दूध भरी गलियाँ
स्टोरीलाइन
एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो बहुत ग़लीज़ है और शहर के पुरानी गलियों में घूमता फिरता है। वहाँ उसे एक सफे़द बुजु़र्ग दिखाई देता है, जो उसकी ग़लाज़त को देखकर उसे गंदी-गंदी गालियाँ बकता है। वह किसी गाली का जवाब नहीं देता। इस पर सफे़द बुजु़र्ग ग़ुस्सा होकर उसे इतना मारते हैं कि ख़ुद ही थक कर चूर हो जाते हैं, लेकिन उसे कुछ असर नहीं होता।
शाम की सुरमई ज़ुल्फ़ें आसमान की बेकरां वुसअतों में लहरा गईं।
वो अपने मकान से बाहर निकला। उसने तंग-ओ-तारीक और ग़लीज़ गली की नानक शाही ईंटों की बनी हुई ऊंची दीवारों के बीच में से दम-ब-दम चमक खोते हुए अमीक़ आसमान की जानिब देखा। आड़ी तिरछी सुर्ख़ लकीरों के बाइस आसमान का चौड़ा सीना तलवारों और छुरियों के घाव से मामूर दिखाई देता था।
बिच्छुओं के डंक की तरह पेच-ओ-ताब खाती हुई ये घिनावनी गली न जाने कहाँ से कहाँ को चली गई थी। यूं जान पड़ता था जैसे दीवारों की ईंटें कभी ख़ूब बड़ी बड़ी और सोने की बनी होंगी। लेकिन अब सोना ग़ायब था मिट्टी बाक़ी बच गई थी। ईंटें जैसे सदियों के बोझ तले दब, घट और पिचक कर रह गई थीं। दीवारों पर काई फूट आई थी जो कभी ख़ुशनुमा सब्ज़ रंग की थी। लेकिन अब उसकी तह खुजली के मारे हुए कुत्ते की खाल के मानिंद दिखाई देती थी। छोटी छोटी ईंटें नमनाक और नाहमवार थीं और उनके बीच में थपे हुए बोसीदा पलस्तर में सदहा सपेद सपेद कीड़े ऊपर तले कुलबुलाते रहते थे। गली का फ़र्श भी नानक शाही ईंटों का बना हुआ था। उनकी दराड़ों में से मटियाला और बदबूदार पानी रिस्ता रहता था जिसमें आफ़ताब आलमताब की किरनें मुनाकिस होने की नाकाम कोशिश किया करती थीं। इस धुँदली फ़िज़ा में नालियों का सरसराता हुआ पानी यूं दिखाई देता था जैसे गोबर और मिट्टी मिला पारा, बीसियों क़िस्म के हशरात-उल-अर्ज़ दम भर को सतह-ए-आब से ऊपर उठते और डुबकी लगा जाते। बा'ज़ मनचले नाली से बाहर रेंग आते। एक लम्हा के लिए इर्द गर्द का जायज़ा लेते और फिर अजब शान बे एतिनाई और रूखेपन से मुँह को मोड़ कर पानी अंदर सरक जाते।
सुनसान गली के मकानों के दरवाज़े ज़्यादा तर बंद और बा'ज़ नीम वा थे। ये मुक़ाम तिलिस्म होशरुबा के किसी शहर का एक हिस्सा दिखाई देता था जिस पर किसी जादूगर ने सह्र कर दिया हो या जहां आदमख़ोर देव की आमद का ख़दशा हो या जिसकी गलियों में घड़ी भर पहले जादू का बदमस्त बैल नथनों से शोले उड़ाता गुज़र गया हो।
तारीक ड्योढ़ी से बाहर निकल कर उसने इधर उधर निगाह दौड़ाईं। उस का क़द मियाना था। बदन इकहरा, जिस्म का रंग हल्का सुरमई, जिल्द मेंढ़क की खाल के मानिंद चिकनी, आँखें बे-हिस-ओ-जामिद लेकिन उनमें अजीब क़िस्म का तजस्सुस और तेज़ी भी थी। वो बेदाग़ सफ़ेद लिबास ज़ेब-ए-तन किए था। उसने हाथों को तेज़ी के साथ मला। होंटों को सुकेड़ सुकेड़ कर मसूड़ों को साफ़ किया। उसके सुर्ख़ मसूड़ों में सफ़ेद दाँत आबदार ख़ंजरों की तरह चमक उठे।
ड्योढ़ी के दरवाज़े के दोनों जानिब छोटे छोटे दो चबूतरे बने थे। उसने सरसरी अंदाज़ से उनकी तरफ़ देखा फिर उसने बेचैनी से खड़े खड़े पांव को तेज़ी से हरकत दी। पेशतर उइके कि वो नीचे उतर कर रवाना हो उसकी निगाह एक आदमी पर पड़ी जो परछाईं की तरह गली की दीवार के साथ चला आ रहा था।
उसे नौ वारिद की सूरत से दिलचस्पी पैदा हो गई। वो रुक कर उसे बड़े ग़ौर से देखने लगा।
गली की बदबूदार ख़ुन्क फ़िज़ा में अजनबी नमुदार, ग़लीज़ और बोसीदा दीवार के साथ कंधा भिड़ाता चला आ रहा था। वो क़दआवर इन्सान था, फ़ाक़ाज़दा होने के बावजूद उसके फैले फैले डील-डौल और बड़े बड़े हाथ-पांव से ज़ाहिर होता था कि अगर उसे पेट भर खाने को मिले तो वो मर्दाना वजाहत का बहुत अच्छा नमूना बन जाये। उस की दाढ़ी बढ़ आई थी, आँखें बेरौनक, लब ख़ुश्क और बाल बिखरे हुए थे जो कपड़े उसने पहन रखे थे उन्हें लिबास कहना भी लफ़्ज़ लिबास की तौहीन करना था। उसके जिस्म का बेशतर हिस्सा नंगा था। मैले कुचैले बदबूदार चीथड़े लटकाए। नज़र ज़मीन पर गाड़े माहौल से ग़ाफ़िल वो लपकता चला जा रहा था। दफ़्फ़ातन फ़िज़ा में अबे कौन है तू? की आवाज़ गूँजी और नौ वारिद चूहे की मानिंद ठिटक कर खड़ा हो गया...।जब उसने सफेदपोश की साँप की सी आँखें देखीँ तो उसकी मिस्कीनी और भी बढ़ गई। उसने डरे हुए कुत्ते की तरह दाँत दिखाए।
दोनों पास पास खड़े थे। सफ़ेद जी ने एँठ कर दोनों हाथों की मुट्ठीयाँ कूल्हों पर जमा रखी थीं। नौ वारिद बेतरह सहमा हुआ था, उसका सर नीचा हो गया था। वो कुन अँखियों से डर डर कर सफ़ेद जी की तरफ़ देखता तो उसके दीदों की फीकी नुमाइश से उसकी बेचारगी का एहसास और भी बढ़ जाता। उसके जिस्म की रग-रग कपकपा रही थी। उसकी गर्द आलूद पेशानी और गर्दन पर पसीने की हल्की सी तह ने उसे और भी मकरूह और क़ाबिल-ए-नफ़रत बना दिया था।
बोलता क्यों नहीं सुंअर के बच्चे?
म मैं...मैं...
मैं मैं के बच्चे... भनछो सफ़ेद जी का चेहरा तमतमा उठा, कुत्ते के पिल्ले...हरामी के बच्चे...तेरी अम्मां की...
सफ़ेद जी ने हाथ बढ़ाया और उसकी लिजलिजी उंगलियां जो दरहक़ीक़त बेहद सख़्त और ताक़तवर थीं। नौ वारिद की गर्दन पर कस गईं। उनकी गिरिफ्त में उसकी गर्दन और चेहरे की रगें फट जाने की हद तक फूल कर दमकने लगीं। आँखें उबल पड़ीं और ज़बान पानी में भीगी हुई डबल रोटी की तरह महसूस होने लगी। उसने अब्रूओं और आँखों के इशारों से समझाया कि वो कुछ कहना चाहता है। ऐसी हालत में उसकी हरकात मज़लूमाना के साथ साथ बड़ी मज़हकाख़ेज़ भी मालूम होती थीं। दम भर को मौक़ा मिला तो उसने कहा, हुजूर! आप माई-बाप हैं। मैं बोहत गरीब और मिस्कीन हूँ। आपके पांव पर सर रखकर प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपनी नजर से दूर हट जाने का मौका दीजिए...
सफ़ेद जी ने ज़न्नाटे का थप्पड़ उसके दाएं गाल पर रसीद किया। फिर बाएं पर...फिर दाएं पर...फिर...ग़रज़ पै दर पै थप्पड़ों की बौछार से उसका बे ख़ून का चेहरा पहले सुर्ख़ हुआ और फिर नीला पड़ गया।
साले! हमारे मुँह लगता है? तेरी लौंडिया को... बद के तुख़्म...तुझ ऐसे इन्सानों को मैं ख़ूब जानता हूँ। उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ। बैल की सूरत! चमार! कहाँ काम करता है? किसी खेत में या कारख़ाने में?
बैल की सूरत ने हकला कर कुछ कहना चाहा तो उसने उसके दोनों कानों को चुटकियों में लेकर उन्हें पूरी क़ुव्वत से खींचा और मसला और फिर उनमें अपने नाख़ुन गुड़ो कर उन्हें छील डाला और दाँत पीसते हुए चिल्लाया, हरामख़ोर! मुफ़्त की खा खा कर सरकारी सांड हो गया है। सालो! तुम ज़मीन का बोझ हो। तुम सबको क़तार में खड़ा कर के गोली से उड़ा देना चाहिए... तेरे ऐसे गरीबों और मिस्कीनों की रगों से ख़ूब अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ मैं।
ये कह कर उसने उसके बढ़े हुए बालों को मुट्ठी में दबोच कर इस ज़ोर से खींचा कि उनमें से बेशतर जड़ से उखड़ गए... इस से उसे नई बात सूझी। उसने उसकी पलकों के बाल नोचने शुरू कर दिए। अरे ये क्या छिपा रहे हो...हटाओ हाथ... ये कह कर उसने उस के चीथडों में हाथ डाला। दो तीन गंदी पोटलियां दिखाई दीं जिन्हें ज़ोर से खींचा तो वो खुल गईं। और मुट्ठी भर चावल, थोड़ा सा आटा और दाल के चंद दाने गली में बिखर गए। नौ वारिद धड़ाम से उन पर गिर पड़ा और वहशियाना अंदाज़ से दाना-दाना चुनना शुरू कर दिया...ये देख सफ़ेद जी ग़ुस्से के मारे काँपने लगा। अरे भूतनी पलस्तर! तू कहता था गरीब हूँ मिस्कीन हूँ, आख़िर ये अनाज कहाँ से लाया। इतना खाते हो, जभी तो इतनी बड़ी लाश हो गई है तुम्हारी। लेकिन नीयत नहीं भर्ती। ये चावल, दाल और आटा क्या अपनी माँ के लिए ले जा रहा था... हाँ भूतनी के तू तो यही कहेगा कि अम्मां के लिए ही ले जा रहा हूँ...साले खाते हैं और डकार भी नहीं लेते...
वो साला बदज़ात अनाज के दाने चुनने के लिए ज़मीन पर झुका हुआ था। सफ़ेद जी ने उसके चेहरे पर ज़ोर से लात रसीद की जिससे उसके अगले चार दाँत हिल गए। फिर उसने घूंसों की बोछाड़ कर दी। यहां तक कि बदज़ात का चेहरा टमाटर की तरह पिलपिला हो गया। जहीन पोद! चादर मोद! गू के कीड़े... बदज़ात के पिल्ले! सफ़ेद जी के मुँह से कफ़ उड़ रही थी, वो बुरी तरह से हांप रहा था।
ज़ोर की ठोकर खा कर उल्लू का पट्ठा सर के बल नाली में गिर पड़ा। सफ़ेद जी नाक और मुँह दोनों से सांस ले रहा था। फिर उसे यूं महसूस होता था जैसे फ़िज़ा हवा से यकसर ख़ाली हो गई हो।
गली की धुँदली और उदास फ़िज़ा में उसका दम घुट सा रहा था। फिर उसने क़हर आलूद निगाहों से जहीन पोद की जानिब देखा... ये सब इसी का क़सूर था। साला, कुत्ता! सुअर की औलाद।
क़रीब था कि वो इस पर फिर पिल पड़े...
दीवारों और फ़र्श की ईंटें यके बाद दीगरे गली के मोड़ तक पहुंच कर उफ़ुक़ में गुम हुई रेलगाड़ी के डिब्बों के मानिंद दिखाई देती थीं... वो डिब्बे जो आंधी की रफ़्तार से उड़े जा रहे हों। मोड़ पर पहुंच कर उनके नुक़ूश बेहद मुब्हम हो गए थे। उन पर उड़ती हुई स्याही इंजन में निकलने वाले धुंए के मरगोलों के मानिंद दिखाई देती थी। गली के मोड़ से मअन एक छोटी सी लड़की नमूदार हुई... बड़ी अजीब बात थी। आंधी के रुख़ के बरअक्स रुई का एक गाला बड़ी सुबुक रफ़्तारी से चला आ रहा था...बच्ची ने उन दोनों को देखा तो खट से रुक गई। वो रूखे-सूखे बालों और कचौरी से गालों वाली भोली-भाली मासूम बच्ची थी। उसके हाथ में कांसी का कटोरा था।
सफ़ेद जी ने उसे देखा तो दफ़्तन सूरत बिगड़ गई नाक के क़रीब से सर तक तीन गहरी गहरी लकीरें नमूदार हुईं आँखों की पुतलियां खट से नाक की जड़ के क़रीब पहुंच गईं। बाछें चर गईं। उसके कुत्ता दाँत, नुमायां हो गए और उसकी साँप की सी जामिद, मक़नातीसी आँखें बच्ची के चेहरे पर जम गईं। उधर बच्ची के पांव ज़मीन में गड़ गए और इस की आँखों में इंतिहाई ख़ौफ़-ओ-हिरास की कैफ़ियत पैदा हो गई।
सफ़ेद जी ने ज़ख़्म ख़ुर्दा दरिंदे की तरह बड़ी तेज़ी से इधर उधर निगाह दौड़ाई तो बच्ची का दिल लरज़ उठा।
बिलआख़िर सफ़ेद जी को एक सालिम ईंट मिल गई। जिसे उठा कर उसने जल्दी से निशाना बाँधा...बच्ची ने हलक़ की पूरी क़ुव्वत से एक मुहीब चीख़ बुलंद की और कटोरे को बेइख़्तियार परे फेंक बगोले की सी तेज़ी के साथ भाग निकली। सालिम ईंट ने उसका पीछा किया लेकिन वो बाल बाल बच गई, अलबत्ता मछेरे के जाल के मानिंद दूर दूर तक फैली हुई गलियों में से ज़बह होते हुए भेड़ के बच्चे की सी दिलदोज़ चीख़ों की बाज़गश्त रह-रह कर सुनाई देती रही...चीख़ों का दर्द-ओ-कर्ब कांसी की लुढ़कते हुए कटोरे की ग़ैर इन्सानी खनखनाहट के साथ घुल मिलकर अजब दिल को दहला देने वाला शोर बुलंद कर रहा था...उसके बाद यकलख़्त मौत का सन्नाटा तारी हो गया।
बहुत देर तक सफ़ेद जी की सूरत मसख़ रही...लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता उसकी बेहिस और बेकैफ़ आँखों में एक अजीब क़िस्म की रंगीन धारी नज़र आने लगी...
दाएं हाथ को गली का मोड़ था। मोड़ से उस तरफ़ को गली की दीवारें यूं खुलती थीं जैसे किसी पुर असरार और सह्र अंगेज़ मुक़ाम में दाख़िले के लिए तिलिस्मी अज़दहा मुँह खोले हर देखने वाले को अंदर दाख़िल होने की दावत दे रहा हो। गली के ऐन सामने एक बहुत बड़ी तारीक डेयुढ़ी का बुलंद-ओ-अरीज़ दरवाज़ा हैरत से खुला था। अंदर मुकम्मल स्याह बादल की सी तारीकी के बाद हल्के रंगीन ख़ुतूत हसीन-ओ-दिलकश ज़ाविए बनाते हुए एक रोशन दालान के नूर में मदग़म हो रहे थे। दालान बेहद साफ़ और सुथरा था। वहां फूलों के पौदे इस क़दर साकित खड़े थे जैसे उनके फूल और पत्तियाँ लाल-ओ-ज़मुर्रद में से तराश कर बनाए गए हों। बड़ का एक अज़ीमुश्शान पेड़ सेहन के बीचों बीच ईस्तादा था। उसकी सीधी लटकती हुई डाढ़ी उन जटाधारी ब्रह्मचारी सन्यासियों की याद दिलाती थी जिनकी आँखें अंगारा और उनमें सुलफ़े का ख़ुमार-ओ-ग़ुबार नज़र आता है।
पेड़ तले एक औरत पांव के बल उकड़ूं बैठी कपड़े धो रही थी। उस के गहरे भूरे बाल सूरज की रोशनी में दमकते हुए ख़ुश्क भूसे की तरह अंगारा हो रहे थे। लेकिन जो घनी ज़ुल्फ़ें सूरज की किरनों की बराह-ए-रास्त ज़द से बाहर थीं। वो अपने गहरेपन के बाइस ज़ाफ़रान के साये के मानिंद दिखाई देती थीं। उसने कमर के गिर्द गहरे सुर्ख़ रंग का सालो लपेट रखा था। बदन पर एक ढीली ढाली चोली थी जिस पर रुपहले नक़्श-ओ-निगार बने हुए थे। चोली इस क़दर ढीली थी कि न सिर्फ़ उसकी उजली बग़लों में से भुट्टे के से बालों के गुच्छे दिखाई दे रहे थे बल्कि बग़लों के आगे चोली के हिलाली ज़ाविए में से रानों और घुटनों के दबाव से दूधिया पिस्तान के पिछले हिस्से में पैदा होने वाले ज़ीरो बम से अजब मस्हूर कुन समां बंध गया था... कपड़ों से फ़ारिग़ हो कर उसने नहाने के लिए पानी की बाल्टी क़रीब सरकाई। जब वो बाल्टी पर झुकी हुई थी तो पानी में पैदा होने वाले रोशनी के दायरे उसके बदन पर मुनअकिस हो रहे थे। नूर के ये दायरे गोरे बदन के नशेब-ओ-फ़राज़ से गुस्ताख़ियाँ करते हुए एक जानिब लबों और दूसरी तरफ़ पांव को चूम रहे थे। और फिर जब उस काफ़िरा पुर शबाब सरकशों को चोली की क़ैद से आज़ाद किया और सालो भी उतार फेंका तो वो सरता पा बिजली की क़ाश की मानिंद बल खा कर तड़पी और यूं मालूम होने लगा कि दालान उसके ग़ैर मरई वजूद से मुनव्वर व ताबां था और जैसे वो शोले भड़क कर उठेगा और चश्मज़दन में आसमानों की वुसअतों में गुम हो जाएगा...
सफ़ेद जी की पुतलियां आहिस्ता-आहिस्ता घूमीं और ग़लीज़ के चेहरे पर जाकर रुक गईं... दफ़्तन उसकी सूरत पहले से भी ज़्यादा मसख़ हो गई। अबे तेरी मय्या की...साले तू भी देखता है। क्या तेरी आँखें इस काम के लिए बनी हैं... मदर चो... भूतनी पतंग...तू...अबे तू?
ये कह कर सफ़ेद जी ने उसे गिरेबान से पकड़ लिया और घसीट कर दीवार के साथ खड़ा कर दिया और फ़रमाया, सीधा खड़ा रह।
ग़लीज़ सीधा खड़ा हो गया, सफ़ेद जी बहुत दूर से लड़ाका मेंढे की तरह सर झुका कर बगोले की सी तेज़ी के साथ आया और सर झुका कर उछला और सर पूरी क़ुव्वत से मदर चो के पेट में धांस दिया। निशाना ठीक बैठा और भूतनी पतंग दर्द से दोहरा हो गया। सफ़ेद जी ने सीधा खड़ा रहने का हुक्म सादर फ़र्मा कर फिर वही अमल किया। बार-बार टक्करें मारता रहा। सूरत और ज़्यादा मसख़ हो गई। भवों के बाल बढ़ गए और मोटे हो गए। नथनों के ऊपर से मुँह के दहाने तक पहुंचने वाली लकीरें बहुत गहरी हो गईं।
सूरज ग़ुरूब हो गया तारीकी बढ़ने लगी।
सफ़ेद जी ने ग़लीज़ जी की बाछों में अंगूठे डाल कर उसका मुँह फाड़ देने की कोशिश की। फिर उससे गुत्थम गुत्था हो गए। कभी उसे गिराते कभी पटखते, कभी चीख़ते... सफ़ेद जी की सूरत पहचानी नहीं जाती थी। कपड़े ग़लाज़त में लत-पत हो गए थे और वो कीचड़ में नहाए हुए कछुवे के मानिंद दिखाई देने लगा। कान गधे के कानों के बराबर हो गए। मसूढ़े ऊपर को उठ गए, दाँत लंबे हो गए, नाख़ुन बढ़ आए। उसने हर मुम्किन तरीक़े से ग़लीज़ जी को मारा और दाँत पीस पीस कर कहा, मैं तुझे मार डालूँगा...मैं तुझे मार डालूँगा।
बिलआख़िर उसने ग़लीज़ जी को गली के फ़र्श पर लिटा दिया और कहा, अब मैं छत पर से तुझ पर छलांग लगाऊँगा, उसे लिटा कर वो डेयुढ़ी में ग़ायब हो गया, फिर छत पर दिखाई दिया और फिर इस क़दर बुलंदी से ग़लीज़ जी के पेट पर छलांग लगाई, फिर छाती पर, फिर गर्दन पर, फिर सर पर।।।
हर तरफ़ तारीकी छा गई थी। मुतअद्दिद छलांगें लगाने के बाद सफ़ेद जी ने ग़लीज़ को उठाया। वो समझा था कि ग़लीज़ का भुरता निकल गया होगा लेकिन ग़लीज़ बदस्तूर सांस ले रहा था, आँखें झपका रहा था। इस पर सफ़ैद जी चलाया अबे मुदिर चू।।। अभी तो ज़िंदा है?
अब सख़्त तारीकी में झक्कड़ सा चलने लगा। ग़लीज़ अटल पहाड़ था और सफ़ेद जी जो अब ग़लीज़ जी से भी ज़्यादा ग़लीज़ दिखाई देता था उस पहाड़ से टक्करें मारने वाला शैतान! चेत, घूँसे, लातें, गालियां सब कुछ फ़िज़ा में गूंज रहा था। अब कुछ पता नहीं चलता था कि कौन किस को मार रहा है।
आख़िर सफ़ेद जी ढीला पड़ गया। उसकी सांस धूँकनी की तरह चल रही थी। बाज़ू लटकने लगे। आँखें फट गईं। टांगें झूलने लगीं। वो ग़लीज़ से आँखें मिलाए बग़ैर दोनों मुट्ठीयाँ बड़ी नक़ाहत से उसके सीना पर मारते हुए बड़बड़ाया,
नहीं। तुम नहीं मरोगे, तुम नहीं मर सकते, तुम कभी नहीं मर सकते।
उस के घुटने आगे को धँस गए और वो ज़मीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा...
मार खा खा कर ग़लीज़ का सर चकराने लगा था। उसने इधर उधर देखने की कोशिश की। फिर तारीकी में बाज़ू फैलाते हुए कहा, सफ़ेद जी आप कहाँ हैं...आप कहाँ हैं?
उसका पांव किसी गोल चीज़ पर पड़ा और वो शय उसके बोझ से चकनाचूर हो गई।
उसने झुक कर ग़ौर से देखा तो मालूम हुआ कि वो सफ़ेद जी का सर है और टूटी हुई खोपड़ी में से आँखों की पुतलियां कांच की गोलियों की तरह इधर उधर लुढ़क गईं। उसे बड़ी हैरत हुई। वो नहीं जानता था कि चश्मज़दन में इतना बड़ा इन्क़िलाब आजाएगा।
फ़िज़ा में कुछ मुतरन्नुम सदाएँ सुनाई देने लगीं। उसने सर उठाया और देखा कि तारे मासूम बच्चों की धुली धुलाई आँखों की तरह दमक रहे हैं।
मअन रुपहला चांद काले बादल के चंगुल से बाहर निकल आया और मछेरे के जाल की मानिंद दूर दूर तक फैली हुई आड़ी तिरछी गलियाँ यूं दिखाई देने लगीं जैसे वो दूध से छलकती हुई नहरें हों।
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