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बेहद मामूली

हयातुल्लाह अंसारी

बेहद मामूली

हयातुल्लाह अंसारी

MORE BYहयातुल्लाह अंसारी

    स्टोरीलाइन

    नस्ली बरतरी पर यक़ीन करने वाले एक ऐसे शख़्स की कहानी, जिसकी बीवी एक भिखारन के बच्चों को पालने के लिए घर ले आती है। प्रोफ़ेसर दारा मिर्ज़ा का यक़ीन है कि अज़ीम शख़्सियतें सिर्फ़ बरतर नस्लों में ही पैदा होती हैं। वहीं उनकी बीवी का मानना है कि किसी की महानता या कामयाबी का सिरा उसकी नस्ल में नहीं, परवरिश में होती है।

    प्रोफ़ेसर दारा मिर्ज़ा ने पूरी ताक़त से ब्रेक दबाया और चिल्ला कर कहा,

    पगली कहीं की।

    ब्रेक लगने से प्रोफ़ेसर मंज़ूर को जो दारा के पास बैठे हुए थे सख़्त धक्का लगा और उनका सर स्क्रीन से टक्करा गया। साथ साथ उनके मुँह से निकला,

    क्या मर गई कमबख़्त?

    एक तरफ़ से दारा और दूसरी तरफ़ से प्रोफ़ेसर मंज़ूर मोटर से कूद कर निकले, और भाग कर सड़क पर पड़ी हुई फ़क़ीरन को देखने लगे, उसी वक़्त इधर उधर के दो मोटरों के लोग भी गए। राहगीरों की भीड़ इकट्ठी हो गई। फ़क़ीरनी के सर, होंटों और उंगलियों से ख़ून बह रहा था और बह कर एक पोटली को जो उसकी बग़ल में थी भिगो रहा था।

    एक मोटर वाले साहिब ने प्रोफ़ेसर दारा को पहचान कर कहा,

    जो हुआ उसका मुझे बहुत अफ़सोस है, लेकिन ग़लती आपकी नहीं थी प्रोफ़ेसर साहिब, दूसरा मोटर वाला बोला। मैं देख रहा था कि आपने उसे बचाने की हर मुमकिन कोशिश की लेकिन देखिए, क्या वो मर गई?

    प्रोफ़ेसर दारा ने फ़क़ीरनी के नब्ज़ पर उंगली रखकर कहा,

    अभी तो जान है, इसको हस्पताल ले चलना होगा। प्रोफ़ेसर दारा ने फ़क़ीरनी को उसके ज़ख़्मों का ख़याल कर के सँभाला।

    मंज़ूर ने दारा को फ़क़ीरनी के उठाने में मदद दी लेकिन जैसे ही उसको उठाया, उसकी पोटली एक तरफ़ को लुढ़क गई और उसके अंदर का आख़ूर निकल पड़ा।

    जो ज़ोर ज़ोर से रोने लगा।

    फ़क़ीरनी को मोटर में डालने के बाद दारा और मंज़ूर दोनों ने इस रोती हुई चीज़ को देखा। वो एक बेहद गंदा बच्चा था जो सिर्फ़ हड्डी और चमड़े से बना हुआ मालूम होता था। पसलियाँ इस तरह उसकी इधर उधर निकल रही थीं जैसे कपड़े के थैले में लकड़ियाँ ठूंस दी गई हों। सर पर मैल और गंज की पपड़ीयाँ जमी हुई थीं। नाक, आँख, और मुँह से गंदगी बह रही थी और पेशाब और पाख़ाना में वो लिथड़ा हुआ था। दारा को ज़ख़्मी औरत को देखकर ज़रा सी घिन आई थी लेकिन उस आख़ूर को देखकर उसका जी मतलाने लगा।

    मंज़ूर, ये अभी अभी रोया है। ऐसा मालूम होता है कि चोट से बेहोश हो गया था।

    दारा, ये एक नई ज़िम्मेदारी आन पड़ी।

    मंज़ूर, बच्चे को भी ले चलना होगा।

    दारा, हाँ, हाँ। मैं उठाता हूँ इसको भी।

    दारा का जी चाहा कि कह दूँ कि अस्पताल से भंगी भेज कर मंगवा लूंगा लेकिन अपनी हमाक़त का एहसास कर के उसने अपनी ज़बान रोक ली।

    प्रोफ़ेसर दारा मिर्ज़ा ने नस्ली ख़सुसियात की तहक़ीक़ात पर काफ़ी ज़िंदगी सर्फ़ की थी, आजकल वो इस फ़न के माहिरों में गिने जाते थे। उनका ख़याल था कि मामूली घराने सिर्फ़ मामूली ही बच्चे पैदा कर सकते हैं। जब वो देहात से गुज़रते और वहां के नंगे मैले बच्चों की फ़ौज को देखते तो कहते कि इन लोगों के पास सिर्फ़ हाथ पांव हैं, दिमाग़ नहीं है। फिर अफ़सोस के साथ कहते कि जमहूरिया हिन्दोस्तान को दिमाग़ों की ज़रूरत है और वही बहुत कम हैं। इस वक़्त एक बेहद मामूली बच्चे को देखकर और वो भी ऐसी गंदी हालत में दारा के दिमाग़ में नापसंदीदगी का जज़्बा ऐसी ज़ोर से उभर आया कि मुहक़्क़िक़ होने के बावजूद इस गंदे और रोते बच्चे को हाथ लगाते उसे कराहियत महसूस होने लगी। लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी का ख़याल कर के इन्होंने इस बच्चे को उठा लिया और मोटर में रखकर अस्पताल की तरफ़ चल पड़े।

    दारा जैसे ही अस्पताल पहुंचे उनकी नज़र सबसे पहले अपनी बीवी निशात पर पड़ी जो एक नर्स के साथ खड़ी थीं। उनको देख कर दाराने कहा,

    निशी तुम ख़ूब गईं।

    मुझे इन्सपेक्टर नूरानी ने टेलीफ़ोन पर इस हादिसे की ख़बर देकर ये भी बतलाया कि फ़क़ीरनी एक दम से ख़ुद ही बीच में गई थी और टकरा गई। मैं क्लास छोड़कर भागी भागी रही हूँ।

    निशी और नर्स ने फ़क़ीरनी को उतारा और फिर नर्स उसे आप्रेशन थियेटर में ले गई। जहां डाक्टर को निशी ने पहले बुला लिया था।

    निशी तो आनन फ़ानन ऐसा इंतिज़ाम कर ही दिया करती थी। इसलिए उस वक़्त दारा को कोई हैरत नहीं हुई। वो कहने लगे,

    थैंक यू डार्लिंग। ख़ुदा करे ये फ़क़ीरनी बच जाये। फिर कहने लगे, मेरे ख़याल में गर्दन में सख़्त चोट है। शायद ही बचे।

    फिर कहने लगे, ये बच्चा कौन है? क्या उसी का है?

    हाँ, इसको उठाने के लिए भंगी को बुला लो। बच्चा बहुत गंदा है।

    ओफ्फोह, कितना गंदा है। क्या इसे भी चोट आई है।

    मालूम नहीं। गंदगी की वजह से इसको टटोलने की हिम्मत नहीं पड़ी।

    निशी का भी उसे देखकर जी मतलाने लगा। उसने वार्ड ब्वॉय को बुलवा कर उसे उठवाया और साथ लेकर मुआइने के हाल में चली गई। दो घंटे के बाद जब वो बच्चे को जिसके पेट और सीने पर पट्टियाँ बंधी हुई थीं और चीख़ चीख़ कर रो रहा था, साफ़ कपड़ों में लिए हुए निकली तो देखा कि दारा बहुत मग़्मूम और निढाल टहल रहा है। निशी ने उसके चेहरे की तरफ़ देखकर पूछा,

    क्या फ़क़ीरनी?

    हाँ, चल बसी। एक पसली टूट कर उसके फेफड़े में घुस गई थी।

    फ़िक्र करो। तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं सकता।

    ये तो मैं भी जानता हूँ। लेकिन दिल पर एक तरह का बोझ तो है ही।

    डार्लिंग, जो होगा देखा जाएगा। फ़िक्र करो।

    दारा के सामने एक कश्ती में कुछ सामान पड़ा हुआ था। निशी उसकी तरफ़ इशारा कर के पूछने लगी,

    ये अल्लम ग़ल्लम क्या है?

    ये वो चीज़ें हैं जो फ़क़ीरनी अपने गले में पहने हुए थी। ये ताँबे के छल्ले हैं। ये शेर के नाख़ून हैं। अस्पताल वालों ने बताया कि ये दोनों चीज़ें किसी टोटके में काम आती हैं। ये वो तावीज़ हैं जिनकी बिना पर डाक्टरों ने फ़ैसला किया कि फ़क़ीरनी मुसलमान थी। इन ही तावीज़ों से अस्सी रुपया के नोट निकले। उसी से उसके कफ़न-दफ़न का बंदोबस्त हुआ।

    बच्चे का क्या हाल है?

    डाक्टर का कहना है कि अगर उस की पूरी देख-भाल की गई तो दो-चार रोज़ में ख़त्म हो जाएगा।

    फिर क्या किया जाये? चलो उसे मिशन को दे दें। वो लोग देख-भाल कर लेंगे।

    नहीं, बच्चे के मुआमले में कोई ख़तरा मोल लेना चाहिए। फ़क़ीरनी के मुआमले में तो लोग तुमको बेक़सूर समझते हैं लेकिन इस के मुआमले में कोई नहीं समझेगा। अख़बार वाले तुम्हारे तनासुल के नज़रिए की बातें करते हैं, हो सकता है कि कहीं उसी की वजह से तुमने फ़क़ीरनी के बचाने की कोई ख़ास कोशिश नहीं की।

    सब बकवास है। इस हादिसे को उन लोगों ने देखा है जिनका मेरे नज़रिए से कोई ताल्लुक़ नहीं। वो मुझे यक़ीन दिला रहे हैं कि ज़रूरत हुई तो वो गवाही देंगे। अब बच्चे के लिए क्या किया जाये?

    या तो इसे अस्पताल में एक वार्ड लेकर रखा जाये या फिर इसे घर ले चलो, वहां डाक्टरों और नर्सों से इसका ईलाज करवाया जाये।

    दारा, निशी दोनों नुस्खे़ महंगे पड़ेंगे।

    हाँ, लेकिन अगर ये मर गया तो लोग इस मुआमले को दूसरी नज़र से देखेंगे।

    फिर बेहतर क्या है? अस्पताल या घर?

    जैसा तुम कहो। लेकिन बच्चे के साथ अस्पताल में मैं रही तो तुमको घर में अकेला रहना पड़ेगा।

    (2)

    घर की ज़िंदगी कुछ अजीब सी हो गई। डाक्टरों का आना जाना, निशी और नौकरों का रात को बारी बारी जागना। बच्चे का मुसलसल रोना, दवाओं की बू और दोस्तों का दारा पर उसकी अनोखी मुसीबत के लिए तरस खाना, निशी का संजीदा मुँह बनाए हुए दारा से दो-चार बातें कर लेना और फिर बच्चे के पास भाग जाना, ये थी दारा की दस दिन की ज़िंदगी। उसकी समझ में नहीं आता था कि निशी को इस गंदे बच्चे की इतनी फ़िक्र क्यों है। रात को भी वो उठ उठकर बच्चे के पास एक दो मर्तबा चली जाती है और सुबह नाशते पर खोई खोई सी नज़र आती है।

    दारा ने पूछा, आख़िर बच्चा कब तक इस क़ाबिल हो जाएगा कि मिशन को दे दिया जाये?

    डाक्टर सुखी राम जो यहां के इंचार्ज हैं, कहते हैं कि कम से कम दो हफ़्ते लगेंगे।

    दार एक-बार भी बच्चे के पास नहीं गया। उसके ज़ह्न में बच्चे के सर का गंज, बहती नाक, बहता मुँह और बहता पेशाब और पाख़ाना ये सब बढ़कर इतने फिसल गए थे कि बच्चा उस में ग़ायब हो गया था।

    प्रोफ़ेसर दारा को एक सेमीनार में शिरकत के लिए कलकत्ता जाना पड़ा। वहां से पंद्रह दिन के बाद वापस आकर ख़बर मिली कि इस दरमियान बच्चे की हालत बहुत ख़राब हो गई थी। निशी उसको अस्पताल ले गई। वहां कोई बड़ा नाज़ुक ऑप्रेशन हुआ, उसको बच्चा झेल ले गया। अब अच्छा है और दो एक रोज़ में घर आजाएगा। बच्चा के तंदुरुस्त हो जाने की ख़बर निशी ने बहुत ख़ुश हो कर सुनाई और कहा कि डाक्टर राम ने तुम्हारा ख़याल कर के बच्चे का बहुत लगन से ईलाज किया है।

    दारा ने उसी वक़्त डाक्टर राम को टेलीफ़ोन कर के उनका शुक्रिया अदा किया और इस सिलसिले में पूछा,

    डाक्टर साहिब क्या ऑप्रेशन ख़तरनाक था?

    राम: काफ़ी ख़तरनाक। मगर बच्चा क़िस्मत वाला है, बच गया और दिन-ब-दिन सँभलता जा रहा है।

    दारा के लबों पर आया कि बच्चा क़िस्मत वाला है या मैं जो बदनामी से बच गया। लेकिन उसने ये फ़िक़रा पी लिया।

    बहुत बहुत शुक्रिया डाक्टर राम। निशी ने ये सारा बोझ अकेले सर उठा लिया था और वो आपको मुसलसल ज़हमत दे रही है।

    ज़हमत की बात कीजिए। हम सबको फ़िक्र थी कि आपकी इस मुआमले में गुलू ख़लासी हो जाये।

    आपके सफ़र पर जाने के दो दिन बाद ही बच्चे की हालत बहुत ख़राब हो गई थी आख़िर हम लोगों ने तय किया कि ऑप्रेशन किया जाये अगरचे वो ख़तरनाक है लेकिन बच्चे की जान अगर बच सकती है तो इसी तरह। लेकिन जब मरीज़ को ऑप्रेशन टेबल पर लिटाया गया तो उस वक़्त बेहोश करने वाले डाक्टर ने कहा कि ज़रूरी नहीं है कि मरीज़ को बेहोशी के बाद होश जाये। मजबूरन मैंने ऑप्रेशन मुल्तवी कर दिया और सलफ़ा ड्रग से ईलाज करने लगा। मगर डर रहा था कि जाने उसका रद्द-ए-अमल बच्चा बर्दाश्त कर सकेगा या नहीं। तीन दिन उसकी बड़ी देख-भाल की गई। मगर भगवान की मेहरबानी से बच्चा सिर्फ़ सलफ़ा ड्रग बर्दाश्त कर ले गया बल्कि उसकी तंदुरुस्ती तवक़्क़ो से ज़ाइद बेहतर हो गई। अब ऑप्रेशन की ज़रूरत तो नहीं, लेकिन देख-भाल की बड़ी ज़रूरत है और पेशाब की जांच रोज़ाना होना चाहिए।

    उस ज़माने में मिसिज़ मिर्ज़ा जिस लगन से बच्चे की देख-भाल करती रहीं, वो सगी माँ के सिवा और कोई नहीं कर सकता है। आप दोनों ने एक फ़क़ीरनी के बच्चे के लिए जो कुछ किया है इस पर हम सबको फ़ख़्र है।

    आजकल कुछ लोग अख़बारों में आपके ख़िलाफ़ ये कह कर शोर मचा रहे हैं कि आपने हिटलर के दौर में जर्मनी में तालीम हासिल की थी। इस वजह से आप नस्ली बरतरी के क़ाइल हैं और ज़ात-पात की ऊंच-नीच को सही समझते हैं। फ़क़ीरनी का हादिसा इसी नुक़्ता-ए-नज़र की वजह से पेश आया। काश, वो लोग देखते कि आप और आपकी मिसिज़ किस तरह फ़क़ीरनी के बच्चे की परवरिश कर रहे हैं।

    (3)

    एक दिन दारा मिर्ज़ा यूनीवर्सिटी से जो आए तो देखा कि ड्राइंग रुम में एक साफ़-सुथरा बच्चा लेटा हवा में मुक्के मार रहा है।

    दारा ने समझा कि कोई मेहमान आया है। उसने निशी से पूछा कि ये बच्चा किसका है?

    निशी हँसने लगी, अरे आप पहचानते भी नहीं। ये वही है जिसे आपने मौत के मुँह से निकाला है।

    ये फ़क़ीरनी का बच्चा है क्या?

    जी हाँ, और कौन है?

    निशी ने बच्चे की तरफ़ देखकर चुमकारा तो उस के लब खुल गए और दो दाँत नज़र आए।

    दारा, ये वो बच्चा तो हो ही नहीं सकता है। उसके मुँह में दाँत कहाँ थे।

    निशी, वाह,वाह। आपने तो सिर्फ़ बुराईयां ही बुराईयां देखीं थीं।

    दारा क़रीब जाकर बच्चे को देखने लगा और सोचने लगा कि उस वक़्त दाँत थे या नहीं। उसने चुमकारा तो बच्चा किलकारियां मारने लगा। दारा ने और चुमकारा तो बच्चे ने ठट्ठा मार दिया।

    दारा, (ख़ुश हो कर) अरे ये तो ख़ूब हँसता है।

    निशी, है आदमी ही का बच्चा ना। उसने तुमको बहुत कम देखा है। फिर भी इस वक़्त तुम्हारी तरफ़ देखकर किस तरह हंस रहा है।

    निशी फिर बोली, एक बात और देखो।

    ये कह कर निशी ने बच्चे को गोद में लेने को हाथ बढ़ाया तो वो बहुत हुमककर गया और फिर निशी की छातीयों की तरफ़ मुँह बढ़ाने लगा।

    निशी हंसकर बोली, देखते हो कि ये मुझे अपनी माँ समझ रहा है और दूध पीना चाहता है।

    फिर बच्चे को चिमटा कर कहने लगी, अगर मैं ज़रा देर के लिए भी पास से हटूं तो चिल्लाने लगता है। अस्पताल में दस दिन ये रहा तो नर्स के पास। लेकिन उससे इतना नहीं हिला जितना मुझसे। अस्पताल वाले इस पर हैरत करते थे।

    ये तो ठीक कहती हो कि फ़क़ीरनी और इस क़िस्म की नस्ल के लोग भी इन्सान ही होते हैं। लेकिन ये बात भी सही है कि उनके बच्चे भी वैसे ही होते हैं। ये याद रखना ज़रूरी है। ये देखो कि कुत्ते और भेड़ीए की शक्लें कितनी मिलती जुलती हैं। लेकिन दोनों के मिज़ाज में कितना फ़र्क़ होता है। भेड़ीया अपने पालने वाले के लिए भी दग़ाबाज़ होता है। लेकिन कुत्ता बेहद वफ़ादार। भेड़ीए को तरह तरह से पाल कर देखा गया लेकिन उसकी दग़ाबाज़ी नहीं गई। घोड़ा और गधा भी लग भग एक सी नस्ल के हैं, लेकिन गधा बेहद बेवक़ूफ़ होता है। बा'ज़ कौमें पाँच सौ साल से इस नस्ल को बेहतर बनाने की कोशिश कर ही हैं, लेकिन वो वैसी की वैसी ही रही। इन्सानों की जंगली क़ौमों की भी यही हालत है। उनको तरह तरह के मौक़ा मिले तरक़्क़ी के लेकिन हज़ारों साल से वो वैसी ही हैं। ये बातें साईंस की तस्लीम शूदा हैं, तुम्हें उनको नज़रअंदाज करना चाहिए।

    तुम देख लेना कि हम स्कूल वाले उसे अच्छा शहरी बनादेंगे। उम्दा तालीम देंगे और ढंग से रहना और काम करना सिखाएँगे।

    लेकिन बड़ा हो कर ये इम्तहानों में सेकंड भी आने से रहा।

    तुम अपने बच्चों से इसका मुक़ाबला क्यों करते हो। अगर वो फ़र्स्ट आते हैं तो ये थर्ड तो आही जाएगा।

    निशी और दारा के तीन बच्चे थे, जिनमें से दो लड़के मसऊद और महमूद जो बड़े थे, मसूरी के स्कूल में पढ़ते थे और वहीं होस्टल में रहते थे। तीसरी एक लड़की नजमा, जो सात साल की थी, बंबई में अपनी ख़ाला मौदूदा के पास जो वहां एक कॉन्वेंट स्कूल में टीचर थीं, रहती थी।

    निशी ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा,

    क्या हिन्दोस्तान को सिर्फ़ गांधी और जवाहर लाल की ज़रूरत है। उसे क्या अच्छे क्लर्कों और फ़ौजीयों और अच्छे शहरियों की ज़रूरत नहीं है?

    हाँ। इस बच्चे को अगर अच्छी तर्बीयत और तालीम के साथ साथ कुछ मामता भी मिली तो ये थर्ड क्लास का क्लर्क शायद बन जाये।

    ये बताओ कि आदमी कैसा बनेगा? अच्छा आदमी कि बुरा आदमी?

    अच्छे आदमी जिनको तुम लोग कहते हो, वो तो बाई प्रॉडक्ट होते हैं। यानी अफ़्सर और प्रोफ़ेसर बनाने में जो बच्चे ग़लत साँचे में पड़ जाते हैं वो वैसे बन जाते हैं। मगर इस क़िस्म के अच्छे आदमियों में बुराई का मुक़ाबला करने की सकत नहीं होती है। ख़ैर, हटाओ इन बातों को। ये बताओ कि इसे तुम मिशन को कब दे रही हो?

    अभी डाक्टर सुखी राम की राय नहीं है कि ये जिस हालत में है इसको बदला जाये। अब तो मैं एक तहक़ीक़ात भी करना चाहती हूँ। मेरे स्कूल में हर साल दो एक बच्चे ऐसे भी जाते हैं जैसा ये है। हम लोग उनको अच्छा शहरी बनाने की कोशिश करते रहते हैं। मेरी बीस साल की सर्विस में ऐसे बच्चों से दो-चार अच्छे अफ़्सर भी बन गए और दो एक सियासत और समाज सेवा में ख़ासे आगे गए। फिर मैं इस बिचारे से क्यों मायूस हूँ। अब देखना ये है कि क्या मिशन वाले मेरे इस मिशन में मेरा साथ देंगे?

    दारा देखता रहा था कि जिस लड़के या लड़की में निशी को दिलचस्पी हो जाती है उसको घर बुलाबुला कर पढ़ाती है। वो निशी को सवालिया नज़रों से देखने लगा।

    निशी बोली, सच बात तो ये है, मैं ख़ुद नहीं जानती कि क्या चाहती हूँ। बच्चा पच्चीस दिन जो मेरे पास रहा तो दिल में ऐसा घर कर गया जब डाक्टर उसको ऑप्रेशन के लिए ये कह कर लेजाने लगा कि ऐसे ऑप्रेशन कम ही कामयाब होते हैं तो मैँ बेइख़्तियार रोने लगी। जब तक वो आप्रेशन थियेटर में रहा। मैं सोचती रही कि ये क्यूँकर मुम्किन है कि मैं इस बच्चे को इसी तरह मिशन को दे डालूं जैसे पुराने धुराने कपड़े ग़रीबों को दे दिए जाते हैं।

    मिशन को दोगी तो फिर क्या करोगी?

    हाँ, देना तो होगा मिशन को।

    मिशन के लोग बच्चों को बहुत प्यार से पालते हैं।

    प्यार से कहो। ये कहो कि देख रेख कर लेते हैं जो कि मकैनिकल होती है।

    लेकिन और किया भी क्या जा सकता है। आख़िर तुम सोच क्या रही हो?

    कल बच्चे के कुछ टेस्ट हुए हैं। उनके नतीजों का भी इंतिज़ार है। फिर तय करूँगी कि क्या करना है।

    इस वाक़िया के दो दिन के बाद दारा यूनीवर्सिटी से जो आया तो निशी परेशान परेशान सी नज़र आई। कहने लगी,

    मिशन वालों का ख़त आया था, वो कहते हैं कि हम लोगों को ये मुआहिदा लिख कर देना होगा कि कभी बच्चे को वापस नहीं लेंगे और उससे जब मिलने जाऐंगे तो जिस तरह वो कहेंगे इसी तरह ग़ैर बन कर मिलेंगे। उसका क़ासिद जवाब चाहता था। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूं। आख़िर मैंने लिख दिया कि हम दोनों सोच कर जवाब देंगे।

    अगर उनकी शर्त मानोगी तो करोगी क्या?

    यही सोच रही हूँ। अब एक बात और सुनो, डाक्टर ने बच्चे के टेस्टों की रिपोर्ट भेजी है, कहते हैं कि दो साल तक बच्चे की देख-भाल की सख़्त ज़रूरत है। क्यों कि उसके गुर्दे बहुत कमज़ोर हैं।

    ये बात मिशन वालों को बता दी जाएगी। वो देख-भाल कर लेंगे।

    मुझे यक़ीन नहीं कि जैसी देख-भाल चाहिए वैसी वो कर लेंगे। वो बस मकैनिकल काम कर सकते हैं।

    फिर?

    समझ में नहीं रहा है कि क्या करूँ।

    (4)

    प्रोफ़ेसर दारा मिर्ज़ा यूनीवर्सिटी में क्लास ले रहे थे कि उनको चपरासी ने एक पर्चा ला कर दिया कि निशी ने फ़ोन कर के दारा को फ़ौरन अस्पताल बुलाया है।

    जब दारा अस्पताल पहुंचा तो निशी ने आँसू भरी आवाज़ में बतलाया कि मुलाज़िमा की लापरवाई से बच्चा पलंग से नीचे गिर पड़ा और ऐसी चोट आई कि चीख़ मार कर उसी वक़्त बेहोश हो गया। डाक्टर राम को फ़ोन किया तो इन्होंने एम्बुलेंस भेज कर बच्चे को और मुझे फ़ौरन अस्पताल बुला लिया। अब कई डाक्टर मुआइना कर रहे हैं।

    थोड़ी देर में डाक्टर राम मुआइना के कमरे से बाहर आए और कहने लगे,

    बच्चे के गर्दों में जो पहले से चोट खाए हुए थे, मगर दवाओं से ज़रा सँभल गए थे, वो फिर चोट खा गए हैं। एक्सरे से एक तो बहुत चोटीला मालूम होता है और दूसरा कम। अब ईलाज ऑप्रेशन के सिवा और कुछ नहीं है। मगर अफ़सोस हमारे पास वही आलात और मशीनें हैं जो आलमी जंग से पहले आए थे, वो ऐसे नहीं हैं जिन पर ज़्यादा भरोसा किया जाये। सिर्फ़ डाक्टर अरशद के प्राईवेट अस्पताल में कुछ बेहतर इंतिज़ाम हो सकता है। उनसे मैंने फ़ोन पर बात की वो हर मुम्किन मदद के लिए तैयार हैं। इन्होंने कहा है कि मिसिज़ मिर्ज़ा बच्चे से मुताल्लिक़ काग़ज़ात लेकर फ़ौरन जाएं। मैंने बच्चे को सोने की दवा दे दी है। आप इसी हालत में इसको लेकर चले जाएं।

    डाक्टर अरशद ने बच्चे को देखा फिर कहने लगे,

    डाक्टर राम की तशख़ीस मुझे सही मालूम होती है। बच्चे के गुर्दे जो पहले से चोट खाए हुए थे, दूसरी चोट से उनमें से एक बेकार हो गया और दूसरा काफ़ी ज़ख़्मी हो गया। ईलाज सिर्फ़ ये है कि ख़राब गुर्दा निकाल दिया जाये और दूसरे को ऐसा कर दिया जाये कि वो दोनों गुर्दों का काम देने लगे। ऐसे ऑप्रेशन हो चुके हैं और कामयाब रहे हैं। लेकिन इस बच्चे के ऐसे ऑप्रेशन में कई दुश्वारियाँ हैं। एक तो ये कि तीन दिन से ज़्यादा इंतिज़ार नहीं किया जा सकता है। दूसरे ये कि ख़ून से यूरिक एसिड निकालने वाली मशीन जो मेरे पास है वो इस शहर की सब मशीनों से अच्छी है। लेकिन है वो भी सात आठ साल पुरानी जो दूसरी आलमी जंग से पहले आई थी। इस के भरोसे पर बच्चे का ऑप्रेशन करना मुनासिब नहीं। एक बात ये भी है कि एक्सरे का जो फ़ोटो आया है वो भी पुराने क़िस्म की मशीन का है। इसलिए यक़ीन के साथ नहीं कहा जा सकता है कि दूसरा गुर्दा किस हद तक दुरुस्त है। अगर वो तीन चौथाई भी दुरुस्त है तो काम चल जाएगा। लेकिन अगर ख़राबी ज़्यादा है तो इसको, जब पहले गुर्दा को निकाला जाये, उसी वक़्त बदल देना चाहिए। लेकिन एक छोटे गुर्दे का फ़ौरन मिल जाना मुम्किन नहीं। एक सूरत ये भी हो सकती है कि मेरे एक दोस्त डाक्टर रेड्डी का बैंगलौर में प्राईवेट क्लीनिक है और वो गुर्दे बदलने के माहिर भी हैं और उन्होंने गुर्दों की फ़राहमी का भी कुछ इंतिज़ाम कर रखा है। मैं उनसे फ़ोन पर बातचीत कर के देखूँगा कि उनसे कितनी मदद मिल सकती है।

    इस वक़्त तो आप बच्चे को यहीं छोड़ दीजिए ताकि मशीन से इसका ख़ून साफ़ कर दिया जाये और मैं बैंगलौर से फ़ोन मिलाता हूँ। जो मालूम होगा उसकी ख़बर आपको फ़ोन पर देदूंगा।

    दारा, बैंगलौर के अख़राजात क्या हों॒गे? उसका कुछ अंदाज़ा आप बता सकते हैं?

    ये भी फ़ोन के बाद बता सकूँगा। मगर ये समझ लीजिए कि वो अस्पताल पैसे वालों के लिए है। दूसरी आलमी जंग को ख़त्म हुए दो साल हो चुके हैं। लेकिन फ़ौजियों और जंगी सामान की वापसी अभी तक जारी है, इस वजह से जहाज़ों में सामान लाने की जगह मुश्किल से मिलती है। हमारी मेडिकल मशीनें और आलात पुराने हो गए हैं। लेकिन उनकी जगह नए नहीं मंगवाए जा सके हैं। डाक्टर रेड्डी ने जाने क्यूँकर ये इंतिज़ाम कर लिया कि जो जहाज़ हैदराबाद की रज़ा कार पार्टी के लिए ख़िलाफ़-ए-क़ानून जंगी सामान लाते थे, वो रेड्डी के लिए मेडिकल सामान भी लाकर हैदराबाद में उतार देते थे, वहां से वो बैंगलौर मंगवा लेता था। इस तरह उसने जाने कितना सामान मंगवा लिया है। इस बात की शौहरत जो हो गई तो पैसे वाले मरीज़ों का तांता बंध गया। अब वो भारी भारी फीसें चार्ज करता है और उसका अस्पताल लखपतियों का अस्पताल हो गया है। लेकिन वो मुझे पच्चास फ़ीसद कंसेशन दे देता है। आपसे वैसा ही चार्ज करेगा।

    फिर डाक्टर अरशद कहने लगे,

    मैं एक बात और भी सोच रहा हूँ। वो ये कि आजकल जो नई दवा निकली है पेंसिलिन, जिसको जादूई ड्रग कहा जाता है। देखोगा कि इस दवा से इस बच्चे का ईलाज किस हद तक किया जा सकता है?

    घर आकर दारा और निशी दोनों सोचने लगे कि वो फ़ौरी तौर पर कितना रुपया फ़राहम कर सकते हैं। बैंक में उन लोगों का सात हज़ार के लग भग था। मकान में चचाज़ाद भाईयों का भी हिस्सा था। इसलिए फ़ौरी तौर पर तो उसे बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। इन लोगों की कार एक पुराना मॉडल थी और इतनी पुरानी कि बराबर मरम्मत की मुहताज रहती थी। अगर बेची जाये तो जल्दी में बहुत कम दामों पर बिकेगी और इसके बिक जाने से दोनों को अपनी डयूटियों पर वक़्त पर पहुंचना मुम्किन होगा। अब ले देकर रह जाता था निशी का ज़ेवर, जो होगा चालीस पच्चास हज़ार का। लेकिन इस के बेचने में दोनों हिचकिचा रहे थे। क्यों कि उनके सामने अपनी बेटी नजमा भी थी। क्या उस को महरूम कर दिया जाये इस बच्चे के लिए?

    ज़रा देर में फ़ोन पर डाक्टर अरशद ने बताया कि डाक्टर रेड्डी ने ये सुनकर कि आप एक फ़क़ीरनी के बच्चे का इस तरह ईलाज करा रहे हैं, हर मुम्किन कंसेशन देने के लिए तैयार हो गए। लेकिन कहते हैं कि बच्चे का गुर्दा हासिल करना और वो भी इतनी जल्द, ये बहुत मुश्किल है अगर पंद्रह बीस हज़ार का इंतिज़ाम हो जाये तो कोशिश तो की ही जा सकती है।

    निशी ने जवाब में कहा कि हम लोग सोच कर बताएँगे। दारा कहने लगा,

    सिर्फ़ गुर्दा ही तो फ़राहम करना नहीं है और भी तो बहुत से अख़राजात होंगे। इसलिए तीस हज़ार का बंदोबस्त होना चाहिए।

    ज़रा देर में डाक्टर राम का फ़ोन आया, वो कहने लगे,

    मरीज़ जब तंदुरुस्त हो कर अस्पताल से जाने लगते हैं तो उनमें से दो-चार हमारे ख़ैराती बक्स में कुछ रक़म डाल देते हैं। वो रक़म ख़ास ख़ास मरीज़ों पर जैसे कि ग़रीब शायर या ग़रीब मुसन्निफ़ या औसत तबक़े की बेवाऐं हैं, उन पर ख़र्च की जाती है। आज हमारी एसोसिएशन ने फ़ैसला किया है कि इस फ़ंड से उस बच्चे के ईलाज के लिए वो पाँच हज़ार की रक़म दे सकती है।

    ये सुनकर दारा तो ख़ुश हुआ लेकिन निशी मुर्झा कर कहने लगी,

    फ़क़ीरनी का बच्चा हमारी पनाह में आकर भी ख़ैरात पर पले, ये मुझे गवारा नहीं। मैं ऐसी रक़म जब अपने बच्चों के लिए नहीं क़बूल कर सकती हूँ तो उसके लिए भी क़बूल नहीं करूँगी।

    निशी ने डाक्टर राम के रक़म लेने से इनकार तो कर दिया, लेकिन ऐसा कर के वो बहुत मुतफ़क्किर हो गई और कुछ सोच कर बोली,

    क्यों दारा, अगर मैं अपना आधा ज़ेवर बेच डालूं तो उससे फ़ौरी काम तो चल ही जाएगा। फिर मैं आपा मौदूदा से क़र्ज़ ले लूँगी। वो ज़रूर दे देंगी।

    क़र्ज़, अरे इस चीज़ पर तो मैंने अभी तक ग़ौर नहीं किया था। मेरा एक अज़ीज़ शागिर्द है हरी राम, उसका एक गहरा दोस्त क़र्ज़ का कारोबार करता है। मैं अभी हरी राम को फ़ोन करता हूँ कि मुझे तुम अपनी ज़मानत पर तीस हज़ार क़र्ज़ दिला दो।

    दारा ने हरी को फ़ोन किया तो उसने कहा मैं आधे घंटे में बताऊँगा कि रक़म मिल सकती है या नहीं। फिर आधे घंटे के बाद हरी राम ने कहा कि उसका दोस्त तीस हज़ार क़र्ज़ देदेगा। सूद सिर्फ़ दो फ़ीसद होगा। जो साल साल उस वक़्त तक पाबंदी से अदा होता रहेगा जब तक कुल रक़म अदा कर दी जाये।

    यह सुनकर निशी बहुत ख़ुश हो गई और कहने लगी,

    मंज़ूर कर लो। दारा, मंज़ूर कर लो। सूद की अदाई का इंतिज़ाम मैं कर लूँगी। सेठ जी की लड़कियों का टीयूशन मैंने छोड़ दिया था। मगर वो बराबर इसरार कर रहे हैं कि उसको जारी कर दीजिए और फ़ीस भी बढ़ा रहे हैं। उसको क़बूल कर लूँगी। इस तरह सूद तो अदा होता ही रहेगा। लेकिन ज़रूरत पड़ी तो इस रक़म से एक अच्छी आया भी रखी जा सकेगी।

    फिर वो बोली, हाँ, ये भी तो कहो हरी से कि रुपया फ़ौरन चाहिए। और हाँ डाक्टर अरशद से कहो कि वो रेड्डी से कहें कि वो गुर्दे का बंदोबस्त कर लें। रक़म तैयार है।

    दारा ने हरी से बात की तो उसने कहा कि रुपया कल बैंक खुलते ही मिल जाएगा।

    ये सुनकर निशी के चेहरे पर ख़ुशी नाचने लगी। वो बोली, अब राह में एक कांटा रह गया है। वो है हवाई जहाज़ में नशिस्त का मिलना उसके लिए फ़ोन करो।

    दारा को बड़ी देर में नंबर मिला तो वहां से जवाब आया कि चार दिन तक कोई नशिस्त ख़ाली नहीं है। अब तो निशी की ख़ुशी उड़ गई और उसके लबों से एक दर्दनाक हाय निकली। दारा ने ये कह कर ढारस दी कि डाक्टर कह रहे हैं कि तीन दिन तक ख़तरा नहीं है। अगर चार दिन हो गए तो ज़रा देर तो ज़रूर हो जाएगी। लेकिन शायद इतनी देर ख़तरनाक हो। घबराओ नहीं।

    उसके एक घंटे के बाद डाक्टर अरशद का टेलीफ़ोन आया। इन्होंने बहुत अफ़सोस के साथ ख़बर दी कि डाक्टर रेड्डी जो गुर्दा ख़रीद रहे थे वो एक मरहूम शीरख़्वार बेटे का था जिसको उसके चचा बेच रहे थे। रेड्डी के वकील की राय हुई अगर ये ख़रीदारी कर ली गई तो ज़बरदस्त मुक़द्दमे बाज़ी का शिकार होना पड़ेगा। इसलिए डाक्टर रेड्डी ने ख़रीदारी से इनकार कर दिया। अब वो किसी और गुर्दे की तलाश में हैं। मगर उनको शक है कि मिल सकेगा।

    निशी आँखों में आँसू भर कर दारा से कहने लगी,

    हाय, बच्चा जा रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकती।

    ख़ुदा से दुआ तो कर ही सकती हो। ये क्यों नहीं करती हो।

    करूँगी दुआ, ज़रूर करूँ गी। लेकिन अब मैं जा कर बैठूँगी अपने बच्चे के पास और वहीं रहूंगी जब तक कि...

    निशी की आवाज़ रुक गई। उसने ख़ामोशी से अपने आँसू पोंछे।

    उसी वक़्त डाक्टर राम का टेलीफ़ोन आया।

    एक ख़ुशख़बरी सुन लीजिए। यहां जरी के आलात का एक ताजिर है जो बर्मा-हिंदुस्तान की सरहद पर जाकर, जहां अंग्रेज़ी फ़ौजों ने बर्मा से फ़रार के वक़्त अपना बहुत सा फ़ौजी सामान ढेर कर दिया था, क्योंकि उसके पास बार-बरदारी के ज़राए नहीं थे। माल गाड़ीयों में जगह थी और ट्रकों के लिए पैट्रोल था। ये सामान बहुत सस्ते दामों में फ़रोख़्त हो रहा था। उस ताजिर ने कुछ सामान ख़रीद लिया और उसे हाथियों और कश्तीयों पर और जाने किस-किस तरह लाद कर तीन-चार महीने में यहां ले आया। अब वो उसे दस गुने दामों पर फ़रोख़्त करना चाहता है।

    डाकटर राम ने उससे कहा कि जब तक अस्पताल के ज़िम्मेदार लोग उन आलात और मशीनों को आज़मा कर देख लेंगे, वो ख़रीद नहीं सकते हैं। ताजिर तैयार हो गया है आज़माईश कराने के लिए। ये आज़माईश अस्पताल में नहीं की जा सकती है, क्यों कि वहां अगर किसी मशीन को लगा दिया गया तो मरीज़ों की लाईन लग जाएगी और फिर मशीन इस्तिमाल होती चली जाएगी। अगर उसे हटा लिया गया तो लोग हंगामा कर देंगे। इसलिए हम लोगों ने ये फ़ैसला किया है कि आपके ड्राइंगरूम को जो कि काफ़ी खुला हुआ और साफ़-सुथरा है, आप्रेशन थियेटर बना लिया जाये। वहां जो सामान है उसको हटा कर मशीन लगा दी जाएं। ये काम डाक्टर अरशद के आदमी जो ऐसे कामों के माहिर हैं, रात-भर में कर के उसे आप्रेशन थियेटर बना देंगे।

    ख़ून साफ़ करने की मशीन जो मिल रही है वो जदीद तरीन है। बाक़ी आलात भी बहुत उम्दा हैं। इन बातों से हमको बहुत उम्मीद है कि बच्चा बच जाएगा। अगर दूसरा गुर्दा ज़्यादा ख़राब निकला तो फिर उसका भी ऑप्रेशन कर दिया जाएगा और पेंसिलिन के बारह इंजैक्शन तीन दिनों में देकर ज़ख़्म को बिगड़ने से रोक दिया जाएगा। हाँ, ये बात भी कह देना अच्छा है कि पेंसिलिन के इंजैक्शन जो छः महीने इधर बारह हज़ार में मिलते थे। अब सिर्फ़ छः हज़ार में जाऐंगे। आपका सब काम दस हज़ार में हो जाएगा। भगवान हम लोगों पर बड़ा मेहरबान है, जो ऐसे अच्छे अस्बाब पैदा कर दिए। लेकिन फिर भी ऑप्रेशन ख़तरे से ख़ाली नहीं है। क्योंकि अगर दूसरा गुर्दा भी बेकार निकला तो उसकी जगह लगाने के लिए हमारे पास नया गुर्दा नहीं है। अब आप लोग सोच कर फ़ैसला कीजिए कि क्या करना है। लेकिन जल्द फ़ैसला कीजिए वर्ना ताजिर का गोदाम बंद हो जाएगा और फिर एक दिन निकल जाएगा।

    डाक्टर राम की बात सुनकर निशी ख़ुशी से उछल पड़ी और हँसने लगी। फिर बोली, ख़ुदा ने मेरी सुन ली और ऑप्रेशन का इंतिज़ाम कर दिया। या अल्लाह अब तो दूसरा गुर्दा सेहतमंद निकले।

    फिर निशी ने टेलीफ़ोन लेकर डाक्टर अरशद और डाक्टर राम से अलग अलग कहा,

    डाक्टर साहिब, आप दोनों जो कुछ कर रहे हैं वो हम लोगों पर बड़ा एहसान है। मुझे मंज़ूर है आप लोगों की तजवीज़। इंतिज़ाम शुरू कर दीजिए।

    दूसरे दिन दो बजे दोनों डाक्टर अपने स्टाफ़ को लेकर नए बने हुए आप्रेशन थियेटर के अंदर बच्चे को लेकर चले गए और ये हुक्म दे दिया कि वहां कोई नहीं आसकता है। यहां तक कि दारा भी नहीं।

    निशी इतनी परेशान थी कि मिनट गिन गिन कर वक़्त गुज़ार रही थी। लेकिन आधे घंटे बाद एक जूनियर डाक्टर बाहर आया, निशी ने घबरा कर पूछा, क्या ऑप्रेशन ख़त्म हो गया।

    उसने जवाब दिया, अभी तो शुरू भी नहीं हुआ है। कमरे का टैमप्रेचर दुरुस्त किया जा रहा है।

    उसके बाद आधे घंटे तक कोई ख़बर नहीं मिली। फिर एक नर्स किसी काम से बाहर आई तो उसने बताया कि ऑप्रेशन के लिए बच्चे के बदन को साफ़ किया जा रहा है। इस के पौन घंटे के बाद डाक्टर अरशद बाहर आए और मुस्कुरा कर कहने लगे,

    मुबारक हो प्रोफ़ेसर साहिब और बेगम साहिबा, ऑप्रेशन कामयाब रहा। बच्चा ख़तरे से बिल्कुल बाहर है।

    फिर इन्होंने बताया कि डेढ़ घंटा ऑप्रेशन रहा। दूसरा गुर्दा ज़ख़्मी तो है, लेकिन ख़तरे से बाहर। मरीज़ को पेंसिलिन का इंजैक्शन भी दे दिया गया है।

    निशी समझ गई कि जब डाक्टर ने कहा कि कमरे का टैमप्रेचर दुरुस्त किया जा रहा है। उस वक़्त ऑप्रेशन शुरू हो चुका था। लेकिन मुझे परेशानी से बचाने के लिए बताया नहीं गया। निशी ख़ुशी से चिल्ला कर बोली,

    या अल्लाह, तेरा शुक्र। या अल्लाह, तेरा शुक्र। हज़ार हज़ार शुक्र।

    फिर निशी ने पूछा, पेंसिलिन के दाम...?

    दे दिए गए।

    कितने दिए गए और कहाँ से दिए गए? मुझे उसके बारे में क्यों नहीं बताया गया? कहीं ख़ैराती रक़म से तो...

    बेगम साहिबा, अस्पताल वालों को हक़ है कि जो दवा चाहें इस्तिमाल करें जहां से चाहें फ़राहम करें और जो दाम चाहें दें। आपसे दाम लेना होते तो ज़रूर आपकी इजाज़त ले ली जाती।

    ऑप्रेशन कामयाब रहा और बच्चा चंद ही दिनों के बाद बैठने लगा। निशी ने देख-भाल के लिए एक ट्रेंड नर्स रख ली, जिसके अख़राजात वो उस टयूशन की रक़म से पूरे करती थी जो उसने सेठ जी के यहां उसी वक़्त कर लिया था जब ऑप्रेशन का फ़ैसला किया था। नर्स बच्चे को नहलाती-धुलाती, उसकी सफ़ाई करती और उसका दूध तैयार कर के पिलाती और वक़्त पर दवा देती मगर बच्चा गोद में नहीं दिया जाता था। वो एक कटहरे में जिसको डाक्टर ने मंगवा दिया था, रहता था। कटहरा बच्चे की पलंगड़ी पर जुड़ा हुआ था। डाक्टर का हुक्म था कि सफ़ाई और नहलाने-धुलाने के सिवा और किसी काम के लिए बच्चे को कटहरे से निकाला जाये और नर्स और निशी के सिवा और कोई निकाले। कटहरे के गिर्द कुर्सियाँ पड़ी रहती थीं। लोग उस पर बैठ कर बच्चे को खिलाते थे। सबसे ज़ाइद उसको खिलाती थी नजमा, जो अपनी ख़ाला के साथ बंबई से आगई थी। इन लोगों को दारा ने उस वक़्त तार देकर बुला लिया था क्योंकि जब ऑप्रेशन का फ़ैसला हो गया तो दारा को फ़िक्र हुई कि नतीजा तवक़्क़ो के ख़िलाफ़ भी तो हो सकता है। ऐसी सूरत मैं ख़ुद उसके सिवा कोई और भी होना चाहिए निशी को सँभालने के लिए।

    मौदूदा तार पाते ही नजमा को लेकर फ़ौरन गई। गर्मीयों की छुट्टियां भी हो गईं थीं, इसलिए ये दोनों एक महीने ठहरीं। नजमा से बच्चा बहुत हिल गया था और नजमा भी उसको बहुत चाहने लगी थी।

    बच्चे का नाम निशी ने ख़ुदादाद रख दिया था। अब वो ना(निशी) और बा (नजमा) और बी ( बिस्कुट) कहने लगा था। ना(शि) से बहुत हिला हुआ था और चाहता था कि वो हर वक़्त पास रहे। जहां वो जाने लगती, ख़ुदादाद नाना कह कर चिल्लाता और कटहरे पर-ज़ोर ज़ोर से हाथ मार मार कर रोता।

    एक महीने के बाद ख़ुदादाद के सब टेस्ट फिर हुए। उनके नतीजों को लेकर डाक्टर राम ख़ुद गए और कहने लगे,

    बेगम मिर्ज़ा। ख़ुदादाद माशा अल्लाह से अब नॉर्मल है, लेकिन दो साल तक कड़ी देख-भाल ज़रूरी है। फिर बोले,

    मेरा तजुर्बा है कि सड़क के बच्चों में क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त और बीमारियों से मुक़ाबला करने की ताक़त बला की होती है। ऐसा होता तो उन बिचारों का खाना-पीना, रहन-सहन जैसा कुछ है उसमें सौ बच्चों में से मुश्किल से दो ज़िंदा रहते।

    निशी ख़ुदादाद की तंदुरुस्ती की बात सुनकर बहुत ख़ुश हुई। कहने लगी,

    डाक्टर सुखी राम जी, आपने और डाक्टर अरशद ने जिस तरह ख़ुदादाद का ईलाज किया और मुहब्बत का जो बर्ताव किया है उसको हम लोग कभी भूल नहीं सकते। लेकिन एक मेहरबानी आप लोग और कीजिए, ये भूल जाईए कि ख़ुदादाद सड़क का बच्चा है।

    वो तो मैं कब का भूल चुका हूँ। लेकिन इस मौक़े पर इसका हवाला दिए बग़ैर बात नहीं पूरी होती थी। उसे माफ़ कर दीजिए।

    एक दिन मिशन के फ़ादर गए और दारा से कहने लगे,

    आप लोग ख़ुदादाद को इस शर्त पर मिशन को देना चाहते हैं कि आप उसको घर बुला कर तालीम देते रहें, ये बहुत नेक इरादा है। इसलिए हम लोग अपने तौर तरीक़ों से हट कर आपको एक कंसेशन दे सकते हैं वो ये कि अगर आप ख़ुदादाद के साथ दस और बच्चों को भी इसी तरह तालीम दें जिस तरह ख़ुदादाद को, तो हमको कोई एतराज़ होगा। बात ये है कि हम किसी एक बच्चे के साथ ख़ास बर्ताव मुनासिब नहीं समझते हैं।

    दारा जो पहचान गया था कि ख़ुदादाद के लिए निशी के जज़्बात क्या हैं, कहने लगा,

    मैं और निशी दो एक दिन में इस बात का आपको जवाब देंगे। फिर निशी ने कहा फ़ादर ने जो तजवीज़ पेश की है वो मेरे मतलब की नहीं, क्योंकि मैं ख़ुदादाद के लिए सिर्फ़ एक घंटा निकाल सकूँगी। उसमें दस बच्चे और शरीक हो गए तो फिर ख़ुदादाद को इतना वक़्त नहीं मिलेगा कि मैं इसको जो बनाना चाहती हूँ वो बन सके।

    जब मौदूदा नजमा को लेकर बंबई जाने लगी तो नजमा बच्चे को लिपटा कर ख़ूब रोई, स्टेशन जाते में मौदूदा दारा से कहने लगी,

    निशी पर फ़क़ीरनी के छोकरे ने जाने कैसा जादू कर दिया है कि उसने अपना और अपने बच्चों का अच्छा-बुरा सोचना छोड़ दिया। वो ये नहीं देखती है कि अगर वो छोकरा घर में रह कर पला और बढ़ा तो लोग नजमा, मसऊद और महमूद को भी उसी तरह के बच्चे समझने लगेंगे। देखो कि नजमा जब उसको खिलाती है तो दोनों एक दर्जे के मालूम होते हैं या नहीं? मैं ये मानती हूँ कि बच्चा लावारिस है। इसलिए जो मदद भी मुम्किन हो, करना चाहिए। तुम उस पर एक मुनासिब रक़म ख़र्च करो, इसमें कोई हर्ज नहीं, उसको किसी अच्छे यतीमख़ाने या मिशन में दाख़िल कर दो।

    दारा, तुम जो नस्ली असरात की बातें करते हो वो सही हैं। मेरा रोज़ का तजुर्बा है कि कमीने लोगों की औलाद की जितनी भी चाहे देख-भाल करो और जैसी भी उनको तालीम दो, वो वैसी ही की वैसी रहती है।

    दारा ने जब ये बात निशी को बताई तो वो कहने लगी,

    बाजी, ये बातें मुझसे कर चुकी हैं। लेकिन उनका तजुर्बा है बंबई के ग़ुंडों के बच्चों का, जो स्कूल में पढ़ते हैं चार घंटे और बाक़ी बीस घंटे गुज़ारते हैं अपने लोगों में, इस वजह से वो उनही की बातें सीखते हैं। हमारे ख़ुदादाद की बात दूसरी होगी। इसके लिए जो कुछ भी होंगे, हम ही लोग होंगे। दो दिन के बाद जब दारा यूनीवर्सिटी से वापस आए तो निशी से कहने लगे,

    आज एक अजीब बात हुई। डाक्टर राम मेरे पास यूनीवर्सिटी में आए और तन्हाई में कहने लगे,

    मैं आपको राज़ की एक बात बताने आया हूँ जो ख़ुदादाद के मसले के हल करने में मुआविन होगी। मैं जानता हूँ कि आजकल आप और मिसेज़ दारा में क्या बहस छिड़ी हुई है। आप नस्ली ख़सुसियात को मुस्तक़िल चीज़ समझते हैं और बेगम मिर्ज़ा ऐसा नहीं समझती हैं।

    मेरा दादा जो कि ज़ात का भंगी था वो चोरी और क़त्ल के इक़दाम में गिरफ़्तार हुआ और उसे सात साल की सज़ा हो गई, किसी ने हमारे देहात के ज़मींदार को उसकी तरफ़ तवज्जो दिलाई, तो उन्होंने उसके चाल चलन की ज़मानत ले ली, इस तरह वो चार साल की क़ैद काट कर उनके घर गया। उसको खेत और मकान के लिए ज़मीन और लकड़ी मिल गई। फिर वो ज़मींदार की निगरानी में उनका असामी बन कर रहने लगा। ज़मींदार ने अपने असामियों में से किसी की लड़की से शादी कर दी। फिर ये ख़ानदान फैलने लगा।

    उस ख़ानदान के अफ़राद की शादी-ब्याह ज़मींदार इधर उधर कराते रहे, हमारा शुमार अच्छी ज़ात वालों में तो नहीं हुआ, लेकिन ये कोई नहीं जानता था कि हम ज़ात के भंगी हैं। मैं इकलौता बच्चा था अपने माँ बाप का। मेरी माँ ने बड़े अरमानों से मुझे देहाती स्कूल में दाख़िल करा दिया। मैंने चार साल में चहारुम पास कर लिया और उस ज़माने में चहारुम पास को पटवारी के क़िस्म की सरकारी मुलाज़मतें मिल जाती थीं। मेरा शौक़ देखकर उस वक़्त के ज़मींदार ने जिनका ख़ानदान हम लोगों का पुश्तैनी सरपरस्त था ऐसे मेहरबान हो गए कि उन्होंने मुझे अपने बेटे के पास भेज दिया जो शहर के एक स्कूल के हेड मास्टर थे। वहां जा कर मुझे हेड मास्टर के अज़ीज़ों के बच्चों की सोहबत मिली, जिनमें से हर एक के सामने कोई कोई मुस्तक़बिल था। दूसरी तरफ़ मुझे उस्तादों की तवज्जो भी मिली। फिर तो मैं डाक्टर बनने का ख़्वाब देखने लगा और उसके लिए मेहनत से पढ़ने लगा। डाक्टरी तालीम के दाख़िले के इम्तिहान में जो बैठा तो पास हो गया फिर पाँच साल में डाक्टर हो गया और प्रैक्टिस भी चल निकली। अब मेरे ख़ानदान की और शाख़ों में भी मेरी मिसाल देखकर तालीम फैल रही है और धीरे-धीरे वो सब पस्ती से उठते चले जा रहे हैं।

    उसके बाद डाक्टर राम ने आठ नाम ऐसे लोगों के लिए जिनको आज अच्छी समाजी अहमियत हासिल है। उनमें से चंद ऐसे हैं जिनको मैं भी जानता हूँ। डाक्टर राम का कहना है कि लोगों के भी दादा, परदादा वैसे ही थे जैसे ख़ुद डाक्टर राम के थे। ये मिसालें पेश कर के डाक्टर राम कहने लगे कि वो आए थे ये बताने कि मुझे ख़ुदादाद के मुस्तक़बिल की तरफ़ से मायूस होना चाहिए। फिर कहने लगे कि ख़ुदादाद की तालीम-ओ-तर्बीयत में अगर उनकी ख़िदमात की ज़रूरत हो तो वो हाज़िर हैं।

    डाक्टर राम की बात सुना कर दारा कहने लगा,

    नस्ली मसले को अब मैं ज़रा दूसरी तरह से देखने लगा हूँ और उसका मुताला नए रुख से करना चाहता हूँ। अब मैं ये देखूँगा कि तालीम-ओ-तर्बीयत किस हद तक इन्सानी भेड़ीए को वफ़ादार और इन्सानी गधे को समझदार बना सकती है। इस ग़रज़ से मैं ख़ुदादाद की तालीम-ओ-तर्बीयत में दिल से तुम्हारा शरीक रहूँगा। अब बताओ कि तुम क्या चाहती हो ख़ुदादाद के लिए?

    क्या चाहती हूँ? यही तो मुझे नहीं मालूम। दो महीने से सोच रही हूँ लेकिन कुछ तय नहीं कर पा रही हूँ। मैं हैरतज़दा हूँ कि मुझे ख़ुदादाद से इतनी मुहब्बत क्यों हो गई। मेरे अपने तीन बच्चे माशा अल्लाह से मौजूद हैं और मैं उनको बहुत चाहती हूँ। फिर मेरी मामता में ऐसा ख़ला कहाँ से गया है जिसमें ये नया बच्चा आकर बैठ गया। जब सोचती हूँ कि दुनिया में मेरे सिवा उसका कोई नहीं है तो मेरी मामता तड़प उठती है।

    निशी ज़रा देर सोच कर कहने लगी,

    हाल ये है कि जब सोचती हूँ कि ख़ुदादाद को मिशन को देदूँ तो ख़याल आता है कि उसकी सेहत का कुछ भरोसा नहीं। अगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता कुछ ऐसा वैसा हो गया तो मरते दम तक मुझे कोफ़्त रहेगी कि हाय, मैंने ख़ुदादाद को ख़ुद क्यों नहीं पाला। इसी तरह ये भी सोचती हूँ कि अगर मिशन की तालीम-ओ-तर्बीयत मेरे मेयार की होती नज़र आई तो भी मैं मुसलसल कोफ़्त में मुब्तला रहूंगी कि हाय, मैंने उसे मिशन को क्यों दे दिया। मगर जब सोचती हूँ कि ख़ुदादाद को ख़ुद पालूँ तो उसकी ज़िम्मेदारियाँ सोच सोच कर घबरा जाती हूँ। बच्चे की ज़िदों और बीमारियों का झेल ले जाना सगी माँ के सिवा और किसी के बस की बात नहीं। क्या मैं झेल सकूँगी सब कुछ?

    ठीक सोच रही हो निशी तुम। अख़राजात का मुआमला भी तो ऐसा ही पेचीदा है। अभी तीन-चार साल तक तो काम तुम्हारे टीयूशन से चल जाएगा। मगर आगे चल कर एक तरफ़ ख़ुदादाद के अख़राजात बढ़ेंगे और दूसरी तरफ़ अपने तीनों बच्चों के। मैं तो ये भी सोच रहा हूँ कि अपने बच्चों में से किसी को आला तालीम के लिए किसी बैरूनी मुल्क को भेज दूं। इसके लिए भी कुछ बचाना होगा।

    लोग अपने भतीजों और भाँजों को अपने साथ रखकर पढ़ाते हैं। मगर उनकी एक जगह होती है और अपने बच्चों की और जगह।

    हाँ, मैं देख रहा हूँ कि तुम किस तरह ख़ुदादाद को पाल रही हो। उसके अख़राजात पूरा करने के लिए तुमने वो टीयूशन कर लिया जो तुमको पसंद नहीं था। तुम ये भी तो कर सकती थीं कि अपने दोनों बेटों को मसूरी से बुला कर यहां के स्कूलों में पढ़ातीं और इस तरह जो बचत होती उससे ख़ुदादाद के अख़राजात पूरे करतीं।

    मेरा ध्यान गया ही नहीं इस तरफ़ कि ख़र्च यूं भी पूरा किया जा सकता है।

    ध्यान का उस तरफ़ जाना क़ुदरती बात है। औलाद औलाद होती है। अब तय कर लो कि हम ख़ुदादाद के लिए क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते हैं। ये भी सोच लो कि आगे चल कर अच्छा बुरा जो भी सामने आए अपने फ़ैसले को निबाहना पड़ेगा।

    सोच तो रही हूँ। लेकिन फ़ैसला कहाँ कर पा रही हूँ।

    तुम ख़ुदादाद को इतना चाहने लगी हो, इतना चाहने लगी हो कि अब उसके बग़ैर नहीं रह सकती हो। इसलिए ये तो तय समझो कि उसको अपने पास ही रखोगी। मुझे यक़ीन है कि तुम उसकी परवरिश की सब ज़िम्मेदारियाँ ख़ुशी ख़ुशी सँभाल लोगी।

    हमारे घर में उसकी हैसियत क्या होगी, ये बात समझ में नहीं रही। तुम्हारी ख़ास उलझन ये है कि तुम चाहती हो ख़ुदादाद को बेटा बनाना। मगर राह में बहुत सी जज़्बाती और अमली रुकावटें महसूस करती हो, देखो हम में से कुछ लोग अपने मरहूम भाई या मरहूम बहन के बच्चों को अपने साथ रखकर पालते और तालीम देते हैं। हम ये क्यों समझें कि ख़ुदादाद हमारा वैसा ही भतीजा या भांजा है। इस तरह उसकी एक अपनी जगह होगी और हमारे बच्चों की अपनी जगह। फिर वो कुछ सोच कर बोला कि जाने क्या हुआ कि मैं भी अब ख़ुदादाद से कुछ लगाव महसूस करने लगा हूँ। अगर तुम ये रास्ता इख़्तियार कर लोगी तो इस काम में मैं भी तुम्हारा शरीक रहूँगा।

    निशी ने थोड़ी देर इस तजवीज़ पर ग़ौर किया। फिर ख़ुश हो कर बोली,

    मंज़ूर। आज ही से, इसी वक़्त से इस पर अमल शुरू।

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