अंधेरे और उजाले में
अँधेरे में
रात के बारह बज चुके थे, बँगले से बाहर बाग़ में कभी-कभी उल्लू के बोलने के आवाज़ गूँज उठती थी, वरना हर तरफ़ भयानक सन्नाटा छाया हुआ था, उस ख़ूबसूरत और लम्बे चौड़े मकान में सिर्फ़ तीन आदमी थे, दो नौकर और एक मालिक।
बाग़ का माली, दूर एक कोने पर अपनी छोटी सी झोपड़ी में पड़ा सो रहा था।
दोनों नौकर साइबान के पास वाले कमरे में ऊँघ रहे थे, लेकिन मकान का मालिक, अख़्तर जाग रहा था।
उसको एक बेचैनी सी थी।
वो कभी मुसहरी पर लेट जाता और कभी उठ कर टहलने लगता, कभी साइबान में आता और बाग़ के फाटक तक नज़र दौड़ाता, लेकिन हर तरफ़ सन्नाटा देख कर फिर कमरे में वापस आ जाता था।
अख़्तर ने अलमारी में से एक किताब निकाली और मेज़ के पास कुर्सी पर बैठ गया, किताब को पढ़ने लगा, एक ही मिनट में उसको थकन मालूम होने लगी, उसने सिगरेट केस से सिगरेट निकाला और जला कर पीने लगा।
फिर किताब देखने लगा, लेकिन दिमाग़ में और ही बातें चक्कर काट रही थीं, किताब में उसकी तबीयत न लगी, वो कुर्सी से उठा, पहली किताब अलमारी में रख दी।
दूसरी किताब अलमारी से निकाल लाया और वरक़ उलटने लगा मगर उस किताब में भी उसका दिल न लगा...
तो सिर्फ़ तस्वीर ही देखने लगा, बार-बार तस्वीरों को उल्ट-पलट कर देखता रहा, पहला सिगरेट ख़त्म हो गया तो उसने दूसरा जलाया और किताब को मेज़ पर रख कर साइबान में आया, हर तरफ़ अंधेरा था।
वो कई मिनट तक आँखें फाड़-फाड़ कर हर तरफ़ नज़र दौड़ाता रहा, आख़िर बे-आस होकर कमरे में वापस आया और कुर्सी पर बैठ गया, कुछ देर न जाने क्या-क्या सोचता रहा, फिर किताब के वरक़ उलटने लगा।
थोड़ी ही देर में उसको अपना बदन गिरता हुआ मालूम होने लगा, आँखों में जलन और हाथ-पाँव में ढ़ीलापन महसूस होने लगा, बार-बार नींद का साया दिमाग़ पर फैलने लगा, वो जमाई लेकर कुर्सी से उठा, कुर्सी को घसीट कर मुसहरी के पास लाया।
उस पर लैम्प रख कर मुसहरी पर लेट गया और तस्वीरें देखने लगा, घड़ी ने साढ़े बारह बजाए, उसके चेहरे पर मायूसी की लहर दौड़ गई, लेकिन फिर उसको ख़्याल आया, मोटर अब तक नहीं आई है, मेरा ख़्याल ग़लत है, दोबारा आस बँधी।
वो जागने के लिए फिर तस्वीरें देखने लगा।
मगर उसकी आँखें बंद हुई जाती थीं और कोशिश करके जाग रहा था।
देर तक उसका यही हाल रहा, कभी तस्वीरें देखता और कभी मकान की छत को और उसकी कड़ियाँ गिनता।
कड़ियों की तादाद कभी सोलह होती, कभी उन्नीस और कभी अठारह, वो कड़ियों को सही तौर से न गिन सका तो उकता कर नज़र उधर से फेर ली और अपनी मेज़ को देखने लगा, मेज़ पर क़लम दान बे-ढंगे तौर से रखा था, उसने चाहा कि उठ कर ठीक कर दे, मगर न उठ सका।
देर तक देखता और सोचता रहा, फिर उसने अपनी किताबों की अलमारी को देखा, उसको मालूम हुआ जैसे नौकर ने बाज़ किताबें उल्टी रख दी थीं, उसको बड़ा ग़ुस्सा आया।
उसने चाहा कि नौकर को पुकार कर डाँटे लेकिन न पुकार सका, चुप-चाप मुसहरी पर पड़ा रहा, फिर उसने दरवाज़े की तरफ़ देखा, दरवाज़े से बाहर गहरी तारीकी थी, कुछ नज़र न आया, उसी हालत में नींद ने उसको आ लिया।
यकायक मोटर की आवाज़ से वो उठ बैठा और हथेलियों से आँखें मिला कर दरवाज़े की तरफ़ देखने लगा, मोटर से किसी के उतरने और पाँव के चाप की आवाज़ उसके कानों में फैली-फैली सी आई...
फिर एक ख़ूबसूरत जवान औरत बिल्कुल सादा कपड़े पहने उसके कमरे में आई और आते ही बोली, माफ़ कीजिएगा, बड़ी देर हो गई।
अख़्तर ने उसी तरह आँखें मिलते हुए कहा, आह प्यारी! तुमने बड़ी राह दिखाई।
मैं तो समझा था कि आज की रात तुम्हारी ख़्याली तस्वीर के साथ खेल-खेल कर गुज़ारनी होगी, न जाने कैसे नींद आ गई, ख़ैर तुम आ गईं, इत्मीनान हुआ, ख़ुदा के लिए इतनी देर न किया करो वरना वक़्त गुज़ारना मेरे लिए कठिन हो जाएगा, आह तुमको क्या मालूम...
शोख़ ज़ोहरा ने मुस्कुरा कर कहा, जी हाँ देर तो ज़रूर हो गई, माफ़ फ़रमाइए, अस्ल में दो मुजरे हुए हैं, मैं ख़त्म करके फ़ौरन ही चली आई, उफ़ मैं ख़ुद भी बहुत थक गई हूँ।
मगर तुमको कुछ मेरा ख़्याल भी करना चाहिए ज़ोहरा! अख़्तर ने शिकायत के तौर पर कहा।
जी हाँ, मुझे आपका कितना ख़्याल है, क्या बताऊँ, लेकिन आपने इजाज़त दे रखी है इससे फ़ायदा उठाने का ख़्याल हो गया।
अख़्तर ज़ोहरा की तरफ़ इस अंदाज़ से बढ़ा, जैसे भूका खाने की चीज़ की तरफ़, और उसका हाथ पकड़ कर बोला, तुमसे मैंने कल ही कह दिया था कि किसी क़िस्म की फ़िक्र न करो, लेकिन लालच बुरी बला है, दूसरे ही दिन से तुम्हारा ये तरीक़ा है, आह तुमको क्या मालूम कि जो मोहब्बत करता है, उसके दिल पर कैसी गुज़रती है।
ज़ोहरा अख़्तर के पास मुसहरी पर बैठ गई और उसके बालों से खेलती हुई बोली, आपको क्या बताऊँ कि मुझे आपसे कितनी मोहब्बत है।
अख़्तर ने शिकायत के अंदाज़ में कहा, नहीं ज़ोहरा! अगर तुम मोहब्बत करतीं तो देर हरगिज़ न करतीं, मगर तुम लोगों से मोहब्बत की उम्मीद ही फ़िज़ूल है, तुम मोहब्बत को क्या जानो, सिर्फ़ रूपया को जानती हो, ये मेरी ग़लती है कि तुमसे मोहब्बत की उम्मीद रखता हूँ।
ज़ोहरा ने मुस्कुरा कर अख़्तर को अपने क़रीब खींचना चाहा, लेकिन ख़ुद खिंच गई, तो अख़्तर के ज़ानू पर लिपट कर उसके गालों पर हाथ फेरती हुई बोली, तुम ऐसा समझते हो प्यारे, अच्छा लो मैं कल से ठीक दस बजे पहुँच जाया करूँगी, कल से किसी कलमूहे से बात भी न करूँगी, अब हँस दो।
ज़ोहरा ने अख़्तर के गले में बाहें डाल दीं।
अख़्तर सब कुछ भूल गया और वो बोला, ज़ोहरा मेरी प्यारी, तुमको अख़्तर के दिल का हाल क्या मालूम, सच कहता हूँ, तुम्हारे बग़ैर मैं ज़िंदा नहीं रह सकता...
आह। ज़ोहरा ने अख़्तर को मुसहरी पर लिटाते हुए और ख़ुद भी लेटते हुए कहा, प्यारे डेढ़ बज गया है, बहुत नींद आ रही है, थकी हुई भी हूँ, सो जाओ अब।
अख़्तर बोला, अब मेरे दिल को क़रार आया, तो तुम्हें नींद आने लगी।
ज़ोहरा ने कोई जवाब न दिया, अख़्तर बहुत देर तक ज़ोहरा से मुहब्बत भरी बातें करता रहा और ज़ोहरा नींद में डूबी हुई आवाज़ में उससे बातें करती रही, आख़िर दोनों को नींद ने अपनी गोद में ले लिया।
उजाले में
पाँच बजते ही घड़ी ने अलार्म बजाना शुरू कर दिया, अख़्तर उठ बैठा, उसने इधर-उधर देखा फिर बोला, ज़ोहरा उठो सुबह हो गई।
लेकिन ज़ोहरा गहरी नींद में थी, उसने कोई जवाब नहीं दिया, अख़्तर ने ज़ोहरा का शाना हल्के से हिला कर कहा, ज़ोहरा सुबह हो गई, अब उठ जाओ।
लेकिन ज़ोहरा ने बदन को समेटते हुए कहा, मुझे न उठाइए, रात बहुत थकी हूँ।
लेकिन अख़्तर पर इसका कोई ख़ास असर न हुआ, वो फिर उसको हिलाते हुए बोला, नहीं ज़ोहरा सुबह हो गई, अब उठ बैठो, उठो।
मगर ज़ोहरा ने करवट बदलते हुए कहा, रात बहुत थकी हूँ प्यारे, बला से सुबह हो गई, मुझे सोने दो।
अख़्तर ने उठ कर कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर देखा, आसमान पर आहिस्ता-आहिस्ता सफ़ेदी फैलती जा रही थी, वो तेज़ी के साथ मुसहरी के पास आया, ज़ोहरा गहरी नींद में थी, ऐसी गहरी नींद में थी, ऐसी गहरी नींद में थी कि उसको अपने कपड़ों का भी होश न था, मगर अख़्तर ने उसका हाथ पकड़ कर ज़रा खींचते हुए कहा, ज़ोहरा।
ज़ोहरा उठो, बिल्कुल सुबह हो गई...
मगर ज़ोहरा ने अपना हाथ खींच लिया और मुँह बना कर बोली, आप बहुत तंग करते हैं।
सोने दीजिए मुझे, बला से सुबह हो गई।
अख़्तर फिर घबराया, वो फिर दरवाज़े के पास गया, बाहर आसमान को देखा और तेज़ी से वापस आकर बोला, नहीं ज़ोहरा उठो, उठो जल्दी करो, बिल्कुल ही सुबह हो गई।
मेरी बला से सुबह हो गई...
उफ़ आप बहुत तंग करते हैं।
अख़्तर ने घबरा कर कहा, नहीं ज़ोहरा ज़िद न करो, उठो जल्दी करो।
बार-बार नींद में तंग करने की वजह से वो ज़रा चिढ़ कर बोली, मेरी जूती से सुबह हो गई, मैं नहीं उठूँगी, देखिए अब तंग न कीजिए, मुझे सोने दीजिए, मेरी तबईयत ख़राब हो जायेगी।
अख़्तर घबरा कर कमरे में चारों तरफ़ देखने लगा, फिर भाग कर बाहर साइबान में गया।
सूरज तो नहीं निकला था, लेकिन आसमान पर फीकी-फीकी रौशनी फैल चुकी थी, सितारे डूब चुके थे, मोटर अब भी बरसाती में खड़ी थी, ड्राइवर को उठा कर कमरे में वापस आया और ज़ोहरा को झिंझोड़ कर उठाने लगा, ज़ोहरा ने लजाजत के साथ कहा, मुझे मत उठाइए, मेरी तबईयत ख़राब हो जायेगी, सोने दीजिए, ख़ुदा के लिए।
मोटर लगी है, घर जा कर सो रहो ज़ोहरा।
अख़्तर ने कहा लेकिन ज़ोहरा ने चिढ़ कर कहा, में नहीं उठूँगी, जाइए।
अख़्तर ने भी चिढ़ कर जवाब दिया, ये क्या बेकार बात है, तुम्हें उठना होगा, उठो, उठो! इतने में घड़ी ने छः बजाए, अख़्तर और भी घबरा गया, उसने ज़ोर-ज़ोर से ज़ोहरा को झिंझोड़ कर कहा, उठो-उठो! घर जाओ, अभी गाड़ी स्टेशन जाएगी।
बला से जाने दीजिए, देखिए अब उठाइएगा तो मैं रोने लगुँगी, आपसे लड़ पड़ुँगी।
अख़्तर ने बिगड़ कर कहा, ये ज़िद और बदतमीज़ी मुझे अच्छी नहीं मालूम होती, उठो, उठो। ज़ोहरा उठ बैठी, ज़रा तीखी नज़रों से अख़्तर को देख कर मुँह बना कर बोली, आप पर ये क्या दीवानगी सवार है? अख़्तर ने फिर कहा, देखो पागल मत बनो, मोटर मौजूद है, घर जा कर सो रहो, अभी मेरे भाई साहब आने वाले हैं, मोटर उन्हें लाने को स्टेशन जाएगी।
ज़ोहरा ने ज़रा तेज़ आवाज़ से कहा, तो जाने दीजिए, मुझे ख़्वाह-मख़ाह क्यों उठा रहे हैं, मैं तो सोती हूँ।
अख़्तर ने हाथ पकड़ कर ज़ोहरा को खड़ा कर दिया और दरवाज़े की तरफ़ उसको बढ़ाते हुए बोला, जाओ घर जाकर सो रहो, जल्दी करो।
ज़ोहरा बोली, और आपसे मुझे एक ज़रूरी बात भी कहना है।
अख़्तर ने उसको दरवाज़े की तरफ़ ले जाते हुए कहा, अब बात भी ख़त्म करो, जाओ जल्दी, भाई साहब शाम की गाड़ी से चले जाएंगे।
दस बजे आ जाना फिर बात कर लेना।
ज़ोहरा ने ग़ुस्से में कहा, जी हाँ मुझ पर तो वफ़ा ना-आश्नाई का इल्ज़ाम था, रात को क्या रंग था और अब क्या है और फिर रात को बुलावा भी है, क्यों नहीं...
अख़्तर को ताब न रही और वो ग़ुस्सा हो कर बोला, आह जाओ जल्दी, इस वक़्त देर करोगी तो सारा काम बिगड़ जाएगा।
ज़ोहरा ने ग़ुस्से में कहा, जी हाँ क्यों नहीं, रात को मेरे बग़ैर काम नहीं चलता और दिन को मेरे रहने से काम बिगड़ जाएगा, हम लोग तो...
अख़्तर काँपने सा लगा और बोला, जाओ, दफ़ा हो, निकलो भी...
उसने ज़ोहरा को और कुछ बोलने का मौक़ा न दिया, घसीट कर मोटर पर ला बिठाया और ड्राइवर से उसको पहुँचा देने का इशारा किया, चंद मिनट में मोटर रवाना हो गई, वो खड़ा मोटर को देखता रहा, जब मोटर बाग़ के दरवाज़े से बाहर जा चुकी तो अख़्तर को इत्मीनान हुआ, वो कमरे में वापस आया और मुसहरी पर लेट कर एक लम्बी साँस ली।
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