अन्न देवता
स्टोरीलाइन
अकाल पीड़ित एक गाँव की कहानी है। गाँव का निवासी चिन्तू अन्न को लेकर पौराणिक कहानी सुनाता है। कैसे ब्रह्मा ने अन्न को धरती की ओर भेजा था। हालांकि फ़िलहाल उनके पास अन्न पूरी तरह ख़त्म है और बादल है कि लाख उम्मीदों के बाद भी एक बूंद बारिश नहीं बरसा रहे हैं। लोग एक-दूसरे से उधार लेकर जैसे-तैसे अपना पेट भर रहे हैं। गाँव के मुखिया और मुंशी भी गरीबों में धान बाँटते हैं। इस सबसे दुखी चिन्तू कहता है कि अन्न अब अमीरों का हो गया है। वह ग़रीबों के पास नहीं आएगा। वहीं उसकी पत्नी को उम्मीद है कि भले ही अन्न अमीरों के पास चला गया हो लेकिन एक दिन उसे अपने घर की याद ज़रूर आएगी, वह लौटकर अपने घर (गरीबों के पास) ज़रूर आएगा।
तब अन्न देव, ब्रह्मा के पास रहता था। एक दिन ब्रह्मा ने कहा, ओ भले देवता! धरती पर क्यों नहीं चला जाता?
इन अलफ़ाज़ के साथ चिन्तू ने अपनी दिल पसंद कहानी शुरू की। गोंडों को ऐसी बीसियों कहानियां याद हैं। वो जंगल के आदमी हैं,और ठीक जंगल के दरख़्तों की तरह उनकी जड़ें धरती में गहरी चली गई हैं। मगर वो ग़रीब हैं... भूक के पैदाइशी आदी। चिन्तू को देखकर मुझे ये गुमान हुआ कि वो भी एक देवता है जो धरती के बासीयों को अन्न देव की कहानी सुनाने के लिए आ निकला है। गहरी तारीकी छाई हुई थी। अलाव की रोशनी में बग़ल की पगडंडी किसी जवान गोंडन की मांग मालूम होती थी। घूम फिर कर मेरी निगाह चिन्तू के छुरियों वाले चेहरे पर जम जाती। कहानी जारी रही... देवता धरती पर खड़ा था। पर वो बहुत ऊँचा था। बारह आदमी एक दूसरे के कंधों पर खड़े होते, तब जाकर वो उसके सर को छू सकते।
एक दिन ब्रह्मा ने संदेस भेजा। ये तो बहुत कठिन है, भले देवता! तुझे छोटा होना होगा। आदमी का आराम तो देखना होगा।
देवता आधा रह गया। पर ब्रह्मा की तसल्ली न हुई। आदमी की मुश्किल अब भी पूरी तरह हल न हुई थी। उसने फिर संदेस भेजा और देवता एक चौथाई रह गया। अब सिर्फ़ तीन आदमी एक दूसरे के कंधों पर खड़े हो कर उसके सर को छू सकते थे।
फिर आदमी ख़ुद बोला, तुम अब भी ऊँचे हो, मेरे देवता!
अन्न देव और भी छोटा हो गया। अब वो आदमी के सीने तक आने लगा। फिर जब वो कमर तक रह गया तो आदमी बहुत ख़ुश हुआ।
उसके जिस्म से बालें फूट रही थीं। मालूम होता था कि सोने का पेड़ खड़ा है।
आदमी ने उसे झिंझोड़ा और बालें धरती पर आ गिरीं।
मैंने सोचा और सब देवताओं के मंदिर हैं। मगर अन्न देव, वो खेतों का क़दीमी सरपरस्त, खुले खेतों में रहता है, जहां हर साल धान उगता है नए दानों में दूध पैदा होता है... माँ होने वाली छोकरी की छातीयों की तरह।
हल्दी बोली, अब तो देवता धरती के बीचों बीच कहीं पाताल की तरफ़ चला गया है।
चिन्तू ने फटी फटी आँखों से अपनी बीवी की तरफ़ देखा। ऐसा भयानक काल उसने अपनी ज़िंदगी में पहली बार देखा था। धरती इस तरह बंजर हो गई थी, जैसे औरत बाँझ हो जाएगी या किसी नन्हे की माँ की छाती सूख जाये।
हल्दी फिर बोली, और देवताओं की तरह अन्न देव भी बहरा हो गया है।
चिन्तू ने पूछा, पर अन्न देव क्यों बहरा हो गया?
ये मैं मूरख क्या जानूं? पर बहरा तो वो हो ही गया है।
साल के साल हल्दी अन्न देव की मन्नत मानती थी। एक हल्दी पर ही बस नहीं, हर एक गोंड औरत ये मन्नत मानना ज़रूरी समझती है। मगर इस साल देवता ने एक न सुनी। किस बात ने देवता को नाराज़ कर दिया? गु़स्सा तो और देवताओं को भी आता है मगर अन्न देव को तो गु़स्सा न करना चाहिए।
हल्दी की गोद में तीन माह का बच्चा था। मैंने उसे अपनी गोद में ले लिया। उसका रंग अपने बाप से कम साँवला था। उसे देखकर मुझे ताज़ा पहाड़ी शहद का रंग याद आरहा था।
हल्दी बोली, हाय! अन्न देव ने मेरी कोख हरी की और वो भी भूक में और लाचारी में।
बच्चा मुस्कुराता तो हल्दी को ये ख़्याल आता कि देवता उसकी आँखों में अपनी मुस्कुराहट डाल रहा है। पर इसका मतलब? देवता मज़ाक़ तो नहीं करता? फिर उसके दिल में गु़स्सा भड़क उठता। देवता आदमी को भूकों भी मारता है और मज़ाक़ उड़ा कर उसका दिल भी जलाता है।
चिन्तू बोला, सच्च जानो तो अब मुझे अन्न देव पर विस्वास ही नहीं रहा और उसकी कहानी, जो मैं आज की तरह सौ-सौ बार सुना चुका हूँ, अब मुझे निरी गप मालूम होती है।
हल्दी ये न जानती थी कि चिन्तू का तंज़ बहुत हद तक सतही है। ये तो वो ख़ुद भी समझने लगी थी कि देवता रोज़ रोज़ के पाप नाटक से नाराज़ हो गया है।
अन्न देव को नहीं मानते पर भगवान को तो मानोगे।
मेरा दिल तो तेरे भगवान को भी न माने। मर्दूद भगवान। कहाँ हैं उसके मेघ राज? और कहाँ सो रहा है वो ख़ुद? एक बूंद भी तो नहीं बरसती!
देवता से डरना चाहिए और भगवान से भी।
चिन्तू ने सँभल कर जवाब दिया, ज़रूर डरना चाहिए। हाहा. ही ही... और अब तक हम डरते ही रहे हैं!
अब आए न सीधे रस्ते पर। जब मैं छोटी थी माँ ने कहा था, देवता के गु़स्सा से सदा बचियो!
अरी कहा तो मेरी माँ ने भी कुछ ऐसा ही था, पर कब तलक लगा रहेगा ये डर, हल्दी?
देवता फिर ख़ुश होगा और फिर लहराएगा वही प्यारा प्यारा धान।
काल में पैदा हुए बच्चे की तरफ़ देखते हुए में सोचने लगा, इतना बड़ा पाप क्या होगा कि इतना बड़ा देवता भी आदमी को छमां नहीं कर सकता!
काल ने हल्दी की सारी सुंदरता छीन ली थी। चिन्तू भी अब अपनी बहार को भूल रहा था... दरख़्त अब भी खड़ा था मगर टहनियां पुरानी हो गई थीं और नई कोंपलें नज़र नहीं आती थीं।
हल्दी ने मुझे बताया कि उसकी चुलबलाहट और उसके हंस हंसकर बातें करने के अंदाज़ ने चिन्तू को उसकी तरफ़ मुतवज्जा किया था तब वो जवान थी। एक मस्त हिरनी। उसकी नाक मोटी थी और नथुने भी कम चौड़े न थे। पर जब वो उछलती क़ूदती एक खेत से दूसरे खेत में निकल गई और चिन्तू ने उसे देखा तो उसके दिल में भी एक हिरन जाग उठा। वो भी दौड़ने लगा। एक रोज़ वो उसके पीछे भाग निकला तो वो पीपल के पेड़ तले खड़ी हो गई। खेतों में धान लह लहा रहा था 151 प्यार की तरह जो दिल में उगता है। पहले वो कुछ-कुछ डरी, फिर वो मुस्कुराने लगी। जब चिन्तू ने अपनी उंगलियों से उसके बाल सुलझाने शुरू किए और ब्याह की बात छेड़ी तो हल्दी ने सहमी हुई आवाज़ से कहा था, अन्न देव हमें देख रहा है। पहले उसका ध्यान करलो। फिर ब्याह का नाम लेना। हल्दी का ख़्याल था कि देवता धान के पौदों में छिपा बैठा है और उनका प्यार उसने देख लिया है। जब चिन्तू ने रेशम के कीड़ों का गीत गाया था तो हल्दी ने ये महसूस किया था कि चिन्तू भी ऐसा ही एक कीड़ा है। ये दूसरी बात है कि कीड़े ब्याह नहीं करते, सिर्फ प्यार करते हैं। हल्दी ने अन्न देव की सौगंद खाकर अपनी सच्चाई का यक़ीन दिलाया था और चिन्तू ने कहा था, तुम ज़रूर बोल की सच्ची रहोगी हल्दी! अन्न देव की सौगंद बहुत बड़ी सौगंद होती है।
हल्दी का बच्चा मेरी गोद में रोने लगा। उसे लेते हुए उसने सहमी हुई निगाह से अपने ख़ाविंद की तरफ़ देखा। बोली, ये काल कब जाएगा?
जब हम मर जाएंगे और न जाने ये तब भी न जाये।
ये कतकी और कोदों धान की तरह पानी नहीं मांगते। ये भी न उगे होते तो हम कभी के भूक से मर गए होते... उन्होंने हमारी लाज रख ली... हमारी भी, हमारे देवता की भी।
देवता का बस चलता तो उन्हें भी उगने से रोक देता... पापी देवता!
ऐसा बोल न बोलो, पाप होगा।
मैं कब कहता हूँ पाप न हो। हो, सौ बार हो।
ना ना, पाप से डरो और देवता के गु़स्से से भी।
मैंने बीच बचाओ करते हुए कहा, दोस तो सब आदमी का है। देवता तो सदा निर्दोस होता है।
रात ग़म-ज़दा औरत की तरह पड़ी थी। दूर से किसी ख़ूनी दरिंदे की दहाड़ गूँजी। चिन्तू बोला, इन भूके शेरों और रिछों को अन्न देव मिल जाये तो वो उसे कच्चा ही खा जाएं।
बैसाखू के घर रुपये आए तो हल्दी उसे बधाई देने आई। बिप्ता में पच्चीस भी पाँच सौ हैं। रामू सदा सुखी रहे।
अन्न देव से तो रामू ही अच्छा निकला। बैसाखू ने फ़र्माइशी क़हक़हा लगाकर कहा।
चिन्तू बोला, अरे यार, छोड़ ऐसे अन्न देव की बात... अन्न देव, वन देव।
हल्दी ने अपने ख़ाविंद को सर से पांव तक देखा। इस तंज़ से उसे चिड़ थी। देवता कितना भी बुरा क्यों न हो जाए, आदमी को तो अपना दिल ठीक रखना चाहिए, अपना बोल सँभालना चाहिए।
ग़ुस्से में जली भुनी हल्दी अपनी झोंपड़ी की तरफ़ चल दी। बैसाखू ने फिर क़हक़हा लगाया, वाह भई वाह। रांड अब भी अन्न देव का पीछा नहीं छोड़ती।
चिन्तू बोला, जपने दो उसे अन्न देव की माला। हम तो कभी न मानें ऐसे पापी देवता को।
तू सच कहता है चिन्तू, देवता पापी हो गया है।
रामू बंबई में था। चिन्तू सोचने लगा, काश उसका भी कोई भाई वहां होता और पच्चीस रुपये नहीं तो पाँच ही भेज देता।
बैसाखू ने पोस्टमैन को एक दुअन्नी दे दी थी। मगर उसे इस बात का अफ़सोस ही रहा। बार-बार वो अपनी नक़दी गिनता और हर बार देखता कि उसके पास चौबीस रुपये चौदह आने हैं, पच्चीस रुपये नहीं।
झोंपड़ी में वापस आया तो चिन्तू ने हल्दी को बेहोश पाया। उसने उसे झंझोड़ा, रसोई की भी फ़िक्र है। अब सोओ नहीं, हल्दी। दोपहर तो ढल गई...
उस वक़्त अगर ख़ुद अन्न देव भी उसे झिंझोड़ता तो होश में आने के लिए उसे कुछ देर ज़रूर लगती।
थोड़ी देर बाद हल्दी ने अपने सिरहाने बैठे ख़ाविंद की तरफ़ घूर कर देखा। चिन्तू बोला, आग जलाओ हल्दी...! देखती नहीं हो। भूक से जान निकली जा रही है।
पकाऊं अपना सर?
चिन्तू ने डरते डरते सात आने हल्दी की हथेली पर रख दिए और उसके चेहरे की तरफ़ देखकर बोला, ये बैसाखू ने दिए हैं हलदी,और मैं सच कहता हूँ मैंने उस से मांगे न थे।
हल्दी शक भरी निगाहों से चिन्तू की तरफ़ देखने लगी। क्या आदमी ग़रीबी में इतना ही गिर जाता? मगर चिन्तू के चेहरे से साफ़ पता चलता था कि उसने मांगने की ज़लील हरकत नहीं की थी और फिर जब एक एक करके सब के सब पैसे गिने तो उसकी आँखें डबडबा आईं... चार रोंज़ दाल-भात का ख़र्च और चल जाएगा।
शुक्र है। अन्न देवता का लाख लाख शुक्र है।
अन्न देव का या बैसाखू का?
अन्न देव का जिसने बैसाखू भाई के दिल में ये प्रेम भाव पैदा किया।
चिन्तू का चेहरा देखकर हल्दी को सूखे पत्ते का ध्यान आया जो टहनी से लगा रहना चाहता हो। दूर एक बदली की तरफ़ देखती हुई बोली, काश! बूँदा-बाँदी ही हो जाए... अनाथ छोकरी के आँसूओं की तरह... मगर तेज़ हवा बदली को उड़ा ले गई और धरती बारिश के लिए बराबर तरसती रही।
काल ने ज़िंदगी का सब लुत्फ़ बर्बाद कर दिया था। मालूम होता था धरती रो देगी। मगर आँसूओं से तो सूखे धानों को पानी नहीं मिलता। अन्न देव को ये शरारत कैसे सूझी? मान लिया कि वो ख़ुद किसी वजह से किसानों पर नाराज़ हो गया है मगर बादलों का तो किसानों ने कुछ नहीं बिगाड़ा था। वो क्यों नहीं घिर आते? क्यों नहीं बरसते? काश वो देवता की तरफ़दारी करने से इनकार कर दें!
चार एक छोटा सा गाँव है।
उस रोज़ यहां दो तीन सौ गोंड जमा हुए। फडके साहिब और मुंशी जी धान बांट रहे थे। अपने हिस्से का धान पाकर हर कोई देवता की जय मनाता... अन्न देव की जय हो।
चिन्तू गाँव की पंचायत का दायाँ बाज़ू था। धान बांटने में वो मदद दे रहा था। लोग उसकी तरफ़ एहसान मंदाना निगाहों से देखते और वो महसूस करता कि वो भी एक ज़रूरी आदमी है। मगर लोग देवता की जय जयकार क्यों मनाते हैं? कहाँ है वो मरदूद अन्न देव...? वो ख़ुद भी शायद एक देवता है... और शायद अन्न देव से कहीं बढ़कर...
हल्दी ने सोचा कि ये धान शायद अन्न देव ने भेजा है। उसे दुखियारे गोंडों का ख़्याल तो ज़रूर है। मगर जब उसने फडके साहिब और मुंशी जी को हलवा उड़ाते देखा तो वो किसी गहरी सोच में डूब गई। पहले तो उसके जी में आई कि हलवे का ख़्याल अब आगे न बढ़े। पर ये ख़्याल बादल की तरह उसके ज़हन पर फैलता चला गया।
क़हत सभा से मिला हुआ धान कितने दिन चलता?
चिन्तू के चेहरे पर मौत की धुंदली परछाईयां नज़र आती थीं, मगर वो देवता से न डरता था। कभी कभी घुटनों के बल बैठा घंटों ग़ैर शऊरी तौर पर देवता को गालियां दिया करता। मैंने समझा कि वो पागल हो चला है। दो-चार बार मैंने उसे रोका भी। मगर ये मेरे बस की बात न थी। वो देवता को अपने दिल से निकाल देना चाहता था। मगर देवता की जड़ें उसके जज़्बों में गहरी चली गई थीं।
चिन्तू की गालियां सुन कर लोगों को एक ख़ास तरह की ख़ुशी होती। वो महसूस करते कि उनका बदला लिया जा रहा है जो कि बहुत ज़रूरी है। अन्न देव अगर कुछ भी दम रखता है तो चिन्तू को मार देगा या फिर पहली तरह ठीक हो कर उनका दोस्त बन जाएगा। गोंडों को इतनी देवता की ज़रूरत नहीं जितनी एक दोस्त की... वो देवता क्या जो घर का आदमी न बन जाये!
एक दिन चिन्तू बहुत सवेरे उठ बैठा और बोला, देवता अब धनवानों का हो गया है... मर्दूद... पापी देवता! अरी मैं तो ना मानूँ ऐसे नीच देवता को।
पर नहीं, मेरे पति, देवता तो सब का है।
सब का है। अरी पगली, ये सब ज्ञान झूटा है।
पर देवता तो झूटा नहीं।
तो क्या वो बहुत सच्चा है? सच्चा है तो बरखा क्यों नहीं होती?
देवता को बुरा कहने से दोस होता है।
हज़ार बार हो... धूर्त देवता! ले सुन लिया? वो अब हमारे खेतों में क्यों आएगा? वो धनवानों की पूरी-कचौरी खाने लगा है। निर्धन गोंडों की अब उसे क्या पर्वा है?
चिन्तू की नुक्ताचीनी हल्दी के मन में गम घोल रही थी। उसने झोंपड़ी की दीवार से टेक लगा ली और धीरे धीरे अच्छे वक़्तों को याद करने लगी, जब भूक का भयानक मुँह कभी इतना न खुला था। वो ख़ुशी फिर लौटेगी, देवता फिर खेतों में आएगा। उसकी मुस्कुराहट फिर नए दानों में दूध भर देगी। उसके मन में अजब कश्मकश जारी थी। देवता...! पापी...? नहीं तो... नीच? नहीं तो। वो बाहर चला गया तो क्या हुआ। कभी तो उसे दया आएगी ही।
हलदी सँभल कर बोली, सच मानो, मेरे पति, देवता फिर आएगा यहां...
चिन्तू का बोल और भी तीखा हो गया, अरी अब बस भी कर, मेरी रांड, तेरा देवता कोई साँप थोड़ी है कि तेरी बीन सुन कर भागा चला आएगा?
उस दिन रामू बंबई से लौट आया। उसे देखकर हल्दी की आँखों को एक नई ही ज़बान मिल गई। बोली, सुनाओ, रामू भाई, बंबई में देवता को तो तुमने देखा होगा।
रामू ख़ामोश रहा।
मेरा ख़्याल था कि रामू ने बंबई में मज़दूर सभा की तक़रीर सुन रखी होंगी और वो साफ़ साफ़ कह देगा कि देवता वेवता कुछ नहीं होता। अन्न आदमी आप उपजाता है, अपने लहूओ से, अपने पसीने से। अगर आदमी, आदमी का लहू चूसना छोड़ दे तो आज ही संसार की काया पलट जाये। काल तो पहले से पड़ते आए हैं, बड़े बड़े भयानक काल। मगर अब सरमायादार रोज़ रोज़ किसानों और मज़दूरों का लहू चूसते हैं और ग़रीबों के लिए तो अब सदा ही काल पड़ा रहता है और ये काल देवता के छू मंत्र से नहीं जाने का। इसके लिए तो सारे समाज को झंझोड़ने की ज़रूरत है।
हल्दी फिर बोली, रामू भाई! चुप क्यों साध ली तुमने...? हमें कुछ बता दोगे तो तुम्हारी विद्या तो न घट जाएगी। बंबई में तो बहुत बरखा होती होगी। पानी से भरी काली ऊदी बदलियां घिर आती होगी... और बिजली चमकती होगी, उन बदलियों में रामू...! और वहां बंबई में देवता को रत्तीभर कष्ट न होगा...
रामू के चेहरे पर मुस्कुराहट पैदा होने के फ़ौरन बाद किसी क़दर संजीदगी में बदल गई। वो बोला, हाँ, हल्दी! अन्न देव अब बंबई के महलों में रहता है... रूपों में खेलता है... बंबई में, हल्दी, जहां तुमसे कहीं सुंदर रांडें रहती हैं...
हल्दी कुछ न बोली। शायद वो उन दिनों के मुताल्लिक़ सोचने लगी जब रेल इधर आ निकली थी और अन्न देव पहली गाड़ी से बंबई चला गया था।
आँसू की एक बूँद, जो हल्दी की आँख में अटकी हुई थी, उसके गाल पर टपक पड़ी। परे आसमान पर बादल जमा हो रहे थे। मैंने कहा, आज ज़रूर धरती पर पानी बरसेगा।
हल्दी ख़ामोशी से अपने बच्चे को थपकने लगी। शायद वो सोच रही थी कि क्या हुआ अगर देवता को वहां सुंदर रांडें मिल जाती हैं। कभी तो उसे घर की याद सताएगी ही और फिर वो आप ही आप इधर चला आएगा।
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