अजनबी परिन्दे
शक्ल उसकी घड़ी-घड़ी बदलती कभी रौशन दान की हद से निकल कर तिनकों का झूमर दीवार पर लटकने लगता, कभी इतना बाहर सरक आता कि आधा रौशन दान में है, आधा ख़ला में मुअल्लक़, कभी इक्का दुक्का तिनके का सरकशी करना और रौशन दान से निकल छत की तरफ़ बुलंद हो कर अपने वजूद का ऐलान करना। चिड़ा चिड़िया घोंसले से निकल रौशन दान के किनारे बैठ जाते और धीमे मीठे शोर से कमरा भर जाता। चिड़े के रुएँ-रुएँ में बिजली की रौ चलती दिखाई देती। चिड़िया पे एक नशे, एक सुपुर्दगी की कैफ़ीयत कि वो रौ जब इस कैफ़ीयत में शामिल होती तो अलग-अलग वजूद ख़त्म हो जाते और एक गर्म धड़कती हुई परों की नन्ही सी पोटली बाक़ी रह जाती। कभी चिड़ियों का एक ग़ोल हो जाता और ये शोर मचाता कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई न देती। बाहर से खिंच-खिंच कर आतीं, रौशन दानों में, दरवाज़ों के कंवड़ों पर, ताक़ों में, आतिश-दान पर, बस समझो कि कमरा चिड़ियों से भर जाता और वो चीं पीं होती गोया चिड़ियों में बलवा हो गया है। कोई दो चिड़े गुत्थम-गुत्था हो जाते, लड़ते-लड़ते रौशन दान से फिसलते, भद्द से फ़र्श पे आ गिरते, पक्के फ़र्श पे चित्त गिरे हुए, धड़कते हुए पोटे, चोंचें खुली हुईं, लगता कि हाँपते-हाँपते चल बसेंगे कि ज़रा खटका हुआ, फुरेरी ली, आन की आन में फिर से उड़ रौशन-दान से बाहर निकल ये जा वो जा, साथ में चिड़ियों का मौज मौज मजमा भी रुख़स्त हो जाता और कमरे में एक दम से ख़ामोशी छा जाती।
कमरे की अजब हालत थी। हर तरफ़ तिनके भरे हुए आतिशदान पर, चांदनी बिस्तर में किताबों की मेज़ पर, कुर्सीयों पर, कहीं इक्का दुक्का कहीं ढेरी की ढेरी, फ़र्श पर चीथड़े-गुदड़े तिनकों के साथ उलझे हुए सूखी घास का कोई बड़ा सा गुच्छा आवारा-आवारा, कभी फ़र्श के बीचो बीच, कभी हवा के सहारे सरकता-सरकता कुर्सी के नीचे से पलंग के नीचे कई मर्तबा उसने बाँस उठाया कि घोंसले को रौशन-दान से फेंक दे। मगर अम्माँ जी ने टोक टोक दिया , “ना बेटा चिड़ियों को नहीं सताते हैं।”
“और चिड़ियाँ हमें सताती रहें?”
“सतावें या न सतावें, पर घोंसला तो नहीं उजाड़ना चाहिए। आख़िर हुआ क्या, ला में झाड़ू दे दूँ।”
और वो झाड़ू लेकर खड़ी हो जातीं। सारे कमरे में झाड़ू देतीं। किताबों की मेज़ से आतिशदान से, बिस्तर पोश से तिनके चुनतीं, झाड़न से एक-एक चीज़ को झाड़तीं। कमरा साफ़-सुथरा हो जाता, मगर जब तीसरे पहर को वो दफ़्तर से वापिस होता और कमरे में क़दम रखता तो फिर वही बिखरे हुए तिनके, वही घास फूँस, नन्हे चीथड़े-गुदड़े तिनकों में उलझे हुए, किताबों पे जाबजा बैठें।
“बड़ी आफ़त है ये तो, इन चिड़ियों ने तो हमारा नाक में दम कर रखा है।”
“बेटा चिड़ियें आबादी की निशानी हैं। उजाड़ घरों में अबाबीलें रहवै हैं। चिड़ियें तो भरे घरों में ही रहवै हैं।” उसे वो अपना पुराना घर वो गया वक़्त याद आ जाता। जब घर भरा हुआ था। दालान की ख़मीदा कड़ी में तो ख़ैर दो घोंसले थे ही, एक घोंसला बड़े कमरे के छत को छूते हुए बदरंग हरे शीशे वाले रौशन-दान में था एक घोंसला ज़ीने की गर्द से अटी मैली छत में तिनकों और गूदड़ की सूरत में ग़ुल्ला जितना चित्तियों वाला ख़ाकस्तरी अण्डा कभी ज़ीने की सीढ़ीयों पे, कभी दालान के फ़र्श पर ख़मीदा कड़ी के नीचे, कभी कमरे में रौशन-दान तले लोटा पड़ा नज़र आता। कभी चित्तियों वाला ख़ाकस्तरी अण्डा, कभी गोश्त का नन्हा लोथड़ा ऐसा चिड़िया का बच्चा कि हाथ लगाने से पिच-पिच करता। सवेरे-सवेरे जब उसकी आँख खुलती तो दालान और ज़ीने और कमरे वाली अपनी चिड़ियाँ और दूर के घरों से आती हुई रंग-रंग की पराई चिड़ियाँ सामने वाली मुंडेर पे फुदकती शोर करती दिखाई देतीं। कभी मुंडेर पे, कभी मुंडेर से आँगन में, जहाँ टाट के लंबे बोरिए पर रेहलें जमाए सिपारे खोले लड़कियों की एक क़तार लगी होती। वात्तीनी वज़्ज़यतूनी। वलतूरी सीनीना वहज़लबलदुल आमीन। सबक़ इस ज़ोर-ज़ोर से याद किया जाता कि सारा आँगन गूँजता।
“नईमा, चलो चिड़िया पकड़ें,” नईमा अम्माँ जी को ग़ाफ़िल देख सिपारा आहिस्ता से बंद कर चुपके से साथ हो लेती। ज़ीना चढ़ छत पे पहुँचते। बोइए को छोटी सी खपच्ची के सहारे टिकाया, नीचे गेहूँ के दाने बिखेरे, खपची में लंबी सी चीज़ बाँधी और चीर का दूसरा किनारा थाम ज़ीने की दीवार के पीछे छिप गए। घुले मिले बैठे हैं और नज़रें बोईआ पे जमी हैं। चिड़ियाँ कितनी चालाक हो गई थीं कि बाहर के दाने चुगतीं, बोइए के पास जाएँ और फिर हट जाएँ, देर गुज़र जाती और छूते हुए जिस्म पसीने में भीगने लगते और वो बैठे रहते, उसी तरह घुले मिले, नज़रें उसी तरह बोइए पे जमी हुईं। कोई चिड़िया बहुत बहादुरी दिखाती और अक़्लमंद बनती कि बोइए के क़रीब जाकर नन्ही गर्दन घुमा फिरा ऊपर नीचे देखती, चोंच बढ़ाकर अंदर से एक दाना चुगती फिर पीछे हट जाती। फिर फुदक इक ज़रा और अंदर जाती, एक दाना चुनती और फिर बाहर और उसके बाद इतमीनान से दाना चुगने लगती, चुगते-चुगते अन्दर चली जाती। खट से बोईआ गिर पड़ता।
“अहाहा पकड़ी गई। चिड़िया पकड़ी गई।”
“अरी चुप। अम्माँ जी सुन लेंगी।”
फिर वो हौले-हौले बोइए के पास गए। एहतियात से चिड़िया को पकड़ा।
“अरे मैं बताऊं एक बात, चिड़िया को रंग लें।”
नईमा की तजवीज़ उसे बहुत भाई। हौले-हौले नीचे गया, दबे-पाँव दालान में जा ताक़ से गुलाबी पुड़िया उठा जेब में रख, चुपके-चुपके कनखियों से अम्माँ जी को कि घड़ौंची से परे लड़कियों को सबक़ देने में मसरूफ़ थीं देखते हुए घड़े से कटोरा उठाया, पानी से भरा, बे पाँव ज़ीने से जल्दी-जल्दी ऊपर। नईमा ने पुड़िया पानी में घोली। फिर चिड़िया को पकड़ कटोरे में डुबकियाँ दीं।
“भई बस करो चिड़िया भीग गई।”
चिड़िया को भीगा देखकर उसका दिल जाने क्यों पसीजने लगा। पर भीग कर लटक से गए थे। और वो बिजली ऐसी रौ, वो हरारत कि इस पिद्दी सी शैय को हर-दम हरकत में रखती थी मंदी पड़ गई थी। उसे तरस आने लगा। “भई छोड़ दो, चिड़िया मर जायेगी।”
वो बहुत हंसी , “बावल ख़ाँ चिड़िया कहीं रंगने से भी मरती होगी। अब वो सुर्ख़ हो जावेगी। ज़रा सूख जावे फिर देखो।”
“तो भई उसे सूख जाने दो। उसे धूप में बिठा दो।”
नईमा ने उसे धूप में बिठा दिया। इसके बाज़ू भीग कर कैसे लटक गए थे, जैसे साड़ी और चोली और अंग-अंग होली के रंग से शराबोर हो गया हो और दो क़दम चलना दूभर हुआ हो। फिर भी नईमा ने ख़बरदार कर दिया था। “सूख जावे तो फ़ौरन पकड़ लीजियो नहीं तो उड़ जावेगी।”
चिड़िया रंग में भीगी ऊँघती रही। फिर उसने फुरेरी ली, परों को फुर्ती से झटका और फिर से उड़ मुंडेर पे जा बैठी।
“अरे उड़ गई,” नईमा चिल्लाई। फिर दोनों ने दौड़ लगाई। लेकिन चिल्लाना और दौड़ना दोनों काम न आए। चिड़िया मुंडेर से उड़ी और दम के दम में आँखों से ओझल हो गई।
“उड़ गई,” उसने अफ़्सुर्दा लहजे में कहा।
सर न्यौढ़ाये मुँह लटकाए हौले-हौले क़दम उठाते वापिस हुए और ज़ीने की चौखट पे बैठ गए। देर तक चुप बैठे रहे। फिर नईमा ने अपने गुलाबी हाथ देखे और दीवार से रगड़ने शुरू कर दिए।
“अब पिटाई होगी।”
नईमा ने उसकी बात का कुछ जवाब न दिया, हाँ हथेलियों को दीवार पे और ज़्यादा सख़्ती से रगड़ना शुरू कर दिया।
उसने उसके गाल को घूर के देखा, फिर हंस पड़ा। “गाल पे भी लाली लग रही है।”
नईमा का हाथ जल्दी से गाल पे गया। गुलाबी उंगलियाँ गाल पे मलीं तो गाल और लाल गुलाबी हो गया और वो खिलखिला के हंस पड़ा। “पगली तेरे हाथ तो सुर्ख़ हैं। गाल पे और लाली लग गई।”
वो रोने वाली हो गई।
“ला मैं छुटाऊँ,” उसने पोरों को थूक से गीला कर उसके गाल पे मला। वो अलग सरक गई। “नहीं भई हम ख़ुद साफ़ कर लेंगे और उसने कुरते के दामन को होंटों से गीला किया और गालों को मलना शुरू कर दिया।
उसने अपने पोरों को देखा कि लाल गुलाबी हो चले थे, लाल गुलाबी पोरे कि अब उनमें नरम-नरम मिठास सा बह रहा था, उसने लाल गुलाबी पोरों को होंटों से तर किया और कुरते पे मलने को था कि रुका। लाल गुलाबी पोरों में, बाहर और अंदर, नरम-नरम मिठास बह रहा था। जी उसका चाहा कि फिर इन लाल गुलाबी गालों को लाल गुलाबी पोरों से छुए। मगर नईमा घबराहट में उठ खड़ी हुई थी। “भई दोपहर हो गया हमारा सबक़ याद नहीं हुआ है...”
और चिड़ियों का ग़ोल का ग़ोल कमरे में घुस आता और वो गुल मचाता कि यादें उसकी तितर बितर हो जातीं। उसकी यादें भी अजीब थीं कि किसी मुबहम से इशारे पर माज़ी के धुँदलकों में गुम आशियानों से उड़-उड़ कर क़तार दर क़तार आतीं और झुरमुट बन कर उतरतीं और हल्के से खटके पर भर्रा कर उड़ जातीं और वो फिर ख़ाली आँगन ऐसा वीरान हो जाता। ख़ाली कमरे में वो, उसकी किताबें, हरारत से महरूम, अकेला बिस्तर, रौशन-दान में बैठा हुआ चिड़ा कुछ देर अकेला बैठा चिल्लाता रहता, फिर आप ही आप उड़ जाता। अकेले चिड़े की आवाज़ कि यादों के जमघटे में गला बन कर गिरती और तितर बितर कर देती और कभी यादों का बुलावा बन जाती। गुलाबी चिड़िया तो अदबदा कर याद आति कि उसके हाथ से निकल कर भी उसकी ही रही। काली डाढ़ी सफ़ेद पोटे वाले चिड़े और ख़ाकस्तरी चिड़ियों के हलक़े में यूँ लगती कि लाल परी है और वो और नईमा दोनों गुल मचाते कि “वो देखो हमारी चिड़िया” और गुलाबी चिड़िया शायद ताड़ जाती कि शायद उस पर अंगुश्तनुमाई हो रही है और चहचहाते-चहचहाते झेंप सी जाती, फिर बिला वजह सब उस हलक़े से बाहर निकल फिर से उड़ जाती।
वो गुलाबी चिड़िया क्या हुई, कब और कैसे आँखों से ओझल हुई, वो बहुत याद करता कुछ याद न आता , बीते दिनों गज़े सुमों में कोई तरतीब कोई तसलसुल नहीं था। एनिमल बेजोड़ यादें, गुड मिड होती हुई दो-पहरें , शामें, सुब्हें, घुले मिले मिटे मिटे साय कि जिनमें से एक गुलाबी-गुलाबी साया उभरता, तसव्वुर में मंडलाता रहता और फिर मिटे-मिटे सायों में घुल-मिल जाता।
नईमा ख़ुद अब उसके तईं एक मिटा-मिटा गुलाबी साया थी। कब नज़रों में समाई, कैसे आँखों से ओझल हुई कोई घड़ी कोई दिन यूँ उसे याद ना था कि वो उसे चुटकी में पकड़ लेता, हाफ़िज़े में महफ़ूज़ कर लेता। उसे तो ये भी याद न था कि उसने क़ुरआन कब ख़त्म किया था, किया भी था या नहीं किया था, नहीं किया था तो कौन से सिपारे से पढ़ना छोड़ा। बस इतना याद था कि उसने पढ़ने आना छोड़ दिया था। कभी-कभार किसी काम से आ निकलती तो बस घड़ी दो-घड़ी के लिए उससे दूर-दूर अम्माँ जी के पास आना, बात करना, दम के दम में चले जाना। दूर-दूर से वो उसे देखता यूँ जैसे कभी पास से देखा ही न हो। लंबी कितनी हो गई थी वो। फिर उसका पर्दा हो गया... चिड़िया अचानक से कमरे में आ जाती, लगता कि लंबा सफ़र करके आ रही है और चिड़ा इस शोर से इसका इस्तिक़बाल करता कि कमरा चीं चीं के नर्म शोर से भर जाता और तसव्वुर में तैरता गुलाबी साया फिर किसी पर्दे में छिप जाता।
फिर एक रोज़ क्या हुआ कि दफ़्तर से वापिस हुआ तो देखा कि चिड़ियों के सरासीमा शोर ने कमरे को उठा रखा है। आतिशदान पर, कुर्सी पे, फ़र्श पे जाबजा बैठी हैं, मगर जो जहाँ है परेशान है। उसके दाख़िल होने से वो परेशान मजमा तितर-बितर हो गया। कुछ बाहर उड़ गईं। एक चिड़िया आतिशदान से उड़ कर किवाड़ पे जा बैठी, रौशन-दान वाला जोड़ा फ़र्श से उठा और रौशन-दान में जा बैठा मगर उसी तरह बे-ताब और बेक़रार। फिर थोड़ी देर में कोने में रखी हुई बड़ी अलमारी के पीछे से बहुत बारीक बहुत नहीफ़ चूँ-चूँ की आवाज़ आनी शुरू हुई। अलमारी के पीछे झाँका तो अंधेरे में एक नन्ही सी शय हरकत करती चूँ-चूँ करती दिखाई दी। दिल में आया कि बच्चे को उठाकर रौशन-दान में रख दे। पर रुक गया। कब की बात याद आई थी। इसी तरह रौशन-दान ताक़ों दरीचों में चिड़ियाँ जमा थीं और आसमान सर पर उठा रही थीं। वो बे परों का नन्हा सा लूथरा अभी-अभी कड़ी वाले घोंसले से पट से गिरा था। उसे तरस आ रहा था कि बेचारे को इतनी ज़ोर की चोट आई है। नईमा घुटनों पे झुकी, फिर बैठ कर देखने लगी, फिर आधा लेटे हुए अपना कान बच्चे के बिलकुल बराबर कर दिया। मगर इस एहतियात से कि बच्चे को छू न जाये।
“नईमा, बच्चा ज़िंदा है?”
“हाँ ज़िंदा है।” फिर वो उठी बोली, “उसे घोंसले में रख दें।”
उसने झुक कर आहिस्ता से बच्चे को उठाया। जंगले पे चढ़ा। नईमा ने अपने हाथों में उसके पैर थाम रखे थे। फिर एक पाँव जंगले पे दूसरा पाँव नईमा के कंधे पे रखा। एक गर्म-मीठी नरमी तलवे में, तलवे की राह सारे बदन में चढ़ रही थी। जी उसका चाह रहा था कि तलवा उसी अंदाज़ से टिका रहे, गर्म-मीठी नरमी में उतरता चला जाये। पर उसका हाथ कड़ी तक जा पहुँचा था। एहतियात से बच्चे को घोंसले में रखा और धम से नीचे कूद पड़ा।
“अच्छा भई अब बाहर चलें। चिड़िया उसे चुग्गा खिला देगी।” दोनों दालान से आँगन में आँगन से बाहर गली में निकल गए। देर तक गली गली घूमते रहे और बच्चे के मुस्तक़बिल पे सोच बिचार करते रहे।
देर बाद पलटे, दालान में क़दम रखा था कि ठिठक गए। चिड़िया का बच्चा, बे परों का बे-जान गोश्त का लोथड़ा फिर गिरा पड़ा था और च्यूँटियों की लंबी क़तार दूर तक चलती नज़र आ रही थी।
“मर गया,” नईमा दबी आवाज़ में बोली।
दोनों खड़े रहे, चुप-चाप देखते रहे, उस बे-जान नन्हे लोथड़े को च्यूँटियों की चलती हुई लंबी क़तार को। फिर पलटे और दबे क़दमों कि आहट न हो, धीरे धीरे बाहर निकल गए... तेज़ी से घूमती हुई फिरकनी की सी आवाज़ ने फिर रख़्ना डाला। रौशन-दान से उतरती हुई चिड़िया फिर से उसकी आँखों के सामने से गुज़री, अलमारी के पीछे गई, बच्चा चूँ-चूँ करता बाहर निकल आया। नन्हा सा मुँह खुला। चिड़िया ने चुग्गा दिया और फिर उड़कर रौशन-दान में चली गई उसे यूँ ही ख़्याल आया कि घोंसला अजब मुल्क है कि इसकी सरहद को जो वक़्त से पहले फलाँग गया वापिस न आया, इस देस से जो निकल गया वापसी के रस्ते बंद हैं। कुछ अजब तरह का ख़्याल था कि दिल उदास सा हो गया और वो झुकी हुई चटख़्ती हुई काली कड़ीयों वाला लंबा दालान, पटरे निकली मैली छत वाला ज़ीना, वो छतें, वो गलियाँ देर तक याद आती रहीं।
देर-देर कमरे में ख़ामोशी रहती। बिस्तर पे कोई तिनका गिरता न कोई चूँ-चूँ की आवाज़ होती। फिर दरवाज़े की ऊपर वाली चौखट के आस-पास परों की आहट होती। सूरत से थकी हारी सी जैसे कहीं दूर से चल कर आती है, किवाड़ पे बैठती, रौशन-दान में जाती, फिर इसी तरह जैसे फिरकनी घर्र-घर्र करती है, नीचे उतरती चहचहाती, और अलमारी के पीछे से चिड़िया का बच्चा मुँह खोले बे-ताब हो कर निकलता और चोंच से चोंच भिड़ा देता।
फिर वो अलमारी के पीछे से ख़ुद ही निकल आता, चीं चीं करता रहता और लंबी उड़ान लेता कि फ़र्श से दो तीन इंच ऊँचा उड़ता चला जाता और कहीं कमरे के दूसरे कोने में दीवार से टकराकर नीचे गिरता फिर ऊँचा उड़ता और कभी कुर्सी पर कभी बिस्तर पे कभी ऐन उसके सर के बराबर तकिए पे आ बैठता मगर फ़ौरन ही फिर उड़ता। और मेज़ पे जा बैठता बहुत ऊँचा उड़ा तो आतिशदान पे जा बैठा। इससे ऊँचा उड़ने की सकत उसमें कभी न देखी गई।
उन्हीं दिनों दौरा निकल आया, बाहर चला गया। हफ़्ता-डेढ़ हफ़्ते के बाद वापिस आया तो दफ़्तर में रुके हुए काम को बँटाना दूभर हो गया। सुब्ह-सवेरे घर से निकलता और शाम पड़े जब बच्चे खेल कूद से थक-हार कर घरों को वापिस हो रहे होते और गली ख़ामोश हो चली होती पलटता। दिनों बाद जब दफ़्तर के काम से ज़रा फ़राग़त हुई और घर पे ज़्यादा वक़्त गुज़रने लगा तो एहसास हुआ कि कमरा ख़ामोश हो गया है। रौशन-दान में घोंसला बदस्तूर जमा था, जम गया था। फ़र्श पर, कुर्सीयों पर, उसके बिस्तर पर कोई तिनका गिरा पड़ा दिखाई नहीं देता था और वो कमरा सर्द-सर्द रहने लगा था।
घर में सफ़ेदी हुई तो उसके कमरे का सारा सामान निकल कर आँगन में आ गया। मगर शाम को जब वो पल्टा तो सफ़ेदी करने वाले जा चुके थे। कमरे की धुलाई-पुताई हो चुकी थी और सामान क़रीने से जमा दिया गया था। छत के क़रीब कोनों में तने हुए जाले, दीवार पे जाबजा उखड़ा हुआ चूना,सब ग़ायब था। कमरा क़लई हो कर अण्डा सा निकल आया था। रौशन-दान भी साफ़ हो गए थे। सामने वाले रौशन-दान से तिनकों का वो मुर्दा अंजर-पिंजर भी साफ़ हो गया था।
कमरा साफ़-शफ़्फ़ाफ़ रहता। घर में ऐसे कौन से बाल बचे थे कि चीज़ों को उलट-पलट करते। नई-नई सफ़ेदी हुई थी, छत और दीवारों से भी गर्द नहीं झड़ती थी। कई-कई दिन तक फ़र्श को झाड़ू ना लगती और फ़र्श उजला दिखाई देता। अम्माँ जी को बस आदत सी थी कि दूसरे तीसरे दिन झाड़ू लेकर खड़ी होतीं और झाड़न से एक-एक चीज़ साफ़ करतीं। मगर अगले से अगला इतवार आया तो देर तक सोने के बाद दिन चढ़े उसकी आँख खुली तो लिहाफ़ पे कई तिनके बिखरे पड़े थे। सामने के रौशन-दान से घूमती हुई बग़ली रौशन-दान पे उसकी नज़र पड़ी अब के घोंसला बग़ली रौशन-दान में बनाया था, ऐन उसकी पावनती के ऊपर, कमरे में देखा कि तो तीन तिनके ताज़ा-ताज़ा बिस्तर पे बिखरे हैं और इक्का दुक्का बीट। उसकी नज़रें सामने के रौशन-दान पे उठ गईं मगर रौशन-दान ख़ाली था। उसकी नज़रें सामने के रौशन-दान से हट कर दीवारों के मुख़्तलिफ़ गोशों में घूमती हुई बग़ली रौशन-दान पे जा टिकीं कि अब के घोंसला वहाँ बनाया गया था, ऐन उसकी चारपाई के ऊपर नए तिनके, सूखे ज़र्द मगर ताज़गी और गरमाई का रंग लिए, क़रीने से जमा हुए। कमरे में फिर गरमाई सी पैदा हो गई थी। फिर दिल के सहन में नई चुभन के साथ यादें उतरने लगीं थीं कि किसी मुबहम से इशारे पर माज़ी के धुँदलकों में गुम आशियानों से उड़-उड़ कर क़तार-क़तार आतीं और उनके झुरमुट से एक मिटा-मिटा गुलाबी साया फिर उसी तरह उभरता-निखरता तसव्वुर में देर तक मंडलाता रहता और हल्के से खटके पर यादों के साथ तितर-बितर हो जाता।।
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