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दूदा पहलवान

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    एक नौकर की अपने मालिक के प्रति वफ़ादारी इस कहानी का विषय है। सलाहू ने अपने लकड़पन के समय से ही दूदे पहलवान को अपने साथ रख लिया था। बाप की मौत के बाद सलाहू खुल गया था और हीरा मंडी की तवायफ़ों के बीच अपनी ज़िंदगी गुज़ारने लगा था। एक तवायफ़ की बेटी पर वह ऐसा आशिक़ हुआ कि उसका दिवाला ही निकल गया। घर को कुर्क होने से बचाने के लिए उसे बीस हज़ार रूपयों की ज़रूरत थी, जो उसे कहीं से न मिले। आख़िर में दूदे पहलवान ने ही अपना आत्म-सम्मान बेचकर उसके लिए पैसों का इंतेज़ाम किया।

    स्कूल में पढ़ता था तो शहर का हसीन तरीन लड़का मुतसव्वर होता था। उस पर बड़े बड़े अमरद परस्तों के दरमियान बड़ी ख़ूँख़्वार लड़ाईयां हुईं। एक दो इसी सिलसिले में मारे भी गए।

    वो वाक़ई हसीन था। बड़े मालदार घराने का चश्म-ओ-चराग़ था, इसलिए उसको किसी चीज़ की कमी नहीं थी। मगर जिस मैदान वो कूद पड़ा था उसको एक मुहाफ़िज़ की ज़रूरत थी जो वक़्त पर उसके काम आसके। शहर में यूं तो सैंकड़ों बदमाश और गुंडे मौजूद थे जो हसीन-ओ-जमील सलाहू के एक इशारे पर कट मरने को तैयार थे, मगर दूदे पहलवान में एक निराली बात थी। वो बहुत मुफ़लिस था, बहुत बद-मिज़ाज और अख्खड़ तबीयत का था, मगर इसके बावजूद उसमें ऐसा बांकपन था कि सलाहू ने उसको देखते ही पसंद कर लिया और उनकी दोस्ती हो गई।

    सलाहू को दूदे पहलवान की रिफ़ाक़त से बहुत फ़ायदे हुए। शहर के दूसरे गुंडे जो सलाहू के रास्ते में रुकावटें पैदा करने का मूजिब होसकते थे, दूदे की वजह से ख़ामोश रहे। स्कूल से निकल कर सलाहू कॉलेज में दाख़िल हुआ तो उसने और पर पुर्जे़ निकाले और थोड़े ही अ’र्से में उसकी सरगर्मीयां नया रुख़ इख़्तियार कर गईं। इसके बाद ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि सलाहू का बाप मर गया। अब वो उस की तमाम जायदाद, इम्लाक का वाहिद मालिक था। पहले तो उसने नक़दी पर हाथ साफ़ किया। फिर मकान गिरवी रखने शुरू किए।

    जब दो मकान बिक गए तो हीरा मंडी की तमाम तवाइफ़ें सलाहू के नाम से वाक़िफ़ थीं। मालूम नहीं उसमें कहाँ तक सदाक़त है लेकिन लोग कहते हैं कि हीरा मंडी में बूढ़ी नाइकाएं अपनी जवान बेटियों को सलाहू की नज़रों से छुपा छुपा कर रखती थीं। मबादा वो उसके हुस्न के चक्कर में फंस जाएं। लेकिन इन एहतियाती तदाबीर के बावजूद जैसा कि सुनने में आया है, कई कुंवारी तवाइफ़ ज़ादियाँ उसके इश्क़ में गिरफ़्तार हुईं और उल्टे रस्ते पर चल कर अपनी ज़िंदगी के सुनहरे अय्याम उसके तलव्वुन की नज़र कर बैठीं।

    सलाहू खुल खेल रहा था। दूदे को मालूम था कि ये खेल देर तक जारी नहीं रहेगा। वो उम्र में सलाहू से दुगुना बड़ा था। उसने हीरा मंडी में बड़े बड़े सेठों की ख़ाक उड़ते देखी थी। वो जानता था कि हीरा मंडी एक ऐसा अंधा कुँआं है जिसको दुनिया भर के सेठ मिल कर भी अपनी दौलत से नहीं भर सकते। मगर वो उसको कोई नसीहत नहीं देता था। शायद इसलिए कि वो जहांदीदा होने के बाइ’स अच्छी तरह समझता था कि जो भूत उसके हसीन-ओ-जमील बाबू के सर पर सवार है, उसे कोई टोना टोटका उतार नहीं सकता।

    दूदा पहलवान हर वक़्त सलाहू के साथ होता था। शुरू शुरू में जब सलाहू ने हीरा मंडी का रुख़ किया तो उसका ख़याल था कि दूदा भी उसके ऐश में शरीक होगा मगर आहिस्ता आहिस्ता उसे मालूम हुआ कि उसको इस क़िस्म के ऐश से कोई दिलचस्पी नहीं थी जिसमें वो दिन रात ग़र्क़ रहता था। वो गाना सुनता था, शराब पीता था। तवाइफ़ों से फ़हश मज़ाक़ भी करता था, मगर इससे आगे कभी नहीं गया था। उसका बाबू रात रात भर अंदर किसी मा’शूक़ को बग़ल में दबाये पड़ा रहता और वो बाहर किसी पहरेदार की तरह जागता रहता।

    लोग समझते थे कि दूदे ने अपना घर भर लिया है। दौलत की जो लूट मची है। इसमें उसने यक़ीनन अपने हाथ रंगे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि जब सलाहू दाद-ए-ऐश देने को निकलता था हज़ारों नोट दूदे ही की तहवील में होते थे। मगर ये सिर्फ़ उसी को मालूम था कि पहलवान ने इनमें से एक पाई भी कभी इधर उधर नहीं की। उसको सिर्फ़ सलाहू से दिलचस्पी थी, जिसको अपना आक़ा समझता था और ये लोग भी जानते थे कि दूदा किस हद तक उसका ग़ुलाम है। सलाहू उसको डांट डपट लेता था। बा’ज़ औक़ात शराब के नशे में उसे मार पीट भी लेता था मगर वो ख़ामोश रहता। हसीन-ओ-जमील सलाहू उसका मा’बूद था। वो उसके हुज़ूर कोई गुस्ताख़ी नहीं कर सकता था।

    एक दिन इत्तफ़ाक़ से दूदा बीमार था। सलाहू रात को हस्ब-ए-मा’मूल ऐश करने के लिए हीरा मंडी पहुंचा। वहां किसी तवाइफ़ के कोठे पर गाना सुनने के दौरान में उसकी झड़प एक तमाशबीन से हो गई और हाथापाई में उसके माथे पर हल्की सी ख़राश गई।

    दूदे को जब इसका इल्म हुआ तो उसने दीवार के साथ टक्कर मार मार कर अपना सारा सर ज़ख़्मी कर लिया। ख़ुद को बेशुमार गालियां दीं, बहुत बुरा भला कहा। उसको इतना अफ़सोस हुआ कि दस पंद्रह दिन तक सलाहू के सामने उसका सर झुका रहा। एक लफ़्ज़ भी उसके मुँह से निकला। उस को ये महसूस होता था कि उससे कोई बहुत बड़ा गुनाह सरज़द हो गया है। चुनांचे लोगों का बयान है कि वो बहुत देर तक नमाज़ें पढ़ पढ़ कर अपने दिल का बोझ हल्का करता रहा।

    सलाहू की वो इस तरह ख़िदमत करता था जिस तरह पुराने क़िस्से कहानियों के वफ़ादार नौकर करते हैं। वो उसके जूते पालिश करता था, उसके पांव दाबता था। उसके चमकीले बदन पर मालिश करता था। उसके हर आराम और आसाइश का ख़याल रखता था जैसे उसके बतन से पैदा हुआ है।

    कभी कभी सलाहू नाराज़ हो जाता। ये वक़्त दूदे पहलवान के लिए बड़ी आज़माईश का वक़्त होता था। दुनिया से बेज़ार हो जाता। फ़क़ीरों के पास जा कर तावीज़ गंडे ले लेता। ख़ुद को तरह तरह की जिस्मानी तकलीफ़ पहुंचाता। आख़िर जब सलाहू मौज में आकर उसे बुलाता तो उसे ऐसा महसूस होता कि दोनों जहान मिल गए हैं।

    दूदे को अपनी ताक़त पर नाज़ नहीं था, उसे ये भी घमंड नहीं था कि वो छुरी मारने के फ़न में यकता है। उसको अपनी ईमानदारी और अपने ख़ुलूस पर भी कोई फ़ख़्र नहीं था, लेकिन वो अपनी इस बात पर बहुत नाज़ां था कि लंगोट का पक्का है। वो अपने दोस्तों, यारों को बड़े फ़ख़्र-ओ-इम्तियाज़ से बताया करता था कि उसकी जवानी में सैंकड़ों मर्द-औरतें आईं, चलितरों के बड़े बड़े मंत्र उस पर फूंके मगर वो... शाबाश है उसके उस्ताद को, लंगोट का पक्का रहा।

    ये बड़ नहीं थी। उन लोगों को जो दूदे पहलवान के लंगोटीए थे, अच्छी तरह मालूम था कि उसका दामन औरत की तमाम आलाईशों से पाक है। मुतअ’द्दिद बार कोशिश की गई कि वो गुमराह हो जाए मगर नाकामी हुई, वो साबित क़दम रहा।

    ख़ुद सलाहू ने कई बार उसका इम्तहान लिया। अजमेर के उ’र्स पर उसने मेरठ की एक काफ़िर अदा तवाइफ़ अनवरी को इस बात पर आमादा कर लिया कि वो दूदे पहलवान पर डोरे डाले। उसने अपने तमाम गुर इस्तेमाल कर डाले मगर दूदे पर कोई असर हुआ। उ’र्स ख़त्म होने पर जब वो लाहौर रवाना हुई तो गाड़ी में उसने सलाहू से कहा, “बाऊ! “बस अब मेरा कोई इम्तहान लेना। ये साली अनवरी बहुत आगे बढ़ गई थी। तुम्हारा ख़याल था वर्ना गला घोंट देता हराम-ज़ादी का।”

    इसके बाद सलाहू ने उसका और कोई इम्तहान लिया। दूदे के ये तंबीही अलफ़ाज़ काफ़ी थे जो उस ने बड़े संगीन लहजे में अदा किए थे।

    सलाहू ऐश-ओ-इशरत में ब-दस्तूर ग़र्क़ था। इसलिए कि अभी तीन चार मकान बाक़ी थे। हीरा मंडी की तमाम क़ाबिल-ए-ज़िक्र तवाइफ़ें एक एक करके उसके पहलू में चुकी थीं। अब उसने झूटे जामों का दौर शुरू कर दिया था।

    उसी दौरान में एक दम कहीं से एक तवाइफ़ अलमास पैदा हो गई जो एक दम सारी हीरा मंडी पर छा गई। हाथ लगाए मैली होती है। पानी पीती है तो उसके शफ़्फ़ाफ़ हलक़ में से नज़र आता है। हिरनी की सी आँखें हैं जिनमें ख़ुदा ने अपने हाथ से सुर्मा लगाया है। बदन ऐसा मुलायम है कि निगाहें फिसल फिसल जाती हैं। सलाहू जहां भी जाता है, उस परी चेहरा और हूर शमाइल माशूक़ा के हुस्न-ओ-जमाल की बातें सुनता था।

    दूदे पहलवान ने फ़ौरन पता लगाया और अपने बाबू को बताया कि ये अलमास कश्मीर से आई है। वाक़ई ख़ूबसूरत है, अधेड़ उम्र की माँ उसके साथ है जो उस पर बहुत कड़ी निगरानी रखती है। इस लिए कि वो लाखों के ख़्वाब देख रही है।

    जब अलमास का मुजरा शुरू हुआ तो उसके कोठे पर सिर्फ़ वही साहब-ए-सर्वत जाते थे जिनका लाखों का कारोबार था। सलाहू के पास अब इतनी दौलत नहीं थी कि वो इन तगड़े दौलतमंद अय्याशों का मुक़ाबला ख़म ठोंक के कर सके। आठ दस मुजरों ही में उसकी हजामत हो जाती। चुनांचे वो इसी ख़याल के तहत ख़ामोश रहा और पेच-ओ-ताब खाता रहा।

    दूदा पहलवान अपने बाबू की ये बेचारगी देखता तो उसे बहुत दुख होता। मगर वो क्या कर सकता था। उसके पास था ही क्या। एक सिर्फ़ उसकी जान थी मगर वो इस मुआ’मले में क्या काम दे सकती थी। बहुत सोच बिचार के बाद आख़िर दूदे ने एक तरकीब सोची जो ये थी कि सलाहू, अलमास की माँ इक़बाल से राबता पैदा करे। उस पर ये ज़ाहिर है कि वो उसके इश्क़ में गिरफ़्तार हो गया है। इस तरह जब मौक़ा मिले तो अलमास को अपने क़ब्ज़े में करले।

    सलाहू को ये तरकीब पसंद आई। चुनांचे फ़ौरन इस पर अ’मल-दर-आमद शुरू हो गया। इक़बाल बहुत ख़ुश हुई कि इस ढलती उम्र में उसे सलाहू जैसा ख़ूबरू चाहने वाला मिल गया। ये सिलसिला देर तक जारी रहा इस दौरान सैंकड़ों मर्तबा अलमास सलाहू के सामने आई। बा’ज़ औक़ात उसके पास बैठ कर बातें भी करती रही और उसके हुस्न से काफ़ी मुतास्सिर हुई। उसको हैरत थी कि वो उसकी माँ से क्यों दिलचस्पी ले रहा है, जबकि वो उसकी आँखों के सामने मौजूद है लेकिन उसकी ये हैरत बहुत देर तक क़ायम रही। जब उसको सलाहू की हरकात-ओ-सकनात से मालूम हो गया है कि वो चाल चल रहा है, इस इन्किशाफ़ से उसे ख़ुशी हुई। अंदरूनी तौर पर उसके एहसास-ए-जवानी को बड़ी ठेस पहुंच रही थी।

    बातों बातों में एक दिन सलाहू का ज़िक्र आया तो अलमास ने उसकी ख़ूबसूरती की तारीफ़ ज़रा चटख़ारे के साथ बयान की जो उसकी माँ इक़बाल को बहुत नागवार मालूम हुई। चुनांचे उन दोनों में ख़ूब चख़ चख़ हुई। अलमास ने अपनी माँ से साफ़ साफ़ कह दिया कि सलाहू उसे बेवक़ूफ़ बना रहा है।

    इक़बाल को बहुत दुख हुआ। यहां अब बेटी का सवाल नहीं था बल्कि रक़ीब का या मौत का। चुनांचे दूसरे रोज़ जब सलाहू आया तो उसने सबसे पहले उससे पूछा, “आप किसे पसंद करते हैं, मुझे या मेरी बेटी अलमास को?”

    सलाहू अ’जब मख़्मसे में गिरफ़्तार हो गया। सवाल बड़ा टेढ़ा था। थोड़ी देर सोचने के बाद उसको बिल-आख़िर यही कहना पड़ा, “तुम्हें, मैं तो सिर्फ़ तुम्हें पसंद करता हूँ।” और फिर उसे इक़बाल को मज़ीद यक़ीन दिलाने के लिए और बहुत सी बातें घड़ना पड़ीं। इक़बाल यूं तो बहुत चालाक थी मगर उसको किसी हद तक यक़ीन ही गया। शायद इसलिए कि वो अपनी उम्र के ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी थी जहां उसे चंद झूटी बातों को भी सच्चा समझना ही पड़ता था।

    जब ये बात अलमास तक पहुंची तो वो बहुत जिज़-बिज़ हुई। जूंही उसे मौक़ा मिला, उसने सलाहू को पकड़ लिया और उससे सच उगलवाने की कोशिश की। सलाहू ज़्यादा देर तक उसकी जिरह बर्दाश्त कर सका। आख़िर उसे मानना ही पड़ा कि उसे इक़बाल से कोई दिलचस्पी नहीं। अस्ल में तो अलमास का हुसूल ही उसके पेश-ए-नज़र है।

    ये क़ुबूलवाने पर अलमास की तसल्ली हुई, मगर वो लगाओ जो उसके दिल-ओ-दिमाग़ में सलाहू के मुतअ’ल्लिक़ पैदा हुआ था, ग़ायब हो गया और उसने ठेट तवाइफ़ बन कर अपनी माँ को समझाया कि बचपना छोड़ दो और उससे मेरे दाम वसूल करो, तुम्हें वो क्या देगा। अपनी लड़की की ये अ’क़्ल वाली बात इक़बाल की समझ में आगई और वो सलाहू को दूसरी नज़र से देखने लगी।

    सलाहू भी समझ गया कि उसका वार ख़ाली गया है। अब इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि वो नीलाम में अलमास की सबसे बढ़ कर बोली दे। दूदे पहलवान ने इधर उधर से कुरेद कर मालूम किया कि अलमास की नथुनी उतर सकती है, अगर सलाहू हो पचीस हज़ार रुपये उसकी माँ के क़दमों में ढेर कर दे।

    सलाहू अब पूरी तरह जकड़ा जा चुका था। जाए रफ़्तन पाए माँदन वाला मुआ’मला था। उसने दो मकान बेचे और पचीस हज़ार रुपये हासिल करके इक़बाल के पास पहुंचा। उसका ख़याल था कि वो इतनी रक़म पैदा नहीं कर सकेगा। जब वो ले आया, तो वो बौखला सी गई। अलमास से मशवरा किया तो उसने कहा, “इतनी जल्दी कोई फ़ैसला नहीं करना चाहिए। पहले उससे कहो कि हमारे साथ कलियर शरीफ़ के उ’र्स पर चले।”

    सलाहू को जाना पड़ा और नतीजा इसका ये हुआ कि पूरे पंद्रह हज़ार रुपये मुजरो में उड़ गए। उसकी इन तमाशबीनों पर जो उ’र्स में शरीक हुए थे, धाक तो बैठ गई मगर उसके पचीस हज़ार रूपयों को दीमक लग गई। वापस आए तो बाक़ी का रुपया आहिस्ता आहिस्ता अलमास की फ़रमाइशों की नज़र हो गया। दूदा अंदर ही अंदर ग़ुस्से से खौल रहा था। उसका जी चाहता था कि इक़बाल और अलमास, दोनों का सर उड़ा दे, मगर उसे अपने बाबू का ख़याल था।

    उसके दिल में बहुत सी बातें थीं जो वो सलाहू को बताना चाहता था, मगर बता नहीं सकता था। उस से उसे और भी झुंझलाहट होती। सलाहू बहुत बुरी तरह अलमास पर लट्टू था। पचीस हज़ार रुपये ठिकाने लग चुके थे। अब वो दस हज़ार रुपये उस मकान को गिरवी रख कर उजाड़ रहा था जिसमें उसकी नेक सीरत माँ रहती थी। ये रुपया कब तक उसका साथ देता। इक़बाल और अलमास दोनों जोंक की तरह चिमटी हुई थीं। आख़िर वो दिन भी गया जब उस पर नालिश हुई और अदालत ने क़ुर्क़ी का हुक्म दे दिया।

    सलाहू बहुत परेशान हुआ, उसे कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। कोई ऐसा आदमी जो उसे क़र्ज़ देता। ले दे कर एक मकान था, सो वो भी गिरवी था और क़ुर्क़ी आई हुई थी, और बेल्फ सिर्फ़ दूदे पहलवान की वजह से रुके हुए थे जिसने उन को यक़ीन दिलाया था कि वो बहुत जल्द रुपये का बंदोबस्त करदेगा।

    सलाहू बहुत हँसा था कि दूदा कहाँ से रुपये का बंदोबस्त करेगा। सौ दो सौ रुपये की बात होती तो उसे यक़ीन आजाता। मगर सवाल पूरे दस हज़ार रुपये का था, चुनांचे उसने पहलवान का बड़ी बेदर्दी से मज़ाक़ उड़ाया था कि वो उसको तिफ़्ल तसल्लियां दे रहा है।

    पहलवान ने ये ला’न ता’न ख़ामोशी से बर्दाश्त की और चला गया। दूसरे रोज़ आया तो उसका शिंगरफ़ ऐसा चेहरा ज़र्द था। ऐसा मालूम होता था कि वो बिस्तर-ए-अ’लालत पर से उठ कर आया है। सर न्योढ़ा कर उसने अपने डब में से रूमाल निकाला जिसमें सौ सौ के कई नोट थे और सलाहू से कहा, “ले बाऊ... ले आया हूँ।”

    सलाहू ने नोट गिने, पूरे दस हज़ार थे। टुकुर टुकुर पहलवान का मुँह देखने लगा,“ये रुपया कहाँ से पैदा क्या तुमने?”

    दूदे ने अफ़सुरदा लहजे में जवाब दिया, “हो गया पैदा कहीं से।”

    सलाहू क़ुर्क़ी को भूल गया। इतने सारे नोट देखे तो उसके क़दम फिर अलमास के कोठे की तरफ़ उठने लगे मगर पहलवान ने उसे रोका,“नहीं बाऊ... अलमास के पास जाओ। ये रुपया क़ुर्क़ी वालों को दो।”

    सलाहू ने बिगड़े हुए बच्चे की मानिंद कहा, “क्यों?... मैं जाऊंगा अलमास के पास।”

    दूदे ने कड़े लहजे में कहा, “तू नहीं जाएगा!”

    सलाहू तैश में गया, “तू कौन होता है, मुझे रोकने वाला?”

    दूदे की आवाज़ नर्म हो गई, “मैं तेरा ग़ुलाम हूँ बाऊ... पर अब अलमास के पास जाने का कोई फ़ायदा नहीं।”

    “क्यों?”

    दूदे की आवाज़ में लरज़िश पैदा हो गई, “न पूछ बाऊ... ये रुपया मुझे उसी ने दिया है।”

    सलाहू क़रीब क़रीब चीख़ उठा, “ये रुपया अलमास ने दिया है... तुम्हें दिया है?”

    “हाँ बाऊ, उसी ने दिया है। मुझ पर बहुत देर से मरती थी साली, पर मैं उसके हाथ नहीं आता था। तुझ पर तकलीफ़ का वक़्त आया तो मेरे दिल ने कहा, दूदे छोड़ अपनी क़सम को। तेरा बाऊ तुझसे क़ुर्बानी मांगता है। सो मैं कल रात उसके पास गया और... और... और उससे ये सौदा कर लिया।”

    दूदे की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।

    स्रोत:

    پھند نے

      • प्रकाशन वर्ष: 1954

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