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ढ़ाई सेर आटा

हयातुल्लाह अंसारी

ढ़ाई सेर आटा

हयातुल्लाह अंसारी

MORE BYहयातुल्लाह अंसारी

    स्टोरीलाइन

    यह एक मज़दूर की कहानी है, जो बहुत मुश्किल से अपने कुंबे का पेट भर पाता है। एक रोज़ काम से लौटते हुए उसे सड़क पर ढाई सेर आटा पड़ा हुआ मिल जाता है। वह आटे को समेटता है और घर ले आता है। उस आटे की भी अपनी ही कहानी होती है। वह आटा एक मुद्दत बाद उसके और उसके बच्चों के चेहरे पर ख़ुशी और राहत का एहसास दिलाता है।

    पुरवाई चल रही थी इसलिए मौला को बाई ने पकड़ रखा था और वो आठ-दस रोज़ से काम पर नहीं जा सका था। दो-तीन रोज़ तक जो दो-चार पैसे जमा थे, वो ख़र्च हुए और फिर उधार पर काम चलता रहा। दो-चार रोज़ के बाद बनिया भी हीले-हवाले करने लगा। मजबूरन एक दिन मौला टांग में ज़रा आराम पाकर सुबह तड़के टोकरी ले कर मज़दूरों के बाज़ार गया। जिन कारीगरों के साथ काम कर चुका था, उनमें से एक ने जिसका काम लगा हुआ था, उस को साथ ले लिया। ये दिन भरा ईंट-गारा ढोता रहा। शाम को साढे़ चार आने पैसे मिले जिसे लेकर घर चला। रास्ते में एक आना बनिए को क़र्ज़ का अदा किया, एक आना मकान के किराये के लिए रख लिया और एक पैसा कल के चने के लिए बचा लिया। बाक़ी बचे नौ पैसे। उसमें से एक पैसे के आलू, एक का बाजरे का आटा, पाँच पैसे के डेढ़ सैर चावल और एक पैसे की दाल, एक पैसे की लकड़ी लेकर एक लंबी सी गली में घुस गया जो आगे चल कर इतनी तंग हो गई थी कि वहां अभी से अंधेरा था। उस गली में बराबर कई कई कोठड़ीयां बनी थीं। दो एक से धुआँ निकल रहा था जो ठंडा हो कर गली में भर रहा था। उनमें से एक कोठड़ी के सामने मौला की बीवी मुन्नी जिससे शादी तो नहीं हुई थी मगर पंद्रह बरस से ताल्लुक़ात मियां-बीवी ही के ऐसे थे, दो लड़कियां और उन दोनों से छोटे दो लड़के जाड़े के मारे पास पास बैठे मौला का इंतिज़ार कर रहे थे। सभों ने ख़ुश हो कर उसको घेर लिया। ये थका हुआ बहुत था। आते ही टाट पर लेट गया और पोटली रखकर बोला,

    सब लेता आया हूँ।

    बीवी चूल्हे के पास गई जो उस कोठड़ी में एक तरफ़ बना हुआ था, आग सुलगाई और दाल-चावल पकने को चढ़ा दिए। लड़के और लड़कियां चूल्हे को घेर कर बैठ गए और दाल-चावल पकने की दिल ख़ुशकुन खदर खदर सुनने लगे। उन लोगों के लिए इस से बेहतर और कोई रागनी नहीं हो सकती थी।

    कमरे में सील और मैले कपड़ों की बू फैली हुई थी। अब वहां धुआँ भी भरने लगा मगर सब का ध्यान चूल्हे की तरफ़ था। लड़के भूक से परेशान थे और चाहते थे कि दाल-चावल जल्द से जल्द पक जाएं, इसलिए वो बार-बार बहुत सी लकड़ी चूल्हे में लगा देते। ये देखकर उनकी माँ डाँट बताती।

    कम-बख़्तो! कल खाना कैसे पकेगा?

    बड़ी लड़की जिसकी पलकें बाल ख़ोरे ने ग़ायब कर दी थीं, चूल्हे के पास बैठी बराबर बदन खुजलाती जाती थी और थोड़ी थोड़ी देर के बाद लकड़ी की डोई से दाल और चावल निकाल कर चुटकी से मलती थी। उस वक़्त लड़के पूछते थे,

    कितनी देर है?

    बस थोड़ी देर और है।

    यही जवाब आध घंटा तक चलता रहा। मौला एक पुरानी दरी ओढ़े जिसमें सैंकड़ों छेद थे, टाट पर चुप-चाप लेटा था। थोड़ी देर के बाद बोला,

    जैसे नींद आरही है।

    इतने में किसी के चीख़ने और रोने की आवाज़ आने लगी। कोई मज़दूर था जो ताड़ी पी कर अपनी बीवी को मारता था। जब ग़ुल गपाड़ा ज़्यादा होता था तो आस-पास के लोग जा कर मुआमला रफ़ा-दफ़ा करा देते थे। इस वक़्त ये गुल सुन की मुन्नी बोली,

    उन लोगों के यहां रोज़ रोज़ यही रहता है। मालूम कैसे कमीने हैं।

    मौला, हुँह... चावल गले नहीं अब तक?

    मुन्नी ने देखा तो चावल गल गए थे। उसने उतार कर एक तरफ़ रख दिए। हांडी बंद थी मगर उबाल में हांडी के कगरों पर कुछ चावल आगए थे। छोटे लड़के बब्बू ने उनमें से दो तीन चावल पोंछ कर खा लिये। दूसरा लड़का मन्नु फ़ौरन बोला,

    हुँह। मैं भी।

    उसने और ज़्यादा खा लिये। इस पर दोनों में लड़ाई होने ही वाली थी कि मुन्नी ने दोनों को डाँटा,

    कमबख़्तों में ज़रा सब्र नहीं। मैं कहती हूँ...

    थोड़ी देर लड़के मुन्नी की बात पूरी होने के मुंतज़िर रहे। जब वो कुछ नहीं बोली तो फिर खाने की तरफ़ मुतवज्जा हो गए। अब दाल का सबको बड़ी बेसब्री से इंतिज़ार था। आख़िर एक लड़की बोली,

    अम्मां अब घूँट दो।

    माँ ने दाल को देखा तो वो थोड़ी बहुत गल गई थी। ज़ाइद इंतिज़ार कौन करता। उसने दाल घूँट कर नमक डाला और उतार ली फिर तीन तामचीनी की प्लेटें जिनकी चीनी तक़रीबन बिल्कुल उड़ चुकी थी और एक मिट्टी की रकाबी सामने रखी। पहले एक बड़ी प्लेट में चावल निकाले और उस परदाल डाल कर मौला के सामने रख दिए। मौला बहुत बेसब्री से खाने लगा। सब बच्चे अब टकटकी बांध कर मुन्नी के हाथों की हरकत देख रहे थे। उसने मिट्टी की थाली में चावल निकाल कर दोनों लड़कियों के बीच में रख दिये और फिर तामचीनी की प्लेटों में बराबर बराबर चावल निकाले, उस पर दाल डालने लगी।

    बब्बू, मन्नु की प्लेट में इतना और हमारी प्लेट में इतना।

    मुन्नी ने थोड़ी सी दाल उसकी प्लेट में और डाल दी।

    मन्नु, अम्मां हम भी।

    माँ ने दो-चार चावल उसकी प्लेट में भी डाल दिये और फिर बाक़ी चावलों को दाल की हांडी में उलट कर खाने लगी। अभी चूल्हे में कुछ कोयले बाक़ी थे जिनकी हल्की हल्की रोशनी में उन लोगों के चेहरे और चलते हुए जबड़े दिखाई दे रहे थे। छोटे लड़के खाते-जाते और प्लेट की तरफ़ देखकर अंदाज़ा करते जाते कि अभी इतना और है, उतना और है। आख़िर मन्नु अपनी प्लेट पोंछ कर बोला,

    बस खा चुके।

    मौला भी चावल ख़त्म कर चुका और बोला,

    चावलों में ख़ुदा ने बड़ी बरकत दी है। ज़रा से खा लो और पेट भर गया और रोटी का ये है कि सेर भर आटे की हो तो कुछ नहीं और दो सेर हो तो कुछ नहीं।

    बब्बू, अम्मां! सुबह क्या पकेगा?

    अम्मां, मैं कहती हूँ इन लोगों की नीयत कभी नहीं भर्ती। अभी खा चुका है और अभी पूछ रहा है कि कल क्या पकेगा।

    मुन्नी ने बाँस के पलंग के नीचे से जो कोठड़ी का चौथाई हिस्सा घेरे हुए था, एक पानदान निकाला, जिसका पेंदा घिस गया था और सब कुल्हियाँ एक दफ़्ती पर रखी हुई थीं। ये पानदान मुन्नी की माँ का था और उसको बहुत प्यारा था। वो हमेशा सोचा करती थी कि मैं किसी घर में ऊपर का काम काज करने को नौकर हो जाऊं तो सबसे पहले उसी को ठीक कराऊंगी। मुन्नी ने एक पान के चार टुकड़े किए। एक ख़ुद खाया, एक मौला को दिया और दोनों लड़कियों को। फिर कोठड़ी के बीच में एक टाट का पर्दा डाल दिया जिससे उसके दो हिस्से हो गए। एक तरफ़ पलंग हो गया और दूसरी तरफ़ टाट का फ़र्श। पलंग पर मुन्नी और मौला लेट गए और टाट पर दोनों लड़के और दोनों लड़कियां। सर्दी तेज़ हो गई थी। मौला और मुन्नी ने तो वही दरी ओढ़ ली। लड़कों और लड़कियों में किसी ने मोटी चादर और किसी ने टाट का टुकड़ा दोहरा कर के ओढ़ लिया और फिर चिड़िया के बच्चों की तरह एक दूसरे से चिपक कर लेट रहे। कोठड़ी के दरवाज़े से ठंडी हवा आरही थी, इसलिए मौला ने उठकर उसको बंद कर दिया, हवा की आमद-ओ-रफ़्त बंद हो गई और कोठड़ी में हब्स की वजह से गर्मी हो गई। थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद मुन्नी बोली,

    आज मुंशी जी फिर आए थे और कह गए हैं कि नवाब साहिब ने हुक्म दिया है कि जिस पर किराया चढ़ा हो, उसको कोठड़ी से फ़ौरन निकाल दो।

    मौला, निकाल देंगे, निकाल देंगे, जब सुनो, यही है। आएं, आकर निकालें। हम जाड़ों में बच्चों को लेकर कहाँ जाएं। हुआ करें वो बड़े आदमी। हम तो नहीं निकलेंगे। कह दो जब किराया जमा हो जाएगा, दे देंगे। ज़रूर देंगे, मर जाएं तो बात दूसरी है। बड़े आए हैं निकालने वाले।

    उसके बाद थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी हो गई फिर मौला बोला,

    मुंशी जी के यहां की नौकरी का पता चला।

    मुन्नी, वो कहते हैं छोटी लड़की से मेरा काम नहीं चलेगा। ऐसी लड़की हो जो झाड़ू बहारु करे और दो घड़े पानी उठा कर रख दे।

    उसके बाद मुन्नी ज़रा रुकी फिर आवाज़ नीची करके बोली,

    मैं कहती हूँ कि जवान लड़की को कैसे भेज दूं। इस मुई का भी दीदा हवाई है। पानी भरने जाती है तो ठट्ठा करती हुई।

    मौला, जाएगी तो हरामज़ादी अपने से जाएगी। एक चली गई तो क्या कर लिया? लड़का होती तो चार आना रोज़ कमा लाती।

    मौला की बड़ी लड़की भाग गई थी और साल भर से पता नहीं था।

    मुन्नी, क्या कर लिया? मुई थी ही ऐसी। ऐसी होती तो जाती क्यों? लड़के कब अच्छे निकलते हैं? किस ने लाकर माँ-बाप को खिलाया है? इधर कमाने के काबिल हुए, उधर चल दिये। भूरे को देखो, ठेला चलाता है। दस आने रोज़ पाता है और सब उड़ा देता है।

    मुन्नी एक ठंडी सांस भर कर ख़ामोश हो गई और फिर गहरी ख़ामोशी छा गई जिसको कभी कभी उन लोगों की खांसी की आवाज़ तोड़ देती थी। अभी आठ ही बजे थे। बाज़ार में चहल पहल थी मगर यहां सोता पड़ गया।

    जब मौला की आँख खुली तो उसने मुन्नी को जागता पाया। वो पाँच मिनट तक यूंही पड़ा रहा, फिर कराहता हुआ उठा और बोला,

    सर्दी के मारे जान निकली जाती है। बदन जैसे तख़्ता हो गया। बीड़ी कहाँ है?

    मुन्नी ने उठकर एक कोने से एक बीड़ी का बंडल और दियासलाई की डिबिया निकाल कर दी। मौला ने एक बीड़ी सुलगाई और पीने लगा। बीड़ी जब तक चुटकी से पकड़ने के क़ाबिल रही उसने हाथ से नहीं छोड़ी, फिर पलंग से उठा और लोटा ले के बाहर चला गया। पंद्रह मिनट के बाद सर्दी से काँपता हुआ अंदर आया और लोटा रखकर बोला,

    एक बीड़ी और। इतना दिन चढ़ आया, धूप का पता नहीं।

    मौला ने एक बीड़ी और सुलगाई फिर टोकरी उठा कर बीड़ी पीता हुआ बाहर चला गया।

    मौला के जाने के दो घंटे बाद मुन्नी लड़कों और लड़कियों को ले कर बाहर निकली और कोठड़ी में कुंडी लगा कर टहलने चली। कुछ दूर पर दूसरे मज़दूरों की औरतें धूप में बैठी बक बक कर रही थीं, ये जा कर उन में शरीक हो गई। लड़के और छोटी लड़की आँख बचा कर इधर उधर हो रहे।

    तीन-चार घंटे के बाद मन्नू आया और माँ से कहने लगा,

    माँ रे! भूक लगी है।

    मुन्नी वैसे ही बातों में मशग़ूल रही। गोया ये सुनने वाली बात ही थी। थोड़ी देर के बाद बब्बू आया और उसने भी इसी फ़िक़रे को सुनाया मगर मुन्नी ने उधर भी तवज्जो की। उस वक़्त वो किसी शरीफ़ घराने की औरतों की बदचलनी बहुत जोश-ओ-ख़रोश से बयान कर रही थी। उस जोश में ये फ़ख़्र पोशीदा था कि छोटी ज़ात सही मगर मैं ऐसी नहीं हूँ। थोड़ी थोड़ी देर बाद एक लड़का या दोनों के दोनों अपनी सदा लगा देते। इसी तरह एक घंटा गुज़र गया। अब छोटी लड़की भी कहीं से आई और माँ के पास बैठ गई, फिर चुपके से बोली,

    अम्मां चलो।

    मुन्नी, अभी सवेरा है, ज़रा ठहरो।

    दस मिनट और गुज़रे अब तो बब्बू माँ का कंधा पकड़ कर खड़ा हो गया और रोनी आवाज़ से रट लगा दी।

    खाना दो, खाना दो, खाना दो।

    मुन्नी थोड़ी देर तक ये रें रें सुनती रही, फिर उसको डाँट दिया जिस पर बब्बू भौं-भौं रोने लगा। आख़िर ये बड़ बड़ाई हुई उठी।

    मैं कहती हूँ, ये सब ग़ारत हों या मैं ग़ारत हूँ, ज़िंदगी दूभर है।

    मुन्नी ने कोठड़ी में आकर आग सुलगाई और बाजरे के आटे की पाँच टिकियां पकाईं। दो छोटी और तीन बड़ी, उन पर ज़रा ज़रा सा गुड़ रखकर छोटी दोनों लड़कों को दीं और बड़ी एक ख़ुद ली और दो दोनों लड़कियों को दीं। इन लोगों का खाना तीन-चार मिनट के अंदर अंदर ही ख़त्म हो गया और फिर ये सब लोग घूमने चले गए।

    शाम को मौला जब मज़दूरी के पैसे लिए पलट रहा था तो उसकी निगाह गली के कोने पर पड़ी। देखा तो दो ढाई सेर आटा यूँही पड़ा हुआ है। उसने क़रीब जा कर आटे को चुटकी में उठा लिया। गोया ये यक़ीन करना

    चाहता था कि आँखें धोका तो नहीं दे रही हैं। जब यक़ीन आगया तो मुतहय्यर खड़ा रह गया। दिल कहता था कि उठा ले चलो। मगर एक तो ये डर था कि शायद कोई कुछ कहे और दूसरी ये झिजक कि उसके साथी मज़दूर भी पीछे रहे होंगे। अगर वो मुझे आटा उठाते देखेंगे तो क्या कहेंगे। आख़िर उठाने की हिम्मत नहीं पड़ी और ये चल खड़ा हुआ मगर हर क़दम पर रफ़्तार सुस्त होती जाती। दस क़दम चल कर भौंचक्का सा खड़ा हो गया जैसे चौराहे पर पहुंच कर रास्ता भूल गया हो। सोच रहा था कि कोई दूसरा मज़दूर उस आटे को ज़रूर उठा लेगा। मुझे नहीं मिलेगा और उसको मिल जाएगा। रफ़्ता-रफ़्ता ये ख़याल इतना गहरा हो गया कि मौला ख़याली आटा उठाने वाले मज़दूर को हद से ज़्यादा रश्क की निगाहों से देखने लगा और ये सोचता हुआ आटे की तरफ़ वापस आया कि बला से कोई हँसे तो हंस ले, बीवी-बच्चे तो आटा पा कर ख़ुश हो जाऐंगे। मौला के क़दम इतनी जवाँमर्दी से आटे की तरफ़ बढ़ रहे थे गोया वो किसी डूबते लड़के को दरिया से निकालने जा रहा है। आटे के पास पहुंच कर इत्मिनान से बैठ गया। अपना अँगोछा फैला दिया और आटा उठाने लगा। साथ ही साथ बड़बड़ाता जाता था।

    क्या लोग हैं! अनाज इस तरह फेंक दिया। पैरों तले अलग आए, नाली में अलग जाये। इस से तो बेहतर है कि मुर्ग़ी चुर्ग़ी खा लें।

    जिस बात का डर था वही हुई। पाँच छः मज़दूरों की एक टोली पास से गुज़री और ये अजब तमाशा देखकर चार मज़दूर खड़े हो गए।

    एक, क्या मिल गया मौला।

    मौला, कुछ नहीं। ख़राब आटा है मगर है अनाज। पैरों तले रहा था, मैंने कहा मुर्ग़ी बकरी खा लें तो सुवारत हो जाये।

    दूसरा, क्या गली की पड़ी हुई चीज़! कहीं नज़र गुज़र हो।

    पहला, उठा ले मौला, उठा ले, इसको बकने दे, काम आजाएगा।

    मौला गर्दन झुकाए अपने काम में मशग़ूल रहा। ये लोग चल खड़े हुए। कुछ ही दूर पहुंच कर एक मज़दूर ने तान लगाई,

    सौ से बुरा तो एक से बेहतर बना दिया।

    दूसरा उसके तान ही की अस्ना में बोला,

    ग़रीब ही सही मगर हम गली से गिरा पड़ा नहीं उठाते।

    ये मज़दूर बड़ाई की ले रहे थे मगर हक़ीक़त में उनमें से हर एक को मौला की ख़ुशनसीबी पर कि इतना आटा यूँही पड़ा मिल गया, रश्क-ओ-हसद हो रहा था।

    उस आटे का भी अजब क़िस्सा हुआ।

    दस बजने के क़रीब थे मगर खाना अभी तक तैयार नहीं हुआ था। शौकत मियां स्कूल जाने को तैयार थे। उनकी फूफी ने जल्दी जल्दी दो-चार रोटियाँ डलवा दीं और चार कबाब तल दिये फिर जल्दी से उनको मेज़ पर चुन, शौकत मियां को खाना खाने के लिए आवाज़ दी, शौकत मियां एक हाथ में किताबें लिए दूसरे हाथ से शेरवानी के बटन लगाते खाने के कमरे में घुस गए और बिला हाथ धोए खाना शुरू कर दिया। मगर पहला ही निवाला मुँह में रखा था कि ऐसा मुँह बिगाड़ लिया गोया कुनैन पी गए हूँ। जल्दी से वो निवाला पानी के सहारे पेट में पहुंचा दिया और फिर रोटी का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर मुँह में रखा। चबाया और फिर मुँह बिगाड़ कर बोले,

    फूफीजान! आटा ख़राब है।

    आटा ख़राब है! क्या?

    शायद अकरा गया।

    फूफी ने भी रोटी का ज़रा सा टुकड़ा मुँह में रखा, फिर बोलीं,

    तुम्हारी बातें! अकरा गया! कुछ रोटियाँ जल्दी पकने से धुआँ गईं।

    शौकत मियां ने कुछ जवाब नहीं दिया। जल्दी से किताबें उठा कर भागते हुए बाहर चले गए।

    बेगम साहिबा धूप में बैठी कुछ सी रही थीं। अपने बेटे को इतनी जल्दी खाने के कमरे से निकलते देखकर बोलीं,

    क्या बात है?

    शौकत मियां की फूफी, कुछ नहीं। ज़रा रोटियाँ धुआँ गईं।

    बेगम साहिबा, मेरी समझ में नहीं आता कि शौकत मियां कब तक फ़ाक़े से स्कूल जाते रहेंगे। ज़रा रोटियाँ मैं तो देखूं!

    शौकत मियां की फूफी एक प्लेट में रोटी रखकर सामने लाईं। बेगम साहिबा ने ज़रा सा टुकड़ा मुँह में रखा और बोलीं,

    ये धुआँ गई हैं। मैं कहती हूँ बहन तुमको कब अक़ल आएगी। अकराया हुआ आटा मेरे बच्चे के सामने रख दिया। जहां मैं ज़रा ग़ाफ़िल हुई, बस दलिद्दरपना होने लगता है।

    इस फ़िक़रा का निशाना फूफी थीं। ये बेचारी शौकत मियां के बाप की ख़ाला ज़ाद बहन थीं। दस बरस से बेवा थीं और उनका या उनकी लड़की का बजुज़ इस घर के और कोई सहारा नहीं था। बज़ाहिर तो ये एक ग़रीब बहन की तरह रखी जाती थीं मगर हक़ीक़त में ये सदर मामा या नौकरों के इंचार्ज की ख़िदमात अंजाम देती थीं और हर क़िस्म की बदनज़्मी की बराह-ए-रास्त ज़िम्मेदार थीं। बेगम साहिबा का इल्ज़ाम सुनकर बोलीं,

    मैंने तो भले की सोची थी। छोटी मटकी में आटा था। मैंने कहा ये क्यों पड़ा रहे, काम ही आजाए।

    ये हुआ कि देख लेतीं आटा कैसा है? वो तो रोटी की सूरत से मालूम होता है, खैरातन।

    उनकी आवाज़ पच्चीस गज़ का फ़ासिला तय करके उसी कड़क से बावर्चीख़ाने पहुंची।

    खैरातन, जी बेगम साहिबा... पका रही हूँ।

    बेगम साहिबा, सब आटा नाली में फेंक दे। बड़े गगरे से आटा निकाल कर पका।

    शौकत मियां की फूफी इस हुक्म की तामील कराने दौड़ीं और बावर्चीख़ाने में आकर बड़बड़ाने लगीं,

    नाली में फेंक दो, नाली में फेंक दो। सच है कि जब चीज़ होती है तो उसकी क़द्र नहीं होती। अनाज बड़ी चीज़ है बहन, बड़ी चीज़।

    खैरातन, हाँ गुँधा गुँधाया आटा, सब मेहनत अकारत।

    शौकत मियां की फूफू, तुम फेंको वेंको नहीं। लेती जाओ बकरी को खिला देना। हाँ और देख मटकी में अभी ढाई सेर आटा होगा।। दो आने दस पैसे का माल है। वो भी तुम लेती जाओ। मैं फेंकवा कर क्या करूँगी।

    खैरातन चाहती तो थी कि आटा ले जाये मगर ये सोच कर कि फूफी मरी बछिया ब्रहमन के नाम करके एहसान करना चाहती हैं। बोली,

    हाँ, आटा ले जा कर किसी कोने में डाल दूँगी। पैरों तले आए। अब है किस काम का।

    फूफी ने इस डर से ज़्यादा बातें नहीं कीं कि कहीं खैरातन आटा ले जाने से बिल्कुल ही इनकार कर दे और इस तरह ज़रा सा एहसान करने का जो मौक़ा मिल रहा है वो भी हाथ से निकल जाये। फ़ौरन कोठड़ी के अंदर जा कर आटा अपने एक मैले दुपट्टे में बांध लाईं और बोलीं,

    ज़रा दुपट्टे का ख़याल रखना। फटने पाए और शाम ही को अपने साथ लेती आना।

    खैरातन ने पोटली की तरफ़ एक नज़र डाली और जैसे काम कर रही थी करती रही। जब घर जाने लगी तो पकी हुई रोटियाँ, गूँधा हुआ आटा और आटे की पोटली सब सामान लेकर घर आई। खैरातन की बड़ी लड़की ने, जो शौहर से लड़ाई होने की वजह से मुस्तक़िल माँ के पास रहती थी, इस सामान का हाल पूछा। जब खैरा तन ने क़िस्सा बयान किया तो उस ने रोटी चखी और फिर बोली,

    खाने के क़ाबिल नहीं। कड़वा हो गया।

    बकरी खा लेगी।

    उसका दूध घट जाएगा?

    खैरातन ने उठकर रोटियाँ बकरी के सामने डाल दीं। उसने एक रोटी तो खा ली मगर उसके बाद मुँह हटा लिया। फिर उन लोगों ने लाख चुमकारा मगर वो उधर मुतवज्जा भी नहीं हुई और होती कैसे? वो तो बेगम के यहां के बचे खुचे मुरग्गन खानों पर पली थी। इस वक़्त भी पेट उसी से भरा था।

    अब खैरातन सोच में पड़ गई कि आख़िर आटे का मस्रफ़ क्या हो। बेटी ने तजवीज़ पेश की,

    दुलारे की नज़र उतार कर चौराहे पर डाल दो।

    ये तजवीज़ माक़ूल थी। अगर आध् सेर तक आटा होता तो इस पर ज़रूर अमल किया जाता मगर एक दम से ढाई सेर आटा इस तरह फेंकने पर खैरातन के दिल ने गवाही नहीं दी।

    रात को जब खैरातन काम काज से वापस आई और इत्मिनान से खाना खा कर लेटी तो ये मसला उठा कि आटे का क्या हो। दोस्तों और अज़ीज़ों की फ़हरिस्त दुहराई मगर कोई काम आता शख़्स नज़र आया। सुबह एक फ़क़ीर ने सदा लगाई। खैरातन ने मौक़ा ग़नीमत जाना और फ़ौरन पाव भर आटा निकाल कर भीक देने लगी। फ़क़ीर था शहर का, आटा देखकर बोला,

    माई, फ़क़ीर को ख़राब चीज़ दिया करो। अल्लाह भला करे।

    ये कह कर चलता हुआ। खैरातन आटा लिए बड़बड़ाती अंदर आई।

    मुए मोटे फ़क़ीर। भीक मांगने चले हैं।

    अब फिर वही मसला। आटे का क्या हो? सह पहर को एक औरत दो बच्चों को साथ लिए उनके घर में आई और उसने अपनी कथा यूं सुनाई,

    मैं क्वेटा की रहने वाली हूँ। ज़लज़ले में मेरा सब कुछ तबाह हो गया। मेरे बाग़ थे। बड़े बड़े मकानात थे। शौहर और लड़के थे मगर सब तबाह हो गए और मैं दुखिया दर बदर घूम रही हूँ।

    खैरातन को और उसकी बेटी को उन तीनों के हाल पर बड़ा तरस आया और सब आटा उठा कर यकमुश्त उन लोगों को दे दिया। औरत ग़रीब उन आदमियों से ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो इतना आटा पाकर मुतअज्जिब हुई मगर औरत थी। इन औरतों के ख़ुलूस में उसको शक हुआ। ज़रा दूर, गली में जा कर उसने पोटली खोली और जब हक़ीक़त मालूम हुई तो ख़ूब बड़ बड़ाई, कोसने दिये और आटा गली में डाल कर चलती हुई। उसको ख़राब आटे की क्या परवाह होती? उसकी जेब में आज की तहसील के रुपये खनक रहे थे।

    शाम के वक़्त मुन्नी मौला का इंतिज़ार कर रही थी और बब्बू उसके कंधे से लगा रें रें कर रहा था।

    अम्मां भूक लगी है, अम्मां भूक लगी है।

    मुन्नी, दोपहर को तुम्हें और मन्नु को बराबर की टिकियां दी थीं। देखो वो कहाँ रोता है।

    मन्नु एक लाल कन्कव्वे का फटा काग़ज़ सर पर लपेटे एक लकड़ी हाथ में लिये सिपाही बना टहल रहाथा। ये सुनकर बोला,

    अम्मां कल और कम देना। तब भी हम नहीं रोएँगे।

    मुन्नी, अब बता बब्बू। वो देखो कितना अच्छा लड़का है।

    बब्बू ग़ैरत में कर ख़ामोश हो गया मगर थोड़ी देर के बाद फिर वैसी ही रें रें करने लगा। अब मुन्नी कहने लगी,

    रो नहीं। देखो, तुम्हारे अब्बा आते होंगे और तुम्हारे लिए चीज़ लाते होंगे।

    इतने में मौला आटे का पोटला लिए कोठड़ी में दाख़िल हुआ। मुन्नी ने पोटला खोला और देखकर हैरत से बोली,

    गेहूँ का आटा... कहाँ मिला?

    जब से मौला बीमार था उन लोगों ने गेहूँ की रोटी नहीं खाई थी। उसे देखकर सब ख़ुश हो गए।

    मौला, मिल गया। देखो कितना है?

    मुन्नी दौड़ कर कहीं से तराज़ू मांग लाई और आटा तौलने के लिए बैठी। एक सेर तौला और उसको एक कपड़े में रख दिया फिर दूसरी बार तराज़ू भरा। नतीजा देखने को सब इंतिहाई ज़ौक़-ओ-शौक़ से मुंतज़िर थे जैसे लड़के स्कूल में इम्तिहान का नतीजा सुनने के। आख़िर मुन्नी बोली,

    सवा दो सेर से कम होगा। कितना अच्छा आटा है, चल छोकरी। देख इसके घुन चुन। पहले चराग़ जला, अंधेरा बहुत है।

    एक लड़की ने दौड़ कर एक मैली सी लालटैन उठा कर जलाई और फिर दोनों बैठ कर घुन चुनने लगीं। दोनों छोटे लड़के गुल मचाने लगे।

    गेहूँ का आटा... गेहूँ का आटा।

    मुन्नी थोड़ी देर चुप रही, फिर चिल्ला कर बोली,

    चुप रहो कम बख़्तो, कान फाड़े डालते हो।

    इसके बाद ख़ामोशी तारी हो गई। थोड़ी देर तक छोटी लड़की के खाँसने की आवाज़ या बड़ी लड़की के बदन खुजलाने की खुरखुर के सिवा कोई आवाज़ आई। पाँच मिनट बाद मुन्नी ने हुक्म सुनाया,

    बस अब साफ़ हो गया। आधा आटा कल के लिए रख दो।

    मौला, अब रखोगी क्या। आज ही पका लो। सब जी भर के खा लें।

    दोनों लड़के, हाँ, हाँ... मेरी अम्मां।

    मुन्नी आटा गूँधने लगी। आटे में अब भी घुन मौजूद थे। उन्हें देखकर उसको कुछ शक हुआ। उसने आटा निकाल कर चखा फिर ज़रा मुँह बना कर बोली,

    नमक डाल कर पकाने वाला है। दो पैसे का तेल ले आओ तो आज पूरियां पकें। दो पैसे के आलू भी ले आओ... अरे लड़कू, ज़रा जा कर बफ़ाती के यहां से कड़ाही तो लाना।

    दोनों लड़के बेताबाना कड़ाही लेने दौड़े और उनके पीछे छोटी लड़की चली। मौला बनिए के यहां सामान ख़रीदने गया। ज़रा देर में लड़की कड़ाही लेकर पहुंची और पीछे पीछे दोनों लड़के चीख़ते हुए,

    हम ले जाऐंगे। हम ले जाऐंगे।

    मुन्नी ने कोठड़ी के बाहर निकल कर कड़ाही मांजी। मौला लकड़ी वग़ैरा लेकर आया। लड़कियों ने आग बनाई। सब लड़के चूल्हा घेर कर बैठे और कड़ाही चढ़ाई गई। मुन्नी ने एक मिट्टी की रकाबी में एक बड़ी सी रोटी बनाई। कड़ाही में दो क़तरे तेल डाला। जब वो कड़ कढ़ाने लगा तो उसने रोटी डाल दी। वो चर से बोली। तेल की बू कोठड़ी में फैल गई। लड़के खाँसने लगे। पूरियां पकते देखकर सब के चेहरों पर बहाली गई।

    मन्नू, हाहा। कैसी अच्छी ख़ुशबू निकली।

    मुन्नी ने रोटी दूसरी तरफ़ उल्टी।

    मन्नू, कैसी लाल लाल। अम्मां ये हम खाएँगे।

    बब्बू, नहीं हम, हम।

    मुन्नी ने पूरी उतारी, फिर कड़ाही में दो क़तरे टपकाए और दूसरी पूरी डाल दी। इसी तरह उसने एक घंटे में धीमी धीमी आँच में सब पूरियां निकाल लीं। खाने में बहुत देर हो गई थी मगर ख़ुशी में किसी को महसूस नहीं हुआ। पूरियां पका कर मुन्नी चिल्लाई,

    अरे आलू लाओ, आलू लाओ। किसी ने अभी तक काटे ही नहीं, मैं कहती हूँ ये छोकरिया किसी काम की नहीं। सब खड़ी तमाशा देख रही हैं।

    जल्दी जल्दी आलू के पतले पतले क़त्ले काटे गए और फिर कड़ाही में पकने के लिए चढ़ा दिये गए। ये इंतिज़ार बेशक खल गया। सब ख़ामोश बैठे चूल्हे को ताक रहे थे। सिर्फ़ खांसी की आवाज़ ख़ामोशी तोड़ देती थी। आख़िर आलू तैयार हो गए। तैयार क्या हो गए ज़रा मुलायम पड़ गए। मुन्नी ने मिट्टी की रकाबियॉं निकालीं और सब में दो दो पूरियां और उन पर थोड़े थोड़े आलू रखकर सब के सामने बढ़ा दिये। अब जवान लोगों ने ख़याल किया तो बब्बू सो रहा था।

    मुन्नी, बब्बू उठ, उठ, देख पूरियां तैयार हो गईं।

    लड़कियां, बब्बू, बब्बू।

    बब्बू आँखें मलता हुआ उठा और रोने की नीयत से पूरा मुँह खोल कर एक चीख़ लगाई मगर अभी चीख़ पूरी नहीं हुई थी कि उसकी निगाह पूरियों पर पड़ गई जिनको देखकर रोना भूल गया। सब हंस हंसकर पूरियां खाने लगे।

    मन्नू, अहाहा। कितने मज़े की हैं।

    छोटी लड़की, अम्मां सालन होता!

    बड़ी लड़की, हाँ और पलाओ मुतंजन होता, गधी।

    फिर ख़ामोशी हो गई। ये लोग ख़ूब मज़े ले-ले कर खा रहे थे जिससे अच्छा-ख़ासा शोर पैदा हो गया था। जब पूरियां ख़त्म हो गईं तो मुमुन्नी ने आधी आधी सब को और दीं और ख़ुद भी ली। अब मौला ने आटा मिलने का क़िस्सा बयान किया। इस पर मुन्नी बोली, ये भी ख़ुदा की देन है। मैं बब्बू से कह रही थी कि आज तुम्हारे अब्बा चीज़ लाते होंगे।

    बब्बू, अम्मां हम गर्मा गर्म पूरी वाले बनेंगे और ख़ूब पूरियां खाएँगे।

    मन्नू, हम सिपाही बनेंगे और सबको पकड़ पकड़ कर जेलख़ाने भेजा करेंगे।

    बब्बू, हम तुमको पूरियां नहीं देंगे।

    मन्नू, हम तुमको ख़ूब पीटेंगे और पकड़ कर थाने में बंद कर देंगे।

    बब्बू, हम... हम तुमको।

    बब्बू की समझ में नहीं आया कि क्या कहे। उसने मन्नू का मुँह चिढ़ा दिया। इस पर मन्नू ने एक घूँसा रसीद किया। मौला ने दोनों को डाँटा।

    कम-बख़्तो! आज तो ख़ूब ठूंस ठूंस कर खाया है, आज तो चुप रहो।

    दोनों ख़ामोश हो गए। मौला बोला,

    ख़ुदा एसा ही रोज़ पेट भर दे।

    जब ये लोग सोने लेटे तो बब्बू बोला,

    अम्मां, आज तो कहानी कहो।

    लड़कियां, हाँ, हाँ... बादशाहज़ादे वाली।

    मुन्नी की भी तबीयत मगन थी। वो कहने लगी,

    एक था बादशाह... हमारा तुम्हारा ख़ुदा बादशाह...

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