बटाई के दिनों में
स्टोरीलाइन
ज़ालिम तभी तक हमलावर रहता है जब तक आप ख़ामोश रहकर ज़ुल्म सहते हैं। बँटाई के दिनों में संतो दीवान साहब को फ़सल में से उसका हिस्सा देने से मना कर देता है। संतो जब बँटाई न देने की बात करता है तो कुछ लोग उसकी मुख़ालिफ़त करते हैं। लेकिन वह डटा रहता है। धीरे-धीरे लोग भी उसकी मुहिम में शामिल हो जाते हैं। पूरा गाँव बँटाई न देने के लिए एक जुट हो जाता है। गाँव में पुलिस आती है। लोगों पर लाठी चार्ज होती है। तो भी लोग अपने हक़ की माँग से पीछे नहीं हटते हैं। आख़िर में पुलिस संतो को गिरफ़्तार कर लेती है, पुलिस की बे-तहाशा मार खाने के बाद भी वह पीछे हटने को तैयार नहीं होता और कहता है... बँटाई के दिन गए।
पच्छम की तरफ़ से आने वाली हवा के नीचे गेहूँ के पौदे सर हिला रहे थे। कन-कूत के लिए रियासत का सरपंच खेत की मेंड पर खड़ा था। दीवान साहिब का आदमी मूँछों को ताव दे रहा था। फ़स्ल का जाएज़ा लेते हुए सरपंच ने फ़ैसला किया कि कोई साठ एक मन दाने होंगे। जो काम पहले आध घंटा माँगता था। अब चंद ही मिनटों में ख़त्म हो जाता था। किसान नुमाइंदा मौजूद रहता तो अब के ये बे-नज़ीर हमवारी कन-कूत की ख़ुसूसियत हरगिज़ न होने पाती।
कन-कूतिए बहुत दूर निकल गए थे। सन्तू अपने दिल में हिसाब लगाने लगा। इसका मतलब हुआ बीस मन दीवान के। ये कैसे हो सकता है? मैं महीनों मेहनत करता रहा हूँ, मैंने ख़ून पसीना एक किया है।
अपने पाँव पर खड़ा हुआ तो सन्तू छः फुट का जवान दिखाई देने लगा। खुले हाथ पाँव गले में पड़ा हुआ तावीज़ टूटे हुए कान, वो पहलवान दिखाई देता था। तहमद को ऊपर उठा कूल्हों पर रखते हुए वो सोचने लगा... बीस मन... हम आज तक दीवान को अपनी ज़मीनों से खिलाते रहे हैं। सारा साल ज़मीन में हल जोतें हम, बैलों के साथ बैल बनें हम और फिर जब हमारी मेहनत के नतीजे में धरती की आशाएँ आँखें खोल देती हैं, अनाज ही अनाज हो जाता है तो दीवान कहता है कि मेरा हक़ पहले मुझे मिल जाए ज़मीन अस्ल में मेरी है।
उजागर ने आकर बताया कि इसके खेत की कन-कूत भी हो गई। कन-कूतिए पचास मन दाने लिख कर ले गए हैं। उजागर ने अपने चादरे को गले से उतारा और हाथ फैला दिए वो एक बड़ा सा परिंदा दिखाई देने लगा, जो उड़ कर आसमान की बुलंदियों में परवाज़ करने वाला हो। सन्तू के कंधे पर हाथ रखते हुए वो बोला, “मैं कहता हूँ दीवान रियासत के सरपंच से मिला हुआ है। ये कन-कूत का तरीक़ा भी कितना बुरा है। बेकार ही हम कन-कूत के लिए लड़ते रहे थे। अब भला मेरे खेत में पचास मन दाने कहाँ होंगे? इससे तो यही अच्छा था पहले की तरह कि कटाई हो चुकने पर हमारी जिन्स तौल ली जाती और दीवान के हिस्से का एक तिहाई अनाज दीवान के घर पहुँचा दिया जाता।”
बुड्ढा रहीमू इस अस्ना में रहट की गाधी पर आ बैठा था। उजागर की बात पर वो ख़ामोश रहा। सन्तू ने अपनी नौ-ख़ेज़ मूँछों पर हाथ फेरा और सामने पीपल के नीचे समाधी की तरफ़ देखता हुआ बोला। “सौगन्द है मुझे बाबा टहल सिंह की अगर मैं दीवान को एक दाना भी दे जाऊँ। उसे मा'लूम होना चाहिए कि ज़मीन हमारी है। शहर से आने वाला बाबू भी उस दिन हमें यही बता रहा था।”
बुड्ढा रहीमू एक डरपोक आदमी था और रियासत के हर मुआ'मले में मस्लेहत के तौर पर जब्र के आगे सर झुका दिया करता था। उसमें मुसीबत और ज़ुल्म से जंग करने की सलाहियत मर चुकी थी। हुक़्क़े का एक लंबा कश लगाते हुए वो खाँस कर बोला, “अरे सन्तू जाने भी दो। दस बीस सेर दाने ज़ियादा भी देने पड़ गए तो क्या हो गया? ऐसा न हो कि तुझे प्याज़ भी खाने पड़ें और जूते भी। ये प्याज़ और जूतों का वो क़िस्सा भी सुना है ना?” और जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर ही वो सुनाने लगा, “एक था जूलाहा। पता नहीं साला क्या क़सूर कर बैठा कि पंचायत में एक दिन ये तय पाया कि वो चाहे तो सौ जूते खा ले, चाहे तो एक सौ प्याज़ खा ले। उसने कहा, प्याज़ मंगवा लो। उसने दस बारह प्याज़ भी न खाए होंगे कि साला तंग आ गया। बोला…, प्याज़ खाना कठिन काम है, जूते ही खा लेता हूँ। फिर उसके सर पर तड़ातड़ जूते पड़ने लगे। उसकी चीख़ें निकल गईं। बोला…, जूते नहीं... प्याज़... प्याज़, सरपंच बादशाह लेकिन वो लगातार इतने प्याज़ भी न खा सकता था। फिर जूते, फिर प्याज़, फिर जूते, फिर प्याज़ आख़िर हिसाब करने पर पता चला कि साला सौ के सौ जूते भी खा गया और कोई एक कम सौ प्याज़ भी।”
सन्तू अपने ढीले तहमद को दुरुस्त करने लगा। उजागर भी कुछ न बोला। रहीमू गाधी पर बैठा हुक्के के कश लगाता रहा। बीच-बीच में उसकी आँखें मिच जातीं शायद उसके दिमाग़ में भूले-बिसरे धुँदले-धुँदले ख़यालात तैर रहे थे। कोई और समाँ होता तो सन्तू को रहीमू के झुर्रियों वाले जुते हुए खेत जैसे चेहरे पर उन आँखों की ये कैफ़ियत देखकर किसी मंदिर के पट बंद होने और खुलने का गुमान होने लगता। उसने सोचा कि रहीमू उस पुराने रहट की तरह है जो हमेशा एक ही सुर में अपना अलाप जारी रखता है। सर से पाँव तक उसके बदन में एक कपकपी सी दौड़ गई।
“खेतों के दीवान तो हम किसान ख़ुद हैं... ख़ुद किसान, रहीमू चचा।”
वो बोला, “मैं अब के एक दाना भी दीवान को दे जाऊँ तो मुझे सन्तू मत कहना। कुछ पर्वा नहीं अगर मुझे प्याज़ भी खाने पड़ें और जूते भी खाने पड़ें।”
उजागर ने क़हक़हा लगाया और रहीमू की दाग़ी बैरूँ जैसी आँखों की तरफ़ देखते हुए बोला, “बाबा मैं तो बाज़ आया प्याज़ और जूते खाने से।”
गेहूँ की बालियाँ साएँ-साएँ की आवाज़ के साथ हवा की तेज़ रफ़्तारी का क़िस्सा बयान करने लगीं। बादलों के हल्के, गहरे साये दूर तक फैल गए थे। क़रीब ही एक पगडंडी तनी हुई थी जिस पर एक दुल्हन क़तार से बिछड़ी हुई कूंज की तरह अपनी धुन में चली जा रही थी। उसकी पाज़ेब की झनकार आहिस्ता-आहिस्ता ख़ामोश हो गई। रहीमू चचा ने हुक़्क़े का एक पुरज़ोर कश लगाया।
उजागर रहीमू चचा की बातों में उलझ कर रह गया। लेकिन सन्तू अपनी तेल पिलाई हुई लोहे के मुट्ठे वाली लाठी उठाकर गाँव की तरफ़ चल पड़ा। डूबते हुए सूरज की आख़िरी किरनें मुट्ठे की हमवार सत्ह पर फैल गईं। दूर कहीं से गीत की आवाज़ आ रही थी…, “कोई ले गया भगत चुराके, बरहमे दियाँ दीदाँ नूँ...!” नग़्मे के ज़ेर-ओ-बम ने सन्तू को बे-क़रार कर दिया। एक लम्हे के लिए उसे दुनिया-भर की बे-इंसाफ़ी का राज़ मा'लूम हो गया।
ब्रह्मा के पास वेद ही नहीं रहे। न जाने कौन भगत उन्हें चुरा ले गया।
ऊपर आसमान पर रात का दूल्हा संजीदा नज़र आता था। गेहूँ के खेत चाँदनी में ऊँघ रहे थे। सरपंच के अल्फ़ाज़ सन्तू के ज़हन में सूइयों की तरह चुभने लगे... कोई साठ एक मन दाने होंगे। फ़स्ल में एक तिहाई हिस्सा दीवान का न होता तो वो किसी के मुँह से ये अल्फ़ाज़ सुन कर उसका मुरीद बन जाता और कहता, वाहेगुरु का प्रताप चाहिए, साठ के भी अस्सी मन दाने निकलेंगे। कुल साठ मन दाने... या'नी बीस मन दीवान के और मेरे पास रह जाएँगे कुल चालीस मन। उसके मुँह का मज़ा पल-भर में ना-ख़ुशगवार हो गया। जैसे उसकी ज़बान कच्चे पीलू को उगल कर बाहर फेंक देना चाहती हो।
वो कोई शाइ'र होता तो सरपंच की हिजो में एक लंबी नज़्म लिख डालता। जिसके एक-एक लफ़्ज़ में दुनिया-भर की नफ़रत पिरो देता और उस वक़्त सरपंच कहीं मिल जाता, तो लोहे की मुट्ठे वाली लाठी उसके सर पर इतने ज़ोर से बरसती कि वो देखते देखते ज़मीन पर गिर पड़ता। उसकी रगें मूँज की बोसीदा रस्सियों की तरह एक भरपूर हाथ का ज़ोर भी न सह सकतीं और वो दीवान का आदमी, जिसे हमेशा मूँछों पर ताव देने से काम रहता है, एक पिचके हुए लहसूड़े की तरह नज़र आता। एक ही वार के बा'द उसकी आँखें चाँद की तरफ़ उठ गईं, चाँद उसे घूर रहा था। जैसे कह रहा हो, यूँ नहीं बंद होने की ये बरसों से चली आने वाली बटाई, मूरख एक सरपंच को मार डालोगे, दूसरा कोई उसकी जगह खड़ा नज़र आएगा। दीवान को तो एक छोड़ बीस मुलाज़िम मिल सकते हैं।
वो चाहता था कि चिल्ला कर चाँद को बता दे कि जागी हुई बग़ावत अब सोएगी नहीं। वो चाहता था। कि कोई भूत उसके बस में आ जाए और रात गुज़रने से पहले पहले उसका इशारा समझ कर सबके सब खेत जला डाले। ये ठीक है कि किसान बर्बाद हो जाएँगे और मजबूरन अपनी मात्र भूमी को छोड़कर दूर किसी शहर की तरफ़ चल पड़ेंगे। मगर कम-अज़-कम इस चाट को प्यास बुझाने की नौबत न आएगी। खेतों में खड़ी हुई फ़स्लें जल कर राख हो जाने पर दीवान को भी नानी याद आ जाएगी। फिर किससे बटाई लेगा।
उसकी आँखें एक-बार फिर चाँद की तरफ़ उठ गईं। चाँद उसे घूर रहा था जैसे कह रहा हो, अरे कल के छोकरे तेरी अ'क़्ल को कोई भैंस तो नहीं चर गई? ये भी कोई तरीक़ा है दीवान से दुश्मनी मोल लेने का? तुम चले जाओगे तो और लोग आएँगे। यहाँ तो तुम्हारी ही तरह बैलों के साथ बैल बन कर खेती करेंगे और अपने गाढ़े पसीने की कमाई का एक तिहाई अपने दीवान को देते रहेंगे। अब ये बटाई बंद नहीं होने की। इस पर क़ानून की मुहर लग चुकी है।
उसके क़दम उठाए न उठते थे। दिमाग़ में च्यूँटियाँ सी रेंग रही थीं। जैसे ये अंदर ही अंदर जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्सों तक सुरंगें खोदने की फ़िक्र में सर-गर्दां हों। ये तज़बज़ुब उसके लिए एक नई चीज़ था। जैसे उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ये डुगडुगी की तरह मुसलसल हरकत कभी ख़त्म न होगी। चाँद पर एक सरकश बादल छा गया और अब ये एक अंधा लैम्प मा'लूम हो रहा था, तारों में भी एक मरी हुई रौशनी बाक़ी थी।
रास्ते के किनारे किनारे खड़े हुए दरख़्त बेहद भयानक और पुर-असरार नज़र आते थे।
अब वो वहाँ पहुँच गया था, जहाँ रास्ता नीचे को उतरता था। लोग कहते थे कि किसी ज़माने में यहाँ से एक दरिया गुज़रता था। उसने सोचा कि दरिया भी रास्ता बदल लेते हैं। मगर हमने इंसान हो कर पुराने रास्तों से लौ लगा रखी है। दूर कहीं से बैलों के गले की घंटियों की आवाज़ आ रही थी, जिसे राहगीरों की ख़ुश-गप्पियाँ बीच बीच में चीर जाती थीं। दरिया का ख़ुश्क पाट ख़त्म होने पर रास्ता ऊपर को चढ़ने लगा।
जूँही वो ऊँची सत्ह पर पहुँचा उसके दिमाग़ में एक गीत के सुर घूमने लगे। जिसमें गेहूँ से ये इल्तिजा की गई थी कि वो अब के महंगे भाव बिक कर दिखाए। गेहूँ का भाव भी बदलता रहता है। इंसान को भी बदलना चाहिए वक़्त के साथ-साथ। अब किसानों को चाहिए कि सर जोड़ कर बैठें और अपने भले की कोई राह निकालें, बटाई बंद करा दें।
घर पहुंचते ही वो खा-पी कर खुरदरी खाट पर लेट गया। वो चुप-चाप पड़ा रहा। बटाई के ख़िलाफ़ शोर मचाने का ख़याल उसके ज़हन में ज़ोर पकड़ता गया। किसान आख़िर किसान हैं। निरे रेशम के कीड़े नहीं हैं जो धीरे-धीरे अपने को सुनहरी कोयों में लपेटते चले जाते हैं और अपने गिर्द शहतूत के सब्ज़ पत्ते देखकर समझते हैं कि उनका नन्हा सा स्वर्ग हमेशा के लिए आबाद रहेगा। जब तक ये बटाई क़ाएम है। हमारा गाँव सुख की साँस नहीं ले सकता। कोई साठ एक मन दाने होंगे। या'नी बीस मन दीवान के पर ये कैसे हो सकता है? सौगन्द है मुझे बाबा टहल सिंह की अगर गेहूँ का एक भी दाना किसी के खेत से भी दीवान के घर जाने दूँ।
गाँव की तारीख़, जो वो चचा रहीमू से मज़े ले-ले कर सुना करता था, उसके ज़हन में मंडलाने लगी। पुराने वक़्तों में जब रियासत की बुनियाद भी न रखी गई थी, उसके गिर्द-ओ-नवाह में बड़ी बद-अमली फैली हुई थी। कहीं न कहीं से डाकू आ निकलते और लोगों को लूट कर चलते बनते, फिर एक घुड़सवार बहादुरों का एक गिरोह आया। ये सब एक ही कुन्बे के आदमी थे। उन्होंने लोगों से कहा कि वो उनकी हिफ़ाज़त के लिए यहीं रहा करेंगे। लोगों ने उन्हें ब-खु़शी अपनी अपनी फ़स्ल का एक चौथाई हिस्सा ब-तौर शुक्रगुज़ारी देना शुरू' कर दिया। इस अस्ना में रियासत की बुनियाद रखी जा चुकी थी और इसकी हुदूद दूर-दूर तक फैल गई थीं। मगर हमारे गाँव पर रियासत का क़ब्ज़ा न हुआ। घुड़सवार बहादुरों ने यहाँ अपनी छोटी सी ख़ुद-मुख़्तार हुकूमत क़ाएम कर रखी थी। फिर जब सिखों का राज ख़त्म हो गया और हमारा गाँव अमलदारी में आ गया। तो सरकार ने अपने बंद-ओ-बस्त में बटाई मंसूख़ कर दी और उसकी बजाए दीवान के लिए नक़द रक़म की सूरत में लगान मुक़र्रर कर दिया। बाद-अज़ाँ ये गाँव रियासत को दे दिया गया।
दीवान चाहता था कि महाराज अपने ख़ास हुक्म से नक़द लगान की बजाए फिर से बटाई राइज कर दें। लेकिन महाराज ने कहा, “मैं ज़बरदस्ती न करूँगा। अगर ख़ुद किसानों को रज़ामंद कर लो तो मैं मंज़ूरी दे सकता हूँ।”
दीवान ने हमारे बाप-दादाओं को नशा पिला कर अपने काग़ज़ पर उनके अंगूठे लगवा लिए, महाराज ने भी मंज़ूरी दे दी। दीवान ने सर-कर्दा कुनबों को अपनी तरफ़ से रिश्वत दे रखी थी वो कुछ न बोल सकते थे। फिर बटाई शुरू' हो गई। एक चौथाई के बजाए एक तिहाई। चचा रहीमू का ख़याल था कि ये सब ख़ुदा की बातें हैं। उसी के हुक्म से पुराने राज जाते हैं। उसके हुक्म के बग़ैर तो पत्ता तक नहीं हिल सकता। आदमी को चाहिए कि चुप-चाप उसका हुक्म मानता चला जाए। कोई बाग़ी ख़ुदा की लाठी से बच नहीं सकता। बटाई नहीं टूटने की। राजा का हुक्म उसके साथ है, ख़ुदा का हुक्म भी उसके साथ है।
लेकिन यहाँ पहुँच कर सन्तू का अंदाज़-ए-फ़िक्र चचा रहीमू का साथ न दे सकता था। वो सोचता था कि ये सिर्फ़ उनके अजदाद की मस्लेहत-पसंदी की एक दलील है कि उन्होंने हालात के मातहत डाक़ुओं से बचने के लिए चंद बहादुर घुड़सवारों को अपना सरपरस्त मंज़ूर कर लिया और अब तक हम उनके ख़ानदान को बटाई दे रहे हैं।
अब अगर महाराज एक तिहाई की बजाए एक चौथाई बटाई का हुक्म दें तो भी हमारी तसल्ली नहीं हो सकती। हम चाहते हैं हमारी गर्दनों पर ज़ुल्म की इस तलवार का चलना हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाएगी। हमें न नक़द लगान देना मंज़ूर है न ये बटाई... ये सुसरी बटाई।
अंगड़ाई लेकर उसने करवट बदल ली और सोच में डूब गया। अपने ज़हन में उसे वो थरथर काँपता हुआ बकरा साफ़ नज़र आ रहा था, जिसने दो किसानों को इस बात पर उलझते देखकर कि बकरे को ज़ब्ह करने का अस्ल तरीक़ा झटका है या हलाल, तड़प कर कहा था... काश कोई मेरी राय भी पूछे...
उसे याद आया कि शहर से आने वाले उस बाबू ने एक-बार उसे बताया था कि शुरू' तारीख़ से हमेशा से सरकार का ये वतीरा रहा है कि किसानों को उतनी ही रोटी मिले जिससे वो ज़िंदा रह सकें और अपना काम करते चले जाएँ। यही कोशिश रही है कि किसान को दबा कर रखा जाए। ज़रा कोई किसान ज़ोर पकड़ने लगा कि एक बहुत ज़बरदस्त ता’ना गाँव की फ़िज़ा में गूँज उठा।
“भुक्खो जुट कटोरा लुभा पानी पी पी आफरिया।”
या'नी कमज़ोर किसान को कटोरी मिल गई और वो पानी पी-पी कर अफर गया। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। रूस में किसान मज़दूर का राज क़ाएम हो चुका है। वो सोचने लगा कि किसान मज़दूर का राज यहाँ क़ाएम होना चाहिए, बटाई ज़रूर मिट कर रहेगी... ये सुसरी बटाई।
ऊपर आसमान पर ठीक उसकी खाट के ऊपर, कहकशाँ ने पके हुए खेत का रूप धार रखा था। वहाँ कौन खेती करता है। वो सोचने लगा, उसकी कन-कूत कौन करता है? बटाई कौन लेता है।
गेहूँ की कटाई ज़ोरों पर थी। हँसिए कहते थे हमारे दाँत तेज़ हैं। हमारे दाँत हमेशा तेज़ रहेंगे। लोक-गीतों की शे’रियत की तरह धरती की आबरू उजागर हो उठी थी। किसान सोचते कि बटाई के दाने देकर भी उनके घरों में इतना अनाज पहुँचेगा कि वो पुराने कर्ज़ों से सुबुक-दोश हो जाएँगे। चार दिन ज़िंदगी को गिद्धा नाच के ताल पर थिरकते पाएँगे।
खलियान ही खलियान। मिट्टी कितना सोना उगलती आई थी। किसान ख़ुश थे। उनके क़हक़हे धरती की ज़िंदा शक्ति के तर्जुमान थे। कूजों की आख़िरी क़तारें जो दूर हिमाला के उस पार अपनी मातृभूमि को लौट रही थीं। किसानों का ध्यान खींच लेतीं।
चचा रहीमू ने उजागर का कंधा झँझोड़कर कहा,
“कनकें, कूजें मेंहा, जे रहन बैसाखें”
शुरू' दुनिया से गेहूँ ठीक मौसम में पकता आया है और हिमाला पार की कूजें मैदानों में जाड़े के दिन गुज़ार कर गर्मियाँ शुरू' होते ही अपने वतन के लंबे सफ़र पर तैयार होती आती हैं। अगर गेहूँ वक़्त पर न पके और कूजें बैसाख शुरू' होते ही अपने सफ़र की तैयारी से चूक जाएँ, तो ये दोनों के लिए ताने की बात होगी।
उजागर बोला, “आदमी होने की बजाए हम भी हिमाला पार के पंछी होते, तो न कोई हमारे खेतों की कन-कूत करता। न हमें बटाई की मुसीबत झेलनी पड़ती।”
चचा रहीमू हुक़्क़े के लंबे लंबे कश लगाता रहा। वो उजागर की बात पर हँस दिया। “नाशुक्रा... ख़ुदा का शुक्र नहीं करता। इतनी अच्छी फ़स्ल में से दीवान को थोड़ा अनाज देते हुए मौत तो नहीं आ जाएगी। ख़ुदा तो सब का राज़िक़ है। वो दीवान का भी राज़िक़ है।”
उस वक़्त सन्तू वहाँ आ निकला और बोला, “लो चचा रहीमू पंचायत में आज ये तय हो गया है कि बटाई नहीं दी जाएगी।”
चचा रहीमू ने हँसकर कहा, “सबसे बड़े ना-शुकरे तो तुम हो। बटाई लेने वाला अपनी बटाई कैसे छोड़ देगा? छोकरों की पंचायत की इस वक़्त कोई पेश न जाएगी। जब पुलिस के सिपाही तुम्हें पकड़ ले जाएँगे।
“पंचायत निरे छोकरों की थोड़ी है चचा रहीमू। तुम न शामिल हुए तो पंचायत कैसे रुक जाती? गाँव के दूसरे बुड्ढे तो शामिल थे। अब पुलिस का डर भी पंचायत के फ़ैसले को रोक नहीं सकता और मैं देखूँगा कि चचा रहीमू कब तक पंचायत से बाहर रह सकता है?”
चचा रहीमू ने अपने फेफड़ों की पूरी ताक़त से हुक्के का कश लगाया। पहले वो चुप रहा। सन्तू को अपने इरादे पर अटल देखकर उसने झट अपनी बात को पलटते हुए कहा, “मैं अकेला कैसे अलग रह सकता हूँ। उजागर भी तो तुम्हारा साथी मा'लूम होता है। तुम्हारे साथ मैं भी प्याज़ और जूते खाने को तैयार हूँ।”
पंचायत का हुक्म था कि कोई बटाई न दे। सब गेहूँ खलियानों ही में पड़ा रहे। पुलिस आएगी और ज़बरदस्ती बटाई के दाने दिलाने की कोशिश करेगी। हो सकता है कि दीवान हमारे कुछ लोगों को रिश्वत देकर अपनी तरफ़ करने की कोशिश करे। लेकिन बाबा टहल सिंह की समाधी पर किया फ़ैसला सारे गाँव को मंज़ूर था।
वाज़ेह तौर पर पंचायत ने लोगों की इस जद्द-ओ-जहद के मुख़्तलिफ़ पहलू समझा दिए थे। कोई पर्वा नहीं अगर उनके खलियान लहू से लाल हो जाएँ। बटाई से ज़रूर ख़लासी मिल जाएगी।
नंबरदार ने बहुत कोशिश की कि चचा रहीमू पंचायत में शामिल होने से इंकार कर दे। दीवान की तरफ़-दारी करने पर उसे बहुत कुछ मिल सकता था। लेकिन उसने किसी तरह की रिश्वत लेने से इंकार कर दिया और कहा, “पंचायत का फ़ैसला अल्लाह पाक का फ़ैसला है। हम बुज़ुर्गों से सुनते चले आए हैं कि आवाज़-ए-ख़ल्क़ को अल्लाह पाक का नक़्क़ारा समझो।”
खलियानों में हमेशा एक ही गीत गूँजता रहता,
“देना नहीं कनक दा दाना
बच्चा बच्चा क़ैद हो जाए!”
हम गेहूँ का एक भी दाना न देंगे, भले ही बच्चा-बच्चा क़ैद हो जाए।
मर्दों से कहीं ज़ियादा जोश औ'रतों में नज़र आ रहा था। औ'रतों का जुलूस माई अमृती के कुँए से शुरू' होता और सीधा दीवान के दरवाज़े पर जा पहुँचता। इस जुलूस में हर उ'म्र की औ'रतें और लड़कियाँ शामिल होतीं।
“देना नहीं कनक दा दाना,
बच्चा बच्चा कैद हो जाए।”
ये गीत फ़िज़ा में गूँज उठता। बटाई के ख़िलाफ़ तरह तरह के ना'रे लगाए जाते। पहले दीवान ने उसे चंद रोज़ का तमाशा समझ कर बे-तवज्जोही दिखाई। लेकिन औ'रतों के जोश में किसी तरह की कमी का इमकान नज़र न आता था। अब तो औ'रतें दीवान के दरवाज़े पर छातियाँ पीटने का मुज़ाहिरा शुरू' कर देतीं। हाय-हाय के ना'रे उस एहितजाजी मातम की जान मा'लूम होते थे।
दीवान हैरान था, पुलिस हैरान थी। ऊपर से हुक्म आए बग़ैर औ'रतों पर किसी तरह की सख़्ती न की जा सकती थी।
रात को दो-दो तीन तीन फ़र्लांग से मघ्घर के ना'रे सुनाई देते। जिनसे वो गाँव के लोगों को बटाई के ख़िलाफ़ डटे रहने के लिए बराबर उकसाता रहता। दस साल कलकत्ते में रह कर वो अगले ही महीने गाँव में आया था। मुँह पर ग्रामोफोन का भोंपू लगा कर वो अपनी आवाज़ को दूर-दूर तक पहुँचा देता। औ'रतें सोचतीं कि ज़रूर उसने भूत बस में कर रखे हैं और वो अपना नया गीत इजतिमाई लय में गातीं।
जो कुछ इस तरह शुरू' होता कि घर-घर बेटों का जन्म होता है। मगर मघ्घर जैसा बहादुर कभी-कभार ही पैदा होता है। पुलिस भी साँप की तरह फन मार के रह जाती। मघ्घर को पकड़ना आसान न था।
खलियानों को औ'रतों की निगरानी में छोड़कर, सब किसान एक दिन बाबा टहल सिंह की समाधी पर इकट्ठे हुए। पुलिस के सिपाही मौक़े पर मौजूद थे। घुड़सवार सिपाहियों का एक दस्ता जो हाल ही में रियासत की राजधानी से चल कर यहाँ आया था। हर तरह की सख़्ती पर आमादा नज़र आता था। चचा रहीमू ने क़हर-आलूद निगाहों से घुड़सवारों की तरफ़ देखा और अपनी जगह पर खड़े हो कर कहना शुरू' किया, “जब मैं बच्चा था तो हमेशा अपनी बहन से कहा करता था कि अपनी कोहनी या नाफ़ को ज़बान से छूने में कामयाब हो जाओ तो तुम लड़की से लड़का बन सकती हो। वो लाख कोशिश करती पर नाकाम रहती। सिया'नी होने पर वो ब्याही गई, तीन बच्चों की माँ बनी, बड़ी नेक औ'रत थी। मेरा मज़ाक़ हमेशा क़ाएम रहा... क्यों बहन औ'रत से मर्द बनोगी? वो घूर कर मेरी तरफ़ देखती... और अब इस गाँव की औ'रतों ने साबित कर दिखाया है कि वो किसी तरह भी अपने मर्दों से पीछे नहीं। मर्दों को चाहिए कि पंचायत की आवाज़ सुन लें और जो फ़ैसला एक-बार वो कर चुके हैं उसके लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहें।”
इसके बा'द उजागर ने हाथ जोड़ कर सारी पंचायत की फ़त्ह बुलाई…, “बोलो जी गरज कर श्री वाहेगुरु साध संगत जी मैंने सुना है कि पहले वक़्तों में हर किसी की नाफ़ पर गोश्त की एक ढकनी सी लगी रहती थी, जिसे उठा कर जब भी कोई चाहता ये देख सकता था कि उसने उस दिन क्या खाया है? एक-बार एक लड़की अपने ख़ाविंद के साथ मैके में आई। उसने अपने ख़ाविंद को अच्छी अच्छी चीज़ें खिलाईं और उसे ख़ुद सिर्फ़ रोटी और साग ही मिला। ख़ाविंद ने पूछा तुमने क्या खाया बोली वही जो तुमने खाया। जब वो सो गई ख़ाविंद ने उसकी नाफ़ पर से ढकनी उठाकर देख लिया और सब बात समझ गया। लड़की को मा'लूम हुआ तो उसने दुआ' माँगी, हे सच्चे वाहेगुरु नाफ़ पर की ढकनी को अब हर मर्द और औ'रत के जिस्म के साथ ही जोड़ दो ताकि कोई किसी के भोजन के राज़ से वाक़िफ़ न हो सके और ऐसा ही हो गया। नाफ़ पर की ढकनी को जिस्म के साथ जोड़कर वाहेगुरु ने क्या अच्छा किया।
मैं नहीं समझता। काश वाहेगुरु इस ढकनी को फिर से पहली सूरत दे दे। ताकि हमारे हाकिम हमारे भोजन के राज़ से वाक़िफ़ हो जाया करें। सच तो ये है कि बहुतों को रोटी और साग भी नसीब नहीं होता। हालाँकि हमारे गाढ़े पसीने की कमाई कुछ इतनी कम भी नहीं। एक तिहाई दाने बटाई के निकल जाते हैं। नहर का लगान अलग। शाहूकार का ब्याज अलग। साध-संगत जी अब बटाई बंद कराने का वक़्त आ पहुँचा है।”
इतने में दूर कहीं से मघ्घर का बिगुल बनकार उठा... बटाई के दिन बीत गए। ज़मीन हमारी है। दीवान की महर ख़त्म... अल्लाहू-अकबर... गरज कर बोलो जी... बटाई के दिन।”
जिधर से आवाज़ आ रही थी, उधर ही को सब घुड़सवार सिपाही भाग निकले। उनके पीछे-पीछे पैदल सिपाही लाठियाँ उठाए भागे जाते थे।
फिर एक दिन रियासत की राजधानी से ठाकुर साहिब बाग़ी किसानों से बातचीत करने के लिए चले आए। थाने की बग़ल में सब्ज़-रंग के शाही खे़मे के सामने सब किसान हाज़िर हो जाएँ। बच्चे, बूढ़े और जवान सभी। खलियानों पर एक-एक मर्द या औ'रत रह जाए। रात को गाँव में और खलियानों में ये ढिंडोरा पिटवा दिया गया।
औ'रतें और मर्द एक जुलूस की शक्ल में चले आ रहे थे। खे़मे के सामने बहुत सी सब्ज़ दरियाँ बिछा दी गई थीं। एक तरफ़ औ'रतें बैठ गईं। दूसरी तरफ़ मर्द, ठाकुर साहिब की जय का ना'रा गूँज उठा। पेशतर उसके कि वो महाराज के रू-ब-रू पहुँच कर फ़रियाद करते महाराज ने अपना वज़ीर उनका इंसाफ़ करने को भेज दिया था।
रियासती रिवायत के मुताबिक़ सब्ज़ खे़मे पर सब्ज़ झंडा लहरा रहा था। घुड़सवार पुलिस ने भी आज अपने ख़ाकी लिबास पर सब्ज़ फुंदने लगा रखे थे।
कुर्सियों पर बीच में ठाकुर साहिब बैठे थे। दाएँ तरफ़ थानेदार और बाएँ तरफ़ गाँव के जागीरदार। दीवान साहिब और ठाकुर साहिब का इशारा समझ कर थानेदार ने खड़े हो कर कहा, “जो जिसकी शिकायत हो बयान कर सकता है।”
दीवान साहिब ने खड़े हो कर बड़े अदब से ठाकुर साहिब की तरफ़ देखा और फिर किसानों की तरफ़ देखा और फिर पुर-शिकायत लहजे में कहा, “मेरे किसान मेरी बटाई देने से इंकार कर रहे हैं हुज़ूर!”
किसानों को चुप देख थानेदार ने कहा, “क्या तुम लोग भी कुछ कहना चाहते हो?”
चचा रहीमू जिसे सब लोगों ने अपना सरपंच तस्लीम कर लिया था खड़ा हो गया।और उसने बुलंद आवाज़ से ना'रा लगाया। जवाब में सब किसान यक-ज़बान हो कर बोले... “अल्लाहू-अकबर”
चचा रहीमू के चेहरे पर ख़ुशी की लहरें मचल रही थीं। जैसे वो किसी छोटे से देस का हुक्मरान हो और ज़रूरत आन पड़ने पर अपने पड़ोसी हुक्मरान के साथ मुआहिदा करने के लिए चल कर आया हो। बोला, “हम बटाई नहीं देंगे!”
“कोई वज्ह भी हो आख़िर?”, ठाकुर साहिब ने बज़ाहिर ख़ुलूस से पूछा।
“ये पंचायत की आवाज़ है।”
“पंचायत की आवाज़? मगर रियासती महर की आवाज़ भी तो कोई चीज़ है।”
चचा रहीमू ने मुस्कुरा कर ठाकुर साहिब की तरफ़ देखा। फिर उसकी निगाहें अपने पीछे बैठे हुए किसानों की तरफ़ उठ गईं। पहले औ'रतों ने और फिर मर्दों ने वो ना'रे लगाए जो उन्होंने पहले-पहल मघ्घर की ज़बान से सुने थे और जो शुरू' शुरू' में उनकी समझ में न आते थे... पंचायत की आवाज़, खेतों की आवाज़... पंचायत की आवाज़, गेहूँ की आवाज़।
दीवान के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।
ठाकुर साहिब ने हालात पर क़ाबू पाते हुए कहा, “बटाई तोड़ सकना मेरी ताक़त से बाहर है। इसके लिए तुम लोगों को महाराज से अर्ज़ करना होगी।”
चचा रहीमू बोला “तो हमारी आवाज़ उन तक पहुँचा दी जाए।”
“बटाई महाराज भी न तोड़ेंगे... मैं कहता हूँ बटाई ज़रूर दे दी जाए। क़ानून यही कहता है... हाँ एक बात हो सकती है और वो भी फ़रीक़ैन की रजामंदी से दीवान साहिब हाज़िर हैं। मैं इतना कर सकता हूँ कि बटाई घटाकर एक तिहाई की बजाए एक चौथाई ठहरा दी जाए!”
चचा रहीमू बोला, “पंचायत की आवाज़ है बटाई मत दो। बटाई के दिन बीत गए। एक चौथाई ही तो थी पहले ये बटाई, फिर न जाने कौन सा नशा पिलाकर हमारे बाप दादा से एक तिहाई बटाई पर अंगूठे लगवा लिए गए थे। अब हम जाग चुके हैं।”
उजागर ने ना'रा लगाया, “गरज कर बोलो जय श्री वाहेगुरु।”
सब किसान यक-ज़बान हो कर बोले। “श्री वाहेगुरु।”
चचा रहीमू एक ज़िंदा बुत की तरह ख़ामोश खड़ा था। पीछे से संतू ने ना'रा लगाया…, “पंचायत की आवाज़ सब किसान यक ज़बान हो कर बोले गेहूँ की आवाज़।”
ठाकुर साहिब के चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ने लगीं। लेकिन झट से सँभलते हुए वो बोले, “एक सुनहरी मौक़ा' गँवाया जा रहा है। ऐसे मौके़ रोज़ रोज़ नहीं आया करते। बटाई महाराज भी नहीं तोड़ सकेंगे। रियासत की महर यही कहती है। दीवान साहिब की जिद्दी जायदाद का भी यही तक़ाज़ा है। फिर शायद एक तिहाई से एक चौथाई की सत्ह पर हरगिज़-हरगिज़ न उतर सके ये बटाई।”
“एक चौथाई...? हम बटाई नहीं दे सकते।”
घुड़सवार पुलिस के घोड़े तैयार नज़र आते थे। मा'लूम होता था वो अभी चचा रहीमू को अपने क़दमों के नीचे कुचल कर रख देंगे। सिपाहियों के चेहरे और भी ख़ूँख़ार हो उठे थे।
ठाकुर साहिब ने एक-बार फिर बड़े इत्मीनान से कहना शुरू' किया, “अच्छा में आख़िरी बात कहे देता हूँ और वो भी दीवान साहिब को पूछे बग़ैर ही... फ़स्ल का पाँचवाँ हिस्सा बटाई मंज़ूर है सबको? और तुम कहोगे तो कन-कूत का तरीक़ा भी तर्क कर दिया जाएगा। कटाई हो चुकने पर जिन्स को तौल कर पाँचवें हिस्से के दाने दीवान साहिब को दे दिए जाया करेंगे।
चचा रहीमू चुप खड़ा था। प्याज़ और जूते खाने का डर जैसे उसे छू तक न गया हो।
दीवान साहिब ने आदाब बजाकर कहा, “ठाकुर साहिब आपके इंसाफ़ के सामने मेरा सर हमेशा झुका रहेगा।”
मौक़ा पाकर संतू ने फिर ना'रा लगाया…, “पंचायत की आवाज़!”
सब किसान यक-ज़बान हो कर बोले…, “गेहूँ की आवाज़!”
उजागर ने ना'रा लगाया…, “बटाई के दिन...”
सब किसान यक-ज़बान हो कर बोले…, “ख़त्म हो गए!”
चचा रहीमू ने कहा, “मैं अकेला कुछ नहीं कह सकता। मैं पंचायत से पूछ देखूँ। दोपहर तक हमारा फ़ैसला आपको पहुँच जाएगा।”
सब किसान जुलूस की शक्ल में जा रहे थे। उनका गीत फ़िज़ा में गूँज उठा...
“देना नहीं कनक दा दाना,
बच्चा बच्चा कैद हो जाए”
बाबा टहल सिंह की समाधी पर पंचायत अपने आख़िरी फ़ैसले पर ग़ौर कर रही थी। संतू का ख़याल था कि अभी पाँचवाँ हिस्सा बटाई मंज़ूर कर ली जाए। मगर चचा रहीमू ने बड़े जोशीले अंदाज़ में जनता के रू-ब-रू अपने ख़यालात पेश कर दिए और कहा, “आओ हम आज हमेशा के लिए बटाई से आज़ाद हो जाएँ।”
सब लोग चचा रहीमू के साथ थे। सन्तू ने ना'रा लगाया…, “पंचायत की आवाज़! चचा रहीमू की आवाज़!”
उजागर झट पंचायत का फ़ैसला ठाकुर साहिब के खे़मे में पहुँचा आया। सब का यही ख़याल था कि आज ठाकुर साहिब महाराज का आख़िरी हुक्म सुना देंगे और हमेशा के लिए अपने किसानों को बटाई के जूए से आज़ाद कर देंगे। दीवान साहिब को रियासत के खज़ाने से पैंशन जा सकती थी। लेकिन दोपहर ढलने से पेशतर ही पता चल गया कि ठाकुर साहिब पुलिस समेत खलियानों की तरफ़ आ रहे हैं। ताकि ज़बरदस्ती बटाई के दाने दीवान साहिब को दिला दें। चचा रहीमू ने हुक्म दिया कि सब औ'रतें तैयार रहें। जिस-जिस खलियान में पुलिस के सिपाही ये ज़बरदस्ती शुरू' करने वाले हों उसी के गिर्द घेरा डाल कर, धरना मार कर मुक़ाबला करें। नौजवानों की एक टोली को ये हिदायत कर दी गई थी कि वो पानी पिलाने का फ़र्ज़ अदा करें।
घुड़सवार पुलिस को दीवान साहिब के दरवाज़े पर पहरा देने का हुक्म मिला। क्योंकि ये डर पैदा हो गया था कि कहीं बे-क़ाबू हुजूम किसी तरह की ज़्यादती पर न उतर आए।
पैदल पुलिस समेत थानेदार और दीवान साहिब बाबा टहल सिंह की समाधी के क़रीब एक खलियान में पहुँचे। लेकिन औ'रतें उसके गर्द घेरा डाले बैठी थीं। कि बटाई के दाने तुलवाने की कोई सूरत नज़र ना आती थी। थोड़ी देर में ठाकुर साहिब की कार भी पहुँच गई।
“मेरी माओं बेटियो, एक तरफ़ हट जाओ, सिपाहियों को सरकारी काम करने दो।”, ठाकुर साहिब ने ब-ज़ाहिर ख़ुलूस से कहा।
औ'रतें अपने धरने पर ब-ज़िद थीं। ठाकुर साहिब ने एक-बार फिर अपना हुक्म दुहराया। तीसरी बार गर्म हो कर उन्होंने अपना हुक्म दिया,
“यूँ नहीं मानतीं तो हटा दो इनको बाज़ुओं से पकड़ कर।”
सिपाही अभी आगे बढ़ने ही वाले थे कि पानी पिलाने वाले नौजवानों को जोश आ गया। उनमें सन्तू भी शामिल था। इन नौजवानों ने सिपाहियों की लाठियाँ छीन लीं और सन्तू का इशारा समझ कर बुरी तरह उन सिपाहियों पर टूट पड़े। ख़ुद सन्तू ने अपनी तेल पिलाई हुई लोहे की मट्ठे वाली लाठी, जो उसने खलियान में छिपा रखी थी, उठा कर ताबड़-तोड़ इतने वार किए कि खलियान की ख़ुश्क ज़मीन पर लहू के छींटे नुमायाँ हो उठे। पेशतर इसके कि ठाकुर साहिब को गोली चलाने की ज़रूरत महसूस होती, दीवान साहिब ने हवा में अपनी बंदूक़ चला दी। सब नौजवान भाग गए। सन्तू ज़रा देर से भागा। लेकिन ऐसा भागा, कि दो फ़र्लांग तक घुड़सवार थानेदार भी उसे पकड़ न सका।
औ'रतें बिल्कुल न घबराईं। अपने धरने पर डट कर खड़ी रहीं। चचा रहीमू का हुक्म उनके लिए सबसे बड़ा हुक्म बन चुका था। लेकिन उनके देखते-देखते चचा रहीमू को गिरफ़्तार कर लिया गया। बीवियों के ख़ाविंद, बहनों के भाई, बेटियों के बाप और माओं के बेटे सब गिरफ़्तार कर लिए गए। सन्तू को भी हथकड़ी पहनाई जा चुकी थी। लेकिन औ'रतें बिल्कुल न घबराईं।
ठाकुर साहिब ने हुक्म दिया। कि सन्तू के पाँव में पूरे मन भर लोहे की बेड़ी डाली जाए। दो सिपाही भागे-भागे थाने से वो भयानक बेड़ी ले आए। औ'रतों के रू-ब-रू सन्तू के पाँव में वो बेड़ी डाल दी गई। वो ज़रा न घबराया।
“पंचायत की आवाज़, गेहूँ की आवाज़।”, उसने बुलंद आवाज़ से ना'रा लगाया। उससे बहुत पूछा गया, कि वो बाक़ी पानी पिलाने वाले नौजवानों के नाम बता दे। लेकिन उसने साफ़ इंकार कर दिया। वो नौजवान न जाने कहाँ जा छिपे थे।
“बदमाश की पीठ नंगी करके ख़ूब कोड़े लगाओ, जब मानेगा!”, ठाकुर साहिब ने सन्तू की तरफ़ ख़ूनी आँखों से देखते हुए कहा।
सन्तू की पीठ धोबी का तख़्ता बन चुकी थी। जगह-ब-जगह उस पर नील पड़ चुके थे। लेकिन वो बराबर कहे जा रहा था…, “बटाई के दिन बीत गए!”
एक तरफ़ हथकड़ियों में जकड़े हुए धरती के बेटे खड़े थे। जिनकी आँखों में बग़ावत की आग भड़क रही थी। दूसरी तरफ़ खलियान के गिर्द धरती की बेटियों ने धरना मार रखा था। उन्हें अपनी जगह से हटना मंज़ूर न था। चचा रहीमू अब क़ैदी बन चुका था। लेकिन उसका हुक्म अब भी पंचायत का हुक्म था और उन्हें यक़ीन था कि बटाई के दिन कभी के बीत चुके हैं।
“तूने क्या खाकर जना था सन्तू को, निहालो?”, पीली शलवार क़मीस वाली एक औ'रत पूछ रही थी।
सन्तू की मंगेतर अपने होने वाले दूल्हे की तरफ़ चोर निगाहों से देख रही थी। ख़ुद थानेदार और ठाकुर साहिब अपने हाथों से सन्तू के बाल नोच रहे थे। दीवान साहिब चुलाव रहे थे, “यही हरामी सारी बग़ावत का बानी-मबानी है। हम इसे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे।”
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