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दश्त-ए-तमन्ना

रशीद अमजद

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    ख़ज़ाने का खवा मुतवस्सित तबक़े के अक्सर लोगों की तरह उसे भी विरासत में मिला था, पुराने घर में उसके बाप ने भी कई जगहें लिख दी थीं लेकिन ख़ज़ाना तो मिला घर की ख़स्तगी में इज़ाफ़ा हो गया। फिर उसने ये ख़्वाब देखना छोड़ दिया जो उसे अपनी माँ से वर्से में मिला था। उम्र के आख़िरी दिनों में वो मायूस हो गया लेकिन नहीं जानता था कि ये ख़्वाब विरासत में उसके बेटे को मुंतक़िल हो गया है। विरासत में मुंतक़िल होने के लिए कुछ था भी नहीं, बस ये ख़स्ता आबाई घर। दोनों मियां-बीवी ने मुलाज़मत करके दस मर्ले का एक प्लाट ख़रीदा था लेकिन उस पर मकान बनाने की नौबत ही आई। दोनों मियां-बीवी आगे पीछे नया मकान बनाने की हसरत ही में दुनिया से चले गए। उसकी बीवी भी मुलाज़मत करती थी। कुछ कमेटियां डाल कर, क़र्जे़ लेकर उसने बाप के ख़रीदे प्लाट पर छोटा सा घर बना लिया।

    नए घर में मुंतक़िल हुए तो बीवी-बच्चे बहुत ख़ुश हुए लेकिन उसकी उदासी गई। “कनाल का होता तो क्या बात थी, दस मर्ले तो लॉन के लिए छोड़ता और दस मर्ले में इमारत बनाता।”

    बीवी बोली, शुक्र करो यह भी बन गया। पुराने घर में तो अब छतों से मिट्टी भरने लगी थी।

    वो तो ठीक है। उसने सर हिलाया।“लेकिन...”

    और उस लेकिन के लिए खज़ाने का ख़्वाब था, अगर एक करोड़ का ब्ंदोबस्त हो जाए तो किसी और अच्छे इलाक़े में कनाल का घर बन सकता है, लेकिन ये एक करोड़ कहाँ से आयेंगे। ये घर तो बना था उसके किसी कोने खदरे में पुराना ख़ज़ाना मिलने की उम्मीद नहीं थी, तो फिर ख़ज़ाना कहाँ से मिले, लॉटरियों और प्राइज़ बॉन्ड से बड़ी उम्मीदें थीं। हर महीने पच्चास सौ रुपये का बॉन्ड ख़रीदता। क़ुरआ अंदाज़ी का नतीजा आता तो दो-दो, तीन बार नंबर पढ़ता लेकिन कभी दस रुपये का इनाम भी नहीं निकला। शायद मेरे नाम का इनाम नहीं निकलता। बीवी और फिर बच्चों के नाम से प्राइज़ बॉन्ड लेने लगे लेकिन किसी का नाम आया। कोई इनामी स्कीम शुरू होती फ़ौरन वो चीज़ ख़रीद कर इनामी कूपन भरता लेकिन कभी कोई इनाम निकला।

    ज़िंदगी की गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता घिसटती गई। बच्चे बड़े हो गए थे। अब मोटर साईकल पर सब का जाना मुश्किल हो गया था। बीवी ने स्कूल में कमेटी डाली और मोटर साईकल बेच कर उन्होंने एक पुरानी कार ले ली।

    कार को पहले दिन से पोर्च में खड़ा करते हुए सोचा कुछ और पैसे होते तो ज़रा बड़ी गाड़ी लेता। खज़ाने का ख़्वाब फिर झिलमिलाने लगा, अगर कहीं से ख़ज़ाना मिल जाये तो। लेकिन कहाँ से। अब ख़ज़ाने ज़मीनों में दफ़न नहीं किए जाते। बैंकों में रखे जाते हैं और उसे हासिल करने के लिए डकैती करनी पड़ती है। इस तसव्वुर ही से झुरझुरी गई।

    कार पुरानी थी, रोज़ ही कोई कोई मसला होता। इतवार का दिन तो मिस्त्रीयों के पास गुज़रता, हर बार सोचता काश कहीं से ख़ज़ाना हाथ जाए तो कम अज़ कम नई गाड़ी ही ले लूं। कई ख़्याल ज़ेह्न में आते, क्या मालूम कोई ग़लती से उसके एकाऊंट में रक़म जमा करा दे। सड़क पर चलते चलते कोई मोटा बटुआ मिल जाये। सोचता, अब तो पाँच हज़ार का नोट भी गया। एक करोड़ के लिए बहुत सी गडि्डयों की ज़रूरत ही नहीं।

    बीवी ने फिर हिम्मत की, घर के खर्चे में से पैसा पैसा जोड़ कर और नई कमेटी डाल कर इतनी रक़म जमा कर ली कि पुरानी कार बेच कर नई गाड़ी ली जा सके।

    पहले दिन नई गाड़ी चलाते हुए और ही मज़ा आया,“वाह क्या बात है,” लेकिन उसी लम्हे ख़्याल आया और पैसे होते तो बड़ी गाड़ी लेते। सड़क पर क़रीब से बड़ी गाड़ियां गुज़रतीं तो उसे अजब बेबसी और बेवक़अती का एहसास होता। ख़ज़ाने का ख़्वाब आँखों में सरसराने लगता।

    दस मर्ले का घर और नई गाड़ी। बीवी कहती, तुम नाशुकरे हो, तंग गली के उस बोसीदा घर में मोटर साईकल के साथ रहते थे और अब इस नई आबादी में अपना घर है, गाड़ी है और क्या चाहिए।

    वो कहता, “ठीक कहती हो,” लेकिन.

    इससे अच्छे इलाक़े में बड़ा घर, बड़ा लॉन सोचता…अब तो उसके लिए दो करोड़ चाहिए। ज़मीन भी महंगी हो गई है और लागत भी कहीं से कहीं पहुंच गई है। बीवी और बच्चे अब उसके ख़्वाब से लज़्ज़त लेने लगे थे। बड़ा बेटा कभी कभी हंसते हुए कहता…“अब्बू अब आप का बजट क्या है।”

    वो कहता…“यार अब तो मुआमला दो करोड़ से आगे चला गया है।”

    सोचता…“जिनके पास अरबों हैं उनके लिए दो करोड़ क्या मानी रखते हैं।”

    ख़्वाब में देखता…डाकिए ने लिफ़ाफ़ा दिया है, खोलता तो उसमें दो करोड़ का चेक होता। ये कौन नादीदा मेहरबान है? लेकिन झुरझुरी आते ही हक़ीक़ी दुनिया में जाता। बटुवों में तो दो तीन हज़ार ही रह गए हैं और अभी तनख़्वाह मिलने में बीस दिन हैं।

    कुछ अर्से के लिए खज़ाने का ख़्वाब मह्व हो जाता, बस जो है यही है। कुछ अर्सा मुतमइन रहता, फिर किसी अच्छे इलाक़े में जाना होता तो बड़े घर, बड़ी गाड़ियां देख कर जी कुलबुलाने लगता। एक अजब बेचैनी अंदर ही अंदर ऐसे काटती,जैसे कोई छुरी की नोक चुभा रहा है। बीवी मिज़ाज आश्ना थी, समझ जाती कि खज़ाने का ख़्वाब इन दिनों फिर इसके ज़ेह्न में खुदबुदा रहा है।

    कभी कभी हंस कर पूछती…“अब एस्टीमेट क्या है?”

    वो पूरी संजीदगी से कहता…“अब तो तीन करोड़ से ज़्यादा ही चाहिए।”

    और सोचता क्या मालूम किसी दिन सड़क पर कोई ब्रीफकेस मिल जाये जो डॉलरों से भरा हो। लेकिन इतनी रक़म रखी कहाँ जाएगी। घर में रखी और किसी को भनक भी पड़ गई तो सब की जानें भी जाएंगी। बैंक में ले गया तो टैक्स वाले पूछेंगे इतनी रक़म कहाँ से आती। बहुत सोचा, बहुत सोचा फिर एक प्लान ज़ेह्न में आया कि घर के सारे अफ़राद के एकाऊंट खोल कर थोड़ी रक़म सब में जमा करा दी जाये और कुछ घर में रख ली जाये। घर में दो तीन महफ़ूज़ जगहें भी तलाश कर लीं, एक अलमारी के सब से ऊपर एक ख़ला सा रह गया था। बहुत ही मुनासिब जगह थी, चोर डाकू भी जाते तो तलाश कर पाते।

    अब शहर में धमाके शुरू हो गए थे। ब्रीफकेस फटते थे। ख़्याल आया कि ऐसा हो कि वो ब्रीफकेस खोले और धमाका हो जाए। पूरे जिस्म में झुरझुरी आजाती।

    “नहीं, ये मुनासिब नहीं, तो फिर।”

    अब एन.जी.ओज़ का भी बड़ा चर्चा था। सुनता था कि बाहर के मुल्कों से खुला पैसा मिलता है लेकिन ये उसकी हैसियत से बहुत ऊंचा काम था। वो तो इसके बारे में भी ख़्वाब ही देख सकता था कि वो एक एन.जी.ओ चला रहा है। खुला पैसा रहा है और उसने इसमें से तीन करोड़ बचा लिये हैं। पोश इलाक़े में दो कनाल का घर…एक कनाल पर इमारत और एक कनाल का लॉन…ये बड़ी गाड़ी बल्कि गाड़ियां।

    लेकिन ये भी ख़्वाब ही था।

    दहश्तगर्दों को बोरियों में भर कर डालर मिलते हैं, लेकिन वो तो इस चियूंटी को भी नहीं मार सकता था जो उसके जिस्म पर काटती फिरती थी। तो खज़ाने का ख़्वाब, कुछ अर्सा बुरी तरह ज़ेह्न पर सवार रहता, कुछ अर्सा भूल जाता। बच्चे अब बड़े हो गए थे, नाशते की मेज़ पर छेड़ते...“अब्बू अब आप का बजट क्या है।”

    वो संजीदगी से कहता…“अब तो चार करोड़…”

    सब हंसते, वो भी खिसियानी सी हंसी से उनका साथ देता।

    इसी दौरान बेटी की शादी हो गई, दोनों बेटे मुलाज़मतें करने लगे।

    बीवी ने एक दिन बताया…दोनों बाहर जाने के चक्कर में हैं।

    उसने बेबसी से सर हिलाया…शायद बाहर उन्हें वो मिल जाये जो मैं नहीं पा सका।

    दोनों बेटों की शादियां हो गईं। वो दोनों मियां-बीवी भी रिटायर हो गए।

    अब सारा वक़्त ख़्वाब देखने के सिवा और कुछ था, सुबह नाशता किया, अख़बार पढ़ा और फिर खज़ाने का ख़्वाब, ज़ीना ज़ीना उसकी आँखों में उतरने लगता।

    “क्या मालूम किसी दिन उसे अचानक ही किसी नामालूम की तरफ़ से चार करोड़ का चेक मिल जाये।”

    फिर ख़ुद ही हंस पड़ता।

    सोचता, अरबों-खरबों वालों के लिए तो चार करोड़ ऐसे हैं जैसे हमारे लिए चार हज़ार, लेकिन कोई किसी को क्यों दे?

    सब से पहले बड़े बेटे ने ख़बर सुनाई कि उसे बाहर मुलाज़मत मिल गई है और वो दस पंद्रह दिन में जा रहा है।

    अब घर में दोनों मियां-बीवी के इलावा छोटा बेटा, उसकी बीवी और उनका बेटा रह गए थे। पोता अभी स्कूल नहीं जाता था। वो दिन भर उस से खेलता रहता। तीन चार महीने भी नहीं गुज़रे थे कि छोटा बेटा भी बीवी-बच्चों के साथ बाहर चला गया। अब घर में दोनों मियां-बीवी रह गए थे। घर के चार कमरों में से तीन ख़ाली हो गए। एक कमरा और लाउन्ज उनके इस्तिमाल में था। ड्राइंग रूम तो कभी कभार ही आबाद होता। ड्राईवर भी रख लिया था। कहीं आने जाने की तकलीफ़ नहीं। चार कमरों के घर में दो फ़र्द लेकिन पोश इलाक़े में घर की ख़्वाहिश ख़त्म हुई।

    कभी कभी अफ़्सुर्दगी से सोचता, अगर मेरे पास आठ दस करोड़ होते तो बच्चे बाहर जाते। सोचते सोचते कहीं से कहीं पहुंच जाता। दो करोड़ का तो दो कनाल का प्लाट, दो करोड़ ऊपर, हो गए चार करोड़, एक करोड़ घर को सजाने और शानदार गाड़ी के लिए ये हुए पाँच, दो करोड़ सेविंग में जिस से आठ फ़ीसद के हिसाब से एक लाख साठ हज़ार इंट्रेस्ट मिलेगा। पच्चास हज़ार पैंशन है दो लाख दस हज़ार। दोनों मियां-बीवी के लिए बहुत है। बहुत उम्दा। बाक़ी तीन करोड़ तीनों बच्चों के एकाऊंट में जमा करा देगा। पैसा कमाने बाहर गए हैं न। यहां पैसा मिल जाये तो वापस आजाऐंगे। लेकिन रहेंगे कहाँ? मुम्किन है उनकी बीवियां साथ रहें तो चलो एक पुराने घर में रह लेंगे। एक करोड़ सेविंग में से निकाल कर दूसरे को भी छोटा घर बनादेगा...

    थोड़ा सा हाथ तंग हो जाएगा लेकिन कोई बात नहीं। बेटे साथ रहें, होंगे तो इसी शहर में। कभी एक के घर चले गए, कभी दूसरे के…दस करोड़ की बात है। कुछ लोगों के लिए तो ये दस हज़ार के बराबर भी नहीं।

    दस करोड़ का ख़्वाब अब भूत की तरह उसे चिमट गया था। उठते-बैठते सोचता कि ये दस करोड़ कहाँ से मिल सकते हैं। कोई लॉटरी, कोई इनाम लेकिन इतना बड़ा इनाम तो होता ही नहीं। सड़क पर पड़ा ब्रीफकेस। अब तो डॉलरों का ज़माना है। दस करोड़ के लिए ज़्यादा जगह दरकार भी नहीं।

    सुबह शाम ख़्वाब…ख़ज़ाने का ख़्वाब.

    छोटे बेटे का फ़ोन आया…“वीज़े और टिकट भेज रहा हूँ, महीने भर के लिए आजाऐं।”

    ज़िंदगी में पहली बार बाहर निकलना हुआ था…ये दुनिया ही और थी, हर वक़त चकाचौंद, ग्लैमर। महीना तो पता ही नहीं चला कैसे गुज़रा। जिस दिन उन्होंने वापस जाना था। बेटे ने खाने की मेज़ पर बैठते हुए पूछा…“अब्बू अब आप का एस्टीमेट क्या है।”

    उसने संजीदगी से कहा…“दस करोड़...”

    सब हँसने लगे, वो भी खिसयाना सा उन में शामिल हो गया।

    एयरपोर्ट पर बेटा, उसकी बीवी और दोनों बच्चे उन्हें छोड़ने आए।

    जहाज़ में बैठते हुए अजीब सी उदासी थी, बीवी भी चुप थी। ये दिन कितने मज़े के थे, उसने सोचा, हर हफ़्ते बेटा उन्हें खाना खिलाने बाहर ले जाता था, क्या मज़े मज़े के खाने थे और सलाद, वाह! उसकी बात ही नहीं।

    जहाज़ फ़िज़ा में बुलंद हुआ। सात आठ घंटों का सफ़र था। अभी आधा रास्ता ही तय हुआ था कि झटके लगने लगे। कप्तान ने एमरजेंसी का ऐलान किया तो मुसाफ़िरों के मुँह से कलमे का विर्द होने लगा। बीवी डर कर उसके साथ लग गई। उसने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा...“चलो आख़िरी लम्हे में भी साथ हैं, तुम ने सारी ज़िंदगी मेरा बहुत ख़्याल रखा है।”

    अभी शायद कुछ कहता कि जहाज़ ने डुबकी खाई,एक धमाका और फिर….

    सोएम करने के बाद तीनों बहन भाईयों ने तय किया कि वो हर साल उनकी बरसी पर इकट्ठे हुआ करेंगे।

    पहली बरसी पर बरसी के ख़त्म के रसूमात से फ़ारिग़ हो कर तीनों लाउन्ज में बैठ गए।

    बड़े भाई ने कहा…साल भर से ये घर ख़ाली पड़ा है। मैं इसे किराए पर देने के हक़ में नहीं, किरायादार से कौन किराया वसूल करेगा और अगर कोई ऐसा वैसा किरायादार गया तो मकान ही खा जाएगा, तुम दोनों इत्तिफ़ाक़ करो तो इसे बेच देते हैं।

    बहन ने इस्बात में सर हिलाया।

    इससे पहले कि छोटा कुछ कहता, गेट की घंटी बिजी, बड़ा उठ कर बाहर आया। टी.सी.एस. के हरकारे से लिफ़ाफ़ा लेकर वो उसे खोलते हुए अंदर आया।

    पढ़ कर उसके मुँह से चीख़ निकल गई और काग़ज़ नीचे जा गरा। छोटे ने जल्दी से उठाया।

    ख़त फ़िज़ाई कंपनी से था, लिखा था।

    “मरहूमीन की हादिसाती एयर इंशोरंस के दस करोड़ रुपये के चेक की वसूली के क़ानूनी तक़ाज़े पूरे करने के लिए फ़ौरी तौर पर कंपनी के इंशोरेन्स के शोबे से राबिता किया जाये।”

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