Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

चक्कर

MORE BYजितेंद्र बल्लू

    मस्ती छाई हुई थी और ख़ुशी का आलम ये था कि नींद के साथ मेरा रिश्ता बिल्कुल टूट चुका था। बार-बार बंद आँखें खुल कर इसरार करतीं कि बिस्तर से उठकर मैं उस ईमेल (E-mail) को फिर से पढ़ूं जो शाम को दिल्ली से आया था और जिसेमें कई बार पहले भी पढ़ चुका था। लेकिन दिल था कि किसी तौर चैन लेने के लिए तैयार था। बिलआख़िर बिस्तर से छलांग लगाकर मैंने ईमेल का मज़्मून फिर से पढ़ा। इबारत मुझे क़रीब क़रीब याद हो चुकी थी। एक के बाद दूसरा जुमला ख़ुद बख़ुद ज़ह्न में उभरता चला आया और मेरे मोटे मोटे होंट लगातार मुस्कुराते रहे।

    अठारह नवंबर, दो हज़ार दो।

    डियर बिमल,

    मैं लंदन आरही हूँ, दिसंबर की इक्कीस तारीख़ को वहां पहुंच जाऊँगी। वीज़े के वास्ते पासपोर्ट दाख़िल करवा दिया है। लेकिन इस बार अक्लमंदी ये भी है कि मल्टीपल वीज़े (Multiple Visa) की रक़म भर दी है। तुम्हें तो मालूम है कि मेरे पांव में पैदाइशी चक्कर है। वो एक मुक़ाम पर टिक कर नहीं बैठते। इंडिया से चार-पाँच माह बाहर ही रहना पसंद करते हैं। फ़ोन पर इत्तिला कर दूँगी कि किस एयर लाईन्ज़ और किस फ़्लाईट से रही हूँ। लेकिन इस बार एयर पोर्ट पर तुम वक़्त से पहुंच जाना। पिछली मर्तबा की तरह इंतिज़ार मत करवाना। ये क्रिस्मस और नया साल मैं लंदन में मनाने का इरादा रखती हूँ। नए साल की शाम में ट्राफ़लगार स्कवायर का वो नज़ारा मैं भुलाए नहीं भूलती जब बिग बेन (Big Ben) का घड़ियाल रात बारह बजने पर घंटे बजाना शुरू करता है तो हज़ारों की तादाद में वहां खड़े लोग अपनी शनाख़्त, क़ौम, रंग, नस्ल और मज़हब को फ़रामोश करके एक दूसरे से लिपट जाते हैं, चूमते हैं और सिदक़-ए-दिल से नए साल की मुबारकबाद देते हैं। उस समय मुझे हर रंग और हर मज़हब के लोग एक से लगते हैं। फिर अवाम का रक़्स, शोरशराबा, जलती बुझती फुलझड़ियाँ, आतिश बाज़ियां, रंग-बिरंगी रोशनियां अलग से अपना जलवा पेश करती हैं और आसमान पर चराग़ां हो जाता है। उन लमहात को मैं हमेशा हमेशा के लिए अपने अंदर समो लेना चाहती हूँ कि वो मेरी किताब का एक अहम हिस्सा होगा।

    मज़्मून लंबा हो गया है। एयर पोर्ट पर वक़्त से पहले पहुंच जाना। प्लीज़ इंतिज़ार मत करवाना।

    कई सालों के वक़्फ़े के बाद मैं अपने वतन-ए-अज़ीज़ गया था। भारत के मुआशरती तबक़ों और अवाम में बहुत सी तब्दीलियां आचुकी थीं। निचली सतह के ग़रीब गुरबा मज़ीद ग़रीब हो चुके थे। जब कि मुतवस्सित और ऊंचे दर्जे के तबक़ों में ख़ुशहाली आए रोज़ बढ़ रही थी। मेरे रिश्तेदार और दोस्त अहबाब भी अपने रवय्यों के साथ बदले बदले से थे। वो मुझसे ज़्यादा मग़िरबज़दा हो चुके थे। सिर्फ़ लिबास के एतबार से ही नहीं बल्कि उनके देखने, सोचने और महसूस करने का ढंग भी बदला बदला सा था। लेकिन बा'ज़ दोस्त ऐसे भी थे जो अपनी देरीना अख़लाक़ी, तहज़ीबी और समाजी रिवायात से जड़े हुए थे। उनमें मेरा एक दोस्त अनवर बिलग्रामी भी था। उसने मेरे एज़ाज़ में एक अदबी नशिस्त का इह्तिमाम करना चाहा था। लेकिन मैंने शिरकत करने से माज़रत चाही थी कि मैं अपनी कोई मतबूआ या ग़ैर मतबूआ कहानी साथ लेकर नहीं आया। लेकिन मेरा जिगरी दोस्त कहाँ मानने वाला था। उसने अपने एक बुक शेल्फ़ में से ढूंढ ढांड के एक किताब निकाली जो धूल से अटी पड़ी थी। फिर उसे झाड़ पोंछ कर मेरे सपुर्द कर दिया। वो मेरा पहला अफ़सानवी मज्मूआ 'पहचान की नोक' पर था। अब मेरे लिए इनकार करने की कोई गुंजाइश रही थी। लिहाज़ा मरता क्या करता के मिस्दाक़, मैं मुक़र्ररा दिन के मुक़र्ररा मुक़ाम पर किताब बग़ल में दबाए वहां पहुंच गया। लेकिन तक़रीब में जाने से पहले मैंने अपने होटल के कमरे में दो-तीन जाम इस ग़रज़ से चढ़ाए कि ख़ुद-एतिमादी पा कर कहानी पढ़ते वक़्त घबराहट से दूर रहूं।

    सामईन में मेरे आश्नाओं और दोस्तों के दरमियान तारा भी मौजूद थी। उसे देखने और उससे मिलने का ये पहला मौक़ा था। ढीला ढाला सा घुटनों को छूता हुआ बसंती कुरता। वैसी ही खुली खुली सी जीन्ज़ और पैरों में आम सी चप्पल। बाल बिखरे हुए, सिगरेट के कश पे कश लिए जा रही थी। वो बिलग्रामी के क़रीबी दोस्तों में से थी। पता चला कि वो फ़्रांसीसी ज़बान के साथ वहां के अदब और कल्चर से भी वाक़िफ़ है। हिन्दी ज़बान में भी रवां है और उर्दू से तो उसे दीवानगी की हद तक इश्क़ है। बिलग्रामी के तआरुफ़ कराने पर मैंने सदर-ए-महफ़िल से इजाज़त चाही और अपनी कहानी 'मसीहा' पढ़ना शुरू की। उसका मर्कज़ी किरदार एक सनकी मुसव्विर था। वो मुल्क-मुल्क, शहर-शहर इस ग़रज़ से भटकता फिरता था कि उसे एक ऐसे आदमी की तलाश थी जिसकी सूरत में उसे दुनिया के हर शख़्स की शक्ल दिखाई दे। वो उस का पोर्ट्रेट बनाना चाहता था। जिसमें वो वाज़िह करना चाहताथा कि आदमी बुनियादी तौर पर ख़ुद ग़रज़ है, कमीना है, लालची है, मतलबी है, साज़िशी है और माद्दा परस्त भी है। सिर्फ़ यही नहीं बल्कि अनानियत का मारा और इक़तिदार का भूका भी है और मौक़ा मिलने पर ज़ाती मुफ़ादात की ख़ातिर फ़ाशिस्ट बनने से भी गुरेज़ नहीं करता। ज़ाहिर है कि ये एक दीवाने का जान लेवा ख़्वाब था जिसका पूरा होना नामुमकिन साथा। लेकिन मुसव्विर पक्की धुन का मालिक था और अपनी जुस्तजू में सरगर्म-ए-अमल भी, सामईन हमा-तन गोश थे। तारा भी हर जुमला ग़ौर से सुन रही थी। जब कहानी के उस मोड़ पर पहुंचा, जहां मुसव्विर का एक अदीब दोस्त उसे सर-ए-राह अचानक मिल जाता है। वो मुसव्विर को इंतिहाई लाग़र टूटा फूटा पाकर और उसके परेशान बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी देखकर अफ़्सुर्दा हो जाता है। लेकिन बयक वक़्त उसे मुसव्विर से हमदर्दी भी हो जाती है। मुट्ठीयाँ भींच कर अपनी ख़फ़गी का इज़हार करता है:

    कब तक भटकते रहोगे?

    जब तक सँभलूंगा नहीं।

    कब संभलोंगे?

    जब भटकना छोड़ दूँगा।

    तो फिर तुम भटकना छोड़ क्यों नहीं देते...एक जगह टिक कर काम क्यों नहीं करते?

    तुम वाक़ई थर्ड रेट अफ़्साना निगार हो। इतना भी नहीं समझते कि हरकत ज़िंदगी है और जुमूद मौत।

    मैंने अगली सतर पढ़ने को अभी लबों को जुंबिश दी ही थी कि सामईन में से एक निस्वानी आवाज़ ताली के शोर में उभरी, वाह...वाह। मैंने गर्दन उठा कर देखा तो वो तारा थी। ताली बजाते हुए कहे जा रही थी, वाह...वाह। हर डायलॉग कहानी की परतें खोलता चला जा रहा है। दोनों किरदार ख़ुद को वाज़िह कर रहे हैं। एक को तलाश रहे हैं दूसरा उसे रोकना चाहता है।

    कहानी के इख़्तिताम पर मुसव्विर तलाश बिसयार के बाद अपने मक़सद में कामयाब हो ही जाता है। लेकिन उसकी ख़ातिर उसे इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है कि वो अपनी जान से हाथ धो बैठता है। लेकिन उसे ज़रा भी अफ़सोस नहीं होता क्योंकि वो अपने अंजाम से पहले ही वाक़िफ़ था। कहानी ख़त्म हुई तो उसे मजमूई तौर पर सब ने पसंद किया। बा'ज़ मारूफ़ अदबी शख़्सियात ने अपनी दानिस्त के मुताबिक़ अपने तास्सुरात भी बयान किए। चाय के दौरान तारा ने मुझसे जानना चाहा कि अगर इस कहानी का हिन्दी तर्जुमा हो चुका है तो उसकी एक कापी उसे इनायत की जाये। इसलिए कि वो उर्दू स्क्रिप्ट पढ़ नहीं पाती लेकिन ज़बान ज़रूर समझ लेती है। वो इस कहानी को फ़्रांसीसी ज़बान में मुंतक़िल करना चाहती थी।

    तुम्हारा बेहद शुक्रिया। कापी तुम्हें हर हालत में मिलेगी, ये कहानी भारत की हर ज़बान में मौजूद है। तर्जुमे का काम साहित्य अकैडमी की निगरानी में हुआ था।

    मेरा दिल्ली में जब तक क़ियाम रहा, तारा से कुछ सरसरी और कुछ तफ़सीली मुलाक़ातें जारी रहीं। एक दोपहर को हम कनॉट प्लेस के नरूला रेस्टोरेंट में बैठे थे। मौसम गर्म था, सूरज तप रहा था। हवा भी थमी हुई थी। मैं यख़ बियर से दिल बहला रहा था जबकि वो गहरी काली काफ़ी पी रही थी और साथ में पनीर पकौड़ों की लज़्ज़त उठा रही थी। पिछली मुलाक़ात के दौरान जब मैंने उसे 'मसीहा' का हिन्दी तर्जुमा पेश किया था तो उसने मेरा शुक्रिया अदा करते हुए कहा था कि वो उसे निहायत संजीदगी से पढ़ेगी क्यों कि कोई भी रचना हो, उसे सुनने में और ख़ुद पढ़ने में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है। मेरा ज़ाती ख़याल भी यही था कि कहानी मज्मे में सुनाने की चीज़ है और सुनने की। बल्कि उसे ज़ाती तौर पर पढ़ कर ही उसक़ा हर पहलू बख़ूबी समझा जा सकता है। वो प्लेट से एक पकैड़ा उठा कर बोली,

    कोई भी लेखक इस सच से आँख नहीं चुरा सकता कि उसकी रचना में उसकी सोच के अपने रंग बिखरे होते हैं। तुम्हारी कहानी का मुसव्विर अव्वल नंबर का क़ुनूती था। मनफ़ी सोच रखता था। क्या तुम भी जीवन को इसी नज़र से देखते हो?

    नहीं तारा, नहीं। मैंने उसे समझाते हुए कहा:

    आदमी ख़ैर-व-शर का पुतला है। मुसव्विर की ज़िंदगी में हालात कुछ ऐसे रूनुमा हुए थे कि वो यकसर क़ुनूती बन गया था। उसके रवय्यों में इन्सानी फ़ित्रत के तमाम मनफ़ी रंग दर आए थे।

    वो बामानी मुस्कुराहट के साथ मेरी आँखों से होती हुई मेरे अंदरून का जायज़ा लेने लगी। मैंने अपना ज़ाविया निगाह पेश करना ज़रूरी जाना:

    देखा जाये तो ये संसार बड़ा सुंदर है। जीवन अनमोल शय है। युगों के बाद मनुश जन्म पाता है। उसे अपने इलावा इन्सानियत की भी क़द्र करनी चाहिए।

    बल्कि उसे बदलती हुई इक़दार और हालात के साथ ख़ुद को भी बदलना चाहिए।

    हाँ, ये ज़रूरी है। वर्ना ज़िंदगी एक ही मुक़ाम पर ठहर जाएगी।

    बिल्कुल।

    मैंने हर मुलाक़ात में उसे मिलनसार, बुलंद ज़ौक़ और दुनियावी मुआमलात में बाख़बर पाया था। हमारे दरमियान दोस्ती का पुल मज़बूत होता जा रहा था। तारा ने अपने बारे में बताया कि वो इस देश के नामवर हार्ट सर्जन डाक्टर बिस्वास की बीवी है। उसने यूरोप में आला तालीम पा कर कई तिब्बी डिग्रियां हासिल की हैं। वो राजधानी में एक अज़ीमुश्शान हस्पताल, जिसकी लागत अरबों-खरबों रुपये की होगी वो उसे 'तारा हॉस्पिटल' के नाम से क़ायम करना चाहता है। वो दिन-रात अपने प्रोजेक्ट में मसरूफ़ उसकी तकमील के ख़्वाब देखा करता है। लेकिन जब कभी वो बैरून-ए-मुल्क कान्फ़्रैंसों और सेमीनारों में शिरकत करता है तो उसे भी साथ लेकर जाता है। मग़रिबी दुनिया उसके नज़दीक बला की कशिश रखती है। इसलिए कि वो अपने बचपन से जवान होने तक अपने वालदैन के साथ कई मुल्क देख चुकी है और यहीं से उसे सैरो सयाहत का भरपूर शौक़ पैदा हुआ था। उसके पांव में चक्कर उसकी यौम-ए-पैदाइश जन्म कुंडली और उसके सितारे के तहत इतना जुड़ा है कि हर तीसरे चौथे महीने उसके हाँ कोई नया मुल्क, कोई नया शहर देखने की ख़्वाहिश जाग उठती है और वो बेबस हो कर रह जाती है।

    अच्छा। अगर ऐसा है तो बाहर की दुनिया का तुम्हें ख़ासा तजुर्बा होगा, कभी लंदन आना हो तो ज़रूर मिलना।

    मैं लंदन देख चुकी हूँ। वो शहर मुझे अच्छा लगता है अगर वहां कभी आई तो मुलाक़ात रहेगी।

    मैंने अपना कार्ड निकाल कर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

    हाल ही में मेरी तलाक़ हुई थी। पाँच साल, सात माह और दस रोज़ शादीशुदा ज़िंदगी के ख़त्म होने पर मैं ख़ुश था। लेकिन इस हद तक मुतमइन ज़रूर था कि जो ख़्वाहिश गुज़श्ता कई माह से मुझे तड़पा रही थी, उसे अमली शक्ल देने का मौक़ा मिल गया है। लेकिन चंद रोज़ भी बीते थे कि अकेलापन मुझ पर सवार होने लगा। ख़ासतौर पर शाम के वक़्त काम से फ़ारिग़ हो कर जब मैं घर में क़दम रखता तो कमरों में फैला हुआ सन्नाटा, किचन में गहरी ख़ामोशी और वीरान दीवारें परेशान करने लगतीं। लेकिन ये एहसास मुझे ज़रूर हौसला देता कि ज़िंदगी का असली सफ़र तो अब शुरू हुआ है, जिसे तन-ए-तन्हा या नई शरीक-ए-हयात के साथ तय करना होगा। कोई ज़माना था कि मैं जूलिया की मुहब्बत में सर से पैर तक गिरफ़्तार था। कोई लम्हा ऐसा गुज़रता जब मैं उसकी दिलकश शख़्सियत के मुताल्लिक़ सोचता। यही हाल कम-ओ-बेश जूलिया का भी था। फिर लुत्फ़ की बात ये है कि वो इश्क़ हम दोनों की ज़िंदगी का पहला इश्क़ था और हम इतने ख़ुश थे कि ख़ुद को ALPS पहाड़ की बर्फ़ानी चोटियों पर खड़ा पा रहे थे। मआशी एतबार से हम दोनों बरसर-ए-रोज़गार थे और नामवर कंपनियों में पेशावराना मुलाज़मत करते थे। वो एक इंशोरंस कंपनी से मुंसलिक थी जब कि मैं एक रोज़नामा अख़बार से, वो मुझसे ज़्यादा पढ़ी लिखी ख़ातून थी और ऊंचे ओह्दे पर फ़ाइज़ थी। लेकिन उसने मुझे अज़दवाजी ज़िंदगी के दौरान कभी ये एहसास नहीं दिलाया कि मैं उससे कम तालीम याफ़्ता हूँ और उसका कहा या फ़ैसला घरेलू मुआमलात में ज़्यादा वज़न रखता है। वो इन्फ़िरादी आज़ादी और इन्सानी हुक़ूक़ की क़ाइल थी। जम्हूरी क़दरों की तरफ़दार और पासदार थी। लेकिन मुझे एक ख़ूबसूरत सा गुलगूथना बच्चा चाहिए था। एक वीक ऐंड की पहली शाम में मैंने जूलिया के गोश-ए-गुज़ार किया कि पाँच बरस तो हम लोगों ने हंसते खेलते, क़हक़हे लगाते और मज़े लूटने में गुज़ार दिये हैं। अब हमें फ़ौरन अपनी फ़ैमिली को बढ़ा लेना चाहिए। मैं ख़ुद को और तुमको उस बच्चे में देखने के लिए मरा जा रहा हूँ। वो मेरा अंदरून जान कर अज़-हद संजीदा हो गई। बोली,

    बिम्मी, दिल तो मेरा भी यही चाहता है। मगर चंद मजबूरियाँ हैं। हम दोनों काम काज वाले हैं। बच्चा कौन सँभालेगा? उसकी परवरिश कौन करेगा? बेबी सिटिंग और नर्सरी में उसकी देख-भाल के लिए ऊंचे दाम अदा करने पड़ते हैं, ख़ैर हम दोनों की आमदनी तो अच्छी है और हम बर्दाश्त भी कर सकते हैं।

    तो फिर प्राब्लम क्या है?

    मुझे डिप्टी डायरेक्टर की जॉब प्रोमोशन कुछ दिनों में मिलने वाली है। फ़ैसला हो चुका है, दूसरी बात जितने भी कंपनी डायरेक्टर हैं वो सब बूढ़े हो चुके हैं। कोई भी जल्द लुढ़क सकता है। फिर मैं ख़ुद बख़ुद डायरेक्टर बन जाऊँगी।

    गिलास हमारे आगे रखे हुए थे। मुझे उसका सहारा लेना पड़ा कि मुझे अपना दिल उगलना था।

    तुम्हारी सोच अपनी जगह और इंतिज़ार अपनी जगह, मगर मैं एक बात खुले लफ़्ज़ों में कह दूं कि मैं औलाद के बग़ैर नहीं मरना चाहता, मैं उसमें अपना ख़ून, अपना वजूद और अपनी ज़ात देखना चाहता हूँ।

    उसने भी हाथ बढ़ा कर गिलास उठा लिया:

    क्या ये तुम्हारा आख़िरी फ़ैसला है?

    तुम कह सकती हो कि हाँ।

    तो फिर तुमको भी मेरा फ़ैसला जानना होगा।

    मैं सुन रहा हूँ।

    मैं डायरेक्टर बनने पर ही माँ बनना पसंद करूँगी।

    मुम्किन है तब तक हमारी उम्र और भी ढल जाये। पाँच, सात, दस बरस? मुम्किन है और ज़्यादा?

    वो सर खुजाने लगी। फिर इंतिहाई प्यार से मुझे देखकर कहा:

    मैं तुम्हारे जज़्बात की क़द्र करती हूँ। मैं तुम्हारी सोच पर कोई पहरा बिठाना नहीं चाहती।

    ये कह कर वो किचन की तरफ़ बढ़ गई।

    उस रात मैंने जूलिया को टूट कर प्यार किया था और उसे मनाने की हर मुम्किन कोशिश की थी। वो सदा की तरह मुस्कुराती रही और अपने मख़सूस अंदाज़ में प्यार का जवाब प्यार से देते हुए मेरे कान में सरगोशी की:

    तुम औलाद के लिए इतने DESPRATE क्यों हो?

    जाने क्यों पुरखों का कहा और मनु की लिखी हुई किताब धर्मशास्त्र का हिस्सा याद आगया और मैं बिला सोचे समझे बोल उठा:

    हमारी मुक़द्दस किताबों में लिखा है कि अगर मर्द कँवारा मर जाये या शादी के बाद उसके औलाद हो तो वो अगला जन्म आदमी की जून में नहीं, किसी जानवर की शक्ल में लेता है।

    ये सुनना था कि जूलिया ने इतने ज़ोर से क़हक़हा बुलंद किया कि कमरे की छत उड़ती हुई महसूस हुई। बमुश्किल हंसी पर क़ाबू पा कर बोली,

    मुझे यक़ीन नहीं आता कि ये तुम्हारी सोच है। तुम पिछले बीस-बाईस बरस से (West) में रह रहे हो। पढ़े-लिखे हो, खुला ज़ह्न रखते हो मगर अब भी पुराने ज़मानों के दक़यानूसी यक़ीन तुम्हारी साइकी में रेंग रहे हैं।

    तुम कुछ भी कह लो लेकिन सच ये है कि मैं औलाद का मुँह देखे बग़ैर मरना नहीं चाहता। मैं उसमें अपनी शक्ल, अपनी ज़ात देखना चाहता हूँ। वो आगे चल कर मेरे नाम को दुनिया में ज़िंदा रखेगा।

    मेरा वाज़िह मौक़िफ़ जान कर वो इस क़दर संजीदा हो गई थी कि कोई दूसरी ही औरत दिख रही थी। वो गहरी सोच में डूबी जाने क्या सोच रही थी? मैं वसूक़ से कह नहीं सकता। फिर यक बारगी उसका चेहरा बामानी मुस्कुराहट से मुनव्वर हो गया। गोया उसने चंद ही लम्हों में आने वाली ज़िंदगी का ताय्युन कर लिया हो। बढ़कर वो मुझसे लिपट गई और अपने लब मेरे कान के क़रीब ला कर आहिस्ता से कहा:

    आज तुमने मंतिक़ का दामन छोड़ दिया...हैरत है? लेकिन मैं तुम्हारी ख़्वाहिश की क़द्र करती हूँ। वो मुझे गोमगो की हालत में छोड़कर लाउंज की तरफ़ बढ़ गई।

    कोई दिन ऐसा गुज़रता जब मैं जूलिया से कभी इशारों में कभी ढके छुपे जुमलों में और कभी बराह-ए-रास्त दर्याफ़्त करता कि उसने फ़ैमिली को बढ़ाने की ख़ातिर क्या फ़ैसला किया है? लेकिन वो हाँ, हूँ कर के ख़ामोश हो जाती। कभी मुस्कुरा देती और कभी मौक़ा पा कर मौज़ू बदल देती। मेरी ख़्वाहिश हर गुज़रते दिन के साथ शिद्दत इख़्तियार करती चली जा रही थी और मेरी आँखें औलाद का मुँह देखने को तरस रही थीं। एक शाम काम से फ़ारिग़ हो कर मैं घर पहुंचा। लाउंज में दाख़िल हो कर मैंने जूलिया को आवाज़ दी। वो मुझसे पहले घर चली आया करती थी। मुसलसल आवाज़ें देने पर भी जब कोई जवाब मिला तो उसे कमरों में तलाश किया। खाने की मेज़ के वस्त में मेरे नाम का एक लिफ़ाफ़ा रखा था।

    बिम्मी, काफ़ी सोच बिचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि तुम्हारी ख़्वाहिश और मेरा फ़ैसला आपस में रोज़ रोज़ टकराएँ, तकरार हो और हमारी ज़िंदगियां तल्ख़ हो कर इस घर को जहन्नुम बना दें, बेहतर यही होगा कि हम अलग हो जाएं। मैं तुमको छोड़कर जा रही हूँ। जल्द ही मेरा सॉलिस्टर तुम से फिनांस, बैंक एकाऊंट, फ़्लैट, मोरगेज और दीगर उमूर के मुताल्लिक़ राबिता करेगा।

    मैं आज भी तुमको पसंद करती हूँ। तुम नेक सीरत शख़्स हो। मुख़लिस और ईमानदार। दूसरों के काम आने वाले। मगर अब तुम अपनी ख़्वाहिश के ग़ुलाम बन चुके हो, जबकि मेरी मंज़िल बिल्कुल अलग है। गुडबाय।

    हर शख़्स के हालात एक से नहीं रहते कि वो तग़य्युर पज़ीर हैं। आदमी समाजी, मआशी और दाख़िली तौर पर बदलता रहता है। तारा के जीवन में भी कोई इन्क़िलाब आए और अपनी गहरी छाप छोड़कर आइन्दा की तब्दीलियों के लिए जगह बना गए। उसने कई बार अपने बदलते हुए हालात मुझे फ़ोन पर बयान किए। कभी ईमेल का सहारा लिया और कभी तफ़सीली ख़त तहरीर किया। मेरी कहानी 'मसीहा' का तर्जुमा फ़्रांसीसी अख़बार 'लाफ़गा रो' के अदबी हिस्से में शाया हुआ था, उसका तराशा पाकर मुझे बेपनाह ख़ुशी हुई। कहानी के हवाले से अगले शुमारे में चंद तारीफ़ी ख़ुतूत भी शाया हुए थे। तारा ने फ़ोन पर जब आगाह किया तो मैंने बेसाख़्ता उससे कहा था कि वो मुझे इंटरनेशनल राईटर बनाने पर क्यों तुली बैठी है? देर तक हमारी हंसी एक दूसरे के कानों में मिठास छोड़ती रही। सात-समुंदर पार रह कर भी हम क़रीबी और पुर ख़ुलूस दोस्त साबित हो रहे थे और हमारे दरमियान अजीब सा ताल-मेल पैदा हो रहा था जिसे हम हज़ारों मील की दूरी के बावजूद भी महसूस कर रहे थे। पिछली मर्तबा जब वो लंदन आई थी तो मैं ही उसे हीथ्रो एयर पोर्ट से 'हिल्टन इंटरनेशनल' में लाया था (गो ट्रैफ़िक में फंस जाने के कारन मैं वहां देर से पहुंचा था) कमरे में सामान रखते हुए तारा ने बताया था कि शाम में उसका शौहर वियाना से कान्फ़्रैंस के बाद सीधा लंदन पहुंच रहा है। हमारे दरमियान क़रीब क़रीब तीन घंटे अपने थे। हमने दुनिया भर की बातें कीं। समाजी, सियासी, अदबी और निजी। मेरी तलाक़ के ताल्लुक़ से उसने सिदक़-ए-दिल से हमदर्दी जताई थी। बल्कि अफ़सोस भी ज़ाहिर किया था कि जूलिया मुझे अकेला छोड़कर चली गई है। उसके फ़ैसले पर तारा ने हैरत का इज़हार भी किया था कि उसने समाजी हैसियत की ख़ातिर अपनी कामयाब शादी क़ुर्बान कर डाली। बातचीत के दौरान उसने अपने नॉवेल का भी ज़िक्र किया था। वो दिन रात उस पर संजीदगी से काम कर रही थी। मौज़ू उसने ये बताया था कि डब्लयू.ऐच.ओ (W.H.O) के कई ऊंचे ओह्दों पर फ़ाइज़ ऑफिसर्ज़ इंटरनेशनल कंपनियों से सस्ती दवाएं बनवाकर अफ़्रीक़ा के पसमांदा इलाक़ों में सप्लाई करते हैं और यूं वो करप्ट ऑफिसर्ज़ अपना बैंक बैलंस बढ़ा रहे हैं। वो दवाएं ज़्यादा असर नहीं रखतीं। यही वजह है कि उन क़हतज़दा इलाक़ों में अम्वात तेज़ी से बढ़ रही हैं और जाने कब तक ये सिलसिला जारी रहेगा?

    तारा वाक़ई सनीचर के रोज़ पांव में चक्कर लिए पैदा हुई थी। सनीचर देवता जो देवमाला में शनि के लक़ब से जाना जाता है, सूर्य और छाया का बेटा है। अक्सर स्याह फ़ाम घोड़े पर सवार दिखाई देता है और मुश्किलात से दो चार होता है। लेकिन मुसलसल सफ़र उसका मुक़द्दर ठहरा है। वो तारा के तन-मन पर यूं तारी रहता कि वो ज़्यादातर सफ़र में ही रहा करती। बा'ज़ दफ़ा वो ऊब भी जाती मगर मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की ज़यारत करना उसका अव्वलीन मशग़ला था और हर तफ़रीह के बाद उसे रुहानी मसर्रत भी मिला करती। वो अपने वालदैन की इकलौती बेटी और तन्हा औलाद थी। उस के वालिद-ए-माजिद हिंद सरकार के बुज़ुर्ग सफ़ीर थे। जिस कारन उसने बचपन से बालिग़ होने तक दुनिया की कई राजधानियां देख ली थीं। हर दूसरे-तीसरे बरस वालिद के तबादले पर मुल्क के साथ राजधानी भी बदल जाया करती। मास्को, लंदन, तहरान, पैरिस और इस्लामाबाद, वो इन शहरों के तूल अरज़ से ख़ूब ख़ूब वाक़िफ़ थी। उसका बचपन पैरिस में गुज़रा था और वहीं उसने इब्तिदाई तालीम भी पाई थी। वहां की मुआशरत, सक़ाफ़्त और तर्ज़ ज़िंदगी ने उस पर इतना असर किया था कि वो फ़्रांसीसी ज़बान भी रवानी से बोलने लगी थी।

    तारा की शादी डाक्टर बिस्वास से दिल्ली में, वहां बरसों से आबाद बंगाली बिरादरी की मौजूदगी में बड़ी धूम धाम से हुई थी। शहर की बर्गुज़ीदा शख़्सियात, सरकारी ओह्देदार, दानिश्वर, डाक्टर्ज़, तिजारती लोग और फ़ॉरेन सर्विस के नुमाइंदों ने शिरकत की थी। लेकिन ब्याह से पहले जिन दिनों तारा की कोर्ट शिप डाक्टर बिस्वास से चल रही थी उसने मुलाक़ातों के दौरान डाक्टर बिस्वास से पहले तो हल्के हल्के इशारों में, फिर अलामती अंदाज़ में और अंजामकार खुले लफ़्ज़ों में गोश-ए-गुज़ार किया ताकि वो एक ही मुक़ाम पर ज़्यादा देर टिक कर नहीं रह पाती। उसका मन ऊब जाता है। ही वो किसी एक शख़्स के साथ ज़्यादा वक़्त गुज़ार सकती है और ही उसके साथ दूर दूर तक क़दम बढ़ा सकती है। कारन ये है कि वो उस शख़्स की दुहराई हुई बातें, आदतें, मश्ग़ले और रवैय्ये बर्दाश्त नहीं कर पाती। तब्दीली चाहती है। आदमी को माहौल, इक़दार, हालात और वक़्त के साथ साथ बदलते रहना चाहिए। मगर सच का दामन वो कभी छोड़े। वर्ना रोज़मर्रा की यकसानियत उसे दीमक की तरह चाट जाएगी और पछतावा उसका मुक़द्दर बन कर रह जाएगा। बा'ज़ उसे नीम पागल, सनकी और भांवरी भी क़रार देते हैं। लेकिन डाक्टर बिस्वास उसकी साफ़गोई, जुरअत और बेबाक रवय्यों पर मर मिटा था। जबकि तारा साँवली रंगत की मामूली शक्ल-ओ-सूरत की औरत थी। मगर उसकी बड़ी बड़ी आँखें इतने ग़ज़ब की थीं कि वो बंगाल का जादू जगाती थीं और आदमी उनमें खो कर रह जाता था। उसका बदन भी बड़ा कसा कसा था, जिसका हर हिस्सा मक़नातीसी कशिश रखता था। वो बज़ात-ए-ख़ुद तेज़ फ़हम, रोशन दिमाग़ और हालात हाज़रा पर गहरी नज़र रखती थी। अदब से भी उसका लगाव गहरा था। उसने बंगला ज़बान की चंद कहानियां ग़ैर मुल्की ज़बानों में तर्जुमा कर के अदबी हलक़ों में अपनी पहचान बना ली थी। इन औसाफ़ के पेश-ए-नज़र कोई भी सुलझा हुआ बाज़ौक़ शख़्स उस पर आसानी से फ़िदा हो सकता था। फिर डाक्टर बिस्वास क्योंकर बच रहता? उसे अपनी दिलकश शख़्सियत, समाजी हैसियत, बाइज़्ज़त पेशा और ख़ानदानी दौलत पर इतना ग़रूर था कि वो तारा को दिनों में ही राम कर लेगा और वो बेचैन आत्मा इधर उधर भटकना बंदकर देगी। जब वो उसके हमराह बैरून-ए-मुल्क मेडीकल कान्फ़्रैंसों और सेमीनारों में जाया करेगी तो वहां डाक्टरों और सर्जनों के लेक्चर सुनकर हयातयाती ज़िंदगी के मुताल्लिक़ उसका शऊर मज़ीद बढ़ेगा। फिर अपने देश में हर वीक ऐंड पर जब वो पार्टीयों और काक टेल पार्टीयों में शामिल होगी, कभी अपने कुशादा फ़्लैट में और कभी दोस्तों की रिहायशगाह पर तो यक़ीनन वो उनकी आज़ाद सोच से मुतास्सिर होगी। फिर जब वो पाँच सितारा होटलों में सरमायादारों के दरमियान बैठी डिनर करेगी और करोड़ों, अरबों की लागत से प्राईवेट हॉस्पिटल खोलने का मन्सूबा जानेगी तो वो उसके साथ ख़ुद पर भी नाज़ करेगी। नया माहौल, नए लोग और नई ज़िंदगी शर्तिया उसे रास आएगी और माँ बनने पर तो इसकी काया ही पलट कर रह जाएगी। जब उसे एहसास होगा कि बाल-बच्चों के साथ औरत की असली दुनिया उसका घर ही हुआ करता है जिसे वो जन्नत बनाने में कोशां रहती है। लेकिन बदक़िस्मती से डाक्टर बिस्वास ने जिन ख़ुतूत पर सोचा था या तसव्वुर की आँख से देखा था, वो अमली सूरत इख़्तियार कर पाए। अस्बाब वाज़िह थे कि जब मुख़ालिफ़ और मतज़ाद रवैय्ये आपस में टकराते हैं तो मियां-बीवी के दरमियान अंजाम अक्सर जुदाई, तलाक़, जब्र, घरेलू तशद्दुद या क़त्ल की सूरत हुआ करता है। तारा और बिस्वास के दरमियान भी तल्ख़ी के साथ इख़्तिलाफ़ात बढ़ते रहे। एक शब डाक्टर ने डिनर के बाद तारा की कमर में हाथ डाल कर उसे प्यार करना चाहा। मगर उसने रजामंदी ज़ाहिर की बल्कि डाक्टर का हाथ हटा कर दो टूक लहजा इख़्तियार किया:

    शादी से पहले मैं तुमको पसंद करने लगी थी। मगर बीत जाने पर अब तुम मेरे लिए पुराने हो चुके हो। मैं तुमको अंदर बाहर से जान गई हूँ।

    फिर?

    मैं तब्दीली चाहती हूँ।

    डाक्टर सयाना था और हर सयाना आदमी दूर की सोचता है। डाक्टर ने दुनिया देख रखी थी। यूं भी वो एक अर्से से महसूस कर रहा था कि तारा उससे खिंची खिंची सी रहने लगी है। उसकी शिकायात भी बढ़ रही हैं। मगर वो उसकी हर शिकायत को सुनी अनसुनी करता रहा। अपनाईयत से बोला:

    ये तब्दीली कल पर छोड़ते हैं। फिर सब ठीक हो जाएगा।

    अगली शाम वो लाउंज मैं ख़ामोश बैठे दूरदर्शन के चैनल पर कोई संजीदा डाकुमेंटरी देख रहे थे। प्रोग्राम औरत ज़ात की मज़्लूमियत और उसकी समाजी महरूमी के मुताल्लिक़ था। मर्द ज़ात ने कितनी अय्यारी से औरत को कमज़ोर जान कर उसकी मजबूरियों का फ़ायदा उठाया था और उसका जिन्सी इस्तिहसाल भी किया था। बल्कि ज़ाती मिल्कियत समझ कर उसे आज़ादी से भी महरूम रखा था। मगर जदीद दौर में औरत तमाम BARRIERS को तोड़ कर अपने हुक़ूक़ तलब कर रही थी और मर्द बेचारा परेशान था। मियां-बीवी अपनी अपनी सोच में गुम, नशा आवर मशरूब के घूँट भरते, गिलास भी बदल रहे थे। तारा महसूस कर रही थी कि क़ुदरत ने मर्द को जो मख़सूस लिंग अता किया है, वो उसके ज़रिये औरत की जिस्मानी और हयातयाती ज़रूरत पूरी करता है और उसी के ज़रिये आइन्दा नस्लें वजूद में आती हैं। अगर क़ुदरत उस पर मेहरबान होती तो औरत उससे दूर का भी वास्ता रखती। दूसरी तरफ़ डाक्टर महसूस कर रहा था कि औरत की सबसे बड़ी ज़रूरत मर्द ही है और वो अबद तक रहेगी। वो उसकी सोहबत के बग़ैर नामुकम्मल है। लेकिन विसाल के दौरान अगर मर्द उसे किसी वजह से मुतमइन कर पाए तो वो तब्दीली चाहती है। वो कोई दूसरा ठिकाना तलाश करती है। डॉक्यूमेंट्री ख़त्म हुई तो तारा के कहने पर मुलाज़िमा ने खाना परोस दिया। मियां-बीवी ने कुछ खाया, कुछ नहीं खाया, फिर वो उठ खड़े हुए। डाक्टर ने बढ़कर अपना बाज़ू तारा की कमर के गिर्द फैला दिया। उसने भी अपना बाज़ू डाक्टर की कमर में डाल कर रजामंदी ज़ाहिर की और यूं वो जुड़े हुए आलीशान ख़्वाबगाह में दाख़िल हुए। डाक्टर ने बड़े चाव से कहा:

    डार्लिंग, मुझे दो-तीन मिनट दे दो, मैं बाथरूम से हो कर आता हूँ। बस गया और आया।

    लेकिन डाक्टर ने लौटने में सात-आठ मिनट लगा दिये और जब वो तारा के क़रीब आया तो अलग ही शख़्स था। अनार चेहरा, अंगारा आँखें, खड़े बाल और सुर्ख़ गालों पर पसीने के नन्हे नन्हे क़तरे। बदनी खेल शुरू हुआ तो डाक्टर देर तक तारा का अंग अंग भंभोड़ता रहा, चूमता रहा, चाटता रहा। उसने तारा के बदन पर जगह जगह दाँतों के निशान भी छोड़े। वो महसूस कर रही थी कि डाक्टर का प्यार करने का ढंग बिल्कुल बदला बदला सा है। इतने ज़ोर-ओ-शोर से उसने कभी प्यार किया था और ही उसे कभी जानवर की तरह काट कर उसकी हर हिस को बेदार किया था। वो क़ुव्वत-ए-मर्दानगी का भरपूर इज़हार कर रहा था। तारा हैरान थी और परेशान भी कि डाक्टर में ये तब्दीली क्योंकर चली आई है? दोनों मामूल से ज़्यादा देर तक दुनिया से बेख़बर ख़ुद में मशग़ूल रहे। वो पसीने से तरबतर थे। उनकी साँसें धूँकनी की तरह चल रही थीं और बाल यूं बिखर चुके थे जैसे हफ़्तों उन्हें सँवारा गया हो। डाक्टर का सीना फूल कर दोहरा हुआ जारहा था और वो फ़ख़्रिया अंदाज़ में तारा को देखकर एहसास दिला रहा था कि उसने तारा को हमेशा हमेशा के लिए फ़तह कर लिया है। वो भी ख़ुश थी कि उसके हर अंग का हर मुसाम मुद्दतों बाद खुला था। लेकिन उसने बिस्तर से चादर खींच कर अपना जिस्म ढाँप लिया और मज़बूत लहजे में कहा,

    डाक मेरी प्राब्लम सैक्स नहीं, कुछ और है।

    वो क्या है? उसने फ़तह के नशे में कहा।

    मैंने तुमसे कहा था कि आदमी को माहौल, इक़दार, हालात और वक़्त के साथ साथ बदलना चाहिए। मैं एक सी ज़िंदगी जी नहीं सकती। मुझे शुरू में तुम्हारी दुनिया पसंद आई थी। मैंने ख़ुद को बदला भी था।

    फिर?

    अब मुझे तब्दीली चाहिए।

    डाक्टर ने माथे से पसीना साफ़ करते हुए अपना फ़ख़्रिया लहजा बरक़रार रखा:

    आज के बारे में क्या ख़याल है? तब्दीली ज़रूर महसूस की होगी तुमने?

    हाँ। लेकिन में कोई NYMPHO नहीं हूँ, बेडरूम में दाख़िल हो कर तुमने दो तीन मिनट की इजाज़त चाही थी। मगर पलट कर आए तो सात आठ मिनट बीत चुके थे। इस दौरान तुमने इन्ट्रावेनस (INTRAVENOUS) इंजैक्शन लिया है। उसका असर जब तुम पर हो गया तो तुमने मेरी तरफ़ रुख़ किया।

    डाक्टर का उभरता हुआ सीना यक-ब-यक अंदर की जानिब चला गया। चेहरे की साँवली जिल्द गहरी हो गई। वो बाज़ी हार चुका था। वो क़रीब ही रखी हुई चमड़े की कुर्सी पर बैठ गया। तारा उसे नापसंदीदा निगाह से देखती रही। फिर चेहरे पर हक़ारत उभरते ही वो बाथरूम की तरफ़ बढ़ गई।

    उस रात वो एक ही पलंग पर सोए थे। लेकिन दोनों एक दूसरे की तरफ़ पुश्त किए हुए थे। उनके दरमियान देर तक कोई बात हुई। लगता था कि उनका ताल्लुक़ एक लंबे फ़ासले में बदल गया है और फ़ासिला भी ऐसा कि जो कम होने की बजाय बढ़ता ही रहेगा और एक अनजाने मोड़ पर पहुंच कर ख़त्म हो जाएगा।

    सुबह डाक्टर अपने वक़्त पर उठा कि उसे सर्जरी पहुंचना था। वो वक़्त का बड़ा पाबंद था। तारा उसके साथ साथ ही उठ जाया करती थी। फिर डाक्टर के वास्ते उसकी पसंद का ब्रेकफास्ट तैयार करती, जिसे मुलाज़िमा परोस दिया करती थी। लेकिन उस सुबह तारा को आस-पास का कोई होश था। वो घोड़े बेच कर सो रही थी। उसका जोड़ जोड़ दुख रहा था। डाक्टर ने एक-दो बार उसे आवाज़ देकर उठाना भी चाहा मगर बे सूद। वो गहरे ख़र्राटे ले रही थी। डाक्टर तैयार हुआ और नाशता किए बग़ैर ही सर्जरी को चला गया। सूरज की तमाज़त बढ़ी तो मुलाज़िमा ने बेडरूम में दाख़िल हो कर तारा को उठाया। उसने ग़ुसल के बाद सैर शिकम नाशता किया फिर ज़रूरी सामान बाँधा और काग़ज़ क़लम सँभाल कर बैठ गई।

    बिस्वास, मैं जा रही हूँ सदा के लिए। अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। जो अहम बातें मैं लिखने जा रही हूँ उनसे तुम्हारे कान ख़ूब ख़ूब वाक़िफ़ हैं। लेकिन तुमने उन पर संजीदगी से कभी ग़ौर नहीं किया और ही उनकी अहमियत को जाना। मुझे अफ़सोस है तुमने अपने इर्दगिर्द जो दुनिया बसा रखी है, वो शुरू में मुझे रास ज़रूर आती थी और मैं ख़ुश भी थी। शऊरी तौर पर मैं ख़ुद को बदल भी रही थी। लेकिन मुल़्क दर मुल्क कान्फ़्रैंसों और सेमीनारों में जा कर और वहां मग़रिबी डाक्टरों और सर्जनों से मिलकर और उनसे तफ़सीली गुफ़्तगु करने पर ये खुला कि वो सब मग़रिबी दुनिया को ज़्यादा तर्जीह देते हैं। वो मुस्तक़िल वहां रहना पसंद करते हैं क्योंकि वहां दौलत की बोहतात है, तीसरी दुनिया के मुल्कों का ज़िक्र आने पर उन के चेहरों की चमक मांद पड़ जाती है और वो ख़ामोश रह कर ये तास्सुर देते हैं कि इन्सानियत की ख़िदमत करना और ग़रीब ग़ुरबा का ईलाज करना अह्द-ए-रफ़्ता की कोई हसीन शय थी। तुम्हारी कॉकटेल पार्टीयों में मुझे बहुत कम ऐसे लोग मिले जो अख़लाक़ीयात के दायरे में रह कर सांस भरते हों। वर्ना बेशतर के पांव अख़लाक़ी पस्ती की तरफ़ जल्द ही फिसल जाते हैं और तब उनके हरीस, मस्नूई, घिनौने चेहरे वाज़िह हो जाते हैं, रहे तुम्हारे क़रीबी और वफ़ादार दोस्तों के पास वही दोहराए हुए पिटे पिटाए लतीफ़े हैं, फ़ुहश मज़ाक़ हैं और सस्ती बातें हैं। बा'ज़ की तो नज़र भी मैली है। वो मेरे साथ जिन्सी ताल्लुक़ात क़ायम करना चाहते हैं, जबकि वो शादीशुदा हैं और बाल-बच्चेदार भी। मैं तुम्हारे साथ पाँच सितारा होटलों में अपने दिल पर पत्थर रखकर जाया करती थी। यक़ीन जानो वो मुक़ामात मुझे एक पल नहीं भाते जहां का माहौल नुमाइशी हो, लोगों की बातों में खोखलापन हो, झूट हो। हर कोई ख़ुद को बढ़ा चढ़ा कर पेश करे और मुनाफ़िक़ होने का एहसास दिलाए, उन जगहों को मुझ जैसी औरत क्योंकर पसंद करेगी? दरहक़ीक़त सच तुम्हारी दुनिया के क़रीब से नहीं गुज़रा और मैं सच के बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकती। तुमको तुम्हारी दुनिया मुबारक हो। तुम्हारे यार-दोस्त और तुम्हारा ज़ेर-ए-तामीर अस्पताल भी मुबारक हो।

    मुझे मेरी दुनिया बुला रही है। चूँकि मैं ख़ुद तुमको छोड़ कर जा रही हूँ, मैं तुमसे रुपये-पैसे की कोई उम्मीद नहीं रखती। यूं भी मेरे वालदैन मेरे वास्ते इतना कुछ छोड़कर रुख़्सत हुए हैं कि वो अगले जन्म में भी शायद ही ख़त्म हो। आख़िर में ये लिखना भी ज़रूरी समझती हूँ कि कल रात जो घटिया, ज़लील और घिनावनी हरकत तुमने की है वो भुलाए नहीं भूलेगी। इंजैक्शन लेते वक़्त तुम्हें ज़रा भी ख़याल नहीं आया और तुमने सोचा कि तारा तुम्हारी बीवी है? कोई बाज़ारी औरत नहीं? HELL WITH YOU तारा साल की आख़िरी शाम ट्राफ़लगार स्कवायर और उसके गिर्द फैली हुई सड़कों पर लोग हज़ारों की तादाद में जमा हो रहे थे। खोए से खोवा छिल रहा था। सफ़ेद, पीले, साँवले और स्याह फ़ाम लोग हर-सू मौजूद थे। सबको इंतिज़ार था कि कब साल-ए-रवां अपना आख़िरी लम्हा साल नव में ज़म करके नया बाब शुरू करता है। तारा मेरी कमर में बाज़ू डाले मुझे गिरफ़्तार किए खड़ी थी। अंधेरा गाढ़ा था। फ़िज़ा यख़ थी और हवा सर्द, लेकिन चारों तरफ़ निगाह दौड़ाने पर भी मुझे वहां कोई शख़्स ऐसा दिखाई दिया जो गर्म कपड़ों में मलबूस हो। सर्दी जब मुझे ज़्यादा परेशान करती तो मैं बड़े कोट की जेब से हिप फ्लास्क निकाल कर व्हिस्की के दो तीन घूँट भर लेता और फिर उसे तारा की तरफ़ बढ़ा देता। वो एक-आध घूँट भरकर झुरझुरी लेती और फिर उसकी निगाहें बिग बेन (Big Ben) के घड़ियाल की तरफ़ उठ जातीं, जो हमसे ज़्यादा दूर था। हम नेशनल गैलरी की सीढ़ियों पर लोगों में दुबके खड़े थे। मुतहर्रिक सूइयों का गले मिलने का वक़्त क़रीब ही था। मौसीक़ी जगह जगह से उभर रही थी। उमड़ती हुई ख़लक़त बेचैन थी। फिर वो पल भी आगया जब सुईयां बारह के हिन्दसे पर पहुंच कर एक इकाई की सूरत इख़्तियार कर बैठीं और गजर ने नए साल की आमद का ऐलान कर डाला। रोशनियां रोशन हुईं तो ट्राफ़लगार स्कवायर के इर्दगिर्द इमारतें साउथ अफ़्रीक़ा हाऊस, कैनेडा हाउस और नेशनल गैलरी सब जगमगा उठे। शोर गोगा ऐसा बुलंद हुआ कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई दे। आकाश पर चराग़ां हो गया। मैंने झुक कर तारा के गाल पर अपने होंट रख दिये और उसे चूम कर नए साल की मुबारकबाद दी। वो बेइंतिहा ख़ुश हुई और उसी जोश के तहत उसने उचक कर मेरे गाल पर जवाबी हमला कर डाला। फिर हम लिपटे लिपटाए अवामी रक़्स का हिस्सा बन गए। लोग पी पिला रहे थे, लिपट रहे थे, रक़्साँ थे और शोर मचा रहे थे। देर तक ये सिलसिला चलता रहा। फिर अवाम की तादाद रफ़्ता-रफ़्ता कम होना शुरू हुई तो हमें भी ख़याल आया कि हमारा भी कोई घर है, जहां पहुंच कर हमें दिन भर की थकान उतारनी है। तारा ने स्कवायर पर भरपूर अलविदाई नज़र डाली और उसे ख़ुद में उतार कर मेरा बाज़ू थामे अंडर ग्राउंड स्टेशन की तरफ़ बढ़ गई। मुसाफ़िरों से लदी गाड़ी में, हम अपने स्टेशन पर बमुश्किल उतरे और क़हक़हे लगाते राहगीरों को नए साल की मुबारकबाद देते हुए अपने घर पहुंच गए। मैंने फ़्लैट का दरवाज़ा खोला और तारा को अंदर जाने का इशारा किया। वो दाख़िल हुई तो अभी बल्ब रोशन हुआ ही था कि तारा ने अपनी बाँहें मेरे गले में डाल दीं और सिदक़-ए-दिल से कहा:

    बिमल, आज में इतनी ख़ुश हूँ कि बयान नहीं कर सकती...अब मैं दिन भर का हर वाक़िया, हर मंज़र अपनी किताब में लिख सकती हूँ...यूं तो मैं ये नज़ारा अकेली भी कर सकती थी। लेकिन औरत अकेली हो तो गिद्ध उसके इर्द-गिर्द मंडलाने लगते हैं।

    आज में बहुत ख़ुश हूँ कि तुम मेरे साथ थीं। वर्ना में एक अर्से से अकेला ही भटकता फिर रहा था और दुनिया तारीक सी लगने लगी थी।

    वो बिल्कुल मेरे जिस्म से लग गई।

    आज दिन भर हम साथ रहे हैं। तुम्हारा एहसान तो चुकाना होगा?

    उसकी आँखों की तहरीर को पढ़ कर मैंने अगला पल ज़ाए करना मुनासिब समझा। फ़ौरन ही उसे उठा कर बाँहों में भर लिया और सीधा बेडरूम की तरफ़ बढ़ गया।

    नए साल की पहली शाम में तारा की फ़्लाईट यूगैन्डा के शहर कम्पाला के लिए बुक थी। हम देर से उठे थे लेकिन इसके बावजूद तारा ने दोपहर का खाना तैयार कर लिया था। मुझे एक तवील अर्से के बाद एक हिन्दुस्तानी औरत के हाथ का पका हुआ खाना पिछले आठ-दस दिनों से नसीब हो रहा था और मैं ख़ुश था। वो जब से आई थी, उसने किचन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। वो तरह तरह के लज़ीज़ खाने बना रही थी। मैं जब कभी किचन में दाख़िल हो कर मदद करना चाहता वो दहलीज़ पर ही मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती और कंधे उचका कर एक अदा-ए-ख़ास से कहती: हमारे पुरखों ने जब धर्मग्रंथ लिखे थे तो घर का चूल्हा और रसोई नारी के नाम लिख छोड़ा था, बोलो अब क्या कहते हो?

    मैं क्या कह सकता था। ख़ामोश हो कर उसे देखता रहा, ये सोचते हुए कि इस औरत के हाँ सच के साथ इल्म का ख़ज़ाना भी मौजूद है।

    हम खाने की मेज़ पर बैठे मछली के ख़ुश ज़ाइक़ा क़त्ले चख रहे थे। उसने काड मछली को बेसन, अंडों और मसालों में घोल कर तल लिया था। फिर खाते वक़्त वो जिस ढंग से उन क़त्लों के साथ इन्साफ़ कर रही थी, वो अपनी जगह कमाल था। मैं समझ सकता था कि बंगालन होने के कारन वो मछली की दिलदादा है। मुझे उसकी मौजूदगी अपने घर में निहायत भली लग रही थी। दिल ने चाहा कि वो चंद दिन मज़ीद रुक जाये और हम इसी तरह खाते-पीते, हंसते-खेलते एक दूसरे को मज़ीद जान कर वक़्त गुज़ार दें। कुछ देर में जब उसकी प्लेट क़रीब क़रीब ख़ाली हो चुकी थी तो मैंने धीरे से कहा, तारा प्लीज़, आज मत जाओ, कुछ दिन और रुक जाओ।

    वो मेरे ग़ैर मुतवक़्क़े सवाल पर चौंक उठी।

    अगले हफ़्ते चली जाना।

    इस बार उसने मुझे निहायत ग़ौर से देखा कि मेरे मन में क्या है और मेरे सवाल के पीछे कौन सा जज़्बा कारफ़रमा है। मुझे यक़ीन सा हो चला था कि वो मेरी इल्तिजा का भरम रखेगी मगर उस का जवाब इनकार में था।

    नहीं, बिमल, मेरा आज शाम में कम्पाला जाना निहायत ज़रूरी है। कल डबल्यू.ऐच.ओ.(WHO) के चंद ज़िम्मेदार नुमाइंदों से मिलना है। वो मुझे इस इदारे के करप्ट ऑफिसर्ज़ और वेस्टर्न कंपनियों के मुताल्लिक़ अहम मालूमात मुहय्या करने वाले हैं वर्ना किताब अधूरी रह जाएगी।

    हाँ, ये तो है। मैं चार-ओ-नाचार प्लेट पर झुक गया।

    मगर इतनी फ़िक्र क्यों करते हो? मैं मल्टीपल वीज़ा ले कर आई हूँ। कभी भी तुम्हारे पास आसकती हूँ।

    हाँ हाँ। क्यों नहीं, मैंने सर उठाए बग़ैर कहा।

    अब मैं डाक्टर से आज़ाद हो चुकी हूँ लेकिन मेरे पांव का चक्कर अभी ख़त्म नहीं हुआ।

    ये कह कर वो हंस दी। फिर अपना अंदरून संजीदगी से वाज़िह किया:

    इस कमबख़्त चक्कर ने मुझे परेशान कर रखा है और तंग भी, जाने ये कब , कहाँ और किस सूरत में ख़त्म होगा? मगर एक तरह से देखा जाये तो मैं इस के बग़ैर अधूरी ही हूँ।

    तारा मुझे नव्वे लाख बासीयों के शहर में अकेला छोड़कर चली गई। एक ही छत के नीचे दस रोज़ तक इकट्ठे रहते रहते मेरे हाँ जीने की भरपूर तमन्ना जाग उठी थी। ख़ासतौर पर नए साल की पहली रात में, जब तारा ख़ुदसुपुर्दगी के आलम में पेश पेश थी और मैं भी मुद्दत से औरत के नर्म गर्म जिस्म से महरूम था। उसने जिस्मानी विसाल के दौरान मेरा कान हल्का सा काट कर सरगोशी की थी:

    बिमल, तुम वाक़ई ज़ात के असली पंजाबी हो।

    मैं बेसाख़्ता हंस दिया था और अपने मुतहर्रिक बदन को क़दरे रोक कर सरगोशी की थी:

    ये सब तुम्हारी सोहबत का असर है। फिर तुम्हारे हाथों के बने पकवान खा खा कर जवानी लौट आई है। जिस्मों के साथ क़हक़हे भी मदग़म हो गए फिर बदन जाग उठे और क़हक़हे दब कर रह गए।

    मैं जानता था कि तारा के जाने के बाद घर की ब्रहना दीवारें मज़ीद वीरान हो कर मुझे अपने हलक़े में लेना शुरू कर देंगी। मुझे ये भी इल्म था कि उसकी रवानगी मेरी आत्मा में दो-तीन नहीं तो एक आध छेद ज़रूर कर जाएगी और वही हुआ। तक़रीबन हर शाम घर लौटने पर जब में इस उम्मीद पर कम्पयूटर खोलता कि तारा ने दुनिया के किसी कोने, किसी खित्ते किसी शहर से छोटा बड़ा, ईमेल ज़रूर भेजा होगा। लेकिन हर गुज़रते दिन के साथ मायूसी बढ़ती जा रही थी। फ़ोन की जवाबदेह रिकार्डिंग मशीन भी ख़ामोश थी। मोबाईल का तो ज़िक्र ही क्या? लेकिन वक़्त जब हफ़्तों में बदल कर आगे बढ़ गया तो धीरे-धीरे मेरी ज़ह्नी हालत भी बदलती चली गई और मैं महसूस करने लगा कि तारा तो एक घनी बदली थी जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर जम कर बरसी और चुपके से आगे बढ़ गई। लेकिन जाने क्यों मेरे मन के किसी कोने में ये यक़ीन भी बैठ चुका था कि वो कहीं अटक कर रह गई है और मुझ तक पहुंचने की वजह भी यही है। एक शाम मैं अख़बार का कालम ख़त्म करके देर से घर पहुंचा। कम्पयूटर चंद दिनों से बंद पड़ा था। मुझे उसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही थी लेकिन व्हिस्की पीते वक़्त जब नशा वुसअत पैदा करके मेरे जज़्बात को बेदार करने लगा तो तारा चुपके से मेरे ज़ह्न में कुंडली मार कर आन बैठी। चंद घूँट और पीये तो तारा ने सरगोशी की:

    बिमल उठो, जा कर कम्पयूटर खोलो। तुम्हारे नाम कुछ आया है वहां।

    झट से गिलास को एक तरफ़ रखकर मैं उठा। कम्पयूटर खोल कर ईमेल का इन बॉक्स चेक किया। वाक़ई तारा वहां मौजूद थी। तीन रोज़ से उसका पैरिस से भेजा हुआ ईमेल मेरा इंतिज़ार कर रहा था। मैं हवास बाख़्ता हो गया और उसी आलम में ईमेल का मतन पढ़ना शुरू किया। मगर सतरें और अलफ़ाज़ गड-मड हो रहे थे। हवास जब दुरुस्त हुए तो नज़र और दिमाग़ ने अपना काम शुरू किया।

    डियर बिमल।

    कम्पाला जिस मक़सद से आई थी। वो दिनों में ही पूरा हो गया था। डब्लयू.ऐच.ओ के नुमाइंदे मददगार साबित हुए थे। वो चाहते थे कि इस रैकट को दुनिया के सामने ला कर मक्कार अफ़सरों को बेनक़ाब किया जाए। मैं पैरिस जाने को तैयार बैठी थी कि सूडान में डारफ़ोर क़हत का क़िस्सा चल निकला। वहां मुद्दत से आबाद अरब मुसलमान मक़ामी क़बीलों के मुसलमानों को सिर्फ़ क़त्ल ही नहीं कर रहे थे बल्कि उनकी ज़मीनें, उनकी आबादियां और उनके घर भी जला रहे थे। मैं यूएन (UN) के चंद ज़िम्मेदार लोगों के साथ वहां कैंप में मदद करने को चली गई। लेकिन वहां भूकी, नंगी, कुचली हुई मख़लूक़ के लिए तो पानी था, रोटी, कपड़ा और ही दवाएं। फटे-पुराने ख़ेमों में पड़े हुए हज़ारों की तादाद में कुन्बे ख़ामोश आँखों और सिले हुए होंटों से आकाश को हर-दम देखा करते। लेकिन जब घड़ घड़ाते हवाई जहाज़ या ट्रकों की आवाज़ फ़िज़ा में उभरती तो हर कोई खाने के पैकेट और पानी की ख़ातिर गिरता पड़ता दौड़ता दिखाई देता। इन ज़िंदगी निकले अवाम की भगदड़ और भीड़ देखकर भगवान से मेरा विश्वास उठ जाया करता और मैं प्रभु से पूछा करती कि उसकी धरती पर उसके पैदा किए हुए बंदे दाने दाने को मुहताज क्यों हैं, कीड़े मकोड़ों की तरह रेंग क्यों रहे हैं? लेकिन प्रभु ख़ामोश रहते। उस समय तुम मुझे बेहिसाब याद आते। इसलिए कि संसार में अब सिर्फ़ तुम ही रह गए हो, जिसकी तरफ़ में बिला सोचे समझे देख सकती हूँ और तुमको याद भी कर सकती हूँ। मैंने दस रोज़ जो तुम्हारे साथ गुज़ारे थे वो मेरे जून के अनमोल दिन थे। उसकी अहम वजह ये भी रही कि नए साल की आख़िरी रात या पहले उभरते दिन में, जब हमने टूट कर प्यार किया था तो तुम चाहत भरे एक अनोखे मूड में थे और मेरी कैफ़ियत भी बदली बदली सी थी। आत्माओं के मिलाप के दौरान वो एक दूजे को ज़्यादा से ज़्यादा पहचान रही थीं। आख़िर में तुमने मुझमें वो बीज छोड़ा था कि अब तुम अपनी औलाद का मुँह देखे बग़ैर अपने प्रभु के पास नहीं जाओगे। दूसरा महीना शुरू हो चुका है। ख़ुशियां मनाओ कि तुम्हारी जून सफल हो गई है। तुम्हारी औलाद अब दुनिया में तुम्हारा नाम छोड़ कर जायेगी। रहा मेरे पांव का चक्कर तो उसे हमारे बच्चे की पैदाइश पर ख़त्म ही समझो।मुझे अपने पहलौठी के बच्चे के पालन-पोषण और देख-भाल में अपना पूरा जीवन तज देना होगा। तुमको भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी होंगी। मैं जल्द लंदन आकर तुम्हारे पास कुछ दिन रुकूँगी। मगर हमारा वारिस हमारी जन्मभूमि भारत में जन्मेगा और तुम्हारा वहां मौजूद होना ज़रूरी होगा। ये सब क़िस्मत का खेल है और इस पर हम बंदों का कोई इख़्तियार नहीं।

    मैं ईमेल पढ़ते पढ़ते छलांगें लगा रहा था।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए