छम्मो
स्टोरीलाइन
अमीर घरानों में सेविकाओं के देह शोषण की कहानी। छम्मो एक मासूम सी लड़की है जो ख़ुद भी शोषण का नतीजा है। छम्मो पर नवाब ज़ादे अपने डोरे डालते हैं और उसका शोषण करते हैं। छम्मो उनसे उम्मीदें बांध लेती है और जब उम्मीदें टूटती हैं तो वो बिस्तर से लग जाती है और उसका कोई पुरसान-ए-हाल नहीं होता।
मैंने उसे पहली बार बेगम साहिबा के साथ ही देखा था और बेगम साहिबा से मेरी मुलाक़ात एक दिन इत्तफ़ाक़न हो गई थी। रात का वक़्त था। हम सब सोने की तैयारी कर रहे थे। गर्मियों में ये तैयारियां बड़ी तूल तवील होती हैं। बिस्तर बाहर निकाले जाते हैं। घड़ों में पानी भरा जाता है। पंखों की तलाश होती है। मसहरियाँ तानी जाती हैं और फिर भी नींद है कि किसी ख़ुशक़िस्मत ही की आँखों में बिसराम करती होगी।
मैं अपना दुपट्टा बाँहों पर लपेटे पड़ी थी क्योंकि मच्छरों का दस्ता बार-बार युरिश कर रहा था और गर्मी का ये आलम था कि चादर और मसहरी में दम घुटता था। अम्मी क़रीब ही जाएनमाज़ बिछाए नमाज़ पढ़ रही थीं। वो थोड़ी थोड़ी देर बाद पंखी उठा लेतीं। दुपट्टे से गर्दन पोंछतीं और फिर बड़ी बददिली से सर झुका कर नमाज़ पढ़ने लगतीं... ये वक़्त किसी को मिलने का न था लेकिन कभी कभी अचानक किसी ऐसे इंसान से मुलाक़ात हो जाया करती है जैसे कोई सय्यारा घूमता फिरता आपके महवर पर आ निकला हो।
कार की बत्तियां फाटक पर लहराईं, फिर इंजन बंद हो गया और फिर अपना आप धकेलती हुई कार पोर्च में खड़ी हो गई। मैं अपना फटा हुआ दुपट्टा बाज़ू पर लपेटे हुए उठी और सीली लॉन पर आहिस्ता-आहिस्ता चलती पोर्च की तरफ़ चल दी। आपी कार से बाहर निकल कर खड़ी थीं लेकिन अभी तक वो शीशे में मुँह दिए अंदर किसी से बातें किए जा रही थीं। उनका मुतवाज़िन, भरा हुआ जिस्म साड़ी में नुमायां नज़र आ रहा था और ऊंची एड़ी के बाइस वो बहुत लंबी लग रही थीं।
“बाली, देखो तुम्हें कौन मिलने आया है?”
“कौन आया है...?” मैंने सरगोशी की। कार से कोई भी बरामद न हुआ और चूँकि शीशों पर सब्ज़ पर्दे थे इसलिए मैं कुछ भी अंदाज़ा न कर सकी कि अंदर कौन हो सकता है
“बाली... पहले पर्दा करवा लो, फिर ये निकलेंगी।” आपी बोलीं।
“लो भई आपी यहां कौन है, कमाल करती हैं आप भी!” मैंने इधर उधर नज़र दौड़ा कर कहा।
“फिर भी देख लो, कोई नौकर भी न हो।”
मैंने कार का दरवाज़ा खोला और अंधेरे में एक हेवले से बोली, “बेफ़िक्र रहिए, ये जगह आदम बू से पाक है।” अंदर से कपड़े सरसराने की आवाज़ आई तो बेचारा ड्राईवर मुँह लटका कर चल दिया। मैंने एक नज़र उस पर डाली। उसमें कोई ऐसी बात न थी कि औरतों के क़ल्ब की हरकत बढ़ जाती।
“वही बेगम साहिबा हैं जिनका ज़िक्र मैंने तुमसे किया था।” आपी ने आवाज़ लगा कर मुझसे तआरुफ़ करवाया।
“अछ आ... आ...” मैं ज़ेहन पर ज़ोर देते हुए बोली।
बेगम साहिबा निकलीं। उनका हुजूम उनकी अमारत की गवाही देता था। उनके कपड़ों में नफ़ासत थी और ज़ेवर गो पुराने फ़ैशन का था लेकिन जिस तकल्लुफ़ से उन्होंने पहन रखा था, यूं लगता था गोया अभी दुकान से आया है। उनकी चाल मद्धम, लब-ओ-लहजा शीरीं और गुफ़्तगु धीमी थी। आपी ने बाहर ही बैठना मुनासिब समझा, सो हम सब बिस्तरों की तरफ़ चल दिए। बेगम साहिबा बड़े तकल्लुफ़ से एक कुर्सी पर बैठ गईं और हम दोनों हस्ब-ए-आदत चारपाइयों पर नशिस्त जमा कर बैठ रहीं।
चारपाइयों पर बैठना एक फ़न है। हमारी आधी ज़िंदगी इन ही पर गुज़रती है और जो आधी बाक़ी रह जाती है उसका चौथा हिस्सा भी हम इन ही पर लेट कर, बैठ कर, करवटें बदल कर काट देते हैं... चादरों पर सालन के दाग़ होते हैं। स्याही के धब्बे होते हैं। मिट्टी और धूल की अफ़्शां होती है और तकियों पर न सिर्फ़ तेल ही का बड़ा सा चटाख़ नज़र आता है बल्कि उमूमन आँसूओं की हल्की सी नमी भी दाग़ छोड़ जाती है।
चारपाइयाँ और बिस्तरे हमारे कल्चर की ऐसी रसीदें हैं जिन पर अनगिनत लोग मोहरें सब्त करते हैं। उन पर बैठना आसान नहीं होता। पेट में कई बल पड़ जाते हैं। टांगें थोड़ी देर बाद यक़ीनन सो जाती हैं और आध घंटे की बैठक में कई पैंतरे बदलने पड़ते हैं। कंधे झुके रहते हैं और गर्दन में ख़म पड़ जाता है... लेकिन जो चारपाइयों के आदी हैं उन्हें कुर्सियों में कभी सुख नहीं मिला।
“बाली, बेगम साहिबा कई दिन से कह रही थीं लेकिन आज जाने उन्हें क्या सूझी कि इरादा करते ही चल पड़ीं।”
“बड़ी नवाज़िश है उनकी...” मैंने जवाब दिया।
“नवाज़िश काहे की? हम तो आप जैसे लोगों की ज़ियारत को बड़ी दूर दूर से आते हैं।” बेगम साहिबा बोलीं, इस जुमले में न तो सच था न ही बनावट थी। यूं लगता था कि उन्हें ऐसे जुमले अदा करने की आदत थी।
“बाली, नवाब साहिब से इजाज़त लेना कोई आसान काम नहीं है।” आपी ने अब्रू उठा कर बात की।
“नहीं जी... नवाब साहिब तो कुछ नहीं कहते। मैंने ही कभी इसरार नहीं किया।”
“चलिए, हमारे ही भाग भले हैं कि आपने ज़हमत गवारा की।”
जब अम्मी उठीं और बातों में रवानी आगई तो मैंने बेगम साहिबा का ग़ौर से जायज़ा लिया... उनकी मोटी मोटी आँखें शरबती थीं और उन्हें उनके फिराने और अदा से बंद करने का ढंग आता था। बात करते हुए बड़े आराम से अपने होंटों पर ज़बान फेरतीं, निगाहों को झुकातीं और फिर ज़रा सा गर्दन को ख़म देकर अपने जुमले के आख़िरी अलफ़ाज़ बिलकुल मद्धम कर देतीं।
बेगम साहिबा अपनी जवानी में बड़ी क़ातिला होंगी। वो चिंत किए हुए दुपट्टे ओढ़ती होंगी। कमर पर कसी हुई पिशवाज़ें पहनती होंगी। उनकी चाल में ठोकरें और उनकी बातों में हलावी ख़जूरों का रस होगा... अब भी जब कि उनका बड़ा लड़का फर्स्ट ईयर में पढ़ रहा था और छोटा लड़का जाजी चौथी में तालीम पा रहा था, उनकी आन-बान ऐसी थी गोया किसी नई-नवेली दुल्हन को उसके शौहर के बेजा लाड प्यार ने बिगाड़ रखा हो।
शर्बत का गिलास हाथ में घुमाते हुए उन्होंने आपी से कहा, “देखिए, मेरी नौकरानी और उसकी बच्ची कार में बैठी हैं, उन्हें भी बुला लीजिए।”
जब नौकरानी आई तो साथ रेंगती हुई छम्मो भी आई। अगर बेगम साहिबा हमारे हाँ न आतीं तो मैं उस छम्मो को कभी न मिल सकती, जिसे देखकर एहसास होता था, निस्वानियत ने बचपन का रूप धार रखा है।
छम्मो चार साल की बच्ची होगी। इस की आँखें गर्द-ओ-पेश का जायज़ा लेते हुए भी कुछ न समझ रही थीं। उसका दहन यूं खुला था, जैसे कोई ट्रंक बंद करना भूल गया है... ये दहन शायद हमेशा ही से खुला था। दोनों जानिब होंट लटके हुए बहंगी के सिरे बोझ से बोझल। उसकी चाल में बच्चों की बे समझी न थी बल्कि निस्वानियत का सा अज़्म था। मैंने बहुत सी बच्चियां देखी हैं लेकिन छम्मो छम्मो ही थी। मैंने मासूमियत और पक्केपन का ऐसा मजमूआ फिर कभी नहीं देखा।
उसने बोसीदा अमरीकन फ्राक़ों में से बनाया हुआ लंबा कुर्ता पहन रखा था जो टख़नों तक पहुंच कर कोनों से यूं उठा हुआ था कि दोनों जानिब फ़्राक नुमा गोलाइयाँ उभर आईं थीं। उसके नाख़ुनों पर पुरानी पालिश थी। बालों में रिबन की जगह एक कतरन सी अटकी हुई थी और कानों में ज़रा ज़रा सी सोने की बालियां थीं। छम्मो को देखकर किसी ऐसी बच्ची की गुड़िया का ख़्याल आता जिस पर अपनी गुड़िया को संवारने के दौरे पड़ते हों। यूं लगता था कभी तो छम्मो पर नवाज़िशों के ढेर लग जाते हैं और कभी वो महज़ सुबू नौकरानी की लड़की बन कर कोने खद्दरों में छुपती फिरती है।
वो एक ही माहौल में रहने के बावजूद कुछ झिंझोड़ी हुई सी नज़र आती थी। यूं महसूस होता था कि आज तो वो बेगम साहिबा की गोद में हुमकती है और कल मीरासिन की गंदी बच्ची के साथ बासी टुकड़ों पर फेंक दी जाती है। शायद इसी क़िस्म के रवैय्ये ने उसकी आँखों में एक मुस्तक़िल सवाल छुपा रखा था।
वो आँखें जिन्हें देखकर ऐसा तालाब याद आता जो पाताल तक गहरा हो और जिसमें दूर तक दरख़्त ही दरख़्त काँपते हुए नज़र आएं। उन ही आँखों को पूरा खोल कर वो पूछती थी मैं कौन हूँ? बोलो ना, मैं कौन हूँ?
सुबू नौकरानी तो बिल्कुल बे लेप का कोठा नज़र आई। छम्मो को अपनी गोद में लेकर बैठ गई। मैंने मुस्कुरा कर उसे बुलाया तो वो मारे बाँधे उठ खड़ी हुई। मैंने हाथ फैलाया तो वो मेरी तरफ़ रेंगने लगी। शायद वो इल्तिफ़ात के मानी जानती थी।
“कहो छम्मो पढ़ती हो?” मैंने उसके गर्द-आलूद सुनहरी बालों पर हाथ फेर कर कहा। छम्मो ने दाएं-बाएं बड़ा सा सर हिला कर नफ़ी में जवाब दिया।
“क्या नाम है छम्मो?” छम्मो ने पहले माँ की जानिब देखा, फिर बेगम साहिबा की तरफ़ अपनी निगाहें उठा कर सर झुका लिया।
“क्या नाम है छम्मो, बताओ ना नसीम बानो...” सुबू बोली।
मुर्दार मछली का मुँह खुला का खुला रह गया।
“नसीम बानो नाम है क्या?” मैंने छम्मो से पूछा। उसने निगाहें उठा कर मेरी तरफ़ देखा और फिर नज़रें झुका कर इस्बात में सर हिला दिया।
“नसीम बानो उसका नाम मैंने रखा है। इस सुबू ने तो ज़ैनब बीबी रखा था लेकिन मैंने खेल पुकार देखा तो तब से मेरी तमन्ना थी कि किसी लड़की का नाम नसीम बानो रखूँ... मुझे तो अल्लाह मियां ने लड़की दी नहीं, इसीलिए मैंने इसका नाम रख लिया है। क्यों बाली है न वही सूरत?” बेगम साहिबा ने पूछा।
“जी बड़ी प्यारी सूरत है।” मैंने बेगम साहिबा का जी रखने की ख़ातिर कह दिया लेकिन मैं छम्मो की सूरत से मुतास्सिर न हुई। छम्मो अगर ख़ूबसूरत बच्चों में घिरी होती तो भी क़ाबिल-ए-तवज्जो होती। इसकी वजह उसके भूरे बाल न थे। उसकी वो आँखें न थीं जिनमें क़ुदरती सुरमे की तहरीरें कजला रही थीं बल्कि इसकी वजह सिर्फ़ ये थी कि छम्मो, अपने लिए एक मुअम्मा थी और वो ये मुअम्मा हर मिलने वाले को इसी ख़ुलूस से पेश करती थी जिस ख़ुलूस से वो हयात की डगर पर गामज़न थी...
वो बेगम साहिबा की कायनात में अपना मुक़ाम पैदा करती हुई उलझ गई थी और इसी लिए पूछती फिरती... मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ? उसका वुजूद मुजस्सम सवाल बन कर पूछता और दहन मायूस हो कर लटक जाता और कहता... कोई नहीं जानता... कोई नहीं जानता।
“मुँह बंद करो छम्मो रानी...” मैंने उसके दहन को दोनों उंगलियों से बंद करते हुए कहा। चंद लम्हे उसके होंट आपस में पैवस्त रहे और फिर आपी आप बग़ैर गोंद के लिफ़ाफ़े की तरह खुल गए।
“मुँह बंद रख नाँ...” सुबू ललकारी।
“पता नहीं इसका मुँह क्यों खुला रहता है... पता है आपी, ये पिछले साल गिर गई थी। सर से घंटों लहू जारी रहा। मेरा ख़्याल है उसी की वजह से सर कमज़ोर हो गया है। बातें तो बहुत करती है लेकिन वो पहली सी तेज़ी नहीं रही...” बेगम साहिबा बोलीं।
“हाँ साईं, कभी कभी मुझे भी शुबहा होता है कि बात समझ नहीं रही।” सुबू ने माँ के तरद्दुद भरे लहजे में कहा।
“ख़ैर, डाक्टर के पास कल भिजवाएंगे... लेकिन कैसी जीती-जागती आँखें हैं...” आपी बोलीं।
ये छम्मो से मेरी पहली मुलाक़ात थी। दरअसल ये मुलाक़ात बेगम साहिबा के तुफ़ैल हुई, उसका ज़िक्र मैं पहले भी कर चुकी हूँ और बेगम साहिबा से मिलना आपी की बदौलत हुआ। आपी और उनका बहुत गहरा बहनापा था। इसीलिए उन्हें मुझे देखने का इश्तियाक़ हुआ और मैं उन्हें मिलने की मुश्ताक़ हुई।
बेगम साहिबा अपने काले कलूटे नवाब साहिब की चहेती बीवी थीं। उनके हरम में अनगिनत नौकरानियां थीं। उनके सुख के लिए हर एक हाथ बाँधे फिरती थी। सेहन में नवाब साहिब ने बिजली का पंखा लगवा रखा था। सारा सारा दिन छिड़काव होता।
ज़रा वो करवट बदलतीं, हाय करतीं तो डाक्टर के लिए गाड़ी रवाना कर दी जाती... ज़रा उनका जी परेशान होता तो नवाब साहिब दबे-पाँव क़रीब आते। फिर पास बैठ कर पहरों दुरूद पढ़ते और पानी दम कर के बस एक घूँट पी लेने पर इसरार करते नज़र आते।
उन्हें अपनी चहेती बीवी से बहुत मुहब्बत थी। ये और बात है कि कभी कभी सुबू और कभी मीरासन के हाथों में अचानक सोने की अँगूठियां झिलमिलाने लगतीं। उनके बदन पर रेशमी बनियानें और बालों में प्लास्टिक के क्लिप जगमगाते और वो किसी मुँहज़ोर घोड़ी की तरह बेक़ाबू हो जातीं... लेकिन इन गुस्ताख़ियों के बावजूद नवाब साहिब बिठा कर बेगम साहिबा से कहते, “चलो अपनी रईयत है, घर से क्या निकालें!”
लेकिन ऐसे वाक़ियात बहुत कम होते थे और ऐसी बदनज़्मी उमूमन तब फैलती जब बेगम साहिबा मैके चली जातीं या हस्पताल में होतीं वर्ना ज़नाने में बेगम साहिबा का राज था। यहां के उसूल वही मुरत्तब करती थीं। यहां न कोई प्रधान मंत्री था न सलाहकार, सब कुछ बेगम साहिबा थीं और ख़ूब थीं।
चंद दिनों बाद आपी के इसरार पर बेगम साहिबा के नियाज़ हासिल करने गई। ऊंची ऊंची क़िले ऐसी दीवारों के पास कार रुक गई। बड़ा सा लकड़ी का फाटक आधा खुला था। दहलीज़ आमद-ओ-रफ़्त के बाइस घिस चुकी थी और कुंडी ज़ंगआलूद थी। आपी बेपर्वाई से गुज़रीं तो दहलीज़ में लगे हुए एक कील में उनकी साड़ी उलझ गई। पुरानी ईमारतें अपना आप मनवाए बग़ैर आगे जाने नहीं देतीं।
मैंने इस छोटी सी ड्युढ़ी पर नज़र डाली। जगह अँधेरी थी, सिली थी और हब्स उसकी दीवारों में मुक़य्यद था। चारपाई पर बैठी हुई मुलाज़िमा का चेहरा मकड़ी का जाला बन चुका था। उसकी हँसली की हड्डी फटे हुए कुर्ते से झांक रही थी और बोसीदा कमज़ोर हाथों में रअशा था। उसने आपी की तरफ़ देखा, मुस्कुराई और बोली, “बेगम साहिबा से मिलना है साईं?”
“हाँ...” आपी आगे बढ़ती हुई बोलीं।
“मैं साथ चलूं?” उसने पूछा।
“नहीं, बैठी रहो।”
बेगम साहिबा एक बड़े पलंग पर बैठी थीं। ऊपर बिजली का पंखा चल रहा था और पांयती सुबू बैठी उनके पांव दबा रही थी। सेहन की दीवारें बहुत ऊंची थीं। फाँदने के लिए तो बहुत ऊंची थीं लेकिन सर फोड़ने के लिए बहुत मौज़ूं... पक्की ईंट और सीमेंट से बनी हुई इन दीवारों को देखकर किसी ऐसे रीछ की बाँहों का ख़्याल आता था जो बस्ते घर में से किसी औरत को उठा कर ले जाता है और फिर उसके पांव चाट चाट कर उसे महसूर कर लेता है।
उन बाँहों की गिरफ़्त से छुटकारा मुम्किन न था। महराबदार कमरों में अंधेरा था। दरवाज़ों में कोई शीशा नहीं था। ऊंचे ऊंचे लकड़ी के तख़्ते आपस में यूं भिड़े हुए थे गोया मिर्गी के मरीज़ के दाँत भिंच कर रह गए हों। बरामदा नुमा लंबे से कमरे के सामने बेरी का दरख़्त था जिसकी परवान किसी आज़ाद फ़िज़ा में न हुई थी बल्कि जिसे काट-छांट कर इस सेहन के क़ाबिल बनाया गया था।
पक्के फ़र्श, पक्की दीवारें, पक्के हुजरे, पुख़्ता दरवाज़े, छोटी सी काँटेदार बेरी और उन सब में मलिका विक्टोरिया ऐसी अज़ीम बेगम साहिबा, कोई राह़-ए-फ़रार नहीं। कोई गुरेज़ का रास्ता नहीं। लेकिन मैंने सुना है कि पानी का बहाव रोक लो तो वो अपना रुख़ बदल लेता है लेकिन बहाव जारी रखता है।
इसी हरम से तीन लड़कियां भाग चुकी थीं और इसी हरम के मुताल्लिक़ सुना था कि रात के वक़्त औरतें डोलियों में बैठ कर चोरी चोरी हवेली से निकलतीं और सुबह जब वो पलटतीं तो उनके होंटों पर पुरअसरार मुस्कुराहट, जेबों में खनकते सिक्के और आँखों में टूटी हुई नींद का ख़ुमार होता।
बेगम साहिबा के पलंग से कुछ ही दूर उसी बेरी तले मैंने छम्मो को सर झुकाए देखा। वो अपने हमउम्र बच्चों से बहुत दूर अलग-थलग खड़ी थी। छम्मो को बच्चों के खेलों से कोई सरोकार न था। वो तो पांव के अंगूठे से फ़र्श रगड़ती हुई बहुत दूर की सोच रही थी। आज उसके बाल किसी ने बड़े तकल्लुफ़ और प्रीत से बनाए थे और होंटों पर बासी लिपस्टिक की हल्की सी तहरीर बाक़ी थी।
“छम्मो नसीम बानो देखो, हम तो इतनी दूर से सिर्फ़ तुम्हारे लिए आए हैं।” मैंने दुलार से पुकारा।
“साईं, ये कर्मों जली है ही ऐसी... जो देखता है मर मिटता है।” सुबू ने बज़ाहिर चिड़ कर कहा।
“अच्छी सूरत का कौन मतवाला नहीं होता...” एक बड़ी बूढ़ी ने लंबी सी सांस भर कर बात की। उनकी तस्बीह के दाने लम्हे भर को रुक गए। जैसे माज़ी की भूल भुलैयों में अपने साथियों की तलाश में निकले हों।
“हाँ, सभी अच्छी सूरत पर जान देते हैं। आपी राजे को देखा है नाँ आपने? मेरा बड़ा लड़का है बाली, वो उस पर जान छिड़कता है।” बेगम साहिबा बोलीं।
“अब लड़का कहाँ लगता है, अच्छा-ख़ासा मोतबर भाई बन गया है।” आपी ने कहा।
“जब भी अंदर आता है छम्मो से बातें शुरू कर देता है। उसके लिए रिबन लाता है। क्लिप लाता है और जाने क्या-क्या करता रहता है।” बेगम साहिबा ने कहा। सुबू मेज़ पर बर्फ़ और शर्बत से लदा हुआ जग रख रही थी। उसका हाथ ज़रा सा लरज़ा और शर्बत छलक कर मेरी जानिब लपका।
“शोहद से किसी काम लायक़ नहीं होते नालायक़। आपके कपड़े तो ख़राब नहीं हुए!” बेगम साहिबा ने क़हर आलूद नज़रों से सुबू की जानिब देखकर बड़ी लजाजत से कहा।
“नहीं नहीं।” मैं जल्दी से बोली। सुबू ने तशक्कुर आमेज़ नज़रों से मेरी जानिब देखा और फिर गीला मेज़पोश गिलासों के नीचे से निकालने लगी।
“देखिए, अभी परसों की बात है राजा यहां बैठा था। छम्मो उसके घुटने के साथ लगी खड़ी थी। राजे ने पूछा, “भला मैं तेरा कौन हूँ छम्मो?” बेगम साहिबा ने मुस्कुरा कर बड़े अंदाज़ से बात की। सुबू क़रीब ही खड़ी शर्बत डाल रही थी, एकदम बोली, “ज़ैनब ज़रा पानी डाल, मेरे सर में दर्द है... आ...”
“फिर...?”आपी ने पूछा।
“छम्मो बोली, बाबा।” राजे ने हल्की सी चपत मारी और बोला, “यूं नहीं कहा करते। सुना, बोल मैं तेरा कौन हूँ?” छम्मो फिर बोली, “बाबा!”
“अच्छा, बाबा कहती है राजे को।” आपी ने मुस्कुरा कर कहा।
“हाँ, देखो तो सही और वो तो आप बच्चा है अभी। भला उसका बाप क्योंकर हुआ... नवाब साहिब क़रीब ही बैठे थे, कहने लगे, रईयत औलाद ही होती है। फिर क्या हुआ। बाबा कहती है तो कहने दो... नवाब साहिब भी कभी कभी बड़ी भोली बातें करते हैं।”
जब बेगम साहिबा ने बक़ौल उनके ज़बरदस्ती हमें दाल साग खाने के लिए रख लिया और हमें मुरग्ग़न खानों से लदे हुए मेज़ पर ला बिठाया तो मैंने देखा, छम्मो बेगम साहिबा के पैरों के पास बिल्ली के साथ बैठी हड्डियां चाट रही थी। शायद वो हमेशा यहीं बैठती थी। उसकी आँखों में मुफ़लिस बच्चे की भूक न थी। महरूम बच्चे की हिर्स न थी। बस वही एक सवाल था... मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ?
जब हम वापस लौटे तो रात काफ़ी जा चुकी थी। गर्मी और हब्स के बावजूद सारा शहर सो रहा था। गली के कुत्ते भी मारे आलकस के इधर उधर लेटे गुर्रा रहे थे। चांद एक बादल के छोटे से टुकड़े से मुँह पोंछता हुआ नज़र आता था और ऊंचे ऊंचे खजूर के दरख़्त अपनी लंबी लंबी उंगलियां फैला कर हवा के लिए जान तोड़ रहे थे। कार फ़र्राटे भर्ती जा रही थी।
“तौबा, इन लोगों की ज़िंदगी भी क्या है?” आपी बोलीं।
“उनके लिए बहुत ख़ूब है आपी।” मैंने जवाब दिया।
“वो छम्मो तुम्हें बहुत पसंद आई है?” आपी ने पूछा।
“वो बच्ची उन दीवारों के ख़िलाफ़ एक हल्की सी सदाए एहतिजाज है लेकिन ये सदा इतनी कमज़ोर है कि जल्द ही डूब जाएगी।”
“अच्छा, फिर वही अफ़सानवी जुमले... हाँ, परसों उनकी दावत पर चल रही हो नाँ?”
“चल पड़ेंगे...” मैंने बददिली से जमाई लेकर कहा।
“भई ज़रूर चलना। तुम्हारे लिए तो मीरासिनें बुलाई जा रही हैं। मुजरा हो रहा है... उनकी ज़िंदगी भी ख़ूब है। मुजरे और मीरासिनें तो अब अफ़सानों की बातें लगती हैं लेकिन उनके हाँ अभी वही रंग-ढंग हैं। नवाब साहिब भी ख़ूब रंगीले हैं और अब राजा उनके नक़श-ए-क़दम पर चल रहा है।”
“जी?” मैंने पूछा।
“बाली, मैंने सुना है छम्मो राजे की बेटी है और फिर ये भी सुना है कि सुबू में नवाब साहिब भी... लेकिन ख़ैर...” आपी ने बड़ी शर्मसारी से कहा। वो किसी की बुरी बात बताते वक़्त ख़ुद मुजरिम सी बन जाया करती थीं। मैंने उनकी तरफ़ नज़र उठा कर नहीं देखा।
बेगम साहिबा की ज़ियाफ़त पर जाना ही पड़ा। अव्वल तो उनका ख़ुलूस भरा इसरार ही था। फिर उस छम्मो के बारे में जो एक कुरेद सी मुझे लग गई थी वो मुझे बार-बार उनके हाँ ले जाती थी, बड़ी सख़्त गर्मियां थीं। लू हर तरफ़ किसी दीवानी औरत की तरह भागती फिरती थी और सूरज की आब-ओ-ताब तो ऐसी थी कि हर एक चीज़ कुंदनी नज़र आती थी।
बेगम साहिबा के वसती हाल में पाँच-छः बड़े बड़े पलंग बिछे थे और उन पर लिहाफ़ और रज़ाई जैसी फूली फूली औरतें बैठी थीं। उनका लिबास क़ीमती ज़रूर था लेकिन इस फूहड़पन से पहन रखा था कि तमाम की तमाम बज़्ज़ाज़ के गट्ठर लगती थीं। पतली क़मीसों से नेफ़े और पेट की झलकियाँ नज़र आती थीं और खुले पाइंचों में अड़से हुए पैर फटे हुए और ग़लीज़ थे।
कुछ ही फ़ासले पर एक चारपाई के साथ छम्मो चिमटी हुई एक औरत की बातें मुँह खोल कर सुन रही थी। उसकी आँखें और भी कुशादा हो गई थीं और लब और ज़्यादा लटक रहे थे। जिस औरत में छम्मो इस क़दर दिलचस्पी ले रही थी उसका जिस्म मुतनासिब और रंगत साँवली थी। बालों की पेटीयां कानों से चिमटी हुई थीं।
पान का लाखा और लिपस्टिक लबों पर जमी थी और सारे दाँत पान के इस्तेमाल के बाइस कत्थई नज़र आते थे। उसके कपड़े तो सादा थे लेकिन बातों में सादगी न थी क्योंकि जब वो बात करती तो क़रीब ही क़हक़हों का नन्हा सा भंवर उठता और बड़े बड़े हेवले डोलने लगते। उन आँखों में जिस्मानी भूक इतनी देर रही थी कि अब पर्दे पड़ने नामुमकिन थे। उसने आँख मार कर छम्मो से पूछा, “तेरा बाबा कहाँ से छम्मो?”
छम्मो ने निगाहें उठा कर उस दरवाज़े की तरफ़ देखा जो मर्दाने में खुलता था। कई मा’नी-ख़ेज़ मुस्कुराहटें उभरीं और उसी औरत ने बड़ी तरहदारी से कहा, “छम्मो क्यों अपने बाबा के पास कभी गांव नहीं गई क्या?”
मुस्कुराहटें फैल कर क़हक़हा बन गईं और एक बीबी बोलीं, “सुना है सुबू से झगड़ा हो गया है उसके शौहर का।”
मैंने उस औरत के मुताल्लिक़ बेगम साहिबा से पूछा तो वो बोलीं, '”अब तो काम छोड़ दिया है लेकिन पाँच साल पहले उसका बड़ा कारोबार था और जैसे हमारी ज़ातें होती हैं ना? और सय्यद ज़ात सरदार होती है बिल्कुल ऐसे ही उन लोगों की भी ज़ातें होती हैं। ये भी सरदार क़ौम से ताल्लुक़ रखती है। या’नी हज़ारों वाली है रुपया अठन्नी वाली नहीं... समझीं बाली?”
हम ने खाना खाया तो मुझे छम्मो की तलाश थी लेकिन ऐसी अफ़रातफ़री में उसका ढूंढना मुश्किल था। मेज़ पर सेरों भुना हुआ गोश्त धरा था तो कुर्सियों में मनों मन कच्चा गोश्त लदा हुआ था।
जब मैं हाथ धोने के लिए उठी तो मैंने दरवाज़े के साथ छम्मो को एक हड्डी चबाते हुए देखा। उसके साथ एक ख़ूबसूरत सा लड़का सफ़ेद शलवार क़मीज़ पहने खड़ा था और सिर्फ़ बालिशत भर उससे ऊंचा था। उसके दोनों हाथ छम्मो के कंधों पर थे और वो बग़ैर बातें किए उसकी कुशादा आँखें देख रहा था।
वही औरत पिशवाज़ पहन कर उठी तो पता लगा कि रशीदा बाई है और उसी का मुजरा दिखाने के लिए हमें बुलाया गया था। पांव में घुंघरू थे, हाथों में सिगरेट था और आँखों में बरसों का फ़न-ए-पज़ीराई। क़रीब ही फ़र्श पर तीन मीरासिनें बैठी थीं। एक तबले पर गीला आटा जमा रही थी और बाक़ी दोनों आपस में मश्वरा कर रही थीं।
रशीदा बाई ने कान पर हाथ रखा। सिगरेट का गुल झाड़ा और ज़मीन को ठोकर लगा कर गाने लगी। उसकी आवाज़ खुली और पाटदार थी। हल्की हल्की मुर्कियाँ वो इस ख़ूबी से अदा करती थी कि बेसाख़्ता बड़े बड़े सर हिल जाते और औरतें दाद देने लगतीं।
मैंने नज़र घुमा कर उस तरफ़ देखा जहां छम्मो खड़ी अब भी हड्डी चबा रही थी। वही छोटा सा लड़का उसकी बाँह घसीट रहा था। चंद लम्हों बाद ये दोनों हमारी चारपाई के साथ आकर खड़े हो गए।
बेगम साहिबा ने बच्चे के सर पर प्यार दिया और हौले से बोलीं, “ये महमूद-अयाज़ की जोड़ी है। ये मेरा लड़का है बाली, चौथी जमात में पढ़ता है। ख़ाला जान को सलाम नहीं किया जाजी?”
लड़के ने मेरी जानिब देखा, शरमाकर आँखें झुका लीं और आहिस्ते से बोला, “किया था जी लेकिन उन्होंने सुना नहीं।”
“आओ बैठो।” मैंने उसके लिए अपने क़रीब जगह बनाते हुए कहा।
उसने मेरी तरफ़ देखा, पलंग पोश दुरुस्त किया, फिर छम्मो को उठा कर मेरे साथ बिठा दिया। छम्मो ने हौले से मेरे कंधे के साथ अपना सर लगा लिया और चंद लम्हों के लिए उसकी आँखों में मामूली बच्चों की सी मासूमियत आगई।
हर हरम में शायद दिलबस्तगी के वही सामान होते हैं। यहां सभी लड़कियां शादी से पहले गुड़ियाँ खेलती हैं। यहां तोते पलते हैं। हिरनियाँ मलोल फिरती हैं। नाच-गाना होता है। मुरग्ग़न ग़िज़ाएँ खाई जाती हैं। एक बाँकी सी लड़की ने मेरा हाथ थाम कर कहा, “आओ आपा, मैं तुम्हें अपनी गुड़िया का जहेज़ दिखा कर लाऊँ।”
जब मैं बड़े तरद्दुद से बनाया हुआ जहेज़ देखकर पलटी तो रशीदा बाई का रंग ख़ूब जम रहा था। महफ़िल पर हाल की सी कैफ़ियत तारी थी लेकिन कुछ ही दूर तोते के पिंजरे के पास छम्मो और जाजी एक दूसरे के गले में बाँहें डाले खड़े थे और जाने क्या सोच रहे थे। छम्मो का मुँह खुला था और जाजी की आँखें कुशादा हो कर रह गई थीं।
ये बड़ा थका देने वाला दिन था और बड़ी लंबी बोर करने वाली औरत थी। उसके बाद मैं एक महीना बेगम साहिबा के हाँ न गई और उस माह के गुज़रते ही अब्बी ने एक दिन आकर ये ख़बर सुनाई कि उनका तबादला गुजरात हो गया है। सामान बटोरते-बाँधते मुझे ये भी भूल गया कि कोई बेगम साहिबा भी हैं और उनके सेहन में एक मुजस्सम मुअम्मा छम्मो भी रवाँ-दवाँ है।
कितने सारे साल यूंही गुज़र गए और मुझे कभी आपी के पास जाने का इत्तफ़ाक़ न हुआ। लेकिन पिछले साल पूरे दस साल के बाद मैं आपी के पास छुट्टियां गुज़ारने गई तो एक दिन वो मुझे अपनी बेगम साहिबा के पास ले गईं।
बेगम साहिबा का दीवारों से घिरा हुआ हवेली नुमा मकान वैसा ही था। उसमें नौकरानियों की चलत फिरत उसी तरह थी। वही मुरग्ग़न खाने, वही बेरी का दरख़्त था, वही आँगन का पंखा था। सिर्फ़ बेगम साहिबा के बाल बेशतर सफ़ेद हो चुके थे और वो पलंग पर लेटी हुई थीं। मुझे देखते ही उन्होंने गिला आमेज़ लहजे में कहा, “ये आपकी अच्छी बहन है, कभी हमारी सार ही नहीं ली।”
“जी ये ऐसी ही भूलन हार लड़की है, मुझे भी तो ख़त तक नहीं लिखती।”
मअन मुझे छम्मो का ख़्याल आ गया और मेरी निगाहें उसे तलाश करने लगीं लेकिन सेहन में वैसी कोई सूरत नज़र न आयी। कुछ ही दूर एक पलंग पर हमारी जानिब पुश्त किए एक लड़की लेटी थी लेकिन उसने मुँह पर दुपट्टा ले रखा था और यूं लगता था जैसे अर्से से उसी पलंग पर उसी तरह लेटी है। बातों में घंटा यूँही गुज़र गया और शायद बहुत सा वक़्त गुज़र जाता अगर कराहने की आवाज़ सुनाई न देती।
धीरे धीरे ये कराहट बुलंद होती गई। फिर उसी लड़की ने अपनी मुठ्ठियाँ भींच लीं और करवटें बदलने लगी। आहिस्ता-आहिस्ता ये करवटें लोटनियाँ बन गईं और उसके लबों से एक ही जुमला सदा बन कर निकलने लगा, “हाय मेरी माँ, मैं मरती हूँ... मेरी माँ, मैं मरती हूँ और तुम्हें ख़बर भी नहीं...”
उसके भूरे बाल तकिये पर बिखर गए। आँखों की पुतलियां फैल गईं और वो किसी दीवानी औरत की तरह हैबतनाक नज़र आने लगी। बेगम साहिबा ने नाक भौं चढ़ाईं और पुकारीं, “ओ सुबू आ, अपनी लाडो को देख।”
सुबू आई। मैंने देखा वो औरत वक़्त से बहुत पहले बूढ़ी हो चुकी थी। ख़ूबसूरत तो वो कभी थी ही नहीं लेकिन अब तो किसी जली हुई लकड़ी की याद दिलाती थी। वो पलंग की पांयती बैठ कर लड़की के पांव दबाने लगी।
“बाली शायद आपको याद न हो, ये छम्मो है। अच्छी भली लड़की थी। मैं तो अपने एक मुज़ारे से इसकी शादी भी करने वाली थी। अब ये बीमार हो गई है, हिस्ट्रिया के दौरे पड़ते हैं... मैं तो कहती हूँ...”
“हाय हाय...” मैं उठते हुए बोली।
“मैंने राजा और जाजी से सलाह की थी। कहने लगे अभी चंद साल पड़ी रहने दो। सेहत अच्छी हो जाएगी तो ब्याह देना। मैं तो उनकी कभी न मानती लेकिन नवाब साहिब भी कहने लगे। पड़ी रहने दो, तुम्हारा क्या लेती है। सब मकर है फ़रेब है। मैं जानती हूँ यहां से निकलना नहीं चाहती मुर्दार।” बेगम साहिबा के माथे पर कई शिकस्ता लकीरें पड़ गईं।
“क्या जाजी अब भी उस पर जान देता है? पता है आप उन्हें महमूद-अयाज़ की जोड़ी कहा करती थीं।” मैंने ख़्वाह-मख़ाह पूछ लिया।
बेगम साहिबा ने बड़े जले हुए अंदाज़ में कहा, “ये करम जलियाँ हमेशा ऊंची जगह हाथ मारती हैं। आख़िर कोई मोरी की ईंट को चौबारे में तो नहीं लगाता ना?”
मैं छम्मो पर झुकी। मैंने उसके माथे पर हाथ रखा, माथा ठंडा था। नब्ज़ें ठीक चल रही थीं... मेरे हाथ के लम्स को महसूस करते ही उसने आँखें खोल दीं।
ये वही आँखें थीं जो पूछे जा रही थीं, “मैं कौन हूँ... बोलो न में कौन हूँ?”
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