हाल है?,
“अम्मी ठीक हैं, मैंने कुछ बौंगी सी तसल्ली उनको दे दी और कल से उन्होंने दुरूद पाक की तस्बीह भी शुरू की है तो कुछ पर सुकून हैं और कुछ आराम भी किया रात को, लेकिन यार बेगम से कुछ नहीं छिपा सका और उसने अपनी अम्मी को भी बता दिया है और ख़ाला ने रो-रो कर अपना हाल बुरा कर दिया है। अब उनको समझा समझा कर थक गया हूँ कि सब ठीक है लेकिन बंदा क्या करे, उन ख़वातीन का तो तुम्हें पता ही है।”
फिर मैंने कुछ देर रुक कर चेहरे पर मुस्कुराहट सजाई,
“फिर क्या करें, मुआमला रफ़ा दफ़ा समझें? वैसे भी वो आदमी दुबारा पलट कर नहीं आया। ख़लिश सी रही कि भला कौन था वो, और उस को क्या कुरेद थी हमारे घर के मकीनों की, नाम लिख के चला गया, अजीब बात है, नहीं? हद होती है।”
जव्वाद ने कुछ देर अपनी दाढ़ी खुजाई और जैसे ख़ुदकलामी करने लगा,
“यार एक और आदमी है जो मदद दे सकता है लेकिन इस के लिए मुझे अपने ससुराल बात करनी पड़ेगी। वो आदमी सियास्तदान है और उस का पस-ए-मंज़र ये है कि वो बहुत अर्से तक एक मशहूर पार्टी में रहा लेकिन जब इस पार्टी की क़ाइद एक हादिसे में इस दुनिया से चली गईं तो उस के पार्टी वालों के साथ शदीद इख़तिलाफ़ात पैदा हो गए और गो अब अमली सियासत तर्क कर दी है लेकिन अब भी सिंध में हारी से लेकर वडीरों और क्लरकों से लेकर गवर्नर तक उस की पहुँच है, तुम कहो तो बात कर सकता हूँ, आदमी राज़दारी रखेगा लेकिन इस में एक क़बाहत है।
में चौंका
“क़बाहत? हैं, भला क्या?”
“यार उनको बात पूरी बतानी पड़ेगी, तुम्हारा नाम पता सब कुछ सही सही, उनसे आप कुछ छिपा नहीं सकते। सियासतदानों का एक मिज़ाज होता है, जिससे आप इख़तिलाफ़ कर सकते हैं, दरुस्त, लेकिन वो अगर किसी चीज़ के हल का इरादा करलें और मदद पर आमादा हो जाएँ तो पूरी बात सुनना पसंद करते हैं और झूट ख़ाह ख़ुद कितना बोलें, इन मुआमलात में सिर्फ सच्च सुनना पसंद करते हैं, अब ये ना पूछना ऐसा वो क्यों करते हैं।”
मैंने ना नफ़ी में और ना इस्बात में सर हिलाया सिर्फ़ होंट सुकेड़े,
“जोजी तुम्हारा बहुत ही शुक्रिया लेकिन यार में ये बात सोच कर ही बताऊंगा। मैंने तमाम उम्र दफ़्तर से घर और घर से दफ़्तर वाला काम किया है और कभी भी किसी सियासी जमात से हल्की सी भी वाबस्तगी नहीं रखी अगरचे मेरे वालिद साहब जमात में काफ़ी सर-गर्म थे लेकिन उन्होंने मुझे इन कामों से दूर रखा। मुझे एक बात का पता है, सियासतदानों से काम करवा के उनके काम करने पड़ते हैं और ये मुझसे नहीं होगा। सच्च पूछें मुझे कराहत सी आती है लेकिन तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया कि तुमने मेरे लिए इतनी तग-ओ-दू की।”
शाम को घर आया तो ख़ाला और ख़ालू आए हुए थे और मुझे अन्दर आता देखकर ख़ाला जान उठी मेरी बलाएँ लीं और फिर तहक्कुमाना लहजे में अपना फ़ैसला सुनाया,
“बस बहुत हो चुका, दुनिया में एक ही बहन है मेरी जो अल्लाह बख़्शे हमारी वालिदा के इंतिक़ाल के बाद मेरे लिए तो बस मेरा सब कुछ है। मैं अब आप लोगों को यहाँ नहीं रहने दूँगी, किसी भी क़ीमत पर। ये कोई जगह है रहने की जो तुम अपनी जोरू के कहने पर इधर चले आए। जराइमपेशा लोगों का गढ़ है, बस में अब एक भी नहीं चलने दूंगी तुम और मेरी बेटी जाते हो या नहीं मैं राशिदा आपा को साथ ले के जा रही हूँ।”
उन्होंने बा आवाज़ बुलंद कुछ फ़ैसले सुनाए और फिर बात जारी रखी,
“गुलिस्तान-ए-जौहर पुर-अम्न है, देखा नहीं जब उनकी बहन ख़दीजा के हाँ लोग आए थे तो कैसे रेंजरज़ वालों ने इन बदमाशों को घसीट के इस निगोड़ी वीडीयो गेम की दुकान से निकाला था, और दो दिन हवालात में रखा तो उनके होश ठिकाने आ गए, यहाँ कौन है ख़बर-गीरी करने वाला?”
जब उनका जोश-ए-ख़िताबत कुछ ठंडा हुआ तो मैंने अपने ख़ुशक होंटों पर ज़बान फेरी,
“ख़ाला जान, ये इतना बड़ा मसला नहीं है, मैंने तसल्ली कर ली है। रही बात जाने की तो मुझे एतराज़ कोई नहीं, आप आज कहें हम चले जाते हैं लेकिन मुझे कुछ दिन देखने दें अगर बिलफ़र्ज़ मुआमला आप ही आप दब जाता है तो फिर ज़रूरत क्या है कहीं जाने की?आप बस कुछ दिन इंतेज़ार करें, इस्तिदा है मेरी।”
फिर मैंने नीलोफ़र की तरफ़ देखा,
“ये तवाज़िह की है तुमने ख़ाला जान की? ख़ाली चाय? बिस्कुट ले आओं और वो जो ख़ताईआँ मुनीर साहब के हाँ से आई थीं वो कहाँ हैं? ले आओं, ख़ाला जान आप तसल्ली रखें, बैठें,प्लीज़।,
“नीलम बेटा अब्बू को कोई भी मीठी चीज़ नहीं देना, मना किया गया है लेकिन सुनते कहाँ हैं, ख़ूब बद-परहेज़ी की उन्होंने नसीमा की बेटी की शादी में।।। मीठा देखकर ये रुक नहीं सकते।।। शूगर का ज़रा भी ख़्याल नहीं। उम्र बढ़ती है तो अक़ल बढ़ती है और एक ये हैं, ना ही पुछीए।
ख़ालू जिज़-बिज़ हुए लेकिन कुछ बोले नहीं और नीलोफ़र हल्की सी मुस्कुराई।”
मैंने सोचा अब इस मसले का कोई ना कोई हल निकालना ही पड़ेगा और यूँ मैंने सानियों में सियास्तदान वाली बात पर दुबारा ग़ौर किया।
अगले दिन, मै और जव्वाद उस सियास्तदान, जिनका नाम में सीग़ा राज़ में रखना पसंद करूँगा, के बंगले पर गए और गेट पर मामूर चौकीदार को जव्वाद के सुसर का तआरुफ़ी कार्ड थमा दिया। चूँकि बात पहले हो चुकी थी तो जब सेक्रेटरी से इंटर-कॉम पर बात हुई तो उन्होंने हमें सीधा ड्राइंग रूम में बुलाया।
मैंने ड्राइंग रुम पर एक उचटती सी नज़र डाली जिसमें एक दबीज़ क़ालीन और दस एक सोफा सेट थे जिसमें आप बैठें तो धँस जाएँ। हर तरफ़ चमकदार वाला फ़र्नीचर था और टेबल और दीवारों पर जा-ब-जा उनकी साबिक़ा लीडर साहिबा की तस्वीरें लगी हुई थीं।
पाँच मिनट बाद वो साहब तशरीफ़ लाए और हमने उठकर उनका इस्तिक़बाल किया। उन्होंने हमें हाथ के इशारे से दुबारा बैठने को कहा और ठंडा गर्म पूछा। मैंने देखा कि उन्होंने सफ़ैद शलवार क़मीस, सिंधी टोपी और इजरक पहनी हुई थी और उनकी उंगलीयों में क़ीमती पत्थरों की मुतअद्दिद अँगूठीयां थीं। दरमयाने क़द, पक्की उम्र और बड़ी बड़ी मूँछें वाले इस सियास्तदान के दाहने गाल पर एक बड़ा तिल था। हमारी पूरी बात तसल्ली से सुनी।।। फिर फ़ोन पर किसी से इंतिहाई आहिस्ता आवाज़ में बात करके हमारी तरफ़ मुतवज्जा हुए,
“साईं ये ना तो डाकू लगते हैं और ना ही भत्ते वाले, मुझे पक्का यक़ीन है ये मुख़ालिफ़ पार्टी का बंदा था, ये सियासी चाल है। सरासीमगी फैलाना, लोगों को डराना धमकाना ख़ौफ़ फैलाना इन्हीं का काम है। चूँकि अब उन को इलैक्शन में हमारी हुकूमत के आने का ख़ौफ़ है तो आप जैसे नौजवान जो सियासत में तब्दीली लाना चाहते हैं, मुख़ालिफ़ पार्टीयाँ उन को इन हथकंडों से दबाना चाहती है, गला दबाना चाहती है उनका।।। ताकि इस मुल्क में सच्च का बोल-बाला ना हो, लेकिन आप घबराएँ नाँ जीत हमेशा सच्च की होती है, हमारे सज्जादा नशीन पीर साईं का क़ौल है, हक़ आया और बातिल मिट गया, बे-शक बातिल मिटने ही वाला था।।”
वो पता नहीं क्या-क्या कहते रहे लेकिन क़ुरान की इस बे-हुरमती पर मैं कढ़ने लगा और फिर जब हम उनके बंगले से बाहर आए तो मैंने जव्वाद की तरफ़ देखा जो नज़रें झुकाए टैक्सी में मेरे साथ पिछली सीट पर बैठा था। मैंने कुछ सोच कर तहम्मुल से काम लिया,
“यार मुझे सियासी आदमी बनाने वाली बात क़ाबिल-ए-माफ़ी है लेकिन इस चोग़द ने क़ुरान की आयत को पीर का कलाम बता कर जो गुस्ताख़ी की ये उसने कुछ अच्छा नहीं किया।।।बदतमीज़ जाहिल आदमी।।। इस बेहूदा शख़्स को पता भी था कि वो क्या कह रहा है? शर्बत वग़ैरा तो नहीं पी रखी थी उसने? ये समझ में नहीं आता कि उस का इख़तिलाफ़ क्या था अपनी पार्टी वालों से?”
“यार मुझे बड़ी शर्मिंदगी है इस पूरे सीन से लेकिन अंकल ने बताया था कि ये साहब कोई भी मदद कर सकते हैं। मुझे नहीं पता था कि वो इस क़िस्म की बेहूदा गुफ़्तगु करेंगे अगरचे उनके सैक्रेटरी को ताकीद से बता दिया था कि आप ग़ैर सियासी आदमी हैं। बस यार हमारी ज़रूरत है इस लिए हर कूचे की ख़ाक छान रहे हैं हम।?”
“हाँ मेरे यार तेरे ख़ुलूस में कोई कमी नहीं बस हालात ही ऐसे हैं कि डोर का सिरा ही नहीं मिल रहा वर्ना मसला सादा है, तुम घर जाऐ आज की भाग दौड़ से काफ़ी थकन हुई होगी मेरे यार को। तुम समझा करो यार मुझे अपनी परवा नहीं लेकिन इन दोनों का यार, बस समझा करो। और फिर इस मसले की लपेट में तुम भी मुफ़्त में आ गए हैं, आई ऐम रियल सॉरी।”
जव्वाद ने मेरी आँखों में नमी देख ली और तसल्ली आमेज़ लहजा अपनाया,
“नहीं यार मुझे कोई दिक्क़त नहीं हुई, नईम तुम आराम करो, वीक ऐंड के बाद बात होगी लेकिन अब मेरा ख़्याल है पुलिस को बताना ही पड़ेगा।
मैं घर आ गया और नीलोफ़र ने दरवाज़ा खोला। मैंने नफ़ी में हल्का सर हिला के उस को बताया और उस के चेहरे पर पझ़मुर्दगी सी छा गई लेकिन फिर,ताकि अम्मी को पता ना चले, मुस्कुरा कर मेरा इस्तिक़बाल किया और अम्मी जो सलाम फेर ही रही थीं मुझे बहुत पुर-सुकून नज़र आई।
मैं उनके सामने गया, जूते उतारे और उनके ज़ानू के मुक़ाबिल ज़ानू रखकर जाएनमाज़ पर बैठ गया और उनके हाथ चूमे। उन्होंने मेरी बुलाऐं लीं और पाक कलाम का विर्द कर के मेरे ऊपर फूंक दिया तो कुछ तमानीयत सी मिली। अभी हम बैठे चाय पी ही रहे थे कि सामने वाले घर का दरवाज़ा कोई ज़ोर ज़ोर से खटखटाने लगा जैसे भूंचाल आया हो। मैंने नीलोफ़र की तरफ़ देखा और उसने उठकर दर्ज़ में से देखा और फिर उस के चेहरे का रंग फ़क़ हो गया। उसने ख़ौफ़ से लरज़ते हुए गेट की तरफ़ इशारा किया,
“नून।।। नून।।। नईम।।। वही।”
मैं उठा और दौड़ कर दरवाज़े की तरफ़ लपका और गेट खोल कर देखा। दूसरी तरफ़ वाले घर के ऐन सामने एक बाइस तैईस साला आदमी रजिस्टर नुमा किताब में कुछ लिख रहा था और अली मियाँ, जो मुर्तज़ा साहब का मँझला लौंडा था, उसे कुछ लिखवा रहा था।
कुछ लिख कर उसने रजिस्टर बंद किया, मुड़ा और अपनी मोटर साईकल की तरफ़ बढ़ने लगा
मुझे एक लम्हे के लिए कुछ समझ में नहीं आया लेकिन फिर जैसे मेरे अंदर बिजली सी कौंद गई और मैंने उसे ललकारा,
“सुनीए आप रुकें, बात करनी है आपसे, आप सुन रहे हैं?”
उसने मेरी तरफ़ देखा और इस का हुलिया हू-ब-हू वही था जो नीलोफ़र ने बताया था लेकिन उसने मेरी बुलंद आवाज़ को भी नज़रअंदाज़ कर दिया, मोटर साईकल पर बैठा, किक दी और उछल कर गली के मोड़ तक पहुँच कर मुड़ने लगा। मुझे फौरन्न ख़्याल आया कि मोटर साईकल का नंबर नोट करूँ लेकिन उजलत में सिर्फ के -एम डी और शायद कुछ उनीस या शायद उनत्तीस लिखा नज़र आया लेकिन बाद का नंबर मै नोट ना कर सका।
मैंने घर आकर अम्मी और नीलोफ़र को तसल्ली दी और उन्हें बताया कि परेशानी की बात नहीं पोलीयो वैक्सीन वाला आदमी था और फिर मोटर साईकल निकाली और उसका पीछा करने की ठानी।
वीक ऐंड के भीड़ में भला वो मुझे क्या नज़र आता। मैं ये जानते हुए भी दो घंटे मारा मारा फिरता रहा।
गली में वापिस आया तो मुर्तज़ा साहब के घर के अंदर कुहराम मचा हुआ था।
मुझे तशवीश हुई,मैंने मोटर साईकल गली ही में पार्क की और भाग कर उनके घर के अंदर गया तो देखा कि ख़वातीन एक दूसरे से लिपट के रो रही थीं। मुझे ये समझने में ज़्यादा देर ना लगी कि मुर्तज़ा साहब गुज़र चुके थे।
मैंने उनके बड़े बेटे को गले लगाया,तसल्ली दी और फिर यकदम मुझे कुछ याद आया
“अली किधर है?”
उसने अली को बुला भेजा। रो-रो के उस की भी हालत ख़राब थी।
मैंने उस से ताज़ियत की,तसल्ली दी और फिर जैसे बात बदलने के लिए पूछा,
“अली आपको कुछ याद है अस्र और मग़रिब के बीच यहाँ एक आदमी आया था आज।।। मोटर साईकल वाला, उसका क्या काम था आपसे।”
“नईम भाई उसने घर के लोगों के नाम पूछे फिर मेरा, शब्बीर भाई, रज़ा, सकीना और अम्मी का नाम कच्ची पैंसिल से लिखा और अब्बू का नाम सुर्ख़ रोशनाई से लिखा और फिर मुझे यूँ लगा जैसे उसने अब्बू के नाम को काट दिया है, बस इतना याद है, मुझे, लेकिन नईम भाई आप ये क्यों पूछ रहे हैं?”
मैंने कहा कुछ नहीं लेकिन फ़ैसला किया कि मैं और जव्वाद सोमवार को थाने जा कर पुलिस को पूरी बात तफ़सील से बताएँगे।
मैं घर आ गया तो देखा कि नीलोफ़र का ख़ौफ़ जा चुका था और अम्मी सो चुकी थीं
रात को नीलोफ़र कमरे में दाख़िल हुईं तो उस के हाथ में दूध का गिलास था और मुझसे शोख़ी से पूछा
“कैसी लग रही हूँ में?”
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