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गिर्दाब

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    रोचक तथ्य

    एक ऐसी लड़की की कहानी जिसने चुप साध ली थी, तकसीम-ए-हिंद के तनाज़ुर में लिखी गई।।।

    ये दिसंबर सन सत्तर की बात है और मेरी इंतिख़ाबात की डयूटी कराची में थी। मैं वहां परेज़ाईडिंग अफ़्सर था और मेरे मातहत तीन पोलिंग अफ़्सर थे

    मलिक उस वक़्त शोर और शोरिश में था, तवील तक़रीरें, इल्ज़ामात, कुछ सही कुछ ग़लत, और लंबे चौड़े भाषण। वैसे तो शायद चौबीस पार्टीयां असैंबली की तीन सौ सीटों के लिए दस्त-ओ-गरीबां थीं लेकिन अखाड़े में सिर्फ दो पहलवान, कील कांटे से लैस, ख़म ठोंक के खड़े थे और यूं कहें तो दरुस्त होगा कि साहिब काँटेदार मुक़ाबले की तवक़्क़ो थी क्योंकि दोनों जानिब से इलैक्शन की तैयारी ख़ासी जान-दार थी

    ज़ाती मुफ़ाद और मुल्की मुफ़ाद में कश्मकश की सी सूरत-ए-हाल पैदा हो गई थी और एक ज़ावीए से तो ये तज़ाद उतना वाज़िह हो गया था, कि-ओ-ह लोग जो मेरी तरह इस इलैक्शन के ऐनी शाहिद हैं, इन सबको उस वक़्त यूं लगा गोया ये इलैक्शन एक नहीं दो मुल्कों के इलैक्शन थे जिनके पहनावे अलग , ज़बानें मुख़्तलिफ़, शक्ल-ओ-सूरत में तफ़ावुत और ख़ुद एहदाफ़ में वाज़िह तज़ाद था

    इस तनाज़ुर में ये बात भी सामने रहे तो बेहतर है कि पाँच साल पहले मुहतरमा फ़ातिमा जिनाह को धांदली से शिकस्त देने का ज़ख़म अभी ताज़ा था और गुमान ग़ालिब है यही वजह थी कि मौजूदा हुकूमत पर दबाव था कि वो साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ इंतिख़ाबात करवाए

    मैं इस वक़्त महिकमा तालीम में सरकारी मुलाज़िम था और ना भी होता,इंतिख़ाबी सियासत से मुझे कभी भी दिलचस्पी नहीं रही लेकिन वालिद मुहतरम के इसरार पर जमात को वोट देने का इरादा था अगरचे जब इलैक्शन की डयूटी लगी तो ये सहूलत भी छिन गई।। मैं अपना वोट हलक़े से दूरी की वजह से नहीं डाल सका, एक तरह से ज़ाए गया। ख़ैर ये एक ज़िमनी बात है हाँ जहां में टहराथा वहां शैख़-साहब के छः नकाती प्रोग्राम पर गर्मा गर्म बेहस हो रही थी और ग़ुलाम अली साहिब, जो भुट्टो साहिब के शैदाई थे, कहने लगे

    ’’अब तो ये बात खुल के सामने आगई है कि इस साले मुजीब के पीछे कौन है, भारती और कौन। ये छः नकाती एजंडांदरा गांधी की हुकूमत का तैयार करदा ही तो है। ये सुनें करंसी अलग करो, मालिया जमा करने का निज़ाम अलग करो और क्या कहते हैं पूरे बहरी बेड़े को मशरिक़ी पाकिस्तान ले जाऐ

    ये कोई बात है करने की?। मुझे ये बात समझ नहीं आरही कि ये साला मुजीब ऐसा साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहता, मलिक को टुकड़े टुकड़े क्रुद्व''

    फिर लंबा सांस लिया और खड़े हो कर हाथ हिला हिला कर ऊंची आवाज़ में कहना शुरू किया

    ’’मुझे तो बस ये समझ आता है कि इस साले मुजीब को बंद किया जाये, उलटा लटकाया जाये और ऐसा सबक़ सिखा दिया जाये कि कल को कोई भी इन भारतीयों का आला कार ना बने और मलिक के दुश्मनों कुमलक की तरफ़ टेढ़ी आँख से देखने की जुरात ना हो।। आजाते हैं।'

    हमारे साथ एक दूसरे हलक़े के बंगाली बोलने वाले पोलिंग अफ़्सर, निज़ाम उद्दीन साहिब भी थे और मज़े की बात ये है जब बंगला देश वजूद में आया तो उन साहिब ने भी ऐम ऐम आलिम साहिब की तरह वहां जाना गवारा नहीं किया, यानी अपनी पाकिस्तानी शहरीयत तर्क नहीं की। आप एक सच्चे पाकिस्तानी और मुहिब-ए-वतन इन्सान हैं औरता दम-ए-तहरीर मुल्तान में रिहायश पज़ीर हैं

    उनकी बात सुनने लायक़ थी। उन्होंने ग़ुलाम अली साहिब की पूरी बात सुनी और अंग्रेज़ी में कहा

    ’’मिस्टर ग़ुलाम अली आपकी बात शायद सही हो लेकिन एक मुल्क जो दो ऐसे टुकड़ों पर मुश्तमिल हो जो हज़ारों मील दूर हूँ, उनके अंदर मासवाए मज़हब के कोई भी मुमासिलत ना हो हती कि ज़बान भी मुख़्तलिफ़ हो तो आप इख़तिलाफ़ ज़रूर करें, ये आपका हक़ है लेकिन मेरे ख़्याल में शैख़-साहब के मुतालिबे और उनका मंशूर, एक तरह से फ़ित्री अमर बन जाता है, नहीं?'

    फिर उन्होंने ग़ुलाम अली साहिब के चेहरे के तास्सुरात का जायज़ा लिया और उन्हें बेचैनी से करवटें बदलते देखकर दरुस्त अंदाज़ा लगाया कि वो उनके नुक्ते से मुत्तफ़िक़ नहीं हैं

    ख़ैर चेहरे पर कोई भी तास्सुर लाए बग़ैर उन्होंने अपनी बात जारी रखी

    ’’आप इत्तिफ़ाक़ ना करें लेकिन ये बहर-ए-हाल मेरा ख़्याल है। अब रही बात इस साले मुजीब को सबक़ सुखाने की, उसे उल्टा लटकाने की तो वो तो ''अगरतला केस' मैं हो चुका। शैख़-साहब जेल भी गए और बिलकुल आपकी ख़ाहिश के मुताबिक़ उन्होंने उल्टा लटक कर्मार भी खाई, ज़िल्लत भी उठाई।।अच्छा ये भी देखें अदालत ने काफ़ी तसल्ली बख़श किस्म की कुरेद भी की लेकिन कुछ भी साबित नहीं हुआ, उल्टा शैख़-साहब बंगला बन्धू बन गए। अब पता नहीं आप शैख़-साहब से और क्या चाहते हैं? वैसे एक बात है चमड़ी उधेड़नी ही बाक़ी रह गई है इस साले ग़द्दार वतन की ?'

    फिर कुर्सी पर आगे झुक कर बैठते हुए इंतिहाई ग़ैर जज़बाती लहजे में कहा

    ’’ देखिए छः नुक्ते अवाम के सामने हैं।। ठीक? मेरा ख़्याल ये है कि शैख़-साहब की क़िस्मत का फ़ैसला अवाम को करने दें।दूसरी बात।। आवाज़ ऊंची करने से और यूं ज़ोर ज़ोर से हाथ हिलाने से दलील ऊंची नहीं हो जाती मिस्टर ग़ुलाम अली।। परसों इलैक्शन हैं, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगीगा

    ग़ुलाम अली साहिब इन मकालमों से भड़क उठे लेकिन अपना ग़ुस्सा दबाया

    ’’निज़ाम उद्दीन साहिब आप ये बातें किसी और को बताएं। आपको पता है लोगों ने इस मुल्क तक पहुंचने के लिए आग और ख़ून के दरिया उबूर किए हैं। ऐसा नहीं कि डोलती कश्तीयों में बैठ कर और।। क्या कहते हैं।। गदले दरिया वं में बासी मछलियाँ पकड़ते हुए इस मलिक के वजूद में आने की ख़बर सुनकर बग़लें बजाई हूँ। आप मेरी बात समझ रहे हैं?'

    ग़ुलाम अली साहिब ने अब ये बातें अगरचे मद्धम आवाज़ में कीं लेकिन अपनी गुफ़्तगु में बसा ज़हर छुपा ना सके और मुझे महसूस हुआ कि निज़ाम उद्दीन साहिब गदले दरिया में बासी मछलियाँ पकड़ने वाली बात समझ गए लेकिन आदमी शरीफ़ थे सो जवाबी चोट से इजतिनाब किया और टूटी फूटी उर्दू में कहा

    ’’मैं आपका दुख समझ सकता हूँ मिस्टर ग़ुलाम अली, लेकिन लोगों का ख़ून के दरिया उबूर करने जैसी जज़बाती बात का इस बेहस से किया ताल्लुक़?'

    फिर पहलू बदला और दुबारा अंग्रेज़ी में बोले

    ’’में एक बात बताउं, बुरा ना मनाएं।। किया है कि।। हमारे मुल्क में।। और ये मैं मशरिक़ी और मग़रिबी दोनों हिस्सों की बात कर रहा हूँ।।ये एक अजीब रिवायत चल निकली है कि बेहस में अगर आप किसी के इन्फ़िरादी या इजतिमाई रवैय्ये पर सवाल उठाएं।।जैसे आप कहीं।। भाई मुल्क में अमन-ओ-अमान का मसला है, क़ीमतें आसमान से बातें कर रही हैं, वग़ैरा वग़ैरा, उस का क्या करेंगे आप

    तो आगे से पता है वो क्या कहते हैं ?

    ’’तुम्हारी भी तो ख़ाला की लड़की भाग गई थी किसी के साथ, उस का क्या करेंगे आप?'

    बताना ये चाहता हूँ कि लोग ज़ाती हमले करते हैं, बेहस के महवर से हट जाते हैं, और एक तरह का जज़बाती राग अलापना शुरू करते हैं'

    फिर रुक कर उर्दू में कहा

    ’’ रंडी रोना रोते हैं''

    इस पर ग़ुलाम अली साहिब काफ़ी जुज़ बुज़ हुए लेकिन इस से पहले कि वो कुछ कहते, निज़ाम उद्दीन साहिब ने अपनी ऐनक की कमानी सीधी करके अंग्रेज़ी में बात जारी रखी

    ’’मसला यहां ये नहीं कि मुल़्क कैसे बना, किस ने किया क़ुर्बानी दी, मौजूदा मसला ये है कि कैसे अपने ज़ाती मुफ़ाद को मुल्की मुफ़ाद पर फ़ौक़ियत ना देकर मलिक की वहदत और सालमीयत का सोचा जाये। एक आख़िरी बात, ग़ुलाम अली साहिब। अपनी ज़बान की बेजा मुहब्बत या दूसरे की ज़बान से बेजा नफ़रत उतना पेचदार गिर्दाब है कि अझ की मानिंद उस का पेट तक़सीम दर तक़सीम दर तक़सीम से भी नहीं भरता।।इस नुक्ते पर सयासी दुकान चमकाना।। हरगिज़ नहीं, कभी भी नहीं। ख़ैर ये मेरा नुक्ता-ए-नज़र है, आप इत्तिफ़ाक़ करें ना करें ।'

    इस के बाद ना तो निज़ाम उद्दीन साहिब ने कुछ कहा और ना ही ग़ुलाम अली साहिब ने लेकिन मुझे ये ज़रूर लगा कि निज़ाम उद्दीन साहिब ग़ुलाम अली साहिब के तर्ज़-ए-इस्तिदलाल से नाराज़ से हो गए अगरचे उनके चेहरे से ऐसा हरगिज़ दिखाई नहीं दिया। इस के बाद वो कुछ देर वहां बैठे बंगाली अख़बार ''दैनिक संग्राम' के सफ़े पलटते रहे और फिर ना जाने उन्हें क्या सूझी वो कमरे से बाहर चले गए

    जब उनको गए कुछ मिनट हो गए तो ग़ुलाम अली साहिब ने उठ कर खिड़की के पट खोले, बाहर दाएं बाएं देखा और जब पूरा यक़ीन हो गया कि निज़ाम उद्दीन साहिब वहां नहीं हैं, यानी हमारी टोह में नहीं हैं तो मेरी तरफ़ देखकर बोले

    ’’देखा मुजीब के चमचे को और इस की मुनाफ़क़त को, उर्दू देखी है इस साले की, तलफ़्फ़ुज़ सुना आपने इस बंगाली साले का, हमें सियासत सिखाता है, फ़लसफ़े झाड़ता है।।। रंडी रोना रोते हैं।। हिना''

    फिर कुछ सोच कर अपना ग़ुस्सा दबाया

    ’’ये देखा आपने सईद भाई ये साले बंगाली सिर्फ अपने अख़बार पढ़ते हैं, देखें तो उनकी ज़बान।।ये कीड़े मकोड़े किस्म की बे-तुकी लिखाई।।कितनी मिलती जलती है हिन्दी की लिखाई से और मुझे पूरा यक़ीन है इस अख़बार में ज़हर भरा होगा पाकिस्तान की सालमीयत के बारे में।'

    किसी की ज़बान के बारे में इस किस्म की हर्ज़ा-सराई मुझे बा लकल पसंद नहीं आई और वो भी इस की तरफ़ से जिसका अपना शीन क़ाफ़ भी दरुस्त नहीं था लेकिन उन्होंने सिर्फ यही कहने पर इकतिफ़ा नहीं की, पहले दरवाज़े की तरफ़ गए, बाहर देखा और निज़ाम उद्दीन साहिब की यक़ीनी ग़ैरमौजूदगी की चशमदीद तसल्ली करके अपनी अगली बात जारी रखी

    ’’सईद साहिब, आपने ये देखा आपका ये बंगाली भाई कैसे अपने अंदरूनी तास्सुरात छिपा लेता है पता ही नहीं लगने देता कि इस साले के दिल में किया है। कहीं लिख लें अगर कभी भी हंगामे हुए और ये मुजीब साला मुल्क तोड़ने लगे तो आपका ये बंगाली भाई इस झते में इस की बग़ल में होगा, तिरंगा लहराते हुए, ग़द्दार कहीं का,।।।रंडी रोना रोते हैं, हिना'

    मैंने उनको इस बात पर टोकने के लिए,कि वो मेरा बंगाली नहीं मुस्लमान और पाकिस्तानी भाई था, मुँह खोलना चाहा लेकिन ग़ुलाम अली साहिब का चेहरा ग़ुस्से से और सुर्ख़ हो गया और उन्होंने बंगाल की क़ौमीयत और अवामी लीग के ख़िलाफ़ ख़ूब भड़ास निकाली और सिर्फ अपने लीडर को नजातदिहंदा क़रार दिया

    ख़ैर जब उनका पारा ठंडा हो चुका तो जमाइयाँ लेने लगे और फिर वो भी कमरे से बाहर निकल गए। मुझे लगा शायद उन्हें तंबाकू नोशी की ज़रूरत थी और चूँकि कमरे में सिगरट नोशी ममनू थी इस लिए उन्होंने यहां रुकने से गुरेज़ किया ओरया शायद किसी और बिना पर उन्होंने कमरे में ठहरना मुनासिब ना समझा

    माहौल में तल्ख़ी सी पैदा हो गई थी और यही वो मुक़ाम था जब मेरे पहलू में बैठे फ़ारूक़ी साहिब बोले

    ’’सईद भाई क़ौमीयत, ज़बान, रंग, और मज़हब।।इन चारों इन्सानी ख़सुसीआत से लातादाद और अजीब-ओ-ग़रीब किस्म के क़िस्से जड़े हैं। और एक वाक़िया जो मैंने सुना है, वो तो बहुत ही अजीब है''

    ये कि कर उन्होंने मेरे चेहरे के तास्सुरात का जायज़ा लिया और हाथ में पकड़ा अख़बार एक तरफ़ रखा

    ’’अब तो हम ख़ैर एक ऐसे मुल्क में रहते हैं जहां अग़्लब दर्जे में हिंदों का कोई लेना देना नहीं लेकिन एक वक़्त ऐसा था जब हम उनके साथ रहते थे, हमारे घर उनके घरों के साथ लग के बने होते थे, वो हमारे और हम उनके पड़ोसी हुआ करते थे। ख़ैर ये वाक़िया उन्ही दिनों का है, बस क्या बताउं, जब उस के बारे में सुना दिल-ए-पर नक़्श हो गया''

    मैंने तवज्जा से उनकी बात सुनना शुरू की

    ’’क्या वाक़िया हुआ? क्या आप मुझे बताना पसंद करेंगे

    उन्होंने अपनी ऐनक उतारी, मुँह के भाप से इस के शीशे धुँधलाए और फिर रूमाल से साफ़ किए

    ’’ये तक़सीम से पहले की बात है, मेरे दादा मरहूम का घर यू पी मुरादाबाद में था। मुहल्ला सारा मुस्लमानों का था लेकिन उनमें एक घर सहाय साहिब का था जो ज़ात से कश्मीरी पण्डित थे और उनका दिल्ली में क़ालीनों का कारोबार था। लाला जी नरम मिज़ाज-ए-आदमी थे लेकिन उनके बरख़िलाफ़, उनका बेटा, आनंद, बहुत ही बदतमीज़ और एक तरह से ख़ुद-सर किस्म का लड़का था जिसके आए दिन के लड़ाई झगड़ों से जहां मुहल्ले वाले नालां थे वहां लाला जी भी बहुत परेशान रहते थे। लाला जी की एक बेटी भी थी,निर्मला या शायद भावना नाम था, दुबली पतली साँवली सी बहुत ही सलीक़े वाली लड़की थी

    ख़ैर जैसे मैंने सुना लाला जी सबसे बना के रखते थे और ईद शबरात पर मिठाई वग़ैरा भी पड़ोसीयों को भिजवाते रहते थे। आदमी हँसमुख थे इस लिए सब पसंद भी करते थे। हमेशा साफ़ करता और उजली धोती पहने, चमकती कमानी वाली ज़ंजीर दारएनक लगाए, माथे पर गहिरी सुर्ख़ तिलक चस्पाँ किए और अपने बग़ल में बेद की हल्के भूरे रंग की छड़ी लिए घूमते। जहां तक मुम्किन हो हर किसी से इस का हालचाल पूछते और अगर किसी मसले में मदद ना भी कर पाते तो पूरी बात बड़े ग़ौर से सुनकर इतना ज़रूर कहते

    ’’चिंता ना करो, ऊपर वाला जरूर(ज़रूर)कोई ना कोई द्वारा निकाल ही देगा, ऊपर वाले पर भरोसा रखू, कुछ पुनदान करो, केवल इस से बहुत बुलाऐं टल जाती हैं'

    हाँ तो मैं बता रहा था कि उनका बेटा आनंद बहुत ही कठोर और मुँह-फट था। अकड़ अकड़ कर चलता हर किसी से लड़ता था। लड़कीयों को छेड़ना उस का और इस के तीन हिंदू साथीयों का, जो दूसरे मुहल्ले के थे, मर्ग़ूब मशग़ला था। ये सब हर आती जाती लड़की को ऐसी तेज़ नज़रों से देखते थे कि आस-पास के महलों की जवान छोकरीया इन मवाली किस्म के लड़कों को देखकर रास्ता बदल लेती थी

    मुहल्ले में नसीम भाई का बेटा, नदीम, अलबत्ता आनंद की टक्कर का था। नदीम से कई बार उस की तो तो मैं में हुई और दो एक मौक़ों पर तो बात दस्त-ओ-गिरेबान होने तक भी जा पहुंची लेकिन असल मसला तब शुरू हुआ जब एक दिन क़दीर भाई की बेटी, नजमा, को देखकर आनंद ने सीटी बजाई

    नजमा का बताता चलूं पुतले नुक़ूश वाली, इंतिहाई शर्मीली और सआदत-मंद लड़की थी। हरबात में अपने वालदैन की हिमायत करना और इस बढ़कर उनकी ख़बर-गैरी में दिन रात एक करना उस का शआर था। जब नसीम भाई ने क़दीर भाई से अपने बेटे नदीम के लिए उस का हाथ मांगा तो उसने नदीम से शादी से इनकार किया क्योंकि बाक़ौल उस के वो शादी के लिए तैयार ही नहीं थी या शायद ये वजह भी थी कि नदीम एक लफंगा किस्म का लड़का था जिस करतूत अच्छे नहीं थे लेकिन फिर घर वालों ने समझाया और इस का निकाह इस शर्त के साथ कर दिया कि इस की रुख़्सती तब होगी जब वो ज़हनी तौर पर तैयार हो जाएगी

    सीटी वाला वाक़िया छुपा ना रह सका और नजमा ने झट से सारी बात घर आकर बता दी तो दोनों भाई क़दीर और नसीम मिल के बैठे कि क्या करें। नजमा का मियां, नदीम, दहकते लोहे की तरह सुर्ख़, ग़ुस्से में मुट्ठीयाँ भींचे अपने ताया और वालिद के इशारे का मुंतज़िर था लेकिन फ़ैसला इस बात पर हुआ कि लाला जी को शिकायत की जाये और उनको कहा जाये कि अपने बेटे को समझाए और हमसे माफ़ी मांगे

    नदीम इस बात से हरगिज़ ख़ुश नहीं था और इस से पहले कि नसीम भाई लाला जी से बात करते, नदीम ने इसी मुहल्ले के दो एक और ओबाश लड़कों के साथ मिलकर आनंद की बहन पर ग़लीज़ फ़िक़रे किसे और वो बेचारी रोती पीटती अपने घर गई और शाम तक अच्छाख़ासा हंगामा खड़ा हो गया

    उधर आनंद अपने हिंदू दलड़के ले आया और क़रीब था कि ख़ूनख़राबा हो जाये, लाला जी ने अपनी टोपी सर से उतार कर रास्ते में उनके सामने रखी, अपनी इज़्ज़त के वास्ते दिए। यूं जब मुआमला किसी हद तक ठंडा हो गया तो सबको अपने घरबला या

    ’’नसीम भाई आप जानते हैं ये आनंद की पुरानी समस्या है, इस को बात चीत की तमीज नहीं। ये ठीक है कि पहल उसने की पर नितू आपकी और से भी।। विश्वास करें आनंद बुरा लड़का नहीं और आपके घर की इस्त्रीयों की अजत करता है, उसे बहनों समान समझता है पर नितू अब जब दोनों ओरसे ज्यादती हो गई है तो जो हो चुका सो हो चुका,आगे का क्या करें, उस का सोचते हैं, आप क्या कहते हैं?'

    लाला जी ने इंतिहाई मितानत से पूरी बात का ख़ुलासा पेश किया जिसे सुनकर क़दीर भाई ने अपने होंट काटे

    ’’लड़कों की उमरें ही ऐसी हैं लाला जी क्या करें ? मेरी सलाह है कि लड़कों और लड़कीयों को भी समझना चाहीए कि जब बड़े राज़ी हो गए हैं तो वो भी आपस में कोई बीर ना रखें'

    यूं बात आई गई हो गई।नदीम और आनंद तो आपस में शेरो शुक्र ना हो सके लेकिन ये अलबत्ता हुआ कि नजमा और लाला जी की बेटी आपस में काफ़ी घुल मिल गईं और किसी के वहम-ओ-गुमान में भी नहीं था कि आगे क्या तूफ़ान आने वाला था। ख़ैर तो जब तूफ़ान आया, सब कुछ बहा के ले गया

    कुछ महीने बाद मई सन सैंतालीस में जब मलिक का बटवारा यक़ीनी हो गया तो गोया हमारा ये छोटा सा मुहल्ला भी बट गया। हमें यूं लगा जैसे हमारा मुहल्ला पाकिस्तान है और लाला जी का घर एक हिन्दुस्तानी ख़ंजर जो हमारे सीने में पैवस्त है। लोग लाला जी से कतराने लगे और वो भी मेल-जोल से दूर रहने लगे। आनंद और इस के दो-चार दोस्त मुहल्ले में आते थे और शोरशराबा मचा कर चले जाते थे और फिर ये बात कहीं से उड़ गई कि उसने नजमा को फिर से घूर के देखा है

    बस फिर किया था नदीम ने भी इस की बहन पर फ़िक़रे किसे और इस के तीन दिन बाद मुल्क में हालात ने यकदम पल्टा खाया मोर्चे निकले, छोटे मोटे फ़सादाद शुरू हो गए और फिर जो नहीं होना था हो गया। उन्हें हंगामों में नजमा ग़ायब हो गई और वो भी पूरे दस दिन के लिए

    नजमा का ग़ायब होना क़ियामत से कम ना था। सबको चुप सी लग गई और किसी को समझ नहीं आरहा था कि क्या करे। क़दीर भाई बेटी के अग़वा का ये सदमा बर्दाश्त ना कर सके औरउन्हें दिल का ऐसा दौरा पड़ा कि जांबर ना हो सके। चूँकि मुल्क हंगामों की हालत में था पूरी सूरत-ए-हाल वाज़िह नहीं हुई कि ये सब कैसे हुआ बस इतना पता था कि नजमा, जो करोशईए का काम सीखने ज़रीना बेगम के हाँ हफ़्ते में एक दो बार जाती थी, दोपहर को गई और फिर वापिस नहीं आई। इत्तिफ़ाक़ से,उसी दिन,साथ वाले मुहल्ले में मुस्लमानों और हिंदों में लड़ाई भी हुई थी और एक हिंदू को छुरा घोंपा गया था। ख़ून तो काफ़ी बहा लेकिन वो मिरा नहीं। उसने पुलिस को ये बयान दिया कि इस को छुरा क़स्साब के बेटे यानी एक मुस्लमान ने मारा था

    नजमा ना मिली और अपने सुसर और ताया की तदफ़ीन से फ़ारिग़ हो कर नदीम नजमा की तलाश में निकल खड़ा हुआ और आख़िर-ए-कार पुलिस की मदद से नजमा को कहीं से ढूंढ के ले आया। नजमा की हालत ना-गुफ़्ता बह थी। पतली तो वो पहले से थी अब बिलकुल अध मोई लग रही थी। हरवक़त रोती रहती थी। दूसरी ख़ास बात ये थी कि बाप की नागहानी मौत के बाद उसने बिलकुल चुप साध ली और कुछ भी बोलने से इनकार किया, सिर्फ इशारों किनाइयों में बोलती थी। लाला जी ने हालात की नज़ाकत भाँप कर आनंद को कह दिया था कि जब तक हालात मामूल पर नहीं आते वो दिल्ली चला जाये और उसने यही किया

    नसीम भाई तो ख़ैर बस कड़ ही सकते थे लेकिन उनका बेटा नदीम ग़ुस्से से पेच-ओ-ताब खा रहा था और उसने क़सम खाई थी कि वो लाला जी की बेटी को उठा के ले जाऐंगे लेकिन वो भी बस पेच-ओ-ताब ही खा सकते थे क्योंकि लाला जी ने अपनी बेटी को उनकी ख़ाला के हाँ शिमला बुझवा दिया था और अब अगर कुछ बदला लिया भी जा सकता था तो या तो लाला जी से और या उस की बीवी सावित्री बाई से

    होते होते जून का महीना भी निकल गया

    ’’मैं इस साले आनंद को नहीं छोड़ूँगा, एक दिन मौक़ा मिला, वो हाथ आया तो मैं उसे मार के इस की बहन को उठा के ले जाउंगा और मुराद मामूं की शाह आबाद वाली कोठी में उसे बंद करूँगा और वो कुछ करूँगा जो मेरा दिल चाहेगा। आप फिर देखिएगा उनको पता लग जाएगा कि किसी को उठा कर ज़ोर ज़बरदस्ती करना कैसा होता है, हमने चूड़ियां नहीं पहन रखें'

    ग़ुस्से से भरे नदीम ने फुंकारते हुए कहा। नसीम भाई बात की नज़ाकत को समझते थे सो उसे समझाया

    ’’नदीम बेटा हम मुरादाबाद में रहते हैं और ऐसे मुहल्ले में रहते हैं जहां निनावे फ़ीसद घर मुस्लमानों के हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन ये भी मत भोलू कि मुरादाबाद ही में ऐसे कई मुहल्ले हैं जहां निनावे फ़ीसद हिंदू रहते हैं और फिर ये सिर्फ़ मुरादाबाद की बात नहीं पूरा यू-पी या हिन्दोस्तान एक बहुत बड़ा मुहल्ला है और इस में यक़ीनन निनावे फ़ीसद मुस्लमान नहीं हैं''

    वो सांस लेने के लिए रुके और बात आगे जारी रखी

    ’’अब जब ये तै हो चुका कि हम अक़ल्लीयत में हैं और लाट साब ने पिछले महनेए के आग़ाज़ ही में ऐलान कर दिया है कि हिन्दोस्तान का बटवारा हो के रहेगा तो हालात का जायज़ा लू मेरे बेटे। ठीक है तुम लाला जी के बेटे आनंद को जान से मार दोगे और इस की बेटी को उठा कर, जैसे तुम कहते हो, मुराद मामूं की शाह आबाद वाली कोठी में बंद कर दोगे, लेकिन तुमने ये सोचा है इस के बाद क्या होगा?'

    नसीम भाई के लहजे में ग़ुस्सा ऊद कर आया

    ’’ मैं बताता हूँ उस के बाद क्या होगा। यही लाला जी जो हमें झुक-झुक कर और हाथ जोड़ कर मुस्कुरा कर परिणाम करते हैं ऐसे अपना फन उठाएँगे कि।।'

    फिर खड़े हो गए और ग़ुस्से की शिद्दत से उनका चेहरा तमतमाने लगा

    ’’तब तुम पर ये बात खुलेगी कि कल ये लाला जी, जो घर में सुलहसफ़ाई में पेश पेश थे, अपनी टोपी पगड़ी के वास्ते दे रहे थे, यही लाला हमें और हमारे ख़ानदान को सिर्फ अपनी अददी बरतरी की बिना पर नीस्त-ओ-नाबूद कर देगा

    फिर नासिहाना अंदाज़ इख़तियार किया

    ‘‘ख़ुदा के लिए अपना ग़ुस्सा ठंडा करो, होश के नाख़ुन लू और मुनासिब-ए-वक़्त का इंतिज़ार करो। ये भी देखो उनके बेटे आनंद ने इंतिख़ाब किस वक़्त का किया? जब हंगामे थे, बलवी थे ताकि उस की तरफ़ शक ही ना मुड़े, ये है मक्कार हिंदू की असलीयत। ये वक़्त जोश का नहीं होश का है

    मैं कल ट्रेन के टिकट ख़रीद लूँगा और अगले ही हफ़्ते हम कराची निकल जाऐंगे। जो होना था वो हो चुका, अब इस को भूल जाऐ। इंशा-अल्लाह हमारा अब इन हिंदू सालों के साथ कोई ताल्लुक़ नहीं होगा हमारा अपना पाकिस्तान होगा और हर मुहल्ले में सूफ़ी सद मुस्लमान होंगे, अपने लोग, जहां हम सुख चीन से रहेंगे, कोई किसी को अग़वा कर के नहीं ले जाएगा और हम सबकी इज़्ज़तें महफ़ूज़ होंगें''

    नसीम भाई ने अपनी बीवी, भाभी, नजमा के लिए टिकट लिए और ख़ुद कराची चले आए। अपने बेटे के लिए चंद दिन बाद का टिकट ख़रीदा ताकि वो कुछ काग़ज़ात वग़ैरा कुलैक्टर के दफ़्तर से ले लें और इस तरह उनके कलीम में आसानी रहे

    ख़ैर क़िस्सा मुख़्तसर वो सब के सब पाकिस्तान पहुंचे और ये भी मोजज़े से कम नहीं था कि उनमें किसी भी को इस सारे सफ़र में ख़राश तक नहीं आई वर्ना जो क़ियामत बाक़ी हिज्रत करने वालों पर गुज़री उस का तो अल्लाह को ही पता है। क्या नहीं हुआ,मस्तूरात की आबरूरैज़ी की गई उनकी छातियां काट दी गईं और शेर ख़ार बच्चे किरपाणों से ज़बह किए गए और उन्हें नेज़ों पर उछाला गया और।।'

    ये बताते हुए फ़ारूक़ी साहिब काफ़ी जज़बाती हो गए और मैंने उनका कंधा थपतिपाते हुए कहा

    ’’मुझे आपके जज़बात का इलम है फ़ारुक़ी साहिब, में आपका दुख समझ सकता हूँ''

    मैंने उन्हें तसल्ली दी। फ़ारूक़ी साहिब ने अपनी ऐनक उतारी और दाहने हाथ की शहादत की उंगली और अंघोटे से अपनी आँखों की साफ़ किय

    ’’पाकिस्तान में उनकी हालत अच्छी रही लेकिन नया मसला ये पेश आया कि नजमा पेट से थी। इस बात को छुपाया नहीं जा सकता था लेकिन नसीम चाचा कोय किसी भी सूरत मंज़ूर नहीं था कि उनके घर एक नाजायज़ बच्चा प्ले और वो भी एक हिंदू का। नजमा ने अलबत्ता बच्चा गिराने से इनकार किया और इशारों किनाइयों में ये इंदीया दिया और इस पर मिस्र भी रही कि वो हर हालत में बच्चा जनेगी। इस के इलावा दूसरा मसला ये बना कि नदीम ने अब रुख़्सती वाले मुआमले से दूरी इख़तियार की और ये बात समझ में भी आती थी कि वो भला क्यों एक हरामी बच्चे को पाले

    नदीम कराची छोड़कर लाहौर चला गया, शराब और जोय में पड़ गयाऔर वहां एक पेशा करने वाली से ब्याह रचाया और अपने किसी काम रोज़गार में लगा रहा, आज तक घर वालों का पलट कर नहीं पूछा

    नदीम की नजमा से बे-एधतिनाई के फ़ैसले की वजह से रहे सहे ख़ानदान की कमर टूट गई।ख़ैर नजमा के भारी पैर कब तक छुप सकते थे उस का भी तो कुछ करना था। नसीम भाई ने इस पूरे मसले का हल ये निकाला गया कि वहां से, जहां आजकल नाज़िम आबाद है, लांढी चले आए और नई जगह ये मशहूर कर दिया कि नजमा की रुख़्सती नदीम से हो गई थी और नदीम हिज्रत करते सिखों के हाथों शहीदहो गया था

    इस पूरे मुआमले में में एक बात बताना बिलकुल भूल गया कि नजमा अग़वा के इस वाक़े के बाद अगरचे बिलकुल नहीं बोल सकी, हमेशा ख़लाओं में घूरती रहती थी,लेकिन इस सब के बावजूद काम काज, घरेलू ज़िम्मा दारीयों और अपनी माँ और सास सुसर की ख़िदमत में उसने कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त नहीं किया

    नसीम भाई हमेशा कुढ़ते रहते थे और वो दिन तो ख़ानदान पर क़ियामत गुज़रा जब नजमा ने बचा जना। नसीम भाई इस बच्चे को देख ग़ुस्से से ताव खाते थे लेकिन घर की औरतें इस बच्चे पर जान छिड़कती थीं और होते होते वो बच्चा एक सरकारी स्कूल में, रियाज़ी का उस्ताद बन गया''

    उसने मुझे इस सरकारी स्कूल का नाम बता दिया जो मैं सीग़ा राज़ में रखना चाहूँगा ताकि उस की शनाख़्त का पर्दा बहर-ए-हाल रहे

    फ़ारूक़ी साहिब ने पानी पीने के लिए वक़फ़ा लिया और बात जारी रखी

    ’’अब मैं आपको ये बताने वाला हूँ कि जब नजमा की गोयाई वापिस आई तो क्या हुआ लेकिन इस से पहले और एक बात है जो मेरे ज़हन पर काफ़ी देर से छाई हुई है और बेहतर है कि मैं आपको बता दूं इस से पहले कि मैं भूल जाउं

    ’’हाँ हाँ ज़रूर में सन रहा हूँ'

    मैंने इश्तियाक़ भरे लहजे में कहा क्योंकि कहानी का ये मोड़ मुझे बहुत दिलचस्प लगा

    ’’सईद भाई ऐसी बात नहीं कि सिर्फ हिंदू ही बुरा है, वो ज़रूर बुरा होगा लेकिन अपने मुस्लमान भी कोई इतने अच्छे नहीं हैं। मैं नाम नहीं लेना चाहता लेकिन आप इन दोनों फ्रंट के सियासतदानों को देखें क्या कर रहे हैं?। ज़ात पात और ज़बान ही का तो मसला दरपेश है हमारे मलिक को इस वक़्त। इंतिख़ाबात की तक़रीरें सुनी हैं आपने ? ये दोनों साहिब कितना ज़हर उगल रहे हैं एक दूसरे के ख़िलाफ़। बंगाली होना एक गाली बन गया है एक साहिब के नज़दीक और दूसरा, वो तो अपने तमाम मसाइल का ज़िम्मा दारही मग़रिबी पाकिस्तान को क़रार दे रहे हैं

    मुझे तो ये लग रहा है कि उनकी बेवक़ूफ़ी की वजह से तक़सीम की भट्टी दुबारा धकने लगी है, ख़ुदा ना करे इन इंतिख़ाबात का नतीजा मुअल्लक़ हो जाएगी कि बंगाली सिर्फ़ बंगाली को और मग़रिबी पाकिस्तान वाले अपने इस एक सूरमा को वोट दें।। नहीं नहीं ।।ऐसा हुआ तो बात बहुत बिगड़ सकती है

    मेरी दुआ है कि या तो बहुत सारे वोट इन दोनों में किसी एक को मिलीं।। बहुत सारे।। ताकि वो दूसरे का सर कुचल डाले लेकिन ये होगा नहीं, ये इंतिख़ाबात हमारे गले की हड्डी बनेंगे, कि ना निगले जाऐंगे और ना अगले''

    मैंने पूछा कि इस से मुल्क कैसे टूट सकता है तो बोले

    ’’सईद भाई हिंदों ने मुस्लमानों के तहफ़्फुज़ात को नहीं समझा, अपना मुल्क तक़सीम करवा बैठे और हम, अब अपने एक हिस्से में बसने वाले लोगों के तहफ़्फुज़ात नहीं समझ रहे हैं और वो हमारे तहफ़्फुज़ात को, हम एक दूसरे को ग़द्दार समझते हैं, एक दूसरे पर शक करते हैं तो ऐन-मुमकिन है।।।'

    मैंने उसे फ़ौरन रोका

    ’’नहीं नहीं ऐसा ना कहीं, ऐसा कैसे होने लगा? हम सब पाकिस्तानी हैं, हमारा देन एक है, रसूल एक है, ख़ुदा एक है मशरिक़ मग़रिब तो सिर्फ नाम हैं और बाबाए क़ौम ने फ़रमाया था कि पाकिस्तान क़ायम रहने के लिए बना है, सो क़ायम रहेगा इंशा अल्लाह, उसी हालत में'

    ’’ये आपकी ग़लतफ़हमी है सईद भाई, लेकिन ख़ैर बात लंबी हो जाएगीगी उसे छोड़ें ये तो वक़्त ही बताएगा। हाँ तो मैं नजमा के बारे में किया कि रहा था'

    फिर फ़ारूक़ी साहिब ने नजमा के बारे में जो बताया इस से मेरी आँखें खुल गईं

    ’’जब नसीम भाई आख़िर में तप-ए-दिक़ की वजह से फ़ौत हुए तो नजमा की ज़बान वापिस आगई। ये मुझे कैसे पता चला, आप उस को छोड़ें लेकिन असल वाक़िया ये हुआ था कि नदीम अपनी मनकूहा को बेजा सताता था और अपना हक़्क़-ए-ज़ौजीयत जताता था। नजमा अलबत्ता रुख़्सती से पहले किसी भी किस्म के जिन्सी रिश्ते के हक़ में नहीं थी। इस के इलावा नदीम को हमेशा इस बात की कुढ़न थी कि नजमा ने शुरू में इस से निकाह करने से क्यों इनकार किया था। नजमा के बार-बार मना करने पर भी वो छुप-छुप कर मिस्र रहा

    एक दिन जब ये बात बहुत आगे बढ़ी और नदीम ने इस की छातीयों पर हाथ डाला तो नजमा ने ग़ुस्से में आकर उसे मर्दानगी का ताना दिया और निकाह तोड़ने की बात की।इस पर वो ग़ुस्से से बिफर गया और नजमा को सबक़ सुखाने के लिए उसे उठा कर शाह आबाद वाली कोठी में ले गया और फिर उस की मर्ज़ी के बग़ैर उस के साथ ख़ैर।। किया कहूं।

    अब ये दरुस्त बात तो नहीं थी क्योंकि नजमा की मर्ज़ी इस में शामिल नहीं थी, लेकिन फिर भी शरई तौर पर बच्चे की नसब हरामी नहीं थी और यही वजह थी कि नजमा ने बच्चा नहीं गिराया

    ख़ैर आप भी कहेंगे मियां बीवी का मुआमला था इस में इतनी बड़ी बात कौनसी है, घर आकर बता देते, रुख़्सती करा देते और वो सब सही है लेकिन आप ये भी देखें कि नदीम की इस बेवक़ूफ़ी से क़दीर भाई की जान चली गई तो यही वजह थी कि इस बात को छुपाना ज़रूरी समझा गया।नदीम को बहर-ए-हाल ये डर था कि ये बात खुल ना जाये तो उसने ये सोचा कि अगर सारा मलबा आनंद पर थोपा जाये तो किसी को क्या शक होगा, क्योंकि बहर-ए-हाल वो हिंदू था और सबसे ज़्यादा शक की ज़द में वही आता था।'

    इतना कुछ कहने के बाद फ़ारूक़ी साहिब ख़ासे जज़बाती हो गए और फिर वो भी कमरे से निकल गए। सच्च पूछें तो मुझे फ़ारूक़ी साहिब का तजज़िया बचकाना सा लगा। मैंने सोचा भुला हमारे मशरिक़ी बाज़ू को क्या पड़ी है कि मग़रिबी बाज़ू से कट जाये ? भुट्टो साहिब या शैख़-साहब को क्या फ़ायदा है मलिक के बख़रे करने में, दोनों मुहिब-ए-वतन हैं, मुल्की मुफ़ाद को आगे रखने वाले

    मैंने सोचा कि हाँ उनकी ये बात अलबत्ता दरुस्त है कि इन्सान को जहां भी इन्फ़िरादी या इजतिमाई मौक़ा मिलता है, नक़ब लगाता है और बात को ज़बान और नसल के जज़बाती नारों में लपेटता है, लोगों को बेवक़ूफ़ बनाता है,सिर्फ अपने फ़ायदे के लिए। एक बात अलबत्ता मुझे समझ नहीं आई कि फ़ारूक़ी साहिब को इस वाक़े की पूरी तफ़ासील का इलम कैसे था

    अगले दिन इंतिख़ाबात से पहले इलैक्शन के लिए पोलिंग अफ़िसरों की ताय्युनाती का तरीका-ए-कार तै करते हुए जदूलें देखते मेरी हैरत की इंतिहा नहीं रही जब मैंने देखा कि मेरा ही एक पोलिंग अफ़्सर मुक़ामी सरकारी स्कूल में रियाज़ी का उस्ताद था और तब मुझे तमाम कड़ियाँ मिलाने में ज़्यादा दिक्कत पेश नहीं आई

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