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ब्रह्मचारी

MORE BYदेवेन्द्र सत्यार्थी

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो अमरनाथ यात्रा पर निकले एक जत्थे में शामिल है। उस जत्थे में जय चंद, उसका क्लर्क जियालाल, दो घोड़े वाले और एक लड़की सूरज कुमारी भी शामिल है। चलते हुए घोड़े वाले गीत गाते रहते हैं और उनके गीत सुनकर लड़की लगातार मुस्कुराती रहती है। यात्री सोचता है कि वह उसे देखकर मुस्कुरा रही है, मगर वह तो ब्रह्मचारी है। एक जगह पड़ाव पर उसकी जत्थे के एक साथी से ब्रह्मचर्य को लेकर शर्त लग जाती है और वह तंबू से बाहर आकर ज़मीन पर लेट जाता है। खुले आसमान में सोते हुए उसे सूरज कुमारी को लेकर तरह-तरह के ख़्याल आते रहते हैं और वह कहता रहता है कि वह तो ब्रह्मचारी है।

    पंचतर्णी की वो रात मुझे कभी भूलेगी, पहले किसी पड़ाव पर सूरज कुमारी ने इतना सिंगार किया था, पहले वो गैस का लैम्प जलाया गया था। उस रोशनी में सूरज कुमारी का उ’रूसी लिबास कितना भड़कीला नज़र आता था।

    दोनों घोड़े वालों को खासतौर पर बुलाया गया था। एक का नाम था अ’ज़ीज़ा और दूसरे का रफ़ी। जय चंद का कश्मीरी क्लर्क जिया लाल बहुत मसरूर नज़र आता था। ख़ुद जय चंद भी दूल्हा बना बैठा था। रसोइये को जाने उस महफ़िल में कुछ कशिश क्यों महसूस हुई। काम से फ़ारिग़ हुआ तो यात्रा का बाज़ार देखने चला गया।

    प्रेम नाथ से बग़ैर कुछ कहे सुने ही जब मैं श्रीनगर से पैदल ही पहलगाम के लिए चल दिया था, तब किसे ख़बर थी कि इतने अच्छे खे़मे में जगह मिल जाएगी। सूरज कुमारी ने मेरा भेद पा लिया था। उस ने जय चंद को बता दिया कि मैं घर वालों की रजामंदी के बग़ैर ही इधर चला आया हूँ। इस तरह उसने मेरे लिए अपने ख़ाविंद की हमदर्दी और भी उभार दी।

    जियालाल ने अ’ज़ीज़ा से वो गीत गाने का मुतालिबा किया जिसमें एक कुँवारी कहती है... “बेद-ए-मुश्क की ख़ुशबू मेरे मन में बस गई है। बावरे भँवरे! तू कहाँ जा सोया है?” उसे ये गीत याद था। उसने सोचा होगा कि वो लड़की जिसके मन में बेद-ए-मुश्क की ख़ुशबू बस गई थी, सूरज कुमारी से कहीं बढ़कर सुंदर होगी। ये दूसरी बात है कि कश्मीर की बेटी को अक्सर बहुत ख़ूबसूरत लिबास नसीब नहीं होता।

    ख़ुद सूरज कुमारी जाने क्या सोच रही थी, मुझे उसका वो रूप याद आरहा था जब वो हरा दुपट्टा ओढ़े घोड़े पर सवार थी और चंदन वाड़ी पार करके बर्फ़ के उस पुल पर उतर पड़ी थी जिसके नीचे से शेषनाग बह रहा था। तब वो जंगल की अप्सरा मा’लूम होती थी। रास्ते में जंगली फूल चुन कर चलते चलते जिया लाल ने एक गजरा तैयार कर लिया था और वो मुस्कुराहट मुझे कभी भूलेगी जो कि जियालाल से ये गजरा लेते हुए सूरज कुमारी की आँखों में रक़्स करने लगी थी।

    मैंने कहा, “गीत तैयार करना बहुत मुश्किल काम थोड़ा ही है। अलफ़ाज़ को बंसरी में से गुज़ार दो, गीत हो जाएगा!”

    सूरज कुमारी बोली, “मेरे पास तो पुर असर अलफ़ाज़ भी नहीं रह गए। हाँ बंसरी मैंने सँभाल कर रख छोड़ी है... कभी मुझे भी शे’र-ओ-नग़मा की धुन लगती थी।”

    मैं ख़ामोश हो गया। लेकिन अपने ज़ेह्न में उससे मुख़ातिब हुआ... घबराया नहीं, ख़ामोश दुल्हन, तेरे बोल तो बहुत सुरीले हैं... वो ज़रूर किसी दिन फिर भी बंसरी में से गुज़़रेंगे... और अपने गीतों में तो मुझे भूल तो जाएगी...

    अ’ज़ीज़ा ने लोच दार आवाज़ में गाना शुरू किया,

    “लज फुले इंदू नन

    चे कन्नन गोय नामे ऊन?

    लज फुले कोल सरन

    वोथो नीरन ख़स दो

    फूली यू सुमन इंदू नन

    चे कन्नन गोय नामे ऊन?”

    “दूर जंगलों में फूल खिल गये। क्या मेरी बात तेरे कानों तक नहीं पहुंची? कोल सर जैसी झीलों में फूल खिल गये। उठो हम चरागाहों की तरफ़ चढ़ेंगे। दूर जंगलों में चम्बेली के फूल खिल गये। क्या मेरी बात तेरे कानों तक नहीं पहुंची?”

    जय चंद कश्मीरी ख़ूब समझता था। कश्मीर में ठेकेदारी करते उसे कई साल हो गये थे। सूरज कुमारी ने क्यों इस ज़बान में दिलचस्पी ली थी। इस बात पर सबसे ज़्यादा हैरत मुझे उसी रात हुई। जय चंद बोला, “ये किसी कुँवारी का गीत है। उसने देखा कि बहार आगई। चम्बेली के फूल भी खिल गये और फिर शायद ग़ैर शऊ’री तौर पर उसने ये भी महसूस किया कि वो ख़ुद भी चम्बेली का एक फूल है।”

    गीत का एक ही रेला अ’ज़ीज़ा को मेरे क़रीब खींच लाया। सारे रास्ते में कभी मैंने उसे इतना ख़ुश देखा था। आदमी कितना छुपा रहता है। उसे जानने की मैंने अब तक कोशिश भी तो की थी।

    रोज़-रोज़ के लंबे सफ़र से हम बहुत थक गये थे, अब इस शुग़्ल में सब थकावट भूल गई। सूरज कुमारी का सुंदर चेहरा सामने होता तो अ’ज़ीज़ा को बहार का गीत याद आया होता।

    सूरज कुमारी कह रही थी, “बाबूजी! मैंने सुना है कि इस वादी में बहने वाली पांचों नदियों का पानी, जो इतना क़रीब-क़रीब बहता है, एक दूसरी से कम-ओ-बेश ठंडा है।”

    जय चंद बोला, “शायद ये ठीक हो!”

    मैं सोचने लगा कि सब मर्द भी तो एक सी तबीयत के मालिक नहीं होते... औरतें भी तबीयत के लिहाज़ से यकसाँ नहीं होतीं... वाह री क़ुदरत, पंच तर्णी की पांचों नदियों का पानी भी यकसाँ ठंडा नहीं!

    “पारबती इन नदियों में बारी-बारी से नहाया करती थी, बाबूजी!”

    “तुमसे किस ने कहा?”

    “जिया लाल ने।”

    जियालाल चौंक पड़ा। सूरज कुमारी ने ऐ’शतलब हंसी हंसकर जय चंद की तरफ़ देखा। जैसे वो ख़ुद भी एक पारबती हो और अपने शिव को रिझाने का जतन कर रही हो।

    मैंने अ’ज़ीज़ा से कोई दूसरा गीत गाने का मुतालिबा किया। वो गा रहा था,

    “विन्नी वमई आर वलिन यारकुनी मै लिखना?

    छूह लो गुम मस वलिन यारकुनी मै लिखना?

    वमई सीनदज़ ईनी यारकुनी मै लिखना?”

    “आरोल के फूलों मैं तुम्हें तलाश करूँगी। कहीं तुम मिलोगे नहीं (मेरे महबूब)? मेरे बाल-बाल को ख़ुद से नफ़रत हो गई है। कहीं तुम मिलोगे नहीं(मेरे महबूब?) सिंध नाले के पानियों पर तुम्हें तलाश करूँगी। कहीं तुम मिलोगे नहीं (मेरे महबूब)?”

    रफ़ी उस दरख़्त की तरह था, जिसे झिंजोड़ने पर ऊंची टहनी पर लगा हुआ फल नीचे नहीं गिरता। उस ने एक भी गीत सुनाया, लेकिन जियालाल काफ़ी उछल पड़ा और बग़ैर रस्मी तक़ाज़े के उसने गाना शुरू किया,

    चूरी यार चूलम ताय, तही माडे ओठ दोन?

    तही माडे ओठ वोन?

    दूरन मारन गिराए लो लो, गिराए लोलो!

    विथी दी विग नयादरद दहाए करुनय

    सिंगर मालन छाये लोलो, छाये लोलो!

    “... मेरा महबूब चोरी-चोरी भाग गया। क्या तुमने उसे देखा है कहीं, देखा है कहीं? कान के सब्ज़े हिलाते हुए, हिलाते हुए! उठो प्रियो! हम ‘रूद’ नाच नाचेंगे,पहाड़ियों की छाँव में ,छाँव में!”

    जियालाल मुसकरा रहा था। शायद ख़ुद ही अपने गीत पर ख़ुश हो रहा था। सूरज कुमारी की तरफ़ ललचाई हुई आँखों से देखना बेकार रहा। वो उसकी ज़बान समझती थी, दाद दे सकती थी, लेकिन उसे मुस्कुराता देखकर वो भी मुस्कुराने लगी।

    सूरज कुमारी की मुस्कुराहट कितनी मोहिनी थी। वो कालीदास की किसी हुस्न-ओ-इश्क़ की नज़्म की तरह थी। जिसमें अलफ़ाज़ एक से ज़्यादा मा’नी पा उठते हैं। चुनांचे मेरी समझ में यही बात आई कि उसकी मुस्कुराहट जय चंद और जिया लाल के लिए नहीं बल्कि मेरे लिए है।

    मगर मैं उस माया में फंसने के लिए तैयार था। माज़ी की पुरानी कहानी “कुच देवयानी” मेरी आँखों के आगे फिर गई....सूरज कुमारी शायद देवयानी थी और मैंने महसूस किया कि मैं भी किसी कुच से कम नहीं।

    माज़ी का कुच स्वर्ग का रहने वाला था। मैं इसी धरती का। यही फ़र्क़ था। वो धरती पर एक ऋषि के आश्रम में ज़िंदा जावेद रहने की विद्या सीखने आया था और मैंने यात्रा के दिन काटने के लिए जय चंद के खे़मे में पनाह ली थी। स्वर्ग से चलते वक़्त कुच ने ये वा’दा किया था कि वो ये विद्या सीख कर वापस स्वर्ग में लौटना और वहां के बासीयों को इसका फ़ैज़ पहुंचाना कभी भूलेगा। उसके लिए सबसे ज़रूरी यही था कि वो ब्रह्मचारी के धर्म पर बरक़रार रहे। ऋषि किसी को ये विद्या आसानी से सिखाता था। कितने ही नौजवान उससे पहले भी आचुके थे। हर कोई ऋषि के गुस्से की ताब लाकर वहीं ख़त्म हो गया। मगर जब कुच आया तो ऋषि की लड़की देवयानी उस पर शैदा हो गई थी। अपने बाप से फ़र्माइश करके उसने उसे विद्या सिखाने पर रज़ामंद कर लिया। जब कुच ये विद्या सीख चुका तो वो वापस जाने के लिए तैयार हो गया। देवयानी कहती है... “देखियो इस वीनू मति नदी को मत भूलियो। ये तो ख़ुद मुहब्बत की तरह बेहती है!”

    कुच जवाब देता है, “उसे मैं कभी भूलूँगा... उसी के क़रीब, उस दिन जब मैं यहां पहुंचा था। मैंने तुझे फूल चुनते देखा था... और मैंने कहा था। मेरे लायक़ सेवा हो तो कहो।”

    देवयानी कहती है... “हाँ इसी तरह हमारा प्यार शुरू हुआ था... अब तुम मेरे हो... औरत के दिल की क़ीमत पहचानो....प्यार भी किसी विद्या से सस्ता नहीं... और अब तमाम देवता और उनका भगवान अपनी मुशतर्का ताक़त से भी तुम्हें वापस नहीं ले सकेंगे...! मुझे फूल पेश करने के ख़्याल से बीसियों बार तुमने किताब परे फेंक दी थी... अनगिनत बार तुमने मुझे वो गीत सुनाए थे जो सदा स्वर्ग में गाये जाते हैं। तुमने ये रवय्या सिर्फ़ इसीलिए तो इख़्तियार नहीं किया था कि यूं मुझे ख़ुश रख सको और आसानी से वो विद्या सीख लो जिसे मेरे पिताजी ने पहले किसी को सिखाना मंज़ूर नहीं किया था...”

    कुच कहता है, “मुझे माफ़ कर दे देवयानी...! स्वर्ग में तो मुझे ज़रूर जाना है... फिर मैं तो ब्रह्मचारी हूँ!”

    “ब्रह्मचारी...! एक राही की तरह तू यहां निकला था। धूप तेज़ थी। छाँव देखकर तू यहां बैठा। फूल चुन कर तू ने मेरे लिए एक हार बनाया था... अब ख़ुद ही अपने हाथों से तू हार का धागा तोड़ रहा है... देख, फूल गिरे जा रहे हैं...!”

    “ब्रह्मचारी तो मैं हूँ ही। स्वर्ग में हर कोई मेरे इंतिज़ार में होगा... वहां मुझे जाना ज़रूर है... और ये तो ज़ाहिर है कि जहां तक मेरी ज़ात का ता’ल्लुक़ है इस स्वर्ग में मुझे अब शांति नसीब होगी।”

    मैंने सोचा कि एक लिहाज़ से मैं कुच से कहीं ज़्यादा मा’क़ूल वजह पेश कर सकता हूँ, “मैं कह सकता हूँ। सूरज कुमारी! तेरी मुस्कुराहट सिर्फ़ तेरे खाविंद के लिए होनी चाहिए। देवयानी की तरह तू किसी ऋषि की कुँवारी लड़की थोड़ा ही है।”

    सूरज कुमारी अंगड़ाई ले रही थी। उसके बालों की एक लट बाएं गाल पर सरक आई थी। मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोली, “बस या अभी और... ?”

    मैंने उसका पूरा मतलब समझे बग़ैर ही कह दिया, “बस और नहीं।”

    “और नहीं... ख़ूब रही! में तो इधर की ज़बान समझती नहीं। तुम्हारी ख़ातिर बाबूजी ने अ’ज़ीज़ा को यहां बुलाया। अब थोड़े से गीत सुन कर ही तुम्हारी भूक मिट गई? तू यूँही गीतों की रट लगा रखी थी पहलगाम में?”

    मैंने कहा, “नहीं बीबी जी, मैंने सोचा आपको नींद आरही है और शायद अ’ज़ीज़ा भी सोना चाहता है।”

    अ’ज़ीज़ा कुछ बोला और जय चंद ने महफ़िल बर्ख़ास्त कर दी। अ’ज़ीज़ा और रफ़ी चले गये और रसोईया जय चंद और सूरज कुमारी के बिस्तर लगा कर हमारे पास बैठा।

    सूरज कुमारी पूछ रही थी, “बाबूजी! सुना है गुफा में कबूतरों का जोड़ा भी दर्शन देता है।”

    “सुबह को तुम ख़ुद ही देख लोगी।”

    “ये कबूतर कहाँ से आते हैं?”

    “अब ये मैं क्या जानूँ?”

    “एक सुनारन ने बताया था कि ये कबूतर शिव और पारबती के रूप में।”

    “शायद औरतों का वेद यही कहता हो।”

    रसोईया सो चुका था। जय चंद और सूरज कुमारी भी सो गये। जियालाल बोला, “उफ़ कितनी सर्दी है!”

    “कितनी सर्दी है, ब्रह्मचारी हो कर भी ये सर्दी नहीं सह सकते। शर्म का मुक़ाम है।”

    “ब्रह्मचारी तो मैं हूँ। मगर इस आब-ओ-हवा का आ’दी नहीं हूँ।”

    “ब्रह्मचारी को तो किसी भी मौसम से डरना नहीं चाहिए।”

    “तुम भी तो ब्रह्मचारी हो”, उसने ता’ना मारा।

    “तो मैं कब डरता हूँ?”

    “तो क्या तुम खे़मे के बाहर खुले आसमान के नीचे सो सकते हो?”

    ये बात मैंने जोश में आकर कह दी थी। मैंने अपनी मोटी कश्मीरी लोई उठाई और खे़मे से बाहर निकल गया। जिया लाल मेरे पीछे भागा। मैं रुक कर खड़ा हो गया। चांदनी छिटकी हुई थी। सन्नाटा था।

    वो बोला, “मैंने तो हंसी में कह दिया था और तुम सच मान गये।”

    “सच्च हो चाहे झूट में दिखा दूँगा कि ब्रह्मचारी डरता नहीं।”

    “अच्छा तो खे़मे के क़रीब ही सो जाओ।”

    मैं खे़मे के क़रीब ही लोई में लिपट कर लेट गया। वो अंदर से चटाई निकाल लाया। बोला, “इसे नीचे डाल लो। ऐसी तो कोई शर्त थी कि नंगी धरती पर सोकर दिखाओगे।”

    चटाई डाल कर वो मेरे पांव की तरफ़ बैठ गया। बोला, “अरे यार मुफ़्त में क्यों जान गंवाते हो?”

    “उंह!” मैंने शाने फिरकाते हुए कहा, “मुझे किसी बात का ख़तरा नहीं।”

    “अच्छा तो मैं ठेकेदार साहिब को जगाता हूँ।” जियालाल बोला।

    फिर जिया लाल इस मुस्लमान चरवाहे की कहानी सुनाने लगा। जिसने एक बड़ा काम किया था। यात्री अमरनाथ का रस्ता भूल गये थे। उसने उसे ढूंढ निकाला था और इसके इ’वज़ में अब तक उसकी औलाद को चढ़ावे का एक मा’क़ूल हिस्सा मिलता आरहा है।

    मैंने शरारतन कहा, “वो चरवाहा ज़रूर उस वक़्त ब्रह्मचारी होगा।”

    वो हंस पड़ा और अंदर जाकर लेट रहा। मैं चांद और तारों की तरफ़ देख रहा था। पुराने ज़माने में बड़े बड़े ऋषि इधर आते थे तो ख़ेमों में थोड़ा ही रहते थे। यूं खुले आसमान तले पड़ रहते होंगे। इस कड़ाके की सर्दी से वो डरते थे।

    कुछ देर के बाद तारे मेरी निगाह में काँपने लगे। चांद धुंद में लिपट गया। ख़्वाब आलूद पलकों ने आँखों को सी दिया और...

    मैंने देखा कि जिया लाल घोड़े पर सवार सूरज कुमारी को गजरा पेश कर रहा है और वो पेशावर की हरी दुपट्टे वाली जवान औरत अ’जब अंदाज़ से मुस्कुरा रही है। मैंने जियालाल को मुतनब्बा करते हुए कहा, “जियालाल! तुम्हारा नस्ब-उल-ऐ’न औरत से कहीं बुलंद है... औरत एक एलुजन है माया!”

    जियालाल एक तंज़आमेज़ मुस्कुराहट से मेरी तरफ़ देखने लगा और बोला, “लेकिन ये माया भी किस क़दर हसीन है। मुझे इस सराब के पीछे सरगर्दां रहने दो!”

    अ’ज़ीज़ा बेद-ए-मुश्क की टहनी लिये आरहा था। मैंने मअ’न उससे सवाल किया, “ये किस के लिए लाये हो अज़ीज़ा?”

    “उस बहार की दुल्हन के लिए जो खे़मे में इस वक़्त मस्त-ए-ख़्वाब है।” अ’ज़ीज़ा ने नीम मदहोश आँखों से मेरी तरफ़ देखते हुए कहा।

    उस वक़्त मुझे किसी सूरज कुमारी की आवाज़ सुनाई दी। जैसे वो गा रही हो... “बेद-ए-मुश्क की ख़ुशबू मेरे मन में बस गई है... दूर जंगलों में चम्बेली के फूल खिल गये। क्या मेरी आवाज़ तुम्हारे कानों तक नहीं पहुंची, मेरे महबूब?”

    और जैसे कोई जय चंद कह रहा हो, “तुम्हारी आवाज़ मैंने सुन ली। उठो, हम चरागाहों की तरफ़ चढ़ेंगे।”

    फिर वो सूरज कुमारी तितलियों के पीछे भागी। जय चंद भी उसके साथ-साथ रहा। सूरज कुमारी को देखकर मुझे उस चीनी कुँवारी का ख़्याल आया। जिसे तितलियों ने फूल समझ लिया था और टोलियां बनाकर उसके गिर्द जमा हो गई थीं... मगर ये तितलियाँ तो सूरज कुमारी से भाग रही थीं और उनका पीछा करते उसका सांस चढ़ रहा था। जय चंद को देखकर मुझे चीनी तारीख़ के उस बादशाह की याद आई जिसने पिंजरों में सैंकड़ों तितलियाँ पाल रखी थीं। जब उसके बाग़ में ख़ूबसूरत लड़कियां जमा होतीं तो वो हुक्म देता कि पिंजरों के दरवाज़े खोल दिये जायें। ये तितलियाँ बला की सियानी थीं। वो सबसे ख़ूबसूरत लड़कियों के गिर्द जमा हो जातीं और इस तरह ये लड़की बादशाह की निगाहों में भी जच जाती... क्या इस जय चंद ने भी तितलियों की मदद से इस सूरज कुमारी को चुना था, पर ये तितलियाँ तो सूरज कुमारी की परवा करती थीं जय चंद की...

    दौड़ती-दौड़ती वो सूरज कुमारी एक चरवाहे के पास जा पहुंची। बोली, “बंसरी फिर बजा लेना। पहले मेरे लिए तितली पकड़ दो, वो सुंदर तितली जो अभी-अभी सामने फूल पर जा बैठी है। शायद तितली की बजाय वो इस नौजवान चरवाहे ही को गिरफ़्तार करना चाहती थी और फिर जब उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो उसे जय चंद नज़र आया।

    वो बदस्तूर गा रही थी... “कहीं तुम मिलोगे नहीं, मेरे महबूब? आरोल के फूलों मैं तुम्हारी तलाश करूँगी।”

    कहीं से कोई जियालाल निकला। बोला, “तू नर्गिस है... ख़ुमार से भरपूर। तू शर्म से गर्दन झुकाए हुए है।” और वो सूरज कुमारी बोली, “बावरे भँवरे! मैं तेरे इंतिज़ार में थी!”

    जय चंद को आता देखकर जियालाल भाग गया, वर्ना वो बुरी तरह पिटता। जय चंद बे-तहाशा गालियां देने लगा। सूरज कुमारी सर झुकाए खड़ी थी। पांव के अंगूठे से वो ज़मीन कुरेदती रही।

    मैंने तहय्या कर लिया कि मज़ीद ये खेल देखूँगा। अपनी लोई में सिमट कर लेट गया। सूरज कुमारी का ख़्याल तक मेरे दिल में उठे। बस यही मेरी कोशिश थी। मगर सूरज कुमारी थी कि सामने से हटती ही थी। मेरे पास बैठी और पुरमा’नी निगाहों से मेरी तरफ़ देखने लगी। उसे अपने बिल्कुल क़रीब पाकर मैं बहुत घबराया और मैंने चिल्लाते हुए कहा, “औरत! औरत माया है और फिर मैं तो एक ब्रह्मचारी हूँ।”

    उसने मेरा सर अपने ज़ानू पर रख लिया। मैं घबराकर उठ खड़ा हुआ और बोला, “ना बाबा! मुझे पाप लगेगा!”

    “और मुझे भी?”

    “हाँ।”

    “प्यार तो पाप नहीं?”

    “मैं चुप रहा। वो बोली, “अब याद आया। जियालाल से गजरा लेकर मैंने उसे थोड़ी सी मुस्कुराहट दे दी थी। उस दिन से तुम कुछ तने-तने से रहते हो... तुम्हारे हाथ किस तरह शल हो रहे हैं! जानते हो?”

    “होजाने दो।”

    “पांव नीले हो रहे हैं।”

    “होने दो। तुम जाओ।”

    वो मुझे सहलाती रही। इस के बाज़ू कितने पुरराहत थे! उनमें कितनी गर्मजोशी थी। वो मुझसे लिपट गई। मुझे भींचने लगी। मैं सँभल सका। जिस्म हारता जाता था।

    क्या सच्च-मुच मैं वो दीया हूँ जिसका तेल कभी ख़त्म नहीं होता। जिसकी बत्ती कभी बुझती नहीं? क्या औरत माया है... सूरज कुमारी भी माया है? उसके बाज़ुओं की गर्मजोशी उसकी लंबी-लंबी पलकें और उसके उभरे हुए गाल, क्या ये सब माया है? इस प्यार से ख़ुदा नाराज़ होता है, तो हो जाये, ये बात थी तो ये सूरतें बनाई होतीं, ये जज़्बात दिये होते!

    ऊपर तारे झिलमिला रहे थे। मेरे ज़ेह्न में प्यार के जज़्बात जाग रहे थे। मैंने कहा, “अपने परेशान बाल दुरुस्त करलो।”

    वो कुछ बोली। मैं उठ बैठा, “सूरज कुमारी! तुमने कितनी तकलीफ़ की।” मैंने कहा, इस सर्दी में तुम यहां बैठी हो, खे़मे में चली जाओ।”

    वो कुछ बोली। मुझे ये महसूस हुआ कि बंसरी में सुर जाग उठेंगे... ज़रूरी नहीं है कि बंसरी मुँह लगाने ही से बजे... हवा भी तो सुर जगा सकती है... और इसका गीत मुझे हमेशा के लिए जीत लेगा।

    मुझे एक पुरानी कहानी याद आगई। देखा कि सामने एक आश्रम है। मैं आश्रम के दरवाज़े की तरफ़ चला गया। देखा कि एक सुंदर कुँवारी खड़ी मुँह बिसूर रही है। अंदर से ऋषि निकलता है। पूछता है, “क्या दुख है तुझे देवी?” लड़की कहती है “मुझे बसेरा चाहिए।” ऋषि घबरा जाता है, “बसेरा... पर देवी! यहां तो औरत के लिए कोई जगह नहीं।” लड़की कहती है, “सिर्फ आज की रात सुबह ही मैं अपनी राह लूँगी।” ऋषि कहता है, “अच्छा सामने उस कमरे में चली जा। अंदर से साँकल लगा लीजियो”... निस्फ़ रात गुज़र जाने पर ऋषि की हवस जागती है। वो लड़की के कमरे की तरफ़ आता है। दरवाज़ा खटखटाता है। “ऋषिदेव, ये पाप होगा।” लड़की अंदर से कहती है। “तुम तो गोया मेरे बाप हो।” वो दरवाज़ा नहीं खोलती। ऋषि छत फाड़ने लगता है... पेशतर इसके कि वो छत फाड़ कर अंदर क़ूदता, वो सुंदर कुँवारी अपनी इ’स्मत बचाने के लिए बाहर भाग जाती है... फिर जैसे किसी ने तस्वीर उलटी लटका दी। मैंने देखा कि ऋषि अपने हवन कुंड के क़रीब सो रहा है और वो सुंदर कुँवारी उसके पास बैठी है। उसने ऋषि का सर अपने ज़ानू पर रख लिया है। ऋषि घबराता है। पेच-ओ-ताब खाता है। मगर फैलते और सिमटते हुए बाज़ुओं की गिरफ़्त उसे भागने से रोके रखती है...

    मेरा जिस्म सर्दी से अकड़ रहा था। अपनी ज़िद पर झुंजलाने के लिए जिस गर्मी की ज़रूरत पड़ती है वो सब ठंडी पड़ गई थी। दिल से बातें करते-करते मैं फिर नींद के धारे में बह गया...

    मेरा सीना गर्म हो गया था। गर्दन भी और शाने भी। पेट भी गर्म हो रहा था। पेट की निचली अंतड़ियां ठंडे पानी से निकल कर आग की तरफ़ लपकने वाले बच्चों की तरह जद्द-ओ-जहद कर रही थीं। गर्दन के पास तो गर्म और ख़ुशगवार ख़ुशबू में बसी हुई सांस लिपट रही थी। ज़ानू अभी बेहिस थे, जैसे वो मेरे थे और पांव में किसी ने सीसा भर दिया था ठंडा और भारी!

    मैंने बोलना बंद कर दिया था, कौन जाने ये क्या चीज़ थी। जो मेरे अंदर ब्रह्मचर्य के ख़्याल का तआ’क़ुब कर रही थी। इस ख़्याल की आवाज़ जिस्म की एक एक गहराई से सुनी अन सुनी सी उठ रही थी। ये कुछ ऐसी हालत थी, जो सोते-सोते छाती पर हाथ पड़ने से होजाती है... कोई मेरा दिल खटखटा रहा था। मैंने एक अंगड़ाई ली। हाथ की ठंडी उंगलियां पेट पर लगीं। अब ये गर्म था। ज़ानुओं में भी कुछ जुम्बिश महसूस हुई और ये भी महसूस होने लगा कि पांव भी अब मेरे जिस्म से अलग नहीं।

    सूरज कुमारी भी चुप थी। मगर जब उसके बाज़ू मुझे भींचने के लिए फैलते और सिमटते थे। वो कनखियों से मेरी तरफ़ देखकर कुछ कहना चाहती। मगर उसके होंट जो देर तक उड़ते रहने वाले परिंदों की तरह पर समेट कर आराम कर रहे थे ,मिल कर रह जाते। अध सोई सी उसकी आँखें थीं। जैसे घने जंगल के सायों में किरनें झिलमिला उठती हैं। उसकी आँखों में किसी क़दर ख़ामोश मुस्कुराहट थरथराने लगती। अपनी आँखें मैंने उसकी गर्दन की तरफ़ मोड़ी। देखा कि उसकी रगें मदहोश सी लेटी हुई हैं।

    ज़ोर से शाने हिलाकर मैं उसकी आँखों के अंदर झाँकने लगा। क्या यूं देखना गुनाह है? क्या ब्रह्मचर्य ही सबसे ऊँची चीज़ है? क्या इसके लिए सब लुत्फ़ छोड़ देना चाहिए? ये सब लुत्फ़ जो ख़ूबसूरती, गर्मजोशी और अज़ ख़ुद-रफ़्तगी से मिलकर बना है?

    सूरज कुमारी जो पहले कौन जाने किस ग़नूदगी में ऊँघ-ऊँघ जाती थी, अब शायद किसी सपने की राहत बख़्श छाँव की बजा-ए-ख़ुद ज़िंदगी में थिरकने वाले प्यार का आनंद लेना चाहती थी। उसकी आँखें फैलने लगीं। पलकों की स्याही धीरे-धीरे दूर होती गई। मेरी आँखें खुल गईं। कुछ देर तो नीले आसमान के गिर्द किरनों का नज़ारा रहा... एक मस्त फैला हुआ नज़ारा! फिर ये नज़ारा सिमट कर सूरज कुमारी की आँखों में बदल गया।

    मेरा सर उसकी गोद में था। वो मेरी तरफ़ देख रही थी। मैं डर गया। मैंने आँखें बंद करलीं। सूरज कुमारी ने अपना हाथ मेरी आँखों पर फेरा। दुबारा आँखें खोलीं तो देखा कि खे़मे के अंदर हूँ, पांव के पास अँगीठी सुलग रही है और कई उदास चेहरे मेरे गिर्द जमा हैं।

    देखने की क़ुव्वत के साथ-साथ सुनने की क़ुव्वत भी लौट आई। संस्कृत के कुछ बोल मेरे कानों में पड़े। कोई पंडित-जी मेरे लिए प्रार्थना कर रहे थे। अपने आप या उन लोगों के कहने पर।

    मैं ख़ामोश था। एहसानमंदी के बोझ तले दबा हुआ था। अपनी हटधर्मी पर पशेमान भी था। ये दोनों ख़्याल काफ़ी देर तक रहे। फिर कुछ शैतानी जज़्बे, जिनसे हमारी ज़िंदगी क़ायम है, धीरे-धीरे जागने लगे। मैंने सोचा कि अगर ये हटधर्मी होती तो सूरज कुमारी की गोद का लुत्फ़ और सुकून कैसे नसीब होता। सूरज कुमारी की आँखें एकाएकी चमक उठीं। मैं डरा। क्या इसने मेरे जज़्बात का भेद पा लिया है? शर्म, बेबसी, ख़ुद-फ़रेबी और जाने किन-किन चीज़ों से पैदा होने वाली एक मुस्कुराहट मेरी नौख़ेज़ मूंछों ही में कहीं गुम हो गई।

    सूरज कुमारी ने लोगों से कहा, “अब ये ठीक हैं... ठीक होजाएंगे। आप लोग बिस्तर वग़ैरा सँभालिये। अमरनाथ जाने का वक़्त हो गया है।”

    लोग इत्मिनान से सफ़र की तैयारी में मशग़ूल हो गये। मगर पंडित-जी बदस्तूर मंत्र पढ़े जा रहे थे। उन की आँखें बंद थीं। सूरज कुमारी ने एक-बार पंडित-जी की तरफ़ देखा और फिर मेरी तरफ़ मुँह मोड़ कर एक ललचाई सी अदा से मुस्कुरा कहा, “उठो ब्रह्मचारी जी...!”

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