पहाड़ों से उछलता झाग फैलाता नीचे की तरफ़ गोल-गोल चिकने पत्थरों पर बहता शफ़्फ़ाफ़ पानी जब पुर-सुकून नदी में आन मिलता है, तो मेरे ख़याल में उसे ख़ुद भी पुर-सुकून हो जाना चाहिए, लेकिन मैंने ऐसा कम ही देखा है। इस शोरीदा-सर बहते पानी को पुर-सुकून मैदानी फ़ज़ा में नदी की धीमी और बे-आवाज़ रवानी कभी रास न आई। इसने हमेशा बग़ावत की कोशिश की, और अगर कुछ न हो सका तो किनारों से उछल-उछल कर नज़्दीकी आबादियों को अपने जुनून का पैग़ाम भेजना, इसकी दीवानगी नहीं तो और क्या कही जा सकती है।
वो थी तो बरसात की रात पर “बात-बे-बात दिल दहला देने में उसे महारत थी। उल्फ़त में भटकी हुई उन सूनी-सूनी राहों की मानिन्द यादें” बरसों की प्यास लिए मुझे आज भी बेचैन कर जाती है
अच्छा ठहरिए यूँ शायद अपनी बात समझा न पाऊँगा। आईए इस तूदा-ए-ख़ाक को इब्तिदा से देखते हैं।
उस दिन नफ़ीसा बहुत ख़ुश थी। लहरा-लहरा कर मेरे बालों पर उँगलियों से नक़्श बनाती। मेरे बालों में प्यार से उँगलियाँ फेरते हुए बालों को यक-लख़्त बिखेर देती और ख़ूब हँसती। मैंने वुफ़ूर-ए-जज़्बात में जब उसका हाथ अपने हाथों में लिया और उसकी उँगलियाँ चटख़ाने लगा, तो वो ब-यक-वक़्त दर्द और हँसी में अपने दूसरे हाथ से मुझे नोचने लगी।
“छोड़ो... छोड़ो ना! बद-तमीज़ इन्सान...”
वो हँसती-हँसती अचानक ख़ामोश हो गई। मैंने उसके चेहरे पर कर्ब के साए देखे। वो कुछ कहना चाह रही थी।
मैं बोल उठा, “कहो नफ़ीसा... तुम कुछ कहना चाह रही हो?”
तब उसने मुझसे बिना किसी झिझक अपनी ख़्वाहिश का इज़्हार किया तो मेरे जिस्म में जान न रही। मेरे वहम-ओ-गुमान में भी कभी ऐसा न था। मैं उसकी बात सुनकर अन्दर से हिल सा गया। क्या ऐसा मुम्किन है मेरे लिए?
ये क्या कह रही है?
अच्छा अब आप पूछेंगे कि ये नफ़ीसा कौन है?
रुकिए, मैं तफ़सील से इस पूरे मु’आमले को आपके सामने रखता हूँ। नफ़ीसा मेरी दूसरी बीवी है। बेहद ख़ूबसूरत है। सच पूछिए कि तख़्लीक़-कार ने उसकी तराश-ख़राश और रंग-ओ-रूप में मुम्किना हद तक मुबालग़े से काम लिया है। मुम्किन है वो उस परी-चेहरा को सिर्फ़ अपने लिए मुख़्तस करना चाहता हो, लेकिन वही बुनियादी ग़लती कि उसे ख़ुद अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था। अब अपने हाँ उसने अपनी तख़्लीक़ी महारत और बुझारत को इस्ति’माल में कहाँ लाना था। सारा प्रोग्राम ही न बदल जाता। सो आदम के सर मूँढ दी।
ख़ैर कहानी की तरफ़ लौटते हैं। मेरी पहली बीवी ‘आरिफ़ा अपने बच्चों के साथ रहती है। मैं भी उन्हीं के साथ ही रहता हूँ। लेकिन कभी-कभार अलग हो जाता हूँ । बस वो अलग क्या है? यूँ समझिए कि हम अपने-अपने इन्तिज़ामी यूनिट्स में रहते हैं।
नफ़ीसा अभी तक माँ के साथ रहती है। हम दोनों ने अपनी शादी को अपने-अपने ख़ानदान से खु़फ़िया रखा हुआ है। मुझे शादी के लिए चंद दोस्तों को बताना पड़ता था। उसने तो सिरे से किसी को शामिल-ए-हाल ही न किया। सिर्फ़ उसकी माँ जानती है कि वो मेरी मन्कूहा है।
मिलाप के लिए हम अक्सर तवील सफ़र पर निकल जाते और चंद दिन एक साथ गुज़ार कर वापस अपनी-अपनी दुनिया में लौट जाते। शादी को ख़ुफ़िया रखने की कई एक वुजूहात हैं। नफ़ीसा का मौक़िफ़ है, कि उसे अपनी शादी को इसलिए उस वक़्त तक ख़ुफ़िया रखना है जब तक उसकी छोटी बहन की शादी न हो जाएगी और वो ख़ुद भी अपने प्रोफ़ेशन में किसी मक़ाम पर न पहुँच जाए। दर-अस्ल वो एक मक़ामी कॉलेज में उस्ताद है। अदब-ओ-आर्ट से प्यार करती है, बेहद बा-ज़ौक़ है। उसका ख़याल है कि वो जल्द ही प्रोफ़ेसर के ‘ओह्दे पर तरक़्क़ी पा जाएगी।
मुझे तो आप सब जानते ही हैं। मैं इसी शह्र का जाना-पहचाना साइकेट्रिस्ट हूँ। वही रूटीन की पैसे बनाने वाली मशीन कह लें या डाक्टर। मेरे लिए इस शह्र में हर शख़्स अपनी नौ’इय्यत का ज़ेह्नी मरीज़ है। जब वो किसी ख़ास मसअले के तहत मुझसे राब्ता करता है तो तीन चार सैशन में उनकी ख़ूब ख़िदमत करता हूँ। अगर कुछ मज़ीद देने के क़ाबिल न हो तो मैं बुरा नहीं मनाता, बस उसे तवील अ’र्से के लिए नुस्ख़ा देकर छोड़ देता हूँ, ताकि वो अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश रहे। आप समझ रहे हैं ना!
नफ़ीसा मेरी स्टूडेंट थी, जब वो मुझ पर मर मिटी थी। आज मिलाप हुए सात बरस गुज़र चुके हैं। उसने क़स्दन औलाद से इज्तिनाब बरता, और ख़ुद मुझे भी औलाद की कोई ख़ास तमन्ना न थी, कि पहली बीवी से मेरी औलाद है और वो सब अपनी-अपनी दुनिया में मस्त और ख़ुशहाल हैं।
अब चंद दिनों से नफ़ीसा कुछ बेचैन सी लग रही थी। शादी से पहले दो बरस और बा’द-अज़ाँ अगले पाँच बरसों में हमने जिस्मानी त’अल्लुक़ को बहुत अहम समझा था। लेकिन सच पूछिए तो मैं नफ़ीसा की मुहब्बत और जिस्म दोनों में गिरफ़्तार हूँ। वो आ’दत की बहुत अच्छी है। हमेशा कम्परोमाईज़ करना, हंबल रहना और मुहब्बत में इज़्हार को मोहब्बत की बुनियादी कलीद समझना, उसके लिए बहुत अहम है। वो सिगमंड फ़्रायड की क़ाइल न है, जिसने औ’रत को हमेशा तब्दीली से ‘आरी समझा और एक हद तक ग़ैर-फ़’आल (पैसिव) कहा। लेकिन हक़ीक़त ये कि वो अपने बातिन में फ़्रायड की “पेनिस एन्वी” की लुग़वी मिसाल है।
ये सब कुछ मैंने उसके साथ जिस्मानी त’अल्लुक़ या यूँ कह लें शादी के बा’द जाना। वो जिस्मानी और ज़ेहनी तौर पर इस क़दर पुर-जोश और बेचैन थी कि मेरे पूरे जिस्म को अपने अन्दर उतार लेना चाहती थी। वो अपने जिस्म में ‘उज़्व-ए-तनासुल की कमी को अ’लामती सत्ह पर मनफ़िय्यत का निशाना बनाती और जवाबी तौर पर अपनी मेरे वजूद को किसी औ’रत का जिस्म समझती थी। इस बात का इज़्हार ला-शुऊ’री तौर पर उन हैजान-ख़ेज लम्हात में ख़ूब करती, जिसमें मुझे कभी-कभार फ़िज़िकल तशद्दुद का सामना भी करना पड़ता। ख़ैर मैं ये कह सकता हूँ कि हमने एक दूसरे के वुजूदी इम्कानात की ‘अमीक़ गहराइयों और शुऊ’री तौर पर मोहब्बत के इज़्हार को ज़बान देकर ज़िन्दगी ख़ूब लुत्फ़ उठाया। इब्तिदाई चन्द बरस तो चुटकियों में गुज़र गए। तब रफ़्ता-रफ़्ता हम दोनों को ये एहसास होने लगा कि हम तन्हा होते जा रहे हैं और कहीं-कहीं अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों से चश्म-पोश भी। फिर ये हुआ कि हमारी गुफ़्तुगू का महवर यही मौज़ू’ रहने लगा।
ब-ज़ाहिर इस दूसरी शादी के बा’द मेरा कुछ भी स्टेक पर न था, बल्कि मैं क़द्रे बेहतर पोज़ीशन में था। ताहम नफ़ीसा के अन्दर एक अ’जीब सी बेचैनी उभरती नज़र आने लगी। कभी-कभार तो वो इस ख़ुफ़िया शादी के त’अल्लुक़ पर पढ़ी लिखी होने के बावुजूद मुबाह की बहस में भी उलझ जाती। जो मेरे लिए सूहान-ए-रूह होता। आपकी मन्कूहा जब गुनाह की दहलीज़ से आवाज़ दे तो मर्द के लिए मुश्किल तो हो जाती है। चूँकि मैं उसके नफ़सियाती ख़ला को समझता था, सो नज़र-अन्दाज़ कर देता। ब-हैसियत-ए-नफ़्सियात-दान मुझे नफ़ीसा के अन्दर जलते हुए अलाव के पेश-ए-नज़र ये एहसास होने लगा कि शायद वो मुझे एक मुबर्रिद के तौर पर अपनी ज़िन्दगी में लाई है। एक आईस-बर्ग जो जलते अलाव को रफ़्ता-रफ़्ता ठंडा करता जाए। इस अलाव को मुसलसल आग बुझाने वाले एक आले की ज़रूरत थी, वर्ना वो समाजी ज़िन्दगी से यूँ न अलग-थलक रहती। मैं अक्सर उसका साइको-एनालिसिस करता, और बिल-आख़िर ख़ुद को समझा बुझाकर ख़ामोश हो जाता।
मैंने उसे कई बार मशवरा दिया कि आओ अब नई ज़िन्दगी की इब्तिदा समाज की एक ज़िम्मेदार इकाई की सूरत करते हैं। तुम कुछ नहीं खोओगी। मु’आशरे में शादी-शुदा होने के नाते से तुम्हें जो ‘इज़्ज़त मिलेगी उसका तुम सोच भी नहीं सकती, लेकिन उसके सर पर सवार एक ही धुन है। मुझे अभी अपनी शनाख़्त को बर-क़रार रखना है। चूँकि मैं ख़ुद भी इन सवालात से बचना ही चाहता था, सो उसकी हाँ में हाँ मिलाकर ख़ामोश हो जाता।
जिस दिन हमारी आख़िरी मुलाक़ात हुई, वो कोई तय-शुदा आख़िरी मुलाक़ात न थी। वो हस्ब-ए-मा’मूल एक तफ़रीही मुलाक़ात थी। हम शह्र से दूर तफ़रीह पर दो रोज़ के लिए एक वसी’-ओ-‘अरीज़ फ़ार्म-हाऊस में ठहरे हुए थे। ज़िन्दगी की हर सुहूलत वहाँ मौजूद थी। फ़ार्म हाऊस के मालिक मेरे दोस्त थे। उन्ही की दा’वत पर मैं पहली बार नफ़ीसा को लेकर वहाँ गया था। वहाँ एक फ़ैमिली और भी ठहरी हुई थी। जिनके दो नन्हे-मुन्ने बच्चे अक्सर हमें बाहर वसी’-ओ-‘अरीज़ लॉन में भागते दौड़ते नज़र आते।
नफ़ीसा अचानक उन बच्चों को देखकर बिदक गई और अपने आपको छिपाने लगी। मेरे इस्तिफ़सार पर उसने बताया कि वो उन बच्चों को पहचानती है।
“मैं तुम्हें बता रही हूँ ज़फ़र वो नमीरा के बच्चे हैं। मैंने उनसे बातों-बातों में उनकी मम्मा का नाम भी कन्फ़र्म कर लिया है।”
नफ़ीसा ने बेचैनी से कहा, “नमीरा मेरी बचपन की सहेली है। मैं उसकी फ़ैमिली और बच्चों की तस्वीरें देख चुकी हूँ। ये तो अच्छा हुआ कि बच्चों ने मुझे नहीं पहचाना। नमीरा को अचानक ये सब देखकर सदमा पहुँचेगा।”
“तो क्या हुआ? अच्छा है आज यूँही ये राज़ खुलने दो। उसे क़त’अन सदमा नहीं पहुँचेगा। ये तुम्हारा ख़ौफ़ है जो तुम्हें रोकता है। यक़ीन करो कि वो ख़ुश हो जाएगी, क्योंकि तुम्हारी सहेलियों को अक्सर तुम्हारी शादी की फ़िक्र रहती है और तुमसे पूछती भी रहती हैं। तुम फ़िक्र न करो। मैं डाक्टर हूँ। मु’आमले को ख़ुश-उस्लूबी से सँभाल लूँगा।
दर-अस्ल मेरे अन्दर के दबाव ने मुझे उकसाया कि यही वक़्त है मु’आमले को खुलने दो ताकि हमा-वक़्त इन ख़ुफ़िया मुलाक़ातों से उनकी जान छुट जाए। मुझे नफ़ीसा का बेहद ख़याल था। मेरे तईं नफ़ीसा अपनी समाजी ज़िन्दगी में जिस मस्नू’ई तरीक़े से रह रही है वो उसके लिए और मेरे लिए क़त’ई सूद-मंद नहीं।
दूसरी तरफ़ मुझे एक इत्मीनान और भी था कि मैंने आरिफ़ा से जब एक रोज़ इत्तिफ़ाक़न ख़ुश-गवार मूड में बात करते हुए पूछा, कि अगर मैं दूसरी शादी कर लूँ तो तुम्हारा रद्द-ए-अ’मल क्या होगा?
तो इस पर वो बोली “मुझे क्या? आप भले चार शादियाँ कर लें, बस मेरे बच्चों की माली मु’आमलात को महफ़ूज़ कर दें। आप जो चाहें करें।”
बात अच्छी ख़ासी खटकने वाली थी, लेकिन मैं नज़र-अन्दाज़ कर गया।
लेकिन सच जानें, ‘आरिफ़ा की इस बात ने मुझे ज़ाती तौर पर बहुत सहारा दिया था। वो अलग बात कि ये एहसास शदीद कर्ब पहुँचा गया कि अब ‘आरिफ़ा भी इस ठहरे हुए समाज में मेरी तरह की एक ज़िम्मेदार “इकाई” बन चुकी है जहाँ इन्सानी क़द्रों की नुमू रुक चुकी हो। मेरे लबों पर एक तन्ज़िया सी मुस्कुराहट उभर आई।
“अब निज़ाम को किसी क़िस्म का ख़तरा नहीं है।”
मुझे जब भी अपने आपको समाजी कटहरे में लाना पड़ा, मैं अपनी हैसियत का फ़ाइदा उठाकर फ़ौरन आँख बचाकर निकल गया। सवाल ये था कि क्या मैं अपने आप का सामना कर सकता हूँ? ये सवाल बहुत मुश्किल है और आप जानते हैं कि मैं कभी ऐसे मुश्किल कामों में हाथ नहीं डालता। अज़ली सहल-पसन्द जो ठहरा।
यहाँ पहुँच कर ये एहसास बार-ए-गराँ की तरह मेरे कंधों पर आन पड़ा कि कहानी तो रुक चुकी है। कहानी-कार जान बूझ कर उसे तवील कर रहा है। उसे कोई और किरदार नहीं मिल रहा जिसे वो सीग़ा-ए-वाहिद मुतकल्लिम रावी से टकरा दे। जिस सदाक़त पर कहानी खड़ी करके वो यहाँ पहुँचा है। वो बात तो अब तक मेरे शुऊ’र ने छिपा रखी है और कहानी-कार वज्ह-बे-वज्ह इन तीनों किरदारों की नफ़्सियात बयान करने पर तुला हुआ है।
अच्छा ये अभी तय करना बाक़ी है कि वो सदाक़त है या एक अन्जान सी कसक या ख़ौफ़ जो उसे जीने नहीं देता?
मुझे मा’लूम है कि रावी ने ज़िन्दगी को कभी शर और ख़ैर के हवालों से नहीं देखा बल्कि इन्सान को उसकी फ़ित्री जिबिल्लत के हवाले से देखा है जो मज़ाहिर में आ’माल का नतीजा है। जिसने पहले नफ़ीसा को दबाव में रखा फिर कहानी-कार को। मज़े की बात ये है कि उसने अपने किरदार-ए-नफ़्सियात-दान डाक्टर को भी निचोड़ कर रख दिया।
मेरे लिए यहाँ ये भी तय करना मुश्किल हो रहा है कि नफ़ीसा अपने मौक़िफ़ पर दुरुस्त है या ‘आरिफ़ा। दूसरी तरफ़ मुझे नफ़्सियात-दान किरदार से भी इख़्तिलाफ़ है। ताहम मेरा ख़याल है कि कहानी-कार जानता है कि रावी को मा’लूम है कि किन सच्चाइयों को सामने लाना है और कहाँ डंडी मारनी है। वो ख़ुद भी तो उसी समाज की इकाई है, ऊपर से तो टपका नहीं कि हर बात आफ़ाक़ी और मरबूत हो। ज़मीन की पैदावार है। हम सबको समाजी इर्तिक़ा यहाँ तक लाया है। आगे कहाँ तक इन्सान को जाना है उसे ख़ुद मा’लूम नहीं। ऐसी सूरत में तीसरा रावी यानी मैं हूँ कौन जो सच को अ’याँ नहीं होने देता।
कहानी-कार के अन्दर अचानक एक सरगोशी उभरी। अगर रावी नहीं कहेगा तो फिर कौन कहेगा। कहने के लिए क्या कोई ऊपर से टपकेगा?
“हूँ। ये ठीक है। चलिए मैं मान लेता हूँ।”, कहानी-कार ने फ़ौरन सरगोशी के सामने हथियार फेंक दिए। “लाओ मेरा क़लम मुझे वापस दो, मुझे कहानी मुकम्मल करने दो।”
जी तो मैं कह रहा था कि मैं समाज में दूसरे इन्सानों की तरह ही सहल-पसन्द ठहरा हूँ। मुश्किल कामों में हाथ नहीं डालता, लेकिन अब सोच रहा हूँ कि चलो यूँ भी कर लेते हैं। कुछ इन्सान सख़्त-जाँ भी होंगे, लेकिन मुझे उनसे क्या लेना-देना। आख़िर नफ़ीसा मेरे दिल में बसती है जिसकी मैंने अपने हाथों से आबयारी की है। अगर वो चाहे तो सब कुछ हो सकता है। आख़िर हो ही रहा है ना?
वो जिस शिद्दत से मुझे प्यार करती है मुझे कुछ तो उसे वापस लौटाना है।
प्यार के बदले प्यार।
प्यार के बदले ज़िन्दगी।
प्यार के बदले हर वो शय जिसे वो इस दुनिया में बरतना चाहती है।
मैंने नफ़ीसा की तरफ़ देखा। वो मुसलसल अपने नाख़ुन कुतर रही थी। उसकी अज़ली मा’सूमियत उसके चेहरे पर शफ़क़ की तरह झिलमिला रही थी।
मैंने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसकी और मेरी आँखें एक साथ डबडबा गईं।
“हाँ नफ़ीसा तुम दूसरी शादी कर सकती हो। जाओ अपनी बिसात भर दुनिया बसाओ। मैं यहीं कहीं आस-पास तुम्हें ज़िन्दगी के सफ़र में मिलता रहूँगा।”
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