Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बलवंत सिंह मजेठिया

सआदत हसन मंटो

बलवंत सिंह मजेठिया

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह एक रूमानी कहानी है। शाह साहब काबुल में एक बड़े व्यापारी थे, वो एक लड़की पर मुग्ध हो गए। अपने दोस्त बलवंत सिंह मजीठिया के मशवरे से मंत्र पढ़े हुए फूल सूँघा कर उसे राम किया लेकिन दुल्हन के कमरे में दाख़िल होते ही दुल्हन मर गई और उसके हाथ में विभिन्न रंग के वही सात फूल थे जिन्हें शाह साहब ने मंत्र पढ़ कर सूँघाया था।

    शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बेतकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इसके मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता। वो सय्यद थे और मैं एक महज़ कश्मीरी।

    बहरहाल, उनसे मेरी बेतकल्लुफ़ी बहुत बढ़ गई। उनको अदब से कोई शग़फ़ नहीं था। लेकिन जब उनको मालूम हुआ कि मैं अफ़साना निगार हूँ तो उन्होंने मुझ से मेरी चंद किताबें मुस्तआर लीं और पढ़ीं।

    ये किताबें जो अफ़सानों के मजमुए थीं, उन्होंने पढ़ीं, और मुझे बहुत तअज्जुब हुआ कि उन्होंने चंद अफ़सानों की बहुत तारीफ़ की। इत्तिफ़ाक़ से ये अफ़साने ऐसे थे जो दुनिया में शाहकार तस्लीम किए जा चुके थे।

    शाह साहब मेरे पड़ोसी थे। उन्होंने एक मकान अलॉट करा रखा था, लेकिन ख़ानदान के अफ़राद चूँकि ज़्यादा थे इसलिए उन्होंने अपने फ़्लैट के नीचे मोटर गैराज पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। इसमें उन्होंने अपनी बैठक का इंतिज़ाम किया था। ऊपर ज़नाना था। शाह साहब के दोस्त बेशुमार थे इसलिए इस गैराज में वो उनकी ख़ातिर मदारत करते थे।

    एक दिन उनसे अफ़सानों के बारे में बातें हुईं तो उन्होंने मुझसे कहा, “मेरी ज़िंदगी में ऐसी कई हक़ीक़तें हैं जिनको तुम अफ़साने बना कर पेश कर सकते हो।”

    मैं हर वक़्त अफ़सानों की तलाश में रहता हूँ, चुनांचे मैं फ़ौरन मुतवज्जा हुआ और शाह साहब से कहा, “मुझे उम्मीद है कि आप अच्छा मवाद देंगे।”

    शाह साहब ने जवाबन कहा, “मैं अफ़साना निगार नहीं... लेकिन मेरी ज़िंदगी में एक ऐसा वाक़िया हुआ है जो क़ाबिल-ए-ज़िक्र है... मैंने क़ाबिल-ए-ज़िक्र इसलिए कहा है कि आप बहुत बड़े अफ़साना निगार हैं, वर्ना ये वाक़िया जो अब मैं बयान करने वाला हूँ, मेरे नज़दीक बेहद हैरत अंगेज़ है।”

    मैंने शाह साहब से कहा, “ऐसा भी क्या हैरत अंगेज़ होगा!” फिर थोड़े से वक़्फ़े के बाद उसमें थोड़ी सी इस्लाह की, “लेकिन हो सकता है कि आपके लिए वो वाक़ई हैरत अंगेज़ हो।”

    शाह साहब ने कहा, “जी! मैं नहीं कह सकता कि जो वाक़िया मैं आपको सुनाने वाला हूँ, हर शख़्स के लिए हैरत का बाइस होगा... मैं अपनी ज़ात के मुतअल्लिक़ आपसे अर्ज़ कर रहा हूँ... और ये हक़ीक़त है कि मैं जो दास्तान आपको सुनाऊंगा, इस वक़्त तक मेरी ज़िंदगी में मुहैय्यर-उल-उक़ूल हैसियत रखती है।”

    शाह साहब ने नेल कटर से अपने नाख़ुन काटने शुरू किए। मैं उनकी दास्तान सुनने के लिए बेताब था, मगर शायद वो आग़ाज़ के मुतअल्लिक़ सोच रहे थे कि अपनी दास्तान को कहाँ से शुरू करूं। मेरा ख़याल दुरुस्त था कि जो कुछ उन पर बीता था, उसको कई बरस हो चुके थे। वो तमाम वाक़ियात की याद अपने ज़ेहन में ताज़ा कर रहे थे।

    मैं ने सिगरेट सुलगाया। उन्होंने अपनी दस उंगलियों के नाख़ुन काट कर नेल कटर तिपाई पर रखा और मुझसे मुख़ातिब हुए, “मैं उन दिनों काबुल में था।” ये कह कर चंद लम्हात ख़ामोश रहे, उसके बाद बोले... “मेरी वहां बहुत बड़ी दुकान थी जिसमें बढ़िया से बढ़िया सामान मौजूद रहता था।”

    मैंने शाह साहब से पूछा, “आप जनरल मर्चेन्ट थे?”

    शाह साहब ने जवाब दिया, “जी हाँ... काबुल का सब से बड़ा जनरल मर्चेन्ट... मेरी दुकान में काबुल की क़रीब क़रीब हर औरत सौदा लेने आती थी... आपसे एक बात अर्ज़ करूं... साथ के दुकानदार जब ये देखते थे कि किसी रोज़ औरतों की बजाय मेरी दुकान में मर्द गाहक आए हैं तो वो मुझसे फ़ारसी ज़बान में अफ़सोस का इज़हार करते थे कि आग़ा आज ये क्या हुआ... काबुल की औरतें और लड़कियां मर गईं या तुम्हारे नसीब सो गए।”

    शाह साहब मुस्कुरा देते थे... इसके इलावा और वो क्या जवाब दे सकते थे। लेकिन उनको इस बात का पूरा एहसास था कि उनकी दुकान में ग्राहकों की अक्सरियत औरतों और लड़कियों की होती है, और वो ये भी जानते थे कि ये सब उनकी चर्ब-ज़बानी का मोजिज़ा है।

    उन्होंने मुझसे कहा, “मंटो साहब! मैं बेहतरीन सेल्ज़ मैन हूँ... ख़ासतौर पर औरतों के साथ तो मैं इस तरह सौदा कर सकता हूँ कि यहां लाहौर में कोई भी नहीं कर सकता। बी.ए हूँ... थोड़ी बहुत साईकालोजी भी मैंने पढ़ी है, इसलिए मुझे मालूम है कि औरतों से किस तरह डील किया जा सकता है... यही वजह थी कि सारे काबुल में एक मेरी दुकान ही ऐसी थी जिसमें हर वक़्त कोई कोई गाहक मौजूद होता था।”

    मैंने शाह साहब की ये ख़ुद तारीफ़ी सुनी और उनसे कहा, यक़ीनन आप बेहतरीन सेल्ज़ मैन हैं कि आपकी गुफ़्तुगू का अंदाज़ ही इसका सबूत है।”

    शाह साहब मुस्कुराए, “मगर मुझे अफ़सोस है कि मैं अपनी दास्तान बेहतरीन सेल्ज़ मैन के अंदाज़-ए-बयान में बयान नहीं कर सकूंगा।”

    मैंने उनसे कहा, “आप शुरू तो कीजिए!”

    शाह साहब ने चंद लम्हात अपने हाफ़िज़े को फिर टटोला और अपनी दास्तान शुरू की, “मंटो साहब! जैसा कि मैं आपसे पहले अर्ज़ कर चुका हूँ कि मैं काबुल में था। ये कोई दस बरस पहले की बात है जब मेरी सेहत बहुत अच्छी थी। यूं तो मैं अब भी तन-ओ-मंद कहलाता हूँ, मगर उस ज़माने में मेरा जिस्म आज के मुक़ाबले में दोगुना था।

    “हर रोज़ वरज़िश करता था, सैकड़ों डंड पेलता था, मुगदर घुमाता था। सिगरेट पीता था शराब, बस एक अच्छा खाने की आदत थी। अफ़ग़ानी नहीं, हिंदुस्तानी। चुनांचे मैं अमृतसर से अपने साथ एक बहुत अच्छा कश्मीरी बावर्ची ले गया था जो हर रोज़ मेरे लिए लज़ीज़ से लज़ीज़ खाने तैयार कर के मेज़ पर रखता था। मेरी ज़िंदगी बड़ी हमवार गुज़रती थी। आमदनी बहुत माक़ूल थी। बैंक में लाखों अफ़ग़ानी रुपये जमा थे... लेकिन...”

    शाह साहब थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गए। मैंने उनसे पूछा, “लेकिन कह कर आप चुप हो गए... इसका ये मतलब नहीं निकलता कि आप फिर भी नाख़ुश थे।”

    शाह साहब ने एतराफ़ किया, “जी हाँ! मैं इन तमाम आसाइशों के बावजूद नाख़ुश था। इसलिए कि मैं अकेला था... मुजर्रद था... अगर मेरी दुकान में औरतें और लड़कियां ज़्यादा आतीं तो बहुत मुम्किन है कि मुझे अपने तजर्रुद का एहसास होता... लेकिन मुआमला इसके बरअक्स था। काबुल की हर साहब-ए-सरवत औरत मेरी दुकान में आती थी... दुकान में दाख़िल होते ही ये औरतें और लड़कियां अपना बुर्क़ा उतार कर एक तरफ़ रखतीं और सौदा ख़रीदने में मस्रूफ़ हो जातीं।

    “मंटो साहब! आपका शायद ये ख़याल हो कि वो बड़ा शरई क़िस्म का लिबास पहनती होंगी, मगर हक़ीक़त इसके बिल्कुल बरअक्स है। यूं तो वहां की औरतें और लड़कियां पर्दा करती हैं मगर लिबास ठेट यूरोपीयन पहनती हैं। स्कर्ट, कटे हुए बाल, रंगे हुए नाख़ुन, पिंडलियां नंगी... जब वो मेरी दुकान में आती थीं तो अपने बुर्के उतार कर एक तरफ़ रख देती थीं और माल देखने में मस्रूफ़ हो जाती थीं।”

    शाह साहब ने बोलना बंद किया तो मैं ने उनसे पूछा, “आपको उनमें से किसी से मोहब्बत तो यक़ीनन हो गई होगी?”

    शाह साहब बहुत संजीदा हो गए, “जी हाँ! एक लड़की से हो गई थी जो अपना बुर्क़ा नहीं उतारती थी, हत्ता कि नक़ाब भी नहीं उठाती थी।”

    मैंने उन से पूछा, “कौन थी वो?”

    उन्होंने जवाब दिया, “एक बहुत बड़े घराने से मुतअल्लिक़ थी। उसका बाप फ़ौज का आला अफ़सर था। बड़ा सख़्तगीर... मुझे उससे सिर्फ़ इसलिए मोहब्बत हुई कि वो हाथों के इलावा अपने जिस्म का कोई हिस्सा नहीं दिखाती थी।”

    मैंने पूछा, “इसकी क्या वजह?”

    शाह साहब ने कहा, “मुझे मालूम नहीं, और मैंने उससे कभी इस बारे में इस्तिफ़सार ही किया... लेकिन मेरे तसव्वुर में वो इंतिहा दर्जे की हसीन थी। गोरी चिट्टी... जिस्म ख़्वाह बुर्क़े में लिपटा हो, लेकिन उसके तनासुब के मुतअल्लिक़ अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं था।

    “मैं ने चोर आँखों से देख लिया था कि वो जवानी का आदर्श मुजस्समा है... लेकिन मुसीबत ये थी कि वो चंद मिनटों के लिए मेरी दुकान में आती थी। चीज़ें ख़रीदने और उनकी क़ीमतों के बारे में फ़ैसला करने में चंद मिनट सर्फ़ करती थी और चली जाती थी।”

    मैंने शाह साहब से कहा, “ये सिलसिला कब तक जारी रहा?”

    “क़रीब के छः महीने तक मुझमें इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि मैं उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार करूं। मैं उससे बहुत मरऊब था इसलिए वो दूसरों से मुख़्तलिफ़ थी। उसमें एक अजीब क़िस्म की रऊनत थी... मैं उसको बेतरह घूरता था, हालाँकि ये शाइस्तगी नहीं थी लेकिन मैं अपने दिल के हाथों मजबूर था... मंटो साहब! एक दिन मैं दुकान में बैठा था उसके मुतअल्लिक़ सोच रहा था कि टेलीफ़ोन की घंटी बजी।

    “नौकर ने रिसीवर उठाया और मुझसे कहा कि कोई ख़ातून आपसे बात करना चाहती हैं। मैंने सोचा कि कोई गाहक होगी और नए माल के मुतअल्लिक़ पूछना चाहती होगी। उठकर मैं ने रिसीवर हाथ में लिया और पूछा, मादाम! आप क्या चाहती हैं? उधर से आवाज़ आई, क्या आप सय्यद मुज़फ़्फ़र अली हैं? मैंने जवाब दिया, जी हाँ... इरशाद!

    अब मैं ने आवाज़ पहचान ली थी... ये उसी की थी... उसी की जो मेरी दुकान में बुर्क़ा नहीं उतारती थी। मैं घबरा गया, मंटो साहब! ये आशिक़ होना भी एक अजीब लानत है।”

    ये सुन कर मैं मुस्कुरा दिया, “आप ठीक फ़रमाते हैं शाह साहब... लेकिन अफ़सोस है कि मैं इस लानत में अभी तक गिरफ़्तार नहीं हुआ।”

    शाह साहब को बहुत अफ़सोस हुआ, “हद हो गई... इंसान अपनी जवानी में कम-अज़-कम एक मर्तबा तो ज़रूर इश्क़ में गिरफ़्तार होता है... ख़ैर, आपको अभी तक इश्क़ नहीं हुआ तो ख़ुदा करे कि बहुत जल्द हो जाये, क्योंकि ये मर्ज़ बहुत दिलचस्प है।”

    मैंने मुस्कराकर शाह साहब से कहा, “आप अपनी दास्तान बयान कीजिए... मुझे इश्क़ होगा तो मैं आपसे वादा करता हूँ कि आपको उसकी पूरी रूदाद सुना दूंगा।”

    शाह साहब कुर्सी पर से उठ कर पलंगड़ी पर लेट गए और आँखें बंद कर लीं, “मंटो साहब... मैं उस लड़की के इश्क़ में इस बुरी तरह गिरफ़्तार हुआ कि वर्ज़िश करना भूल गया... वो मेरी दुकान पर अक्सर आती थी... मैं उसको घूरता था... लेकिन देखिए मेरा दिमाग़ कितना ख़राब हो गया है, ये उसी इश्क़ ख़ाना ख़राब का बाइस है।

    “मैं आपसे उसके टेलीफ़ोन की बात कर रहा था... जब मैंने रिसीवर उठाया और उसकी आवाज़ पहचान ली तो उसने मुझसे कहा, देखो मैं जब भी तुम्हारी दुकान पर आती हूँ, तुम मुझे घूरते हो। अगर अपनी ख़ैरियत चाहते हो, तो ठीक हो जाओ वर्ना तुम्हारे हक़ में बुरा होगा। मंटो साहब! मैं जवाब सोच ही रहा था कि उसने टेलीफ़ोन का सिलसिला मुनक़ते कर दिया। मैं देर तक गूंगे रिसीवर को कान के साथ लगाए खड़ा रहा और सोचता रहा कि इस धमकी का मतलब क्या है?”

    मैंने शाह साहब से पूछा, “क्या वो धमकी अस्ली थी?”

    “जी हाँ... चौथे रोज़ वो मेरी दुकान में आई तो मैं ने उसकी नक़ाब की तरफ़ फिर उन्ही निगाहों से देखा तो उसने झुँझला कर मेरे मुलाज़िमों के सामने मुझसे कहा... “तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम मुझे इस तरह देखते हो।”

    मैं सुन्न हो गया... लेकिन उसने चंद चीज़ें खरीदीं। दाम दिए और अपनी मोटर में बैठ कर चली गई।”

    मैं शाह साहब की दास्तान में काफ़ी दिलचस्पी ले रहा था, “अजीब लड़की थी... आपसे उसे नफ़रत भी थी, मगर इसके बावजूद आपकी दुकान में आती थी।”

    शाह साहब ने आँखें खोलीं, “मंटो साहब! यही वजह थी कि मेरे दिल में ये ख़याल पैदा हुआ कि उसकी नफ़रत-ओ-हक़ारत मस्नूई है, दरअसल वो मेरी मोहब्बत से मुताअस्सिर हो चुकी है और महज़ बनावट के तौर पर ग़ुस्से का इज़हार करती है... लेकिन जब एक रोज़ उसने मुझे बहुत ज़ोर से लॉन-तान की तो मैं सर्द हो गया... पर उसकी मोहब्बत थी जो मेरे दिल से जाती ही नहीं थी।

    “मैंने बहुत कोशिश की कि उसको भूल जाऊं... मैंने ख़ुद को समझाया कि तुम अजीब बेवक़ूफ़ हो। एक लड़की जिसकी तुमने शक्ल नहीं देखी... जो तुमसे नफ़रत करती है, तुम उससे इश्क़ फ़र्मा रहे हो। बा’ज़ आओ, तुम्हारा कारोबार माशा अल्लाह बहुत अच्छा है। सारे अफ़ग़ानिस्तान में तुम्हारी साख है। ये क्या झक मार रहे हो... लेकिन मंटो साहब! इश्क़ बहुत बुरी बला है। मैं उससे अपना पीछा छुड़ा सका...”

    मैंने उनसे कहा, “आप ख़्वाह मख़्वाह दास्तान तवील बनाते जा रहे हैं। अंजाम पर पहुंचिए।”

    शाह साहब पलंगड़ी पर से उठे और कुर्सी पर बैठ गए, “हज़रत! ऐसी दास्तानें अक्सर तवील हुआ करती हैं। इश्क़ एक मर्ज़ है और जब तक तूल पकड़े, मर्ज़ नहीं होता। महज़ एक मज़ाक़ होता है... ख़ैर! अब जब कि आप चाहते हैं कि मैं अपनी दास्तान तवील बनाऊं तो मुख़्तसर तौर पर अर्ज़ करता हूँ कि मेरा इश्क़ जब बहुत शिद्दत इख़्तियार कर गया तो एक रोज़ मैं बे इख़्तियार रोने लगा।”

    मेरे शहर अमृतसर का एक बाशिंदा सरदार बलवंत सिंह था जो मजीठ के एक अच्छे ख़ानदान का फ़र्द था। वो काबुल में एक इंजीनियरिंग फ़र्म में मुलाज़िम था। खाने-पीने वाला आदमी था, इसलिए वो हर महीने मुझसे पच्चास-साठ रुपये क़र्ज़ ले जाता था। मज़ीद क़र्ज़ लेने की ग़रज़ ही से वो उस वक़्त मेरी दुकान में आया, जबकि मेरी आँखें नमनाक थीं।

    वो मेरे पास कुर्सी पर बैठ गया। उसने मालूम नहीं मुझसे क्या पूछा और मैंने जाने क्या जवाब दिया। लेकिन जब उसने मुझसे ये कहा, “दोस्त! तुमको कोई रोग लग गया है, तो मैं चौंक पड़ा, नहीं नहीं... ऐसी कोई बात नहीं...

    सरदार बलवंत सिंह मजीठिया अपनी घनी मुंछों के अंदर मुस्कुराया,“तुम झूट बोलते हो, साफ़-साफ़ बताओ, तुम्हें यहां किसी से इश्क़ हुआ है... मैं ख़ामोश रहा तो वो फिर बोला, देखो अगर कोई मुश्किल दरपेश है तो हम सब ठीक कर देंगे... जब उसने इसी क़िस्म की चंद और बातें कीं तो मैंने सारा मुआमला उसको बता दिया।”

    मैंने पूछा, “तो उसने मुश्किल आसान करने का क्या गुर बताया?”

    शाह साहब ने कहा, “उसने मुझे एक मंत्र बताया।”

    “मंत्र!”

    “जी हाँ।”

    “आप सय्यद हैं... क्या आप मंत्र-जंतर पर ईमान ला सकते हैं?”

    शाह साहब ने कहा, “लाना तो नहीं चाहिए था कि ये हमारे मज़हब में जायज़ नहीं... लेकिन उस वक़्त सरदार बलवंत सिंह का मशवरा मानना ही पड़ा, इसलिए कि इश्क़ बुरी बला है... उसने मुझे एक मंत्र बताया कि सात रंगों के फूल लो। उनमें से हर एक पर ये मंत्र पढ़ कर फूंको और मंगल के रोज़ उसी लड़की को किसी किसी तरीक़े से सुंघा दो... ये मंत्र मुझे अभी तक याद है।”

    मैंने उनसे कहा, “ज़रा सुनाईए तो!”

    शाह साहब ने एक लहज़े के लिए अपने हाफ़िज़े को टटोला और कहा:

    “को रो दस मुखिया देवी

    फल खिड़े फुल हसे

    फुल चुग्गे नाहर सिंह प्यारे

    जो कोई ले फूलों की बॉस

    कभी ना छोड़े हमारा साथ

    हमें छोड़ा किसी और को करे

    पेट फूल भस्म हो मरे

    दुहाई सुलेमान पीर पैग़ंबर की!

    मैंने ये मंत्र सुना तो मुझे अपना लड़कपन याद गया, जब मैंने मंत्रों की एक किताब ख़रीदी थी और उसमें से एक मंत्र अज़बर इस ग़रज़ से किया था कि मैं स्कूल के तमाम इम्तहानों में पास होता चला जाऊं... ये मंत्र मुझे अब तक याद है... ओन्ग् नुमा काम शीरी उतमादे भर यंग परा स्वाह... लेकिन उसके पढ़ने का नतीजा ये निकला कि मैं नौवीं जमात में फ़ेल हो गया था।

    मैंने उस मंत्र का ज़िक्र शाह साहब से किया और उनसे पूछा, “तो आपने सात रंग के फूलों पर ये मंत्र पढ़ा?”

    “जी हाँ... मैंने सात रंग के फूल सोमवार को इकट्ठे किए। उनपर ये मंत्र पढ़ा और उस लड़की को टेलीफ़ोन किया कि मेरी दुकान में चेकोस्लोवाकिया से बहुत अच्छा माल आया है। मंगल को वो आके देख ले।”

    मैंने शाह साहब से पूछा, “क्या वो आई?”

    “जी हाँ... वो आई... उसने मुझे टेलीफ़ोन पर कह दिया था कि वो आएगी। शाम को पाँच बजे के क़रीब। मैं उसका इंतिज़ार करता रहा। वो ठीक पाँच बज कर पाँच मिनट पर आई और उसने चेकोस्लोवाकिया के माल के मुतअल्लिक़ इस्तिफ़सार किया। ग़रज़ ये है कि माल-वाल का क़िस्सा बिल्कुल फ़राड था।

    “मैंने उससे कहा कि मुलाज़िमों ने अभी तक पेटियां नहीं खोलीं, आप कल तशरीफ़ लाईएगा। वो बहुत जुज़-बुज़ हुई। मैं मंत्र पढ़े फूलों की तरफ़ देख रहा था... इत्तिफ़ाक़ की बात कि उसने भी उन फूलों की तरफ़ देखा और मुझ से कहा ये फूल तुम्हारी मेज़ पर कहाँ से आगए? मैंने जवाब दिया ये मैंने आपके लिए ख़रीदे थे। अगर आपको पसंद हों... मेरा मतलब है अगर आपको इन की ख़ुशबू पसंद होतो आप इन्हें क़बूल फ़रमाएं... उसने वो सात फूल उठाए और उन्हें सूँघा।”

    मैंने उनसे पूछा, “उस लड़की का रद्द-ए-अमल क्या था?”

    शाह साहब ने जवाब दिया, “उसने नाक-भौं चढ़ा कर कहा... ये फूल हैं? इनमें तो ख़ुश्बू है बदबू... बहरहाल, उसने वो फूल सूंघे... चंद चीज़ें खरीदीं और चली गई।

    शाम को सरदार बलवंत सिंह मजीठिया मेरी दुकान पर आया। उसने मुझसे पूछा कहो, वो फूल सुंघा दिए? मैंने उससे कहा सुंघा तो दिए लेकिन इसका नतीजा क्या निकलेगा, ये मुझे मालूम नहीं। सरदार बलवंत सिंह हंसा।

    उसने बड़े ज़ोर से मेरा हाथ दबाया और कहा, “दोस्त! अब तुम्हारा काम समझो कि पंद्रह आने हो गया है।”

    मुझे बड़ी हैरत थी कि मंत्र के ज़रिये ऐसा काम पंद्रह आने क्यों कर हो सकता है, मगर सय्यद साहब ने कहना शुरू किया, “मंटो साहब! आप यक़ीन मानिए कि मेरा काम पंद्रह आने मुकम्मल हो गया... दूसरे दिन कूकू जान का टेलीफ़ोन आया कि वो कुछ चीज़ें ख़रीदने के लिए रही है।

    मैंने उसका इस्तिक़बाल किया। वो कोई चीज़ ख़रीदना नहीं चाहती थी। बहुत देर तक वो मेरी दुकान में इधर उधर फिरती रही। इसके बाद वो मुझसे मुख़ातिब हुई, तुमसे मैं कई मर्तबा कह चुकी हूँ कि मुझे घूरा करो और वो जो तुमने फूल सुंघाए थे, उसका क्या मतलब था?

    मैंने कूकू जान से लुकनत भरे लहजे में कहा, “मैं... मैं... वो फूल जो थे... फूल थे... मैंने... मैंने... माल जो चेकोस्लोवाकिया से आया था, खुला हुआ नहीं था, इसलिए मैंने वो फूल आपकी ख़िदमत में पेश कर दिए।

    कूकू जान बुर्क़े में सख़्त मुज़्तरिब थी... उसने इज़्तिराब भरे लहजे में कहा, “तुमने मुझे फूल क्यों सुंघाए?”

    मैंने उससे बड़े मासूमाना अंदाज़ में पूछा, “क्या आपको उससे कोई तकलीफ़ हुई?”

    वो बड़े गर्म अंदाज़ में बोली, “तकलीफ़...? मैं सारी रात वो सात फूल देखती रही हूँ... फूल आते थे और जब मैं उन्हें हासिल करना चाहती थी तो वो मुझसे परे हट जाते थे... ये कैसे फूल थे?”

    मैंने जवाब दिया, “मेरे वतन के थे... चूँकि मेरे वतन के थे, इसलिए मैंने आपकी ख़िदमत में पेश किए... लेकिन मुझे हैरत है कि वो रात भर आपको क्यों नज़र आते और सताते रहे।”

    मैंने शाह साहब से पूछा, “ये फूल आपने कहाँ से मंगवाए थे?”

    शाह साहब ने जवाब दिया, “जी! मंगवाए कहाँ से थे, वहीं अफ़ग़ानिस्तान के थे... निहायत वाहियात क़िस्म के फूल जिनमें ख़ुशबू नाम को भी नहीं थी।

    शाम को सरदार बलवंत सिंह आया, मज़ीद क़र्ज़ लेने के लिए। उसने मुझसे क़र्ज़ लेने से पहले दरयाफ़्त किया, “कहिए शाह साहब! उस मुआमले का क्या हुआ, मैंने उसको सारी बात बता दी... वो क़र्ज़ लेना भूल गया। अपना बालों भरा हाथ मेरे कंधे पर ज़ोर से मार कर चिल्लाया... शाह जी! आपका काम सोलह आने हो गया है... विस्की की एक बोतल मंगाईए।”

    शाह साहब ने मुझे बताया कि उन्होंने विस्की की बोतल के इलावा एक डिब्बा सिगरेटों का भी मंगवाया, जिसमें से सरदार बलवंत सिंह मजीठिया तंबाकू नोशों के ठेट अंदाज़ में पे-दर-पे कई सिगरेट फूंकते रहे। जब जाने लगे तो उन्होंने शाह साहब से कहा कि “देखो अभी थोड़ी सी कसर बाक़ी है। अगले मंगल को तुम और सात फूल लो और उनपर वही मंत्र पढ़ कर उस लड़की को सुंघा दो... बेड़ा पार हो जाएगा...।”

    शाह साहब बहुत परेशान हुए। उसकी समझ में नहीं आता था कि वो अबकी कूकू जान को फूल कैसे सुंघा सकेंगे जबकि वो इस मुआमले के मुतअल्लिक़ शाकी थी। लेकिन मुआमला इश्क़ का था, इसलिए शाह साहब मौत के मुँह में जाने के लिए भी तैयार थे।

    शाह साहब ने पेशावर से फूल मंगवाए... उनमें से सात मुंतख़ब किए और हर एक पर मंत्र पढ़ा और अपने मेज़ के गुलदान में रख दिए। इसके इलावा उन्होंने अपनी दुकान में जा-ब-जा गुलदान रखवाए और उनमें फूल सजा दिए।

    पीर को साहब ने कूकू जान को टेलीफ़ोन किया और उससे फिर झूट बोला कि चेकोस्लोवाकिया का माल खुल गया है। आप आईए और देख लीजिए। कूकू जान आई, मगर माल वाल मौजूद नहीं था... शाह साहब थोड़ी देर के लिए बौखलाए, फिर ज़रा होश सँभाल कर अपने नौकरों को लॉन तान की कि तुमने अभी तक माल क्यों नहीं खोला।

    कूकू जान के साथ उसकी वालिदा बूबू जान भी थी। वो एक तरफ़ टायलट का सामान देखने में मस्रूफ़ थी। कूकू जान ने जब दुकान में जा-ब-जा फूल देखे तो वो मुतअज्जिब होने के इलावा मुज़्तरिब भी हुई।

    मेरी मेज़ पर वो ख़ास फूल पड़े थे। वो उनके पास आई, गुलदान में से उठा कर उसने उन्हें सूँघा और मुझसे कहा, “ये अफ़ग़ानिस्तान के फूल नहीं।”

    मैंने जवाब दिया, “जी हाँ... ये मेरे वतन के हैं... और मैंने ख़ास आपके लिए मंगवाए हैं।” बूबू जान ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त में मशग़ूल थी। इस दौरान में कूकू जान से मैंने अपनी वालहाना मोहब्बत का इज़हार किया। वो सख़्त नाराज़ हुई और अपनी माँ के साथ चली गई।

    शाम को सरदार बलवंत सिंह मजीठिया आया... उससे बातचीत हुई। मैंने उसको दस रुपये क़र्ज़ दिए। जब उसने रुपये अपनी जेब में डाले तो मुझसे पूछा, “आज मंगल है... वो फूल सुंघा दिए थे आपने?”

    मैंने सारा वाक़िया बयान कर दिया... सरदार बलवंत सिंह ने अपना बालों भरा हाथ ज़ोर से मेरे हाथ पर मारा और कहा, “शाह जी, अब काम सतरह आने पूरा हो गया है... विस्की की एक बोतल मँगाओ।”

    शाह साहब ने विस्की की बोतल मंगवाई। सरदार बलवंत सिंह मजीठिया ने आधी दुकान में पी और आधी अपने साथ ले गया। मैंने शाह साहब से पूछा, “दूसरी दफ़ा फूल सूंघने से क्या नतीजा बरामद हुआ?”

    शाह साहब ने जवाब दिया, “वो बहुत बेचैन हो गई। उसे दिन-रात इतने फूल नज़र आने लगे कि एक दिन वो सख़्त इज़्तिराब की हालत में आई। बुर्क़ा जो उसने कभी उतारा नहीं था, केले के छिलके की तरह उतार कर एक तरफ़ फेंका और मुझसे मुख़ातिब हुई।

    “देखो शाह! तुमने मुझ पर कोई जादू कर दिया है... मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा जो मुझे पहली बार नज़र आया था, मंटो साहब! मैंने अपनी ज़िंदगी में उस जैसी हसीन लड़की अब तक नहीं देखी... मैं उसको देखता रहा।

    उसने बड़े तेज़-ओ-तुंद लहजे में कहा, “तुमने मुझे फूल क्यों सुंघाए थे... मैं पागल हुई जा रही हूँ... दिन हो या रात, हर वक़्त मुझे वो तुम्हारे फूल दिखाई देते हैं। मुझे मालूम है कि तुम मुझसे मोहब्बत करते हो। लेकिन तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं एक शरीफ़ घराने की लड़की हूँ। मेरे वालिदैन अनक़रीब मेरी शादी कर रहे हैं। तुमने मुझ पर क्या जादू फूंका है।”

    ये कह कर उसने मेरे मेज़ पर से गुलदान में से फूल निकाले और फ़र्श पर फेंक कर अपनी सैंडल से मसल दिए। लेकिन मुझे महसूस होता था कि वो नाराज़ होने के बावजूद नाराज़ नहीं थी और चाहती थी कि मैं उससे बातें करूं। लेकिन मुझे इसका यक़ीन नहीं था इसलिए ख़ामोश रहा... वो कुछ देर ग़ुस्से की हालत में खड़ी रही। इसके बाद उसने बुर्क़ा पहना और चली गई।”

    मैंने शाह साहब से पूछा, “तो सरदार बलवंत सिंह मजीठिया का मंत्र काम कर गया!”

    “जी हाँ, काम कर गया... उसको फूल ही फूल नज़र आते थे। मैंने कई मर्तबा सोचा कि ये सब बकवास है, मगर कूकू जान की बातों से मुझे यक़ीन हो गया कि मंत्र अपना असर कर गया है, हालाँकि जो मंत्र आप सुन चुके हैं, इसमें ऐसी कोई बात नहीं जिससे आदमी को ये मालूम हो कि वो असर करेगा... लेकिन वाक़िया ये है कि वो जब फिर मेरी दुकान में आई तो बुर्क़ा उतार कर मुझ से बग़लगीर हो गई और रोना शुरू कर दिया।

    “मैंने उसको कई मर्तबा चूमा। उसने कोई मुज़ाहमत की। थोड़ी देर के बाद मेरी मेज़ पर गुलदान में जो फूल पड़े थे, उसने निकाले और उन्हें नोच कर एक तरफ़ फेंक दिया। इसके बाद वो बुर्क़ा पहन कर तेज़ी से बाहर निकल गई।”

    दास्तान काफ़ी तवालत पकड़ रही थी। मैंने साहब से कहा, “आप मुख़्तसर फ़रमाईए कि अंजाम क्या हुआ... क्या वो लड़की आपको मिल गई?”

    शाह साहब ने एक आह भरी, “जी नहीं, उसकी शादी हो गई। मगर हजला-ए-अरूसी में दाख़िल होते ही मालूम नहीं क्या हुआ कि वो गिरी और गिरते ही मर गई... उसके हाथ में सात फूल थे मुख़्तलिफ़ रंगों के।”

    मैंने देखा कि शाह साहब की पलंगड़ी के साथ तिपाई पर पीतल के फूलदान में सात मुख़्तलिफ़ रंगों के फूल अड़से हुए थे।

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    Jameel Gulrays

    Jameel Gulrays

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए