ऐवार्ड
रोचक तथ्य
हकूमत-ए-पाकिस्तान किसी ख़ास और काबिल-ए-क़दर शख़्सियत को ऐवार्ड देना चाहती है । सन तीराप्पन के नव-ज़यदा मम्लिकत ख़ुदा-दाद के मुआशरे के तनाज़ुर में ।।
सिद्दीक़ी साहिब ये दावत नामे गिने चुने लोगों को भेजे गए हैं और समझ में नहीं आ रहा कि हुकूमत किस को ऐवार्ड देना चाहती है।।शायद किसी बहुत ही ख़ास आदमी को ।।।मज़े की बात ये कि इस दौड़ में आप भी शामिल हैं।
ये सब मुझे नेअमत ख़ां साहिब ने बताया और ये सिलसिला तब शुरू हुआ जब सन तीराप्पन के अवाख़िर में मेरे घर बज़रीया-ए- डाक एक ख़त मौसूल हुआ ।। एक दावतनामा ।।एक कार्ड।।जिसे मैं मज़ाक़ समझ बैठा लेकिन जैसे मुझ पर बाद में हक़ीक़त खुली वो तो एक अन्होना क़िस्म का दावतनामा था।
टहरीए में आपको उस कहानी की सबसे दिलचस्प बात बताने से पहले ये बताता हूँ कि ये सब हुआ कैसे।जब ये ख़त आया तो मैंने खोल कर देखा। सफ़ैद, तक़रीबन चौकोर कार्ड नुमा सख़्त काग़ज़ जिस पर लिखा हुआ था।
दावतनामा
मुहतरम जनाब और बेगम सईद सिद्दीक़ी साहिबा
आप दोनों को दावत दी जाती है।।
मैंने उस के बाद कुछ नहीं पढ़ा । मग़रिब की आज़ान शुरू हो गई।
मैं , वो लिफ़ाफ़ा ,जो अब खुला हुआ था,किचन में खाने की मेज़ पर छोड़कर मस्जिद चला गया। वापिस आया तो उसे तक़रीबन भूल चुका था कि मेरी बेगम ,जो कचौरियाँ तल रही थीं, मेरे पास घबराई हुई आई।
सुनीए जी !मुझे ये दावतनामा किचन में पड़ा मिला है। ग़लती से इस पर सालन गिर गया है। अब पढ़ा नहीं जा रहा आप ने पढ़ा है?
हाँ लेकिन तुम इतनी हवास बाख़ता क्यों हो?
आप ने शायद ग़ौर से नहीं पढ़ा होगा, उस को ज़रा बर्क़ी रोशनी में देखें।
ये कहते हुए बेगम ने मुझे वो कार्ड थमा दिया जिसके दरमयान में अब सालन का धब्बा था।
मैंने उसे क़ुमक़ुमे की ज़रदी माइल सुनहरी रोशनी में देखा तो मुझे कुछ हयूला सा नज़र आया जिसे मैंने ऐनकें लगा कर दुबारा देखा तो मेरी आँखें हैरत से फैल गईं। इस काग़ज़ में पाकिस्तान के रियास्ती अलामत का शाइबा नज़र आ रहा था। मैंने धड़कते दिल से इस काग़ज़ पर हाथ फेरा तो मेरा शक यक़ीन में तबदील हुआ। इस सफ़ैद काग़ज़ के अंदर, जिस पर सालन का धब्बा मेरा मुँह चिड़ा रहा था, रियासत पाकिस्तान का मोनोग्राम उभरे महर की सूरत में मौजूद था।
शम्सा बेगम तुम भी कमाल करती हो, यानी इतने अहम और ख़ुसूसी काग़ज़ को लथेड़ के रख दिया है। जानती हो ये सरकारी दावतनामा है, किसी बड़ी तक़रीब का है जिसमें हमें ख़ास मेहमान के तौर पर बुलाया गया है और आपने उसे सालन में डुबो दिया।। यानी अब में क्या कहूं?
हाँ हाँ दीजिए इल्ज़ाम मुझे। मैंने ही तो उसे किचन में बे-ध्यानी से रख छोड़ा था ।।।
अच्छा ठीक है अब मुझे उसे पढ़ने दो।
पूरा दावतनामा चार सफ़्हों का था। कार्ड वाले हिस्से के अंदर सालन उतना सरायत कर चुका था कि इस की तहरीर अब पढ़ने के क़ाबिल नहीं रही थी लेकिन चूँकि बाक़ी तीन सफ़े मेज़ से नीचे गिर गए थे इसलिए वो इस की ज़द में नहीं आए।
उनमें एक पर तक़रीब के लिबास के मुताल्लिक़ हिदायात थीं जो जिनाह कैप और शलवार क़मीस थी और या दूसरी सूरत में अंग्रेज़ी लिबास यानी कोट पतलून टाई समेत। अगले सफ़े पर पार्किंग के मुताल्लिक़ हिदायात थीं और आख़िरी सफ़ा नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त और ख़ुसूसी तौर पर हॉल में किस नशिस्त पर बैठना है इस के मुताल्लिक़ था।
मोनू ग्राम देखकर ये तो पता चल गया कि ये किसी सरकारी तक़रीब का ख़त है लेकिन मुझे कोई किसी अहम सरकारी तक़रीब में बेगम समेत कोई क्यों बुलाने लगा? इस सवाल का मेरे पास जवाब ना था।
आप इतनी मेहनत जो करते हैं, अख़बार में कॉलम लिखते हैं और हुकूमत पर तन्क़ीद करते नहीं घबराते। आख़िर को अर्बाब इख़तियार को आपकी सच्चाई ।।
शम्सा ऐसी बात हरगिज़ नहीं है, मुझसे बेहतर काम करने वाले बहुत हैं और जो तन्क़ीद मैं हुकूमत पर करता हूँ वो मुझे हुकूमत ही पहले से लिख के देती है।। मेरा मतलब है मुझे उस का मुआवज़ा मिलता है।। ये मुझे कुछ और बात लगती है।
अगले दिन में अपने दफ़्तर गया और नेअमत ख़ान साहब को पूरी बात बता दी। वहीं पर सिराजउद्दीन साहब भी बैठे हुए थे। उन्होंने मुझे नासिहताना अंदाज़ में बताया।
ये एक इशारा है और अगर आप ये रियास्ती महर देखें।। ज़रा मुझे दिखाएंगे।
उन्होंने कार्ड हाथ में लिया और उन के लहजे में तंज़ ऊद कर आया।
इस महर में जूट का पौदा आप देख रहे हैं? ये हमारे बंगाल की पैदावार है जिसे मग़रिबी पाकिस्तान खा रहा है यानी हमारी पैदावार, हमारा किसान और मज़े उड़ाए कोई और फिर ये भी कहे कि ज़बान भी हमारी बोलो, यानी हद होती है इस्तिमार की।
ये कि कर वो कमरे से बाहर चले गए और मैं और नेअमत ख़ान साहब कंधे उचकाते रह गए।
ये सिराज उद्दीन साहब भी वैसे अजीब आदमी हैं । कल मुझे कह रहे थे कि सारा मुल़्क आप पंजाबीयों की वजह से तबाह हो रहा है और ये मलिक की सालमीयत के लिए अच्छी बात नहीं। मैंने उसे बताया भाई में पंजाबी नहीं हूँ और दूसरी बात जितने बंगाली पिस रहे हैं इतने ही पंजाबी, पठान , सिंधी हम मुहाजिर और बाक़ी सब पिस रहे हैं। ये बंगाली और पंजाबी की बात ही नहीं है मसला कहीं और है लेकिन उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी।। अपनी ही सुनाते रहे।। ख़ैर आपका मसला भी अजीब है।
फिर जैसे चौंक से गए और मुस्कुराए।
क़िबला सिद्दीक़ी साहब लगता है आपकी लाटरी लग गई है, एक बीघा ज़मीन और सरकारी मुराआत अलग।
ये कहते हुए उन्होंने इस कार्ड नुमा काग़ज़ को हवा में झंडे की तरह लहराया।
वो कैसे नेअमत भाई, समझ नहीं आई बात।
यज़्दानी साहब, जिनको भी आपकी तरह एक ख़त मौसूल हुआ है , कल कह रहे थे हुकूमत एक ख़ास तक़रीब में किसी बहुत ही ख़ास शख़्स को कोई ऐवार्ड देना चाहती है, ऐसा शख़्स जिसका काम बहुत ही नुमायां तौर पर काबिल-ए-ज़िक्र हो और इस के साथ ये मुराआत भी।
मैंने ये सुना तो दिल की धड़कन तेज़ हो गई लेकिन फिर सोचा ये ऐवार्ड तो मुझे मिलना ही नहीं क्योंकि मैं भला कैसे ख़ास आदमी हो सकता हूँ।मुल्क में इतने बड़े लोग मौजूद हैं जिनका नाम आसमान में सितारों की तरह रोशन है। मैंने भला छः साल पहले बने इस नए इस्लामी मुल्क के लिए क्या-किया है?
शाम को मैं, नोमानी साहब, रफ़ीक़ी साहब , फ़ारूक़ी साहब , नक़वी भाई और नेअमत ख़ां साहब मिल बैठे और अंदाज़े लगाना शुरू किए।
सिद्दीक़ी साहब ये दावत नामे गिने चुने लोगों को भेजे गए हैं और समझ में नहीं आ रहा कि हुकूमत किस को ऐवार्ड देना चाहती है।।शायद किसी बहुत ही ख़ास आदमी को ।।इस दौड़ में आप भी शामिल हैं।
आप बड़े अदीब हैं , ऐन-मुमकिन है क़ुरआ आपके नाम निकले।
क़ुरआ मेरे नाम भला क्यों निकलने लगा मुझसे हज़ार दर्जा बड़े लिखने वाले इस मैदान में मौजूद हैं जैसे फ़ैज़ साहब, क़ासिमी साहब, इबन-ए-इंशा साहब ।। मैं तो उनके क़दमों की ख़ाक।।।
फ़ैज़ साहब को तो आप छोड़ ही दिजिएगा , रवालपंडी साज़िश केस में ज़ेर-ए-इताब हैं आज-कल।सुना है मिंटगुमरी जेल में हैं। शायरी अच्छी करते हैं लेकिन जनरल अकबर और सज्जाद ज़हीर के बहकावे में आकर ख़्वाह-मख़ाह सियासत में कूद पड़े। सुना है कोई कमीयूनिसट इन्क़िलाब लाना चाहते थे कुफ़्र का।। लेकिन।।
नहीं साहब शरीफ़ आदमी हैं वो , काफ़िर वाफ़र नहीं हैं ।। बेचारे मुफ़्त में धर लिए गए। वैसे मुझसे पूछें तो मेरा ख़्याल है ये ऐवार्ड मंटो साहब को मिलेगा।
मंटो ? नहीं भाई वो तो एक फ़ुहश निगार है।। अदालतों से सज़ायाफ़्ता फ़ुहश निगार।। ये एक इस्लामी रियासत है भाई, इस्लाम के नाम पर बनी है, मेरा नहीं ख़्याल ऐसे लचर और बेहूदा लिखारी को , जिसे उर्दू भी लिखना नहीं आती अदीब भी कहना चाहीए ।।। ज़बान तो टकसाली है ही नहीं साले की, कश्मीरी जो हुआ ।। ऐसे किसी भी शख़्स को ये ऐवार्ड नहीं मिलना चाहीए।। और ना ही मिलेगा इंशा-अल्लाह।
ये कह कर फ़ारूक़ी साहब ने अपनी उचकन झाड़ी और उठकर चले गए।
वो फ़ुहश निगार हैं या नहीं वो अलग बात है लेकिन वो सज़ायाफ़्ता हरगिज़ नहीं ।। बरी हो गए थे और उनकी उर्दू अच्छी खासी टकसाली है।। हम अहल-ए-ज़बानों से कहीं बेहतर।। रिकार्ड की दूरूस्तगी के लिए कह दूं।
लेकिन सुना है की सेहत रूबा-ए-तनज़्ज़ुल है। जिगर का कोई आरिज़ा है उनको । आम ख़्याल है कि कसरत-ए-शराबनोशी से उनकी ये हालत हुई है। हक़ीक़त अल्लाह को मालूम।। उनको ऐवार्ड मिले कुछ ईलाज मुआलिजा हो तो हमारी ज़बान का ये ताबिंदा सितारा ज़िंदा रहे। ख़ासी कसमपुर्सी में हैं वैसे ।
अरे बोहतान बाँधा है लोगों ने ।। शराबी है।। हूँ।।कुछ भी कह देते हैं।। अरे उन मोर मलख़ क़ीस्म के लोगों को क्या इल्म कि अदब की क्या तारीफ़ है, ज़बान की बारीकियाँ क्या होती हैं, अफ़साना किस बला का नाम है, प्लाट से क्या मुराद है और क्लाइमेक्स ।।। इन सालों को तो जहाँ भी कोई भला आदमी उर्दू की ख़िदमत करने वला मिले , उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं
दरुस्त कहा आपने । अपनी दिल्ली के ख़्वाजा निज़ामुद्दीन साहब को ही देख लें , उन्होंने ये बात बंगालीयों के सामने बरमला कही
हज़रत क़ाईद-ए-आज़म ने फ़रमाया है कि उर्दू पाकिस्तान की क़ौमी ज़बान होगी तो सिर्फ यही ही पाकिस्तान की ज़बान होगी
फिर अपने ऐनक की कमानी दरुस्त करते हुए कहा।
ये उन्होंने कह तो दिया साहब लेकिन हंगामे फूट पड़े। गवर्नर जर्नल साहब बहादुर को बहाना मिल गया। उनको घर भेज दिया । ऐसे देते हैं लोग अपनी मादरी ज़बान के लिए क़ुर्बानी । ख़ैर।
नामानी साहब आप भी कमाल करते हैं । आपको किस ने बताया है कि ख़्वाजा साहब दिल्ली के हैं? साढे़ छः सौ साल क़बल जनाब ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया दिल्ली के ज़रूर थे लेकिन साबिक़ वज़ीर-ए-आज़म निज़ामुद्दीन।। उनका नाम नाज़िम उद्दीन है निज़ामउद्दीन नहीं ।। हाँ वो बंगाली आदमी हैं । अब अगली सुनें उनको उर्दू से मुहब्बत वग़ैरा कोई नहीं।। ये सब सियासी दाव पेच हैं।। अच्छा हुआ वो घर भेज दिए गए वर्ना पूरा मुलक फ़सादीयों ने यरग़माल बना रखा था।
हाँ ये सब सियास्तदान अपने मतलब ही की बात करते हैं। उड़ती उड़ती सुनी है कि लाहौर से आगे रवालपंडी में या शायद पिशावर में नया दारुलख़लाफ़ा बनाने का इरादा है इन सियासतदानों का ।। लगता है वहाँ सरकारी ज़मीन पर प्लाटों की बंदरबांट होगी। नतीजा ये कि कराची अब एक आम सा शहर बन जाएगा।
ये भली कही आपने, यानी किसी को बिजली का बिल भरना है और वो सहलट में है तो उसे पिशावर जाना पड़ेगा।
नहीं नहीं ऐसा कोई इरादा नहीं किसी का, कराची बाबा-ए-क़ौम का दारुख़लाफ़ा है और इंशा-अल्लाह ता अबद पाकिस्तान का दारलहकूमत रहेगा।। हर उड़ती बात पर यक़ीन नहीं करते ।
मैं घर वापिस आया तो मेरे बरादर-ए-निसबती , जो जमात के ख़ासे सर-गर्म रुकन थे, इस दावत नामे को ग़ौर से देख रहे थे । जमात नई नई इंतिख़ाबी सियासत में कूद चुकी थी और इस वजह से इस के तंज़ीमी ढाँचे में दराड़ें भी पड़ चुकी थी लेकिन फिर भी कराची की ख़ासी मक़बूल आम सियासी क़ुव्वत थी। मुझे एक तरह से कोफ़त सी हुई कि मेरी बेगम ने ये दावतनामा अपने भाई को क्यों दिखाया।
महमूद भाई मेरा ख़्याल है ये ऐवार्ड मौदूदी साहब को मिलेगा। उनसे ज़्यादा ख़िदमात भला किस ने दीं होंगीं इस्लाम और पाकिस्तान के लिए।
वो जेल में नहीं आज-कल ? सुना है सज़ा-ए-मौत का मुक़द्दमा चल रहा है उन पर।
अगले चंद दिन तक ये बहस अलबत्ता होती रही कि ऐवार्ड का असल हक़दार कौन है। एक नाम सुह्रवर्दी साहब का भी आया लेकिन उनके भी सियासी नज़रियात कुछ अजीब से थे। एक ख़्याल ये भी पेश हुआ कि ये ऐवार्ड फ़ज़ल महमूद साहब को मिलेगा जो क्रिकेट के दरख़शां सितारे थे।
अरे नहीं क्रिकेट गोरों का खेल है।मैं तो कहता हूँ ये ऐवार्ड ख़ां साहब लियाक़त अली ख़ां को मिलेगा, वो मुल्क के लिए शहीद हुए हैं और इमाम के रास्ते पर चल कर ताअबद ज़िंदा रहेंगे।
वो ठीक है नक़वी भाई लेकिन ये एवार्ड पस अज़ मर्ग या शहादत पाने वालों के लिए नहीं। नोबल इनाम की तरह वसूल कनुंदा का ब-क़ैद-ए-हयात होना ज़रूरी है।। इस ऐवार्ड के लिए।
आप लोग मानें या ना मानें ये ऐवार्ड इस जर्नल को मिलेगा, भला सा नाम है।।हाँ जर्नल ग्रेसी । । हम आज़ाद ज़रूर हैं लेकिन जर्नल साहब गोरे हैं जो बहरहाल हमसे ज़्यादा आज़ाद हैं । अफ़सोस हमारे दलों से खोइ गु़लामी नहीं गई।।। मानो या ना मानो यही होगा।
अरे नहीं उस को नहीं मिलने लगा ये ऐवार्ड। सुना है वसूल कनुंदा का पाकिस्तानी शहरी होना ज़रूरी है। इस गोरे साले ने तो मुँह पर हज़रत क़ाइद-ए-आज़म की हुक्मउदूली की थी, उस को भला तमग़ा क्यों मिलने लगा? आप भी बस।।।
साहब किसी बात पर इत्तिफ़ाक़ ना हो सका।।आख़िर में हमने मिलकर जो अंदाज़ा लगाया वो ये था कि आदमी मुल्क के लिए बहुत ही अहम होगा तो ही इस ख़ास ऐवार्ड का इंतिज़ाम किया गया है।
तीन हफ़्ते बाद ये बात ढकी छिपी ना रही और तमाम ना मैदा लोगों की लिस्ट एक सर्कुलर के ज़रीए हमारे ऑफ़िस में आ गई। चूँकि इस सर्कुलर पर अंग्रेज़ी में रेस्टरक्टिड लिखा हुआ था तो सिर्फ नोमानी साहब ही उस के पढ़ने के मजाज़ थे। उन्होंने उस के मुंदरिजात बा अवाज़ बुलंद पढ़ना शुरू किए तो मैंने उनको इंतिहाई मोदबाना तरीक़े से रोका।
इस जदवल पर महदूद इत्तिलाआत का इतलाक़ होता है और इस को यूं अफ़शा करना ओफ़िशल सीक्रिट ऐक्ट सन तेईस की ख़िलाफ़वरज़ी होगी
अरे तो मैं कौनसे नाम पढ़ रहा हूँ भाई ।सिर्फ ये बताना चाहता हूँ कि कुल मिला कर तेईस लोग मग़रिबी और दो लोग मशरिक़ी पाकिस्तान से मुंतख़ब हुए हैं।। कुल मिला कर पूरे पच्चीस। दूसरी बात ये कि सारे नाम लिखे भी नहीं गए हैं। चार जगह सिर्फ लफ़्ज़ मौसूफ़ लिखा गया है
मौसूफ़? ये भला क्या बात हुई?
अरे ये हुकूमत का एक हथकंडा है। आख़िरी वक़्त में किसी को इस लिस्ट में दाख़िल करवाना हो तो उस का नाम मौसूफ़ की जगह डाल देते हैं
फिर मेरी तरफ़ देखा
जनाब सईद सिद्दीक़ी साहब आपका नाम वैसे चौथे नंबर पर है।। सिर्फ इत्तिला की ग़रज़ से बताया
पच्चीस लोगों में अपना नाम चौथे नंबर पर देखा तो मेरा सीना फ़ख़र से फूल गया और ख़ुशी के मारे मेरा चेहरा तमतमाने लगा। मैंने उनसे अब इंतिहाई एहतिराम से पूछा
कुछ ये बता सकते हैं आप कि किस क़बील के लोग हैं इस ऐवार्ड के लिए?
चूँकि उन पर महदूद इत्तिलाआत का इतलाक़ होता है ये तो मैं नहीं बता सकता लेकिन तक़रीब का इनइक़ाद के-ऐम-सी बिल्डिंग में किया गया है
तक़रीब वाले दिन तक इस बात का फ़ैसला ना हो सका कि मैं पाकिस्तानी शलवार क़मीस और शेरवानी पहनूँ या अंग्रेज़ी लिबास ज़ेब-ए-तन करूँ
मेरे बरादर-ए-निसबती ने मुझे मश्वरा दिया
देखिए महमूद भाई ये ऐवार्ड पाकिस्तानीयों का है इसलिए हमें क़ौमी लिबास पहनना चाहीए, अपना तशख़्ख़ुस बरक़रार रखना चाहीए । हमशीरा साड़ी पर मुसिर हैं ।।आप ही कह दीजीए कि साड़ी हिन्दू का लिबास है, उसे तर्क ही कर दें और जलबाब पहन लें या बकुल मारें।। मेरी तो सुनती नहीं
आपकी हमशीरा मुहतरमा वैसे मेरी भी नहीं सुनती
मेरी बेगम ने सुनी अन-सनी की और अपनी भाभी को बताने लगीं
मैं तो जॉर्जजट की साड़ी पहनूँगी और साथ में मैचिंग जूते और ये नेकलस
हाँ शम्सा पसंद पसंद की बात है ।। वैसे उस का ब्लाउज़ बहुत तंग है लेकिन बहुत ही जचती है आप के ऊपर।। बिल्कुल ऐसे लगती हैं आप ।।जैसे।। संगदिल मैं मधु बाला।
मैंने बीच में लुक़मा दिया
शम्सा बेगम आप दाएं बाएं से ज़रा सुन-गुन लें कि फ़िल्मी ज़िंदगी से बाहर बाक़ी बेगमात का पहनावो क्या है। ऐसा ना हो जिसे हम काबिल-ए-सिताइश समझें हमारे लिए मुसीबत बन जाये
आप रहने ही दीजिए में वही पहनूँगी जो मेरे जी को भाए।
घर से निकलने का वक़्त साढे़ चार बजे तै हुआ था और होते होते छः बज गए। शम्सा ने अपने साड़ी के इंतिख़ाब में दस मर्तबा सोचा, कुछ को पहन कर उतार और आख़िर-ए-कार जॉर्जजट की वही साड़ी पहनी जिसकी चोली बहुत तंग थी।
शाम को हमने टैक्सी मँगवाई और इस में बैठ कर य-ऐम-सी बिल्डिंग की तरफ़ सफ़र शुरू किया। हम वहाँ आधा घंटा ताख़ीर से पहुँचे लेकिन तक़रीब अभी तक शुरू नहीं हुई थी क्योंकि गवर्नर जनरल साहब अभी तक नहीं आए थे। हम सब अंदर हाल में जा कर बैठ गए।
अंदर घुप अंधेरा था , हाथ को हाथ सजाई ना दे। लड़खड़ाते हुए नशिस्तें टटोलते टटोलते अपने लिए मुख़तस नशिस्तों पर बैठ गए और हमारे हैरत की इंतिहा ना रही कि हमारे पहलू ही में यज़्दानी साहब और उनकी बेगम बैठी हुईं थीं।
घंटा और इंतिज़ार हुआ और फिर गवर्नर जनरल साहब की बजाय उनका एक नुमाइंदा तशरीफ़ लाया।हॉल पाकिस्तान के क़ौमी तराने से गूंज उठा। हम सब अहतरामानं खड़े हो गए। मेरे ज़हन में एक ख़्याल सुरअत से कौंदा मैं ने यज़्दानी साहब से आहिस्ता आवाज़ में कहा।
कहीं ये एवाड़द जालंधरी साहब को तो नहीं देने लगे? सुना है जिहाद कश्मीर में फ़ौज के शाना ब-शाना लड़े और गोली भी खाई।
अरे नहीं भाई क़ौमी तराने के इलावा उनका कोई दूसरा इमतियाज़ी वस्फ़ नहीं है। मेरा ख़्याल है अगर क़ौमी तराने पर ऐवार्ड मिलने लगे तो फिर तो छागला साहब ही हक़दार टहरेंगे जिन्हों ने धुन बनाई है।
मैंने सरगोशी से उन्हें बताया।
वो इमसाल फरवरी में फ़ौत हो चुके हैं , शायद आपके इल्म में ये बात नहीं।
यकायक ख़ामोशी छा गई और स्टेज पर मौजूद एक साहब ने गवर्नर जनरल को उनकी ग़ैरमौजूदगी में अंग्रेज़ी में ख़िराज-ए-तहिसीन पेश किया और फिर एक और साहब उर्दू में तक़रीर करने लगे।
ख़वातीन-ओ-हज़रात आपको ख़ुश-आमदीद । इस ऐवार्ड का मक़सद उस हर दिल अज़ीज़ शख़्सियत का इंतिख़ाब है जिसने पाकिस्तान और पाकिस्तानी अवाम के लिए सबसे ज़्यादा क़ुर्बानी दी। ।सियासतदानों को सियासत सिखाई और उर्दू ज़बान और लिखने वालों को जिला बख़शी कि सिर्फ उन ही की वजह से इस मुल्क में उर्दू को पज़ीराई मिली। । कुछ लोग कहते हैं उनकी वजह से फ़ह्हाशी को तरवीज मिली लेकिन ऐसा नहीं है।। लाहौर से मुताल्लिक़ उस शख़्सियत ने बिला-शुबा इस्लाम का नाम रोशन किया। । इस मुल्क में लिबास , ज़बान की दरूस्तगी और उठने बैठने तक का सलीक़ा उसी शख़्सियत का मर्हूने मिन्नत है। दिल थाम के बैठें ।। रास कुमारी से ख़ैबर तक मक़बूल इस शख़्सियत का इंतिख़ाब मुहतरम गवर्नर जनरल साहब ने ख़ुद किया।
मेरे दिमाग़ में यकायक बिजली सी कौंद गई और एक ही नाम ज़हन में आया
सआदत हसन मंटो
अब मुझे अपने ऐवार्ड ना मिलने का कोई गम ना था और मेरी नज़रें इस अंधेरे में डूबे हॉल में उस अज़ीम अदीब की तलाश में सरगर्दां थीं जिन्हों ने उर्दू ज़बान को जिला बख़शी और जो बावजूद अपनी अलालत के कराची आए थे।
पर्दा हटा
यकायक स्टेज पर मिस अलिफ़ नमूरदार हुईं जो लाहौर की एक तवाईफ़ ज़ादी थीं लेकिन अब फ़िल्मी दुनिया का दरख़शिंदा सितारा थीं , जहान का सरवर थीं और अवाम के दिलों की धड़कन थीं । मौसूफ़ा के गले में सोज़ था, सियासतदानों को सियासत सुखाती थीं, और कुछ बहुत ही खुले इस्लामी ज़हन की मालिक थीं और सिर्फ इसी के लिए गाने लिखने वाले क़लमकार उर्दू ज़बान को मुसलसल जला बख़श रहे थे
लोगों ने ,जो अब तक साँसें रोक कर ख़ामोश बैठे थे तालीं पीट पीट कर उन आसमान सर पर उठा लिया। मिस अलिफ़ गुजराती तर्ज़ पर बंधी बग़ैर आस्तीनों के तंग और चमकीली साड़ी में मलबूस थीं जिसमें उनका अंग अंग नुमायां था । लहराते हुए , एक अदा से ज़रा झुक कर उन्हों ने ऐवार्ड वसूल किया।
ऐवार्ड उनको दिया गया तो मैंने अपनी बेगम की तरफ़ देखा जिसने बड़बड़ाते हुए कहा।
इस उछाल छक्के को ऐवार्ड दे रही है हुकूमत ?
मुझे भी हैरत है ये ये ऐवार्ड इस छिनाल ने उचक लिया ?।अरे मैं कहती हूँ ये क़ौम है ही इसी लायक़ कि इस बेसवा को ऐवार्ड दे, नहीं चाहीए हमें ऐसा ऐवार्ड। शुक्र है अल्लाह ने हमारी इज़्ज़त रखी।
बेगम यज़्दानी ने दाँत पीसते हुए कहा।
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