बाबा बग्लोस
स्टोरीलाइन
सत्ताधारियों की दोहरी नीतियों और समाज की उदासीनता को इस कहानी का विषय बनाया गया है। बाबा बगलूस बंदी-गृह में एक ऐसा बूढ़ा क़ैदी है जो न जाने कब से और किस जुर्म में क़ैद है। उसको रिहा इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी फ़ाईल ग़ायब है। क़ैदख़ाने के कर्मचारियों की ओर से उस पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है। अलबत्ता वो कभी-कभी ख़ुद बाहर की दुनिया देखने की इच्छा प्रकट करता है, लेकिन बाहर रहना पसंद नहीं करता। एक योजना के अधीन उसको फ़रार होने के लिए उकसाया भी गया लेकिन वो घूम फिर कर क़ैदख़ाने वापस आ गया। योजनानुसार शहर देखने एक दिन जब वह बाहर जाता है तो वहाँ एक मैदान में फाँसी का दृश्य देखता है। अवाम एक तमाशे की तरह उससे आनंदित हो रहे होते हैं। बाबा बगलूस सिपाहियों से कहता है कि वो अब क़ैदख़ाने नहीं जाएगा क्योंकि अंदर बाहर का मौसम एक जैसा हो चुका है।
गर्मी से पिघले हुए शहर की उबलती रात में एक बदन को निचोड़ कर यख़ कर देने वाली चीख़ का गर्म सीसा कानों में उतरा। बाबे बग्लोस ने करवट बदली। एक और चीख़ का गर्म पत्थर उसकी खोपड़ी पर गिरा और ठंडा हो गया। फिर यके बाद दीगरे कई चीख़ों के दहकते ओले उसके बदन पर बरसे। क्या मुसीबत है। इमारत के अहलकार आख़िर रात के वक़्त ही क्यों इक़बाल जुर्म करवाने की कोशिश करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि बाबा बग्लोस सोना चाहता है। वो शब करवटें बदलने में ही गुज़री।
इनायत पुत्तर! बड़ी सरकार ने तो रात भर सोने नहीं दिया। धूप के पहले बरछे ज़मीन में खुबने से पेश्तर बाबे बग्लोस ने अपनी चारपाई कोठरी में से बरामदे में घसीटी और नल पर मुँह-हाथ धोते सिपाही से शिकायत आमेज़ बूढ़े लहजे में कहा। इनायत मिसवाक मुँह से निकाल कर एक लम्बी थू करके बोला,बाबा बड़ी सरकार तो दौरे पर गई हुई है।
ये कैसे हो सकता है? बाबे ने बे-यक़ीनी में सर हिलाया, सारी रात चीख़ों की आवाज़ें आती रही हैं। ऐसी ख़ौफ़नाक चीख़ें जो सिर्फ़ बड़ी सरकार का छत्र ही इंसानों के तमाम सुराख़ों में से बाहर निकालता है। इनायत ने पानी की बक मुँह में उंडेल कर बोथी आसमान की जानिब करदी और उसके हलक़ में से गरर-गरर की आवाज़ें आने लगीं। जैसे मोटरसाइकल का प्लग शॉर्ट हो जाए तो इंजन रुक-रुक कर चलता है।
सच कह रहा हूँ इनायत सारी रात... बाबा बदस्तूर सर हिलाता रहा।
वो चीख़ें इस इमारत में से नहीं आ रही थीं बाबा और वैसे भी हमारे ख़ास कमरे तो साउंड प्रूफ़ हैं।
मैं झूट बोल रहा हूँ? बाबे ने झल्लाकर कहा।
गर्मी मत खाया करो बाबा। मैंने ये तो नहीं कहा कि तुमने चीख़ों की आवाज़ें सुनी नहीं... इनायत हँसने लगा और फिर आँख मारकर बोला,दर अस्ल तुम्हें सम्त का अंदाज़ नहीं हो सका, चीख़ों की आवाज़ आ रही थी मगर इस इमारत में से नहीं बल्कि बाहर शहर की तरफ़ से।
शहर की तरफ़ से?
हाँ अब चीख़ों की आवाज़ें उधर से ही आया करती हैं।
कोई नया बंदी-ख़ाना खुल गया है?
कोई एक... इनायत ने मिसवाक मुँह में ठूँसी और अपनी बैरक में चला गया। बाबे बग्लोस ने अपना सफ़ेद बगुला सर खुजलाया और सोने की कोशिश करने लगा। डरब नुमा तंग कोठरियों, बैरकों, दफ़्तरों, तहख़ानों और ऊँची-ऊँची दीवारों में घिरे चौकोर सहनों का ये मजमूआ शहर से बाहर एक तारीख़ी इमारत के एक ऐसे कोने में पोशीदा था जिसके पहलू में लेटी हुई सड़क पर से गुज़रते सय्याहों और आम शहरियों को ये गुमान भी न होता कि वो वहाँ मौजूद है और वो वहाँ मौजूद था। लोग पिकनिक की टोकरियाँ उठाए, कैमरे लटकाए सिर्फ़ बुलंद दीवारों को देख पाते और माज़ी के बादशाहों की अज़मत का दबाव सीने पर महसूस करते हुए आगे बढ़ जाते।
ये इमारत बाक़ायदा क़िस्म का क़ैदख़ाना नहीं थी, मुजरिमों को सिर्फ़ आरज़ी तौर पर यहाँ लाया जाता था। सिर्फ़ ऐसे मुजरिम जिनके जुर्म का हवाला दुनिया की किसी क़ानूनी किताब में नहीं मिलता था। आग़ाज़ बड़ी सरकार के छत्र से होता, जो उनको हमवार करता और फिर जदीद तरीन दरआमद शुदा आलात उनके जिस्मों पर बाँधकर या उनके सुराख़ों में फ़िट करके उनसे इक़बाल-ए-जुर्म करवा लिया जाता। बेशतर क़ैदी अपने जुर्म की इस तफ़सील पर फ़ौरन दस्तख़त कर देते जो बड़ी सरकार की बड़ी सरकार ने भेजी होती। मगर कुछ कुंद ज़ेहन उन आलात में जकड़े हुए स्पोर्ट्समैन स्प्रिट को बाला-ए-ताक़ रख कर यूँही मर जाते और फिर उनकी लाशें बुलंद दीवारों से फेंक कर ऐलान कर दिया जाता कि उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली है और सच तो ये है कि इतनी कंद ज़ेहनियत का मुज़ाहिरा ख़ुदकुशी ही तो है जब कि सिर्फ़ दस्तख़त करने से इंसान ज़िंदा रह सकता हो।
ये इमारत एक अरसे से यहाँ मौजूद थी। हिज़्ब-ए-मुख़ालिफ़ के सियासी राहनुमा जब इन कोठरियों में लाए जाते तो वो बर्फ़ की सिलों पर बँधे हुए ख़ुलूस-ए-दिल से तहय्या कर लेते कि जूँही हुकूमत की बागडोर उनके हाथों में आएगी, वो इस मनहूस इमारत को ढा कर यहाँ पर एक उम्दा क़िस्म का चिल्ड्रन पार्क बनवा देंगे। मगर जब भी ऐसा होता, यानी उनकी पीठें बर्फ़ की सिलों की बजाय कुर्सी-ए-इक़्तिदार पर जमतीं तो चिल्ड्रन पार्क के लिए कोई और जगह तलाश कर ली जाती और ये इमारत नज़रिया ज़रूरत के तहत उसी तरह उसी बड़ी सरकार के ज़ेरे निगरानी मौजूद रहती कि हर हुकूमत की डोर पर काँटियाँ डालने वाले भी मौजूद होते और उन्हें सीधा करने के लिए इस इमारत का वजूद रहता।
कहने का मतलब ये है कि ये इमारत मौजूद थी, अब भी है और तब तक रहेगी जब तक कि एक ऐसी नस्ल सामने नहीं आ जाती जो सात करोड़ नंगे पाँव और चीथड़ों में मलबूस फ़ाक़ा ज़दा बच्चों के लिए सचमुच एक अज़ीम चिल्ड्रन पार्क नहीं बना देती। हाँ तो मुजरिमों को यहाँ सिर्फ़ आरज़ी तौर पर लाया जाता और वो चंद रोज़ यहाँ ख़ून थूक कर या अपना एक आध उज़्व नाकारा करवाने के बाद या बिल्कुल ही फ़ौत हो जाने के बाद यहाँ से बाहर चले जाते मगर बाबा बग्लोस यहाँ हमेशा से रहता था।
महकमा सियाहत का एक गाइड मुल्की और ग़ैरमुल्की सय्याहों के एक मेले को तारीख़ी इमारत के सुर्ख़ सुतूनों, शीश महलों, बाग़ों, दीवानों और ज़ेर-ज़मीन रास्तों में से घुमाता फिराता क़दीम असलहा के अजायब घर में दाख़िल हो गया।
ख़वातीन-ओ-हज़रात! उसने तमंचों, संगीनों, नेज़ों, तलवारों, ढालों, ज़िरह बकतरों वग़ैरा की जानिब उनकी तवज्जो मब्ज़ूल करवाई, ये संगीनें जिन्हें हमने अब पॉलिश करवा के नुमाइश पर रखा है, उन्हें अगर निचोड़ा जाए तो ख़ून की नदियाँ बह निकलें और ये तलवारें रीढ़ की हड्डियों में से यूँ गुज़रती थीं जैसे मक्खन में उंगली। इन तोपों के दहानों पर बाग़ीयों...माफ़ कीजिएगा वतन परस्तों को बाँध कर उड़ा दिया जाता था और यूँ उस ज़माने के हुक्मरान एक मुस्तहकम और मुस्बत हुकूमत बनाने में कामयाब हो जाते थे। ये वो हथियार हैं जिनकी दहशत से अवाम फ़ौज के आगे कुबड़े होकर चलते थे मगर बरबरियत के ज़माने लद चुके। आज के तहज़ीब याफ़्ता अहद में तो इन मज़ालिम का तसव्वुर भी नहीं क्या जा सकता।
मसलन इस शिकंजे को मुलाहिज़ा फ़रमाइए जो उँगलियों को जूस मशीन में दाख़िल होती हुई गाजरों की तरह काट कर रख देता था। मगर अब हमारे मुल्की क़वानीन में ऐसी-ऐसी दफ़आत मौजूद हैं कि कोई किसी की जानिब उंगली भी नहीं उठा सकता। हमें परवरदिगार का शुक्र अदा करना चाहिए कि हम उस वहशी अहद में पैदा नहीं हुए बल्कि एक तरक़्क़ी याफ़्ता मुआशरे की आज़ाद फ़िज़ाओं में साँस लेते हैं। ये तारीख़ी अजायब घर सिर्फ़ जब्र और ज़ुल्म की एक यादगार के तौर पर महफ़ूज़ कर लिया गया है ताकि हम आज अपनी ख़ुश बख़्ती पर नाज़ाँ हो सकें। उन ज़मानों में न सिर्फ़ क़ाहिर हुक्मरान अवाम पर ज़ुल्म ढाते थे बल्कि फ़ौज जंगें लड़ने के अलावा मासूम शहरियों का क़त्ल आम भी करती थी... ज़रा तसव्वुर कीजिए कि...
कि उस ज़माने में फ़ौज जंगें भी लड़ती थी?
बाबा बग्लोस जब दिन चढ़े सोकर उठा तो उसने हस्ब-ए-मामूल बावर्चीख़ाने का रुख़ किया और वहीं बैठ कर पतली पतंग चाय के घूँटों से बासी रोटी के चंद निवाले पेट में उतार लिये। फिर वो हस्ब-ए-मामूल अपनी कोठरी में वापस आया और हस्ब-ए-मामूल एक कोने में बैठ कर हस्ब-ए-मामूल छत को घूरने लगा। कितने हज़ार दिनों से वो उस छत को घूर रहा था? उसे याद न था। किसी को भी याद न था। याददाश्त की नब्ज़ें कब छूटें, किसे याद था। वो तो हमेशा से यहाँ था। जैसे इन ऊँची-ऊँची दीवारों और कोठरियों के हमराह मेमारों ने बाबे बग्लोस को भी तामीर कर दिया हो। जितना अरसा सहन में धूप फैली रहती, वो अपने कोने में जबड़े मुक़फ़्फ़ल किए, मुँह उठाए बैठा रहता, कभी कभार अपनी सफ़ेद दाढ़ी खुजला कर मज़ा लेता और फिर छत को घूरने लगता।
जब धूप सहन की दीवारों को सुस्त रवी से नापती ऊपर उठ जाती तो वो बाहर निकल आता और एक बोसीदा टाट पर आलती पालती मार कर बैठ जाता और अब नीली छत पर आँखें जमा देता। उसके आस-पास अहलकार ला-तअल्लुक़ी से गुज़रते रहते। अपने-अपने कामों में मसरूफ़, ज़ख़्मी जिस्मों को घसीटते, कोठरियों में फेंकते हुए, छत्रों की मरम्मत करते हुए, बर्फ़ के ब्लॉक सर पर उठाए जिन्हें नंगे बदनों की गर्मी से पिघलना होता था। वो ला-तअल्लुक़ी से गुज़रते रहते जैसे बाग़ में बेंच पर ऊँघते किसी बूढ़े के क़रीब से नौजवान जोड़े लापरवा हो कर मसरूफ़ रहते हुए गुज़र जाते हैं।
एक शाम हस्ब-ए-मामूल बाबा बग्लोस अपनी कोठरी में से उठ कर सहन में आया तो वहाँ उसकी बैठक वाला टाट मौजूद न था और बका माश्क़ी अपने नंगे पाँव पर नीम दायरे में घूमता हुआ बड़ी मुस्तैदी से सहन में छिड़काव कर रहा था।
किसी बादशाह ने आना है? बाबे बग्लोस के लिए बंदी-ख़ाने में बाहर से आने वाले तमाम अफ़सर बादशाह थे। बके माश्क़ी ने मुश्कीज़े के नर्म चमड़े को एक जिंसी पेशेवर के मेकानिकी अंदाज़ में पुचकाते हुए हूँ कहा और पानी छिड़कता रहा।
बाबा अपने टाट के बग़ैर ही कोने में बैठ गया और आसमान की जानिब देखने लगा। छिड़काव मुकम्मल हुआ तो एक सोफ़ा सेट और चंद कुर्सियाँ बरामदे में सजा दी गईं, फिर अहलकार लकड़ी की बनी हुई एक-दो साँघी उठा कर लाए और उसे सहन के दरमियान में नस्ब कर दिया। दूर से यूं लगता जैसे ये स्टैंड किसी मुसव्विर के लिए वहाँ रखा गया है और वो अभी आएगा और इसपर कैनवस रख कर बंदी-ख़ाने की तस्वीर कशी शुरू कर देगा। मगर उस स्टैंड पर तस्वीरों की बजाय ज़िंदा मॉडल रखे जाते थे। उसी दौरान चंद भारी बूटों वाले, बंदी-ख़ाने वाले बड़ी सरकार के हमराह आए और बड़ी सरकार भी उनके सामने झुक कर चल रही थी और वो सोफ़ों पर विराजमान हो गए। उनके हमराह ताज़ा इस्त्री शुदा सफ़ेद कोट में मलबूस एक डॉक्टर भी था जिसके गले में एक स्टेथोस्कोप झूल रही थी, मौत की सज़ा पाने वाले मुजरिम को दुआए मग़फ़िरत देने के लिए देर से आने वाले तेज़-तेज़ चलते किसी पादरी के गले में लटकती सलीब की तरह। वो सब आपस में गुफ़्तगू करते हुए बार-बार क़हक़हे लगा रहे थे। भारी बूट गला फाड़-फाड़ कर और बड़ी सरकार क़दरे मुहतात हो कर।
मेरा ख़्याल है अब शुरू करदें। एक भारी बूट ने सरकार से तहक्कुमाना लहजे में कहा।
सर अगर पहले एक कप चाय का हो जाए तो क्या हर्ज है, चार बजने को हैं... जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर बड़ी सरकार की गरज चाय बावर्चीख़ाने तक पहुँची और एक अहलकार चाय की ट्राली गीले सहन पर घसीटता चला आ रहा था। (अगर अधमुए मुजरिमों के जिस्मों को गीले सहन पर घसीटा जाए तो ज़्यादा ज़ोर नहीं लगाना पड़ेगा। आइन्दा रोज़ छिड़काव होना चाहिए, अहलकार ने सोचा। चाय के साथ दीगर लवाज़िमात भी थे।
केक उम्दा है। भारी बूट अपनी मूंछों पर से ज़र्रे साफ़ करते हुए बोला।
सर माल रोड से मँगवाया है। मेरा अपना बंदा लेकर आया है।
मेरा ख़्याल है अब...
बड़ी सरकार ने कोठरियों की जानिब एक नज़र मख़्सूस डाली और जैसे उस नज़र की हथकड़ी में बँधा हुआ एक क़ैदी का जिस्म वहाँ से बरामद हो गया। उसके पीछे-पीछे दो सिपाही चल रहे थे। डॉक्टर ने फ़ौरन उठ कर क़ैदी को आधे रास्ते में ही जा लिया जैसे उसका इस्तक़बाल करना चाहता हो। उसने सरसरी तौर पर सीने को ठोंक बजा कर पीछे मुड़ कर देखा, कितने? बड़ी सरकार ने एक डकार के दरमियान में पन्द्रह का लफ़्ज़ बमुश्किल अदा किया।
ठीक है। डॉक्टर ने फ़ौरन सर हिलाया और फिर जल्दी से वापस आ कर सोफ़े पर बैठ गया जैसे उसे डर हो कि प्याली में बक़ीया माँदा चाय कहीं ठंडी न हो जाए। बड़ी सरकार ने अब की मर्तबा कोठरियों की जानिब एक और नज़र मख़्सूस डाली और वहाँ से तेल में चुपड़ा एक लश्कता हुआ करीह-उल-मंज़र आदमी लँगोट को गिरह देता हुआ बाहर निकला। उसके हाथों में एक कोड़ा था। क़ैदी के तमाम कपड़े उतार कर उसे टकटकी से बाँध दिया गया। लँगोटिए ने बड़ी सरकार की जानिब देखा और उनके सर हिलाने पर टकटकी से मुँह मोड़ कर दीवार की तरफ़ डग भरने लगा। दीवार के क़रीब बाबा बग्लोस बैठा था। देख रहा था, आसमान की तरफ़ नहीं बल्कि उस नए तमाशे को।
पिछले पाँच छः बरसों से इस बंदी-ख़ाने में मुजरिमों की आमद मामूल के मुताबिक़ रही थी। मगर इसके बाद पिछले चंद माह में इस ट्रैफ़िक में मज़ीद इज़ाफ़ा होता गया। फिर यकदम गर्मियों की एक सुबह को सिपाही इनायत ने राज़-दाराना लहजे में बताया कि बड़ी सरकार की बड़ी सरकार को जेल में डाल दिया गया है और उसकी जगह एक और बड़ी सरकार ने ले ली है। चुनाँचे अगले रोज़ में पिछले तमाम क़ैदी रिहा कर दिए गए। चंद हफ़्ते बड़े अमन-ओ-सुकून से गुज़रे। अहलकार सारा दिन ऊँघते रहते और बंदी-ख़ाने की बड़ी सरकार का छत्र धूप में पड़ा अकड़ता रहता। मगर फिर यकदम ट्रैफ़िक जारी हो गई। जारी क्या होगई, बाक़ायदा ट्रैफ़िक जाम हो गया। एक-एक कोठरी में दर्जनों क़ैदियों को ठूँसा जाता और बड़ी सरकार ने मुतअद्दिद नई छत्रों का ऑर्डर दे दिया। ब-क़ौल सिपाही इनायत के, इतनी रौनक़ें उसने पहले कभी न देखी थीं।
लँगोटिए ने बाबे बग्लोस के क़रीब पहुँच कर कोड़े को एक झटका दे कर पटाख़ा सा चलाया, फिर टकटकी पर बँधे जिस्म की नंगी पीठ पर नज़र युं जमा कर या अली का नारे बुलंद किया और एक भयानक क़िस्म के नपे तुले क़दम उठाता, अपने जिस्म को लहराता हुआ भागा। नंगी पीठ के क़रीब जा कर कोड़ा हवा में लहराया मगर यकदम सर झुका कर खड़ा हो गया। उसने माज़रत तलब आँखों से बड़ी सरकार को देखा और फिर आहिस्ता-आहिस्ता चलता वापस बाबे बग्लोस के क़रीब आ कर खड़ा हुआ। या अली का नारा लगाया और उन्ही मख़्सूस क़दमों से ज़िग-ज़ैग के अंदाज़ में भागा मगर इस मर्तबा भी वो नंगी पीठ की क़ुर्बत में पहुँच कर कोड़ा हवा में लहराने के बाद यकदम खड़ा हो गया। बड़ी सरकार ने बेहद शर्मिंदा हो कर भारी बूटों की जानिब देखा और फिर गरज कर कहा,ओए माँ के खसम! क्या हो गया है तुझे?
सरकार! प्रेक्टिस नहीं रही। लँगोटिया लरज़ते हुए बोला,मौला के करम से अब ग़लती नहीं होगी माई बाप।
वो बड़ा पशेमान चेहरा लिए बाबे बग्लोस के पास आया। दौड़ने से पहले उसके चेहरे का रंग मज़ीद काला हो गया और उसने यकदम मुड़ कर बाबे बग्लोस की कमर में एक ठुड्डा रसीद किया। मैं भी कहूँ कि कोड़ा उठाने से पहले आख़िरी क़दम ठीक क्यों नहीं पड़ता, ये माँ का यार जो यहाँ बैठा हुआ है... सरकार मेरी दौड़ पूरे बीस क़दमों की होती है और ये ख़बीस उसी बीसवीं क़दम पर बैठा हुआ है। उठ ओए... बाबा चुपके से उठ खड़ा हुआ। लँगोटिए ने एक नशा आवर इतमीनान से एक ऐसे बाउलर की तरह क़ैदी की तरफ़ देखा जिसे मालूम है कि उसका बीस क़दमों का बाउलिंग स्टार्ट अब दुरुस्त है और वो यक़ीनन विकट उखाड़ देगा, नंगी पीठ का मास उधेड़ देगा।
बाबा बग्लोस अपनी कोठरी में आ गया और बाहर बड़ी सरकार और भारी बूट चाय पीते रहे, केक खाते रहे और पीठ का मास उधड़ते-उधड़ते बारीक क़ीमे में बदलता रहा। बाबा बग्लोस इससे पेश्तर अज़ीयत की बेशुमार तहरीरें नंगे जिस्मों में खुदी हुई देख चुका था लेकिन ये तमाशा नया था। मगर चंद ही दिनों में ये तमाशा बहुत ही पुराना होगया। रोज़ाना दर्जनों अफ़राद को कोड़े लगते। डॉक्टर अब बाक़ायदा मुआयना करने की बजाय क़ैदी पर एक नज़र डाल कर पन्द्रह के लिए सेहतमंद है। का सर्टीफ़िकेट दे देता और नाज़रीन की तादाद भी कम होती गई। बाबे को इस नए तमाशे पर सिर्फ़ एक ही एतराज़ था, वो शाम ढले अपनी कोठरी से निकल कर सहन में नहीं बैठ सकता था। क्योंकि लँगोटिए का स्टार्ट बीस क़दम का था और वही बीसवाँ क़दम बाबे की नशिस्तगाह थी।
बाबा बग्लोस हमेशा से यहाँ था, वो यहाँ क़ैदी था भी और नहीं भी। वो शादी का एक ऐसा हार था जिसे पहनने वाला दूल्हा अब बूढ़ा हो चुका था। ये हार तहख़ाने के किसी कोने खुदरे में पड़ा है, उसे फेंका भी नहीं जा सकता कि इसके लिए कोई जवाज़ न था। ठीक है पड़ा रहे। क्या फ़र्क़ पड़ता है। मगर वो शादी कब हुई थी किसी को याद न था।
बाबा बग्लोस इस बंदी-ख़ाने में क्यों आया, कब आया और अब यहाँ क्यों है? इन सवालों का जवाब बड़ी सरकार या अहलकारों के पास न था और इसकी वजह निहायत सादा थी कि जिस ज़माने में इन सब सवालों के जवाब मौजूद थे, उस ज़माने में इस बंदी-ख़ाने में मौजूद बड़ी सरकार और अहलकार वो लोग थे जो अब तक या तो फ़ौत हो चुके थे, या रिटायर हो चुके थे, या फिर मुल्क के दूसरे बंदी-ख़ानों में अहम ख़िदमात अंजाम दे रहे थे। जो भी नई सरकार यहाँ आती तो पहले रोज़ मुआइने पर निकलते ही सबसे पहला सवाल जो अहलकारों से पूछा जाता यही होता कि ये बाबा यहाँ क्यों आया? जवाब, मालूम नहीं सरकार में होता।
कब आया?
जी जब हम आए तो ये यहीं पर मौजूद था।
अब तक यहाँ क्यों है? इसका जवाब भी कुछ इस क़िस्म का होता कि सर इसकी रिहाई का हुक्म नहीं आया।
और क्यों नहीं आया? इसका जवाब बहुत आसान था। बड़ी सरकार के दफ़्तर से मुलहक़ा एक रिकॉर्ड रूम था, जहाँ इस बंदी-ख़ाने में आने वाले तमाम जराइम पेशा अफ़राद का बाक़ायदा रिकॉर्ड महफ़ूज़ रखा जाता था। उसूलन बाबे बग्लोस के जराइम की फ़ाइल भी यहीं होनी चाहिए थी मगर थी नहीं। हर नई बड़ी सरकार ने बाबे के रअशा ज़दा जिस्म को देखकर हुक्म दिया कि बाबे की फ़ाइल ढूंढ कर लाओ कि आख़िर ये बुज़ुर्गवार किस गुनाह की पादाश में यहाँ बंद है। मगर वो फ़ाइल कभी दस्तयाब न हुई और कोई नहीं जानता कि वो कहाँ गई। अब चूँकि हर मुहज़्ज़ब मुल्क में क़ानून की हुक्मरानी होती है और क़ानून के मुताबिक़ किसी शख़्स को तब तक रिहा नहीं किया जासकता जब तक कि उसकी फ़ाइल पर रिहाई के अहकामात सादर न किए जाएं, इसलिए बाबे बग्लोस को क़ानूनी तौर पर (और अगर हम क़ानून की पासदारी न करें तो हममें और दरिंदों में क्या फ़र्क़ रह जाए) रिहा नहीं किया जा सकता था। चुनाँचे वो हमेशा से यहाँ था।
उसकी नक़ल-ओ-हरकत पर यानी बंदी-ख़ाने की हुदूद में कोई पाबंदी न थी। वो जहाँ जी चाहे आ जा सकता था, हर किसी से गुफ़्तगू कर सकता था। तमाम अहल-ए-बंदी-ख़ाना उसके साथ एक अहल-ए-ख़ाना का सा सुलूक करते थे। मगर इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि वो कभी भी इस बंदी-ख़ाना से बाहर नहीं निकला था। कभी साल छः माह बाद बाबा बग्लोस (दर अस्ल ये उसका असली नाम तो न था जो फ़ाइल गुम हो जाने की वजह से बाबे के अलावा और किसी को भी मालूम न था। पहले पहल उसे सिर्फ़ बाबा कहा जाता था। फिर एक रोज़ किसी अहलकार ने उसके सफ़ेद सर और चिट्टी सफ़ेद दाढ़ी को कोने में दुबका देख कर कहा,बाबा तो दूर से बगुला दिखाई देता है। चुनाँचे उसे बाबा बगुला कहा जाने लगा जो बिगड़ते-बिगड़ते बाबा बग्लोस हो गया।
हाँ तो कभी साल छः माह बाद बाबा बग्लोस चुप हो जाता, बिल्कुल ख़ामोश हो जाता, खाने के लिए जो रोटी मिलती उसे सहन में बैठ कर चिड़ियों और कव्वों को खिला देता और ख़ुद बिल्कुल भूका रहता। रात के वक़्त अपनी कोठरी में मुसलसल टहलता रहता। सुब्ह-सवेरे अहलकार देखते कि उसकी सफ़ेद दाढ़ी आँसुओं से निचुड़ रही है और वो जान जाते कि यही वो दिन है जो बाबा बग्लोस चुपके से उनके पास आएगा। उसकी भीगी हुई दाढ़ी उनके गालों से छुएगी और वो शर्मिंदा सा हो कर कहेगा,मुझे बाहर ले चलो।
चुनाँचे सिर्फ़ कार्रवाई पूरी करने की ग़रज़ से दो सिपाही उसके साथ नत्थी कर दिए जाते और वो बाबे को इस तारीख़ी इमारत से बाहर शहर में ले जाते। बाबा भरे पुरे शहर के शोर में बंद घड़ियाल की तरह ख़ामोश, सर झुकाए मातमी हालत में घूमता रहता और कभी नज़र उठा कर न देखता कि उसके आस-पास, चार चफ़ेरे क्या हो रहा है। पूरे एक घंटे के बाद बाबा उसी तरह चुपके से सिपाही के कान में सरगोशी करता,मुझे वापस ले चलो। और वो उसे वापस ले जाते।
हिफ़ाज़ती अमले के अरकान, दीगर अहलकार और बंदी-ख़ाने की बड़ी सरकार की भी शदीद ख़्वाहिश थी कि बाबे बग्लोस को किसी तरह रिहा कर दिया जाए मगर गुम शुदा फ़ाइल हमेशा आड़े आ जाती। कल कलां वो फ़ाइल कहीं से नमूदार हो जाए और हुकूमत-ए-वक़्त पूछ ले कि फ़लाँ बाबा कहाँ गया, तो फिर क्या होगा? चुनाँचे एक ख़ामोश साज़िश के तहत ये तै पा चुका था कि बाबे की हिफ़ाज़त बिल्कुल न की जाए और उसे फ़रार होने के तमाम तर मवाक़े’ मयस्सर किए जाएं मगर बाबे ने उन्हें हमेशा मायूस किया और इस मस्अले पर बिल्कुल तवज्जो न दी। कुछ बरस पहले बाबे बग्लोस की सालाना या शशमाही मुझे बाहर ले चलो वाली शहर की सिर के दौरान सिपाही इनायत ने उसकी मन्नत करते हुए कहा,बाबा! आख़िर तुम भाग क्यों नहीं जाते? बाबे ने झुका हुआ सर झुका ही रहने दिया और चलता रहा।
दूसरे सिपाही साबिर ने इनायत की हाँ में हाँ मिलाई,देखो, अगर तुम भाग जाओ तो हम वापस जा कर कह दें कि जी बाबा फ़रार होगया है और तुम्हारा केस ख़ुद बख़ुद ख़त्म हो जाएगा। बाबे ने सर झुकाए रखा।
ये नहीं कि तुम हमपर बोझ हो। हम तो तुम्हें एक बुज़ुर्ग की तरह चाहते हैं मगर बाबा ये तुम्हारी उम्र है बंदी-ख़ाने में पड़ा सड़ने की... भाग जाओ। बाबे ने सर उठाया और मुस्कुराने लगा।
भाग जाऊँ?
हाँ-हाँ। दोनों ने उसकी हिम्मत बढ़ाई।
अच्छा! बाबा मुँह खोल कर बोला, लेकिन भागते कैसे हैं? ये सवाल सुनकर दोनों सिपाही सोच में पड़ गए और फिर यकदम इनायत ने चमक कर कहा,वो एक सियासी क़ैदी नहीं था जिसे हमने अलिफ़ नंगा करके सहन में दुड़की लगवाई थी। बस जैसे वो भागता था नाँ हमारे छत्रों से बचने के लिए वैसे... बाबे ने अपने ज़ेहन में उस नंगे दहशत-ज़दा काँपते बदन की तस्वीर ज़िंदा की और फिर सर खुजा कर बोला, मैं बूढ़ा हूँ। मुझमें तो सकत नहीं इस तरह भागने की।
बाबा ये ज़रूरी नहीं कि तुम उसी तरह भागो... हम इधर की बजाय उधर मुँह मोड़ लेते हैं और तुम बेशक आहिस्ता-आहिस्ता चलते इतमीनान से सामने वाली गली में ग़ायब होजाओ। हम तुम्हारा पीछा नहीं करेंगे, यहीं से वापस चले जाएंगे। बाबे ने दाढ़ी मुट्ठी में दबा कर झटका सा दिया। जैसे फ़ैसला कर लिया हो, दो तीन क़दम चला मगर फिर खड़ा हो गया।
अब क्या हुआ है? साबिर ने पूछा।
मैं अगर भाग ही जाऊँ तो फिर क्या होगा... यानी मुझे क्या होगा?
तुम आज़ाद हो जाओगे बाबा। आज़ाद...
अच्छा। बाबे ने फिर मुँह खोल दिया, आज़ाद हो कर इंसान क्या हो जाता है। सिपाही साबिर ने इनायत की तरफ़ शिकायती नज़रों से देखा कि भई इस सवाल का जवाब तो तुम दे दो। इसपर इनायत मुँह पर हाथ रखे बग़ैर ज़ोर से खाँसा और बाबे के क़रीब चला गया,होना क्या है... बस आज़ाद हो जाता है। साबिर को इनायत से इतनी कुंद ज़ेहनी की उम्मीद न थी। चुनाँचे उसे कँधे से पकड़ कर एक तरफ़ किया और बाबे से कहने लगा,आज़ादी का बड़ा सौदा है बाबा। बंदा मुर्ग़ छोले खा सकता है, कोन आइसक्रीमाँ खा सकता है, मुँडवा देख सकता है और फिर आज़ाद इंसान... जहाँ जी चाहे जाए...
और अगर न जाना चाहे तो? बाबे ने पूछा।
तो न जाए।
ऐसा तो में बंदी-ख़ाने में भी कर सकता हूँ। बाबा मुस्कुराने लगा।
और सिर्फ़ यही नहीं बाबा बग्लोस, इसके अलावा भी आज़ादी के बड़े मज़े हैं... जिसे चाहे मिले, तुम्हारे रिश्तेदार भी तो होंगे? बाबे ने फिर सर झुका लिया।
बहरहाल बाबा तुम ख़ुदा के लिए भाग जाओ। उन दोनों ने लाचार हो कर मन्नत की। बाबे ने कँधे सुकेड़े और फिर उसी रफ़्तार से आहिस्ता-आहिस्ता चलने लगा। इनायत और साबिर निहायत संजीदा चेहरे बनाकर दूसरी जानिब देखने लगे। तक़रीबन दस मिनट के वक़्फ़े के बाद जब उन्होंने मुड़कर देखा तो बाबा बग्लोस वहाँ मौजूद न था। दोनों ने इतमीनान का एक बहुत ही गहरा साँस लिया और हँसने लगे। फिर इनायत बोला,वैसे यार साबिर! बाबे के बग़ैर बंदी-ख़ाना लगेगा सूना-सूना... अब चलें वापस? जा कर रिपोर्ट लिखवा देंगे कि बाबा बग्लोस बिल-आख़िर फ़रार होगया है। वैसे बड़ी सरकार इस ख़बर से ख़ुश ही होगी।
नहीं अभी वापस नहीं जाते घूमते फिरते हैं। एक दो घंटे के बाद जाएंगे ताकि रिपोर्ट में कार्रवाई के तौर पर दर्ज हो जाए कि हम उसे तलाश भी करते रहे हैं।
इस शाम जब इनायत और साबिर उस तारीख़ी इमारत की सीढ़ियाँ तै कर रहे थे तो उन्हें अपने पीछे हफ़-हफ़ की सी आवाज़ आई, जैसे एक थके हुए बूढ़े बुल डॉग के खुले हुए मुँह से बरामद होती है। बाबा बग्लोस सर झुकाए लड़खड़ाती टाँगों को बमुश्किल सँभालता उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था। इसकी दाढ़ी आँसुओं से तर थी। फ़रार के इस अज़ीम मंसूबे की नाकामी के बाद बड़ी सरकार और अहलकारों ने बाबे बग्लोस को उसके हाल पर छोड़ दिया और वो रूटीन के ताबे अपनी कोठरी में छत को और शाम को सहन के कोने में बैठ कर आसमान को घूरने में दिन गुज़ारने लगाता आनकि उससे सहन का वो कोना छिन न गया। क्योंकि वहाँ बीसवाँ क़दम था और उन्नीस क़दमों के आग़ाज़ से कोड़ा शर्लाटे भरता हुआ इस तौर नहीं लहराया जा सकता था कि नंगी पीठ का गोश्त बारीक ज़र्रों वाले लोथड़ों में बदल जाए।
अपनी पसंदीदा नशिस्त से महरूम होने के चंद हफ़्तों बाद बाबा बग्लोस एक मर्तबा फिर चुप होगया। खाने के लिए जो रोटी मिली वो चिड़ियों और कव्वों को खिला दी। रात के वक़्त कोठरी में टहलता रहा और सुब्ह-सवेरे इनायत के गाल से आँसुओं से भीगी हुई दाढ़ी छुई, मुझे बाहर ले चलो।
उस रोज़ शहर में शोर था। शोर तो पहले भी होता था मगर आज ज़्यादा था और ज़्यादा शोर तभी होता है जब लोग भी ज़्यादा हों। वो सब शहर की एक बड़ी सड़क पर वाक़े’ जेल-ख़ाने की जानिब रवां थे। बाबा बग्लोस हस्ब-ए-आदत सर नेहोड़ाए चलता रहा। कई लोग उसके बूढ़े जिस्म को धकेलते हुए आगे निकल रहे थे, उन्हें बेक़रारी ने डसा हुआ था। दो बजे का वक़्त नश्र हुआ था और सिर्फ़ तीन घंटे बाक़ी थे। इनायत और साबिर भी बाबे के हमराह मेकानिकी खिलौनों की तरह चलते रहे। वो उसकी सालाना या शशमाही सिर के लुत्फ़ में कम से कम हाइल होना चाहते थे। हुजूम ज़्यादा होता चला गया। बिल आख़िर बाबे को रुकना पड़ा कि उसके आगे जिस्मों की दीवारें थीं। उसने पहली मर्तबा सर उठा कर इनायत से पूछा,आज ईद है?
नहीं बाबा। इनायत मुस्कुराया,ईद होती तो सुबह हलवा न मिलता बंदी-ख़ाने में। वो तीनों हुजूम की दराड़ों में से फँस-फँस कर निकलते हुए आगे बढ़ते गए। आइस क्रीम वालों को सदा देने की हाजत न थी कि उनके हाथ रेढ़ियों के सर्द-ख़ानों में डूबते निकलते थक रहे थे। मशरूबात की बोतलों के क्रेट डिलीवरी ट्रक से उतरते-उतरते फ़रोख़्त हो जाता। पान सिगरेटों के आरज़ी खोखे फुटपाथ पर सजते-सजते ख़ाली हो रहे थे। हलीम की देगें हुजूम भूके बारातियों की तरह चट कर रहा था। कई ख़ानदान हुजूम से हट कर दरख़्तों तले पिकनिक मना रहे थे कि वो अक़्लमंद थे और दोपहर का खाना साथ लेकर आए थे। आस-पास की तमाम दुकानें बंद थीं कि दुकानदार भी आज मौज मेले के मूड में थे। भला रोज़-रोज़ ऐसा तमाशा देखने को कहाँ मिलता है।
सड़क पर मेकानिकी ट्रैफ़िक की मुमानअत कर दी गई थी ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग जमा हो सकें। मैदान तो ख़ैर पहले से ही इंसानों के सरों से भरा हुआ था, लेकिन इर्दगिर्द की इमारतों पर नज़र डालने से शक होता था कि वो ईंटों की बजाय जिस्मों से बनी हुई हैं। लाखों का मजमा था कि बक़ीया शहर इस वक़्त वीरान पड़ा था। शीर-ख़्वार बच्चों की हौसलामंद माएं उन्हें चादरों में छुपा कर दूध पिला रही थीं मगर एड़ियों पर खड़े होने से और हुजूम के सरों के ऊपर देखने की जुस्तजू में ये काम क़दरे दुश्वारी से सर-अंजाम पा रहा था। क़रीब ही एक मिस्मार शुदा इमारत का मलबा था और इसका ठेकेदार दो रूपये फ़ी कस के हिसाब से लोगों को मलबे के ढेर पर खड़ा होने के इजाज़त नामे दे रहा था। ढेर, सतह ज़मीन से ज़ाहिर है बुलंद होता है और उसपर खड़े होकर मंज़र साफ़ नज़र आता है। वहाँ से पिछले दो दिनों में तामीर शुदा चबूतरे और उनपर नस्ब शुदा लकड़ी के चौखटे साफ़ नज़र आ रहे थे और चौखटों से फँदे लटक रहे थे।
जैसा कि मुहज़्ज़ब मुल्कों में दस्तूर होता है, पाबंदी-ए-वक़्त को मलहूज़ रखा गया और पूरे दो बजे जेल के अंदर से एक जीप नमूदार हुई। क़ातिलों के हाथ पुश्त पर बँधे हुए थे और उनकी आँखों पर सियाह पट्टियाँ थीं। उन्हें चबूतरों पर खड़ा कर दिया गया। मगर इस एहतिमाम के साथ कि वो अपने-अपने फंदों के सामने खड़े हों जो शायद गर्दन की मोटाई के हिसाब से बनाए गए थे। मजमा मुकम्मल तौर पर ख़ामोश हो गया। बाबा बग्लोस तो पहले ही ख़ामोश था। पहले क़ातिलों के चेहरों पर नक़ाब डाले गए। उनके कँधे पकड़ कर उन्हें फंदों के ऐन नीचे ले जाया गया और फिर इंतिहाई एहतराम से ये फँदे बारी-बारी उनकी गर्दनों के गिर्द कस दिए गए। हुजूम पर सन्नाटे की चादर बिछी हुई थी। यकदम वो क़ातिल जो चंद रोज़ क़ब्ल इंसान कहलाते थे, उनके पाँव तले से लकड़ी के तख़्तों की ज़मीन खिसक गई और वो हवा में झूलने लगे। सन्नाटे की चादर उस लम्हे तार-तार हुई और हुजूम के एक हिस्से ने पाकीज़ा जज़्बात से मुनव्वर होकर नारे तहज़ीब बुलंद किया और लोग गले फाड़-फाड़ कर ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे लगा कर सवाब में शरीक होने लगे।
वो ख़ुशी से पागल हो रहे थे। बेशतर की आँखों में आँसू थे कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ये पाकीज़ा मंज़र देख लिया। क़ातिलों के जिस्म फड़कते थे और फिर ढीले पड़ जाते थे जैसे बकरे का ताज़ा ज़ब्ह शुदा गोश्त फड़कता है और साकित हो जाता है। जैसे कुंडी में फँसी मछली की दुम बार-बार फड़कती है। उनका साँस मुनक़ते होने पर, गर्दन के मनके टूटने से अज़ीयत की जो लहरें फ़िज़ा में फैल रही थीं वो हुजूम के लिए हयात-ए-जाविदानी की हवाएं थीं, वो उन्हें सूँघ रहे थे, अपने बदन के पोरों में जज़्ब कर रहे थे और मज़ीद पुरजोश हो रहे थे। वो इंसाफ़ का तमाशा देखने आए थे, एक नए निज़ाम के आग़ाज़ के चश्म दीद गवाह बनने आए थे कि इस इबरत अंगेज़ मंज़र के बाद मुल्क के क़ातिलों, डाकुओं, बरदाफ़रोशों की नस्ल ख़त्म हो जानी थी।
ये वो नमक था जो इन केचुओं पर डाल देने से वो हमेशा के लिए तहलील हो जाएंगे। आज के बाद जुर्म एक ऐसा लफ़्ज़ होगा जो सिर्फ़ किताबों में मिलेगा (और फिर कौन नहीं जानता कि ऐसा ही हुआ) लोग इसीलिए तो आए थे, आख़िरी क़ातिल को देखने के लिए। वो इबरत हासिल करने के साथ-साथ क़हक़हों के दरमियान नारे भी लगा रहे थे और क़ातिलों के, मुल्क की तारीख़ में आख़िरी क़ातिलों के जिस्म फड़क रहे थे। जूं जूं नीम मुर्दा गोश्त के लोथड़े ठंडे होते गए, हुजूम की मायूसी में इज़ाफ़ा होता चला गया। वो चाहते थे कि ये जिस्म सदा यूँही फड़फड़ाते रहें। वो कल नाश्ता करके यहाँ आएं तो ये जिस्म उसी तरह फड़क रहे हों। फिर वो अपने दफ़्तर या कारोबार से फ़ारिग़ होकर शाम को इधर से गुज़रें तब भी ये बदन किसी अनाड़ी रक़्क़ासा की तरह हिल रहे हों। छुट्टी के रोज़ बच्चों के साथ ये सामने वाले बाग़ में सैर के लिए आएं तो ये लटकते हुए बकरे फिर भी हरकत में हों।
आख़िर उनके चेहरों पर नक़ाब क्यों डाले गए थे। नक़ाब न होते तो वो उनकी ज़बानों को बाहर लटकता देख सकते, प्यासे कुत्तों की लम्बी लटकती ज़बानों की तरह। उनकी आँखें उबल कर बाहर आ जातीं। शायद एक आध का ढेला टूट कर गिर जाता और वो उसे बच्चों के खेलने के लिए उठा ले जाते। वो आख़िरी दमों पर उनके होंटों की नीली लर्ज़िश को भी देखना चाहते थे। उनके गलों में से निकलने वाली ख़रख़राहट भी सुनना चाहते थे और ये मुमकिन हो सकता था, अगर उनके क़रीब ताक़तवर माइक फ़िट कर दिए जाते (बल्कि उनके गलों के साथ बाँध दिए जाते) और पूरे इलाक़े में लाउडस्पीकर लगा दिए जाते। इंतज़ामिया को इस क़िस्म की कोताही आइन्दा नहीं करनी चाहिए, मगर आइन्दा का क्या मतलब, आइन्दा तो कोई क़ातिल होगा ही नहीं।
क़ातिल फंदों से झूम रहे थे और तमाशाई ख़ुशी से पागल हो रहे थे। उनका बस न चलता था वरना वो उन लटकते जिस्मों के पाँव दबोच कर उन्हें और ज़ोर से झुलाते, ख़ुद झूला झूलते, उनके ठंडे पड़ते जिस्मों की पेंगों के साथ झूलना झुलाओ री और अब तो उन जिस्मों ने तड़पना छोड़ दिया था। कितने अहमक़ लग रहे थे वो, जैसे पार्सल लटक रहे हों। जेल के डॉक्टर ने घड़ी पर नज़र डाली और पार्सलों को टटोल कर उन्हें मुर्दा क़रार दे दिया। उनके जिस्म फंदों से अलैहदा कर दिए गए। तमाशे का कैनवस इबरत की तस्वीर से ख़ाली हो गया। हुजूम बड़बड़ाता हुआ बिखरने लगा।
यार जगह बहुत कम थी। ठीक तरह से दिखाई ही नहीं दिया। स्टेडियम में इंतज़ाम कर लेते। बेशक टिकट लगा देते और इस आमदनी से कोई फ़लाही इदारा क़ायम कर दिया जाता, एक फ़लाही मम्लिकत क़ायम करने का आसान तरीन नुस्ख़ा। बेशतर लोग मौत की तेज़ रफ़्तारी को कोस रहे थे।
तीन-चार मिनट की फड़फड़ाहट और बस। अगर क्रिकेट मैच टेलीवीज़न पर दिखा दिया जा सकता है तो इन क़ातिलों की मौत को टेलीकास्ट क्यों नहीं किया गया।
हाँ इस तरह करोड़ों लोग इबरत हासिल करते। कम से कम नज़ारा तो क़रीब से होता। हम उनके चेहरों को बिग-बिग क्लोज़ में देखते। बल्कि उन तीन चार मिनटों को भी उसी तरह टी वी पर दिखाया जाना चाहिए था जैसे किसी बैट्स मैन की विकट उड़ने पर उसी मंज़र को दोबारा स्लो मोशन में दिखाते हैं।
कम से कम छःसात कैमरे होते। एक कैमरा उनकी आँखों का क्लोज़ लेता। दूसरा नथुनों पर होता, तीसरा होंटों पर। चौथा पूरे जिस्म का शॉट लेता और सबसे अहम पाँचवाँ जो सिर्फ़ गर्दनों का बिग-बिग क्लोज़ लेता और यूँ मोशन में आँखें क्या धीरे-धीरे खुलती चली जातीं और शायद वो ढेला भी बाहर आ जाता तो उस मंज़र को फ़ौरन दोबारा दिखाया जाता बहुत ही स्लो मोशन में। नथुनों पर जो कैमरा होता उसकी तस्वीर भी ख़ूब होती। आहिस्ता-आहिस्ता फैलते और सिकुड़ते नथुने। कहते हैं कि मौत से पेश्तर नाक से ख़ून भी जारी हो जाता है। कम से कम ये भी हतमी तौर पर मालूम हो जाता और होंट स्लो मोशन में किस तरह धीरे-धीरे फड़फड़ाते जैसे फूल खिल रहा हो। आख़िरी लम्हों में वो नीले पड़ जाते।
हाँ मगर यार टेलीवीज़न पर कैसे पता चलता कि होंट नीले पड़ रहे हैं?
इसका हल तो ख़ैर मौजूद है कि अल्लाह के फ़ज़ल से हमारे मुल्क में रंगीन नशरियात भी तो होती हैं। बस रंगीन कैमरों को नस्ब किया जाता। ये तमाम पुर-लुत्फ़ मनाज़िर तो अपनी जगह मगर अस्ल क्लाइमेक्स तो गर्दनों वाले सीन पर होता। रबड़ की तरह आहिस्ता-आहिस्ता लम्बी होती हुई गर्दनों का। टेलीवीज़न पर आने से पहले मेकअप भी तो ज़रूरी होता है, तो वो फाँसी के चबूतरे पर उन्हें खड़ा करके किया जा सकता था। सुना है कि मेकअप से तस्वीर ज़्यादा साफ़ आती है। ख़ैर आइन्दा सही, मगर आइन्दा तो...
हुजूम बिखरता गया। पान सिगरेटों के खोखे उठाए जाने लगे। आइसक्रीम की रेढ़ियाँ शहर की जानिब सरकने लगीं। हलीम वाले अपनी भरी जेबों पर हाथ रखे ख़ाली देगें रेढ़ियों पर लदवा रहे थे। सामने वाली सड़क फिर से ट्रैफ़िक के लिए खोल दी गई। ज़िंदगी नॉर्मल होगई... बाबा बग्लोस हस्ब-ए-आदत सारा वक़्त सर झुकाए खड़ा रहा। इनायत और साबिर पिछले तीन घंटों से एक ही मक़ाम पर खड़े-खड़े थक चुके थे। उन्होंने बाबे की जानिब देखा जो गुम सुम कँधे ढीले छोड़े खड़ा था।
बाबा अब वापस चलें? इनायत ने आराम से पूछा। बाबे ने जैसे सुना ही नहीं, उसी तरह खड़ा रहा। क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद इनायत ने उसके कँधे पर हाथ रखा, बाबा बग्लोस, अब वापस चलें? बाबे के झुके हुए चेहरे से लटकती दाढ़ी आँसुओं से निचुड़ रही थी। उसने सर उठाया नहीं, बस हौले से कहा,नहीं, अब बाहर और अंदर का मौसम एक हो चुका है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.