स्टोरीलाइन
यह कहानी मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘क़फन’ की आगे की कहानी को बयान करती है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी को घीसू और माधव के नशे में धुत होकर शराब-ख़ाने के सामने गिर पड़ने पर ख़त्म करते हैं। बस, यह कहानी वहीं से शुरू होती है और घीसू और माधव के गाँव पहुँचने तक की दास्तान बयान करती है।
सुबह घीसू की आँखें खुलीं तो शराबख़ाना वीरान पड़ा था।
सूरज निकले देर हो गई थी दीवार का ऊपरी हिस्सा धूप में नहाने लगा था, इधर उधर जूठे दोनों पर मक्खियां भिनक रही थीं, शराब के मिट्टी के प्याले औंधे सीधे पड़े थे। शराब बेचने वाला अपनी दुकान बढ़ा चुका था और शराबख़ाने की फ़िज़ा पर कसलमंदी छाई हुई थी। उसने उठने की कोशिश की तो बदन का जोड़ जोड़ दुखता महसूस हुआ, रात का ख़ुमार अभी बाक़ी था। भरे पेट में ऐसी टूट कर नींद आती है कि दुनिया की ख़बर नहीं रहती।
दुनिया का ख़्याल आते ही वो हड़बड़ा कर उठ बैठा, रात जिस कुत्ते को उन्होंने पूरियां खिलाई थीं वो उन दोनों के बीच में घुस कर सो रहा था।
घीसू ने दुर-दुर कर के एक लात मारी तो कुत्ते ने पहले उसे नीम-वा आँखों से देखा फिर दूसरी लात उठते देखकर काहिली से दुम हिलाने लगा, रात की दावत ने उसे उनका ममनून बना दिया था।
“ऐ माधव उठ...” उसने माधव का शाना हिलाया, “सुबह हो गई रे।”
“ऊँह, होने दो...” माधव ने कसमसा कर शाना छुड़ाना चाहा तो घीसू ने और ज़ोर से हिलाया, “सुबह हो गई।”
“तो कौन सी नई बात हुई, अभी मुझे सोने दो।”
“जल्दी से उठ जा, अगर गाँव वालों ने देख लिया तो बहुत जूते पड़ेंगे, याद है हम काहे को बाज़ार आए थे?”
माधव का हाथ जैसे बिजली के नंगे तार से छू गया, वो उछल कर बैठ गया, कुछ देर दोनों हाथों से सर थामे ख़ुमार से लड़ता रहा फिर खड़ा हो गया, “अब क्या होगा?”
“मैंने रात ही कह दिया था कि बिध्या की तरफ़ से निश्चिंत रह, उसे बढ़िया कफ़न मिलेगा मगर गाँव वाले...”
झाड़ू लगाने वाला कूड़ा समेटता हुआ उनकी तरफ़ बढ़ा, गर्द उड़ने लगी तो दोनों शराबख़ाने से बाहर निकल आए। कुत्ता भी उनके पीछे बाहर निकला। सूरज गज़ भर ऊंचा हो गया था, मगर धूप में तेज़ी नहीं थी। बाज़ार भी बंद था इक्का दुक्का दुकानें खुलने लगी थीं। वो दोनों फ़िक्र के अंधेरे में गुम धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे, अब वो गाँव कैसे जाएंगे? गाँव वालों ने इंतज़ार किया होगा, हम शाम के निकले सुबह को ख़ाली हाथ जाएंगे तो? बिध्या को मरे दो रात एक दिन गुज़र गया, लाश ख़राब हो गई होगी।
माधव का उतरा हुआ चेहरा देखकर घीसू ने समझाया, “इतना दुखी होने से क्या फ़ायदा, मरने वाला कहीं वापस आता है, आज तो उसकी आत्मा बहुत परसन होगी, उसने जीवन में जो सुख न दिया मर कर दे दिया, आख़िर वो हमारे सुख के लिए ही जीती थी ना?”
मगर माधव कुछ और ही सोच रहा था। बिध्या ने एक और भी सुख दिया था जिसकी लज़्ज़त घीसू भूल गया होगा। कितनी मेहनत करती थी और उसे पेट भर खाना भी नहीं मिलता था, फिर भी उसका बदन कैसा गोल गुथना था और उसने कभी इनकार भी नहीं किया चाहे जितना नोचो खसोटो झंझोड़ो, तन में अर्पित मन भी, अब सब ख़त्म हो गया। बिध्या के मरने से निखट्टू कह कर बिरादरी में बदनामी भी हुई और गाँव वाले भी उसे हत्या कह रहे थे। अब कोई अपनी लड़की न देगा, हाय मूर्ख तू ने उसकी क़दर न की। उसे बड़े ज़ोर का रोना आया। उसे रोता देखकर घीसू भी रोने लगा, पीछे से कुत्ते ने उसका साथ दिया तो दोनों चुप हो गए।
“दुर...” घीसू ने मिट्टी का एक ढेला उठा कर कुत्ते पर फेंका, “सुसरा पीछे पड़ गया है।”
कुत्ता ढेला खाकर चुप हो गया मगर उसका मुँह आसमान की तरफ़ उठा रहा।
“फिर रोएगा साला मनहूस...” माधव खिसिया कर बड़ा सा ढेला खोजने लगा।
“छोड़ो भी।” घीसू ने कहा, “धूप कड़ी हो रही है और कोस भर जाना है, ये तो जानवर है, रात को खिला दिया तो गुलाम बन गया है।”
“ये जनावर एक वक़्त खाने से गुलाम बन गया और एक हम लोग और बिध्या...” माधव फिर रोने लगा।
मगर अब कुत्ते की वजह से घीसू रोते हुए डरता था। उसने पीछे पलट कर देखा, कुत्ता खड़ा हुआ उन्हें जाते देख रहा था। घीसू ने इस बार न माधव का रोने में साथ दिया न रोने से रोका तो माधव ख़ुद ही चुप हो गया।
“अब ये सोच, गाँव वालों से क्या कहेंगे।” घीसू ने फिर पलट कर देखा कुत्ता उनका बदला तेवर देखकर लौट रहा था।
“कह देंगे जेब कट गई।”
“मगर हमारी जेब कहाँ है?” घीसू ने ठंडी सांस भरी, पिछले बरस ज़मींदार ने जो क़मीस दी थी वो इतनी कमज़ोर थी कि एक जाड़ा भी न सहार सकी।
माधव ने अपना और घीसू का जाइज़ा लिया। बदन पर सिर्फ़ एक धोती जो मैल से चिकट क़र खाल के रंग की हो गई थी।
“कह देंगे धोती के फेंटे से कहीं गिर गया और हम सारी रात ढूंडते रहे।”
“कहने को तो कुछ भी कह देंगे, कोई विश्वाश नहीं करेगा।” घीसू ने लापरवाही से कहा, “दो-चार जूतों से हमारा क्या बिगड़ेगा, हम तो उसके आदी हो गए हैं।”
रात का खाया पिया हज़म हो चुका था और धीरे धीरे भूक फिर चमकने लगी थी, मगर अब तो दूर दूर तक अंधेरा था, न बिध्या थी न घर में कुछ था और न गाँव वालों से भले की कोई उम्मीद, खेत भी उजाड़ पड़े थे, आलू की फ़सल बोरीयों में बंद हो चुकी थी।
गाँव से कुछ पहले एक सूखा हुआ पेड़ देखकर घीसू ने अपने माथे पर हाथ मारा, “हम भी कितने मूर्ख हैं कफ़न कफ़न की रट लगाए हुए हैं। सबसे बड़ी चीज़ आग है। हमें चिता की कोई फ़िक्र नहीं, आख़िर लकड़ी चाहिए कि नहीं?”
माधव ने बाप को तारीफ़ी नज़रों से देखा, बड़ों की बुद्धि बड़ी होती है, कफ़न नहीं तो हम चिता की लकड़ी लेकर गाँव जाएंगे, कुछ न होने से कुछ होना अच्छा रहेगा।
कुल्हाड़ी नहीं थी इसलिए लकड़ी तोड़ने में देर भी लगी और ताक़त भी मगर उन्होंने दो गट्ठर तैयार कर लिये और दोनों ने एक साथ सोचा। अगर बिध्या का मुआमला न होता तो ये लकड़ी बाज़ार में बेच देते और पेट की आग बुझ जाती मगर...
उन्होंने भारी दिल से गट्ठर सिर पर रखा। जब गाँव की सरहद में पहुंचे तो ये सोच कर उन्हें हौल आने लगा कि अगर गाँव वालों ने ध्यान न दिया होगा और बिधीय की लाश वैसे ही पड़ी होगी तब... लात घूंसों की उन्हें परवाह नहीं अगर उसके बदले बिध्या का क्रिया करम हो जाए तो सस्ते छूटेंगे।
जब वो गाँव में दाख़िल हुए तो अपने दरवाज़े पर भीड़ देखकर उनकी घबराहट और बढ़ गई, साफ़ ज़ाहिर था कि बिध्या की लाश जूं की तूं पड़ी है बल्कि सड़ रही है। अब इतने लोगों का सामना वो कैसे करेंगे, अगर सबने एक एक लात भी मारी तो, भूक से यूंही बुरा हाल है।
“मैं तो नहीं जाऊँगा।” घीसू ने हिम्मत हार दी, “मैं बूढ़ा हो गया हूँ और नहीं चाहता कि तुझ पर दोहरे कफ़न का बोझ पड़े।”
“अकेले मैं भी नहीं जाऊँगा।” माधव भी ख़ौफ़ज़दा था, “आख़िर हमारे दरवाज़े पर इतने जने क्यों इकट्ठा हुए हैं।”
घीसू बज़िद था कि माधव जाये। उसकी घर वाली का मुआमला है, जो हो गया सो हो गया। अब ऐसी बेवफ़ाई नहीं करनी चाहिए। मगर माधव अब तक ख़ुशी और ग़म दोनों में बाप को हिस्सेदार बनाता रहा था, लिहाज़ा उसका ख़्याल था कि चलें तो दोनों, नहीं चलें तो दोनों।
इतने में किसी की उंगली उनकी तरफ़ उठी फिर सारे सर उनकी तरफ़ घूम गए।
“भागो।” दोनों ने एक दूसरे को कहा, मगर उन्हें लगा ज़मीन ने उनके पाँव थाम लिये हैं। वो पीछे घूमे ज़रूर मगर उनसे भगा न गया। गाँव के कुछ लोग उनकी तरफ़ दौड़े आरहे थे।
गई जान... घीसू रोने लगा तो माधव ने भी उसका साथ दिया, जैसे जैसे आने वाले क़रीब होते जा रहे थे उनकी आँखों के सामने नीले पीले दायरे चकराते महसूस हो रहे थे, फिर ये दायरे बड़ी तेज़ी से गर्दिश करने लगे, अंधेरे की एक लहर आई फिर उन्हें कुछ याद न रहा।
दुबारा आँखें खुलीं तो उन्होंने किसी को कहते सुना,
“देखिए हुजूर, ये बिध्या का पति, ये सुसर है।” ये लोग इतने गरीब हैं कि बीमार बिध्या की दवा दारू न करसके, इनके पास कफ़न के पैसे भी नहीं हैं, हुजूरने देखा होगा कि ये चिता के लिए ख़ुद से लकड़ियाँ तोड़ कर ला रहे थे।
हाँ मुखिया जी, सिर्फ़ क़ानून बनाने से न समाज न्याय मिलेगा न समाज परिवर्तन होगा। एक भारी भरकम आवाज़ सुनाई दी। आज़ादी मिले पच्चास बरस गुज़र गए मगर पिछड़े लोगों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, आज की घटना ने लरज़ा दिया, आज हमारी एक बहन इसलिए मर गई कि उसे दवा न मिल सकी, उसके घर वालों के पेट में न दाना है न तन पर वस्त्र। मैं प्रतिग्या करता हूँ कि अगर आप लोगों ने हमें जन आदेश दिया तो हम समाज परिवर्तन को किताबों से निकाल कर सब के दरमियान लाएंगे, मैं अपनी पार्टी की तरफ़ से उन बदनसीब लोगों को दस हज़ार रुपय देने का ऐलान करता हूँ। ज़ोर की तालियाँ बजीं, फ़ोटोग्राफ़र उनकी और उनकी झोपड़ी की तस्वीरें ले रहे थे।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.