एक दोस्त की ज़रूरत है
स्टोरीलाइन
यह कहानी एक ऐसे कामयाब शख़्स की है, जो काफ़ी अमीर होकर भी अकेला है। उसे एक दोस्त की ज़रूरत है। इसके लिए वह अख़बार में इश्तिहार देता है। कुछ दोस्त उस इश्तिहार और उसके देने वाले का मज़ाक़ उड़ाते हैं, लेकिन अगले ही दिन इश्तिहार देने वाले के दिए गए पते पर उससे मिलने पहुँच जाते हैं। वहाँ वह सब एक के बाद एक उस शख़्स को अपनी विशेषताएँ बताते हैं और खु़द को उसकी दोस्ती के लिए पेश करते हैं लेकिन उसे तो किसी और ही दोस्त की तलाश होती है।
65 साल के एक रिटायर्ड शख़्स को एक दोस्त की ज़रूरत है।
उसकी फ़ैमिली है। इ’ल्म-ए-अदब, आर्ट और संगीत का शौक़ीन है।
“दोस्त की किसी भी कमज़ोरी और कोताही को नज़र-अंदाज़ करके हाथ मिलाना है।”
न्यूज़पेपर में इश्तिहार पढ़ कर डॉक्टर नायक हँसने लगे, “65 बरस तक उसे कोई दोस्त नहीं मिला?”
“जाने कितने दोस्तों से दुश्मनी कर चुका है?”, राशिद ने कार्ड बाँटते हुए कहा।
“इसीलिए उसे अब भी कोई दोस्त नहीं मिलेगा”, वो सब एक साथ हँसने लगे।
“65 बरस गुज़ार दिए उसने किसी दोस्त के बग़ैर! कितना अकेला होगा वो! मेरी तरह...”
स्वर्ण सिंह सर झुका कर सोचने लगा... घर में बीवी है। बच्चे हैं... आस-पास दोस्त बैठे हैं। हाथ में रमी के कार्ड लिए हर तरह से मुझे मात देना चाहते हैं... जिसकी तरफ़ हाथ बढ़ाऊँ वो पीछे हट जाता है...
स्वर्ण सिंह ने चाय का कप रख दिया... बेबसी से हाथ मलने लगा।
इतवार का दिन था... वो सब रमेश के घर बैठे ही खेल रहे थे।
रमी तो एक बहाना था... हफ़्ते भर की थकान और बोरियत कम करने के लिए वो सब किसी एक जगह साथ बैठ कर ख़ूब हँसते। बीअर पीते... बीवी बच्चों से दूर... ऑफ़िस से दूर... सियासी दहशत से दूर... जो दोस्त वहाँ नहीं है इसकी बुराइयाँ करके जी ख़ुश करते।
“बोर करता होगा साला दोस्तों को...। तुम्हारी तरह...”, नायक ने बीअर का गिलास उठाकर कहा।
“तो फिर तुम बन जाओ उसके दोस्त... डॉक्टर हो। उसके दुख की दवा दे दो...”, सब हँस पड़े।
“इतने दोस्त यहाँ बैठे हैं। इनके ज़ुल्म कुछ कम हैं कि एक और हार्ट पेशंट को ले आऊँ...?”, वेंकट के थप्पड़ से बचते हुए नायक ने कहा।
“इश्तिहार यूँ दिया है जैसे एक नौकरी की, एक ड्राईवर की ज़रूरत है।”
“साला समझता है दोस्त भी मार्किट में बिक रहे हैं।”
रियाज़ ने कार्ड टेबल पर डाल कर सिगरेट मुँह में दबाया।
“क्या मेरा कोई दोस्त है?”, ये बात इम्तियाज़ ने सिगरेट के साथ जलाई और लाईटर दबाकर बुझा दी।
“उसे एक दोस्त की ज़रूरत है। मगर दोस्त कौन होता है। 65 बरस में भी उसे पता नहीं चला।”
“तुम्हारी सूरत दिखा देते हैं उसे। फिर तौबा कर लेगा दोस्त बनाने से।”, स्वर्ण सिंह ने इम्तियाज़ के घूँसे से बचते हुए कहा।
“हाँ मेरी सूरत दिखा दो उसे...”, इम्तियाज़ ने गर्दन झुका ली।
ये सब जो मेरे पास बैठे हैं... क्या मेरे दोस्त हैं? एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए हम सब दूसरों की ग़लतियों, कोताहियों की ताक में रहते हैं और फिर उसकी हिमाक़त पर सब के क़हक़हे एक साथ गूँज उठते हैं।
“साला बोर करता होगा घर वालों को... बेटी कॉलेज से क्यों नहीं आई... बेटा कहाँ गया... बीवी ने फ़ोन पर किससे बात की... तुम कहाँ जा रहे हो?”
ये सब शिकायतें उसके घर वालों को इम्तियाज़ से थीं।
वो दोस्तों को अपने घर के मसाइल सुनाता रहता था।
इम्तियाज़ को आज ही की बात याद आई।
वो दिल्ली में जिस लड़की से मिला था उसका आज फ़ोन आने वाला था।
उसने बीवी से कहा, “मेरे लिए एक लड़की का फ़ोन आएगा। उससे कहना मैं घर पर नहीं हूँ। शाम को क्लब में मिले।”
थोड़ी देर बा’द फ़ोन आ गया। बीवी ने फ़ोन उठाकर कहा, “तुम आज मत आओ। इम्तियाज़ घर में हैं।”
उसे ग़ुस्सा आगया, “मैंने कहा था इस लड़की से कहना में घर पर नहीं हूँ।”
“मगर वो फ़ोन मेरे लिए था...”, बीवी ने मुस्कुरा के कहा।
अब वो दोस्तों के साथ बैठ कर शराब न पिए तो क्या करे।
मगर आज सबको क़हक़हे लगाने के लिए एक बात मिल गई थी।
“पहले तो ये बताओ यार कि क्या हम किसी के दोस्त बन सकते हैं?”
राशिद के इस सवाल पर सब हँसना भूल गए। स्वर्ण सिंह के हाथ से कुछ कारड्ज़ नीचे गिर गए। नायक ने बीअर का गिलास टेबल पर रखकर दोनों हाथों से सर को थाम लिया। जब से डॉक्टर नायक सिविल सर्जन हो गया है यूँ बात करता है जैसे यहाँ सब दिल के मरीज़ बैठे हैं जिनका एंजियोग्राम होगा...।
“थक गए यार अब...”, इम्तियाज़ ने कारड्ज़ टेबल पर डाल कर अंगड़ाई ली...।
“ओ साधना... दही बड़े खिलाने के लिए और कितनी देर तरसाएगी तू...?”
ये बात सब जानते थे कि दही बड़े खाने के बहाने इम्तियाज़ थोरी देर साधना से हँसी मज़ाक़ छीना-झपटी करना चाहता है। ग्रुप के सब ही का किसी न किसी की बीवी से रोमांस चलता रहता था
मगर राशिद को एक ही फ़िक्र थी आज...।
“जाने वो हिंदू है या मुस्लमान?”
“मुस्लमान है तो रिटायर होने के बा’द हूरों को हथियाने में जुट गया होगा”, रमेश की बात पर सब हँस पड़े।
“और हिंदू है तो राम-राम जपना, पराया माल अपना कर रहा होगा”, इम्तियाज़ ने कहा।
“यार स्वर्ण सिंह। तो भी बता दे कि जब तेरे बारह बज जाएँगे तो क्या करेगा?”
“अख़बार में इश्तिहार दूँगा कि एक और दुश्मन की ज़रूरत है...”
ज़ोरदार क़हक़हों के साथ सब ब्रीफकेस सँभाल कर खड़े हो गए...।
अगली इतवार को...
एक बहुत शानदार ख़ूबसूरत बंगले के सामने एक सात कई कारें रुक गईं... और वो सब एक दूसरे को देखकर हैरान हो गए। फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।
“मैंने सोचा ज़रा देख आऊँ कि वो कौन अहमक़ है जिसे अभी तक एक दोस्त भी नहीं मिला...”
“हाँ... मैंने भी यही सोचा तन्हा इंसान को क्यों न सहारा दिया जाए...”
वो सब ज़ोर ज़ोर से हँसते हुए आगे बढ़े...।
बहुत शानदार घर था... फूलों से भरा हुआ लॉन...।
वाचमैन ने सब का नाम पूछा... और फिर आगे बढ़कर धीरे से बैल बजाई...।
एक ख़ुश शक्ल स्मार्ट शख़्स ने दरवाज़ा खोला...।
ऊँचा पूरा, अधेड़ उ’म्र वाला, सफ़ैद खादी का कुर्ता पाजामा पहने... सफ़ैद बालों से ढका हुआ सर... एक खुली हुई किताब हाथ में थामे... वो सबको देखकर घबरा गया...।
“आप आप कौन? सूरी... मैंने आप को नहीं पहचाना...”
“आप हमें उस वक़्त भी नहीं पहचानेंगे जब हम आपके दोस्त बन जाएँगे”, स्वर्ण सिंह के साथ हम सब ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे...।
“अच्छा... अच्छा आप सब मेरे दोस्त बनने के लिए आए हैं...? आइए। आइए।”
उसने एक तरफ़ झुक कर बड़े ख़ुलूस के साथ हम सबको अंदर बुलाया... और फिर एक शानदार ड्राइंगरूम में बिठाकर कहा..., “मैं श्याम हूँ... काम तो आर्कीटेक्ट का करता था। मगर कुछ भी न बना सका। सिर्फ़ तोड़ फोड़ करता रहा... और क्या कहूँ?”, वो इधर-उधर देखकर सर खुजाने लगा।
“मैं ख़ुद नहीं जानता कि मैं कौन हूँ?”, सब हँसने लगे...।
ड्राइंगरूम में माडर्न आर्ट की पेंटिंगें थीं। क़ीमती फ़र्नीचर... संगमरमर के एक ऊँचे स्थान पर पत्थर की मूर्त बनी मीरा हाथ में इकतारा लिए सर झुकाए बैठी थी... जैसे सोच रही हो। कौन गली गयो श्याम?
टेबल पर बीअर की ख़ाली बोतल, भरा हुआ गिलास, सेल-फ़ोन और न्यूज़ पेपर रखा था।
सबको बिठाने के बा’द उसने बीअर का गिलास और बोतल टेबल पर से उठाई तो उसके काँपते हाथ से छूट कर गिलास ज़मीन पर गिर गया... काँच के टुकड़े चारों तरफ़ बिखर गए।
उसने बड़ी नदामत के साथ हमारी तरफ़ देखा, “सौरी... मेरे घर में हर चीज़ टूट जाती है।”
“कोई बात नहीं काँच का गिलास था। आपके हाथ से छूट गया”, नायक ने हँस कर कहा।
“हाँ... मेरे हाथ से हर चीज़ छूट जाती है। बहाना ढूँढती है। बिखर जाने का...”, शीशा टूटने की आवाज़ सुनकर एक नौकर अंदर आया। उसने गिलास के बिखरे हुए टुकड़े समेटे, फ़र्श साफ़ किया तो डॉक्टर नायक ने कहा..., “आपको एक दोस्त की ज़रूरत है तो हम सब दोस्तों ने सोचा कि अच्छा है एक और दोस्त मिल जाए।”
“एक और...?”, उसने बड़े तंज़ के साथ मुस्कुरा के हमें देखा तो सब हँस पड़े।
“मैं उर्दू का एक प्रोफ़ैसर हूँ। डॉक्टर इम्तियाज़ अली”, इम्तियाज़ ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया तो उसने बड़ी गर्म-जोशी से हाथ थाम कर चूम लिया।
“मैं डॉक्टर नायक। कार्डियोलौजिस्ट हूँ।”
“मैं स्वर्ण सिंह बैरिस्टर हूँ...।”
“मैं रमेशचन्द्र। डी.जी.आई. पुलिस... लेकिन मुझसे दूर मत भागिए। मैं अपना ड्रैस उतार कर आया हूँ।”
“मैं राशिद नियाज़ी...”, राशिद ने उसका हाथ थाम लिया।
“ये कुछ नहीं करते। सिर्फ़ शायरी करते हैं”, इम्तियाज़ ने हँस कर कहा, “आपको इनसे बच कर रहना होगा वर्ना वो फ़ौरन अपनी नई ग़ज़ल सुनाना शुरू’ कर देंगे”, सबने मिलकर ज़ोरदार क़हक़हे लगाए।
“शायद राशिद ही दुनिया का सबसे अच्छा काम करते हैं... टूटने बिखरने के इस शोर में प्यार और अम्न की पनाह तो इनकी ग़ज़ल ही में मिलेगी। या मीरा के गीतों में”, श्याम ने राशिद से हाथ मिलाकर कहा। और सबने एक दूसरे की तरफ़ यूँ देखा कि जैसे कह रहे हूँ, ''ये बुरा आदमी नहीं है।”
“आपसे मिलकर अच्छा लग रहा है”, स्वर्ण सिंह ने बड़ी ख़ुशी से कहा।
“हमें भी आपके घर आकर अच्छा लग रहा है”, इम्तियाज़ ने मुस्कुरा के कहा।
“जी हाँ... उस घर में आकर हमेशा अच्छा लगता है जो अपना न हो...”, उसने बड़ी लापरवाई से ये बात कही मगर राशिद ने उसे बड़े ग़ौर से देखा। जैसे उसने सब के दिल की बात कह दी हो।
“पहले हम ने रात को प्रोग्राम बनाया था आपसे मिलने का। ख़याल था कि शायद रात में आपकी कोई मसरूफ़ियत होगी।”
“नहीं... आप रात को भी आइए। रात-दिन से क्या फ़र्क़ पड़ता है। मेरे लिए तो कभी रात आती है कभी नहीं आती।”, उसने सिगरेट की तरफ़ हाथ बढ़ाया फिर स्वर्ण सिंह को देखकर रुक गया।
“सौरी”, और फिर नौकर को बुलाकर चाय लाने के लिए कहा।
“बहुत अच्छी बातें करते हैं आप”, रमेश ने मुस्कराकर कहा।
“हाँ... सिर्फ़ बातें ही अच्छी करता हूँ।”
“आप हमारे क्लब के मैंबर बन जाए। वहाँ हम शतरंज भी खेलते हैं।”
“आई ऐम वेरी सौरी... मुझे कोई खेल नहीं आता। हर बाज़ी हार जाता हूँ...”, उसने इधर-उधर देखकर बेबसी से कहा..., “क्या करूँ? टीवी देखो तो मज़हब, साईंस, सियासत की दहशत... दुनिया में लूट... नफ़रत का अँधेरा... मेरे दिल को धड़कने पर मजबूर कर देती है।”
“सच कह रहे हैं आप”, राशिद ने उसका हाथ थाम लिया।
“बच्चे मुझसे दूर चले गए हैं। दोस्तों को मेरे साथ होली खेलना याद नहीं रहता। बीवी को अपनी महरूमियाँ और मेरी हिमाक़तें याद आती हैं। सुब्ह शाम की तरह अब हम दोनों इकट्ठे नहीं बैठते कभी।”
“ये तो हर जगह हो रहा है। अब दुनिया से प्यार ख़ुलूस ख़त्म हो गया है”, राशिद ने कहा।
“अब तो हमारी दुनिया भी उन तारीक सय्यारों में शामिल हो चुकी है जहाँ ऑक्सीजन है न रौशनी।”
“आपकी फ़ैमिली कहाँ है। घर में आपके साथ और कौन रहता है?”
स्वर्ण सिंह चाहता था इस टॉपिक को बदल दे जिसमें ऑक्सीजन है न रौशनी।
“मेरा बेटा, राम कम्पयूटर इंजीनियर है... वो अपने ऑफ़िस कम्पयूटर के आगे कान बंद किए बैठा रहता है। नैना की शादी हो गई। वो अमरीका चली गई है। मेरी बीवी निर्मला श्याम बहुत मशहूर आर्टिस्ट है।”
“निर्मला श्याम?”, हम सब चौंक पड़े...।
“वो बहुत मशहूर आर्टिस्ट हैं। वो आपकी बीवी हैं?”
“जी हाँ... वो आजकल अपने दोस्त राजन सिन्हा के साथ कश्मीर गई हैं। वो भी बहुत मशहूर गायक हैं।उनकी मधुर तानें निर्मला को अपने साथ ले जाती हैं।”
“तो ये निर्मला श्याम का घर है... बहुत अच्छा लगा हमें आपके घर आकर...”, इम्तियाज़ ने ख़ुश हो कर कहा।
“आप का ये पोर्टरेट भी उन्होंने बनाया है?”
सब दीवार पर लगा श्याम का पोर्टरेट देखने लगे।
“जी हाँ... वो कई रंगों को मिलाकर मेरे मन-माने रूप उजागर कर देती हैं”, श्याम ने हँस कर कहा।
“आप देखिए। इतने ख़ूबसूरत फ्रे़म के अंदर एक कील से बाँध कर कितनी ऊँचाई पर रख दिया है मुझे... बहुत बड़ी फ़नकार है वो...”
श्याम की बात सुनकर सब चुप हो गए।
“लेकिन आप ये देखिए कि एक कील से बँधा हुआ इतनी ऊँचाई पर बैठा इस घर को देख रहा हूँ मैं, जो एक थियेटर का ख़ाली हाल लगता है। जहाँ सब अपना अपना किरदार अदा करके चले गए।”
“श्याम साहिब आपकी बातें सुनकर ऐसा लगता है जैसे आप बहुत अच्छे शायर हैं।”
राशिद की बात पर सब हँस पड़े...।
“नहीं राशिद साहिब हम... लोग न शायरी करते हैं न जी भर के हँसना आता है। शक, मस्लेहत और एहतियात के हिसार में क़ैद रहते हैं। लाईटर जलाकर दुनिया के हर मसअले को देखते हैं और अपनी महरूमी को राख बनाकर झटक देते हैं।”
“वाह कितनी अच्छी बात कही है आपने”, इम्तियाज़ ने ख़ुश हो कर उसका हाथ थाम लिया।
“आप जीनियत लोग हैं। मैं कोई ऐसी बात न कह दूँ जो आपको बुरी लगे।”
“अरे नहीं यार... आप हमसे बात करते वक़्त क्यों डर रहे हैं?”, स्वर्ण सिंह ने हँस कर कहा।
“नहीं... मुझे अपने सिवा किसी से डर नहीं लगता। ग़ुस्सा आ जाए तो मैं फिर अपनी धज्जियाँ बिखेर के फेंक देता हूँ। और फिर कुछ मिल जाने की उम्मीद लिए ख़ाली घर में घूमता फिरता हूँ।”
“तो अस्ल मसअला आपकी तन्हाई का है...?”, डॉक्टर नायक ने श्याम की बीमारी समझ ली।
“मुझे जाने कितने रोग हैं डॉक्टर साहिब। मैं तो किसी कहानी का अधूरा किरदार हूँ जिसे कोई लिख कर काट देता है।”
“इसलिए आपको एक दोस्त की ज़रूरत है।”
“अब आपको पाँच दोस्त मिल गए हैं...”, स्वर्ण सिंह ने बड़ी मुहब्बत से उसका हाथ थाम कर कहा।
“हम आपको तन्हाई में घबराने के लिए अकेला नहीं छोड़ेंगे”, राशिद ने इसका हाथ थाम लिया।
“हाँ यार। तुम इस घर में अकेले हो। वक़्त कैसे गुज़ारते हो?”
“वक़्त कब रुकता है वो तो गुज़र ही जाता है। मैं तो शेल्फ़ खोल कर गुज़रे हुए वक़्त को ढूँढता हूँ।”
“गुज़रे हुए वक़्त को हम भी ढूँडते हैं”, राशिद ने बड़ी उदासी से कहा, “मगर वो वक़्त कहाँ मिलता है...”
“मिल भी जाता है”, श्याम ने कुछ सोचते हुए कहा, “अगर किसी ने अपनी यादों में बाँध रखा हो।”
वो सब चुप हो गए जैसे अब कुछ भी कहने को न रहा हो।
बा’द में इम्तियाज़ ने पूछा..., “हम सब के आ जाने से आपको कैसा लगा?”
“बहुत अच्छा लग रहा है”, उसने चारों तरफ़ देखकर कहा।
“घर की हर चीज़ वैसी ही लग रही है जैसी वो है।”
उसकी बात सुनकर फिर सब चुप हो गए।
“मुआ'फ़ करना श्याम, अगर मैं ये पूछूँ कि क्या आप भगवान को मानते हैं?”, रमेश चाहता था उसे धरम ईमान की तरफ़ ले जाए।
“हाँ...”, उसने गर्दन झुकाकर धीरे से कहा, “मैं भगवान को इसलिए मानता हूँ कि अपनी हर महरूमी ना-कामी, बे-ईमानी का ज़िम्मेदार उसी को बना देता हूँ।”
“अच्छा। तो आप भगवान से नहीं डरते?”
“नहीं... मुझे अपने सिवा किसी से डर नहीं लगता। दूसरों से बे-ईमानी करके तो मज़ा आता है मगर अपने आपसे बे-ईमानी करने का पाप हमेशा साथ रहता है”, वो सर झुकाए जैसे किसी अदालत में बयान दे रहा था।
“आप सब मेरे दोस्त बनना चाहते हैं तो ए’तिराफ़ करता हूँ कि मैंने बहुत से क़त्ल किए हैं। लूट बे-ईमानी की है। अपनी बीवी निर्मला से झूटा प्यार जता कर। बच्चों को उधर जाने से रोका जिधर वो जाना चाहते थे। मैंने अपने आपसे भी इंसाफ़ नहीं किया। मेरे ख़्वाब। मेरी ख़्वाहिशें। सब का गला घोंट दिया।”
“आपने क़त्ल भी किए हैं?”, वो सब चौंक पड़े।
“हाँ... मैंने अपनी उस लगन को मार डाला जो मुझे रौशन से मन की बात कहने पर उकसाती थी... मगर मेरी ख़ुद-पसंदी ने दिल की बात कहने नहीं दी। बा’द में अपने दिल का हाल उसके नाम ख़तों में लिखा और वो ख़त ग़ालिब के दीवान में छिपा दिए। कई बार रौशन मुझसे कुछ सुनने को आई। मेरी झुकी-झुकी आँखों में कुछ ढूँढ कर पाकिस्तान चली गई। जल्द हिन्दोस्तान-पाकिस्तान के बीच मुझे रौशन से दूर रखने के लिए हद-बंदी कर दी गई।”
“मैंने ये घर बनाया था कि जब सारे संसार में झूट, बे-ईमानी, ना-इंसाफ़ी का अँधेरा छा जाएगा, अपने घर के चराग़ से सच्चाई और प्यार की लौ बढ़ा दूँगा। मगर झूट, बे-ईमानी, ख़ुद-ग़रज़ी की आँधी में वो सारे चराग़ बुझ गए हैं... मेरे हाथों से हर चीज़ गिर के टूट चुकी है।”
उसकी बात सुनकर कुछ देर तक सब चुप हो गए... फिर रमेश ने उसे समझाया,
“हाँ यार... ज़िंदगी में हम सब कुछ ऐसे काम करने पर मजबूर हो जाते हैं जो करना नहीं चाहते।”
“तुम इतनी छोटी-छोटी बातों पर इतने दुखी क्यों हो गए हो?”, राशिद ने क़रीब जाकर बड़ी मुहब्बत से उसका हाथ थाम लिया और उसका झुका हुआ सर ऊपर उठाया।
“आप इन्हें छोटी-छोटी बातें कहते हैं?”, उसने सर झुकाकर कहा।
“मैं आर्कीटेक्ट था... इतने डैम बनाए... लाखों रुपये का हेरफेर किया... ख़राब कंस्ट्रेक्शन की वज्ह से वो पुल टूट गया... दो मज़दूर दब कर मर गए।”
“ऐसी गलतियाँ हम सब करते हैं। इन बातों को भूल कर अपने आपको सँभालिए आप...”
डॉक्टर नायक ने उन्हें ग़ौर से देखा।
“कल आप हमारे क्लीनिक आइए। मैं आपको एंजियोग्राम करूँगा।
“नहीं नहीं...”, वो घबरा गया... “आप क्या करेंगे मेरे दिल का हाल जान कर?”
सब हँस पड़े।
“मैं तो अपने दिल का हाल अपने आपको सुनाना चाहता हूँ।”
कुछ देर के बा’द फिर से जैसे चुप हो गए और फिर वो दोनों हाथ मलते हुए धीरे-धीरे अपने आप से बातें करने लगा।
“आप सब शायद सुनकर हँसेंगे कि मैंने न्यूज़पेपर में ये इश्तिहार इसलिए दिया था कि कालबेल की आवाज़ सुनकर मैं दरवाज़ा खोलूँ तो सामने मैं खड़ा हूँ...”
और फिर बेबसी से हाथ मलते हुए जैसे किसी से सरगोशी करने लगा।
“ये कैसी अनहोनी बात होगी कि मैं अपने गुनाहों, अपनी ख़ुद-सरी को मुआ'फ़ करके अपने आपसे हाथ मिलाने को तैयार हो जाऊँ?”
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