चुप शाह
नंग धड़ंग, वो सारे शहर में घूमते रहते थे, किसी को मालूम नहीं था कि वो कौन थे और कहाँ से आए थे। उनके बारे में हर शख़्स एक अलग कहानी बयान करता था। कोई वही रिवायती कहानी सुनाता कि वो एक क़बाइली सरदार के बेटे थे। किसी दूसरे क़बीले के सरदार की बेटी से उन्हें इश्क़ हो गया था लेकिन उन दोनों क़बीलों में चूँकि कई पुश्तों से दुश्मनी चली आरही थी, इसलिए उनकी शादी नहीं हो सकी थी। बददिल हो कर उन्होंने क़बीला ही नहीं छोड़ा, बल्कि दुनिया त्याग दी। मुख़्तलिफ़ शहरों और बस्तीयों से होते हुए वो इस शहर में आगए। अब उनके जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी। सर के बाल बड़े बड़े और आपस में चिपके हुए। दाढ़ी घुंगरियाली, नीचे से ऊपर की तरफ़ उठती हुई। किसी ने उनको खाते-पीते भी नहीं देखा था। कहा जाता था कि वो रात गए दरख़्तों से कच्चे-पक्के फल तोड़ कर खाते हैं या होटलों और शादी हालों में बचे हुए खाने से अपने पेट की आग बुझाते हैं।
शुरू शुरू में औरतें उन्हें देखकर नज़रें नीची कर लेतीं और रास्ता बदल लेती थीं, मगर रफ़्ता-रफ़्ता वो उसकी आदी हो गईं। बच्चे पहले हंसते थे, फिर उससे मानूस हो गए और हँसना बंद कर दिया, क्योंकि कोई चीज़ ज़्यादा दिनों तक नई या नामानूस नहीं रहती। हर हैरत एक न एक दिन ख़त्म हो जाती है।
बा'ज़ लोगों का ख़याल था कि वो क़ब्रिस्तान में चिल्लाकशी कर रहे थे। चिल्ले के आख़िरी रोज़ आधी रात के वक़्त एक हसीन औरत नीम उर्यां हालत में उनके पहलू में आकर बैठ गई और अपनी बाँहें उनके गले में डाल दीं। वो अपने होश-ओ-हवास खो बैठे और उसी रोज़ से इस हालत में हैं।
कुछ लोग कहते थे कि वो एक निडर और बेबाक सियासी कारकुन थे। उनकी जमात के लोग उनकी सच्चाई, ईमानदारी और बेलौस जद्द-ओ-जहद पर फ़ख़्र करते थे। मुख़ालिफ़ जमात ने उन्हें ख़रीदने की कोशिश की, मगर उसमें नाकामी पर उन्हें अग़वा करवा लिया और किराए के ग़ुंडों के ज़रिये उनकी ये गत बना दी। चंद लोग ये कहते हुए भी पाए जाते थे कि ये काम मुख़ालिफ़ जमात ने नहीं, बल्कि उनकी अपनी जमात के एक ग्रुप ने किया था ताकि उन्हें रास्ते से हटाया जा सके।
ऐसे भी लोग थे जो ये ख़याल करते थे कि वो जासूस हैं और किसी एजेंसी के लिए काम करते हैं। चंद अश्ख़ास उन्हें दुश्मन मुल्क का एजेंट भी गरदानते थे। ग़रज़ जितने मुँह उतनी बातें।
हक़ीक़त जो भी हो, लेकिन अब वो शहर का हिस्सा बन गए थे। बहुत से लोगों को उनसे अक़ीदत हो गई थी। वो उन्हें खिलाने-पिलाने की कोशिश करते थे मगर वो हर चीज़ को झटक देते। किसी शय को ख़ातिर में नहीं लाते थे। कुछ लोग ख़ुसूसन औरतें उनके सामने अपने दुखड़े बयान करतीं और अपने लिए दुआ करने को कहतीं।
रबी-उल-अव्वल के महीने में जहां कहीं सीरत की महफ़िल होती वो एक कोने में हाथ बांध कर खड़े हो जाते और ज़ारो क़तार रोते रहते। इस तरह मुहर्रम के दिनों में अगर किसी इमाम बारगाह से मजलिस की आवाज़ आती तो वहां भी सर झुकाए खड़े नज़र आते और उनकी आँखों से झरझर आँसू बहते रहते।
एक बार लोगों ने देखा कि वो शहर के चौक के बीचों बीच खड़े हैं। कुछ देर चुप-चाप खड़े रहने के बाद उन्होंने अपना चेहरा आसमान की तरफ़ उठाया और हलक़ से अजीब सी आवाज़ें निकालने लगे। उनकी आँखें अँगारे की तरह दहक रही थीं और पूरा बदन लरज़ रहा था। लोगबाग हैरत से उन्हें देखते रहे। किसी ने कोई तब्सरा नहीं किया। दूसरे दिन सुब्ह-सवेरे ज़लज़ला आया जिससे बेशुमार लोग लुक़मा-ए-अजल बन गए और हज़ारों इमारतें ज़मीन बोस हो गईं। हालात मामूल पर आए तो लोग चुप शाह को याद करने लगे। हर शख़्स ज़लज़ले के सानहे को उनकी गुज़शता रोज़ की हरकतों से जोड़ने की कोशिश कर रहा था। शहरियों को यक़ीन था कि उन्हें ज़लज़ले की ख़बर हो गई थी इसी लिए वो आसमान की तरफ रुख़ कर के और हलक़ से अजीब अजीब सी आवाज़ें निकाल कर फ़र्याद कर रहे थे। एक दफ़ा लोगों ने देखा कि चुप शाह अपने सर को दाएं बाएं ज़ोर ज़ोर से झटक रहे हैं और उनकी आँखों से टप टप आँसूओं के बड़े बड़े क़तरे गिर रहे हैं। इसके बाद अभी चंद रोज़ ही गुज़रे थे कि शहर में फ़िर्कावाराना फ़सादाद फूट पड़े और एक फ़िरक़े के पैरोकारों ने दूसरे फ़िरक़े के पैरोकारों पर अर्सा हयात तंग कर दिया। दोनों फ़िर्क़ों के मानने वाले जोश में थे और मुख़ालिफ़ फ़िरक़े के जानी-ओ-माली नुक़्सान पर ख़ुशियां मना रहे थे।
वक़फ़े वक़फ़े से इसी तरह के कुछ और वाक़ियात पेश आए। चुप शाह से लोगों की अक़ीदत में इज़ाफ़ा होता गया। अब हर शख़्स ये यक़ीन करने लगा था कि चुप शाह कोई पहुंचे हुए बुज़ुर्ग हैं और उन्हें वक़्त से पहले हर वाक़े, हर सानहे का इल्म हो जाता है।
कुछ अर्से बाद एक और वाक़िया पेश आया। चुप शाह हाथों को तलवार की तरह हवा में लहराते हुए तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए आए और ट्रैफ़िक के सिपाही को धक्का देकर ख़ुद उसकी जगह पर खड़े हो गए, फिर बारी बारी अपने दोनों पांव ज़मीन पर-ज़ोर ज़ोर से पटख़ने लगे जैसे परेड कर रहे हों। चेहरा लाल भभूका हो रहा था और मुँह से झाग निकल रहा था। लोग फटी फटी आँखों से उन्हें देखते रहे, मगर कोई कुछ बोला नहीं। उनकी ये हरकत देखकर लोग सहम ज़रूर गए। उन्हें इस बात का पुख़्ता यक़ीन हो गया कि शहर पर कोई बड़ी आफ़त नाज़िल होने वाली है। बुज़ुर्ग और दाना लोगों ने फ़ैसला किया कि अब इस शहर में रहना मुनासिब नहीं। सो इस फ़ैसले के बाद वो गिरोह दर गिरोह वहां से कूच करने लगे। जब वो कूच कर रहे थे तो माहौल पर क़ब्रिस्तान की सी ख़ामोशी छाई हुई थी और फ़िज़ा पर मौत का सा सुकूत तारी थी, फिर हर तरफ़ से गोलियों और धमाकों की आवाज़ सुनाई देने लगी।
लोग ख़ौफ़ के आलम में नामालूम मंज़िलों की तरफ़ भाग रहे थे। बस भागे जा रहे थे। जो पीछे रह गए थे वो भी ख़ौफ़ के आज़ार में मुब्तला थे।
मगर चुप शाह का दूर दूर तक कहीं पता नहीं था।
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