Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बाबा की तारीफ़

अशफ़ाक़ अहमद

बाबा की तारीफ़

अशफ़ाक़ अहमद

MORE BYअशफ़ाक़ अहमद

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी समाज और परिवार में बाबा के होने की अहमियत को बयान करती है। बाबा वे लोग होते हैं, जो दूसरों के लिए आसानियाँ पैदा करते हैं। बाबा होने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप सड़कों पर फिरें, या गेरुवा और हरा कपड़ा पहनकर माँगने-खाने के लिए निकल जाएं। एक आम आदमी भी बाबा हो सकता है। इसके लिए लेखक ने अपने कॉलेज के ज़माने के एक दोस्त का ज़िक्र किया है, जिसने उस दौर में कई मुसीबत-ज़दा लोगों की बिना किसी ग़रज़ के मदद दी थी और उन लोगों ने उसे जी भर कर दुआओं से नवाज़ा था।

    हम ज़ाविया के बेशतर प्रोग्रामों में बाबों की बात करते हैं और मैं ये समझता हूँ कि बाबों कीDefinition से या उनकी तारीफ़ से हैबीत-ए-तर्किबी से आप यक़ीनन बहुत अच्छी तरह वाक़िफ़ होंगे, लेन मेरा ये अंदाज़ा बिल्कुल सही नहीं था। अब मैं आपकी ख़िदमत में ये अर्ज़ करूँ और इसकी एक छोटी सी तारीफ़ भी करूँ, बाबा की।

    बाबा वो शख़्स होता है जो दूसरे इन्सान को आसानी अता करे। ये उसकी तारीफ़ है। आपके ज़ह्न में ये आता होगा कि बाबा एक भारी फ़क़ीर है। उसने सब्ज़ रंग का कुर्ता पहना हुआ है। गले में मनकों की माला है। हाथ में उसके लोगों को सज़ा देने का ताज़ियाना पकड़ा हुआ है और आँखों में सुर्ख़ रंग का सुर्मा डाला है। बस इतनी सी बात थी। एक थ्री पीस सूट पहने हुए आला दर्जे की सुर्ख़ रंग की टाई लगाई है। बीच में सोने का पिन लगाए हुए एक बहुत आला दर्जे का बाबा होता है। इसमें जिन्स की भी क़ैद नहीं है। मर्द-औरत, बच्चा-बूढ़ा, अधेड़-नौजवान ये सब लोग कभी कभी अपने वक़्त में बाबे होते हैं और हो गुज़रते हैं। लम्हाती तौर पर एक दफ़ा कुछ आसानी अता करने का काम किया और कुछ मुस्तक़िलन इख़्तियार कर लेते हैं इस शेवे को और हम उनका बड़ा एहतिराम करते हैं। मेरी ज़िंदगी में बाबे आए हैं और मैं हैरान होता था कि ये लोगों को आसानी अता करने का फ़न किस ख़ूबी से किस सलीक़े से जानते हैं।

    मेरी ये हसरत ही रही। मैं उस उम्र को पहुंच गया। मैं अपनी तरफ़ से किसी को आसानी अता कर सका, दे सका और मुझे डर लगता है कि ही आइन्दा कभी उसकी तवक़्क़ो है।

    जब हम थर्ड इयर में थे तो कृपाल सिंह हमारा साथी था। हम उसको कृपाला सिंह कहते थे। बेचारा ऐसा ही आदमी था जैसे एक पंजाबी फोक गाने वाला होता है। लाल रंग का लिबास पहन के बहुत टेढ़ा हो के गाया करता है। एक रोज़ हम लाहौर के बाज़ार अनारकली में जा रहे थे तो स्टेशनरी की दुकानों के आगे एक फ़क़ीर था। उसने कहा बाबा अल्लाह के नाम पर कुछ दे तो मैंने कोई तवज्जो नहीं दी। फिर उसने कृपाल सिंह को मुख़ातिब कर के कहा कि बाबा साईं कुछ दे। तो कहने लगा कि भाजी इस वक़्त कुछ है नहीं और उसके पास वाक़ई नहीं था। तो फ़क़ीर ने बजाय इससे कुछ लेने के भाग कर उसको अपने बाज़ुओं में ले लिया और घट के झब्बी (मुअनिक़ा) डाल ली। कहने लगा, सारी दुनिया के खज़ाने मुझको दिए, सब कुछ तू ने लुटा दिया। तेरे पास सब कुछ है। तू ने मुझे भाजी कह दिया। मैं तरसा हुआ था इस लफ़्ज़ से। मुझे आज किसी ने भाजी नहीं कहा। अब इसके बाद किसी चीज़ की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही।

    उन दिनों हम सारे होस्टल के लड़के चोरी छुपे सिनेमा देखने जाते थे तो लाहौर भाटी के बाहर एक थेटर था उसमें फिल्में लगती थीं। मैं अरविंद, ग़ुलाम मुस्तुफ़ाई, कृपाल ये सब। हम गए सिनेमा देखने, रात को लौटे तो अनार कली में बड़ी यख़ बस्ता सर्दी थी, यानी वो क्रिस्मस के क़रीब के अय्याम थे सर्दी बहुत थी। सर्दी के इस आलम में कोहरा भी छाया हुआ था। एक दुकान के तख़्ते पर फटा जो होता है, एक दर्दनाक आवाज़ रही थी एक बुढ़िया की। वो रो रही थी और कराह रही थी और बार-बार ये कहे जा रही थी कि अरे मेरी बहू तुझे भगवान समेटे तू मर जाये नी, मुझे डाल गई, वो बहू और बेटा उसको घर से निकाल के एक दुकान के फटे पर छोड़ गए थे। वो दुकान थी जगत सिंह क्वात्रा की जो बाद में बहुत मारूफ़ हुए। उनकी एक अज़ीज़ा थी अमृता प्रीतीम, जो बहुत अच्छी शायरा बनी। वो ख़ैर उसको इस दुकान पर फेंक गए थे। वहां पर वो लेटी चीख़-ओ-पुकार कर रही थी। हम सबने खड़े हो कर तक़रीर शुरू की कि देखो कितना ज़ालिम समाज है, कितने ज़ालिम लोग हैं। इस ग़रीब बुढ़िया बेचारी को यहां सर्दी में डाल गए। इसका आख़िरी वक़्त है। वहां अरविंद ने बड़ी तक़रीर की कि जब तक अंग्रेज़ हमारे ऊपर हुकमरान रहेगा और मुल्क को स्वराज नहीं मिलेगा ऐसे ग़रीबों की ऐसी हालत रहेगी। फिर वो कहते हुकूमत को कुछ करना चाहिए। फिर कहते हैं। अनाथ आश्रम (कफ़ालत ख़ाने, मुक़ीम ख़ाने) जो हैं वो कुछ नहीं करते। हम यहां क्या करें। तो वो कृपाल सिंह वहां से ग़ायब हो गया। हमने कहा, पीछे रह गया या पता नहीं कहाँ रह गया है। तो अभी हम तक़रीरें कर रहे थे। उस बुढ़िया के पास खड़े हो के कि वो बाईस्किल के ऊपर आया बिल्कुल पसीना पसीना सर्दियों में, फ़क़ हुआ, सांस ऊपर नीचे लेता आगया। उसके होस्टल के कमरे में चारपाई के आगे एक पुराना कम्बल होता था जो उस के वालिद कभी घोड़े पर दिया करते होंगे। वो साहीवाल के बेदी थे। तो वो बिछा के ना उस के ऊपर बैठ कर पढ़ते वोड़ते थे। बदबूदार घोड़े को कम्बल जिसे वो अपनी चारपाई से खींच कर ले आया बाईस्किल पर और ला कर उसने बुढ़िया के ऊपर डाल दिया और वो उसको दुआएं देती रही। उसको नहीं आता था वो तरीक़ा कि किस तरह तक़रीर की जाती है। फ़न-ए-तक़रीर से नावाक़िफ़ था। बाबा नूर वाले कहा करते थे इन्सान का काम है दूसरों को आसानी देना। आपका कोई दोस्त थाने पहुंचे और वो थाने से आपको टेलीफ़ोन करे कि मैं थाने में आगया हूँ।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए