स्टोरीलाइन
यह कहानी एक ऐसी लड़की की दास्तान बयान करता है जो अपनी ज़िंदगी से ऊब गई है। एकाएक उसे पड़ोस में औरतों की लड़ने की आवाज़ सुनाई देती है और वह उसे देखने छत पर चली जाती है। उस झगड़े को देखकर जब वह छत से उतरती है तो उसे ज़िंदगी मुट्ठी में बंद जुगनू की तरह नज़र आने लगती है।
जब पड़ोस में औरतों की लड़ाई शुरू हुई वो घर में अकेली थी। वो शहर से अपने साथ कोई किताब या रिसाला नहीं लाई थी। वो किताबों और रिसालों से उकता गयी थी। लेकिन वो शरीफ़ की आठवीं जमा’त की फटी-पुरानी किताबों को सुबह से कई बार झाड़ पोंछ चुकी थी।
शरीफ़ और बब्लू सुबह से शरीफ़ां को लेने चचा के गांव गये हुए थे। लेकिन उसे घर की हर चीज़ से शरीफ़ां के बदन की ख़ुश्बू आ रही थी। शरीफ़ां घर में नहीं थी लेकिन लगता था हर जगह हर चीज़ में मौजूद है और वो? वो मौजूद थी लेकिन यूं लगता था जैसे कहीं नहीं है।
थोड़ी देर पहले, खेतों को रोटी लेकर जाते वक़्त, फूफी उसपर तन्हाई का टोकरा रख गयी थी। अगर पड़ोस में औरतों की लड़ाई शुरू न होती तो उसे ख़ुद को बार-बार टटोल कर देखना पड़ता कि वो है या नहीं है।
तन्हाई के टोकरे के नीचे पड़े-पड़े उसे बदबू के भबोकों ने घेर लिया था कि पड़ोस के आँगन में बादल से गरजे और चुपके खड़े पानियों में आवाज़ों के परनाले गिरने लगे।
ये जुलाई के आख़िरी दिन थे।
सच-मुच के बादलों और असली धूप में आँख-मिचोली हो रही थी। सूरज लंबी-लंबी ज़बानें निकाल कर सुरमई बादलों के नहीफ़ जिस्मों से नमी चाट रहा था।
बचपन में उसका ख़्याल था कि आसमान पर हज़ारों लाखों सूरज हैं और हर-रोज़ नया सूरज तुलूअ’ होता है। वो एक अ’र्सा तक यही समझती रही कि हर शाम एक सूरज बुझ जाता है और अगली सुबह वैसा ही या मौसम के लिहाज़ से छोटा बड़ा सूरज तुलूअ’ हो जाता है। उसे सारे सूरज अच्छे लगते थे। ज़िंदा और दहकते हुए भी और बुझ कर डूब जानेवाले भी... शायद उन बुझे हुए टूटे-फूटे सूरजों के ढेर से भी अक्सर कार-आमद टुकड़े मिल जाते थे जिन्हें फ़रिश्ते चमका कर रातों को चांद के रूप में तुलूअ’ कर देते थे। मगर अब उसे पता था कि एक ही पुराना सूरज और एक ही थका-हारा चांद हर-रोज़ इस्तिमाल होते हैं।
पुरानी चीज़ों से उसका जी ऊब गया था।
ताज़गी का आ’लमगीर क़हत पड़ा हुआ था। हर सुबह बोसीदगी की दुबली गायें ताज़गी की फ़र्बा गायों को हड़प कर जाती थीं।
ताज़गी को सूरज की शुआ’ओं से बचा कर फ्रिज में कई-कई दिन तक रखा जाता था। ताज़गी आठ आठ दिन की मरी हुई मछलियों की सूरत बिकती थी। जिस्मों की बोसीदगी को ढांपने के लिए नए फ़ैशन राइज होते थे और आउट आफ़ डेट नज़रियात पर लफ़्ज़ों का मुलम्मा चढ़ाया जाता था।
टेलीविज़न और फिल्मों की नक़ली लड़ाईयां, सुने सुनाए लतीफों की तरह बोर लगती थी। गांव की औरतों की लड़ाई में ओरिजनलटी का तसव्वुर करके उसने अपने आपको चुप के टोकरे से निकाला और एक-एक कर के सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। बड़े घमसान का रन पड़ा था।
आवाज़ों के हवाई गोले फ़िज़ा में दूर-दूर जा कर फटने लगे थे।
ठाह... ठाह... ठाह...
वो आख़िरी सीढ़ी पर बैठ गयी। उसने इत्मिनान का लंबा सांस लिया। उसे आज़ादी और ताज़गी का एहसास होने लगा और जी चाहने लगा कि वो मुर्ग़ीयों के डरबे पर खड़ी हो कर उन दूर उफ़्तादा लोगों को आवाज़ दे जो अपने अपने अंडों में ज़िंदा चूज़ों की तरह बाहर निकलने के लिए ठूंगे मार रहे थे।
लड़ने वालियों के चेहरों पर आग के शोले थे, नफ़रत के मकरूह जाले नहीं थे। उनकी आवाज़ों में बिजली की कड़क थी, साँपों की फुन्कार नहीं थी। उनमें से वो नूरां और महरां को पहचानती थी। शरीफ़ां अक्सर उन दोनों का ज़िक्र करती थी और कल शाम वो उसे मिलने भी आयी थीं। मगर अब पता चला कि वो दोनों फफे कटनीयाँ हैं।
काश वो भी फफे कटनी होती।
आदमी एक ही नाम से और एक ही हैसियत में रहते रहते कितना उकता जाता है। उसके जिस्म पर चिकनाई और मैल के धब्बे पड़ जाते हैं और उसकी रूह को यकसानियत की दीमक चाटने लगती है।
अब्बा ईद की नमाज़ पढ़ने एक रास्ते से जाते और दूसरे से वापस आते कि नए रास्ते पर चलने से ज़्यादा सवाब मिलता था। काश लकीर के फ़क़ीरों की समझ में ये बात आसकती!
वो ख़ुद भी हर-रोज़ जिस रास्ते से कॉलेज जाती उसी रास्ते से वापस आती। हर साल वही पुराने नोट्स, पुरानी बातें और दोहराए हुए लेक्चर्ज़ दुहराती। उसे अ’ज़ीम मुफ़क्किरों के ज़र्रीं अक़्वाल दोहराते हुए शर्म आने लगती जैसे वो क्लास को दूनी का पहाड़ा याद करा रही हो। कभी-कभी दूनी का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते आवाज़ उसके हलक़ में फंस जाती, कंधों पर सर की जगह चक्की का पाट रखा महसूस होता और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगता। अक्सर मतली हो कर तबीयत बहाल हो जाती वर्ना होश आने पर पता चलता कि उसे दौरा पड़ा था।
उसने ख़ुद ही अपने आपको मश्वरा दिया था कि कुछ रोज़ शरीफ़ां के पास चली जाये। जब से कॉलेज बंद हुआ था उसके ज़ेह्न में हर वक़्त छोटी-छोटी भंभरियां अपने आप चलती रहती थीं। वो सोचना न चाहती तो भी सोच की सख़्त-जान और बद-शक्ल छछूंदर उसके दिमाग़ में थूथनी डाले मुसलसल चीख़ती रहती।
लड़ने वालियाँ देवरानी और जिठानी वाज़िह ग्रुपों में तक़सीम थीं।
दोनों जानिब एक एक बड़ी और तीन-तीन चार-चार छोटी औरतें थीं। लेकिन घोड़सवार से घोड़सवार और प्यादे से प्यादा लड़ रहा था। यूं लगता था जैसे छोटियां बड़े-बड़े ख़्वाबों के रसों से जकड़ी हुई हैं।
ख़्वाब?
मेअ’दे की गिरानी?
वाहमे?
लाशऊर में छुपी हुई ख़्वाहिशात।
एक-बार उसने देखा वो चाय बनाते-बनाते ख़ुद केतली में बंद हो गयी है। वो चीख़ती-चिल्लाती है मगर कोई ढकना नहीं उठाता यहां तक कि उसका दम घुट जाता है और वो मर जाती है।
अक्सर उसे शक होता कि वो ख़्वाब नहीं था और वो वाक़ई मर चुकी है वो अक्सर ख़ुद को टटोल टटोल कर देखती रहती कि वो है या नहीं है?
भरे-पुरे घर में भी उस पर उदासी और तन्हाई के तंबू हर वक़्त तने रहते। कभी-कभी वो अपने जिस्म की अनपढ़ी किताब खोल कर ख़ुद ही तस्वीरें देखने बैठ जाती, फिर मैली होने के डर से बंद करके एक तरफ़ रख देती।
फिर जब दूनी का पहाड़ा सैंकड़ों मर्तबा दोहराना पड़ता, उसे हर चीज़ बासी महसूस होने लगती। उसे अपना जिस्म... जिसपर उसे ख़ुद भी सोने का पानी चढ़ा हुआ लगता था, सूखा चमड़ा नज़र आने लगता। पसीने से मुर्दा मछलियों की बदबू आती और किताब या रिसाला खोल कर बैठती तो जगह जगह मरी हुई मक्खियां चिपकी दिखाई देतीं। बैठे बिठाए उसके ज़ेह्न में सोच की मकरूह चमगादड़ चक्कर लगाने लगती और उसे हर चीज़ से घिन आती। मौसीक़ी मुर्दा कव्वे की लाश पर सैंकड़ों कव्वों की काएं-काएं मालूम होती। अंडों से मुर्ग़ी की बीट, रोटी से बुरादे और सालन से मुर्दा गोश्त की सड़ान्द आती। बदबू के भभोके उसे चारों तरफ़ से घेर लेते, उसका जी मतलाने लगता और वो क़ै करने लगती।
जेठानी ग्रुप की औरतें चुड़ैलें, डायनें और पच्छल पैरियाँ थीं ख़ून चूसती कलेजे चबाती और बड़े वल छल जानती थीं।
देवरानी ग्रुप की औरतें लुच्चियाँ-लफ़ंगियाँ और मुश्टंडीयाँ थीं वो आँख मटकका करती, चुन चिढ़ाती और उधल जाती थीं... उसे उन पर रश्क आ रहा था।
आँख मटक्का करने, वल-छल जानने और अपने यार के साथ उधल जाने में कितनी ज़िंदगी और रूमान था, उसमें उसे कहीं खोट नज़र न आता था। सच की इस चिलचिलाती धूप में उसे अपना आप अब्र आलूद मतला की तरह लगा।
जेठानी की मुर्ग़ियों की आ’दत थी कि वो देवरानी के घर अंडा देतीं और कुड़-कुड़ करने अपने घर आ जाती थीं मगर देवरानी का बयान था कि वो फ़ाहिशा मुर्ग़ियां अपने बांझपन को छुपाने के लिए कुड़कुड़ करतीं और अंडों की बजाय मुर्गों की तरह अज़ानें देती थीं।
बा’ज़ बातें अपने मख़सूस जुग़राफ़ियाई और मुक़ामी हवालों की वजह से उसके पल्ले नहीं पड़ रही थीं मगर मौज़ू बदलते देर नहीं लगती थी और सनाइअ बदाए का इस्तिमाल ज़बान-ओ-बयान को दिलचस्प और मुतनव्वे बना रहा था। ख़ासकर सनअत-ए-अग़राक़ और ग़ुलू की ऐसी नादिर मिसालें किताबों में कहाँ मिलती थीं, अलबत्ता तशबीहात कभी-कभी ज़्यादा क़रीब-उल-फ़हम होने की वजह से दर्जा बलाग़त से गिर जातीं।
घर में सब मुहतात रहते कि उसकी तबीयत के ख़िलाफ़ कोई बात न हो लेकिन शहर के लोग इस अमर से बे-ख़बर थे कि घिसी पिटी और दुहराई हुई बातों की शनाख़्त के लिए एक क़द-ए-आदम आ’ला ईजाद हो चुका है जो मतरूक और बाँझ चीज़ों की सौ फ़ीसद दुरुस्त निशानदेही करता है।
लड़ाई के बहाने पिछली सात पुश्तों का सरसरी सा जायज़ा भी लिया जा रहा था। पता नहीं गड़े मुर्दे उखाड़ने की क्या तुक थी। पता नहीं हों भी कि नहीं और अगर हों तो उनके तन पर कफ़न हों या न हों। उसे क़ब्रिस्तानों में रातों को अलाव के गिर्द नाचती नंगी औरतों के क़िस्से याद आये। उसका जी चाहा वो भी किसी रात छुप कर क़ब्रिस्तान चली जाये।
लड़ने वालियाँ अब ता’नों-महनों की दलदल से निकल कर पलोतों और गालियों के गहरे पानियों में उतर चुकी थीं।
ऐसी अलिफ़ नंगी गालियां उसने ज़िंदगी में पहली बार सुनी थीं। इन्सानी आ’ज़ा के नाम सुनकर उस के ज़ेह्न के पिंजरे में क़ैद बेशुमार छोटी-छोटी चिड़ियां यक-बारगी फिर से उड़ गयीं। उसके बदन से हमेशा से चिम्टी हुई जोंकें एक-एक कर के झड़ने लगीं और देखते ही देखते उसके अंदर एक नया सूरज उगने लगा। उसका सारा जिस्म उसकी किरनों से दमकने लगा। लज़ीज़ सी गर्मी से रुख़्सार तमतमाने लगे। पसीने से सारा जिस्म भीग गया। उसे अपने पसीने से पहली बार ताज़ा गुलाब की ख़ुशबू आई और यूं लगा जैसे उसका बदन हल्का हो कर ज़मीन से ऊपर उठता जा रहा हो।
इसी लम्हे शरीफ़ां आ गयी।
शरीफ़ां का बिफरा हुआ जिस्म घर भर में फैल गया वो उसके जिस्म की कशिश और आवाज़ की डोर के सहारे ज़मीन पर वापस आ गयी।
अच्छी-भली मज़े की लड़ाई हो रही थी कि अचानक ख़तरे का सायरन बजने लगा। मर्द घरों में दाख़िल हुए और दोनों तरफ़ बरछीयॉं और बल्लमें चमकने लगीं।
ख़ौफ़ से उसके हाथ-पांव सुन्न हो गये। मर्दों की लड़ाई बहरहाल सिनेमा की स्क्रीन पर ही अच्छी लगती थी। उसी लम्हे ख़ुदा ने रहमत का फ़रिश्ता भेज दिया। साठ-सत्तर बरस का एक बावक़ार बूढ़ा जिसकी चाल में मतानत और चेहरे पर बेपनाह ज़हानत थी अंदर आया... और फ़रीक़ैन के दरमियान सुलह-ओ-अमन की दीवार बन कर खड़ा हो गया।
शरीफ़ां ने उसे बताया जिसे वो फ़रिश्ता समझ रही है वो अहमद दीन तेली है। उसे यक़ीन न आया मगर जब उन्होंने उसे धकेल कर एक तरफ़ कर दिया तो उसे यक़ीन आ गया।
अमन की कोशिशें नाकाम होती देखकर ख़ौफ़ से उसका दिल धड़कने लगा। पेट से बाहर लटकती आंतों और गर्दन के बग़ैर तड़पते धड़ों का तसव्वुर करके वो लरज़ गयी। मगर उसी लम्हे एक अ’जीब बात हुई।
एक छोटे क़द का मरियल सा आदमी अंदर आया और आते ही फ़रीक़ैन को फ़ुहश गालियां देने लगा उसे देखते ही तनी हुई गर्दनें और उठी हुई बल्लमें झुक गयीं। छतों पर खड़ी औरतें और बच्चे एक-एक कर के खिसकने लगे और देखते ही देखते मैदान-ए-कारज़ार बर्फ़ की तरह ठंडा हो गया।
शरीफ़ां ने उसे बताया, छोटे क़द का मरियल सा वो शख़्स बहुत बड़ा चौधरी और गांव की एक तिहाई ज़मीन का मालिक है। उसकी तबीयत मतलाने लगी और उसे अपना आप बंद मुट्ठी में जुगनू की तरह लगने लगा... मकरूह ख़यालों की बदसूरत छछूंदरें उसके ज़ेह्न में थूथनी डाल कर चीख़ने लगीं।
गांव के नंग धड़ंग सैंकड़ों बच्चे उसके गिर्द जमा हो कर दूनी का पहाड़ा पढ़ने लगे।
ग़लीज़ मक्खियां चारों तरफ़ भिनभिनाने लगीं चर्बी जलने की सड़ान्द हर तरफ़ फैल गयी। चक्की के पाट के नीचे उसका दम घुटने लगा उसने ताज़ा हवा में सांस लेने की कोशिश की मगर बहुत सारी भिनभिनाती मक्खियां उसके हलक़ में फंस कर रह गयी थीं, वो क़ै करने लगी।
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