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गौतम की सरज़मीन

सिद्दीक़ा बेगम

गौतम की सरज़मीन

सिद्दीक़ा बेगम

MORE BYसिद्दीक़ा बेगम

    सूरज डूबे हुए काफ़ी देर हो चुकी थी। यूँ तो चाँदनी रात थी मगर बादलों की वजह से चाँदनी फीकी पड़ चुकी थी और इस बढ़ती हुई स्याही का मुक़ाबला उसके बस की बात थी। फिर स्याही और अँधेरा तो एक बात, ये सन्नाटा तो उसकी रूह को और खाए जा रहा था। सड़कें सुन्सान हो चुकी थीं। यूँ उसका घर शहर के बीचो-बीच में था और पहले वो इस हमा-हामी से इतना घबरा चुकी थी कि उसकी ख़्वाहिश यही थी कि किसी तरह ये घर यहाँ से उठकर शहर से बाहर जा पहुँचे। आबादी से दूर पहुँच जाए जहाँ हर तरफ़ ख़ामोशी हो। मगर आज तो यही ख़ामोशी, यही सन्नाटा उसके कचोके लगा रहा था और जब देर तक उसके कुछ समझ में आया तो उसने अपने छोटे से बच्चे ही के थप्पड़ लगाया और वो एकदम चीख़ उठा मगर फिर फ़ौरन सहम गया और दुबारा वही ख़ामोशी, वही जान-लेवा सन्नाटा। उसने ना-उम्मीद हो कर दरख़्तों की तरफ़ देखा-पत्ते ही खड़कें तो कुछ इत्मीनान हो, मगर उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो भी सहमे हुए खड़े हैं और वो दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। उसने दरवाज़ा खोल कर बाहर सड़क पर नज़र दौड़ाई मगर वो सड़क जिस पर कि धीमी-धीमी रौशनी पड़ रही थी, उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने चाक़ू से उसको ज़िब्ह कर डाला हो। और वो भी यूँही बे-जान लाश की तरह पड़ी थी। उसका ख़ून मुन्जमिद हो गया था। और वो मुर्दा लाश यूँही पड़ी रही। अचानक एक आवाज़ ने इसको चौंका दिया और उसने देखा कि एक जीप-कार उस लाश पर से गुज़र गई। लाश बे-हिस्स पड़ी रही। फ़िज़ा में धूल उड़ रही थी और उसके देखते देखते वो धूल फिर लाश पर बैठ गई। उसका दिल अभी तक धक-धक कर रहा था। जाने ये मोटर इस तरह क्यों गुज़र गई। ख़याल उसके दिमाग़ में उमड़ते मगर फिर फ़ौरन ही उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। धड़ से एक आवाज़ आई मगर छोटा बच्चा अपनी माँ की इस हरकत को बिल्कुल ही समझ सका। वो उसे बराबर घूरता रहा। जाने क्यों फिर उसको ये ख़याल आया कि उसने ज़िन्दगी की कितनी शामें उसकी नज़र कीं। उसने कितना वक़्त यहीं खड़े-खड़े गुज़ारा जब इस मुतहर्रिक जिस्म का वजूद भी इसके जिस्म में ना था। जब ज़िन्दगी में सन्नाटा तो क्या, तूफ़ान भी था, उसने दरवाज़ा खोला मगर अंधेरे में उसको कुछ भी तो पता चला, जाने वो ज़मीन पर क्या देखना चाहती थी और फिर अचानक वो घबरा गई जैसे फ़िज़ा में कोई आवाज़ लहराई। नर्म और रसीली आवाज़। “अन्जुम”

    वो उस आवाज़ को दुबारा सुनना चाहती थी वो आवाज़ जो फ़िज़ा में गूँज रही थी “अन्जुम। ...”। दरवाज़ा तो खुला हुआ था, कहीं अम्मी ने तो नहीं बुलाया? नमाज़ पढ़ चुकी होंगी, नाराज़ होंगी... और फिर उसके ज़ेहन में हलचल मच गई।

    “घर की चारपाई पर तो कीलें जड़ी हैं कीलें।”

    उसने अम्मी को कभी ये भी महसूस होने दिया कि वो किसी का इन्तिज़ार करती है। जाने इतनी सी बात अगर अम्मी को मालूम भी हो जाती तो वो क्या कर लेतीं, शायद वो और ख़ुश हो जातीं। मगर उसने हमेशा इस राज़ को अपने सीने के दरीचों में बंद रखा।

    “हूँ... आई अम्मी नन्हे को बहला रही थी... मगर उसने आहिस्ता से नन्हे के चुटकी लगाई। मगर आज उसने तै कर लिया था हरगिज़ रोएगा, ख़्वाह वो कुछ कर डाले।

    उसकी शादी को दो साल हो चुके थे, यूँ तो वो नसीम को अर्से से जानती थी। उस से मुहब्बत करती थी, उसकी इबादत करती थी मगर जब वो उस घर में आई तो नसीम उसका अपना हो चुका था, लेकिन ये एहसास फिर भी इसके दिल में अन्दर ही अन्दर चुटकी लेता था कि जैसे वो अब भी किसी और का है। वो दरवाज़े की ओट में इस तरह खड़ी रहती कि पहली नज़र उसकी ही पड़े... अब तो ख़ैर नन्हे का बहाना था और अम्मी भी यही समझती थीं... मगर वो तो शादी के बाद ही से पागलों की तरह उसका इन्तिज़ार करती। जब बाज़ार का शोर रात को सोते तक रहता था, वो उसका यूँही इन्तिज़ार करती रहती थी। इन्तिज़ार तो अम्मी भी करतीं मगर उस में फ़र्क़ यही था कि वो बार-बार उनका ज़िक्‍र करतीं और तरह-तरह के जुमले उसके दिमाग़ में गूँजते... जब फ़िज़ा में सन्नाटे की हुकूमत थी, उनका बेशतर वक़्त जाए-नमाज़ पर गुज़रता। वो ज़ात-ए-बारी के सामने गिड़गिड़ाकर दुआएँ माँगती।

    “मेरा बेटा साथ ख़ैर के घर लौटे।”

    और अन्जुम झुँझला सी जाती जैसे सारी दुनिया में बस उनका ही तो बेटा है। जैसे बस यही तो इन्तिज़ार कर सकती हैं और उसे इन्तिज़ार करना ही नहीं आता...

    “जा बेटी खाना खाले।”

    उसका कितना जी चाहा कि आज अम्मी सो जाएँ मगर वो कहाँ सोने वाली थीं। वो अगर सो जातीं तो उनके साथ बैठ कर एक दिन खा लेती वो भूकी थी, उसको ऐसा महसूस होता था जैसे मह्‌ज़ एक दिन साथ खाना खाने में उसकी रुहानी भूक ख़त्म हो जाएगी। वो यही चाहती थी कि अम्मी सो जाएँ।

    “अम्मी तुम सो जाओ मैं उन्हें खाना खिला दूँगी”

    मगर तौबा करो अम्मी सोने वाली थीं। वो तो चारपाई पर उस वक़्त तक क़दम रखतीं जब तक नसीम अपने बिस्तर पर ख़र्राटे लेने लगे।

    और इस तरह ज़िन्दगी शोर के दिनों से सन्नाटे की रातों में दाख़िल हो चुकी थी। ये सन्नाटा कब तक रहेगा वो इस नई ज़िन्दगी से घबरा चुकी थी। उसकी नज़र दुबारा मुर्दा लाश पर पड़ी जिस पर कोई छुरी का वार करके चल दिया था और वो लाश जिसका ख़ून मुन्जमिद हो गया था जिसके माथे पर गर्द अटी हुई थी... चन्द दिनों से अजीब हाल है, उसके सामने माज़ी और हाल बिल्कुल उस लाश की तरह पड़े हुए थे। “ग़ुलामी... और... आज़ादी... शोर, तूफ़ान और आँधी... फिर... ख़ामोशी, मौत और सन्नाटा...”

    वो माज़ी जब ज़िन्दगी में शोर-ओ-शर था, जब गु़लामी थी, जब नसीम जलसों और जलूसों में फिरता था, जब हिन्दोस्तान की आज़ादी के लिए सर-धड़ की बाज़ी लगाए हुए था। उसके खद्दर के कपड़े, वो लिबास जो आज़ादी की तहरीक का दूसरा नाम बन चुका था, जो उसका निशान समझा जाता था और उस लिबास में उसने हसीन जिस्म को छुपा रखा था... अन्जुम सियासत के बारे में इस से ज़ियादा कुछ समझ सकती थी और उसको फ़ख़्‍र था कि वो नसीम की बीवी है। उसको याद है कि पिछले साल जब किसी वॉलेन्टियर लड़की ने उस से पूछा,

    “क्या आप देश-सेवा के लिए कुछ नहीं कर सकतीं?”

    “क्यों नहीं?” उसने अपना सीना तान कर कहा।

    “मगर इस तरह घर में ख़ामोशी से पड़े रह कर तो आप कुछ नहीं कर सकतीं, इसके लिए आपको बाहर निकलना होगा।”

    इस पर तो वो लाजवाब सी हो गई।

    अन्जुम को ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसकी हतक कर दी। जैसे किसी ने उसके मुँह पर थप्पड़ मार दिया। जिसका निशान मिट गया मगर एहसास बाक़ी था। जैसे किसी ने राह चलते-चलते मुर्दा लाश पर ठोकर लगा दी और उसने फ़ौरन गोया सँभाल लिया। उसके सीने का ज़ेर-ओ-बम बता रहा था कि वो भरपूर वार करने के लिए तैयार है।

    “बहन मैंने क्या-किया... देश के लिए... सुनो मैंने अपना सुहाग दिया है तुमने अपने आपको पेश किया... अपने को कौन नहीं पेश कर सकता। अपनी क़ुर्बानी कौन नहीं दे सकता। तुमने लड़की हो कर देखा है बीवी हो कर नहीं...”

    ये कह कर वो ख़ामोश हो गई और मुस्कुराती चली गई... अन्जुम ने फ़ातिहाना अन्दाज़ से देखा। अम्मी भी पड़ोस में गई हुई थीं वर्ना शायद इतनी आज़ादी से कह सकती... वो लड़की जा चुकी थी और अन्जुम इत्मीनान का साँस ले रही थी। उसने ठीक ही तो कहा... उसने हरा दिया, आख़िर को अपना सा मुँह लेकर रह गई ना... और उसके दिल में ये भी ख़्वाहिश पैदा हुई थी कि नसीम आजाए तो वो अपनी जीत का क़िस्सा सुनाए मगर वो उससे किस तरह कह सकेगी कि वो नसीम से कितनी मुहब्बत करती है। मुहब्बत ज़िन्दगी की बड़ी हक़ीक़त है।

    और इस तरह गु़लामी के दिन नसीम ने जेल में काटे... अन्जुम की आँखों में पिछले दिनों वो छः माह किस तरह छः हज़ार साल की तरह कटे उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसके जिस्म से जान छीन ली। उसने अपनी कापी में एक-एक करके छः माह की तारीखें लिख डाली थीं। फिर रोज़ वो एक दिन काटती थी। दिन में बार-बार गिनती थी कि कितने दिन और बाक़ी हैं। वो फिर गिनती शायद उसने ग़लत गिना हो। मगर एक दिन भी कम होता और नसीम जेल में अपना सारा वक़्त किताबों की नज़्‍र करता। वो सुब्ह से शाम तक पढ़ता, उसकी जेल की ज़िन्दगी अमन-ओ-सुकून में गुज़र रही थी और अन्जुम गोया सज़ा भुगत रही थी। बिल-आख़िर छः माह गुज़र गए और आख़िरी रोज़ उसको ऐसा मालूम हुआ जैसे वो जाग रही है। वो आज ही तो ज़िन्दगी में पहली बार मुस्कुराएगी,जैसे मुसलसल कई रातों के बाद सूरज निकलने वाला है। ख़ुशी उसके सीने में करवट ले रही थी। बिल्कुल उसी तरह जैसे नन्हे का वजूद उसके जिस्म में हरकत किया करता था... जैसे मुसलसल अँधेरी रातों के बाद माह-ए-नौ निकलता है।

    फिर पुलिस की लाठी की चोट... उसने रात-दिन एक कर दिए। सुब्ह से शाम तक उसके पास बैठी रहती, मौत के मुँह से छुड़ाकर लाऊँगी, मैं मौत से जंग करूँगी। अभी क़ौम ही को नहीं मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत है... वो नसीम को अच्छा करके ही रहेगी।

    इस तरह गु़लामी के दिन ख़त्म हुए, आज़ादी मिल गई। हिन्दुस्तान आज़ाद हो गया। मुल्क दो टुकड़ों में बट गया। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में... और इसी रोज़ उसने अपने घर में चराग़ाँ किया। उसने भी क़ौमी पर्चम लहराए। उसने हिन्दुस्तान के नक़्शे पर अक़ीदत के फूल चढ़ाए। और दो आँसू उसकी आँखों से टपक पड़े जिनमें हिन्दुस्तान का माज़ी नहीं उसकी ज़िन्दगी के दो साल झलक रहे थे। मगर वो आज उसकी आँखों में चमक रहा था। उसने दरवाज़े के बाहर देखा तो मोटर दौड़ रही थी, जलूस गुज़र रहे थे। बाज़ार का शोर बढ़ रहा था। ज़िन्दगी ख़ुशी में दीवानी हो रही थी। वो सड़क दौड़ रही थी और आज़ादी को गोया उसने देख ही तो लिया था। मगर जिस नसीम को उसने अफ़्सुर्दा देखा तो मलूल होकर कहा।

    ”मेरे नसीम तुम उदास हो, क्या में भी उदास हो जाऊँ? क्या इतने दिन बाद भी हमको मुस्कुराना चाहिए।”

    और नसीम ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा। “नहीं अन्जुम तुम उदास मत हो, तुम मुस्कुराओ मगर आज मुझे शहीद याद गए। वो नामवर शहीद जिन्हों ने आज के दिन के लिए अपनी जानें दीं जिनके नाम तारीख़ में सुनहरे हर्फ़ों से लिखे जाऐंगे और वो बे-नाम शहीद जिनके नाम तारीख़ गिनवा सकेगी, वो जिन्होंने नव्वे साल तक अपनी जानें दीं जो अन-गिनत हैं।

    थोड़ी देर के लिए वो भी उदास हो गई... मगर फिर दूसरे लम्हे मुस्कुराहट उसके होंठों से फूटने लगी। शहीदों की यादगारें बाज़ारों में नस्ब करने वाले पत्थरो! इन्सानी दिलों के एहसासात से तुम हमेशा बे-हिस्स रहोगे।

    फिर आज़ादी मिल गई। नसीम भी ख़ुश था। वो दिन ख़त्म हो गया इसलिए कि दूसरे दिन आएँ जिनमें ग़ुर्बत दूर हो, इफ़लास ख़त्म हो, क़हत और बीमारियाँ दुनिया से दूर बसें और ज़िन्दगी की खुशियाँ मुस्तक़िल हो जाएँ।

    लेकिन वो दिन ज़िन्दा-जावेद हो सका और अन्जुम ने सुना कि आज़ादी के बाद इन्सान इन्सान रह सका, वो हिंदू और मुसलमान हो गया। वो छुरे-बाज़ और ख़ूँख़ार हो गया... वो शेर और भेड़िया हो गया, ये शेर के रहने की जगह नहीं। यहाँ भेड़िया नहीं रह सकता... ये मुसलमान की बस्ती है यहाँ हिंदू नहीं रह सकता।

    इस तरह सारे पंजाब में आग लग गई। वो भड़क गई उसके शोलों ने दिल्ली को भी अपनी आग़ोश में समेट लिया। अन्जुम ने ये सब कुछ सुना... नसीम का ज़ियादा-तर वक़्त फिर कांग्रेस के दफ़्तर में गुज़रने लगा।

    उसने कहा। “अन्जुम इन्सानियत ख़तरे में है, हमारा हाल ही नहीं बल्कि हमारा मुस्तक़बिल भी ख़तरे में है... हमारा नन्हा ख़तरे में है।”

    अन्जुम की आँखें पुर्नम हो गईं। नसीम तुम जाओ मैं नन्हे को अपनी आग़ोश में आराम से रखूँगी, उसकी फ़िक्‍र मत करो।”

    फिर तो वो रोज़ रात को देर से आने लगा। शहर में सनसनी फैल गई। रोज़ ये ख़बर आने लगी कि मुस्लमान पाकिस्तान जा रहे हैं। हिंदू हिन्दुस्तान रहे हैं। बड़े-बड़े रहनुमा, अवाम को धोका देकर भागने लगे। बरसों की पाली हुई क़ौमियत0 का जनाज़ा निकल रहा था। मुहम्मद अली और गांधी के लाशे निकल रहे थे... तिरंगे की धज्जियाँ उड़ रही थीं। सारा शहर ही नहीं सारा हिन्दुस्तान उसके धुएँ से घुट रहा था। वो धुआँ जो पंजाब और दिल्ली की आग से उठ रहा था।

    हिन्दुस्तान... हिंदुओं का

    पाकिस्तान... मुसलमानों का

    इन्सान... किसी का नहीं

    लाखों की तादाद में इन्सान अपने आबाई वतनों को छोड़कर आने लगे, अन्जुम ने सब कुछ सुना। उसने सुना कि पाकिस्तान से लाखों हिंदू अपने घर-बार छोड़कर चले आए। उसने सुना कि किस तरह नंगी औरतों की परेड कराई गई। किस तरह उनकी छातियाँ काटी गईं, बच्चे बिलकते रहे और माँ सिसकती रह गई। फिर किस तरह पुलिस और फ़ौज ने पनाह-गुज़ीनों की पूरी ट्रेन को नीस्त-ओ-नाबूद कर दिया... ब​िह​िमयत इन्सानियत पर हंस रही थी... औरतों की इज़्ज़त लड़कियों की इज़्ज़त... इस्मत सर-ए-बाज़ार लूटी जा रही थी, बिल्कुल उसी तरह जैसे चोर डाकू घरों को लूटते हैं।

    अन्जुम काँप गई। नन्हा उसके हाथों से छूटा जा रहा था। उसको ज़रा भी तो ख़याल आया कि जब बरसों की पाली हुई तहज़ीब मिट्टी में मिल गई तो फिर चन्द माह का नन्हा...

    अन्जुम की आँखों के सामने वो क़ाफ़िले गर्दिश कर रहे थे... मुसलमानों और हिन्दुओं के क़ाफ़िले जब वो घरों से सिर्फ़ अपनी जानों को लेकर निकल पड़े... उसके जी में तो आया कि कोई बम... एटम-बम गिरे और इन्सानों की ये नस्ल ख़त्म हो जाए। आख़िर इन्सान किस हसरत पर जिए, किस उम्मीद पर ज़िन्दा रहे... तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के तमाम अनासिर ख़त्म हो चुके हैं। इन्सान जानवरों से भी बद-तर हो गया है... वो भेड़ों और बकरियों के गल्ले की तरह अपने आबाई शहरों से निकल पड़ा है। जहाँ उसके आबा-ओ-अजदाद की हड्डियाँ भी उसको आवाज़ दें तो वह वापस आएगा। वो इन्सानों के क़ाफ़िले बनाकर भेड़-बकरियों के गल्ले की तरह बढ़ रहा है। नामालूम मन्ज़िल की तरफ़... वो रोटी के टुकड़े के लिए नहीं... वो ज़िन्दगी की नेअमतों को घर के अन्दर दफ़्न करके ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी क़दरों को ढूँढने के लिए निकला है। वो सुकून की तलाश में पेट छोड़कर निकला है। अन्जुम को इन्सानों से नफ़रत सी होने लगी। उफ़ ये कुत्ते हैं। इन्सान नहीं। ये मौत से भागते हैं। जाने क्यों ज़िन्दा रहना चाहते हैं। क्या अब भी उनको दुनिया से कुछ उम्मीदें हैं।

    अन्जुम का जिस्म फटा जा रहा था जैसे अचानक किसी ने उसको धक्का दे दिया और वो इस शोर-ओ-शर की दुनिया में वापिस आगई। वो क़ाफ़िला जा रहा था मगर सड़क पर बदस्तूर सन्नाटा था। मुर्दा लाश बे-हिस्स पड़ी थी। काश उसे वहाँ से कोई उठाकर ले जाता।

    “अरी लौंडिया कहाँ गई। जा खाना खाले। जाने क्या हो कर रहेगा भली हुई ये आज़ादी भी।” आख़िरी फ़िक़रा सुनकर वो चौंक पड़ी उसने अपने क़दम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ाए।

    “क्या है अम्मी? मैं अभी खाना नहीं खाऊँगी।”

    कुछ हो वो आज नसीम के साथ खाना ज़रूर खाएगी, जाने क्या हो कल तक वो ज़िन्दा भी रहे या नहीं। हालांकि इस शहर में कोई हादिसा नहीं हुआ था। मगर फिर भी एक ख़ौफ़नाक सन्नाटा हर तरफ़ छाया हुआ था। आज दो हज़ार पंजाबी इस शहर में गए। इस शहर में क्या वो तो सारे हिंदुस्तान में फैल रहे थे। और एक लम्हा के लिए तो उसके ज़ेहन में ये ख़याल पैदा हुआ कि जैसे सारा हिंदुस्तान पंजाब हो जाएगा।

    वो खड़े-खड़े एक तरफ़ को सिमट गई जैसे वो शोले फैलते-फैलते उसके घर के क़रीब गए थे, उसने घबराकर नन्हे को चारपाई पर डाल दिया‍।

    “बेटा इस से अच्छे तो वही दिन थे जब अंग्रेज़ राज था। चैन से रहते थे।”

    अन्जुम को आज जाने क्यों अम्मी पर ग़ुस्सा नहीं आया और आया भी तो उसके आसार उसके चेहरे पर थे। वह ला-जवाब सी हो रही थी। वर्ना इतनी सी बात एक झगड़े के लिए काफ़ी थी। उसने अम्मी को कितना समझाना चाहा नसीम की क़ुर्बानियों का वास्ता दिया। उसकी जेल की ज़िन्दगी की तकलीफ़ का एहसास दिलाया और तब कहीं अम्मी ने गु़लामी से बेज़ारी का इज़्हार किया। मगर आज फिर उनका बूढ़ा दिमाग़ तज्‍रबों के सहारे चल रहा था और अन्जुम कुछ बोली।

    “अम्मी... अभी तक नहीं आए कितनी देर हो गई। चाँद भी मद्धम पड़ गया। जाने कोई हादिसा...”

    उसके जी में तो आया अपना मुँह पीट डाले... “बद-शुगून...” फिर फ़ौरन ही तो उसे आहट सुनाई दी। जो अब पैरों की चाप में बदल गई और फिर वही मानूस आवाज़। ख़ून उसकी शिरयानों में दौड़ने लगा। दुबारा आवाज़ आई और वो दीवाना-वार दौड़ी... उसका पाँव दुपट्टे से उलझ गया। उसने उसे भी फेंक दिया। दुपट्टा और भी देर करता है। कितनी देर से वो खड़े होंगे... आन की आन में वो दरवाज़ा पर पहुँच गई। दरवाज़ा खोला मगर वहाँ भी कोई था। हल्की-हल्की चाँदनी थी... सड़क साकिन पड़ी थी और फिर उसको दिखाई दिया जैसे मुन्जमिद ख़ून फिर बहने लगा... फ़िज़ा में ख़ून की बदबू फैल गई। और फिर वही मुसलसल और मौत पर-वर ख़ामोशी... उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे ज़िन्दगी पनाह लेने चली गई है। जैसे वो सहमी सहमी किसी झरोके से अपनी फटी फटी आँखों से झाँक रही है। उसके कान हिरनी की तरह उस आवाज़ की जुस्तजू में मह्‌व हो गए। उसके वो कान जो अक्सर आप ही आप गूँजते हैं। फिर उन आँखों के सामने कोई तस्वीर फिर जाती है और यही वो कान हैं जिनकी मदद से वो तन्हाई में भी बातें करती है, वो बातें जो नसीम से यूँ नहीं कहती... कितना ही सोचती है कि आज जी खोल कर बातें करूँगी। मुहब्बत के नग़मों की झंकारें सुनाऊँगी... अपने बर्बत के इन तारों को छेड़ूँगी मगर फिर वो कुछ कह सकी। उसके अल्फ़ाज़ उसकी आँखों में सिमट कर जाते। नग़मों की झंकारें बे-ज़बान होती है।

    “अन्जुम... फिर वही मानूस आवाज़... वही बज़्म और गुदाज़ आवाज़ जो फ़िज़ा में गूँज रही थी। अन्जुम चौंक पड़ी... अब वो गए ये सन्नाटा और ख़ामोशी और ये बे-हिस्स लाश... जिस का ख़ून मुन्जमिद हो गया था, जो दौड़ते दौड़ते तड़पती हुई गिर पड़ी थी। जिसके सीने पर मोटरें चल रही थीं... वो दौड़ती हुई दरवाज़े पर पहुँच गई। दरवाज़ा खोला मगर वहाँ पर मुकम्मल ख़ामोशी। वो काँप उठी जैसे वो लाश पर से पड़ी चीख़ रही थी।

    “अन्जुम...अन्जुम”

    “नसीम अभी नहीं आया” उसने यूँही सोचा। “अब वो कभी आएगा...” मगर फिर फ़ौरन उसको अपने वाहिमा पर ग़ुस्सा आया... क्यों नहीं आएगा? वो ज़रूर आएगा। उनके जिस्म में सनसनी फैल गई और फिर तमाम हड्डियाँ एक दूसरे से पैवस्त हो गईं... वह ज़रूर आएगा। वो उसे तन्हा नहीं छोड़ सकता।

    दरवाज़ा खुला रहा। फिर एक साया ज़मीन के सीने पर लहराया उसको ख़याल आया कि जैसे ये साया नहीं बल्कि बे-जान लाश थी। जिसका ख़ून मुन्जमिद हो गया था मगर उस वक़्त वो मुतहर्रिक थी। वो बोलना चाहती थी।

    “कोई है?” साए ने आवाज़ दी।

    “कौन है?” वो सहमी हुई बढ़ी।

    “ये नसीम साहिब का घर है?” साए ने पूछा।

    उसको आप ही आप ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके जिस्म में दो वजूद एक दूसरे से बहस कर हैं।

    “नसीम ज़िन्दा है।”

    “नसीम मर चुका है।”

    नसीम को किसी ने मार दिया। शहर में फ़साद हो गया है... हिंदू-मुस्लिम... मुसलमानों की ज़िन्दगी महफ़ूज़ नहीं... आप लोगों को ये घर छोड़ना होगा।”

    “ये घर...” उसके जिस्म में जैसे जान नहीं रह गई थी। वो काँप रही थी। अगर दरवाज़ा पकड़ लेती तो शायद गिर पड़ती। उसके पाँव उस जगह से बेज़ार हो चुके थे। उसने आँखें खोलीं... बे-जान लाश तो नहीं वाहिमा तो नहीं, नसीम कभी मर नहीं सकता...

    “बहन इस घर को जल्द छोड़ो” सारे शहर में आग लग रही है। ज़िन्दगी, नामूस, इज़्ज़त, सब कुछ ख़तरे में है। मैं दफ़्तर से आपको इत्तिला देने आया हूँ। मैं नसीम का दोस्त कमल हूँ।”

    “कमल...” उसको यक़ीन हो गया...अम्मी हाय अम्मी।”

    ज़ब्त के तमाम बन्द टूट चुके थे। वो चीख़ रही थी और फिर अम्मी की आवाज़ ने उन चीख़ों में मआनी भी पहना दिए थे।

    कमल ने दोनों को चलने के लिए कहा... यूँ ही चलने को... जाने क्या हो? शहर में फ़साद की आग फैल चुकी है जिसकी चिंगारियों ने इस घर को भी झुलस कर रख दिया।

    अक़्ल और दिल में भी बह्​स हो सकी और वो ताला लगा कर चल निकले। अम्मी ने अपनी जाए-नमाज़ भी छोड़ दी थी। अन्जुम दरवाज़ा की उस ओट को भी भूल चुकी थीं, जहाँ उसने ज़िन्दगी की कितनी शामें नज़्‍र कर दी थीं... उन्होंने चलते वक़्त अज्दाद के उस घर की तरफ़ मुड़ कर भी देखा जहाँ उनकी रूहें रक़्स कर रही थी... जिसकी वीरानी पर वो मातम-कुनाँ थीं... जहाँ पर नसीम के बचपन की गूँगा की आवाज़ें गूँज रही थीं। वो घर भी ख़ामोश था, वो भी उन्हें वापिस नहीं बुला रहा था।

    वो लड़-खड़ाते हुए चले जा रहे थे। एक रह-बर और दो राह-रौ... आँसुओं के क़तरे अन्जुम और अम्मी के चेहरों पर मुन्जमिद हो रहे थे। वो चीख़ नहीं रही थीं मगर उनके दिमाग़ ​िचटक रहे थे। उनके दिलों में तूफ़ान रहा था। और अम्मी का पैर किसी लाश से टकराया। “मेरा नसीम” मगर वो लाश यूँही पड़ी रही। उसके माथे पर धूल अटी हुई थी, ख़ून बिल्कुल मुन्जमिद हो गया था।

    “मेरा बेटा।”

    “नहीं माँ आगे चलो किसी और की लाश है।” कमल ने कहा।

    और अम्मी की आँखों के आँसू और भी ख़ुश्क हो गए। अन्जुम के आँसू भी थम चुके थे। रास्ते में कितनी लाशें मिलीं। वो शरणार्थियों के कैंप की तरफ़ बढ़ रहे थे। उनको महसूस हो रहा था कि जैसे वो इन्सान नहीं हैं। वो भूकों और बे-सर-ओ-सामानों को अपने घर में पनाह देकर सवाब लूटने वाली नहीं हैं। वो ख़ुद दूसरों के शरणों में पनाह ढूँढने आई हैं। उनकी ख़ैरातें बेकार साबित हुई थीं। आज वो ख़ुद एक फ़क़ीर थे। एक कंगाल... बरसों की पाली हुई तहज़ीब के छिलके उतर चुके थे।

    “जल्द चलिए शहर की हालत कितनी ख़राब हो गई है, ये लाशें देख रही हैं। अब हमको जल्द कैंप पहुँचना है, और उन के क़दम तेज़ी से बढ़ रहे थे।

    बहुत दूर से अँधेरे में उन्होंने देखा कि कुछ आदमी चले रहे हैं। मुसल्लह... कमल ठिठक गया। उसके क़दम लड़-खड़ाए और वो लोग पहुँचे।

    “ठहर जाओ... रुको, तुम कौन हो?”

    “मैं इन्सान... नहीं हिंदू हूँ हिंदू।”

    “और ये मुसलमान औरतें तुम्हारी माँ और बीवियाँ हैं जो इन्हें ले जा रहे हो।” भीड़ में से किसी ने ललकारा।

    “जल्दी बताओ इन्हें बचाकर कहाँ ले जाना चाहते हो। इन्हें हमारे हवाले कर दो ।”

    “नहीं ये हरगिज़ नहीं हो सकता।” कमल ने बड़े जोश से कहा।

    “मार डालो देखते क्या हो। ग़द्दार है ग़द्दार।”

    फ़िज़ा में एक धमाका हुआ और कमल की बे-जान लाश सड़क पर पड़ी थी। उस पर ख़ून की बूँदें भी उभरीं। उस पर धूल भी पड़ सकी फिर दो नौ-जवान उनकी ज़िन्दा लाश पर टूट पड़े।

    फ़िज़ा में फिर एक और धमाका हुआ। अम्मी की लाश भी गिर पड़ी। जाए-नमाज़ चीथड़े चीथड़े उड़ गई थी... एक नंगी औरत वहाँ खड़ी थी, जिसके जिस्म पर कपड़े का एक तार भी ना था।

    “अन्जुम...” उसके कानों में इस बार गूँज सका। वो नसीम को भी भूल चुकी थी, अपने मुहसिन की लाश पर भी रो सकी। वो अम्मी की लाश पर भी एक नज़र डाल सकी। उसको सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो नंगी थी। उसका बच्चा उसकी गोद से छीन लिया गया था। मुस्तक़बिल ख़तरे ही में नहीं बल्कि मौत की गहरी नींद सो रहा था और वो नंगी थी। उसकी छातियों का दूध भी ख़ुश्क हो चुका था... उसकी आँखों में मुहब्बत मर चुकी थी। अगर कोई चीज़ बाक़ी थी तो नफ़रत... इन्सानों से नफ़रत, वो अन्जुम जिसने दरवाज़ा से बाहर क़दम निकाले थे। जिसकी नज़रें भी आँचल से बाहर सरक सकी थीं, आज उसको ये दरिंदे फटी फटी नज़रों से घूर रहे थे... वो तीसरे धमाके का इन्तिज़ार कर रही थी क्यों कि वो उसे बहीमियत से नजात दिला सकता था। उसकी ये ख़्वाहिश थी कि कोई उसकी जान बचाए, कोई उसको पनाह दे। वो तो सिर्फ़ एक आवाज़ की मुन्तज़िर थी। मगर देर तक वो आवाज़ सुनाई दी। एक चीख़ के साथ वो गिर पड़ी। इतनी निगाहों की वो ताब ला सकी।

    ज़रा सी देर में वो ज़िन्दा लाश वहाँ से उठा ली गई थी।

    “नन्हा”, उसने आहिस्ता से कहा और फिर फ़िज़ा में ये आवाज़ गूँज भी सकी, वो देखती ही रह गई। गोली के दो तड़ाख़े फ़िज़ा में गूँज रहे थे और तीसरी की जगह दरिन्दगी और वहशत थी।

    इन्सान ख़ुदा की तख़्लीक़ नहीं। वो आदम और हव्वा की औलाद नहीं... वो मसीह और मुहम्मद... नानक और गौतम का मुन्किर है। वो दरिन्दों से पैदा हुआ है। वो इन्सानियत की तरफ़ नहीं बल्कि दरिन्दगी की तरफ़ बढ़ रहा है। नुक़्ते के गिर्द घूम रहा है। जिसने उसको इन्सानियत के हल्क़े में पहुँचाया है। अब वो हल्क़ा फिर ग़ाएब हो गया है, सिर्फ़ नुक़्ता बाक़ी रह गया है।

    भीड़ छट चुकी थी... लाशें ही लाशें... और हर तरफ़ वही सन्नाटा... वही जान-लेवा सुकूत और मौत परवर ख़ामोशी... बेजान लाशें जिनका ख़ून मुन्जमिद हो गया था... और सड़क भी चलते चलते रुक गई थी जैसे किसी ने उस पर भी हमला कर दिया था... इन्सानों की लाशें आँखें फाड़े फाड़े ख़ुदा-ए-बुज़र्ग़-ओ-बरतर से कुछ पूछना चाहती थीं मगर वो भी ख़ौफ़ से कहीं छुप गया था। मंदिरों के नाक़ूस और मस्जिदों की अज़ानें भी फ़िज़ा के सन्नाटे और ख़ौफ़ में घुल गई थीं।

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