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दहशत

MORE BYसलाम बिन रज़्जाक़

    स्टोरीलाइन

    दंगों के दौरान कर्फ़्यू में फँसे एक ऐसे साधारण आदमी की कहानी, जो दहशत के कारण बोल तक नहीं पाता। वह आदमी डरते हुए किसी तरह अपने मोहल्ले तक पहुँचता है। वहाँ उसे अँधेरे में एक साया लहराता दिखाई देता है। उस साये से ख़ुद को बचाने के लिए वह उसे अपना सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाता है। तभी साया को अपनी तरफ़ बढ़ता देख डर से वह आँखें बंद कर लेता है। अगले ही क्षण उसे महसूस होता है कि साया उसके क़दमों में पड़ा उससे रहम की भीख माँग रहा है।

    रात अपनी पूरी दहश्तनाकी के साथ शहर पर छाई थी। सड़कों और गलियों में इतना अंधेरा था गोया सारा शहर स्याह कम्बल ताने सो रहा हो। चारों तरफ़ एक भयानक ख़ामोशी छाई हुई थी। सर्दी की शिद्दत से जिस्म का ख़ून बर्फ़ हुआ जा रहा था, कहीं भी किसी क़िस्म की कोई आवाज़ नहीं थी सिर्फ़ मेरे बूटों की खट खट से फ़िज़ा में हल्का सा इर्तिआश था। इस सन्नाटे में ये खट खट समाअत पर बहुत गिरां गुज़र रही थी। दूर किसी कुत्ते के रोने की आवाज़ आई और मैंने एक झुरझुरी सी ली। पैरों में हल्की सी लर्ज़िश हुई मगर मेरे क़दम तेज़ी से बढ़ते रहे, मैंने अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी पर नज़र डाली पौने नौ बज रहे थे। कर्फ्यू लगने में सिर्फ़ पंद्रह मिनट बाक़ी थे और घर अभी दूर था। मेरी रफ़्तार अज़ ख़ुद मज़ीद तेज़ हो गई।

    सड़क पर जगह जगह बसों की खिड़कियों के शीशे और सोडा वाटर की बोतलों की किर्चें बिखरी पड़ी थीं। रात के अंधेरे में ये कांच के टुकड़े ज़मीन से रिसते आँसुओं की मानिंद चमक रहे थे। बाएं तरफ़ फ़ुटपाथ से लग कर एक जली हुई कार का ढांचा नज़र आरहा था। उसके इंजन से अभी तक धुआँ निकल रहा था। सड़क के किनारे लगे लैम्प पोस्टों के सारे बल्ब या तो फोड़ दिए गए थे या चुरा लिए गए थे और यहाँ से वहाँ तक सड़क उस दुल्हन की तरह उदास पड़ी थी, जिसका सुहाग उजड़ गया हो, दाएं तरफ़ की फुटपाथ पर सिर्फ़ एक मरकरी बत्ती रोशन थी जिसका उजाला और भी भयानक लग रहा था।

    अचानक मुझे ठोकर लगी और मैं मुँह के बल गिरते गिरते बचा, बीच सड़क पर बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे। जो शायद ट्रैफ़िक को रोकने के लिए डाले गए थे। मैं बड़ी देर से सिगरेट की तलब महसूस कर रहा था। जेब में सिगरेट की डिबिया और माचिस भी रखी थी, मगर एक अनजाना ख़ौफ़ मुझे सिगरेट सुलगाने से रोक रहा था। मेरे दोनों हाथ पतलून की जेबों में ठुँसे थे। मेरी उंगलियों ने सिगरेट की डिबिया को छुआ, मगर मैंने सिगरेट नहीं जलाई। अपने ख़ुश्क होंटों पर सिर्फ़ ज़बान फेर कर रह गया। सर्दी मेरे ख़ौफ़ की तरह लम्हा लम्हा बढ़ती जा रही थी और मैं सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था।

    दफ़्अतन मेरे बाएं तरफ़ एक लुटी हुई दुकान से एक बिल्ली फ़ुटपाथ पर कूदी। मैं ठिठक गया। मेरा बूट एक जलती हुई लकड़ी से टकराया, उसमें से कुछ चिनगारियां निकलीं। पास ही एक जले हुए बाकड़े का ढांचा खड़ा था, उसमें अब तक अँगारे दहक रहे थे। मैं फ़ौरन पहचान गया, ये लालू लंगड़े का पी.सी.ओ. था जिससे अक्सर मैं फ़ोन किया करता था। मेरे क़दम मज़ीद तेज़ी से उठने लगे। मैं जल्द अज़ जल्द अपने घर पहुँच जाना चाहता था। इस वक़्त मेरी नज़र में अपनी छोटी सी खोली से बढ़कर कोई मक़ाम महफ़ूज़-ओ-मामून नहीं था।

    मैंने फिर घड़ी पर नज़र डाली, नौ बजने में दस मिनट बाक़ी थे। दूर किसी पुलिस के सिपाही ने सीटी बजाई। मेरा धड़कता दिल यकबारगी फिर ज़ोर से धड़का। अब मैं इतनी तेज़ी से चल रहा था कि मेरे चलने पर दौड़ने का गुमान हो सकता था। मैं ख़ौफ़ज़दा निगाहों से दाएं बाएं भी देखता जा रहा था। सड़क के दोनों तरफ़ मौत का सा सन्नाटा था, कहीं भी किसी क़िस्म की आहट तक नहीं थी, आसमान पर इक्का दुक्का तारे दिखाई दे रहे थे मगर चाँद का कहीं पता नहीं था। मैं सोचने लगा शायद फ़सादीयों ने पत्थर मार कर चाँद का फ़ानुस भी तोड़ दिया हो, या किसी बहुत बड़े जादूगर ने इस जीते जागते शहर की रूह खींच ली हो। पूरा शहर किसी मरघट की तरह सुनसान पड़ा था। अब मैं शिवा जी चौक पर आगया था। उसके दाएं तरफ़ की गली मेरे मुहल्ले को जाती थी। गली के मोड़ पर मद्रासी का वो होटल था जो तीन रोज़ से बंद था। यहाँ का मसाला डोसा बहुत मशहूर था।

    मैं गली में इतनी तेज़ी से मुड़ा कि अंधेरे में खड़े बिजली के खम्बे से टकराते टकराते बचा। अभी मैं मुश्किल से दस पंद्रह क़दम चला हूँगा कि मुझे गली के नुक्कड़ पर एक साया दिखाई दिया। मेरे क़दम ठिठक गए। मैंने तारों की मलगजी रोशनी में देखा, वो साया भी जहाँ था वहीं रुक गया है। मेरे जिस्म में एक लर्ज़िश साँप की तरह लहरा गई और मैंने महसूस किया कि इस ख़ून को मुंजमिद कर देने वाली सर्दी में भी मेरी पेशानी पसीने से भीग गई है। मेरे होंट फड़फड़ाए। शायद मैं पूछना चाहता था,

    “कौन है?”

    मगर आवाज़ का पंछी हलक़ के अंदर रही छटपटा कर रह गया। पतलून की जेबों में अचानक मेरी उंगलियां काँपीं और पसीने से हथेलियाँ भीग गईं। मेरी आँखों में वो सारी ख़बरें बिजली की तरह कौंद गईं जो पिछले तीन दिनों से अख़बारों में शाए हो रही थीं, या टेलीवीज़न से टेलीकास्ट हो रही थीं। लूट मार, आतिशज़नी, छुरे बाज़ी और क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी की दिल दहला देने वाली ख़बरें। मेरी आँखें ख़ौफ़ से फैल गईं।

    मौत और मुझमें सिर्फ़ चार क़दमों ही का तो फ़ासला था, हलक़ में मेरी आवाज़ ज़ख़्मी परिंदे की तरह फड़फड़ा रही थी। मैं कहना चाहता था,

    “मुझे मत मारो, ख़ुदा के लिए मुझे मत मारो, मेरे बीवी-बच्चे मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे। मेरी बूढ़ी माँ मेरी राह देख रही होगी। ये मेरी घड़ी, बटुवा, अँगूठी, पेन, सब ले लो, मुझे छोड़ दो... छोड़ दो।”

    मगर हज़ार कोशिश के बावजूद मेरे हलक़ से कोई आवाज़ नहीं निकल सकी, बस होंट फड़फड़ाते रहे। मैंने काँपते हाथों से अपना बटुवा और घड़ी निकाली और दो क़दम आगे बढ़ा। एक एक क़दम पहाड़ की तरह भारी था। साये में भी हरकत हुई, मैं समझ गया कि वो अपनी जेब से छुरा निकाल रहा होगा। मैंने इज़्तिरारी तौर पर अपने पेट पर हाथ रख लिया। ख़ौफ़ से पेट के अंदर आँतें तक सिकुड़ गई थीं।

    साये ने अपने दोनों हाथ फैलाए, यक़ीनन वो झपट पड़ने के लिए तैयार था। मेरे रौंगटे खड़े हो गए। मैंने मारे ख़ौफ़ के अपनी आँखें बंद करलीं और अपनी पूरी ताक़त से कुछ कहने के लिए होंट खोले। मगर अचानक मुझे महसूस हुआ मेरे हलक़ में कांटे से उग आए हैं और ख़ौफ़-ओ-दहश्त से मुझ पर लर्ज़ा तारी हो गया है। मेरे क़दमों के नीचे ज़मीन भी मेरे वजूद की तरह काँप रही थी। मेरे कानों में आवाज़ आई,

    “मुझे मारो... भगवान के लिए मुझे मारो, ये मेरा बटुवा घड़ी, पेन सब ले लो, मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ, मुझे मत मारो।”

    मैंने घबरा कर आँखें खोल दीं क्योंकि वो आवाज़ मेरी तो नहीं थी। मैंने देखा कि मेरे क़दमों पर सर झुकाए कोई शख़्स गिड़गिड़ा रहा है और उसके काँपते हाथ मेरी लरज़ती टांगों से लिपटे हुए हैं।

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