दो खिड़कियाँ
बक़ाई साहब ने कई मर्तबा आँखें मलकर देखा लेकिन उस आदमी ने कफ़न ही पहना हुआ था और वो बहुत रुक रुक कर हरकत कर रहा था जैसे कोई फ़िल्मी सीन अटक अटक कर चल रहा हो।
ये देख कर उनका गला ख़ुश्क हो गया लेकिन वो फिर भी खिड़की के सामने खड़े रहे
सुना ये है कि खिड़की वाले इस वाक़े से पहले बक़ाई साहब कराची में रहते थे लेकिन जब नव्वे की दहाई में कराची के हालात मख़दूश हुए और जब बानवे में कराची अपरेशन शुरू हो गया तो उनका कारोबार भी उस की लपेट में आ गया और ये बोरिया बिस्तर समेट कर लाहौर चले आए और लिबर्टी में सिले सिलाये कपड़ों का कारोबार शुरू किया और दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करते चले गए।इस तरह लाहौर आ कर एक तरह से कराची के हंगामों से तो बच निकले लेकिन यहाँ मॉडल टाउन के जिस घर में रिहाइश इख़तियार की वहीं की एक खिड़की से ना बच सके।यूँ कहें तो बेहतर होगा कि खिड़की एक तरह से उनके लिए सुहान-ए-रूह बन गई।
उनके मुताल्लिक़ आप ये वसूक़ से कह सकते हैं कि वो अपनी नौईयत के वाहिद आदमी थे जिन पर ज़िंदगी में कभी भी कोई सख़्ती नहीं गुज़री।। वो मुँह में सोने का चमचा लेकर पैदा हुए थे और तीन साल के थे कि वालदैन ने बंबई से कराची हिज्रत की। यहाँ आकर मैमन बिरादरी के साथ मिलकर कारोबार खड़ा किया और जाते हुए सब कुछ बक़ाई साहब के लिए छोड़ गए। उन्होंने सारी उम्र शादी नहीं की क्योंकि उनके ब-क़ौल वो इस किस्म के बखेड़ों में उलझना नहीं चाहते थे लेकिन फिर लाहौर के घर की वो खिड़की उनसे बुरी तरह से उलझ गई।
बक़ाई साहब पहली नज़र में तराश-ख़राश से बड़े ख़ुशपोश क़िस्म के आदमी मालूम होते थे। अगरचे उनकी उम्र तक़रीबन पच्चास के क़रीब थी लेकिन वो ख़ासे जवान दिखाई देते थे। हमेशा मुकम्मल सूट ज़ेब-ए-तन करते थे।।बग़ैर सिलवटों के।। चमकते जूते पहनते थे और हमेशा जदीद तरीन गाड़ी उनके ज़ेर-ए-इस्तेमाल रहती थी।
जिस घर में ये खिड़की थी वो बलॉक सी में था और चूँकि सर्कुलर रोड के क़रीब था इसलिए मॉडल टाउन बाग़ से भी दूर नहीं था। आज कल की तरह उन दिनों भी मॉडल टाउन ख़ासा ग़नजान आबाद था।
जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि कराची के हालात मख़दूश थे लेकिन उस के बरअकस मुल्क के दूसरे हिस्सों में, ख़ुसूसन लाहौर में, ख़ासा अमन था। हाँ अलबत्ता ये है कि चूँकि पंजाब में हुकूमत मुस्लिम लीग की थी और मर्कज़ में बी-बी मुहतरमा की, तो फ़िज़ा में एक क़िस्म का सयासी तनाव ज़रूर था अगरचे ये सिर्फ़ ज़बानी कलामी ही बात थी और इस का कारोबार और मईशत पर बहुत कम असर था
लाहौर में कारोबारी सरगर्मीयाँ ख़ासी उरूज़ पर थीं और बड़े तिजारती मराकज़ जैसे लिबर्टी, फ़ौर ट्रेस और माल रोड पर खोए से खोह छिलता था।
खिड़की वाला बंगला अगरचे बहुत बड़ा नहीं था लेकिन इस का लॉन बहुत वसीअ था। बक़ाई साहब को बड़े बंगले’ की ज़रूरत भी नहीं थी, अकेले आदमी थे। उनका नौकर जो बंगले के पिछले हिस्से में ख़िदमत गारों के कमरे में अपनी बीवी के साथ रहता था, एक नेक और ईमानदार आदमी था और अगरचे सफ़ाई वग़ैरा में बहुत मुस्तइद था लेकिन बक़ाई साहब ने उस को सख़्ती से मना किया था कि वो इस खिड़की को बिल्कुल ना छेड़े, यहाँ तक कि उसे कपड़े से भी साफ़ ना करे।
इस का नतीजा ये हुआ कि रफ़्ता-रफ़्ता खिड़की के दोनों अतराफ़ मकड़ी के, पेच दर पेच, ताव खाते, जाले बन गए जिनमें मुख़्तलिफ़ जसामत की मक्खियाँ, लुआब से बने नफ़ीस तारों में लिपटी रहतीं और तनोमंद और ख़ुश ख़वारिक़ क़िस्म की फ़र्बा मकड़ियाँ मोटी और गोल गोल आँखें खोले एक चौकस गल्ला-बान की तरह उन जालों की निगरानी पर हमावक़त मामूर रहती थीं।
अब आप ये ना समझ बैठें कि बक़ाई साहब सफ़ाई पसंद नहीं थे, नहीं जनाब वो बड़े नफ़ीस क़िस्म के इन्सान थे। आप खिड़की को अगर एक तरफ़ रखें तवाँ का बाक़ी घर और दफ़्तर तो वो सफ़ाई का नमूना थे। ख़ुसूसन दफ़्तर की खिड़की तो ना सिर्फ़ साफ़ और चमकीली थी बल्कि उन्होंने तो विलायत से बाक़ायदा दोहरा शीशा मंगवा कर उसे सुर्ख़ी माइल भूरे रंग के क़ीमती चोबी चौखटे में नस्ब कराया था और उसे रोज़ाना बिलानाग़ा साफ़ करवाते थे और बाक़ायदा शहादत की उंगली से रोज़ाना कई कई मर्तबा हल्का मस करके देखते थे कि कहीं गर्द तो नहीं बैठी।
दफ़्तर की इस क़ीमती और निसबतन चौड़ी खिड़की से बाज़ार में ग्राहकों की आमद-ओं-रफ़त देखी जा सकती थी और उनके पहनावे के रुजहानात पर नज़र भी रखी जा सकती थी जो बक़ाई साहब के कारोबार के लिए बहुत ज़रूरी बात थी। वो इस तरह कि बक़ाई साहब लोगों के पहनावे का मीलान देखकर, जिस क़िस्म के लिबास की तरवीज चाहते उसे इश्तिहारी मुहिम के ज़रीये अवाम में मक़बूल करवा देते
शायद यही वजह थी कि उनका पी टीवी लाहौर में काफ़ी असर-ओं-रोसोख़् था और अक्सर अदाकारों, अदाकाराओं और प्रोडयूसरों के साथ उठना बैठना रहता था। ये सब सिर्फ कारोबार की तरवीज के लिए था वर्ना जैसा कि मैं बता चुका हूँ उनको समाजी ताल्लुक़ात, माफ़ कीजिएगा, ग़ैर ज़रूरी समाजी और ख़ुसूसन किसी भी क़िस्म के जिन्सी ताल्लुक़ात में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
अब ये नहीं पता ऐसा क्यों था लेकिन सुना ये है और दरोग़ बर गर्दन रावी, कि नाज़िमाआबाद में एक मैडीकल की तालिबा या किसी डाक्टरनी से उनका कुछ बहुत ही संजीदा क़िस्म का मआशक़ा चला था जिसका इख़तताम इस बात पर हुआ कि लड़की ने उन्हें धुतकार कर किसी मैमन सेठ से शादी कर ली। ये भी नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन ये ज़रूर सुना है कि ऐन निकाह के वक़्त महर के लेन-देन पर कुछ बदमज़गी हुई और लड़की वालों ने साफ़ इनकार कर दिया।
इस का नतीजा ये निकला कि वो दिन है और आज का दिन है कभी किसी लड़की या जिन्सी मौज़ू पर बात ही नहीं की। सबसे मतानत से मिलते और इंतिहाई तवाज़ो से पेश आते। दफ़्तर में मद्द-ए-मुक़ाबिल चाहे मर्द हो या औरत, इज़्ज़त और तकरीम के साथ पर ख़ुलूस-ए-गुफ़्तगु करते।
बक़ाई साहब शुरू शुरू में जब लाहौर आए तो बातचीत में इंतिहाई एहतियात बरतते थे, आहिस्ता बोलते थे, ज़बान की सेहत के मुताल्लिक़ बहुत हस्सास थे, रोज़मर्रा और मुहावरा इंतिहाई बर-महल और अलफ़ाज़ के तलफ़त और अदायगी का ख़ास ख़्याल रखते थे लेकिन उन्हें रफ़्ता-रफ़्ता ऐसे लगा कि लाहौर में इस बात से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता आप क़मीज़ कहीं या क़मीस, बस आयटम, जिसे पठान लोग दाना भी कहते थे, अच्छा होना चाहीए और यूँ होते होते उनकी ज़बान पर लाहौरी लब-ओं-लहजे की ख़ास पंजाबी छाप आ ही गई, यहाँ तक कि सिक्के को ''ठेपा' और नोट को ''पर्ची''भी कहने लगे।
पंजाबी क्या,पिशावर के ताजिर,जो उनसे माल ख़रीदते थे, उनके लिए तो उन्होंने ''खरे माल' को ''करा माल''तक कहना शुरू किया और यहाँ तक किया कि जब पिशावर के किसी सेठ से बड़ा सौदा हो रहा होता तो उनकी तरह सफ़ैद टोपी भी पहन लेते और कुर्सी से ऊपर चौखटे में, जिसमें एक तस्वीर नजफ़ शरीफ़ की और दूसरी मस्जिद-ए-नबवी की थी मौक़ा की मुनासबत से कभी-कभार नजफ़ शरीफ़ की तस्वीर छुपा भी लेते। इस तरह कभी कभी पानदान दराज़ में ही धरा रहने देते ताकि किसी मुशतरी को पान की मुनासबत से उन पे कराची वाला होने का गुमान ना गुज़रे।
इस की वजह शायद ये थी कि उनके कुछ पठान ख़रीदारों के रिश्तेदार सुहराब गोठ में रहते थे और बक़ाई साहब अपना कारोबार ख़राब नहीं करना चाहते थे। आख़िर को वक़ाई साहब मंझे हुए आदमी थे और ये बारीकियाँ समझते थे तो ही कारोबार में इतनी तरक़्क़ी कर पाए।
अच्छा तस्वीरें उन्होंने ख़ालिस्तन कारोबारी हाजत से लगाई थीं। कहीं आप ये ना समझ बैठें कि बक़ाई साहब ज़ाती ज़िंदगी में मज़हबी आदमी थे। नहीं साहब ये बात तो पक्की है, बक़ाई साहब मज़हबी आदमी हर्गिज़ नहीं थे। तिजारत के मुआमले में अलबत्ता हद दर्जा ईमानदार ज़रूर थे। अपनी अजनास की क़ीमत हमेशा बाज़ार से सस्ती लगाते थे और यूँ कहें तो ग़लत ना होगा कि एक ज़ावीए से तिजारत ही उनके लिए मज़हब का दर्जा रखती थी।
यही वजह थी कि जुमे को छुट्टी बिल्कुल नहीं करते थे क्योंकि उनका सारा माल बाहर के ममालिक की मंडीयों से आता था जो इतवार को बंद रहती थीं चुनाचे ख़ुद भी इतवार ही को छुट्टी करते थे। उनकी दुकानें अलबत्ता सात दिन खुली रहती थीं जहाँ उनका माल धड़ा धड़ बिकता।
मज़हब से याद आया एक दफ़ा हुआ यूँ कि किसी मज़हबी मदरसे के मुंतज़मीन उनसे मिलने आए। उन्होंने हसब-ए-आदत क़ुरान और इस्लाम के बारे में एक तवील ख़ुतबा दिया और अपनी दानिस्त में जब ये समझ बैठे कि लोहा गर्म है तो चंदे की दरख़ास्त कर डाली।
बक़ाई साहब चुप बैठे रहे। ये देखा तो उनके क़ाइद ने अपनी डारही कझाई
“बक़ाई साहब मुस्लमान को इस्लाम के लिए ख़ून देने भी से आर नहीं होना चाहीए, माल तो फिर भी छोटी चीज़ है। अब आप ठहरे मुस्लमान ख़ानदान के नूर-ए-चशम, पक्के मोमिन तो आप अगर सिर्फ दो सौ सफ़ैद शलवार क़मीस इनायत फ़रमा दें तो मदरसे के लड़कों का भला हो जाए गी, क्या ख़्याल है ?” ।
बक़ाई साहब देसी पहनावे का कारोबार तो नहीं करते थे लेकिन उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।
मौलाना साहब अपनी दानिस्त में ये समझ बैठे कि वो कांटा निगल चुके हैं इसलिए उन्होंने बा आवाज़ बुलंद अरबी में कुछ दुआइया कलिमात कहे। बक़ाई साहब ने दुकान के लौंडे को बुला भेजा कि साथ वाली दुकान में कपड़ों का आर्डर दे। वो लड़का भागा भागा गया और हिसाब का मीज़ान अगली दुकान से ला कर उन्हें थमा दिया।
बक़ाई साहब ने सानियों में हिसाब करने वाली मशीन से इस में अपना मुनाफ़ा लगा कर फटाफट मीज़ान उन साहब के सामने मेज़ पर रख दिया।
वो हक्का बका रह गए और बोले।
“क़िबला बक़ाई साहब आप इस नेक काम के पैसे ले रहे हैं? आप जानते हैं ये क़ुरान की तालीम और अहादीस की तरवीज का मुआमला है। बक़ाई साहब इन सफ़ैद कपड़ों में मलबूस तलबा जब पाक कलाम।।।“।
बक़ाई साहब ने भी कच्ची गोलीयाँ नहीं खेलीं थीं, पैंतरा बदला और जज़बात से आरी लहजे में उन्हें मुख़ातब किया।
“मौलवी साहब आप ने क़ुरान और हदीस का ज़िक्र किया तो मै अपने मुनाफ़ा में सिर्फ दस रुपया छोड़ सकता हूँ,यक़ीन करें पूरे बाज़ार में ये क़ीमत नहीं मिलेगी आपको,घूम आएँ” ।
उन्होंने ने मज़ीद कोई बात नहीं की फ़ौरन उठकर बाहर चले आए, चेहरा सुर्ख़, साँस धूँकनी की मानिंद और गर्दन की रगें फूली हुईं, साथ खड़े लौंडे की तरफ़ देखा।
“अम्मां अजीब आदमी है।। इस घामड़ को तो बिल्कुल अंदाज़ा ही नहीं एहसान का, क़ुर्बानी का, ख़ैरात का, सदक़े का। ये अहमक़ हर चीज़ को कारोबार समझता है। अरे पता करो ये झूट-मूट का मुस्लमान तो नहीं। अजीब बेहूदा और बेढंगा आदमी है, हद होती है बदतमीज़ी की।।जहन्नुम में जाएगा” ।
बक़ाई साहब ने भी उनके निकलते साथ ही दफ़्तर के लौंडे को बुलाया।
“ये चंदे वंदे वालों को बाहर ही से हाजी करीम ख़ान की दुकान पर भेज दिया कर।।।“।उन्हें सवाब का ज़्यादा शौक़ है।।ये साले ख़्वाह-मख़ाह यहाँ आ कर अपना और हमारा वक़्त ज़ाएँ करते हैं, कारोबार के उसूलों का तो उन्हें पता नहीं और उठ के चले आते हैं। अरे भाई मुस्लिमा उसूल है कारोबार का कि मंडी पहुंचने तक अजनास पर जो ख़र्चा उठता है इस से आप इसी माल को एक धेला कम पर भी नहीं बेच सकते, कारोबार ठप हो जाते हैं।। और ये मौलाना साहब।। आ गए मुफ़्त मांगने।। आ जाते हैं'” ।
मॉडल टाउन के घर में खिड़की वाला कमरा बड़ा था और इस में बहुत ही क़ीमती साज़-ओं-सामान था ख़ुसूसन इस खिड़की के सामने लगा सोफा तो बाहर से दरआमद शूदा और इंतिहाई बेशक़ीमत था। खिड़की के ऐन ऊपर एक क़ीमती घड़ी लगी थी और इस से ज़रा दूर, एक जहाज़ी साइज़ का पलंग था जिसके दोनों जानिब साईड टेबल थे। साथ ही एक बड़ी अलमारी थी जो एक जानिब की दीवार में पैवस्त थी और इस में भांत भांत के नए मलबूसात सलीक़े से, कुछ लटके और कुछ तह किए रखे थे।
उसी अलमारी के एक हिस्से में क़ीमती जूते और साथ की अलमारी में मुख़्तलिफ़ अन्वा-ओ-इक़साम और रंगों की इंतिहाई बेशक़ीमत टाईयाँ तर्तीब से लटकाई गई थीं।
ख़ुद खिड़की दस बालिशत चौड़ाई और सात बालिशत ऊंचाई में जुनूबी दीवार में ऐसे नसब थी कि ना सिर्फ लॉन बल्कि पूरे मुहल्ले का नज़ारा किया जा सकता था। इस खिड़की का चोबी चौखटा,जो शायद किसी ज़माने में हल्के ख़ाकिस्तरी रंग का था, अब तक बिल्कुल स्याह हो चुका था और मुसलसल बंद रहने से इस के चारों तरफ़ काई सी जम गई थी।
शीशे गर्द-ओ-ग़ुबार की कसरत से धुँदला से गए थे यानी कि ये एक आम सी खिड़की थी और अगर सफ़ाई और झाड़ पोंछ का इन्तिज़ाम होता तो इस में और किसी भी बेडरूम की खिड़की में कोई ख़ास फ़र्क़ ना होता लेकिन इस खिड़की की इमतियाज़ी ख़ुसूसीयत उस की ना-गुफ़्ता बह हालत थी। मजमूई तौर पर यूँ लगता था ये खिड़की किसी भूत बंगले से उठा कर इस जदीद कोठी के कमरे में लगा दी गई थी
खिड़की के मुताल्लिक़ बक़ाई साहब इतने हस्सास थे कि एक दफ़ा उनके दोस्त बुख़ारी साहब ने, जो लाहोर टीवी में इश्तिहारात के इंचार्ज थे, उनसे सिर्फ इतनी बात की।
“यार बक़ाई ये खिड़की साफ़ करवाया कर।। कपड़ा शपड़ा मार दिया कर। देखो तो इस पर जाले शाले आ गए हैं” ।
बस साहब जैसे जलती पर तेल, बक़ाई साहब आपे से बाहर हो गए और उनको खरी खरी सुना दीं और सख़्त नागवारी का इज़हार किया।
“साफ़ ही तो है, और कितनी साफ़ करूँ? कहाँ कपड़ा शपड़ा' मारू? देखो, ग़ौर से, नए चमकीले शीशे, दुहरे, विलायती, अपनी आँखों का ईलाज करवाओं मियाँ” ।
बुख़ारी साहब को उनका ये रूप पहली मर्तबा दिखाई दिया ; ग़ुस्से से लाल अंगारा, कानों की लवें तक दहकती हुईं, तमतमाते सुर्ख़ चेहरे पर तशंनुज की सी कैफ़ियत और पूरा बदन लर्ज़ा बर इंदाम।वो भौंचक्के से रह गए, कुछ समझ ना पाए कि उन्होंने आख़िर कौन सी ऐसी दुश्नाम तराज़ी की है, सिर्फ एक खिड़की की सफ़ाई ही का तो कहा है। तीन ही महीने पहले जब उन्होंने बक़ाई साहब की दफ़्तर वाली खिड़की के चौखटे पर तन्क़ीद की थी तो ना सिर्फ उन्होंने इस नुक्ता-चीनी को सराहा बल्कि दूसरे ही दिन पूरे चौखटे को तब्दील भी करवा दिया था।अब उनको ये समझ नहीं आया कि इस खिड़की की सिर्फ सफ़ाई पर वो इतने क्यों भड़क उठे ?, भला इस में हत्थे से उखड़ ने वाली क्या बात है, उतना तैश में आने का क्या महल था ? ।
ग़ुस्सा तो बुख़ारी साहब भी हुए लेकिन चूँकि बक़ाई साहब इश्तिहारों की मद में उनको कुछ इज़ाफ़ी रक़म वग़ैरा भी देते थे इसलिए अपना ग़ुस्सा पी गए। इस वाक़िया के बाद उनका रवैय्या काफ़ी मुहतात हो गया।
खिड़की का मुआमला तब शुरू हुआ जब दिसम्बर की एक रात बक़ाई साहब को, जब वो गहरी नींद में थे, बाहर से शोर की आवाज़ सुनाई दी जैसे कोई गाड़ी उनके घर के सामने रुकी हो।वो उठे और आँखें मलते हुए खिड़की की तरफ़ बढ़े तो यूँ लगा जैसे खिड़की के पर्दे आप ही आप हट गए या पहले से हटे हुए थे।
उन्होंने देखा कि खिड़की हमेशा की तरह साफ़ सुथरी थी, जैसे किसी ने अभी अभी उस का चोबी चौखटा रगड़ रगड़ कर पालिश से साफ़ क्या हो।ये अलबत्ता हैरत की बात थी जब उन्होंने देखा कि खिड़की के ऊपर लगी दीवार वाली घड़ी का सुर्ख़ कांटा रुक गया था। उन्हें कुछ समझ नहीं आया और वो घबराए से खिड़की की तरफ़ बढ़े लेकिन ऐसा कुछ और ख़ास नहीं हुआ कि वो उसे देखकर मज़ीद परेशान हो जाएँ उन्होंने बाहर झांक कर देखा तो चांदनी में नहलाई एक निसबतन बड़ी गाड़ी देखी, स्याह चमकीली, जिसकी पिछली बत्तियाँ लाल अंगारों की मानिंद दहक रही थीं। उन्होंने अपनी आँखें मलें और ग़ौर से देखा। दफ़्फ़ातन गाड़ी का दरवाज़ा खुला और उस से एक शख़्स उतरा, दुबला पुतला जिसने सफ़ैद कफ़न पहन रखा था। ये देखकर बक़ाई साहब को झुरझुरी सी आ गई और ख़ौफ़ की शिद्दत से उनका सीना जैसे जकड़ में आ गया और उन्हें अपनी साँस अटकती सी हुई महसूस हुई
उन्होंने जल्दी से क़रीब पड़ी तिपाई की तरफ़ हाथ बढ़ाया और वहाँ से गिलास उठाया।
ऐन उसी वक़्त मोटर गाड़ी की इंजन की आवाज़ तेज़ होते सुनाई दी जैसे किसी ने पूरी क़ुव्वत से एक्सेलेरेटर दबा दिया हो। गाड़ी के अक़ब से धुआँ निकलने लगा। ये देखकर बक़ाई साहब ने आँखें बंद कर लीं।
थोड़ी देर बाद जब उन्होंने डरते डरते आँखें खोलीं और दुबारा खिड़की से झाँका तो हैरत से उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं वो आदमी जिसने कफ़न पहन रखा था वहीं का वहीं खड़ा था और जैसे ही बक़ाई साहब ने उस पर दुबारा तवज्जा मर्कूज़ की उसने हरकत शुरू की। उन्हें यूँ लगा जैसे रुका हुआ सीन उनके मुतवज्जा होने के साथ साथ दुबारा हरकत में आ गया।
ये कैफ़ीयत देखकर बक़ाई साहब ने अपने ख़ुशक होंठों पर ज़बान फेरी और पानी का गिलास एक ही साँस में तक़रीबन ख़ाली कर दिया।
उस के बाद उन्होंने देखा कि गाड़ी की बत्तियाँ और ज़ोर से दहकने लगीं और पूरा माहौल सुर्ख़ रोशनी में नहा गया, चाँद की दूधिया रोशनी पस-ए-मंज़र में चली गई। यकायक गाड़ी का दरवाज़ा दुबारा खुला और अब गाड़ी से तंग साड़ी में मलबूस कोई जवान लड़की लहराते हुए उत्तरी। उतरते साथ ही उसे जैसे झटका सा लगा और वो तक़रीबन गिर गई लेकिन फिर ऐसे लहराई जैसे उसे मोच आ गई हो
लड़की के हाथ में एक बड़ा सा बैग था जिसमें ख़ुदा जाने क्या था। वो उस कफ़न वाले आदमी पर सख़्त ख़फ़ा हुई लेकिन बक़ाई साहब को सुनाई नहीं दिया कि वह क्या कह रही थी। फिर अंदर से कोई आदमी आया, शायद मुलाज़िम था और उसने कफ़न पोश शख़्स को कुछ थमाया और दोनों को उजलत में अंदर जाने को कहा
दफ़अतन उन्हें यूँ लगा जैसे वो सीन दुबारा रुक सा गया हो। उन्हें यक़ीन था कि कोई बाज़ारी क़िस्म का मुआमला है और ये कफ़न पोश उस औरत का दलाल है। बक़ाई साहब इस ख़याल में इतने खो गए कि कुछ लम्हों के लिए उनको सब कुछ यकसर भूल गया कि वो कहाँ हैं और ये रात का कौन सा पहर है। उन्होंने दुबारा अपनी नज़रें उस सीन पर मज़कूर कर दीं, सीन की तरफ़ उनकी तवज्जा मबज़ूल हुई तो कफ़न पहने वो आदमी और वो औरत जिसे वो बाज़ारी लौंडिया समझ रहे थे, दुबारा हरकत में आ गए।
उन्हें यूँ दिखाई दिया गोया वो औरत लहराते हुए पोर्च की तरफ़ चलने लगी और घर में दाख़िल हो गई। पोर्च की मद्धम रोशनी में बक़ाई साहब ने इतना ज़रूर देखा कि उस औरत के ख़द्द-ओ-ख़ाल बिल्कुल कसबी औरत की तरह थे ; हद से ज़्यादा उभरा आँचल, भरे कूल्हे,जिनको वो मटका मटका कर चल रही थी, थिरकते हुए, लहराते हुए, बाज़ारी औरतों की तरह। उस के बाद बहुत देर तक ना कोई बाहर आया और ना कोई अंदर गया लेकिन आख़िर में गाड़ी के ड्राईवर को ना जाने क्या सूझी कि उसने इंजन स्टार्ट किया, गाड़ी झर झराई और फ़र्राटे भरते वहाँ से चल दी।
बक़ाई साहब को सारी बात समझ आ गई, उन्होंने सोचा हो ना हो वो सामने वाले घर में रहने वाले मर्द की ओबाशियों का नज़ारा कर रहे हैं जो रात की तारीकी का फ़ायदा उठा कर जवान छोकरियों को बुलाता है और कफ़न पोश क़िस्म की जिन्सी बेराह रवी से मग़्लूब हो कर उनके गर्म बदन का लुतफ़ उठाता है। सीन के रुक रुक कर चलने वाली बात की ताबीर अलबत्ता वो नहीं कर सके।
उन्हें यक़ीन था कि उन्होंने वो कुछ देखा है जो उनके पड़ोसी लोगों से छुपाते हैं और अपने ज़ोहद का ढंडोरा पीटे नहीं थकते।। उस से उनको घिन सी आई। इन पर दुबारा ग़नूदगी छा गई और वो सो गए।
अगले दिन कुछ ना हुआ, दिन का आग़ाज़ मामूल की तरह था। दिन चढ़े उनकी आँख खुली । दफ़्तर का वक़्त आधा गुज़र चुका था। जाग कर कन-अखियों से खिड़की की तरफ़ देखा तो सब कुछ मामूल के मुताबिक़ था। अभी वो इस होने वाले वाक़े को ख़्वाब समझ कर रद्द ही करने वाले थे कि उनकी नज़र तिपाई पर पड़ी, जो खिड़की के पास पड़ी थी और इस पर पानी का गिलास धरा था, जिसके पेंदे में शायद मामूली मिक़दार का पानी अब भी मौजूद था।
ये देखकर उनके दिल की हरकत तेज़ हो गई और वो कमरे को इसी हालत में छोड़कर दफ़्तर चले आए।
शाम को घर आए तो वजाहत साहब उनसे मिलने आए।। वजाहत साहब उनके माल के ट्रांसपोर्ट का बिज़नस करते थे और शराब और कबाब के रसिया थे।
बक़ाई साहब ने नौकर से भूईए के कबाब मंगवाए और फिर दोनों शतरंज खेलने लगे। हल्के सुरूर से महज़ूज़ बातों बातों में लड़कीयों की बात चली तो वजाहत साहब ने पूछा।
“एक ज़ाती सवाल पूछना है,तुम शादी क्यों नहीं कर लेते ?”।
“मैं क्यों बखेड़े पालूँ ?औरतों का क्या एतबार कब किस की गोद में जा बैठें”।
ये कहते हुए बक़ाई साहब ने अपना घोड़ा ढाई घर चलाया और वजाहत साहब का फ़ील अपने निशाने पर ले आए जिसके जवाब में वजाहत साहब ने अपना एक मोहरा हिलाया।
“देख बक़ाई मैंने भांत भांत की औरतें देखें हैं,;बाज़ारी, ऊंची सोसाइटी वाली, पर्दे वाली, नौकरानियाँ और ये सही है जो तुम कह रहे हो लेकिन औरत माँ भी है, बीवी भी है और बहन भी है”।।
“यार ये वा'ज़ छोड़ो मैंने कल जो देखा वो तो बताने वाली बात भी नहीं” ।
बक़ाई साहब ने अगली चाल चली और सिगरेट सुलगाया।
“क्यों तुमने क्या देखा?” ।
वजाहत साहब ने उनकी चाल को तीन ज़ावियों से परखा और फिर इंतिहाई महारत से अगली चाल चली।
“बक़ाई वज़ीर बचाओ” ।
ये सुनकर बक़ाई साहब ने कल रात का पूरा वाक़िया मिन-ओ-अन बता दिया लेकिन एक बात का ख़याल रखा,उनको ये नहीं बताया कि ये सारा वाक़िया उनके सामने वाले घर में हुआ।
ये वो मुक़ाम था कि वजाहत साहब ने उन्हें ''शह' दी।
बक़ाई साहब ने इंतिहाई महारत से अपनी अगली चाल चली और ज़ेर-ए-लब मुस्कुराते हुए कहा।
“तो तेरा क्या ख़याल है, दुनिया बड़ी दोगली नहीं हो गई है ? उस घोड़े की तरह दोहरा वार करते हुए, एक तीर से दो शिकार।। वजाहत ध्यान।।तेरा वज़ीर गया” ।
वजाहत साहब ने एक लंबी साँस ली और जाम में रही सही शराब अपने हलक़ में उंडेली और इतमीनान भरे लहजे में कहा।
“हाँ दोगली ही तो है साली लेकिन तुम्हें पता है कल तुम्हारे मार्कीट के हाजी साहब को क्या हुआ?”।
“क्यों क्या हुआ उनको परसों तो भले चंगे थे ?”।
“रात को उनको दिल का दौरा पड़ा और बेचारे फ़ौत हो गए। मुझे उनके मुलाज़िम ने बताया कि एक डाक्टर को बुला भेजा था और वो बेचारी आधी रात को आई भी थी, अपने एक मेल नर्स को साथ लेकर।ख़ैर वो लोग रात-भर कोशिश करते रहे लेकिन अल्लाह को कुछ और ही मंज़ूर था। कमाल है तुम्हें पता ही नहीं चला, तुम्हारे सामने ही तो घर है उनका, तुम्हारे बेडरूम की खिड़की से उनका पोर्च नज़र आता है। ख़ैर खेल पर ध्यान दो, शाह मात”।
बक़ाई साहब हक्का बका रह गए जब उन्होंने बिसात की तरफ़ देखा, उनका बादशाह वजाहत साहब ने ऐसा घेर रखा था कि हिलने की भी गुंजाइश नहीं छोड़ी थी
उन्हें शाह मात हो चुकी थी।
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