चेहरु माँझी
स्टोरीलाइन
इस कहानी में ग़रीबी और निर्धनता के नतीजे में पैदा होने वाले हालात का चित्रण किया गया है। बंगाल के तटवर्ती इलाक़े में पली चहरो तेरह दिन के फ़ाक़े के बाद एक सेर चावल के लिए अपना जिस्म बेच देती है और फिर यह सिलसिला चल निकलता है और वह अपने जिस्म का सौदा करती ही रहती है। हालात ऐसे बन जाते हैं कि उसे सफ़ेद-पोशों पर रो‘अब जमाने और अपना ग़ुस्सा निकालने का मौक़ा मिलता रहता है लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद उसके दिल में अपने असल की तरफ़ वापसी की इच्छा जागृत रहती है। इसीलिए वो गणेश मछुवारे की मुहब्बत को अपने दिल में ज़िंदा रखती है।
हवा बहुत धीमे सुरों में गा रही थी, दरिया का पानी आहिस्ता-आहिस्ता गुनगुना रहा था। थोड़ी देर पहले ये नग़्मा बड़ा पुर-शोर था लेकिन अब उसकी तानें मद्धम पड़ चुकी थीं और एक नर्म-ओ-लतीफ़ गुनगुनाहट बाक़ी रह गई थी। वो लहरें जो पहले साहिल से जा कर टकरा रही थीं, अब अपने सय्याल हाथों से थके हुए साहिल का जिस्म सहला रही थी। हमारी कश्ती बड़ी नर्मी के साथ बह रही थी। किनारे से दूर आकर बीच दरिया में माही-गीरों ने अपने चप्पू छोड़ दिए थे और बादबान खोल दिए थे और समंदर की तरफ़ दौड़ती हुई मौजें कश्ती को बहाए लिए जा रही थीं।
बादबान में हवा भरी हुई थी और उसका सीना ग़रूर से फूला हुआ था। हमारी कश्ती लंबी-लंबी नाज़ुक और पतली सम्पानों को, उनमें बैठे हुए माँझियों के गीतों को, बड़े से सियाह-फ़ाम जहाज़ को, उस साहिल के पास शहर की झुकती हुई ज़मीन को, पीछे छोड़ कर आगे बढ़ती जा रही थी। सम्पानें मौजों में, साहिल अँधेरे में और रौशनियाँ नन्हे-नन्हे सितारों में तबदील होती जा रही थीं। बूढ़े माही-गीर ने आसमान की तरफ़ देखकर कहा, “रात अच्छी है। आज तूफ़ान का ख़तरा नहीं है। एक घंटे में चाँद निकल आएगा।” नौजवान माही-गीर ने, जो उसका बेटा था, कहा कि “इतनी देर में हम खुले समंदर में पहुँच जाएँगे।”
ये वो जगह थी जहाँ दरिया-ए-करनाफली ख़लीज-ए-बंगाल में जाकर मिलता है, जिसके किनारे चटगाँव का शहर आबाद है। सब्ज़ और नीली पहाड़ियों के दामन में बहार के ख़ूबसूरत और छरेरे बदन की दोशीज़ाओं की तरह नाज़ुक दरख़्तों के साए हैं। जब समंदर में पानी चढ़ता है तो दरिया का धारा उल्टा बहने लगता है और माही-गीर अपने जाल पानी में डाल देते हैं। जब समंदर का पानी उतरता है तो दरिया फिर समंदर की फैली हुई आग़ोश की तरफ़ लपकता है और माही-गीर अपनी कश्तियाँ और जाल ले कर खुले समंदर में चले जाते हैं और साहिल के किनारे-किनारे कॉक्स बाज़ार तक मछलियाँ पकड़ते हैं। घरों पर उनकी बीवीयाँ और महबूबाएँ उनका इंतिज़ार करती हैं और समंदर में उनके गीत तैरते हैं, जिन्हें सुनने के लिए दूर-दूर की मछलियाँ सिमट आती हैं और उनके जाल भर जाते हैं और कश्तियाँ भारी हो जाती हैं और वो अपने मज़बूत बाज़ुओं की क़ुव्वत से चप्पू चलाते हैं।
उनकी साँस फूल जाती है, गीतों की तान वज़्नी हो जाती है। गले की रगें उभर आती हैं। बाज़ुओं की मछलियाँ तड़पने लगती हैं, हथेलियाँ लाल हो जाती हैं और जब वो अपने गाँव के किनारे आकर शिकार से भरी कश्तीयों को ख़ाली करते हैं तो उनकी बीवीयों और महबूबाओं की आँखें रंग-बिरंगी मछलियों को देखकर चमक उठती हैं और वो अपना दिल हमेशा के लिए अपने बहादुर माही-गीर को दे देती हैं और रात को जब तेल की कमी से चिराग़ की मद्धम लौ टिमटिमाने लगती है और हवा की हल्की सी फूँक उसे बुझा देती है तो ये थकन से चूर माही-गीर उनके नीलगूँ सीनों पर, जिनमें मछलियों की बू आती है, अपना सर रखकर सो जाते हैं।
लेकिन जब से लड़ाई शुरू’ हुई थी और जापान ने हिन्दोस्तान पर हमला कर दिया था, तब से माही-गीरों को आ’म तौर से समंदर में जाने की इजाज़त नहीं थी। खुले समंदर में जाने के लिए उन्हें फ़ौजी अफ़सरों से इजाज़त-नामा हासिल करना पड़ता था, जो सिर्फ़ चंद अमीर माही-गीरों को मिलता था। क्योंकि दूसरे माही-गीर रिश्वत देने की अहलियत नहीं रखते थे। कॉक्स बाज़ार में जाने के तमाम रास्ते बंद हो गए थे। क्योंकि वो बंदरगाह बहुत बड़ी छावनी में तबदील हो गई थी। सड़क से सिर्फ़ फ़ौजी लारियाँ गुज़रती थीं और समंदर से सिर्फ़ जंगी जहाज़। मुझे अख़बारी नुमाइंदे की हैसियत से ख़ास इजाज़त-नामा मिला था, जिस पर फ़ौजी अफ़सरों के अलावा चटगाँव के डिप्टी कमिश्नर की भी मोहर लगी हुई थी।
बूढ़े माही-गीर ने अपनी चिलम सुलगाई, नौजवान माही-गीर माँझियों का गीत गाने लगा। मैं कश्ती में लेट कर ख़्वाब देखने लगा। मेरी निगाहें दूर तक सर पर से गुज़रने वाले हवाई जहाज़ों की सुर्ख़ और सब्ज़ रौशनियों का त’आक़ुब करतीं और फिर आसमान पर बिखरे हुए सितारों में खो जातीं जो नीले आसमान की गोद में दरिया की मौजों की तरह बह रहे थे। बूढ़ा माही-गीर मेरे पास सरक आया और चिलम मेरी तरफ़ बढ़ा दी। मैंने एक लंबा सा कश लेकर पूछा, “तुम अपना जाल साथ लाए हो?”
“नहीं। जाल क्या होगा। जब से लड़ाई शुरू’ हुई है, समंदर में जाल डालने की इजाज़त नहीं है।”
“क्यूँ नहीं है?”
“कहते हैं पानी में बड़े-बड़े बम डाल दिए गए हैं ताकि दुश्मन के जहाज़ न आ सकें और मैं सोचता हूँ कि सरकार के जहाज़ कैसे चलते हैं?”
“बम तो सरकार ही ने डाले हैं।”, बेटे ने अपना गीत बंद कर के जवाब दिया, “उन्हें मा’लूम है कि बम कहाँ-कहाँ पड़े हैं और वो अपने जहाज़ों को बचा कर निकाल ले जाते हैं।”
“हम तो तबाह हो गए।”, बूढ़े ने अपनी दास्तान शुरू’ की। रात के अँधेरे में उसका झुर्रियों पड़ा चेहरा बड़ा पुर-वक़ार मा’लूम हो रहा था, जिस पर पचास बरस के स’ऊबतों के निशान थे।
“पचास बरस से दरिया में जाल डाल रहा हूँ, इसके एक-एक चप्पे को जानता हूँ। बहती हुई मौजों को देखकर बता सकता हूँ कि उनके नीचे कितनी मछलियाँ हैं। समंदर की मछलियाँ और दरिया की मछलियाँ दो तरह की होती हैं। जब वो चलती हैं तो मौजों की रफ़्तार में फ़र्क़ आ जाता है और मैं एक नज़र में भाँप लेता हूँ कि कौन सी मछली जा रही है। आसमान को देखकर बता सकता हूँ कि मौसम कितनी देर में बदल जाएगा। समंदर में तूफ़ान कब आएगा और दरिया का पानी उल्टा कब बहेगा। पचास बरस से यही काम कर रहा हूँ, कुछ नहीं तो लाखों ही मछलियाँ पकड़ डाली होंगी। लेकिन आज तक ये पता न चला कि हम जो मेहनत करते हैं, वो दौलत कहाँ जाती है। हम दरिया में ख़ाली जाल डालते हैं। जब उसे खींचते हैं तो उसमें चाँदी भरी होती है। तड़पती हुई चाँदी जो झिलमिल-झिलमिल चमकती है। औरतें उस चाँदी को अपनी टोकरियों में भर कर बाज़ार ले जाती हैं और उसके बदले ताँबे के पैसे, गलट के रुपये और काग़ज़ के टुकड़े ले आती हैं।
हम फिर दरिया में जाल डालते हैं और फिर उसमें से तड़पती हुई चाँदी बाहर निकालते हैं और ये चाँदी फिर ताँबे, गलट और काग़ज़ में तबदील हो जाती है और हमारे जिस्म सूखते चले जाते हैं और आँखें धँसती चली जाती हैं और हाथ पाँव लकड़ी की तरह ख़ुश्क होते जाते हैं। मैं पचास बरस से चटगाँव के बाज़ारों के लिए दरिया से चाँदी निकाल रहा हूँ। लेकिन मुझे ताँबे और गलट के टुकड़ों और काग़ज़ के मैले पुर्ज़ों के सिवा कुछ न मिला और वो भी मेरे पास नहीं रहे। जैसे ज़िंदा मछलियाँ हाथों से तड़प कर निकल जाती हैं, ये टुकड़े भी हमारी हथेलियों से फिसल जाते हैं और हमारी मुफ़्लिसी पहले से भी ज़ियादा भयानक हो जाती है।”
नौजवान माही-गीर बाप की दास्तान-ए-ग़म से बे-नियाज़ कश्ती के अगले सिरे पर बैठा हुआ एक इश्क़िया गीत गा रहा था। बूढ़े ने अपना सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहा, “तुम पढ़े लिखे हो, बहुत से देस देखे होंगे। तुम जानते हो कि हमारी दौलत कहाँ जाती है?” मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन बूढ़े माही-गीर ने तो इसका मौक़ा नहीं दिया और बेहती हुई मौजों की तरफ़ देखकर अपने सवाल का जवाब देने लगा, जैसे वो सब कुछ जानता है।
“ये दरिया हज़ार बरस से बह रहा है और इसका पानी समंदर में गिर रहा है। मेरी उ’म्र साठ बरस की होने को आई लेकिन मैंने एक दिन भी नहीं देखा कि इसकी मौजों का बहाव रुक गया हो। एक के पीछे दूसरी मौज दीवाना-वार समंदर की तरफ़ चली जा रही है। समंदर जिसकी तह का कुछ पता नहीं, जो आकाश की तरह फैला हुआ है, हमारी मेहनत भी इसी तरह बेहती हुई किसी बड़े समंदर की तरफ़ चली जा रही है। कोई अँधा समंदर जो हमारी चाँदी की तरह चमकती मेहनत को निगले ले रहा है। चाँदी ही तो है जो बह रही है। देखो ये मौजें चाँदी की तरह चमक रही हैं। दरिया का रंग सफ़ेद है और समंदर का रंग नीला और ये सफ़ेद चाँदी नीले समंदर में जाकर खो जाती है।”
मैंने मौजों की तरफ़ देखा तो वाक़ई बेहती हुई चाँदी की तरह चमक रही थीं। हमारे बाएँ तरफ़ दौर-ए-उफ़ुक़ पर महीने की आख़िरी रातों का चाँद उभर रहा था, जिसकी नर्म किरनें फ़ज़ा से गुज़र कर दरिया के जिस्म पर फैल गई थीं और मटियाले पानी को सय्याल चाँदी में तबदील कर रही थीं। बूढ़े का सियाही माइल चेहरा चाँद की हल्की सी सुर्ख़ी माइल रोशनी में चमक उठा था और सफ़ेद बादबान बादल का एक ख़ूबसूरत टुकड़ा मा’लूम होता था, जो कहीं चाँदी के दरिया में बहाए लिए जा रहा था। बूढ़े माही-गीर ने नज़र उठा कर चाँद की तरफ़ देखा , फिर बादबान की तरफ़। बादबान कुछ टेढ़ा हो गया था, या शायद हवा का रुख़ बदल गया था और इसलिए बादबान का भी रुख़ बदलना ज़रूरी था। उसने अपने बेटे को आवाज़ दी। दोनों ने लिपटी हुई रस्सियाँ खोलीं और बादबान का रुख़ बदल कर मेरे पास आ बैठे।
“जब से लड़ाई शुरू’ हुई, मुफ़लिसी और बढ़ गई है। पहले क़हत पड़ा। फिर वबाएँ फैलीं। ऐसा क़हत और ऐसी वबाएँ तो मैंने देखी नहीं थीं। हैज़ा और फिर काला-आज़ार, फिर बदचलनी, हमारे गाँव के गाँव उजड़ गए, बूढ़े और बच्चे मर गए। लड़के आवारा हो गए और लड़कियाँ घर-बार छोड़ कर चली गईं। फिर यहाँ फ़ौज आ गई और हमारे लड़के और लड़कियाँ माही-गीरी छोड़ कर फ़ौज में मज़दूरी करने लगे। माही-गीरी कैसे करते। न जाल थे न कश्तियाँ, सर छिपाने के लिए घर भी नहीं था। ये सब चीज़ें तो क़हत ही के ज़माने में बिक चुकी थीं। अब लड़के बे-हया हो गए हैं। लड़कियाँ और भी ज़ियादा बे-शर्म हो गई हैं, सिपाही उन्हें रुपये देते हैं और वो सिपाहियों को अब क्या कहूँ क्या देती हैं।
पहले उन्हें जाल की मरम्मत करनी पड़ती थी। सर पर मछलियों की टोकरी रख कर बाज़ार जाना पड़ता था। पेट भर कर खाना नहीं मिलता था तो क्या, मेहनत से जिस्म तंदरुस्त रहते थे। चेहरे पर ईमानदारी की चमक होती थी और अब? अब क्या है ज़रा सी आँखें मटकाएँ, ज़रा सा कूल्हा चलाया और काम बन गया। मुझी को देखो, मेरे गाँव में तीन सौ घर थे, अब सिर्फ़ आठ घर रह गए हैं, बाक़ी सब उजड़ गए। अब इन खंडरों में बैठ कर कुत्ते रोते हैं। मेरी बीवी क़हत में मर गई। दो बेटियाँ थीं वो घर से भाग गईं। अब सुना है कि वो अराकान रोड पर मज़दूरी कर रही हैं। मज़दूरी तो क्या कर रही होंगी, ये तो बहाना है। एक का नाम राधा है और दूसरी का सावित्री। ये नाम तुम्हें इसलिए बता रहा हूँ कि तुम घूमने फिरने वाले आदमी हो। शायद तुम्हें अराकान रोड पर वो लड़कियाँ मिल जाएँ तो उनसे कह देना कि तुम्हारा बाप ज़िंदा है, अपना झोंपड़ा डाल लिया है, जाल भी है और कश्ती भी और दरिया में बहुत सी मछलियाँ हैं, राधा और सावित्री आ जाएँ तो हम ख़ूब मछलियाँ पकड़ेंगे। यहाँ एक जाल भी टूटा पड़ा है, इसकी मरम्मत उनके बग़ैर कैसे होगी।”
बूढ़े की आँखों में आँसू आ गए। वो चुप हो गया और बहते हुए पानी की मौजें गिनने लगा, जैसे वो इन मौजों के आईने में अपनी सारी गुज़री हुई ज़िंदगी का अ’क्स ढूँढ रहा हो। उसकी एक झलक देखना चाहता हो। उसका उजड़ा हुआ गाँव, मरे हुए साथी, बीवी जो दाग़-ए-मुफ़ारक़त दे गई, घर छोड़ कर भाग जाने वाली बेटियाँ, जो उसे अब भी उतनी ही प्यारी थीं। वो सब उन मौजों में तैर रही थीं। मैंने देखा कि बूढ़े माही-गीर की उंगलियाँ काँप रही हैं और आँखों से बह कर आँसू उसकी झुर्रियों में भर गए हैं।
थोड़ी देरबा’दउसने एक ठंडी साँस ली और कहने लगा, “राधा और सावित्री ही को क्यों बुरा कहूँ, आजकल सब लड़कियाँ ऐसी ही हो गई हैं। हमारे यहाँ काले-गोरे हज़ारों सिपाही आ गए हैं। वो लड़कीयों के लिए मोज़े लाते हैं, सफ़ेद और लाल रंग से भरे हुए डिब्बे लाते हैं, छोटे-छोटे आईने लाते हैं और लड़कियाँ दीवानी हो जाती हैं और अपना मुँह रंग कर उनके पीछे दौड़ती हैं। सिपाही दरिया में और तालाबों में नंगे नहाते हैं और लड़कियाँ किनारे खड़ी हो कर उनका तमाशा देखती हैं। मैंने अपनी आँखों से ये सब कुछ देखा है और कई बार सोचा कि ये सब लड़कियाँ क़हत और वबा में मर क्यों न गईं।
मछलियाँ पकड़ना, खेत जोतना अच्छा पेशा है, माना कि इसमें ग़रीबी दूर नहीं होती लेकिन इज़्ज़त तो बाक़ी रहती है। घर-बार तो होता है। लेकिन ये मुँह पर रंग पोत के देसी-बिदेसी सिपाहियों से आँखें लड़ाना कहाँ का पेशा है, लेकिन अब जिसे देखो यही कर रही है। सिपाही अपनी मोटरों पर गुज़रते हैं तो सड़क के किनारे खड़ी हुई लड़कीयों को अपने साथ बिठा लेते हैं और दो तीन मील आगे जाकर छोड़ देते हैं। वहाँ से दूसरे सिपाही उन्हें उठा ले जाते हैं। चटगाँव से पत्निका और पत्निका से रामू और रामू से कॉक्स बाज़ार तक यही सिलसिला है। सब लड़कियाँ ख़राब हो गई हैं। कोई अच्छी नहीं रह गई। मैं सोचता हूँ हम पर जापानी बम क्यों नहीं गिराते।”
पच्छिम के साहिल पर एक गाँव आबाद था और उसके सर-सब्ज़ दरख़्तों का झुण्ड चाँदनी में आहिस्ता-आहिस्ता पीछे सरक रहा था। बूढ़े माही-गीर ने अपनी ऊँगली का इशारा कर के कहा, “वो गाँव देखते हो। क़हत के ज़माने में वहाँ के तमाम आदमी मर गए। उनकी लाशें गीदड़ों और कुत्तों ने खाईं। उस साल दरख़्त में फल नहीं आए बल्कि शाख़ों में गिद्ध फले थे। गिद्ध ही गिद्ध जो अक्सर ज़िंदा आदमीयों पर भी झपट पड़ते थे। कोई आदमी इस तरफ़ आने की हिम्मत नहीं करता था। एक रात क्या हुआ कि ठीक बारह बजे के वक़्त दूसरे गाँव से एक शो’ला बुलंद हुआ और इस गाँव की तरफ़ चला। थोड़ी देर में पच्छिम की तरफ़ से एक शो’ला उठा और वो भी इस गाँव की तरफ़ चला और फिर दोनों शो’ले मिल गए।
इसकी ख़बर चारों तरफ़ फैल गई। अब रोज़ रात के बारह बजे आग के दो शो’ले नाचते हुए चलते थे, एक पूरब से दूसरा पच्छिम से और दोनों इस गाँव में आकर मिल जाते थे। किसी ने कहा भूत हैं, किसी ने कहा प्रेत हैं और तुम तो जानते हो कि मरने केबा’दइन्सान भूत प्रेत बन जाते हैं और यहाँ तो हज़ारों आदमी मरे पड़े थे। जब मैंने पहली बार इन भूतों को देखा तो मेरा दिल काँप उठा। मैं डरपोक आदमी नहीं हूँ, लेकिन भूत प्रेत से तो सभी डरते हैं।”
बेटे ने बाप को टोक दिया, “यूँ नहीं हुआ था। मैं सुनाता हूँ, मैंने उन शो’लों को पकड़ा था।”
“सच्च? तुमने उन शो’लों को पकड़ लिया?” मैंने हैरत से पूछा। बूढ़े ने ख़ुश हो कर कहा, “मेरा बेटा बड़ा बहादुर है।” और नौजवान माही-गीर का सीना और चौड़ा हो गया और बाज़ुओं की मछलियाँ फड़क उठीं। उसने बहुत गंभीर लहजे में कहा कि “किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उन भूतों को पकड़े। इर्द-गिर्द के तमाम गाँव थर-थर काँपते थे। कोई कहता था भूत हैं, कोई कहता था प्रेत हैं। कोई कहता था कि अंग्रेज़ों ने ऐसे बम बनाए हैं जो रात-भर ख़ुद ब-ख़ुद पहरा देते रहते हैं और दुश्मन को पहचान कर उस पर झपट पड़ते हैं। बात ही ऐसी थी। इससे पहले चटगाँव के किसी आदमी ने शो’लों को चलते नहीं देखा था। मेरे दिल में कुछ और ही आई। मैंने कहा जान रहे या जाए, मैं ज़रूर पता लगाऊँगा कि ये शो’ले क्या हैं। कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं।”
चाँद इतनी देर में काफ़ी ऊँचा हो गया था और उसकी किरनों की फुवार हवा के झोंकों के साथ ज़मीन पर गिर रही थी। रात ठंडी हो चली थी। दोनों माही-गीरों ने एक चिलम और भरी और बारी-बारी उसका कश ले कर मेरे तरफ़ बढ़ा दी।
“मैं कई दिन तक मंसूबे बाँधता रहा लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती थी। आख़िर एक दिन जी कड़ा कर के मैं तैयार हो गया। मैंने अपनी लँगोट कस कर बांध ली और हाथ में एक बल्ल्म ले लिया और रात के ग्यारह ही बजे से ही जाकर उस रास्ते पर बैठ गया, जहाँ से वो दोनों शो’ले गुज़रते थे। मेरा दिल मेरे सीने से निकल कर मेरे कानों में आ गया था और इसकी धड़कन से कान के पर्दे फटे जा रहे थे। मैं जिस पेड़ के नीचे बैठा था, उसकी शाख़ें मेरे सर पर चढ़ती चली आ रही थीं और मुझे ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे ये अब मुझे कुचल देंगी। चारों तरफ़ सन्नाटा था। सिर्फ़ घास में दुबके हुए कीड़ों-मकोड़ों के बोलने की आवाज़ें आ रही थीं। या कभी-कभी कुत्ते रोने लगते थे, या पेड़ों पर बैठे हुए गिद्ध अपने पर फड़फड़ाते थे। ग्यारह बजे, सवा ग्यारह बजे, पौने बारह बजे, बस अब बारह बजने ही वाले थे और मेरे हाथ-पाँव सनसना रहे थे और ख़ून मा’लूम हो रहा था रगों को फाड़ कर बाहर निकल आएगा।
ठीक उस वक़्त जब शहर के घंटे ने बारह बजाय तो मैंने देखा कि दूर मेरे सामने ज़मीन से एक शो’ला उठा और मेरी तरफ़ चलने लगा। देखते देखते दूसरी तरफ़ से एक और शो’ला उठा और वो भी मेरी तरफ़ बढ़ने लगा। मेरे दिल की धड़कनें और तेज़ हो गईं। दोनों ही मेरे क़रीब आते जा रहे थे और मैं आँखें फाड़े हुए अपने सामने से आते हुए शो’ले को देख रहा था। रात के अँधेरे में उसकी चमक बहुत तेज़ थी। थोड़ी देर के बा’द मैंने महसूस किया कि वो शो’ला ज़मीन पर नहीं चल रहा है बल्कि हवा में उड़ रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता हवा में मुअ’ल्लक़ शो’ला मेरे क़रीब आता गया। मेरा बदन सुन हो गया। ज़बान मुँह में ऐंठ गई।
बल्ल्म को छुवा तो वो कई मन का मा’लूम हुआ। मेरे पैर ज़मीन ने पकड़ लिए थे और अब मुझमें हिलने की भी सकत नहीं थी। मैंने उ’म्र में पहली बार ये महसूस किया कि मैं बुज़दिल हूँ। मगर अब क्या होता था। मौत मेरे सर पर आ गई थी और वो शो’ला मुझसे दो तीन गज़ के फ़ासले पर था और में उसके रास्ते में बैठा हुआ था। यकायक मेरे सारे जिस्म में इक आग सी लग गई। ख़ून जो रगों में जम गया था फिर तेज़ी से दौड़ने लगा और किसी ने मुझे ज़मीन से ऊपर उछाल दिया और मेरे मुँह से बे-साख़्ता निकला, “कौन है।”
नौजवान माही-गीर चुप हो गया और बूढ़ा माही-गीर अपनी फटी हुई क़मीज़ पर एक फटी हुई सदरी पहनने लगा। रात की ख़ुनकी बढ़ रही थी। हम शायद समंदर के क़रीब पहुँच रहे थे क्यूँकि बूढ़ा माही-गीर कश्ती में लेटे हुए चप्पूओं को निकाल कर इधर-उधर लगा रहा था। हवा के झोंके भी भीगे हुए थे और उनमें हल्के से नमक का ज़ायक़ा था।
मैंने हैरत, इस्ति’जाब और शौक़ से पूछा, “फिर क्या हुआ?” नौजवान माही-गीर ने अपनी चिलम से दो तीन लंबे-लंबे कश और लिए और फिर दरिया में चिलम उलट दी।
“हाँ तो मेरे मुँह से बे-साख़्ता निकला, कौन है। इसीके साथ फ़ज़ा में एक चीख़ बुलंद हुई और ज़मीन पर बहुत सारे शो’ले बिखर गए। मेरे सामने एक नंग-धड़ंग औरत खड़ी हुई थी, जिसका जिस्म थर-थर काँप रहा था।”
“औरत?”, मैंने पूछा। जैसे मुझे यक़ीन न आया हो।
“हाँ औरत... जवान औरत। ऐसी ही कोई बीस बरस की और सर से पाँव तक नंगी। मैंने लपक कर उसे पकड़ लिया। उसने अपने को छुड़ाने की बिल्कुल कोशिश नहीं की। बल्कि मेरे कंधे पर सर रखकर हिचकियाँ लेने लगी और मेरा सीना उसके आँसूओं से भीग गया। कोई दस गज़ के फ़ासले पर अंगारों का एक ढेर और पड़ा हुआ था और अँधेरे में एक परछाईं सी भागती हुई नज़र आरही थी। मैंने पूछा, “तू कौन है?”, लेकिन हिचकियों और सिसकियों के सिवा कोई जवाब नहीं मिला। मैंने फिर पूछा। तू कौन है, तू कौन है। लेकिन वो मुसलसल रोने लगी थी। आख़िर मैंने उसका सर अपने कंधे से उठाया और उसे ग़ौर से देखा। अरे ये तो चेहरू थी। अब्दुल्लाह चाचा की लड़की। मैंने कहा, चेहरू क्या हो गया है। ये रो क्यूँ रही है। मुँह से बोलती क्यों नहीं। मैं भला तेरा कुछ बिगाड़ूँगा। मैं गणेश हूँ, गणेश मछेरा।”
“हाँ।”, उसने सिसकी लेते हुए कहा। मुझे बड़ी शर्म आरही थी कि एक नंगी औरत मेरी गोद में है। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन आँखें बंद नहीं कर सका। सितारों की रोशनी में, मैंने उसे सर से पाँव तक देखा। वो बेहद ख़ूबसूरत थी, जैसे कोई अप्सरा। वो अपने गाँव की सबसे ख़ूबसूरत लड़की थी। उ’म्र बीस बरस की हो गई थी, लेकिन अब तक ब्याह नहीं हुआ था। इसके बाप के पास ब्याह करने के लिए रुपया था ही नहीं। गाँव के तमाम लड़कों की राल इस पर टपकती थी और वो जिसकी तरफ़ नज़र उठाकर देख लेती थी, या ज़रा सा मुस्कुरा देती थी, उसका दिल कई दिन तक धड़कता रहता था।
मैंने भी उसे कई बार देखा था और दिल में ये सोचा था, काश वो मछेरी होती या मैं मुस्लमान होता, मैं उससे ज़रूर शादी कर लेता लेकिन मुश्किल ये थी कि मैं मछेरा था और वो मुस्लमान। लेकिन आज रात को बारह बजे गाँव की ये सबसे ज़ियादा ख़ूबसूरत लड़की, जिस पर हर जवान लड़का अपनी जान छिड़कता था, अकेली और नंगी मेरी गोद में थी। चारों तरफ़ से सड़ी हुई लाशों की बू आरही थी। दरख़्तों पर गिद्ध अपने परों को फड़फड़ा रहे थे। कुत्ते रो रहे थे और चेहरू मेरे सीने पर सर रखे हुए रो रही थी। मैं चेहरू को लेकर खेत की मेंढ़ पर बैठ गया। मैंने सोचा उसे जी भर के रो लेने दू , जब उसके दिल के सारे आँसू बह जाएँगे तब बात करूँगा।
बूढ़े माही-गीर ने आवाज़ दी, “समंदर आ गया। चप्पू सँभाल लो।”
गणेश पीछे और उसका बाप आगे बैठ गया और चार चप्पू चपा-चप लगने लगे। मैं भी उठकर बैठ गया। दरिया की इन्फ़िरादियत ग़ायब हो चुकी थी और अब हमारे चारों तरफ़ पानी ही पानी था। समंदर पर एक ग़ुनूदगी तारी थी। लहरें आहिस्ता-आहिस्ता साँस ले रही थीं। हवा के झोंके बड़े हल्के थे। हमारी कश्ती पूरब की तरफ़ मुड़ गई और चाँद हमारे सर पर चमक रहा था, एक ख़ूबसूरत चेहरे की तरह, जो मकान की सब से ऊँची मंज़िल की खिड़की से झाँक रहा हो और राहगीरों पर अपने हुस्न की बारिश कर रहा हो। दोनों माही-गीर बड़ी फुर्ती और सफ़ाई से चप्पू चला रहे थे। उनके जिस्म एक साथ आगे झुकते थे और फिर सीधे हो जाते थे। सीधे होते वक़्त उनके कंधे बुलंद होते थे और सीने तन जाते थे। चप्पू भी उनके हाथ मा’लूम होते थे, जो समंदर तक फैले हुए थे और मौजों को इस तरह काट रहे थे जैसे हँसिया धान के पक्के खेतों को काटता है। उनके बाज़ुओं की जुंबिश में एक ख़ामोश हम-आहंगी और तरन्नुम था, जो समंदर की मौजों के तरन्नुम से मिल गया था।
वो दोनों बड़ी देर तक कश्ती खेते रहे, यहाँ तक कि चाँद पच्छिम की तरफ़ ढल गया और एक गोल टिकिया समंदर की सतह के क़रीब लरज़ने लगी। बाप और बेटा दोनों थक कर चूर हो गए और सुस्ताने के लिए उन्होंने फिर चप्पू निकाल कर कश्ती में लिटा दिए। गणेश ने अपनी हथेलियाँ मिलीं। बूढ़े माही-गीर ने फिर चिलम भरी और कश्ती की एक दीवार से सहारा लेकर लेट गया। बादबान में भरी हुई हवा कश्ती को आहिस्ता-आहिस्ता चला रही थी। मैंने गणेश को आवाज़ दी। वो मुस्कुराने लगा, “तुम चेहरू के बारे में सोच रहे होगे?”
“हाँ!”
“मेरे दिल में भी चेहरू ही बैठी हुई है। उसका नाम गुल-चेहर था और वो एक बहुत ग़रीब किसान की लड़की थी। सब लोग उसे चेहरू कहते थे। क़हत में उसके माँ बाप, भाई बहन सब मर गए। वो अकेली रह गई। उस ज़माने में तो भीक भी नहीं मिलती थी। फ़ाक़े करने और एड़ीयाँ रगड़-रगड़ कर मर जाने के सिवा चारा ही क्या था। लेकिन चेहरू ख़ूबसूरत थी और उसकी एक सिपाही से आश्नाई हो गई। कोई पंजाबी सिपाही था। वो दोनों छुप-छुप कर मिलने लगे। मिलने की ये अनोखी तरकीब निकाली कि रात को बारह बजे दोनों नंगे हो जाते थे और अपने सरों पर आग की थाली भर कर रख लेते थे और उस गाँव में चले जाते थे जहाँ किसानों की लाशें सड़ रही थीं।”
“लेकिन वो इस तरह क्यों मिलते थे?”
“मैंने भी चेहरू से यही सवाल किया कि तूने ये क्या तमाशा किया है। रात के बारह बजे नंगी हो कर चुड़ेलों की तरह क्यों निकलती है। उसने जवाब दिया, ताकि लोग सच-मुच मुझे चुड़ैल और मेरे सिपाही को भूत समझें मैंने कहा तू उसके साथ निकाह क्यों नहीं कर लेती तो उसने बताया कि वो एक-बार अपने सिपाही के साथ कैंप में गई थी, तो फ़ौजी अफ़िसरों ने उसे देख लिया और सिपाही को सज़ा दी। फिर फ़ौजी ठेकेदारों ने उसके पास आदमी भेजे कि चल तुझे बड़े अफ़िसरों के पास ले चलेंगे। लेकिन वो बड़े अफ़िसरों के पास नहीं जाना चाहती थी। वो कोई बेसवा थोड़ी थी। उसे सच-मुच अपने सिपाही से मुहब्बत थी। इसलिए रात के बारह बजे जब तमाम गाँव के लोग डर के मारे घरों में छिप जाते थे तो वो अपने सरों पर आग से भरी हुई थाल रखकर निकलती थी और अपने सिपाही से मिलकर वापिस चली जाती थी।
सिपाही उसको खाना और रहने का ख़र्च देता था। जब मैं ने उसका पूरा क़िस्सा सुना तो मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ मैंने उससे माफ़ी मांगी लेकिन उसने कहा, “अब में अपने सिपाही से नफ़रत करने लगी हूँ।”, मैंने पूछा क्यों? तो बोली कि “वो मुझे अकेला छोड़कर भाग गया, डरपोक कहीं का। वो तो कहो कि तुम थे और तुम मुझे जानते हो, कोई और होता तो क्या होता और तुम ने भी मुझे नंगा देखा है। बताओ तुम्हें मेरा जिस्म देखने का क्या हक़ है। मैं तुम्हारी बीवी नहीं हूँ, तुम्हारी माशूक़ा नहीं हूँ, तुमने मेरे जिस्म पर अपनी निगाहें कैसे डालीं।”
ये कह कर चेहरू मुझसे लड़ने लगी। वो तन कर खड़ी हो गई। उसकी आँखों से शो’ले निकल रहे थे और उसने अपने ख़ूबसूरत बालों से अपना सीना छिपा लिया था।
मैंने कहा चलो मैं तुमको घर पहुँचा आऊँ लेकिन उसने इनकार कर दिया। क्या समझते हो, मैं डरती हूँ, मैं ख़ुद चली जाऊँगी। जहाँ मेरा जी चाहेगा वहाँ जाऊँगी, मेरा कोई घर नहीं है। वो देर तक उखड़ी हुई साँस लेती रही और फिर ख़ुद ही बड़ी नर्मी से बोली... तुम किसी से कहोगे तो नहीं। मैंने वा’दा किया तो वो मुस्कुराई। इससे मेरी हिम्मत बढ़ी और मैंने कहा। चेहरू मैं तुमसे मुहब्बत करने लगा हूँ। मुझसे ब्याह करोगी। वो बहुत ज़ोर से हँसी, क़हक़हा मार कर, जिसकी आवाज़ सुनकर कुत्ते फिर रोने लगे और गिद्ध अपने पर फड़फड़ाने लगे। मैंने कहा चेहरू सच-मुच तुमसे ब्याह करना चाहता हूँ, आज से नहीं बल्कि दो बरस से तुम्हारा दीवाना हूँ।
चेहरू फिर संजीदा हो गई और कहने लगी, “तुमने पहले क्यूँ नहीं ब्याह की बात की। मुझे दो वक़्त खाना दे सकोगे। मेरी बड़ी बहन दस बरस की ब्याही थी, लेकिन उसके मियाँ ने उसे हाथ पकड़ कर निकाल दिया। मेरी माँ ने मरने से पहले अपने तीन बरस के बेटे को घर से ढकेल दिया। एक मुट्ठी भर चावल के लिए मेरा बाप गला घोंटना चाहता था। बताओ तुम मुझसे ब्याह करके मछली और भात कहाँ से दोगे। आज तुमने मुझे नंगा देखा है तो तुम्हें मुझसे मुहब्बत हो गई। लेकिन इस मुहब्बत से तुम चावल नहीं ख़रीद सकोगे, चावल, चावल दो रुपया सेर बिक रहा है, दो रुपया सेर।” ये कहती हुई वो चली गई। चेहरू चली गई और उसका ख़ूबसूरत जिस्म अँधेरे में खो गया। मेरे सामने ज़मीन पर अंगारों का ढेर पड़ा था, जो रफ़्ता-रफ़्ता बुझते जा रहे थे। वो रातों-रात कहीं निकल गई और आज तक वापिस नहीं आई। इस क़िस्से को छः महीने हो गए हैं। मैं अपने दिल में चेहरू की याद लिए बैठा हूँ। जब बहुत उदास होता हूँ तो कश्ती लेकर दरिया में निकल जाता हूँ। जिस्मानी मेहनत से दिल का दर्द दूर हो जाता है।”
गणेश थोड़ी देर तक सर झुकाए बैठा रहा और फिर ख़ामोशी से उठकर चप्पू चलाने लगा। उसका बूढ़ा बाप ख़र्राटे ले रहा था और समंदर की मौजें सिसक रही थीं। मैं भी लेटे-लेटे सो गया। गणेश रात-भर अकेला चप्पू चलाता रहा। जब सुबह मेरी आँख खुली तो सूरज निकल रहा था। समंदर की मौजें नाच-नाच कर गीत गा रही थीं। हमारे पीछे सब्ज़-रंग का ज़मुर्रदीं समंदर था और सामने सुनहरे रंग का समंदर, जिसके किनारे-किनारे कॉक्स बाज़ार का दिलकश साहिल फैला हुआ था। सुपारी के नाज़ुक दरख़्त सर उठाए खड़े थे जैसे अभी समंदर से नहा कर निकले हों और धूप में अपने बाल सुखा रहे हों। दोनों माही-गीर तेज़-तेज़ चप्पू चला रहे थे और कश्ती कॉक्स बाज़ार के नन्हे से दरिया के दहाने में दाख़िल हो रही थी।
अब हम पतले से दरिया के अंदर थे और हमारे दोनों तरफ़ काले रंग की कीचड़ और फिर सुनहरे रंग का साहिल था। एक तरफ़ हज़ारों फ़ौजी मोटरें और तोपें खड़ी थीं। दूसरी तरफ़ हवाई-अड्डे पर सैकड़ों जहाज़
बड़ी-बड़ी टिड्डियों की तरह अपने सर उठाए खड़े थे। कई जहाज़ सर पर मंडला रहे थे। जहाज़ तोड़ तोपें अपने दहाने आसमान की तरफ़ उठाए हुए जापानी जहाज़ों का इंतिज़ार कर रही थीं और बहुत से सिपाही अफ़्सर और मज़दूर रेत पर चल फिर रहे थे। बीच दरिया में लकड़ी का एक पुल बना हुआ था। जिसके पास कई कश्तियाँ और सम्पानीं तैर रही थीं। हमारी कश्ती भी पुल से लग कर खड़ी हो गई। यकायक गणेश की ज़बान से निकला, “चेहरू!”
मैंने नज़र उठा कर देखा तो मबहूत रह गया। पुल पर एक दुबली-पतली लड़की खड़ी थी। उसने ज़र्द मख़मल की पतलून और सब्ज़ मख़मल की जैकेट पहन रखी थी। उसके कटे हुए बाल समंदर से आने वाली हवा में उड़ रहे थे। भवें तनी हुई थीं और आँखों में सूरज की किरनों की तेज़ी थी। मैंने फिर नज़र भर कर उसकी तरफ़ देखा। उसके रुख़्सार पाउडर और रंग से गुलाबी हो रहे थे और होंटों पर लिपस्टिक की एक बड़ी गहरी तह जमी हुई थी। बाएँ हाथ की कलाई पर घड़ी बंधी थी और दाहने हाथ में एक फ़ौजी बेद था। उसने बेद से मेरी तरफ़ इशारा करके कहा, “भद्रलोक” 1और उसकी आँखों में एक वहशी चमक नाच उठी।
बूढ़े मल्लाह ने जल्दी से कहा, “परमिट दिखाओ।”
मैंने जेब से परमिट निकाला और कश्ती में खड़े हो कर चेहरू की तरफ़ बढ़ा दिया। लेकिन उसने परमिट की तरफ़ देखा भी नहीं और मुझसे कहा, “कश्ती से नीचे उतरो।”
मैंने पुल पर चढ़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उसने अपने बेद से एक ठोका देकर कहा, “ऊपर मत चढ़ो, कश्ती से नीचे उतरो।” लेकिन नीचे सियाह-रंग की कीचड़ थी। मैं हैरान था और मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, कि क्या हो रहा है। गणेश ने कहा, “चेहरू तू कितनी बदल गई है। देखती नहीं नीचे कीचड़ है।”
“देख रही हूँ।”
चेहरू ने गणेश की आँखों में आँखें डाल कर जवाब दिया, “इसीलिए तो कह रही हूँ कि इसे नीचे उतारो। ये भद्रलोक है और भद्रलोक को पुल पर चढ़ने की इजाज़त नहीं है। उसे कीचड़ में चलाओ ताकि उसके सफ़ेद कपड़े लत-पत हो जाएँ । जल्दी करो, दूसरी कश्तियाँ आ रही हैं।”
चेहरू की आवाज़ में एक किस्म का वक़ार था। आँखों में वही वहशी चमक। गणेश और बूढ़े मल्लाह के चेहरों पर परेशानी थी। मैंने पीछे मुड़ कर देखा, कई फ़ौजी कश्तियाँ आरही थीं। मैं कीचड़ में चलने को तैयार हो गया और अपने जूते उतारने लगा। गणेश ने अपने मज़बूत बाज़ुओं की जुंबिश से मेरा सामान उठा कर साहिल पर फेंक दिया। बूढ़े मल्लाह ने कहा, “चेहरू तू बड़ी अफ़्सर हो गई है और हम सबको भूल गई है।”
फिर मेरी तरफ़ इशारा करके बोला, “ये भद्रलोक हैं। बंबई से आए हैं, ग़रीबों की सेवा करते हैं।”
आख़िरी जुमला सुनकर चेहरू को घिन आ गई। उसके होंट तल्ख़ी से ऐंठ गए और उसने अपनी वहशी आँखों से मुझे घूर कर देखा फिर बोली, “सब भद्रलोक एक से होते हैं और सब ग़रीबों की सेवा करते हैं। चाचा मैं तुम्हें भूली नहीं हूँ। अपनी माँ की कोख को भी नहीं भूली हूँ। मुझे ख़ूब याद है कि मैं कौन हूँ। तुम मछेरे हो और मैं किसान की लड़की हूँ। मैं हर भद्रलोक को इस कीचड़ में चलाती हूँ। तुमने उसे समंदर में डुबो क्यों नहीं दिया। भद्रलोक कहीं का।”
मैं इतनी देर में कीचड़ में उतर चुका था और जेब से रुपये निकाल कर कश्ती का किराया अदा कर रहा था। मेरे पैर घुटनों-घुटनों तक सियाह कीचड़ में धँस गए थे। पुल पर खड़ी हुई चेहरू मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी और गणेश उसे ललचाई नज़रों से देख रहा था। जब मैं कीचड़ से गुज़र कर साहिल पर पहुँचा तो चेहरू का क़हक़हा बुलंद हुआ, फिर उसने अपना हाथ बढ़ाकर गणेश को पुल के ऊपर चढ़ा लिया और उससे हँस हँसकर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ बातें करने लगी। गणेश ने पुकार कर बाप से कहा, “बाबा तुम जाओ , मैं यहीं रहूँगा बूढ़े मल्लाह ने मलामत भरी नज़रों से दोनों को देखा और बोला, “पागल मत बन बेटा, चेहरू तेरे काम की नहीं रह गई।”
चेहरू ने मुस्कुरा कर गणेश के रुख़्सार पर अपनी हथेली से एक हल्की सी थपकी दी और उसे सहारा देकर पुल से नीचे कश्ती में उतारने लगी। गणेश ने उसका हाथ झटक दिया और कूद कर कश्ती में बैठ गया। उसने दोनों हाथों में चप्पू उठा लिए और उन्हें तेज़-तेज़ चलाता हुआ कश्ती को निकाल ले गया। चेहरू की निगाहें दूर तक उसका त’आक़ुब करती रहीं। मैं एक मैले तोलीए से अपने पैर की कीचड़ पोंछ रहा था कि चेहरू पुल से उतर कर मेरे पास आ खड़ी हुई और पूछने लगी, “तुम कहाँ से आए हो? बंबई से?”
“जहन्नुम से।” मैंने जल कर कहा।
“मैं कभी-कभी भद्रलोक को पीट भी देती हूँ। अपने इस बेद से।” चेहरू की आँखों में शरारत थी। मैंने गर्दन उठा कर उस अ’जीब-ओ-ग़रीब लड़की की तरफ़ देखा। उसकी आँखों की वहशी चमक में बला का जादू था और पेशानी पर नफ़रत और शरारत से पड़ी हुई हल्की-हल्की शिकनें उसके ख़ूबसूरत बैज़ावी चेहरे की मा’सूमियत में वक़ार का इज़ाफ़ा कर रही थीं। मैं उससे बातें करना चाहता था। गणेश की कहानी ने मेरा शौक़ और बढ़ा दिया था। लेकिन चेहरू के तेवर बड़े ख़तरनाक थे और मुझे ज़बान खोलने की इजाज़त नहीं देते थे।
“मुझे गाली क्यों देती हो। मैं भद्रलोक नहीं हूँ।” मैंने झिजकते हुए कहा।
“अच्छा तुम भद्रलोक को गाली समझते हो?” वो हँसी, “मगर तुम्हारे कपड़े तो वैसे ही हैं।”
“और तुम्हारे कपड़े?”
“ये तो मैंने भद्रलोकों को जलाने के लिए पहने हैं। मुझे अच्छे थोड़ी लगते हैं।”
“और ये चेहरे पर रंग जो तुमने पोत रखा है?”
“रोज़ी कमाने के लिए!”
मैं उसकी सूरत देखता रह गया। ये बे-हयाई थी, बेबाकी थी, या इंतिक़ाम का जज़्बा। मैं कुछ फ़ैसला न कर सका।
“अच्छा तो तुम भद्रलोक नहीं हो और ग़रीबों की सेवा करते हो?” उसने बड़े तंज़ से पूछा, “काला बाज़ार करते हो लड़कियाँ बेचते हो?”
उसके माथे की शिकनें और गहरी हो गईं और तेवरियों पर बल पड़ गए, होंटों पर एक तल्ख़ सी हँसी आई और वो मुझे नफ़रत और हक़ारत से देखती हुई चली गई और मैं ये सोचता रह गया कि ये कैसी लड़की है जिसमें किसानों की बू-बास तक बाक़ी नहीं रह गई है।
ये बग़ावत और इंतिक़ाम नहीं है। सिर्फ़ नराज और आवारगी है। ये पारा से बनी हुई लड़की, जिसकी रगों में बिजलियाँ भरी हुई हैं, ख़ुद अपनी ज़ात से इंतिक़ाम ले रही है। अपनी फ़ितरत और अपनी निस्वानियत से बग़ावत कर रही है। जैसे समंदर की कोई बे-ताब मौज तूफ़ान की आग़ोश से निकल कर साहिल पर आ पड़ी हो और अपने थपेड़ों से ख़ुश्क रेत को समंदर बनाने की कोशिश कर रही हो। नन्हे-नन्हे ख़ाक के ज़र्रे उसे अपना रिज़्क़ समझ कर एक-एक घूँट कर के पी जाएँगे।
कॉक्स बाज़ार में हर एक की ज़बान पर चेहरू माँझी का नाम था। चेहरू जो बीस बरस की लड़की थी। जिसने मज़दूरी करते-करते मज़दूरों की सरदारी हासिल करली थी... और अब माँझी कहलाती थी... जिसने थानबी और बाज़ू और गमछा तर्क करके अंग्रेज़ी लिबास पहनना शुरू’ कर दिया था। जो अपने हुस्न की वज्ह से फ़ौजी अफ़सरों के मुँह चढ़ी हुई थी। जो किसी सफ़ेद-पोश आदमी को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। जो हर एक की बे-इ’ज़्ज़ती कर देती थी। जो दर्जनों शरीफ़ आदमियों को कीचड़ में चला चुकी थी। औरतें ख़ासतौर से उससे नफ़रत करती थीं लेकिन मर्द कुछ ललचाए हुए लहजे में उसकी मज़म्मत करते थे।
दूसरे दिन मैंने उसे एक जीप में गुज़रते देखा। उसकी गोद में फूलों का एक बड़ा सा गुच्छा रखा था। तीसरे दिन वो मुझे एक चरनगर 2 के पास खड़ी हुई मिल गई और मुझे देखकर मुस्कुरा दी। मैंने कहा, “कैसी हो चेहरू?”
“कैसी हूँ?” उसकी आँखें फिर चमक उठीं, “अच्छा ये बताओ, मैं पतलून और जैकेट पहन कर कैसी लगती हूँ?”
“बिल्कुल इंग्लिस्तान की शहज़ादी मा’लूम होती हो।”
वो खिलखिला कर हँस पड़ी और उसके दोनों रुख़्सारों में दो छोटे-छोटे गढ़े पड़ गए और ख़ूबसूरत सफ़ेद दाँतों की क़तार चमकने लगी। इतने में एक फ़ौजी ट्रक आई। चेहरू ने हाथ का इशारा किया और उचक कर उसमें बैठ गई। जब ट्रक चली तो वो खड़ी हुई थी और उसके दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठे हुए थे और बाल हवा में उड़ रहे थे। गाड़ी के पहीयों से उड़ने वाली सुर्ख़ धूल ने जो सुपारी के पेड़ों तक बुलंद हो गई थी, उसे ढाँप लिया। शाम को सारे कॉक्स बाज़ार में एक हंगामा बरपा था। हर शख़्स ये कह रहा था कि चेहरू को यहाँ से निकाल दो। उसने रामू रोड पर ट्रक से उतर कर किसी शरीफ़ आदमी को लहू-लुहान कर दिया था। सारी बस्ती उसके ख़िलाफ़ हो गई थी। लेकिन फ़ौज का ख़ौफ़ उन्हें ज़बानी एहतिजाज से आगे नहीं बढ़ने देता था। रात को ये ख़बर आई कि फ़ौजी अफ़सरों ने उसे सज़ा दी है और अब वो साहिल के इलाक़े से बाहर बस्ती में नहीं निकलने पाएगी। लोग इतमीनान का साँस लेकर सो गए और फिर चेहरू के अफ़साने मज़े ले-ले कर बयान करने लगे।
सुब्ह साहिल पर चेहरू मज़दूरों की एक टोली को कुछ हिदायात दे रही थी। उस वक़्त समंदर में पानी चढ़ रहा था और लहरें दौड़ कर साहिल का मुँह चूम रही थीं। बड़ी-बड़ी सौ-सौ गज़ लंबी लहरें, रुई के गालों की तरह बहती हुई और चाँदी उछालती हुई आती थीं और रेत पर झाग छोड़कर चली जाती थीं। चेहरू एक नीले रंग का चुस्त लिबास पहने हुए थी और अभी-अभी समंदर से नहा कर निकली थी। उसके दोनों बाज़ू, आधी रानें और पिंडलियाँ नंगी थीं जिन पर समंदर के नमक का बारीक बुरादा जमा हुआ था। भीगे हुए बाल उलझे हुए थे और चेहरे का गंदुमी रंग समंदर के नमकीन पानी से धुल कर निखर आया था। मैंने पहली बार उसके सुडौल जिस्म की दिलकशी का अंदाज़ा किया। वो मुझे देखकर एक-बार तन गई और उसका सीना समंदर की किसी लहर की तरह बुलंद हो गया
“क्या तुम भी मज़दूरी चाहते हो? मैंने कल शाम तुम्हारी ही तरह के एक भद्रलोक को पीटा था, जो मुझे सड़क के किनारे खड़ा हुआ घूर रहा था। क्या तुम्हारी भी शामत आई है?”
“तुम्हें भद्रलोक से इतनी नफ़रत क्यों है?”
“तुमसे मतलब? तुम होते कौन हो?”
“मैं कैसे बताऊँ। जब तुम सीधे मुँह बात ही नहीं करती हो?”
मैं हैरान रह गया। उसने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और दौड़ती हुई बिल्कुल साहिल के किनारे पहुँच गई, जहाँ समंदर की मौजें रेत का मुँह धो रही थीं। वो भीगी हुई रेत पर बैठ गई। अपने पैर समंदर की तरफ़ फैला दिए और कुहनीयाँ नर्म मख़मलीं रेत में टेक दीं ।
“मुझे एक बात बताओगे?” उसने ऐसी मुहब्बत से पूछा जैसे मुझे बरसों से जानती हो।
“पूछो?”
“गणेश ने तुमसे मेरे बारे में कुछ कहा है?”
“हाँ। वो तुमसे मुहब्बत करता है।”
उसके चेहरे पर एक रंग सा दौड़ गया और आँखों में बे-इंतिहा नर्मी और लताफ़त आगई। जैसे किसी ने जादू के ज़ोर से उसकी वहशत और ख़ुशूनत को बदल दिया और वो बे-इंतिहा हसीन हो गई। समंदर की मौजें उसके पैरों को चूम रही थीं और हवा की ग़ैर-मरई उंगलियाँ उसके बालों में कंघी कर रही थीं। वो बड़ी देर तक अपने दोनों हाथों से रेत के घरौंदे बनाती रही और बिगाड़ती रही।
“मुझे इस रेत से बड़ी मुहब्बत है, मैं इससे पैदा हुई हूँ। गणेश भी इसी से पैदा हुआ है। मैं अक्सर आकर इस रेत की गोद में लेट जाती हूँ और घंटों ख़्वाब देखती रहती हूँ। बड़े-बड़े धान के खेत हैं। दूर उफ़ुक़ तक फैले हुए खेत जिनकी सुनहरी बालियाँ लहरा रही हैं। मैं अपने हँसिए से खेत काट रही हूँ और धान की बालियाँ समेट-समेट कर खलियान लगा रही हूँ। मैं कटे हुए खेतों की मुंडेरों पर गाती हुई घूम रही हूँ, ज़मीन गा रही है, आसमान गा रहा है, हवाएँ गा रही हैं और दरिया के किनारे एक छोटी सी झोंपड़ी है जिसमें गणेश बैठा हुआ है, उसके जाल में बड़ी-बड़ी मछलियाँ तड़प रही हैं, जिन्हें देखकर छोटे-छोटे बच्चे तालियाँ बजा-बजा कर हँस रहे हैं और नाच रहे हैं।” वो चुप हो गई और रेत के घरौंदे को अपनी मुट्ठी में उठा लिया।
“मैं गणेश से बहुत सी बातें करना चाहती थी, लेकिन उसका बाप मौजूद था, बूढ्ढा खूसट, कहता है कि मैं गणेश के क़ाबिल नहीं रह गई हूँ और वो अपने बाप के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कर सकता। बुज़दिल कहीं का। देखो न मुझे छोड़कर चला गया।” उसने आख़िरी जुमला बच्चों की तरह कहा।
“मगर तुम ख़ुद जो उसे छोड़कर चली आईं।”
“मुहब्बत करने के लिए हिम्मत की ज़रूरत है। मुझे बुज़दिल आदमीयों से बड़ी नफ़रत है, मैं ऐसे आदमी पसंद करती हूँ जो हँसते हुए मौत के मुँह में चले जाएँ , देखो समंदर में तूफ़ान आ रहा है। पानी गज़ों उछल रहा है, अगर मैं गणेश से इस वक़्त कश्ती खेने के लिए कहूँ तो वो कभी तैयार न होगा। किनारे खड़ा हो कर जाल फेंकेगा, मछेरा है न मछेरा। मुझे भी मछली की तरह पकड़ना चाहता है। बताओ में मछली तो नहीं हूँ। बोलो क्या मैं मछली हूँ?”
“नहीं।”
“मैं मछली नहीं हूँ, मैं औरत हूँ, चेहरू हूँ, गुल-चेहर है मेरा नाम। मुझे कोई मछली की तरह नहीं पकड़ सकता।”
एक मज़दूर दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, “चेहरू माँझी, चेहरू माँझी, तुम्हें साहब ने बुलाया है।”
“कह दो नहीं आती।”
“वो बुथिडांग जा रहे हैं, मोटर पर बैठे हैं।”
“बस कह दो नहीं आती। मैं बुथिडांग नहीं जाऊँगी। मैं समंदर में जा रही हूँ।” मज़दूर चला गया, मैंने पूछा, “किस ने बुलाया है?”
“कोई नहीं, वो लाल मुँह का बंदर है, उसका तबादला हो गया है और मुझे बुथिडांग ले जाना चाहता है। मैं नहीं जाती। उसके ऐसे हज़ारों यहाँ मिलेंगे। कोई मैं डरती थोड़ी हूँ। किसी चीज़ से नहीं डरती। आओ तूफ़ान में कश्ती चलाएँगे। बड़ा मज़ा आएगा मैं कहना चाहता था कश्ती उलट जाएगी, लेकिन इस डर से चुप रहा कि वो मुझे बुज़दिल समझेगी। उसने एक नाज़ुक सी सम्पान का इंतिख़ाब किया और पुल पर चढ़ कर उस में कूद गई। मैंने पूछा, “मैं भद्रलोक हूँ, क्या कीचड़ में चल कर आऊँ?”
“पुल से हो कर आ जाओ, तुम भद्रलोक नहीं हो। जब तुम मेरे कहने से बग़ैर एहतिजाज किए कीचड़ में चलने को तैयार हो गए, तब ही में समझ गई कि तुम भद्रलोक नहीं हो।” उसने चप्पू सँभाल लिए और सम्पान खेने लगी, उसके हाथ बड़ी मश्शाक़ी से चल रहे थे, जब समंदर का पानी चढ़ रहा हो, उस वक़्त कश्ती खेना मज़ाक़ नहीं है। मेरा दिल काँप रहा था कि कहीं सम्पान उलट न जाए। लेकिन चेहरू बड़े इत्मिनान से चप्पू चला रही थी।
“तुम्हें चप्पू चलाना आता है?” उसने पूछा।
“हाँ में बंबई के समंदर में कश्ती खे चुका हूँ।”
“और तैरना भी आता है?”
“हाँ कुछ यूँही सा।”
“फिर डर की कोई बात नहीं।” ये कह कर वो चप्पूओं को और ज़ियादा तेज़ चलाने लगी। खुला हुआ समंदर जोश खाए हुए पानी की तरह उबल रहा था और हमारी सम्पान ग़ुस्से में भरी हुई मौजों पर एक सूखे हुए पत्ते की तरह लरज़ रही थी। मौजों के थपेड़े बड़े सख़्त थे और सम्पान बुरी तरह डगमगाने लगी थी। एक मौज कश्ती के ऊपर से गुज़र कर हमें भिगो गई। मैंने कहा, “चप्पू मुझे दे दो।”
“तुम मुझसे अच्छे चप्पू नहीं चला सकते।”
“सम्पान वापिस ले चलो। उलट जाएगी।”
“तुम डर रहे हो?”
मैंने लपक कर चप्पू पकड़ लिए। चेहरू ने उन्हें मेरे हाथों से छुड़ाने की कोशिश की। एक-बार सम्पान फिरकी की तरह नाच उठी और एक बड़ी सी ग़ज़बनाक मौज ने आकर उसे दस बारह फुट ऊपर उठा लिया और एक ज़बरदस्त झटके से साहिल पर फेंक दिया। एक दूसरी मौज हमारे ऊपर से गुज़र गई और समंदर ग़ुर्राने लगा। मुझे नहीं मा’लूम कि चेहरू कहाँ गिरी और मैं कहाँ गिरा। जब मौज सर से गुज़र चुकी तो मैं रेत पर पड़ा हुआ था और चेहरू मुझसे कई गज़ दूर खड़ी थी और कश्ती मौजों के थपेड़ों में थी। एक चप्पू रेत में धँस गया था और दूसरा आसमान की तरफ़ हाथ उठाए हुए फ़रियाद कर रहा था। उसने पुकार कर पूछा, “चोट तो नहीं लगी?”
“नहीं, रेत बहुत नर्म है।” मैंने जवाब दिया, हालाँकि मेरे घुटने और कुहनीयाँ छल गई थीं। चेहरू फिर मेरे पास आकर बैठ गई और कहने लगी, “मेरा जी चाहता है कि कोई इस दुनिया को इसी तरह उठाकर फेंक दे। जब समंदर में तूफ़ान आता है तो मैं ख़ुशी से दीवानी हो जाती हूँ और मैं सोचती हूँ, ये तूफ़ान बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा, यहाँ तक कि आसमान और ज़मीन के बीच में सिर्फ़ समंदर ही समंदर होगा। इसकी नीली मौजों में हम, तुम, गणेश, चाँद, सूरज, सितारे सब डूब जाएँगे।
मैंने कहा, “तुम पगली हो चेहरू।”
“हाँ मैं सच-मुच पगली हूँ। तुम भी पगले हो जो मेरे पास बैठे हो। गणेश भी पगला है जो मुझसे मुहब्बत करता है और वो लाखों किसान और मछेरे सब पगले थे जो चार दाना चावल के लिए एड़ीयाँ रगड़ रगड़ कर मर गए। सिर्फ़ भद्रलोक पगला नहीं है, बाक़ी सब पगले हैं।”
“तुम्हें भद्रलोक से इतनी नफ़रत क्यों है?” मैंने मौक़ा पा कर पूछा। चेहरू एक दम संजीदा हो गई और उसकी नज़रों की वहशी चमक उसकी आँखों में वापिस आ गई।
“जानते हो मैं क्या करती हूँ?” उसने मुझसे पूछा, “मैं अपना जिस्म बेचती हूँ, अजनबी आदमी तुम पहले शख़्स हो जिससे मैं इस तरह बातें कर रही हूँ। लोग कहते हैं कि मैं बहुत ख़ूबसूरत हूँ, मुझे भी अपनी सूरत और अपना जिस्म बहुत अच्छा लगता है और मैं उसे बेचती हूँ। एक दिन के तीस रुपये लेती हूँ और फ़ौजी अफ़्सर मुझे इससे ज़ियादा रुपये देते हैं। तुम समझते होगे कि ये मेरा ख़ानदानी पेशा है। नहीं। मैं तो किसान की बेटी हूँ, धरती की तरह पाक, मैंने ये पेशा कभी नहीं किया था। लेकिन जब मेरे माँ बाप मर गए और सारा गाँव उजड़ गया और मैं हज़ारों लाशों केबीच में अकेली रह गई और लाशों को नोच-नोच कर खाने वाले कुत्ते मुझे देख कर अपने दाँत पीसते थे तो ग्यारह दिन के फ़ाक़ों केबा’दमें लड़खड़ाती हुई अपने गाँव के ज़मींदार के पास गई, मुट्ठी भर चावल की भीक मांगने के लिए।
वो चावल जिसका धान मैंने पिछली फ़सल में अपने हाथों से काटा था। ज़मींदार के घर में मनों चावल भरा हुआ था। लाशों की तरह बोरीयाँ गंजी हुई थीं। वो उसका व्यपार करता था। काले-बाज़ार का व्यपार, जहाँ वो हमारे खेतों का पैदा हुआ चावल साठ रुपये मन बेच रहा था। मैं ग्यारह दिन की भूकी थी और दुनिया में मेरा कोई सहारा नहीं था। कई बार मैंने सड़ी हुई लाशों का गोश्त खाने का इरादा किया था, लेकिन घिन आ गई। मैंने ज़मींदार से मुट्ठी भर चावल मांगे। उसने पूछा क्या क़ीमत दोगी। मेरे पास किया था। मैंने कहा, ख़ैरात दे दो। उसने कहा, मैं कई ख़ैराती स्कूल और यतीम-ख़ाने चला रहा हूँ। चटगाँव में मेरा ख़ैराती लंगर ख़ाना चल रहा है। आख़िर कहाँ तक ख़ैरात दूँ। मैंने पूछा, फिर क्या करूँ, चटगाँव जाने की सकत नहीं है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।
उसने कहा, तुम्हारे पास जवानी है, ख़ूबसूरत चेहरा है, भरा हुआ जिस्म है, उसे कहीं जा कर बेच आओ। लेकिन मेरा जिस्म चावल की बोरी तो नहीं था, जो मैं उसे बेच देती। मैं वहाँ से भाग आई। लेकिन दो दिन केबा’दजब मैं तेरह दिन की भूकी थी। मैं अपना जिस्म लाश की तरह घसीट कर ज़मींदार के पास ले गई। मैं ने कहा, में अपना जिस्म मुट्ठी भर चावल में बेचने आई हूँ, उसे ख़रीदोगे। वो ख़फ़ा हो गया, भद्रलोक, बड़े इज़्ज़त वाले होते हैं। उसने कहा। मैं कोई दलाल नहीं हूँ। मैंने कहा, फिर मैं कहाँ अपना जिस्म बेचने जाऊँ। मुझसे तो चला भी नहीं जाता। ज़मींदार ने मुझे अपने घर से निकाल दिया। उसका बेटा जो मुझे घसीट कर बाहर लाया था, सेर भर चावल में मेरा जिस्म ख़रीद ले गया।
तब से मैं महसूस करती हूँ कि मेरे पास मेरा जिस्म नहीं है, मेरी जवानी नहीं है, मेरी ख़ूबसूरती नहीं है। ये सब तो सेर भर के चावल में बिक चुकी है। इसकेबा’दमुझे एक सिपाही मिला, वो डरपोक था। फिर गणेश मिला वो भी बुज़दिल निकला और अब कॉक्स बाज़ार में मेरी हुकूमत है। यहाँ जितने आदमी हैं सब बुज़दिल हैं। यहाँ बहुत से भद्रलोक आते हैं। अपना व्यपार करने के लिए, फ़ौजी ठेका लेने के लिए। मैं उन्हें कीचड़ में चलाती हूँ, कभी-कभी किसी को पीट भी देती हूँ, लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि मेरे एक थप्पड़ मार दे। रुपये की हवस और लालच ने उन्हें बुज़दिल बना दिया है। वो जानते हैं कि मैं फ़ौजी अफ़सरों की मुँह चढ़ी हूँ और वो मुझे थप्पड़ मार कर उन्हें नाराज़ नहीं कर सकते... उन्हें रुपया की ज़रूरत है। वो अपने गाँव की बेटियाँ लाकर फ़ौजी अफ़सरों के हाथ बेच जाते हैं।
तुम समंदर के रास्ते से वापस मत जाना, अराकान रोड से हो कर जाना। चटगाँव यहाँ से इसी मील दूर है, लेकिन यहाँ से चटगाँव तक तीन लाख किसान औरतें हैं जो मेरी तरह पेशा कर रही हैं और उनकी कमाई भद्रलोक खा रहे हैं। तुम भद्रलोक नहीं हो, इसलिए मेरी बात समझ जाओगे। वो कहते हैं चेहरू माँझी बदमाश है, चेहरू माँझी आवारा है, चेहरू माँझी बेसवा है, लेकिन भद्रलोक मुझसे ज़ियादा बदमाश हैं, मुझसे ज़ियादा आवारा हैं, वो सब बेसवा हैं, दलाल हैं। उनकी इज़्ज़त, उनका मज़हब, उनका देवता, सब कुछ रुपया है। इसके लिए वो अपनी माओं को बेच डालें। अपनी बेटीयों को बेच डालें। उनकी इज़्ज़त और शराफ़त सिर्फ़ उनके सफ़ेद कपड़ों में है। क्या बंबई में भी भद्रलोक होते हैं?”
“भद्रलोक हर जगह होते हैं।” मैंने जवाब दिया।
“फिर कुछ नहीं हो सकता, कुछ नहीं हो सकता, मुझे उनसे बड़ी नफ़रत है।” वो बड़बड़ाई।
सूरज की किरनें बहुत तेज़ हो गई थीं और चेहरू माँझी के गंदुमी रंग चेहरे पर पसीने के मोती चमक रहे थे। समंदर की मौजें उसके क़दम चूम रही थीं और हवा की ग़ैर-मरई उंगलियाँ उसके बालों में कंघी कर रही थीं, उसने अपनी आँखें बंद करलीं और जैसे कोई ग़ुनूदगी के आलम में बातें कर रहा हो, ज़ेर-ए-लब आहिस्ता-आहिस्ता कह रही थी, “जब यहाँ से जाना तो गणेश से कह देना कि मैं उसका इंतिज़ार कर रही हूँ। मैं इस ज़िंदगी से तंग आ गई हूँ।”
हाशिए
(1) बंगाली ज़बान में दरमियानी तबक़े के सफ़ेद-पोश आदमी को भद्रलोक कहते हैं।
(2) थानबी रंगीन धोती को कहते हैं जो चटगाँव की मुस्लमान औरतें बांधती हैं। बाज़ू चोली या अंगिया को कहते हैं और गमछा दुपट्टे को।
(3) लकड़ी का बना हुआ एक तरह का झोंपड़ा जो पब्लिक के इस्ति’माल के लिए सड़कों के किनारे बना दिया जाता है। लोग इस में बैठ कर सुस्ताते भी हैं और बे-घर लोग अक्सर रात को इस में सोते हैं।
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