अलाव
गाँव से पूरब एक बड़ा सा मैदान है। खेत की सत्ह से कुछ ऊंचा और चौरस। लोग कहते हैं कि अपने ज़माने में किसी राजा का यहाँ पर राजमहल था, उसी की मिट्टी और ईंट से ज़मीन ऊंची हो गई है। मैदान के पूरबी किनारे पर पीपल और बरगद के पेड़ हैं और इसके बा’द खेत, उत्तर तरफ़ नाग-फनी की घनी और लंबी क़तार है, इसके बीच-बीच में कोई नीम या पाकड़ के पेड़, और इसके बा’द खेत
दक्खिन में एक किनारे पर एक पीपल का पेड़ है, इसके पास ही एक कुँआ फिर खेत, पूरब दक्खिन कोने पर एक बड़ा सा गड्ढा है जिसमें बरसात का पानी जमा’ हो कर कई महीने रहा करता है, लोग कहते हैं कि राजमहल का ये पोखर था, इसमें रानी अपनी सहेलियों के साथ नहाया करती थी। नहाने से पहले पोखर में गुलाब का अ’रक़ डाल दिया जाता था, जिसकी महक दूर-दूर तक फैल जाती थी, चाँदनी रातों में राजा और रानी दोनों नाव पर इस पोखर में सैर किया करते थे, ये पोखर बहुत बड़ा था, भरते-भरते भर गया और जो निशान बाक़ी रह गया है वो भी राजा और राजमहल की तरह मिट जाएगा।
गाँव में अब किसान ही किसान रहते हैं, प्रजा ही प्रजा... राजा को मरे, बर्बाद हुए तो ज़माना बीत गया, उसका राजमहल तो मैदान है। ये मैदान गाँव वालों के लिए सब कुछ है, हर-रोज़ सारे गाँव के ढोर इस मैदान में जमा’ होते हैं, लोग अपनी अपनी भैंसों को कुँए पर धोते हैं, फिर घर ले जाते हैं, फ़स्ल कटने पर खलियान लगाते हैं, रूख पेड़ने को कोल्हू बिठाते और कोल्हू सार बनाते हैं, गाँव के लड़के सुब्ह से शाम तक खेलते और बड़े-बूढ़े किसी पेड़ के नीचे बैठ कर बातें करते हैं।
कातिक का महीना था, ठंडक अच्छी ख़ासी पड़ने लगी थी और मैदान में कतकी धान का खलियान लगाया जाने लगा था, गाँव में नई ज़िंदगी फैली हुई थी। कुछ लड़के मैदान में कबड्डी खेल रहे थे, औरतें कुँए से पानी भर कर अपने घरों को ले जा रही थीं, फगुवा पूरब की तरफ़ आग जला कर अपनी लाठी को सेंक कर सीधी कर रहा था, उसी दिन वो अपनी बहन के घर धरमपूर से आया था, बहनोई ने चलते वक़्त ये लाठी अपनी बसवाड़ी में से काट कर दी थी, लाठी नीचे की तरफ़ से ज़रा टेढ़ी थी, उसका सीधा करना ज़रूरी था। फगुवा ने लाठी सीधी करने को अलाव जला रखा था, वो पहले लाठी को सेंक कर पीपल की जड़ में फंसा कर उसे सीधा कर रहा था, वो अपनी बहन के यहाँ से एक गीत सीख कर आया था, उस गीत को हल्के-हल्के सुरों में गाता जाता था। साथ ही उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें घूम रही थीं, सबसे ज़ियादा ये कि गाँव में एक बहुत बड़ी सभा होनी चाहिए, ठीक वैसी ही, या उससे भी बड़ी जैसी उसकी बहन की ससुराल में हुई थी और सभा में वो खड़ा हो कर कल लोगों को सारी बातें समझाए, जैसे वहाँ एक आदमी ने समझाया था।
फगुवा अपने ख़यालों में मगन था कि अक़्लू आ गया, ये उधेड़ उम्र का आदमी था और गाँव के नाते मैं फगुवा का चचा था, अक़्लू ने आते ही कहा, “बेटा लाठी तो अच्छी है, मगर इसमें गड़ासा लगे तब।”
फगुवा ने पलट कर देखा और बोला, “हाँ चचा, पर गड़ा सा अच्छा सा मिल जाए तब ना!”
शाम हो चुकी थी, धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ता जा रहा था, लाठी सीधी हो चुकी थी, उसने ख़ूब घुमा-घुमा कर लाठी को देखा, फिर पीपल के पेड़ के सहारे पर खड़ा कर के दो क़दम पीछे हट कर देखने लगा, अक़्लू भी लाठी को एक ख़ास नज़र से देखता रहा, जिसका मतलब यही हो सकता है कि लाठी अच्छी है, और अगर मिल जाए तो बहुत अच्छा हो। अभी लाठी को ये दोनों देख ही रहे थे कि सामू और बाढ़ू भी घूमते फिरते आ गए बाढ़ू ने आते ही कहा, “अरे भया अभी इतना जाड़ा तो नहीं पड़ता, अभी से अलाव तापने लगे।”
अक़्लू बोला, “फागू अपनी लाठी सीधी कर रहा था, अलाव कौन तापेगा अभी।”
बाढ़ू बोला, “मगर आग भी मा’लूम होती है भाई।”
ये कहता हुआ वो आग के पास बैठ गया, और तापने लगा, उसके बैठते ही और लोग भी बैठ गए, सांवल उसी तरफ़ आ रहा था और उन लोगों की बातें सुन चुका था, वो आते ही बोला, “वाह बाढ़ू चचा पहले तो दूसरे को टोका और सबसे पहले ही बैठे भी आग तापने, वाह!”
बाढ़ू बोला, “हाँ बेटा अब आग भली मा’लूम होती है, और हमने टोका कब था, अरे ऐसे ही बोल रहा था।” सब के सब आग तापने लगे, आग अभी ज़ियादा थी, इसलिए कुछ दूर ही दूर बैठे। बाढ़ू ने पाँव फैलाते हुए कहा, “अरे ये लौंडे सब इतने बदमाश होते जा रहे हैं कि क्या कहा जाए।”
सांवल ने कहा, “क्या चचा, हम लोगों ने तो कोई बदमाशी नहीं की।”
बाढ़ू बोला, “नहीं तुम सबकी बात नहीं, यही तो मेरा कहना है, तुम सब जवान और बाल-बच्चे वाले हुए कभी कोई ऊंची बात देखने सुनने में न आई, पर अब की तो दुनिया ही बदलती जा रही है। देख अभी रास्ते में आ रहे थे तो देखा कि छुपी और छेदो के दोनों लड़के रीढ़ (एरंड की डंठल) जला कर बीड़ी की तरह भक्-भक् खींच कर धुआँ उड़ा रहे हैं। डाँटा तो दोनों खाँसते हुए भागे, सब का कलेजा जल जाएगा।”
इतने में छप्पी आ गया, और बाढ़ू ने उससे भी ये बात दोहरा दी, लेकिन छप्पी ने कहा, “भैया, अब वो ज़माना ही न रहा, हम सब भी कभी लड़के थे, एक का क़िस्सा सुनोगे तो दंग रह जाओगे, अभी कल की बात है हम मैदान से आ रहे थे। मेरे हाथ में लोटा था। ख़याल हुआ कि बड़े कुँए पर लौटा मांझ कर पानी भर लें, जैसे ही कुँए पर पहुँचे तो देखा, रीतू, कलवा की औ’रत का रास्ता रोके खड़ा है, वो कह रही है, जाने दो रीतू, तो रीतू कहता है, ऐसे नहीं भोजी, वैसे कहो, मोरी राह छोड़ो, गिरधारी देर हुई, याद है कृष्ण लीला वाला गाना। जब उसने बाल्टी उठा कर कहा कि सारा पानी उझल दूँगी तो रास्ते से भगा।”
सांवल बड़े ज़ोर से क़हक़हा लगा कर हँसा और बोला, “चचा! ये भी कोई बात है, भौजाई है वो हँसी-ठट्ठा करता होगा... जानते ही हो रीतू कैसा हँसोड़ है।” लेकिन छप्पी ने बुजु़र्गाना अंदाज़ में कहा, “हुश ये भी क्या ठट्ठा है, ऐसे लड़के ख़राब हो जाते हैं, ये तो हमने देखा था कोई दूसरा देख लेता तो न जाने कितनी बातें जोड़ कहता और बदनामी होती, गाँव में ऐसी बात कभी नहीं हुई।”
सांवल चुप हो गया, और बाढ़ू न जाने कब तक बोलता रहता, लेकिन सामू ने बीच ही में रोक कर कहा, “अरे फागू तूने तो कुछ कहा नहीं, सुना है धरमपूर में बड़ी-बड़ी सभा हुई, बड़े-बड़े लोग जमा’ हुए किसानों के फ़ाइदे की बात हुई।”
फागू ने इस अंदाज़ से सब पर निगाह डाली जैसे वही अकेला सब कुछ जानता है, बाक़ी सब काठ के उल्लू हैं, फिर बोला, “हाँ बहुत बड़ी सभा हुई थी, एक साधू जी भी आए थे, वो सबको एक बात कह गए, सब किसान एक हो जाएँ, आपस में मिल-जुल कर रहें, तब ही ज़मींदार के ज़ुल्म से बच सकते हैं।”
सांवल बोला, “भैया बात पते की है, हम लोग पर जितना ज़ुल्म होता है उसे कौन जाने, साल भर मेहनत करके उपजाते हैं और हमारे ही बाल-बच्चे भूकों मरते हैं।”
आग कुछ धीमी हो चली थी, इसलिए बाढ़ू कुछ और भी आग से क़रीब हो गया और बोला, “बात तो ठीक है, पर होना मुश्किल है ना?”
फागू बोला, “मुश्किल क्या है? आज से लोग ठान लें कि आपस में मिल-जुल कर रहेंगे, ज़मींदार को बेगार नहीं देंगे, कोई ना-जाइज़ दबाव नहीं सहेंगे, बस धरमपूर में तो ऐसा ही हुआ है, अब तो वहाँ चैन ही चैन है।”
अभी बात आगे नहीं बढ़ी थी कि तूफ़ानी मियाँ आ गए, ये बूढ़े आदमी थे और तीस बरस से गाँव में करघा चलाते थे, तूफ़ानी मियाँ ने आते अपना ठर्या (मा’मूली क़िस्म का हुक़्क़ा) ज़रा अलग रखकर एक दम लगाया, और इस अंदाज़ से सबकी तरफ़ मुतवज्जेह हुए जैसे एक मजिस्ट्रेट वकीलों की बेहस सुनने के लिए तैयार हो, लेकिन तूफ़ानी मियाँ को मुतवज्जेह देखकर सब के सब चुप हो गए, जैसे अब वो कुछ कहने वाले थे, जब कोई कुछ न बोला तो तूफ़ानी मियाँ बोले, “अरे सब चुप हो गए, बात क्या थी?”
सांवल ने जवाब दिया, “फागू धरमपूर गया था तूफ़ानी चचा, वहीं की बात थी।”
“क्या बात थी?”
तूफ़ानी मियाँ ने इस अंदाज़ में सवाल किया, जैसे अगर उन्हें न बताया गया तो फिर कोई बात हुई ही नहीं, सबका सुनना बेकार हुआ, फागू ने फिर से सारी बात दोहरा दी, तूफ़ानी मियाँ ने हुक़्क़े का लंबा दम लगा कर बुजु़र्गाना अंदाज़ में कहा, “बात तो ठीक है, मगर भाई ये करम की लिखी बातें हैं, आदमी क्या कर सकता है, ये सब ख़ुदाई कारख़ाना है।”, तूफ़ानी मियाँ ने एक ही जुमले में सबकी हिम्मत तोड़ दी, अब भला ख़ुदाई कारख़ाने में बेहस करने का सवाल कैसे पैदा होता, झपकू तेली ने कहा, “तूफ़ानी मियाँ ने सोलह आना ठीक बात कही है, परमात्मा ने सदा के लिए आदमी को बड़ा छोटा बनाया है, अगर ऐसा न होता तो अपना काम ही न चलता...”
छुट्टू धोबी ने और आगे बढ़कर दाद दी और कहा, “हुँह अगर जमींदार न रहेगा तो कोई न रहे, सब जमींदार हो जाएँ तो फिर खेती कौन करेगा?”
दिल्लू चुप-चाप बैठा सुन रहा था, वो बड़ा जोशीला था, सबकी बातें सुनकर उसका ख़ून खौल रहा था, लेकिन उसका चचा तूफ़ानी बैठा था, बात आ-आकर उसके होंटों पर रुक जाती थी, लेकिन अब उससे ज़ब्त न हो सका, उसने कहा, “अपने किए सब कुछ हो सकता है।”
तूफ़ानी मियाँ ने और उनके साथ दूसरों ने उसको आँखें निकाल कर देखा, वो हाल ही में कलकत्ता से आया था, कलकत्ता में वो जहाज़ घाट पर क़ुली का काम करता था, दिन रात मेहनत, चीन जापान और अमरीका से आए हुए माल जहाज़ से उतारा करता था, उसको कंपनी से रोज़ झगड़ना पड़ता था, वो पहले कई हड़तालों में शरीक हो चुका था। और वो देहात में ज़मीन-दारों के ज़ुल्म से भी वाक़िफ़ था, उसने कहा, “हम लोग को अब तैयार होना ही पड़ेगा!”
सांवल ने कहा, “ठीक कहते हो दिल्लू...”
तूफ़ानी मियाँ ने क़हर-आलूद निगाहों से दिल्लू को देखा और बड़बड़ाते हुए उठे, सच है कलकत्ता जाने से आदमी का दिमाग खराब हो जाता है। इसके साथ ही छुट्टू और एक दो आदमी उठकर चले गए और इस अंदाज़ से जैसे उस जगह पर कोई आफ़त आने वाली है, लेकिन उन लोगों को इसकी परवाह भी न हुई, बल्कि सांवल ने कहा, “ज़ुल्म पर ज़ुल्म है, परसों ही की बात है, मेघू को पटवारी जी ने मारा है, बात ये थी कि पटवारी जी चाहते थे मेघू की औ’रत आकर उनका चौका करे और उसने इनकार कर दिया।”
“ये सब अब नहीं चल सकता, कल मेघू को कहा जाए कि वो भी काम करने न जाए।”
दिल्लू ने राय पेश की और सबने हाँ कही, फिर आगे चल कर क्या होगा? इस पर भी बेहस रही, लेकिन सबने नतीजे से बे-पर्वा हो कर यही फ़ैसला किया कि पटवारी जी को रसीदाना न दिया जाए। दबाव डाल कर दूध-घी वसूल कर लेते हैं, वो भी बंद और बेगारी आख़िरी तौर पर ख़त्म...”
“बेगार ख़त्म” कहते वक़्त दिल्लू ने थोड़ा सा कूड़ा-कर्कट उठा कर अलाव में डाल दिया, अलाव से फिर एक-बार थोड़ी सी आग बुलंद हुई और बुझ गई, सांवल ने कहा, “तब दिल्लू ठीक है ना?”
दिल्लू ने कहा, “पक्का बात है भाई, मर्द बात से नहीं पलटता।”
फागू ने कहा, “बिल्कुल ठीक।”
फिर सीतल बोला, “लेकिन दिल्लू बोला भया, वो जो पंडित-जी आते हैं ना, कहते थे कि तुम सब चुप-चाप बैठे रहो, ये सब काम कांग्रेस कर देगी।”
सीतल के बोलने से जुम्मन को भी हिम्मत हुई, वो भी अपने मामूँ के घर गया था, वहाँ मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुआ था, जिसमें कांग्रेस की बुराईयाँ वो सुन चुका था, उसने कहा, “दिल्लू भाई... कांग्रेस... मौलाना साहिब तो कहते थे...”
दिल्लू ने ज़रा तीखे अंदाज़ में कहा, “धत, ये सब बकते हैं, गरीब का कोई साला नहीं होता, अपने करना होगा जो होगा।”, ये कहते हुए दिल्लू उठ खड़ा हुआ, रात भी काफ़ी जा चुकी थी, अलाव भी बुझ चुका था और फ़िज़ा में ठंडक काफ़ी पैदा हो चुकी थी, दिल्लू के उठते ही सब के सब उठ गए।
दूसरे दिन से सारे गाँव में हलचल थी, बूढ़े बच्चे और जवान सब के सब कुछ न कुछ इस क़िस्म की बातें करते थे, जवान तो हर दरवाज़े पर कहते फिरते थे, “आज सभा होगी।”
बच्चे तमाशा समझ रहे थे और बूढ़े नतीजे पर ग़ौर कर रहे थे कि भुस में चिंगारी पड़ गई, पटवारी ने अंदर महतों और तोता राम को बुला कर ख़ूब डाँटा, गालियाँ दीं और साफ़ कह दिया कि अगर इस साल तुम लोगों ने बक़ाया बे-बाक़ नहीं कर दिया तो कोई खलियान से एक दाना भी उठा कर न ले जा सकेगा... इससे जोश और भी बढ़ गया। शाम को दो-चार नौजवान मैदान में जमा’ हुए, मगर ज़ियादा लोग कतरा कर निकल गए, सभा करने वालों को सख़्त ग़ुस्सा हुआ, वो सब के घरों में फिर गए, और सबसे कहा, “सब का” हश्र तोता राम और अंदर महतों का होगा, तुम सब चिड़ियों की टोली की तरह चीं-चीं करते रह जाओगे और पटवारी तुम्हें बाज़ की तरह हर-रोज़ शिकार करेगा, आज वो कल वो।”
सुब्ह उठकर सांवल मुँह धोने बैठा था कि प्यादे ने आकर कहा, “सांवल भाई तुम्हें पटवारी जी ने बुलाया है, कोई ज़रूरी बात है।”
सांवल का माथा ठनका तो ज़रूर, लेकिन वो चोर नहीं था जो मुँह छुपाता, मुँह हाथ धोकर उसने कुछ खाया पिया और कचहरी की तरफ़ चला, रास्ते में उसे ख़याल आया कि इसकी ख़बर दिल्लू को भी करता जाए, जैसे ही दिल्लू के घर की तरफ़ मुड़ा, फागू और दिल्लू आते दिखाई पड़े, फागू ने सांवल को देखते ही कहा, “भैया जानते हो, कचहरी से बुलावा आया था, गुमाश्ता जी भी आए हुए हैं, और ये भी मा’लूम हुआ है कि मालिक से कोई ख़ास हुक्म लेकर आए हैं... क्या राय है...?”
सांवल ने जवाब दिया, “चलो तुम्हारे दालान में बैठ कर बातें करेंगे!”
तीनों गए और बैठ कर बातें करने लगे, फागू ने ये भी बताया कि उनकी सारी बातें पटवारी के कानों तक छुट्टू धोबी पहुँचाता है। इससे सांवल को बड़ा ग़ुस्सा आया और वो बोला, “दो साले को पकड़ कर चार लाठी, हम लोग से खुच्चड़ खोद-खोद कर बात पूछता है और अपने बावा को कह आता है, हरामी!”
दिल्लू ने कहा, “ग़ुस्सा करने की बात नहीं सांवल, काम करना है, धीरज से काम करना होगा...”
सांवल ने कहा, “ऐसे सालों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए।”
फागू ने पूछा, “तो अब क्या होगा?”
“डरने की बात क्या है, ठहरो, पटवारी ने बुलाया है, वहाँ से हो आऊँ, देखूँ बात क्या है?”
सांवल चला गया, दिल्लू और फागू कचहरी से हो कर आए थे, उन दोनों पर डाँट पड़ चुकी थी, लेकिन उन दोनों ने सांवल से बातें इसलिए नहीं कहीं कि वो और भी ग़ुस्सा हो जाएगा। ज़रा सी बात में उसको ग़ुस्सा आ जाता है और रोकने की कोशिश इसलिए न की कि वो हरगिज़ न रुकता, बल्कि बात और भी बढ़ने का डर था, वो दोनों देर तक चुप रहे लेकिन फागू ने कहा, “दिल्लू भाई सांवल को वहाँ न जाने देना था, गुमाश्ता जी अगर टेढ़े हो कर बोलेंगे तो सांवल भैया नहीं सह सकते, वो तीखे मिज़ाज के आदमी हैं।”
दिल्लू ने एक लंबे सांस के साथ कहा, “ये ठीक है, पर न जाने पर भी तो बात बढ़ती है, अब जो भी हो देखा जाएगा!”
फागू बोला, “फिर भी...”
यकायक वो चुप हो गया, सांवल तेज़ी के साथ सामने से आ रहा था, उसका चेहरा लाल हो रहा था और धोती फटी हुई थी, अभी वो दिल्लू से कुछ कह भी न सका था कि सांवल आ गया और आते ही बोला, “फागू लाठी तो दे...”
दिल्लू और फागू दोनों खड़े हो गए, दोनों ने सांवल को समझाया मगर वो तनता जा रहा था... उसने बताया कि वहाँ पटवारी और गुमाश्ता ने डाँटा, बात बढ़ी, इस पर गुमाश्ता ने फाटक बंद कर दिया और चाहता था कि मार पीट करे, मगर वो उस तरफ़ की दीवार को जो नीची है, फाँद कर भाग आया, उसने ये भी बताया कि छुट्टू और झेबी हज्जाम सारे फ़साद की जड़ हैं और वो उन दोनों से बदला ज़रूर लेगा।
दिल्लू होशियार आदमी था, उसने सांवल को एक कमरे में बंद कर दिया और बाहर से कुंडी लगा दी। फागू जोश में था और कुछ डर रहा था, दिल्लू पर कोई ख़ास असर न था, वो ऐसे झगड़े कलकत्ता में बार-बार देख चुका था, फागू के लिए बात नई थी, जोश तो ज़रूर था, मगर एक तो दिल का कुछ कच्चा था और दूसरे समझ भी ज़ियादा न थी, वो घबरा कर दिल्लू का मुँह देखने लगा, फिर बोला, “अब क्या होगा दिल्लू भाई।”
दिल्लू बोला, “देखा जाएगा!”
इतने में गाँव के कुछ बड़े बूढ़े आ गए और लगे दोनों को समझाने, दिल्लू सबकी बात का ठंडे दिल से जवाब देता गया, सबसे ये भी कह दिया गया कि अब कोई बात न होगी। सांवल चला गया लेकिन जब कुछ जवान आदमी आए तो उनसे बोला, “बोलो अब क्या इरादा है, अब इ’ज़्ज़त चाहते हो या ज़िल्लत?”
ज़िल्लत कौन चाहता है, सबने कहा कि कुछ भी हो हम साथ देंगे, लेकिन दिल्लू ने सबको समझा दिया कि कोई ऊंची-नीची बात न होने पाए, सिर्फ़ अब काम ये करना है कि आस-पास के गाँव में लोगों को तैयार किया जाए, अभी बात ख़त्म भी न होने पाई थी कि कचहरी से ज़मींदार के प्यादे लाठियाँ लेकर सांवल को पूछने आए, दिल्लू ने कह दिया कि वो कहीं चला गया। लेकिन झेबी हज्जाम ने देख लिया था कि वो उसी मकान में आया है और उन दोनों ने उसको कमरे को बंद कर दिया है। झेबी ने प्यादों को बता दिया था और प्यादों ने बात-बात में कह दिया कि झेबी से मा’लूम हो चुका है कि वो इसी मकान में है, एक दो ने ये भी कहा कि वो उसे पकड़ कर ले जाए बग़ैर नहीं रहेंगे। अब दिल्लू को ताब न रही, उसका चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया, होंट काँपने लगे। उसने तन कर कहा, “तुम उसे नहीं ले जा सकते, अगर तुम ज़मीन लाल करना चाहते हो तो कुंडी को हाथ लगाओ...”
प्यादे आगे बढ़ना चाहते थे, मगर पंद्रह बीस आदमियों को देखकर उनकी हिम्मत न पड़ी। उनमें से एक दो ने ये भी राय दी कि चल कर मालिक से सारा हाल कह सुनाना चाहिए, बग़ैर हुक्म के झगड़ा मोल लेना ठीक नहीं।
उस वक़्त से शाम तक एक ही ख़बर उड़ती रही। गुमाश्ता जी दूसरी जगहों से आदमी बुलवा रहे कि गाँव लूट लिया जाए। खलियान पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए, अब खुल्लम-खुल्ला लड़ाई का ऐ’लान था, गाँव के बड़े बूढ़े चुप थे, अब किस की तरफ़ से बोलते और किसको समझाते... और उनकी सुनता भी कौन था। एक तरफ़ था हुकूमत का ग़ुरूर, और दूसरी तरफ़ इ’ज़्ज़त का एहसास, इन दोनों में समझौते की गुंजाइश कहाँ है। बात बढ़ी तो काम भी बढ़ गया, आस-पास के सारे गाँव में सनसनी फैल गई, हर गाँव के लोग उठ खड़े हुए, सबके साथ एक ही जैसी बात थी, हर एक को एक ही क़िस्म की मुसीबत का सामना था। अब सब के सब एक दूसरे की मदद करने पर तैयार थे।
ज़मींदार के कारिंदे किसानों से ज़ियादा अ’क़्ल-मंद होते हैं, उनका काम ही है किसानों पर ज़मींदार का रौ’ब बाक़ी रखना, उनके लिए काम करना, तहसील वसूल और हुक्म न मानने की सज़ा, सर उठाने वालों का सर कुचलना, इसीलिए तो ज़मींदार उन्हें रखता है, ये लोग सब कुछ जानते हैं, किस वक़्त क्या काम करना चाहिए। फ़ीलबान जानता है कि हाथी को किस तरह क़बज़े में रखा जाता है।
पटवारी जी कचहरी से निकले और थाना पहुँचे, एक रिपोर्ट लिखवाई, गाँव के किसान कचहरी को लौटना और खलियान से सारा गल्ला उठा लेना चाहते हैं, गुमाश्ता जी गए और मालिक के कान भरे और बहके हुए किसानों को रास्ते पर लाने का सामान हो गया, ये लोग गाँव में चिड़ियों की तरह चीं-चीं करते रहे। दो-चार दिन भी न गुज़रे थे के सांवल, दिल्लू और भागू के साथ कई आदमी को दफ़ा’ 144 की नोटिस मिल गई, वो न तो खलियान की तरफ़ जा सकते थे और न कचहरी की तरफ़... गाँव में एक बड़ी सभा भी हुई तो ये लोग मैदान में न जा सके, वहाँ खलियान था। सभा होने के बा’द कुछ और लोग भी सामने आ गए, और उन पर भी नज़र कड़ी पड़ने लगी। लेकिन आग जो लगी थी, वो बुझी नहीं, बढ़ती गई।
सांवल सुब्ह-सवेरे अपनी ज़रूरत से खेतों की तरफ़ जा रहा था, उसके एक हाथ में पानी से भरा हुआ लोटा था, सामने झेबी आता हुआ दिखाई पड़ा, सांवल ठहर गया। झेबी ठहर गया। झेबी जैसे ही पास आया, सांवल बोला, “तुमको हम सबसे बैर काहे का झेबी भाई, तुमको सोचना चाहिए, कि तुम भी किसान हो।”
झेबी बोला, “तुम लोग तो झूट-मूट बदनाम करते हो...”
सांवल को उसका ये कहना धोका नहीं दे सकता था, वो सब कुछ जानता था, बोला, “देखो झेबी भाई, ये सब कहने से हम न मानेंगे, याद है तुमको, इसी पटवारी ने तुमको मारा था, बात ज़रा सी थी ना, एक दिन-बदिन में तेल मलने न गए थे... अपनी बे-इ’ज़्ज़ती भी भूल गए।” झेबी कतरा कर निकल जाना चाहता था, बोला, “बेकार बात करने का कोई फ़ायदा नहीं।”
सांवल ने कहा, “यही तो कहता हूँ, ऐसी बात क्यों करते हो जिससे तुम्हारा कोई फ़ायदा नहीं है।”
लेकिन सांवल इस बात को भूल गया था कि फागू का बाप गाँव का बुरा हाल था और उसी ज़माने में बहुत सा खेत झेबी से लेकर ज़मींदार ने फागू के बाप को दे दिया था। इससे उसका दिल अब तक साफ़ नहीं हुआ था, गो बात बहुत पुरानी हो चुकी थी। झेबी ने कहा, “सुनो सांवल तुम बीच में न पड़ो, फागू के बाप ने बड़ा ज़ुल्म ढाया हम पर...”
“ये बात बड़ी पुरानी हो चुकी, इसे भूल जाओ, या कहो तो फागू से कह कर तुम्हारा खेत दिलवा दूँ... लेकिन ये तो सोचो खेत तुमसे बाढ़ू चाचा ने तो लिया नहीं, लिया तो था ज़मींदार ही ने, क़ुसूर किस का है?”
मगर झेबी पर इन बातों का असर क्या होता, उसने कहा, “सांवल मैं तुमसे बेहस करने नहीं आया हूँ...”
“सब ठीक, पर ये बताओ, उस दिन तुम प्यादे क्यों लाए थे, उनको क्यों बताया था कि सांवल फागू के घर पर है, मेरे बाप ने तो तुम्हारा खेत नहीं लिया था?”
झेबी खिसिया गया और उसने कहा, “मुझे बेहस करने की फ़ुर्सत नहीं।”
वो दो क़दम आगे बढ़ा, लेकिन सांवल ने उसका रास्ता रोक लिया और ज़रा तीखा हो कर बोला, “सुनो झेबी भाई, तुम्हें जवाब देना होगा, किसी की राह में कांटे बिछाना अच्छा नहीं। ये तुम्हारे हक़ में बड़ा बुरा होगा।”
झेबी जानता था कि सांवल ग़ुस्सैल आदमी है, इसलिए वो किसी तरह बात काट कर निकल जाना चाहता था, वो ख़ूब अच्छी तरह जानता था कि फागू के बाप पर जो इल्ज़ाम रख रहा था, वो भी ग़लत था, वो ये भी जानता था कि गाँव में किसी ने कुछ उसका बिगाड़ा नहीं था और वो सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए गाँव भर के आदमियों को नुक़्सान पहुँचा रहा था। और पटवारी तक ख़बर पहुँचाने के बा’द गाँव के सारे लोगों से अलग सा हो गया था मगर अब बुरे के फंदे पड़ गया था, सांवल को जवाब दिए बग़ैर चले जाना मुम्किन न था उसने कहा, “सांवल देर हो रही है, हमें काम है रास्ता छोड़ दो।”
अगर खुला हुआ रास्ता होता तो शायद झेबी किसी दूसरी तरफ़ से चला जाता, मगर रास्ते के लिए एक ही पगडंडी थी और उसके दोनों तरफ़ ओख के घने खेत थे, जिसमें आदमी से ज़ियादा ऊंचे ओख लहलहा रहे थे। रास्ता बिल्कुल न था, उसके कहने पर भी सांवल ने रास्ता न दिया तो झेबी ने चाहा कि उसको हटा कर चला जाए... लेकिन सांवल ने उसका हाथ पकड़ लिया। झेबी ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोला, “लड़ना चाहते हो क्या?”
सांवल बोला, “हम लड़ना नहीं चाहते, लेकिन इसकी ज़रूरत पड़ी तो बाज़ भी न आएँगे। हम तो तुमसे यही पूछ रहे हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया?”
झेबी को ग़ुस्सा आ चुका था, उसने कहा, “कहा तो इसमें किसी के बाप का क्या...”
सांवल को ऐसी बातों की ताब कहाँ थी, वो देर से अपने ग़ुस्से को दबाए हुए था, गाली झेबी के मुँह से निकली ही थी कि पानी से भरा हुआ लोटा उसने झेबी के सर पर दे मारा, झेबी के सर से ख़ून और लोटे से पानी बहने लगा, और वो चकरा कर गिर गया। बात और ज़ियादा बढ़ गई, शिकार ख़ुद ही फंस गया, पुलिस आई और सांवल गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन सवाल ये था कि गवाह कहाँ से आए? मुक़द्दमे में दूसरे लोग कैसे फँसें। मगर रुपया हो तो ये भी मुश्किल नहीं, रुपया ख़र्च करने वाला होना चाहिए, काम कौन सा है जो नहीं होता। रुपया हो तो ईश्वर भी ख़ुश हो सकता है मंदिर और धरमशाले बनाकर। किसी को फंसा लेना क्या मुश्किल है, ज़मींदार ने फ़ैसला कर लिया कि चाहे गाँव उजड़ जाए लेकिन सर उठाने वालों का सर कुचला ज़रूर जाना चाहिए।
एक तरफ़ सांवल का मुक़द्दमा खुला, दूसरी तरफ़ दिल्लू, फागू और दूसरे के ख़िलाफ़ धड़ाधड़ रिपोर्टें होने लगीं, यहाँ तक कि जब पूरा गल्ला खलियान में आ गया तो उन सब पर, जिन पर किसी तरह का शक था, दफ़ा’ 144 की नोटिस ता’मील हो गई, सब के सब डर से काँप रहे थे, ज़मींदारी थी ज़मींदार की और राज था पटवारी का... आख़िर इस तरह कब तक चलता, लोग उकता गए, ग़रीबों के पास इतना रुपया कहाँ से आए जो मुक़द्दमा लड़ें। इसलिए चुप रहना ही बेहतर, लेकिन चुप रहें तो कब तक? दिल्लू ने फागू को एक दिन बुला कर कहा, “अब कुछ करना चाहिए, अगर चुप रहे तो मतलब ये है कि पटवारी जी मन-मानी करते जाएँगे, अब जो भी हो।”
फागू और दूसरे लोगों ने भी राय का साथ दिया और बात तय पाई कि जब तक खलियान उठे दूसरे गाँव में जलसे किए जाएँ और इसी पर अ’मल भी किया गया। जब आस-पास के सारे गाँव में तहरीक चल पड़ी तो दूसरे लोग भी जिन पर उनका असर पड़ सकता था, सर जोड़ कर बैठे और सर पर आने वाली आफ़त से बचने की तरकीबें सोचने लगे। बात बढ़ती गई और इसका असर भी बढ़ता गया, रामधनी भी एक किसान था जो उन लोगों के साथ पूरे जोश के साथ काम कर रहा था, जब सांवल की ज़मानत नहीं हुई तो वो कुछ बोल गया और सबके साथ बदमाशों की फ़हरिस्त में उसका नाम भी आ गया और निशाना बन गया।
एक दिन सुब्ह होने से पहले ही वो किसी काम से दूसरे गाँव जा रहा था और दोनों तरफ़ ओख का खेत, हर तरफ़ सन्नाटा और अँधेरा, वो बहुत दूर जा भी न सका था कि पीछे से किसी ने उसके सर पर लाठी मारी। वो गिर पड़ा। फिर एक दो-चार पाँच दस... वो अधमरा हो गया, सारे गाँव में इससे खलबली मच गई। पुलिस आई, बहुत से लोग गिरफ़्तार हुए, गिरफ़्तार होने वालों में दिल्लू, फागू, जुम्मन, हरखू सभी थे, ये सब के सब थाना सिधारे, इन पर खेत काटने, खलियान लूटने और रामधनी पर हमला करने का इल्ज़ाम था, सबका जेल जाना यक़ीनी। पटवारी ख़ुश था, सारे बदमाश पकड़े जा चुके थे... वो अपनी कामयाबी पर ख़ुश था लेकिन आइंदा क्या होगा? ये सवाल लर्ज़ा-ख़ेज़ तौर पर उसके दिमाग़ में पैदा हो जाया करता था।
खलियान भरता जा रहा था, लेकिन अब खलियान में किसानों से ज़ियादा पुलिस के सिपाही नज़र आते थे, उन्हें खलियान की हिफ़ाज़त करना थी। किसान सारे बे-ईमान हो चुके थे और इसकी सज़ा भी पा चुके थे, मगर ये बूढ़े और बच्चे गाँव में बच रहे थे वो भी तो आख़िर किसान ही थे। पूस का महीना था, कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी, खलियान की हिफ़ाज़त करने वाले सिपाही अपने गर्म कोटों के बावुजूद ठंडक से अकड़े जाते थे, सबने मिलकर बड़ा सा अलाव जलाया था, आग ताप रहे थे और कहानियाँ कही जा रही थीं, अलाव बुझने लगा, एक सिपाही उठते हुए बोला, “एक दिन सारी चीज़ इसी तरह ख़त्म हो जाएगी!”
दूसरा बोला, “साले पटवारी खुच्चड़, ओह लाइन में कैसे आराम से रहते हैं इस वक़्त।”
उसके उठते ही दूसरे सिपाही भी उठकर झोंपड़े में चले गए और अलाव बुझ गया। खलियान में सिपाहियों का शोर गाँव के सन्नाटे में मिल गया...
ज़मीन पर अलाव की आग बुझती जा रही थी और आसमान पर धुआँ छा रहा था।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.