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जिस्म और रूह

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

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    मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

    गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़सीम कर सकते हैं। आने-पाई का हिसाब चश्म-ए-ज़दन में आपको बता सकते हैं।

    इस गुफ़्तुगू के दौरान में मुग़नी ये कह रहा था, “इंग्लिस्तान में एक आदमी है जो एक नज़र देख लेने के बाद फ़ौरन बता देता है कि इस क़ता ज़मीन का तूल-ओ-अ’र्ज़ क्या है, रक़्बा कितना है? उस ने अपने एक बयान में कहा था कि वो अपनी इस ख़ुदादाद सलाहियत से तंग गया है। वो जब भी कहीं बाहर खुले खेतों में निकलता है तो उनकी हरियाली और उनका हुस्न उसकी निगाहों से ओझल हो जाता है और वो इस क़ता-ए-ज़मीन की पैमाइश अपनी आँखों के ज़रिये से शुरू कर देता है।

    एक मिनट के अंदर वो अंदाज़ा कर लेता है कि ज़मीन का ये टुकड़ा कितना रक़्बा रखता है, उसकी लंबाई कितनी है, चौड़ाई कितनी है, फिर उसे मजबूरन अपने अंदाज़े का इम्तहान लेना पड़ता है। ‘फ़िटर टेप’ के ज़रिये से उस क़ता-ए-ज़मीन को मापता और वो उसके अंदाज़े के ऐ’न मुताबिक़ निकलता। अगर उसका अंदाज़ा ग़लत होता तो उसे बहुत तस्कीन होती। बा’ज़ औक़ात फ़ातेह अपनी शिकस्त से भी ऐसी लज़्ज़त महसूस करता है जो उसे फ़तह से नहीं मिलती। असल में शिकस्त दूसरी शानदार फ़तह का पेशखे़मा होती है।

    मैंने मुग़नी से कहा, “तुम दुरुस्त कहते हो... दुनिया में हर क़िस्म के अ’जाइबात मौजूद हैं।”

    मैं कुछ और कहना चाहता था कि मुजीब ने जो इस गुफ़्तुगू के दौरान कॉफ़ी पी रहा था, अचानक मुझसे सवाल किया,“क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

    मैं सोचने लगा कि मुजीब किस आदमी के मुतअ’ल्लिक़ मुझसे पूछ रहा है, हामिद... नहीं, वो आदमी नहीं मेरा दोस्त है।

    अब्बास, उसके मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो सकती थी। शब्बीर, उसमें कोई ग़ैरमामूली बात नहीं थी। आख़िर ये किस आदमी का हवाला दिया गया था।

    मैंने मुजीब से कहा, “तुम किस आदमी का हवाला दे रहे हो?”

    मुजीब मुस्कुराया, “तुम्हारा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है।”

    “भई, मेरा हाफ़िज़ा तो बचपन से ही कमज़ोर रहा है। तुम पहेलियों में बातें करो। बताओ वो कौन आदमी है जिससे तुम मेरा तआ’रुफ़ कराना चाहते हो।”

    मुजीब की मुस्कुराहट में अब एक तरह का असरार था, “बूझ लो!”

    “मैं क्या बूझूंगा, जबकि वो आदमी तुम्हारे पेट में है।”

    आरिफ़, असग़र और मसऊद बेइख़्तियार हंस पड़े। आरिफ़ ने मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा,“वो आदमी अगर मुजीब के पेट में है तो आपको उसकी पैदाइश का इंतिज़ार करना पड़ेगा।”

    मैंने मुजीब की तरफ़ एक नज़र देखा और आरिफ़ से मुख़ातिब हुआ, “मैं अपनी सारी उम्र उस मेह्दी की विलादत का इंतिज़ार नहीं कर सकता हूँ।”

    मस्ऊद ने अपने सिगरेट को ऐश ट्रे के क़ब्रिस्तान में दफ़न करते हुए कहा,“देखिए साहिबान! हमें अपने दोस्त मिस्टर मुजीब की बात का मज़ाक़ नहीं उड़ाना चाहिए।” ये कह कर वो मुजीब से मुख़ातिब हुआ, “मुजीब साहब, फ़रमाईए आप को क्या कहना है? हम सब बड़े ग़ौर से सुनेंगे।”

    मुजीब थोड़ी देर ख़ामोश रहा। उसके बाद अपना बुझा हुआ चुरुट सुलगा कर बोला, “मा’ज़रत चाहता हूँ कि मैंने उस आदमी के मुतअ’ल्लिक़ आपसे पूछा जिसे आप जानते नहीं।”

    मैंने कहा, “मुजीब, तुम कैसी बातें करते हो। बहरहाल, तुम उस आदमी को जानते हो।”

    मुजीब ने बड़े वसूक़ के साथ कहा! “बहुत अच्छी तरह, जब हम दोनों बर्मा में थे तो दिन-रात इकट्ठे रहते थे। अ’जीब-ओ-ग़रीब आदमी था।”

    मस्ऊद ने पूछा, “किस लिहाज़ से?”

    मुजीब ने जवाब दिया, “हर लिहाज़ से, उस जैसा आदमी आपने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखा होगा।”

    मैंने कहा, “भाई मुजीब, अब बता भी दो वो कौन हज़रत थे?”

    “बस हज़रत ही थे।”

    आरिफ़ मुस्कुराया, “चलो, क़िस्सा ख़त्म हुआ, वो हज़रत थे, और बस।”

    मसऊद ये जानने के लिए बेताब था कि वो हज़रत कौन थे? “भई मुजीब, तुम्हारी हर बात निराली होती है। तुम बताते क्यों नहीं हो कि वो कौन आदमी था जिसका ज़िक्र तुमने अचानक छेड़ दिया?”

    मुजीब तबअ’न ख़ामोशी पसंद था। उसके दोस्त-अहबाब हमेशा उसकी तबीयत से नालां रहते, लेकिन उसकी बातें जची तुली होती थीं।

    थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद उसने कहा, “मा’ज़रत ख़्वाह हूँ कि मैंने ख़्वाहमख़्वाह आपको इस मख़मसे में गिरफ़्तार कर दिया। बात दर असल ये है कि जब ये गुफ़्तुगू शुरू हुई तो मैं खो गया। मुझे वो ज़माना याद आगया जिसको मैं कभी नहीं भूल सकता।”

    मैंने पूछा, “वो ऐसा ज़माना कौन सा था?”

    मुजीब ने एक लंबी कहानी बयान करना शुरू कर दी, “अगर आप समझते हों कि उस ज़माने से मेरी ज़िंदगी के किसी रूमान का तअ’ल्लुक़ है तो मैं आप से कहूंगा कि आप कम फ़ह्म हैं।”

    मैंने मुजीब से कहा, “हम तो आपके फ़ैसले के मुंतज़िर हैं। अगर आप समझते हैं कि आप कम फ़ह्म हैं तो ठीक है लेकिन वो आदमी।”

    मुजीब मुस्कुराया, “वो आदमी आदमी था... लेकिन उसमें ख़ुदा ने बहुत सी क़ुव्वतें बख़्शी थीं।”

    मस्ऊद ने पूछा, “मिसाल के तौर पर...”

    मिसाल के तौर पर ये कि वो एक नज़र देखने के बाद बता सकता था कि आपने किस रंग का सूट पहना था, टाई कैसी थी? आपकी नाक टेढ़ी थी या सीधी? आपके किस गाल पर कहाँ और किस जगह तिल था। आपके नाख़ुन कैसे हैं। आपकी दाहिनी आँख के नीचे ज़ख़्म का निशान है। आपकी भंवें मुंडी हुई हैं। मौज़े फ़ुलां साख़्त के पहने हुए थे, क़मीज़ पोपलीन की थी मगर घर में धुली हुई।”

    ये सुन कर मैंने वाक़ेअ’तन महसूस किया कि जिस शख़्स का ज़िक्र मुजीब कर रहा है अ’जीब-ओ-ग़रीब हस्ती का मालिक है। चुनांचे मैंने उससे कहा, “बड़ा मार्का ख़ेज़ आदमी था।”

    “जी हाँ, बल्कि इससे भी कुछ ज़्यादा, उसको इस बात का ग़म था कि अगर वो कोई मंज़र, कोई मर्द, कोई औरत सिर्फ़ एक नज़र देख ले तो उसे मिन-ओ-अ’न अपने अलफ़ाज़ में बयान कर सकता है जो कभी ग़लत नहीं होंगे और इसमें कोई शक नहीं कि उसका अंदाज़ा हमेशा दुरुस्त साबित होता था।”

    मैंने पूछा, “क्या ये वाक़ई दुरुस्त था।”

    “सौ फ़ीसद... एक मर्तबा मैंने उससे बाज़ार में पूछा, ये लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है, क्या तुम उसके मुतअ’ल्लिक़ भी तफ़्सीलात बयान कर सकते हो?”

    मैं उस लड़की से एक घंटा पहले मिल चुका था। वो हमारे हमसाए मिस्टर लव ज्वाय की बेटी थी और मेरी बीवी से सलाई के मुस्तआ’र लेने आई थी। मैंने उसे ग़ौर से देखा इसलिए बग़रज़-ए-इम्तहान मैंने मुजीब से ये सवाल किया था।

    मुजीब मुस्कुराया, “तुम मेरा इम्तहान लेना चाहते हो।”

    “नहीं... नहीं, ये बात नहीं, मैं... मैं।”

    “नहीं, तुम मेरा इम्तहान लेना चाहते हो। खैर सुनो! वो लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है और जिसे... जिसे मैं अच्छी तरह नहीं देख सका। मगर लिबास के मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहना फ़ुज़ूल है इसलिए कि हर वो शख़्स जिसकी आँखें सलामत हों और होश-ओ-हवास दुरुस्त हों कह सकता है कि वो किस क़िस्म का था। वैसे एक चीज़ जो मुझे उसमें ख़ासतौर पर दिखाई दी, वो उसके दाहिने हाथ की छंगुलिया थी। उसमें किसी क़दर ख़म है, बाएं हाथ के अंगूठे का नाख़ुन मज़रूब था। उसके लिप स्टिक लगे होंटों से ये मालूम होता है कि वो आराइश के फ़न से महज़ कोरी है।”

    मुझे बड़ी हैरत हुई कि उसने एक मामूली सी नज़र में ये सब चीज़ें कैसे भाँप लीं। मैं अभी इसी हैरत में ग़र्क़ था कि मुजीब ने अपना सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहा, “उसमें जो ख़ास चीज़ मुझे नज़र आई, वो उसके दाहिने गाल का दाग़ था... ग़ालिबन किसी फोड़े का है।”

    मुजीब का कहना दुरुस्त था, मैंने इससे पूछा, “ये सब बातें जो तुम इतने वसूक़ से कहते हो, तुम्हें क्योंकर मालूम हो जाती हैं?”

    मुजीब मुस्कुराया, “मैं उसके मुतअ’ल्लिक़ कुछ कह नहीं सकता। इसलिए कि मैं समझता हूँ हर आदमी को साहब-ए-नज़र होना चाहिए। साहब-ए-नज़र से मेरी मुराद हर उस शख़्स से है जो एक ही नज़र में दूसरे आदमी के तमाम ख़द-ओ-ख़ाल देख ले।”

    मैंने उस से पूछा,“ख़द-ओ-ख़ाल देखने से क्या होता है?”

    “बहुत कुछ होता है, ख़द-ओ-ख़ाल ही तो इंसान का सही किरदार बयान करते हैं।”

    “करते होंगे। मैं तुम्हारे इस नज़रिए से मुत्तफ़िक़ नहीं हूँ।”

    “न हो, मगर मेरा नज़रिया अपनी जगह क़ायम रहेगा।”

    “रहे... मुझे इस पर क्या ए’तराज़ हो सकता है। बहरहाल, मैं ये कहे बगैर नहीं रह सकता कि इंसान ग़लती का पुतला है... हो सकता है तुम ग़लती पर हो।”

    “यार, गलतियां दुरुस्तियों से ज़्यादा दिलचस्प होती हैं।”

    “ये तुम्हारा अ’जीब फ़लसफ़ा है।”

    “फ़लसफ़ा गाय का गोबर है।”

    “और गोबर?”

    मुजीब मुस्कुराया, “वो... वो... उपला कह लीजिए, जो ईंधन के काम आता है।”

    हमें मालूम हुआ कि मुजीब एक लड़की के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गया है। पहली ही निगाह में उसने उसके जिस्म के हर ख़द-ओ-ख़ाल का सही जायज़ा ले लिया था। वो लड़की बहुत मुतअस्सिर हुई जब उसे मालूम हुआ कि दुनिया में ऐसे आदमी भी मौजूद हैं जो सिर्फ़ एक नज़र में सब चीज़ें देख जाते हैं तो वो मुजीब से शादी करने के लिए रज़ामंद हो गई।

    उनकी शादी हो गई... दुल्हन ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी दाएं कलाई में किस डिज़ाइन की दस्त लच्छी थी... उसमें कितने नगीने थे।

    ये सब तफ़सीलात उसने हमें बताईं।

    उन तफ़सीलात का ख़ुलासा ये है कि उन दोनों में तलाक़ हो गई।

    स्रोत:

    بغیر اجازت

      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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