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अली! अली!

बलवंत सिंह

अली! अली!

बलवंत सिंह

MORE BYबलवंत सिंह

    स्टोरीलाइन

    यह नौजवानों में जोश भर देने वाले नारे ‘अली-अली’ की कहानी है। वरसा एक कड़ियल सिख नौजवान है। एक मेले में पुलिस के साथ उसका किसी बात पर फ़ौजदारी हो जाती है, तो पुलिस उसे ढूँढती फिरती है लेकिन वह उनके हाथ नहीं आता। एक रोज़़ जब वह अपनी महबूबा से मिलने गया होता है, तंदुरुस्त घोड़े पर सवार थानेदार उसे पकड़ने पहुँचता है। पैदल होने के बाद भी वरसा उसकी पकड़ में नहीं आता। वह 'अली-अली' का नारा लगाता हुआ हरदम उसकी पहुँच से दूर हो जाता है।

    लगभग पैंतीस बरस पहले का पंजाब...

    ये उसी दौर के पंजाब की एक सच्ची कहानी है।

    उन दिनों पंजाब के देहात में बहुत सी आम कहावतों में से एक कहावत ये भी थी कि मर्द हमेशा शराब या औरत के बाइस ही पुलिस के चंगुल में फँसता है।

    कम अज़ कम वरसा सिंह के मुआमले में ये कहावत वाक़ई दुरुस्त साबित हुई।

    एक पूर्णमाशी की रात को वो अपने गांव से दस कोस दूर मौज़ा टिंडे गुरू में अपनी महबूबा रूपी से मिलने के लिए गया।

    ये मुलाक़ात गांव से बाहर रहट के क़रीब वाले तवेले में हुई। चारों तरफ़ फैले हुए खेत, रहट और तवेला रूपी के बाप की मिल्कियत थे। प्रेमी से मुलाक़ात का ये सुनहरा मौक़ा था। उसका बाप और भाई रेड़ी (यानी संदूक़ नुमा घोड़ागाड़ी) में शहर गए हुए थे। आधी रात से पहले उनके लौट आने का इमकान नहीं था। पारो, रूपी की सहेली ही नहीं मुँह बोली बहन भी थी। इस क़िस्म की मुलाक़ातें कराने में उसी का हाथ होता था। अब भी जब कि दो मुहब्बत के मारे दिल तवीले के अंदर दुख-सुख की बातें कर रहे थे, बाहर पारो रहट की गाधी (गद्दी) पे बैठी बैलों को हाँक रही थी। रहट के ऊपर फैले हुए बरगद के पेड़ की छत्रछाया थी। ज़रा फ़ासले पर सिर्फ रहट की रों रों का शोर सुनाई देता था। पारो नज़र नहीं आती थी। अलबत्ता उसकी बड़ी बड़ी और तेज़ आँखें फैली हुई चांदनी में दूर दूर तक देख सकती थी। दरहक़ीक़त वो इसीलिए रहट की गाधी पर बैठी हुई भी थी।

    दो ढाई फ़र्लांग दूर गांव गोबर के बड़े से ढेर की तरह दिखाई दे रहा था, दीवारों के साये तले नज़र आने वाले कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।

    प्रेमियों का जोड़ा तो मगन था ही, लेकिन पारो भी किसी ना मालूम जज़्बे के तहत गुनगुना रही थी... यकायक उसने गुनगुनाना बंद कर दिया और वो टिकटिकी बांध कर मग़रिब की तरफ़ देखने लगी। एक घोड़ सवार था और उसके हमराह दो आदमी और भी थे। चंद लम्हों के बाद सूरत-ए-हाल वाज़ह हो गई, वो तीनों पुलिस के आदमी थे।

    बातों बातों में एक रोज़ वरसा सिंह की ज़बानी उसे पता चला था कि पुलिस उसकी ताक में है, चुनरी सँभालते हुए पारो रंगीन चिड़िया की तरह लपक कर तवेले के अंदर घुस गई। उसे देखते ही। वरसे ने प्यार से दबोचे हुए रूपी के हाथ छोड़ दिए और अब्रू चढ़ा कर पूछा, क्या बात है, पारो?

    पुलस!

    पुलिस का नाम सुनते ही रूपी की रोशन पेशानी मलगजी सी हो गई। मगर उसके प्रेमी ने फ़ख़्र से नथुने फुला लिये। अगर किसी क़ाबिल-ए-फ़ख़्र जवान की पुलिस से छेड़ छाड़ हो तो ये उसके लिए सुबकी की बात थी।

    क्या वो तुम्हें पकड़ने के लिए रहे हैं? रूपी ने सर्मगीं आँखें वरसे के चेहरे पर जमाते हुए पूछा।

    तो क्या हुआ? तुम क्यों घबरा गईं? मैंने डाका नहीं डाला, किसी का क़त्ल नहीं किया।

    तो फिर ?

    पिछले बैसाखी के मेले में थोड़ी फ़ौजदारी हो गई थी। उसी वक़्त से ये मेरे पीछे पड़े हैं।

    अब वो तुम्हें पकड़ कर ले जाऐंगे, हवालात में बंद कर देंगे।

    तुम भी बड़ी भोली हो। मैं उनके हाथ आने वाला नहीं हूँ।

    पारो बोली, एक घुड़सवार भी तो है, मेरे खियाल में वो थानेदार है इस इलाके का।

    छोड़ो इन बातों को। रूपी! अब मैं आज से चौथे दिन मिलूँगा तुमसे।

    दरवाजे से निकलोगे तो पुलिस वाले देख लेंगे...

    वरसे की नज़र पिछवाड़े वाली खिड़की की जानिब उठ गई। जहां लोहे की सलाख़ों की बजाय लकड़ी की ख़ासी मोटी बल्लियां जुड़ी हुई थीं। और फिर बोला, चिंता मत करो...एक बार मैं अपने गांव पहुंच गया तो फिर थानेदार मुझे नहीं पा सकेगा।

    तुम्हारा गांव भी तो यहां से दस कोस की दूरी पर है। रूपी धड़कते हुए दिल से बोली।

    है तो! ये कह कर वरसे ने खिड़की की चोबी बल्लियों को एक लात रसीद की।

    घोड़े की लगाम खींच कर थानेदार सरदारी लाल तवेले से एक फ़र्लांग उधर ही रुक गया। वो झंग मघयाने के इलाक़े का रहने वाला था। इसीलिए गोरा चिट्टा होने के इलावा वो अज़ीमुलजुस्सा भी था। इलाक़े भर में उसका दबदबा बल्कि दहश्त का दौर दौरा था। मगर हक़ीक़त में सख़्तगीर होने के बावजूद वो उजड्ड नहीं था। आम थानेदारों की तरह वो इस चीज़ से कोरा नहीं था जिसे शय लतीफ़ कहा जाता है।

    रिकाब के क़रीब खड़ा हुआ एक सिपाही बोला, सरकार! वरसा 'दर्शनी जवान' है। ऊंचा लंबा, और ग़ज़ब का फुर्तीला। दौड़ने में उनके जोड़ का जवान इलाक़े भर में नहीं मिल सकता। अगर एकबार वो तवेले से निकल भागा तो फिर हम उसकी धूल को भी नहीं पा सकेंगे।

    थानेदार सरदारी लाल ने घोड़े को हल्की से थपकी दी और बस मुस्कुरा दिया। उधर उसका चाक़-ओ-चौबंद घोड़ा कनौतियां फड़का रहा था। इधर उसकी कुलाहदार पगड़ी का ऊपर को उठा हुआ शिमला हवा के सुबुक झोंकों में लहरा रहा था।

    पारो की ग़ैरमौजूदगी में बैलों को हाँकने वाला कोई रहा तो वो रुक गए। रों रों की आवाज़ की जगह ख़ामोशी ने ले ली। फैले हुए बरगद के साये तले रहट और क़रीब वाले तवेले पर पुर इसरार ख़ामोशी तारी थी।

    चंद लम्हों के ताम्मुल के बाद सरदारी लाल घोड़े को एड़ लगाने ही को था कि एक सिपाही ने उसकी पिंडली को दबा कर ऊँगली से एक जानिब इशारा किया।

    चारों तरफ़ चांद की चांदनी चम्बेली की भीनी भीनी ख़ुशबू की तरह फैली हुई थी। तवेले के पिछवाड़े से एक लंबा लहराता हुआ साया दिखाई दिया, जिसने खुली जगह पर पहुंच कर एक सजीली जवान का रूप धारण कर लिया।

    यही है वरसा सिंह! एक सिपाही ने सरगोशी में कहा।

    घोड़े, और उस पर सवार थानेदार के हस्सास नथुने फड़फड़ाये। ज़ाहिर था कि दोनों में से एक भी सिपाही दौड़ कर वरसे को पकड़ लेने का तसव्वुर तक नहीं कर सकता था।

    सरदारी लाल ने बुलंद आवाज़ में कहा, वरसया! मैं इस इलाक़े का थानेदार हूँ... मैं यहां तुम्हें पकड़ने के लिए आया हूँ।

    वरसा गोया एक जगह पर बिल्कुल बुत बना खड़ा था। वो जूं का तूं खड़ा रहा...उसने मुस्कुरा कर तमस्खुर आमेज़ लहजे में जवाब दिया, पकड़ने के लिए आए हो तो पकड़ लो। इसमें कहने सुनने की भला क्या बात है?

    तैश में आने की बजाय सरदारी लाल को हंसी आगई। उसने सिपाहियों से मुख़ातिब होते हुए कहा, असल उजड्ड जाट नज़र आता है।

    एक सिपाही बोला, हुज़ूर, इस तरह तनतने से बोलना इन लोगों की आदत है... वैसे निहत्ता है। लाठी तक नहीं है उसके पास।

    वरसा जैसे उनकी मौजूदगी से क़तअन बेपर्वा हो कर वहां से चल दिया। ये जानते हुए भी कि उसे जा पकड़ना उनके बस की बात नहीं थी। महज़ अपना फ़र्ज़ पूरा करने के ख़्याल से सिपाहियों ने क़दम आगे बढ़ाए।

    हद-ए-निगाह तक हरे भरे खेत लगे हुए थे। उनमें बहुत से खेत ऐसे भी थे जिनमें उगे हुए नर्म-ओ-नाज़ुक पौदे बालिशत, डेढ़ बालिशत से ज़्यादा बुलंद नहीं थे। उन खेतों के दरमियान किसी तवील अझ़दहे की तरह चौड़ा सा कच्चा रास्ता बल खाया हुआ दिखाई दे रहा था। ऐसे रास्ते को मक़ामी ज़बान में पीहा कहा जाता था।

    एक जस्त लगा कर घोड़ा आगे बढ़ गया तो सिपाहियों के क़दम रुक गए। मगर थानेदार ने घोड़े को दौड़ाया नहीं। आगे आगे वरसा अपनी लंबी लंबी मज़बूत टांगों से लंबे लंबे डग भरता चला जा रहा था और पीछे पीछे थानेदार घोड़े को आम रफ़्तार से बढ़ाए लिए जा रहा था। उसे इत्मिनान था कि जब चाहेगा वरसे को जा मिलेगा।

    उधर शहसवार शिकारी कुत्ते की तरह चाक़-ओ-चौबंद और इरादे का पक्का नज़र आता था, उधर वरसा पले हुए जंगली बिल्ले की तरह निडर और बेनयाज़ दिखाई दे रहा था।

    जैसे जैसे घोड़े की रफ़्तार बढ़ती गई वरसे के क़दम भी तेज़ होते गए। सरदारी लाल के होंटों पर अभी तक तंज़आमेज़ मुस्कुराहट थी उसकी समझ में नहीं रहा था कि ये बेवक़ूफ़ कब तक एक शहसवार की ज़िद और गिरिफ्त के बाहर हो सकेगा...

    कुछ दूर जाने के बाद थानेदार ने सोचा कि ये तमाशा काफ़ी हो चुका। उसने एड़ लगा कर घोड़े को दुलकी चाल पर डाल दिया।

    वरसा कनअँखियों से पीछा करने वाले का जायज़ा ले रहा था, उसने भी अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी। इस तरह वो पीहे, में सरपट दौड़ने लगा। आस-पास के पेड़ों पर ग़नूदगी में डूबे हुए परिंदे चौंक पड़े और चोंचें बढ़ा बढ़ा कर ये अनोखा मंज़र देखने लगे।

    थानेदार ने घोड़े को पूरी रफ़्तार से दौड़ा दिया। पीहा चौड़ा तो था लेकिन उसकी ज़मीन बराबर नहीं थी, उसमें कभी एक पगडंडी दिखाई दी और कभी ज़मीन की साख़्त के मुताबिक़ वो पगडंडी कई पगडंडियों में तक़सीम होजाती और इसके बाद क़ैंचियों की तरह, एक दूसरे को काटती हुई पगडंडीयां सिमट कर फिर एक हो जातीं। वरसा पगडंडियों की इस अनोखी साख़्त का पूरा पूरा फ़ायदा उठा रहा था। लेकिन ग्रांडील घोड़े को चांद की रोशनी में ख़ासी मुश्किल पेश रही थी। ताहम घोड़ा बहरहाल घोड़ा होता है। उन दोनों के दरमियान फ़ासिला दम दम कम होने लगा तो यकायक वरसा दाएं को मुड़ कर खेतों में हो लिया।

    खेतों की ज़मीन और भी ज़्यादा ऊबड़ खाबड़ थी। घोड़े क्या, घुड़सवार की चूलें भी हिलने लगीं।

    ये दौड़ भी काफ़ी दूर तक जारी रही। उनके दरमियान फ़ासिला फिर कम होने लगा। ठीक उसी वक़्त घुड़सवार को ऊंचे मुक़ाम से लग भग दो फ़र्लांग के फ़ासले पर उभरी हुई ज़मीन के दो ख़ुतूत दिखाई देने लगे। वो ख़ुतूत कई फुट चौड़ी नहर की पटरी के थे। उम्मीद की किरन सरदारी लाल की आँखों में रक़्स करने लगी। अब वरसे का रुक जाना नागुज़ीर था। मगर उसकी हैरत की इंतिहा रही जब उसने देखा कि वरसे की रफ़्तार में कमी आने की बजाय और भी तेज़ी आगई। नहर के उस तरफ़ की पटरी पर पहुंच कर वो अज़ीमुलजुस्सा परिंद की तरह हवा में उठा और नहर के पाट को साफ़ पार कर गया।

    सरदारी लाल ने झुँझला कर एक झटके के साथ लगाम खींची। घोड़ा सिटपिटा कर टापें ज़मीन पर पटख़ने लगा।

    वरसा ज़रा देर तक उस पार वाली पटरी पर खड़ा ज़ोर ज़ोर से सांस लेता रहा। फिर उसने हाथ उठा कर इशारा करते हुए पुकार कर कहा, थानेदार जी! पुल उस पास (इस तरफ़) है। आप उधर से आईए। इत्ते (इतने में) मैं भी दम ले लूं।

    दिल ही दिल में सरदारी लाल ज़च तो हुआ, मगर उसने सोचा कि मंज़िल अभी दूर है, भला ये थका हारा भगोड़ा कब तक मेरे हाथ नहीं आएगा। चुनांचे वो लगभग तीन फ़र्लांग की दूरी पर वाक़ा पुल की जानिब बढ़ गया।

    पुल पार कर के वो वरसे की तरफ़ लौटा। निगाह उठाई तो वरसा वहीं जमा खड़ा था। एक फ़र्लांग का फ़ासिला बाक़ी रह गया तो वरसा बारह सिन्घे के से तेवर दिखाता हुआ फिर खेतों में जा घुसा।

    चारों तरफ़ हू का आलम था। अब तो दूर दूर तक कोई पेड़ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

    सरदारी लाल ने दाँत पीस कर एक बार फिर घोड़ा मफ़रूर के पीछे डाल दिया।

    दौड़ते दौड़ते एक दम वरसे ने असील मुर्ग़ की तरह सीना फुला कर सर पीछे को फेंका, पगड़ी का उठा हुआ शिमला लहरा उठा और उसने ज़ोर से नारा लगाया, अली! अली!

    दर हक़ीक़त ये 'अली! अली'! का नारा था। उन दिनों ग़ैर मुस्लिम पहलवान और धाकड़ जवान वजह-ए-तस्मिया जाने बग़ैर 'अली! अली'! के नारे लगाया करते थे।

    वरसे का ये तंतना देख कर सरदारी लाल को बड़े ज़ोर का ताव आया, उसने घोड़े को अंधा धुंद दौड़ा दिया।

    वरसे की ग़ैरमामूली लंबी क़ैंची जैसी टांगों तले धरती गोया कटती चली जा रही थी। घोड़े के तड़ातड़ बजते हुए सुमों के नीचे से या तो धूल के पटाख़े छूट रहे थे या उनकी झपट में आए हुए नर्म नाज़ुक पौदे जड़ से उखड़ कर इधर-उधर जा रहे थे। यहां तक कि वरसे को अपनी गुद्दी पर घोड़े के धूँकनी जैसे नथनों से निकलने वाले गर्मगर्म हवा के चाबुक से बरसते महसूस होने लगे।

    सरदारी लाल ने पंजा बढ़ा कर घोड़े को और भी ज़ोर की एड़ दी।

    पलक झपकते में वरसा नीचे को झुका। उसने भुरभुरी मिट्टी का एक बड़ा सा ढेला उठाया और पलट कर पूरी क़ुव्वत से घोड़े की थूथनी पर दे मारा।

    ढेला गोले की तरह फटा, कुछ धूल घोड़े के नथनों में नसवार की तरह चढ़ गई और कुछ उसकी आँखों में घुस गई। घोड़ा ज़ोर से हिनहिनाया, फिर छः-सात क़दम पीछे को सरकता चला गया और उसके बाद पिछली टांगों पर खड़ा हो कर अगली दो टापें उठा कर हवा से लड़ने लगा।

    वरसे ने रफ़्तार कुछ धीमी कर दी, लेकिन वो रुका नहीं। उसकी इस जवाबी कार्रवाई का नतीजा ये निकला कि उन दोनों का दरमियानी फ़ासिला फिर बढ़ गया, घोड़े को सँभलने में कुछ वक़्त लग गया।

    एक बार फिर वरसे ने अपने तवील बाज़ू फैला कर आसमान की तरफ़ उठा दिए और उसी रफ़्तार से भागते हुए भरपूर आवाज़ में नारा लगाया,

    अली! अली!

    तआक़ुब उसी अंदाज़ से जारी रहा। जब सरदारी लाल का घोड़ा बहुत क़रीब आजाता तो वरसा भुरभुरी मिट्टी का ढेला उसकी थूथनी पर दे मारता। थानेदार ख़ुद दौड़ कर वरसे को पकड़ नहीं सकता था, और घोड़ा अब बिदकने लगा था। बेचारे जानवर की समझ में नहीं आता था कि अचानक उसकी थूथनी से क्या चीज़ टकरा कर फटती है और फिर उसकी आँखों और नथनों का बुरा हाल होजाता है।

    सितारों भरे आसमान के तले और हरी भरी ज़मीन के ऊपर ख़ुदा के ये दो बंदे ये अनोखी दौड़ लगा रहे थे। फिर तो नौबत यहां तक आई कि जब घोड़ा वरसा के बहुत क़रीब पहुंच जाता तो उसकी रफ़्तार ख़ुद बख़ुद कम होजाती और वो कन्नी कतराने लगता। इस तरह होते हुए फ़ासले कुछ ज़्यादा ही बढ़ गए। वरसे का गांव भी नज़दीक आगया। अब उसे दौड़ने की ज़रूरत नहीं रही थी। वो सारी धरती के हुक्मराँ की सी शान के साथ इत्मिनान से चलने लगा। घोड़ा भी थक हार कर दौड़ने से माज़ूर हो चला था।

    अपने गांव के कुछ इधर वरसा रुक गया और बबूल के एक ऊंचे पेड़ के नीचे तने से पुश्त लगा कर खड़ा हो गया। जब घुड़सवार उस के बराबर में पहुंचा तो वो मुस्कुरा कर भारी आवाज़ में बोला, थानेदार! आखिर तुमने मुझे पकड़ ही लिया।

    सरदारी लाल रुका और वरसे के चेहरे की तरफ़ टकटकी बांध कर देखता रहा। ख़ुद उसके चेहरे से भी अब मायूसी, ग़ुस्सा या झल्लाहट के आसार दूर हो चुके थे। इन जज़्बात की जगह उसके होंटों पर एक अजीब सी मुस्कुराहट खेल रही थी।

    वो घोड़े से उतर पड़ा और फिर यकायक जाने क्या हुआ कि उसे हंसी आगई। उस हंसी ने क़हक़हों का रूप धार लिया, ख़ुन्क और सुहानी फ़िज़ा की ख़ामोशी में उन दोनों के क़हक़हे। बुलंद मर्दाना क़हक़हे की तरह गूँजने लगे। आख़िर सरदारी लाल ने हाथ बढ़ाया और वरसे के हाथ को दबाते हुए बोला, वरसया! तुम्हें गिरफ़्तार करने के लिए अब मैं फिर कभी आऊँगा।

    वरसा एक बार फिर बबूल के तने से टेक लगा कर चांद की रोशनी में घुड़सवार को वापस जाते देखता रहा। थोड़ी दूर जाकर सवार ने एक नज़र पीछे की तरफ़ डाली, सीना फुलाया, सर पीछे की तरफ़ फेंका और फेफड़ों की पूरी क़ुव्वत से बुलंद आवाज़ में नारा लगाया, अली! अली!

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