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दिल का रोग

MORE BYसुहैल अज़ीमाबादी

    चम्पा नगर सेनिटोरियम। सिसकती हुई रूहों की बस्ती। लरज़ती हुई ज़िंदगियों की दुनिया। मुज़्तरिब और झिलमिलाती हुई शम्मों की अंजुमन। पुरफ़िज़ा मुक़ाम, शादाब दरख़्तों के झुण्ड में लंबा चौड़ा मैदान, मैदान में सब्ज़ घास का नज़रफ़रेब फ़र्श। उनमें लाल रंग की साफ़ सड़कें। ख़ूबसूरत इ’मारतें। लेकिन उन पर गहरी उदासी छाई हुई। जैसे क़ब्रिस्तान का भयानक सन्नाटा।

    शाम के पाँच बजे सेनिटोरियम की घंटी बजी, मुरझाई हुई ज़िंदगियों ने करवट ली। जिन मरीज़ों को शाम के वक़्त टहलने की हिदायत थी, वो अपने अपने वार्डों से निकले और जिधर दिल चाहा टहलने चले गए। एक नौजवान रेशमी क़मीस और ऊनी स्वेटर पहने अपने वार्ड से निकला और आहिस्ता-आहिस्ता ज़नाना वार्ड की तरफ़ रवाना हुआ। उसकी मुज़्महिल जवानी से तो इतना मा’लूम हो रहा था कि वो कभी ताक़तवर और ख़ूबसूरत नौजवान था। उसके चेहरे पर उदासी और गहरी संजीदगी थी, वो सर झुकाए हुए जा रहा था जैसे किसी गहरे सोच में हो।

    नौजवान जैसे ही ज़नाना वार्ड के पास पहुंचा एक नौजवान लड़की ने उसका इस्तिक़बाल करते हुए मुस्कुरा कर कहा, “क्या सोच रहे हो चन्दर?”

    चन्दर ने चौंक कर सर उठाया और ज़रा खिसयाना सा हो कर बोला।

    “तुम्हारे ही पास रहा था”।

    लड़की हल्का सा क़हक़ा लगा कर बोली।

    “कहाँ खोए हुए हो?”

    चन्दर ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा।

    “नहीं तो”

    लड़की बोली।

    “शायद तुम कुछ सोच रहे थे चन्दर!”

    “हाँ!” चन्दर ने जवाब दिया। “सोच रहा था कि इस उदास और बेमज़ा ज़िंदगी का क्या फ़ायदा? श्यामा तुम्हीं बताओ कि इस ज़िंदगी में कौन सी दिलचस्पी बाक़ी रह गई है, जो इसकी हिफ़ाज़त के लिए ज़िंदगी को मौत से बदतर बनाया जा रहा है”।

    चन्दर चुप हो गया, उसने जवाब के इंतिज़ार में अपनी नज़रें श्यामा के होंटों पर जमा दीं। जैसे वो जल्द से जल्द जवाब चाहता था।

    श्यामा की उम्र सत्रह साल होगी। उसका फीका सफ़ेद चेहरा, हलक़ों में घिरी हुई बड़ी बड़ी आँखें, पतले होंट और मुर्झाइ हुई जवानी को देखकर आदमी आसानी के साथ कह सकता था कि वो भी कभी ख़ूबसूरत होगी। अब भी उसके चेहरे पर हुस्न का अ’क्स इस तरह मौजूद था जैसे ख़िज़ाँ-ज़दा गुलशन में बहार की परगंदा कैफ़ियतें।

    दोनों आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़े, चंद क़दम चल कर श्यामा बोली, “किधर चलोगे चन्दर?”

    “वो सामने टीकरी पर”। चन्दर ने उंगली से इशारा करते हुए कहा।

    दोनों उसी तरफ़ बढ़े। सामने टीकरी का मंज़र निहायत ही ख़ुशनुमा था, ऊंची ज़मीन पर हरे-भरे दरख़्तों का एक क़ुदरती बाग़ सा था जिसके तीन तरफ़ एक छोटी सी नदी बहती थी, नदी के किनारे पर एक क़िस्म की लंबी लंबी घास उगी हुई थी। जिसमें पीले पीले फूल खिले हुए थे। श्यामा ने कहा,

    “चन्दर! आज सर्दी कुछ ज़्यादा मा’लूम होती है”।

    “हाँ!” चन्दर ने जवाब दिया।

    श्यामा ने अपनी शाल को ज़रा सँभाल कर बदन पर डाल लिया। दोनों आगे बढ़ते गए, हर तरफ़ जंगली झाड़ियाँ थीं, बीच में तंग रास्ते पर दोनों सँभाल सँभाल कर क़दम बढ़ाते थे। झाड़ियों में से कभी कभी तीतर और चकोर के बोलने की आवाज़ जाती थी। दोनों चुप थे , रास्ते में एक पुरफ़िज़ा जगह देखकर दोनों बैठ गए। उनके चारों तरफ़ हरी हरी झाड़ियाँ थीं। और जंगली फूलों की ख़ुश्बू। दोनों चुप-चाप बैठे रहे। और इस तरह जैसे एक की दूसरे को ख़बर हो। दोनों बातें करना चाहते थे मगर चुप थे। आख़िर चन्दर ने कहा,

    “श्यामा! मैं कई दिन से सोच रहा हूँ कि मेरी इस बे-लुत्फ़ ज़िंदगी का क्या फ़ायदा? किसलिए इस की हिफ़ाज़त करूँ? सिर्फ सैंकड़ों रुपये सेनिटोरियम को देने के लिए? यही रुपये मेरे अ’ज़ीज़ों के काम सकते हैं। मैं तो इस बे-कैफ़ ज़िंदगी से उकता गया हूँ”।

    श्यामा ने कहा,

    “चन्दर! तुम क्या कह रहे हो? ये बेकार बातें हैं जल्द ही अच्छे हो जाओगे, फिर दुनिया की सारी ख़ुशियां तुम्हारे क़दमों में होंगी”।

    चन्दर ने कहा,

    “मैं बच्चा नहीं हूँ श्यामा, तुम बहलाना चाहती हो। मैं सच्च कहता हूँ, सारा दिन मसहरी में पड़े रहना ताश खेलना और खाना पीना ये कोई ज़िंदगी है? सच्च कहता हूँ मैं अब इस ज़िंदगी से जल्द ही छुटकारा पाना चाहता हूँ”।

    श्यामा ने एक एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देकर कहा।

    “ये बिल्कुल बेकार बातें हैं चन्दर। बल्कि मर्दों की शान के ख़िलाफ़। ख़ौफ़नाक ख़तरों का मुक़ाबला करना ही मर्दों का काम है। सारी फ़िज़ा मुसीबतों और तकलीफों से भरी हुई है लेकिन इससे डर कर जान दे देना तो बुज़दिली है। मर्दानगी तो ये है कि तमाम मुसीबतों और तकलीफों में घिर कर आदमी क़हक़हे लगाए जैसे बहादुर सिपाही मैदान-ए-जंग में जान देता है, जानता है कि मौत सर पर मंडला रही है मगर फिर भी लाशों के ढेर पर खड़ा हो कर हँसता है हर क़दम आगे बढ़ता है और इसी तरह हँसता और क़हक़हे लगाता हुआ ख़ुद भी मर जाता है......”

    चन्दर ने बात काट कर कहा।

    “हर आदमी का ख़्याल अपने मुशाहदात और हिसिय्यात के मातहत बनता है, तुम इतनी दिलेर हो, लेकिन में नहीं हूँ। अब मुझसे रोज़ रोज़ ख़ून थूका नहीं जा सकता। ईलाज हो रहा है। मगर दिल का रोग हर-रोज़ बढ़ता ही जाता है, इससे जल्द ही छुटकारा पाना ज़रूरी है। मेरी ज़िंदगी अ’ज़ाब बन चुकी है। तुम किसी दिन सुन लोगी कि मैंने ख़ुदकुशी कर ली”।

    थोड़ी देर तक चन्दर यास की गहराइयों में डूबा हुआ बातें करता रहा और श्यामा उसे तसल्ली देती रही, लेकिन जब उसकी हसीन आँखों में आँसू पैदा होने लगे तो उसने कहा,

    “चन्दर अब चलना चाहिए शाम हो रही है”।

    वो उठ खड़ी, चन्द्र भी उठा, दोनों सेनिटोरियम की तरफ़ चले, आफ़ताब ग़ुरूब हो चुका था। पूरब में तारीकी और पच्छिम में हल्की सी सुर्ख़ी फैलती जा रही थी।

    (२)

    चन्दर और श्यामा एक ही शहर के रहने वाले थे। एक ही कालेज में पढ़ते थे, दोनों के बाप शहर के मशहूर वकील और गहरे दोस्त थे, बचपन से एक दूसरे के घर आया जाया करते थे, किसी क़िस्म की ग़ैरत नहीं थी। मगर दोनों शर्मीले थे।

    श्यामा ने एफ़.ए. पास किया तो उसके बाप ने एक जगह उसके ब्याह की बात पक्की कर ली। लड़का वकील था, घर भी अच्छा था, उसके बाप को बड़ी ख़ुशी थी। लेकिन श्यामा इस ख़बर को सुनते ही बदहवास सी हो गई। वो सोचते सोचते थक गई। आख़िर वो सीधी चन्दर के घर पहुंची ताकि सारी बातें कह कर दिल का बोझ हल्का करे मगर चन्दर घर पर था. दूसरे दिन श्यामा फिर शाम के वक़्त चन्दर के घर आई। चन्दर उस वक़्त बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। वो आईने के सामने खड़ा बाल सँवार रहा था। श्यामा आकर खडी हो गई। आईने में चन्दर ने उसका अ’क्स देख लिया।लेकिन

    ख़ामोश रहा। पहले चन्दर तपाक से उसका इस्तिक़बाल किया करता था। फ़ौरन बातें शुरू कर देता था, लेकिन आज उसने पलट कर भी ना देखा। श्यामा को सख़्त हैरत थी, चन्दर ख़ामोशी से बाल सँवारता रहा।

    श्यामा ने कहा, “चन्दर! मैं आई हूँ”।

    चन्दर ने बेपर्वाई के साथ कंघी फेरते हुए कहा, “हूँ!”

    श्यामा ने कहा, “मैं कल भी आई थी चन्दर!”

    “हाँ मुझे मालूम है। माता जी ने बताया था”। चन्दर ने जवाब दिया।

    बाल संवारने के बाद चन्दर ग़ुस्ल-ख़ाने में घस गया। श्यामा एक कुर्सी के सहारे खड़ी रही। ग़ुस्ल-ख़ाने में जाने का क्या मतलब। आज उसके तेवर बिलकुल बदले हुए हैं। पहले वो आती थी तो उसे देखकर वो फूल की तरह खिल जाता था। कभी अपने मज़ामीन सुनाता कभी किसी बड़े मुसन्निफ़ की तस्नीफ़ पर बहस छेड़ देता। एक दिन चन्दर ने ख़ुद ही फ़लसफ़ा मुहब्बत पर बहस छेड़ दी थी और उसके बहस में हिस्सा ना लेने पर भी बहस को ख़ुद ही बढ़ाता जाता था और आख़िर कहने लगा।

    “श्यामा में एक नॉवेल लिखना चाहता हूँ, जिसमें मुहब्बत के फ़लसफ़े पर ऐसी बहस करना चाहता हूँ कि किसी मुसन्निफ़ ने की हो”। इसका जवाब उसने दिया।

    “तो फिर वो फ़लसफ़े की किताब होगी, नॉवेल नहीं,” इस पर एक दूसरी बहस छिड़ गई।

    ग़ुस्ल-ख़ाने से पानी बहने की आवाज़ बराबर रही थी, उकता कर श्यामा ने चाहा कि आगे जाकर आवाज़ दे। आगे बढ़ी तो मेज़ पर एक लिफ़ाफ़ा पड़ा मिला। ये चन्दर के बाप का ख़त था, श्यामा ने उठा लिया।

    “चन्दर! तुम्हारे ब्याह की बात शाम बाबू की बेटी से हो रही है, समझो कि पक्की हो चुकी है, सिर्फ तुम्हारी हाँ की देर है। तुम्हें इस मसले में कामिल आज़ादी देता हूँ, लड़की को तुम ख़ुद भी जानते हो यक़ीन है कि तुम इस बात को नापसंद करोगे”।

    श्यामा ने ख़त को पढ़ने के बाद लिफ़ाफ़े में बंद करके उसी तरह रख दिया और अपनी जगह वापस गई, चन्दर तौलिया से मुँह हाथ साफ़ करता हुआ ग़ुस्ल-ख़ाने से निकला। उसके चेहरे पर उदासी थी और आँखों में आँसुओं की चमक चन्दर ने कोशिश करके अपनी नज़रों को श्यामा की तरफ़ से फेरे रखा। उसकी तरफ़ ज़रा भी मुतवज्जा ना हुआ, श्यामा बोली,

    “चन्दर! मैं कल भी आई थी”।

    “हाँ माता जी से मा'लूम हुआ था”। चन्दर ने जवाब दिया।

    श्यामा फिर चुप हो गई, सोचने लगी, अब क्या कहूं, देर तक यही सोचती रही मगर उसकी समझ में कुछ भी आया तो जी कड़ा कर के बोली, “चन्दर मेरा ब्याह होने वाला है”।

    चन्दर ने उसी बेपरवाई के साथ जवाब दिया, “मुझे मा’लूम है”।

    श्यामा को ऐसे रूखे जवाब की उम्मीद थी। वो चकरा सी गई, उसको यक़ीन हो गया, कि चन्दर अपनी ब्याह की ख़ुशी में फूला नहीं समाता। शाम बाबू दौलतमंद आदमी हैं, उनकी बेटी सुभद्रा ख़ूबसूरत और पढ़ी लिखी है। पसंद होने की कोई वजह ही नहीं, थोडी देर के बा’द कहने लगी,

    “और सुभद्रा देवी कब आयेंगी ?”

    “कभी ही जाएगी”।

    चन्दर ने जवाब दिया, श्यामा के दिल पर चोट सी लगी, उसको ऐसे जवाब की हरगिज़ उम्मीद थी वो तिलमिला सी गई।

    “तो मैं जा रही हूँ चन्दर”----

    श्यामा के दिल को एक झटका सा लगा, वो वापस जाने के लिए पलटी, लेकिन दरवाज़े के पास आकर फिर वो रुक गई, चन्दर टेनिस रैकेट हाथ में लिए उसके पास से कतरा कर बाहर चला गया। उसकी तरफ़ देखा तक नहीं।

    श्यामा का दिल बैठ गया, सर चकराने लगा, क़रीब था कि बेहोश हो कर गिर पड़े, मगर कोशिश कर के उसने अपने को सँभाला। महीनों से अपने ब्याह के मुता’ल्लिक़ सुन सुनकर उसका दिल और दिमाग़ बेक़ाबू हो रहा था चन्दर के जवाब ने इसपर आख़िर और भारी चोट लगाई।

    दूसरे ही दिन मा’लूम हुआ कि श्यामा को सख़्त बुख़ार है। ब्याह के थोड़े ही दिन बाक़ी थे, तारीख़ बढ़ गई मगर श्यामा अच्छी हुई, बुख़ार बराबर रहने लगा मुसलसल चार महीने बुख़ार में मुब्तला रहने के बाद डाक्टरों ने दिक़ तजवीज़ की और उनकी हिदायत से वो सेनिटोरियम भेज दी गई।

    चन्दर की ज़िंदगी बिल्कुल बदल चुकी थी, ज़्यादा-तर वो अपने कमरे ही में रहता, श्यामा के घर और उसके माँ बाप से तो उसको नफ़रत हो गई थी, श्यामा चार महीने तक बुख़ार में जलती रही, लेकिन वो उसको देखने के लिए भी गया, पहले अगर उसको मा’मूली सा बुख़ार भी हो जाता था, तो दिन में चार मर्तबा उसको देखने जाया करता था। उसकी माँ बराबर कहती कि जाकर देख आओ, मगर चन्दर गया, श्यामा के घर वालों को भी हैरत थी कि चन्दर क्यों नहीं आता।

    जिस दिन श्यामा सेनिटोरियम जा रही थी, सब जाने-पहचाने लोग उसको रुख़्सत करने आए, लेकिन चन्दर गया, चन्दर की ज़िंदगी में ऐसी तब्दीली देखकर उसकी माँ बहुत घबराइ, वो हज़ार पूछती कि बात क्या है मगर वो कुछ भी जवाब देता।

    श्यामा के चले जाने के चंद दिनों बाद चन्दर के मुँह से भी यकायक ख़ून गया, डक्टरों ने दिक़ तजवीज़ की और कहा कि मर्ज़ पुराना है, ई’लाज नहीं हुआ, इसलिए बढ़ गया, मगर ई’लाज होता कैसे किसी को मा’लूम ही था कि चन्दर बीमार है। चन्दर ने किसी से कुछ कहा ही नहीं उसको सख़्त बुख़ार होता तो हाथ में टेनिस रैकेट लेकर बाहर चला जाता, तबीयत अच्छी रहती तो खाना खा लेता, वर्ना कह देता कि होटल में ज़्यादा नाशता कर लिया है, सिवाए कमरे में बैठे रहने के और कोई बात उसने ज़ाहिर होने दी, जब माँ कमरे में आती तो कोई किताब पढ़ने लगता। कुछ पूछती तो कह देता कि कुछ अच्छी किताबें मिल गई हैं। ख़त्म करके जल्दी वापस कर देना है। वो उसके शौक़ को जानती थी, उसका जवाब सुनकर चुप हो जाती।

    मुँह से ख़ून आया तो मर्ज़ का पता चला। और चन्दर भी सेनिटोरियम भेज दिया गया।

    (३)

    दूसरे दिन फिर चन्दर अपने वार्ड से निकला। श्यामा पहले ही से उसका इंतिज़ार कर रही थी, दोनों फिर टीकरी की तरफ़ रवाना हुए। श्यामा चन्दर का चहरा देख रही थी। वो अपनी नज़रें चन्दर के दिल की इंतिहाई गहराइयों में डाल कर देखना चाहती थी कि वहां क्या है। आख़िर श्यामा ने पूछा,

    “चन्दर! सुभद्रा की क्या ख़बर है?”

    उसके अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में तंज़ था, सुभद्रा की शादी हो चुकी थी, चन्दर ने जवाब दिया,

    “जहन्नुम में गई”।

    श्यामा को उसके जवाब से ख़ुशी हुई वो कुछ और बोलती मगर चन्दर के जवाब से लुत्फ़ उठाने लगी।

    चन्दर ने उसके इस सवाल को तंज़ समझा, चन्दर ने कहा, “मिस्टर मुरारी लाल किस हाल में हैं?”

    “सुभद्रा के साथ वो भी गए”।

    सुभद्रा की शादी मुरारी लाल से हो गई थी, पहले मुरारी लाल के ब्याह की बात श्यामा से हुई थी मगर दिक़ के मर्ज़ ने बात ख़त्म कर दी, चन्दर भी बीमार हो गया, आख़िर क़िस्मत ने मुरारी लाल को श्यामा से और सुभद्रा को चन्दर से छीन कर मिला दिया।

    कुछ दूर जाने के बाद श्यामा ने कहा, “मैं थक गई हूँ चन्दर बैठ जाओ”।

    दोनों एक जगह बैठ गए, जंगली झाड़ियों पर अमर लता की बेल फैली हुई थी, एक नन्ही सी चिड़िया इस पर फुदकती फिर रही थी। चारों तरफ़ जंगली फूलों की भीनी और नशीली ख़ुशबू फैल रही थी, वहां से एक मील दूर एक झरना बहता था। उससे पानी गिरने की आवाज़ बराबर रही थी। श्यामा ने कहा,

    “चन्दर! आजकल में एक अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ रही हूँ, ख़त्म कर के दूँगी, ज़रूर पढ़ना”। चन्दर ने जवाब दिया,

    “श्यामा ! मैं आजकल एक नॉवेल लिख रहा हूँ, ख़त्म कर के दूँगा ज़रूर पढ़ना”।

    श्यामा ने मुस्कुरा कर कहा, “वही मुहब्बत की फ़लसफ़े वाली किताब होगी। तुम नॉवेल तो ख़्वाह-मख़ाह लिख रहे हो, क्यों वही है ना?”

    चन्दर ने कहा! “वो नहीं श्यामा! ये सिर्फ़ नॉवेल होगा, एक ख़ूनीं दास्तान, एक नौजवान की ख़ून और आँसुओं में डूबी हुई कहानी, रूह की तड़प और दिल के ज़ख़्मों की तस्वीर, मुहब्बत के अलमनाक पहलू का नफ़सियाती मुताला’, अब फ़लसफ़ा बाक़ी नहीं रह सकता, उसमें सिर्फ एहसास होगा श्यामा!”

    श्यामा ने उसका चेहरा ग़ौर से देखा और कहा, “प्लाट क्या है चन्दर?”

    चन्दर ने कहा, “प्लाट क्या होगा, वही, एक नौजवान दोशीज़ा से मुहब्बत करता है, मगर मा’लूम नहीं कि वो दोशीज़ा भी नौजवान को चाहती है या नहीं। दोशीज़ा की शादी होने वाली होती है, तो नौजवान अफ़्सुर्दादिल हो कर उससे मिलना-जुलना तर्क कर देता है, जाने दोशीज़ा उसके बारे में क्या ख़्याल करती है, मगर वो यकायक बीमार हो जाती है, नौजवान भी बीमार हो जाता है, दोनों एक ही मर्ज़ के शिकार होते हैं, दोनों में फिर मुलाक़ात होती है, आख़िरी मंज़िल के क़रीब, दोनों रोज़ मिलते हैं, फिर एहसासात जाग पड़ते हैं, नौजवान आख़िर अपनी अफ़्सुर्दा ज़िंदगी से तंग आकर खुदकुशी कर लेता है”।

    श्यामा ख़ामोश हो गई। देर तक दोनों चुप रहे।

    “हाँ प्लाट तो अच्छा है, लेकिन ना-मुकम्मल है, और ये इसीलिए कि तुम फ़लसफ़ी हो, काश तुम उस दोशीज़ा की आँखों में मुहब्बत के आँसुओं की झलक देख सकते, तो इस नॉवेल का प्लाट मुकम्मल हो जाता। तुम्हें देखना चाहिए कि दोशीज़ा भी नौजवान को उससे मुहब्बत नहीं रही, मगर उसका अंजाम क्या हो? ईश्वर ही बेहतर जानता है”।

    चन्दर सन्नाटे में गया, उसकी निगाहें श्यामा के मुर्दनी चेहरे पर जम गईं, वो कुछ बोलना चाहता था, लेकिन बोल सकता था, आख़िर श्यामा ने पूछा, “बोलो चन्द्र अब क्या होगा?”

    “वापस चलो। अब वक़्त हो गया”। चन्दर मुश्किल से इतना कह सका।

    दोनों उठ खड़े हुए, चन्दर के पांव लड़खड़ा गए। वो सर थाम कर बैठ गया, खांसी शुरू हुई और उसने ख़ून थूक दिया, और देर तक कलेजा थाम कर थूकता रहा। श्यामा घबरा गई, चन्दर की तबीयत ज़रा संभली, तो बड़ी मुश्किल से सेनिटोरियम तक वापस आया।

    दूसरे दिन से चन्दर फिर बिस्तर पर पड़ गया, और उसे टहलने की मुमानिअ’त हो गई, रोज़ रोज़ ख़ून आने लगा, उसकी ज़िंदगी तेज़ हवा में जलते हुए चिराग़ की तरह झिलमिलाने लगी।

    श्यामा हर-रोज़ चन्दर को देखने आती, देर तक बैठ कर उससे बातें करती, एक दिन चन्दर ने उससे कहा, “श्यामा अब मैं बच नहीं सकता, मुझे इसका यक़ीन है”।

    श्यामा ने कहा, “बेकार बातें हैं चन्दर! ईश्वर पर भरोसा करो”।

    “ईश्वर की यही मर्ज़ी है श्यामा,” चन्द्र ने कहा और करवट बदल कर चुप हो गया?

    दूसरी सुबह मा’लूम हुआ कि चन्दर मर चुका है, श्यामा उसको देखने के लिए ही आरही थी, कि उस को ये ख़बर मिली, वो बेहोश हो कर गिर पड़ी, सर और सीने में सख़्त चोट आई, मुँह से ख़ून आया और आता ही रहा, देर के बाद होश आया, उसके बाद ऐसी ग़शी तारी हुई कि फिर कभी होश आया।

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