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बाहम

MORE BYसलाम बिन रज़्जाक़

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक ऐसी गर्भवती की स्थिति को बयान करती है जो बाबरी विध्वंस के दौरान बच्चे को जन्म देने वाली है। एक दिन अचानक उसे गोश्त खाने का मन करता है और वह कसाई की दुकान पर गोश्त लेने जाती है। वहाँ वह एक बकरे को ज़िब्ह होते हुए देखती है। गोश्त लेकर घर आते हुए उसके हाथ से गोश्त की थैली को एक कुतिया छीन कर भाग जाती है। वह घर आती है और बासी रोटी खाकर सो जाती है। नींद में वह एक डरावना सपना देखती है, जिसके कारण उसे समय से पहले ही प्रसव पीड़ा होने लगती है। उसका पति उसे अस्पताल ले जाता है, जहाँ वह दो मुर्दा बच्चों को जन्म देती है।

    कनीज़ छोटे-छोटे क़दम उठाती चल रही थी। धूप से बचने के लिए उसने पल्लू को सर और गर्दन के गिर्द लपेट लिया था। इसके बावजूद गर्मी से उसका चेहरा तमतमा रहा था। वो बाएं तरफ़ हट कर एक पुरानी शिकस्ता बिल्डिंग के साये में चलने लगी। बिल्डिंग की दीवार पर कुछ पोस्टर चिपके हुए थे। जो अब कहीं-कहीं से फट चुके थे। इन पोस्टरों को वो आते-जाते पहले भी कई बार देख चुकी थी। पोस्टरों में राम, सीता और लक्ष्मण की तस्वीरें बनी थीं और उनकी पेशानी पर ‘जय श्री राम’ लिखा हुआ था।

    इतने में उसे कल्लू की दुकान का बोर्ड नज़र गया। “हिन्दोस्तान मटन शाप।”

    कनीज़ एक हाथ से पन्ना पल्लू सँभालती हुई दूकान में दाख़िल हो गई।

    कनीज़ को देखते ही कल्लू क़साई ने हाँक लगाई।

    “अरे कनीज़ तू?.... जा.... जा....”

    फिर उसके सीने तक उभरे हुए पेट की तरफ़ देखकर बोला।

    “मगर तू इस हाल में क्यों चली आई.... ग़ुलाम कहाँ है?”

    “वो काम पर गये हैं...”

    “अरे चाली मुहल्ले में लड़के बाले मर गये हैं क्या? किसी लौंडे को भेज देती...”

    “कोई दिखाई नहीं दिया...”

    “मगर तुझे इस हाल में ज़्यादा चलना फिरना नहीं चाहिए...”

    “नहीं कल्लू भय्या! डाक्टर ऐसे में ज़्यादा चलने फिरने को बोलते हैं।” उसने क़दरे शर्माते हुए नज़रें झुका लीं।

    “अच्छा... अच्छा.... चल बोल क्या चाहिए...”

    “पाव किलो क़ीमा चाहिए....”

    “अच्छा इधर फलाट पर बैठ जा। अभी तौल देता हूँ।”

    “नहीं। मैं ठीक हूँ.... तुम देदो...”

    कल्लू के सामने किलो डेढ़ कालों कुटा हुआ क़ीमा रखा था। उसने इसी में से मुट्ठी भर क़ीमा तराज़ू में डाल कर पाव किलो क़ीमा तौल दिया। कुंदे पर पड़े गोश्त के लोथड़े में से एक कुरकुरी हड्डी छांटी और क़ीमे में डाल दी। और क़ीमा पोलीथीन की थैली में डालता हुआ बोला....

    “ले।”

    कनीज़ ने हथेली ले ली और मुट्ठी में दबे हुए पैसे कल्लू की तरफ़ बढ़ा दिये।

    “रहने दे मैं ग़ुलाम से ले लूँगा।”

    “वही दे गये हैं।”

    “अच्छा ला।”

    कल्लू ने पैसे लेकर गले में डाल दिये.... कनीज़ जाने के लिए मुड़ी तो बोला, “रुक जा... ये ले एक गुर्दा रखा है....ये भी लेती जा।”

    उसने गुर्दे के चार टुकड़े कर दिए।

    “नहीं कल्लू भय्या.... मैं इतने पैसे नहीं लाई थी...”

    “पैसे की बात कौन करता है.... ले हमारी तरफ़ से खा ले...”

    “नहीं... नहीं चाहिए।”

    “अरे ये गुर्दा हम तुझे थोड़ी दे रहे हैं। ये तो हमारे होने वाले भतीजे के लिए है... ले-ले...”

    कल्लू ने शरारत से मुस्कुराते हुए उसके उभरे पेट की तरफ़ एक उचटती सी निगाह डाली।

    “तुम बहुत ख़राब हो... कल्लू भय्या।”

    कनीज़ का चेहरा शर्म से सुर्ख़ हो गया।

    “अब ख़राब क्या और अच्छे क्या। जैसे भी हैं तेरे जेठ हैं।”

    कनीज़ ने झिजकते हुए थैली आगे बढ़ाई और कल्लू ने गुर्दा थैली में डाल दिया।

    “अच्छा चलती हूँ।” कनीज़ जाने के लिए मुड़ी।

    दुकान के एक कोने में ज़बह किया हुआ बकरा टंगा था जिसे एक छोकरा छील रहा था। बकरा पूरा छीला जा चुका था। छोकरे ने छुरी से बकरे का पेट चीर दिया “बक़” से एक बड़ी ओझड़ी बाहर निकल आई। कनीज़ ने एक झुरझुरी सी ली और झट से मुँह फेर लिया और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई। कल्लू क़साई उसे दरवाज़े से बाहर निकलते हुए देखता रहा। कनीज़ धीरे-धीरे घिसटते हुए क़दम उठा रही थी। पेट के उभर जाने से उसकी कमर पुश्त की जानिब दोहरी हो गई थी। और गर्दन पीछे को तन गई थी। साफ़ लगता था कि उसे चलने में काफ़ी दिक़्क़त हो रही है। उसका दुपट्टा सर से ढलक कर गर्दन में झूल रहा था। और चोटी किसी मरी हुई छछूंदरी की तरह पुश्त पर लटक रही थी। उसने मैक्सी पहन रखी थी इसलिए उसके डील-डौल का सही अंदाज़ लगाना मुश्किल था। लेकिन मैक्सी की आस्तीनों से झाँकती हुई बाँहों से लगता था बस औसत दर्जे की सेहत है उसकी। बहुत अच्छी बहुत ख़राब।

    कल्लू उसे दरवाज़े से निकल कर सड़क पर पहुंचे तक देखता रहा। फिर एक ठंडी सांस खींच कर बोला, “कैसी छोकरी थी कैसी हो गई।” उसके लहजे में तास्सुफ़ था।

    “क्या बोले उस्ताद!”बकरा छीलते छोकरे ने पलट कर शरारत से मुस्कुराते हुए पूछा।

    “कुछ नहीं बे तू अपना काम कर।”

    “हमसे मत छुपाओ उस्ताद किसी ज़माने में तुम उसके आसिक थे।”

    “अबे थे.... मगर अब वो हमारे दोस्त की घर-वाली है। उल्टी सीधी बात बोला साले तो बकरे की तरह छिल कर रख दूँगा।”

    “माफ़ करना उस्ताद... ग़लती हो गई।” छोकरे ने कल्लू के तेवर देखकर पैंतरा बदला...

    कल्लू जेब में बीड़ी टटोलने लगा।

    कनीज़ बाएं हाथ में पोलीथीन की थैली लटकाए धीरे धीरे चली जा रही थी। बारह-साढे़ बारह का अ’मल था। वस्त अप्रैल का सूरज ठीक उस के सर पर चमक रहा था। उसने दुपट्टा सर पर डाल लिया और दाएं हाथ की हथेली से अपना चेहरा पोंछा। उसे इस चिलचिलाती-धूप में चलना भारी पड़ रहा था। वो दिल ही दिल में अपने आपको कोसने लगी। क्या ज़रूरत थी उसे इस भरी दोपहर में बाहर निकलने की। आज अगर क़ीमा नहीं खाती तो कौनसी क़ियामत जाती। मगर उसे फ़ौरन भीकन बुआ की याद गई।“ इन दिनों अगर कोई चीज़ खाने का जी करे तो मन को मारना नहीं चाहिए। इस से बच्चे पर बुरा असर पड़ता है।”

    बस इसी ख़्याल से उसने ग़ुलाम से कहा था कि उसका क़ीमा खाने को जी कर रहा है। ग़ुलाम पहले तो लम्हे भर के लिए सोच में पड़ गया। क्योंकि महीने की सत्ताईस तारीख़ थी और अभी तनख़्वाह में तीन चार दिन बाक़ी थे। फिर भी उसने अपने बीड़ी-कान्डी के लिए रखे हुए दस रुपये उसे दे दिये थे। कनीज़ के पास पाँच सात रुपये तो थे ही। गोश्त इस क़दर महंगा हो गया था कि बकरे का गोश्त खाना अब उनके बस का नहीं रहा था। बस दाल रोटी और चटनी-अचार पर गुज़ारा हो जाता था। महीने में एक या दोबार ही वो लोग गोश्त ला पाते थे। मगर जब से वो हामिला हुई थी ग़ुलाम हर इतवार को उसके लिए आधा किलो गोश्त लाने लगा था। ये क़ीमा खाने की सनक तो बीच ही में जाग उठी थी।

    इस वक़्त उसे एक-एक क़दम मन-मन भर का लग रहा था। मगर साथ ही ये इत्मिनान भी था कि घर ज़्यादा दूर नहीं है। बस चौथे बिजली के खम्बे के बाद गली में मुड़ते ही राम बचन की चाली थी। चाली नंबर तीन और खोली नंबर पाँच। बस यही उसका घर था। घर में दाख़िल होते ही वो सबसे पहले मटके से कम से कम दो डोंगे पानी पियेगी। मुँह पर ठंडे पानी के छपाके मारेगी। फिर इत्मिनान से बैठ कर क़ीमा पकाएगी। आटा गूँधा हुआ रखा है। गर्म गर्म दो पराठे डालेगी और खिड़की के पास बैठ कर पिछवाड़े मैदान का नज़ारा करते हुए क़ीमा और पराठा खाएगी। उसके साथ आम का अचार भी तो होगा। अम्मां ने कल ही तो ला कर दिया था। फिर उसे ख़्याल आया कि कल्लू ने क़ीमा के साथ एक गुर्दा भी तो दिया है। वाह क़ीमा गुर्दा वाक़ई मज़ा जाएगा। उसके जी में आया कि उड़ कर अपनी खोली में पहुंच जाये। फिर अचानक उसे लगा। उसे वो मुफ़्त का गुर्दा नहीं लेना चाहिए थे। मगर वो क्या करती कल्लू का इसरार ऐसा था कि वो मना नहीं कर सकती थी। वो ग़ुलाम का दोस्त था और शादी के बाद कई बार उनके घर भी चुका था। चाय पी चुका था मगर उसने कभी ऐसी वैसी बात नहीं की थी। अलबत्ता शादी से पहले उसने दो-चार बार ज़रूर तंग किया था। मगर शादी से पहले तो उसे कई लोगों ने तंग किया था। जब वो हाई स्कूल जाने के लिए सब्ज़ फ़्राक, सफ़ेद शलवार, ओढ़नी पहने, दो चोटियां डाले सुर्ख़ स्कार्फ़ बाँधे निकलती थी तो घर से लेकर स्कूल तक पता नहीं, कितने फ़िक़रे, कितनी सीटियाँ उसका तआ’क़ुब करती थीं। चाल के दो-चार छोकरे तो उसके पीछे पीछे उसे स्कूल तक छोड़कर लौटते थे।

    कल्लू क़साई शादीशुदा था। एक बच्चे का बाप था। उसने वो गुर्दा ज़रूर उसे अपना समझ कर दिया था। उसे ख़्वाह-मख़्वाह उस पर शक नहीं करना चाहिए।

    अब बिजली का बस एक खंबा रह गया था। उसका चेहरा पसीने से तर हो गया था। और उसे साफ़ लग रहा था पसीने की तलियां मैक्सी के अंदर उसकी गर्दन से पीठ की तरफ़ रेंग रही हैं। उसने दुपट्टे से अपना चेहरा पोंछा। और तभी पता नहीं क्या हुआ कि उसके हाथ में लटकी हुई क़ीमे की थैली एक झटके के साथ उसकी उंगलियों में से निकल गई। उसने घबरा कर जो नज़र डाली तो देखा एक कुतिया मुँह में थैली दबाए एक तरफ़ भागी जा रही है। उसने इज्तिरारी तौर पर दोनों हाथ हिला-हिला कर मुँह से हुश-हुश की आवाज़ निकाली। मगर कुतिया ने थैली मुँह से नहीं छोड़ी। उसने पहली नज़र में देख लिया था कि कुतिया का पेट भी फूला हुआ था। और वो भी तेज़ नहीं भाग पा रही थी। कनीज़ को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके मुँह का निवाला छीन लिया हो। उसे कुतिया पर बड़ा ग़ुस्सा आया। मगर वो क्या कर सकती थी। कुतिया अब एक तरफ़ मुड़ कर उसकी नज़रों से ओझल हो चुकी थी। कनीज़ चंद लम्हे उसी तरह बेबसी के आलम में खड़ी दुपट्टे से अपने चेहरे का पसीना पोंछती रही। फिर हसरत से एक नज़र उस तरफ़ डाली जिधर कुतिया गई थी। और भारी क़दमों के साथ गली में राम बचन चाली की तरफ़ मुड़ गई। क़दम तो उसके पहले ही भारी थे मगर अब मन भी भारी हो गया था। उसे हर क़दम पर लगने लगा। बस वो वहीं कहीं धम से ढेर हो जाएगी।

    घर पहुंच कर उसने दरवाज़ा बंद कर लिया। और चारपाई पर जा कर पसर गई। वो धीरे-धीरे हांप रही थी। वो थोड़ी देर तक उसी तरह लेटी रही। फिर चेहरे का पसीना पोंछ कर उठी। मटके से एक डोंगा पानी निकाला और चारपाई की पट्टी से टिक कर धीरे-धीरे पानी पीने लगी। पानी पीने के बाद उसे अपने अंदर फैली हुई बेचैनी में कमी का एहसास हुआ। जैसे उड़ती हुई धूल पर पानी के छींटे पड़ गये हों। उसे भूक भी लग रही थी। उसे याद आया रोटी की टोकरी में दो रोटियाँ पड़ी हैं। सुबह ग़ुलाम को टिफिन बना कर दिया था। रोटी और आलू की बची हुई सब्ज़ी तो उसने नाशते में खा ली थी। मगर दो रोटियाँ बच गई थीं। उसने कपड़े में लिपटी हुई रोटियाँ निकालीं। उन पर थोड़ा सा अचार रखा। और गिलास में पानी लेकर खिड़की के पास आकर बैठी गई। रोटी का निवाला बनाया और मुँह में डाल कर धीरे-धीरे चबाने लगी। खिड़की के बाहर पिछवाड़े के खुले मैदान में धूप की चादर तनी हुई थी।

    दाएं तरफ़ इमली के पेड़ के नीचे एक ट्रक खड़ा था। शायद ड्राईवर कहीं रोटी खाने गया था। ट्रक के पीछे उसे वैसे ही दो पोस्टर चिपके नज़र आए, जैसे उसने बिल्डिंग की दीवार पर देखे थे। एक पोस्टर आधा फट गया था और हवा से फ़रफ़र लहरा रहा था। उसकी नज़र ट्रक के नीचे गई। ट्रक के साये में वही कुतिया जिसने उसके क़ीमे की थैली झपटी थी। इत्मिनान से बैठी हड्डी चिचोड़ रही थी। शायद ये वही कुर कुरी हड्डी थी जो क़ीमे में कल्लू ने ऊपर से डाली थी। क़ीमे का अब कहीं नाम-ओ-निशान नहीं था। कुतिया सारा क़ीमा चट कर चुकी थी। कनीज़ का चलता हुआ मुँह रुक गया। क़ीमे की याद आते ही उसे अपने मुँह का लुक़्मा मिट्टी के ढेले की तरह बेमज़ा लगने लगा। वो हसरत, ग़ुस्सा और नफ़रत से कुतिया को देखने लगी जो मुँह टेढ़ा कर कर के हड्डी को चबाने की कोशिश कर रही थी।

    “हरामज़ादी....” कनीज़ के होंटों से बेसाख़्ता गाली निकली। अगर उसने वो थैली छीनी होती तो इस वक़्त वो क़ीमा भून रही होती। और क़ीमे की ख़ुशबू से खोली महक रही होती फिर क़ीमे के साथ गर्म गर्म पराठों के तसव्वुर से उसके मुँह में पानी आगया और उसके नथुने क़ीमे की ख़ुशबू का ख़्याल कर के फूलने-पिचकने लगे।

    कुतिया शायद अब हड्डी भी हड़प कर चुकी थी। क्योंकि वो अपनी लप-लप करती ज़बान से अपनी बांछें चाटती हुई इधर-उधर देख रही थी। अगर कनीज़ उस-के क़रीब होती तो कोई पत्थर उठा कर उस पर मार चुकी होती। मगर वो उसकी दस्तरस से बाहर थी। उसने दुबारा धीरे-धीरे अपना मुँह चलाना शुरू किया। मगर अब सच-मुच रोटी खाने में मज़ा नहीं रहा था। उसने बची हुई रोटी को रूमाल में लपेट कर रख दिया। पानी का गिलास उठाया और घूँट-घूँट पानी पीने लगी। उसकी नज़रें अब भी कुतिया पर जमी थीं। कुतिया अब टांगें पसारे लेट गई थी। उसका फूला हुआ पेट अब साफ़ दिखाई दे रहा था। हल्के गुलाबी रंग के पेट पर उसकी छातियों के उभरे बोंडे दूर से नज़र आरहे थे। कुतिया ने आँखें बंद कर ली थी। उसके वजूद पर छाई हुई तमानियत उसकी शिकम सेरी की शहादत दे रही थी।

    कनीज़ ने पानी पी कर गिलास नीचे रखा। अब उसपर भी कसलमन्दी तारी होने लगी थी। उसने वहीं बैठे-बैठे सिरहाने रखे तकिए को दुरुस्त किया और लेट गई। सर पर बिजली का पंखा घरघरा रहा था। इसके बावजूद उसे गर्मी का एहसास हुआ। उसने गले में पड़े दुपट्टे को एक तरफ़ डाल दिया। मैक्सी के ऊपर के दोनों बटन खोल दिये। थोड़ी हवा तो लगी मगर गर्मी का एहसास कम नहीं हुआ। उसने अपनी मैक्सी को तक चढ़ा लिया। नंगी पिंडलियों को हवा लगी तो उसे अच्छा लगा। उसने मैक्सी रानों तक चढ़ाली और अच्छा लगा। उसने बंद दरवाज़े पर एक निगाह डाली और मैक्सी को सीने तक खींच लिया। अब वो तक़रीबन नंगी थी। वो धीरे-धीरे अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरने लगी। आठवां महीना चल रहा था बस एक-आध महीने की बात थी। उसने अचानक किसी ख़्याल से एक झुरझुरी सी ली और झट से मैक्सी को नीचे खींच लिया। अब उसकी पलकें बोझल होने लगी थीं। पंखे की घूं घूं के साथ पता नहीं वो कब नींद की वादी में उतर गई। नींद में उसे अ’जीब उल्टे-सीधे ख़्वाब आते रहे। कल्लू की दूकान में क़तार से छिले हुए बकरे टँगे हैं। गोश्त की सुर्ख़ी जगह-जगह से झलक रही है। तभी एक काला कलूटा शख़्स लंगोटी लगाए आता है। और छुरी से एक बाद एक बकरों का पेट चीरता चला जाता है। हर वार के साथ बकरी की ओजड़ी “बक़ बक़” बाहर निकलती है और लंबी लंबी आँतें लटकने लगती है। उसकी माँ आती है।

    “बेटा कनीज़! देख मैं तेरे लिए क्या लाई हूँ।”

    वो ये सोच कर कि गर्म गर्म क़ीमा होगा। कटोरे का ढकना हटाती है। कटोरे में कोई पतला शोरबेदार सालन है। जिसका रंग ख़ून की तरह सुर्ख़ है। “माँ ये क्या?” माँ ग़ायब हो जाती है और ग़ुलाम कटोरा उठा कर सारा शोरबा पी जाता है। वो उसे मना करना चाहती है। मगर मना नहीं कर पाती। कभी उसे लगता है कि उसका पेट इस क़दर फूल गया है कि अब उसे अपने पेट के साथ एक क़दम चलना भी मुहाल है। वो दोनों हाथ टेक कर उठना चाहती है मगर उसके हाथ कच्ची ज़मीन में धँस जाते हैं और वो चित्त लेटी रह जाती है। उसकी नज़र छत पर पड़ती है। छत में एक छींका लटक रहा है जिसमें एक मटकी है। मटकी में शायद दूध या दही है। मटकी रिस रही है और सफ़ेद-सफ़ेद दूध क़तरा-क़तरा उसके फूले पेट पर टपक रहा है। उसे अचानक ख़्याल आता है अगर छींका टूट गया तो मटकी सीधे उसके पेट पर आकर गिरेगी और अचानक उसकी आँख खुल जाती है। एक कर्बनाक चीख़ उसके कानों से टकराती है। जैसे कोई मर रहा हो। साथ ही मोटर की घड़ घड़ की आवाज़। वो घबरा कर उठ बैठती है। खिड़की से बाहर नज़र डालती है। और जो मंज़र उसे नज़र आता है। उसे देखकर उसकी चीख़ निकल जाती है। कुतिया जिस ट्रक के नीचे सोई थी वो मैदान से निकल कर सड़क पर पहुंच चुका है। और ट्रक के नीचे सोई हुई कुतिया ख़ून में लत-पत छटपटा रही है। उसका पेट पिचक गया है और गोश्त के तीन चार ख़ूनआलूद लोथड़े उसकी दुम से लटक रहे हैं कुतिया की चीख़ अब टूटे हारमोनियम के सुर की तरह धीमी पड़ती जा रही थी। यकबारगी उसने अपनी ही जगह एक घुमेरा लिया ज़ोर से तड़पी और ठंडी हो गई। ट्रक दूर जा चुका था। फ़िज़ा में अब पहले की तरह ख़ामोशी थी। अलबत्ता रह-रह कर उन ख़ूनआलूद गोश्त के लोथड़ों में हल्की सी जुंबिश हो जाती थी। ऐसी जुंबिश जो देखने वाले के जिस्म में झुरझुरी पैदा कर दे। कनीज़ की फटी आँखें अब भी कुतिया की लाश पर जमी हुई थीं और सांस तेज़ी से ऊपर नीचे हो रहा था। ऐसा भयानक मंज़र उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसे महसूस हो रहा था जैसे उसके सीने में कोई चीज़ अटकी हुई है जो उसके पूरे वजूद को बेचैन किए हुए है, वो अगर बाहर निकल जाये तो उसे ज़रा राहत मिले। उसे कुछ देर पहले कुतिया पर बेहद ग़ुस्सा आया था। अगर वो उसके हाथ आती तो वो उसे दो एक पत्थर भी मारती एक-आध डंडा भी लगाती। मगर जो हुआ था वैसा उसने हरगिज़ नहीं चाहा था। क़ीमे के छिन जाने का उसे बेहद दुख हुआ था मगर जो कुछ कुतिया के साथ हुआ ये उसके लिए इंतिहाई अज़ीयत-नाक था। इस वाक़े’ ने उसके रोयें-रोयें में कपकपी भर दी थी। उसकी रगों से एक सनसनी उसके सीने की तरफ़ रेंग रही थी। अचानक सीने से मुँह की जानिब एक बगूला सा उठा। एक हिचकी आई और वो यक-ब-यक फूट फूटकर रोने लगी। आँखों से जैसे आँसूओं का झरना फूट पड़ा। वो क्यों रो रही थी ख़ुद उसकी समझ में नहीं आरहा था। जाने वो कितनी देर तक रोती रही। जब सीने का ग़ुबार ज़रा कम हुआ तो उसने डरते-डरते कुतिया की लाश की तरफ़ देखा। दो कव्वे उन गोश्त के लोथड़ों पर ठोंगे मार रहे थे। दूर एक लड़का पाख़ाने के लिए बैठा उन कव्वों को घूर रहा था। फिर उसने पास से एक कंकरी उठाई और कव्वों की तरफ़ फेंकी। एक कव्वा उड़ कर दूर जा बैठा मगर दूसरा बस ज़रा सा फुदका। इस की चोंच में मुर्दा कुतिया की एक लंबी आंत थी। जिसे वो छोड़ना नहीं चाहता था। कनीज़ को मतली का एहसास हुआ। उसे उबकाई आई। वो उठकर मोरी में गई और क़ै करने लगी। क़ै तो नहीं हुई मगर मुँह से कड़वा कसैला लुआ’ब निकलने लगा। आँख और नाक से भी पानी बहने लगा। थोड़ी देर तक यही कैफ़ीयत रही। फिर जब बेचैनी ज़रा कम हुई तो उसने कुल्ला किया। मुँह पर पानी के कुछ छपाके दिये और आधा गिलास पानी पी कर दुबारा चारपाई पर बैठी। अब खिड़की के बाहर देखने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। उसने खिड़की बंद कर दी और चारपाई पर लेट गई। दीवार घड़ी ने टन-टन चार बजाये, ग़ुलाम के आने का वक़्त हो गया था। वो फ़र्स्ट शिफ़्ट में काम करता था और साढे़ तीन बजे कारख़ाने से छूट कर चार और साढे़ चार के दरमियान घर जाता था। उसने सोचा वो आज ग़ुलाम को सारी तफ़सील बता देगी। अचानक उसे अपनी नाफ़ के नीचे एक कसक सी महसूस हुई। वो चित्त लेटी थी। वो धीरे-धीरे अपना पेट सहलाने लगी। कसक ऊपर की तरफ़ बढ़ती जा रही थी। जैसे नाफ़ के नीचे कोई कनखजूरा उसके सीने की तरफ़ रेंग रहा हो। वो घबरा कर उठ बैठी। झुक कर अपने पेट को देखने लगी। डाक्टर के कहने के मुताबिक़ तो अभी एक महीना बाक़ी है। फिर? ये टीस! ये कसक! दर्द मुसलसल ऊपर की तरफ़ रेंग रहा था। उसने निचला होंट दाँतों में दबा लिया। उसके पूरे बदन से धीरे-धीरे पसीना फूट रहा था। इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। ये दस्तक यक़ीनन ग़ुलाम की थी। वो लड़खड़ाती हुई उठी। पलंग की पट्टी का सहारा लेकर सिटकनी खोल दी। सामने ग़ुलाम खड़ा था। ग़ुलाम ने इस का पसीने से तर ज़र्द चेहरा देखा। “अरे क्या हुआ?”

    “दर्द हो रहा है। पेट में बहुत दर्द हो रहा है।” वो होंट भींच कर पलंग पर बैठ गई।

    “मगर... इतनी जल्दी...?”

    “पता नहीं।” उसने हाँपते हुए कहा।

    तभी, उस की नज़र खुले दरवाज़े की तरफ़ उठ गई। वहां एक बदहैत शख़्स खड़ा था। उसकी आँखें अंगारों की तरह दहक रही थीं। और उसके हाथ में चमचम करती लंबी सी, छुरी थी।

    “वो... वो कौन है?”

    उसने बाहर की तरफ़ देखते हुए ख़ौफ़-ज़दा लहजे में पूछा।

    “कहाँ?” ग़ुलाम ने पलट कर देखा।

    दरवाज़े के बाहर एक फ़क़ीर खड़ा था जिसके एक हाथ में कश्कोल और दूसरे हाथ में चिमटा था और घनी दाढ़ी में उसका चेहरा तक़रीबन छुप गया था। सर की जटाएं साँपों की तरह कांधे पर पड़ी झूल रही थीं। फ़क़ीर ने चिमटा बजाते हुए ना’रा लगाया।

    “इल्लल्लाह।”

    “अरे वो तो फ़क़ीर है।” ग़ुलाम बोला।

    “फ़क़ीर?” उसने बमुश्किल दोहराया।

    दर्द की एक तेज़ लहर बिजली के करंट की तरह उसके जिस्म में फैल गई। उसके मुँह से एक करीह चीख़ निकली और वो बेहोश हो कर गिर पड़ी।

    जब उसे होश आया तो वो हस्पताल में थी। ग़ुलाम उसके सिरहाने परेशान सा बैठा था। उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। उसका गला ख़ुश्क हो रहा था। उसने इंतिहाई नक़ाहत से कहा।

    “पानी!”

    ग़ुलाम ने पास रखे हुए कटोरे से चम्मच में पानी लेकर दो तीन चम्मच उसके हलक़ में टपकाए।

    “अब कैसी तबीयत है?” ग़ुलाम ने थके-थके लहजे में पूछा।

    उसने जवाब देने के बजाय कमज़ोर हाथ से अपना पेट टटोला। फिर घबराई नज़रों से पेट की तरफ़ देखा। पेट पिचक गया था।

    “ये क्या हो गया?” उसने कुछ तलाश करते हुए अपने दाएं-बाएं नज़र दौड़ाई।

    “घबराओ नहीं। सब ठीक हो जाएगा।” ग़ुलाम ने तसल्ली दी।

    कनीज़ की आँखों में आँसू गये। उसने छत की तरफ़ देखा। दही की हांडी में छेद हो गया था।

    “दिल छोटा करो... डाक्टर ने रोने धोने से मना किया है। तुम बच गईं बहुत है।”

    ग़ुलाम ने इस की पेशानी पर हाथ रखते हुए प्यार से कहा।

    “क्या था?” उसने भर्राई हुई आवाज़ में पूछा।

    “दो थे। जुड़वां। मगर दोनों मुर्दा।”

    ग़ुलाम का लहजा भी कर्बनाक हो गया।

    इतने में कल्लू क़साई की आवाज़ सुनाई दी।

    “ग़ुलाम! चलो नीचे टैक्सी खड़ी है।”

    उसने गर्दन को ज़रा सा ख़म कर के देखा। सामने कल्लू क़साई खड़ा उसे मुतास्सिफ़ाना अंदाज़ में देख रहा था। उसका चेहरा पसीने से तर था।

    “कैसी है कनीज़ तू?”

    “ठीक हूँ।”

    उसने डूबती हुई आवाज़ में कहा। और अपना निचला होंट दाँतों तले दबा लिया।

    “चलो कनीज़, हमें इसी वक़्त यहां से निकल जाना है।”

    “कहाँ?”

    “घर।”

    “मगर क्यों?”

    “अरे अभी-अभी ख़बर आई है कि बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। शहर में कर्फ़यू लगने का डर है। उससे पहले हमें यहां से निकल जाना चाहिए। चलो।”

    ग़ुलाम ने उसकी गर्दन के नीचे हाथ देकर उसे उठाया।

    कनीज़ उठ तो गई मगर उसकी आँखों के नीचे अंधेरा सा छाने लगा। उसने अपने होंट भींच लिये और आँखें बंद कर लीं। एक ट्रक घड़ घड़ाता हुआ उसकी आँखों से ओझल होता जा रहा था और उसके पीछे आधा लटका हुआ पोस्टर फ़रफ़र हवा में लहरा रहा था।

    (शिकस्ता बुतों के दरमियान (अफ़साने) अज़ सलाम बिन रज़्ज़ाक़, स:184

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