अमन के हाथ
ये उन दिनों की बात है जब दूसरी जंग-ए-अज़ीम अपने शबाब पर थी...फ़ौजी कैंप और सिपाहियों के दस्ते मकड़ी के जाल की तरह मुल्क के चप्पे चप्पे में फैला दिए गए थे। हमारा इलाक़ा भी उसकी ज़िद से न बच सका...हमारे गांव के क़रीबन चार पाँच फ़र्लांग की दूरी पर एक बड़े से घने बाग़ में मिल्ट्री कैंप बनने लगा और फिर देखते ही देखते यूरोपियन सिपाही आए, कमांडोज़ आए, मिल्ट्री कारें आईं और ख़ासी चहल पहल हो गई। सुबह-ओ-शाम परेड होते, फूटबाल और हाकी खेले जाते, सैर और तफ़रीह होती और गोया तेज़-रौ ज़िंदगी की लहर दौड़ गई थी लेकिन शायद उस चराग़ की लौ की तरह जो बुझने से पहले एक-बार ज़ोर से भड़क उठे...ये फ़ौजियों की आख़िरी पनाह थी, जहां से वो सीधे मैदान-ए-जंग में भेज दिये जाते थे और इसलिए शायद उनमें ज़िंदगी की रमक़ भी बहुत ज़्यादा थी। वो अपने मुस्तक़बिल से बेनयाज़ अपने हाल में मगन थे...उन्हें किसी चीज़ का इल्म नहीं था, जैसे उनका कोई न हो...माँ-बाप, भाई-बहन, बेटा-बेटी...कोई भी नहीं...उन्हें कोई फ़िक्र न थी, जैसे उन्हें किसी से लगाओ न हो। घर-बार, शादी-ब्याह, तालीम-तर्बियत...ये सब फ़ुज़ूल और बेमानी चीज़ें हों। जैसे वो हवास-ए-ख़मसा रखने वाले जानवर हों, जो मुहब्बत नहीं कर सकते, जिनके पास जज़्बात न हों, जो अच्छे और बुरे की तमीज़ से आरी हों...वो खाने-पीने की चीज़ों को बुरी तरह ज़ाए करते, वो पैसों को ठीकरी की तरह लुटा देते, एक की जगह दस देते, दस की जगह सौ और जहां ख़र्च नहीं करना है वहां भी ख़र्च करते...और गोया इन्सानों को यह तालीम दे रहे थे कि जब ज़िंदगी का एतबार न रहे, मौत का दिन मुतय्यन हो जाये, तो दुनिया की किसी चीज़ से मुहब्बत नहीं करनी चाहिए, किसी से मुरव्वत न बरतनी चाहिए। सारे लतीफ़ जज़्बात को कुचल डालना चाहिए, अरमानों का गला घोंट देना चाहिए और अपने को ख़ुदफ़रेबी में मुब्तला करके क़हक़हे लगाना चाहिए ताकि मौत को भी ऐसी ज़िंदगी पर प्यार आ जाए।
हमारा गांव इस इलाक़े का मुहज़्ज़ब तरीन गांव था...रहन-सहन, तालीम-तर्बीयत, खेल-कूद, किसी चीज़ में एक शहरी ज़िंदगी से पीछे न था और फिर चूँकि शहर से इसका फ़ासिला भी चंद ही मील का था। इसलिए ये शहर का एक मुहल्ला सा मालूम होता था, जो ज़रा हट कर अलग बस गया हो...फ़ौजी कैंप से गोरे सिपाही अक्सर हमारी तरफ़ आजाते थे। पुराने ख़याल के लोग अक्सर सरासीमा से हो जाते। चूँकि फ़ौजी सिपाही और ख़ुसूसन गोरे सिपाहियों की दहश्त पसंदी एक रिवायत की तरह अर्सा से चली आती थी, लेकिन मैं अपने तजुर्बे की बिना पर कह सकता हूँ कि मैंने उन्हें बेज़रर पाया...लाउबालीपन और बेफ़िकरी के अलबत्ता वो आदी हो चुके थे लेकिन ये तो इस तालीम का असर था जो उन्हें सुबह-ओ-शाम दी जाती थी। इन गोरे सिपाहियों में तरह तरह के लोग थे...कोई फुटबॉल में माहिर था कोई माऊथ आर्गन बड़ी ख़ूबी से बजा लेता और किसी को फोटोग्राफी से दिलचस्पी थी...कोई घंटों बैठ कर गांव के जुनूबी सिम्त में बने हुए एक ख़ूबसूरत तालाब का नक़्शा गांव समेत अपनी पेंसिल की लकीर से उतारता रहता और कोई पास के आमों के बाग़ में बैठ कर अंग्रेज़ी गीत गाता...और मैं अक्सर सोचा करता कि इन फुनूने लतीफ़ा को मैदान-ए-जंग से क्या ताल्लुक़ है...ये आर्ट, ये मौसीक़ी, ये अदब...क्या उनका तोपों, टैंकों और बमों से भी कोई रिश्ता है!
हमारे गांव के मुहज़्ज़ब लोगों से उनके अच्छे ताल्लुक़ात थे...अक्सर हमारे और उनके दरमियान फुटबाल का मैच हो जाता, कभी हाकी का खेल होता और इस तरह हम घुल मिल गए। इन गोरे सिपाहियों में एक से मुझे बड़ी दिलचस्पी पैदा हो गई और वो था गाईलस नामी सिपाही...बात ये थी कि गाईलस माऊथ आर्गन बड़ी अच्छी तरह बजा लेता था और मुझे भी हल्की फुल्की मौसीक़ी से बड़ी दिलचस्पी रही है लेकिन गाईलस ज़्यादातर वर्ड्सवर्थ की मशहूर नज़्म 'लूसी ग्रे' बजाया करता। जाने क्यों उसे इस नज़्म से इतना प्यार क्यों था...शायद इसलिए कि लूसी उसकी अपनी बच्ची का नाम था, लूसी जिसे वो एक साल की उम्र में छोड़कर फ़ौज में चला आया था। लूसी जिससे उसको बे-इंतिहा मुहब्बत थी। लूसी जो उसकी कामयाब रूमानी शादी की निशानी थी, लूसी जो उसे छोड़कर नहीं गई थी, बल्कि वो उसे छोड़कर आया था...इतनी दूर...मैदान-ए-जंग में अपने प्यार करने वाले हाथों से अपनी लूसी जैसी कितनी लूसियों को मारने...लेकिन वो क्यों आया था, मुझे ये पूछने की हिम्मत नहीं हुई और शायद वो उसका जवाब नहीं देता!
धीरे धीरे हमारे ताल्लुक़ात बहुत गहरे हो गए...गाईलस की मैं अक्सर दावत कर देता और वो भी हमसे बड़े ख़ुलूस से मिलता...मेरे बच्चे उसे अंकल गाइल कहा करते थे...मेरी सबसे छोटी बच्ची सलमा से उसे प्यार सा हो गया था। सलमा जो बमुश्किल आठ साल की होगी, सलमा जिसमें उसने अपनी लूसी का चेहरा देख लिया था...वो उसे प्यार से सलोमी कहा करता था...वो जब भी आता मेरे बच्चों के लिए कुछ न कुछ लिए आता...कभी बिस्कुट, कभी चॉकलेट, कभी टॉफ़ी, कभी दूध का टीन। कभी छोटे छोटे माऊथ ऑर्गन...मैं हर बार मना करता, लेकिन वो नहीं मानता था और मैं भी उसकी दिल आज़ारी के ख़याल से या ख़ुलूस की नज्र समझ कर ख़ामोश हो जाता। वो आता तो अपने मख़सूस लहजे में सलोमी को पुकारता और पास बिठा कर देर तक प्यार करता रहता। उसके रेशम जैसे नर्म, सुनहरे बालों को सँवारता, गालों को थपथपाता, और सलोमी से हल्की फुल्की अंग्रेज़ी में बात करने लगता, वो हमारी ज़बान मुश्किल से बोल सकता था, हाँ, अच्छी तरह समझ लेता था...सलमा एक दो साल तक कॉन्वेंट में अंग्रेज़ और ग़ैर मुल्की बच्चों के साथ पढ़ चुकी थी। इसलिए अंग्रेज़ी बोल लेती थी...सलमा के लिए अंकल गाइल प्यारी प्यारी तस्वीरें लाते...मुख़्तलिफ़ ममालिक के छोटे छोटे बच्चों की ख़ूबसूरत फूलों की, और वो उन्हें बड़ी हिफ़ाज़त से रखती। एक-बार गाइलस ने बड़ी प्यारी सी तस्वीर दिखलाई, जिसे उसने बड़े एहतिमाम से एक ख़ूबसूरत से मनी पर्स में रखा था। उस तस्वीर में वो ख़ुद था, एक हसीन सी औरत थी और एक बहुत ही प्यारी सी बच्ची, जो उन दोनों के पास ही खड़ी थी। ये गाईलस की अपनी घरेलू तस्वीर थी। जिसमें वो ख़ुद मुल्की लिबास में था। उसकी बीवी एक उम्दा क़िस्म के गाउन में मलबूस थी और उसकी नन्ही सी बच्ची एक अच्छा सा फ़्राक पहने थी...तीनों के चेहरों से मसर्रत और इत्मिनान की रोशनी अयाँ थी, जैसे अमन और सुकून की देवी उन पर अपना मुक़द्दस हाथ रखे हुए हो। वो इसी तरह अमन-ओ-अमान की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, उनकी मुहब्बत की निशानी लूसी अभी एक ही साल की थी कि जंग के देवता ने अपना ख़ौफ़नाक दहाना खोल दिया जिसके भरने के लिए दुनिया के कोने कोने से लोग सिमट कर आने लगे, और उन्हें के गिरोह में गाईलस भी था। गाईलस के लिए वतन से दूर सिर्फ़ यही एक निशानी थी...ये तस्वीर जो उसे हर वक़्त मसरूर रखती, जाने वो किन उम्मीदों पर ही रहा था। एक रोज़ वो अपनी बच्ची से ज़रूर मिलेगा यह या कुछ और!
गाईलस को सलमा से वालहाना लगाओ था, जैसे वो उसकी अपनी बच्ची हो। वो उसका बहुत ख़याल रखता। उस को किसी रोज़ सलोमी को देखे बग़ैर चैन न आता था...सलमा के सर में ज़रा सा दर्द होता तो उसे तशवीश हो जाती...उसने सलमा को वर्ड्सवर्थ का गीत 'लूसी ग्रे' सिखाने की बहुत कोशिश की, और वो बड़ी हद तक उसे गा लेती थी। लेकिन जब वो उस हिस्से पर पहुँचती, जहां पर शायर ने कहा है THEY WEPT AND TURNING HOMEWARDS CRIED IN HEAVEN WE SHALL MEET (वो रोने लगे और ये कहते हुए घर की तरफ़ वापस हुए, हम जन्नत में ज़रूर मिलेंगे) तो गाईलस की आँखों में बेइख़्तियार आँसू आजाते। लेकिन वो फ़ौरन मुस्कुराने लगता, जैसे उसे ख़ौफ़ हो कि कोई देख न ले।
एक दिन वो आया तो सलमा को हल्का सा बुख़ार था...गाईलस बड़ा ही जज़्बाती था, वो मुझ पर बहुत ख़फ़ा हुआ, और अच्छे से डाक्टर को बुलाने के लिए कहा, ख़ुद एक डाक्टर लाने को तैयार हो गया, लेकिन मैंने उस को इत्मिनान दिलाया...बहरहाल किसी तरह वो मान गया...जाने क्यों वो अब उदास सा रहने लगा था। मुझे बड़ी फ़िक्र हुई, और मैंने बार-बार पूछा लेकिन उसने क़तई नहीं बतलाया...ऐसा लगता था, जैसे वो शदीद बोहरान से गुज़र रहा हो, जैसे वो बड़े ज़ह्नी इंतिशार में मुब्तला हो, जैसे वो सख़्त कश्मकश में फंस गया हो...बाद में मुझे इतना मालूम हो सका कि अब उसके जाने की ख़बरें आरही हैं!
उधर वो ख़िलाफ़-ए-मामूल चंद दिनों से हमारे यहां न आसका था...सलमा भी अक्सर पूछा करती थी, अंकल गाइल क्यों नहीं आते, और ख़ुद मुझे भी फ़िक्र थी कि कहीं ये फ़रिश्तों का सा प्यार ख़त्म न हो जाए। कहीं इस मासूम मुहब्बत का ख़ातमा न हो जाए कहीं ये मुक़द्दस रिश्ता टूट न जाये...आख़िर वो आ गया... गाईलस अपनी सलोमी को देखने लेकिन सलोमी बीमार थी, उसे कई रोज़ से बुख़ार था, और आज बहुत तेज़ हो गया था। ज़्यादा बुख़ार की वजह से वो अपने होश में न थी उसके सर पर स्प्रिट की पट्टी रखी जा रही थी। वो आते ही अपना तवाज़ुन खो बैठा...वो बे-इख़्तियार चीख़ने लगा। ITS YOUR FAULT... ITS YOUR YOU ARE KILLING MY CHILD... MY CHILD... MY SLOME (ये तुम्हारा क़सूर है, सिर्फ तुम्हारा, तुम मेरी बच्ची का मार रहे हो...मेरी बच्ची, मेरी सलोमी...) और वो सलमा के पांव पर झुक गया और अपने चेहरे पर रगड़ने लगा। उसकी आँखों से आँसू रवां थे, जैसे आँसुओं की मदद से सलमाँ को अच्छा कर दे...कुछ देर बाद सलमा को होश आया तो उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू झिलमिला रहे थे। उसने उसकी पेशानी को चूम लिया और कहने लगा ...I'M HERE MY CHILD... I'M HERE...(मैं आगया हूँ, मेरी बच्ची मैं आगया हूँ...) और सलमा सच-मुच अब अच्छी होने लगी। जैसे उसे भी उसकी जुदाई का ग़म था और बस...उस दिन गाईलस बहुत रात गए कैंप गया, जिसके लिए अफ़्सर से बड़ी झड़प हो गई...और उस के इधर उधर जाने पर पाबंदी भी लगादी गई...चूँकि जल्द ही उसको कैंप छोड़ देना था...लेकिन दूसरे दिन सुब्ह-सवेरे वो मेरे यहां पहुंच गया...उसका ज़ह्नी तवाज़ुन ख़त्म हो चुका था...उसके पीछे कई सिपाही उसे पकड़ने आए, चूँकि वो बहुत सी गोलियां लेकर आया था। वो वहां से हट कर नज़दीक के बाग़ में चला गया, उसकी समझ में कुछ न आरहा था कि वो क्या करे, बिलआख़िर बेइख़्तियार उन गोलियों को आसमान की तरफ़ चला रहा था और चीख़ रहा था...I'LL NOT GO... I'LL NOT...YOU WILL KILL ME...I'LL NOT GO...I'LL NOT...I'M COMING MY CHILD, MY SLOME...MY CHILD, MY LUCY...MY LUCY...MY SOLE...MY CHILD...(मैं नहीं जाऊँगा...तुम मुझे मार डालोगे, तुम मुझे मेरी बच्ची से अलग कर दोगे, मैं नहीं...मैं आरहा हूँ, मेरी बच्ची, मेरी सलोमी, मेरी सलोमी, मेरी लूसी, मेरी लूसी, मेरी बच्ची) और बिलआख़िर सब गोलियां ख़त्म हो गई, और दूसरे सिपाही उसे पकड़ करले गए और वो चीख़ता रहा मैं नहीं जाऊँगा...मुझे अपनी बच्ची से मिलना है...मैं नहीं...इस वाक़े की ख़बर सलमा को न दी गई चूँकि वो बीमार थी। कुछ दिनों के बाद उसे किसी तरह बतलाया गया तो वो बहुत रोई...वक़्त ने धीरे धीरे उसके दिल से इस नक़्श को हल्का कर दिया लेकिन आज जब वो अमन के मौज़ू पर एक नज़्म लिख कर लाई है। 'अंकल गाइल' के नाम तो उसकी आँखों में आँसू हैं और मैं सोच रहा हूँ वो हाथ कितने मुक़द्दस हैं जो सलमा और लूसी से एक तरह से प्यार करते हैं। उन हातों से कितने मुख़्तलिफ़ जो ऐटम और हाईड्रोजन बनाते हैं।
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