गुड़िया
स्टोरीलाइन
दस-बारह साल की उम्र की एक लड़की की कहानी है, जो अपने गाँव से शहर आती है। शहर में उसे एक घर में बच्चों की देखभाल की नौकरी मिल जाती है। उस घर में नौकरी करते हुए उसके बचपने की अधूरी ख़्वाहिशात फिर से उभरने लगती हैं। उन ख़्वाहिशात को पूरा करने के लिए वह जो क़दम उठाती है उससे उसकी पूरी ज़िंदगी ही बदल जाती है।
वो घर से चली तो झुटपुटा हो चला था। ट्रेन रात के नौ बजे थी जैसा कि उन लोगों ने बताया था। ट्रेन क्या होती है ये वो जानती थी। एक दो रेल गाड़ियां उसके गांव के किनारे किनारे गन्ने और अरहर के खेतों के पास से गुज़रा करती थीं। वो कहाँ से आती हैं और कहाँ जाती हैं इस पर उसने कभी ग़ौर करने की ज़रूरत नहीं समझी थी। कभी किसी ट्रेन से सफ़र करने का मौक़ा भी नहीं मिला था। अल्लाह मियां के पिछवाड़े वाले इस गांव में उसका कच्चा, फूस के छप्पर वाला घर ऐसी जगह था जहां से बस स्टैंड तक जाने के लिए भी कोई सवारी नहीं थी। कुछ दूर पैदल चलना था फिर बस पर चढ़ कर वहां पहुँचना था जहां से ट्रेन पकड़ी जा सकती थी। वो बस पर चढ़ी थी और बस अड्डा घर से इतना क़रीब था कि वहां कई मर्तबा यूं भी जा निकलती थी वहां एक बड़ा सा तालाब था जिसमें लोग भैंसों को नहलाते और पास खड़े ताड़ के दरख़्तों से ताड़ी उतारते। भैंसें और बत्तखें और सुअर इधर उधर मुँह मारते रहते। दरम्यान में कट कट कटाक करती मुर्ग़ियां घुस आतीं बकरियां दरअंदाज़ी करतीं। कोई किसी को कुछ न कहता। उसे कभी ये नहीं महसूस हुआ था कि उसकी ज़िंदगी में इन चीज़ों की कोई अहमियत है। वो तो बस वहां थीं, हमेशा से थीं जैसे खेत-खलियान, अड़ोस-पड़ोस, हवा-पानी, अम्मां अब्बा, भाई-बहन, नशेड़ी मामूं। आज अचानक वो सब के सब बड़े अहम हो गए थे। यहां तक कि वो बदसूरत सुअर भी जिनके बारे में मोली साब का कहना था कि उन पर नज़र पड़ जाये तो लाहौल पढ़ लिया करो। घर से बाहर क़दम निकालते वक़्त सबसे पहला ख़्याल उसे ये आया था कि ये सब वहां होंगे या नहीं जहां वो जा रही थी या यूं कहा जाये कि ले जाई जा रही थी। तालाब तो तालाब उस वक़्त अम्मां भी बड़ी अहम हो गई थी जिसके बारे में उसने कई मर्तबा सोचा था कि मर क्यों नहीं जाती। हर वक़त डाँटती रहती है। खाना कम हो तो पहले बेटों को खिला देती है। आज से पहले इस मुहब्बत का कभी एहसास नहीं हुआ था जो उसे अम्मां से थी। अम्मां अगर सारा खाना बेटों को खिला देती थी तो उस दिन ख़ुद भी तो नहीं खाती थी और जब अम्मां ने चलते वक़्त उसके सर पर हाथ रखा उसमें वो कौन सी कैफ़ीयत थी जिसकी वजह से उसे अपने नन्हे से दिल में अंदर ही अंदर आँसू उमँडते महसूस हुए और ऐसा लगा कि अम्मां तो बहुत ही प्यारी है।
दोनों छोटे भाई और एक बहन आकर अगल बग़ल खड़े हो गए। शायद झीलंगे पलंग पर पड़ी छः महीने की बहन ने भी करवट बदली और काला धागा बंधी सूखी टांग से हवा में लात चलाई। अम्मां कहती थी काला धागा बाँधने से नज़र नहीं लगती। उस सूखी काली, ज़ोर से रोने की भी ताक़त ना रखने वाली बच्ची को किसकी नज़र लगने वाली थी?
वैसे वो दोनों जो उसके साथ लंबे लंबे डग भरते चल रहे थे उसे बहुत अच्छे लग रहे थे। उनके पास से ख़ुश्बू भी आरही थी। ऐसी ख़ुश्बू मौलसिरी के दरख़्त के नीचे आया करती थी या जब कच्चे अहाते में लगी रात की रानी महकती या हार सिंघार ने हंस हंस के फूल झाड़े होते। इन्सानों के पास से ऐसी खूश्बूएं कहाँ आती थीं। क्या इन खुश्बू-दार लोगों के घर रात की रानी महकती होगी? क्या वहां मौलसिरी का दरख़्त होगा? क्या हार सिंघार वहां भी हंस हंसकर अपने नन्हे नन्हे सितारों जैसे सफ़ेद फूल झड़ता होगा जिनकी नाज़ुक डंडियां बत्तख़ की चोंच जैसे गहरे नारंजी रंग की होती हैं। क्या
वहां भी तालाब होगा और उसके किनारे वो गंदे बद हैयत सुअर होंगे जिनकी वजह से अब्बा के अपने बच्चों को ग़ुस्से में सुअर का बच्चा कहने पर उसे बेहद ग़ुस्सा आता। (गालियां देते अब्बा उसे बहुत बुरे लगा करते थे लेकिन अभी ख़ामोश, किनारे खड़े अब्बा पर उसे बड़ा तरस आया) ये चशम ज़दन में ज़िंदगियां यूं कैसे बदल जाया करती हैं (ऐसा सोचने के लिए उसके पास अल्फ़ाज़ नहीं थे लेकिन सोच तो अल्फ़ाज़ की पाबंद नहीं होती वर्ना गूँगे बहरे कभी कुछ न सोच पाते) उसने जाते-जाते पलट कर एक नज़र अपनी महबूब बकरी पर डाली जो खूंटे से बंधी बैठी मज़े से जुगाली कर रही थी। दोनों बच्चे पास ही फ़ुदक रहे थे और बकरी के दूध से भरे थन ज़मीन पर लोट रहे थे। उसका जी चाहा एक-बार पास जा कर उसके गले में बाँहें डाल कर उसे अल-विदा कह कर आए।
बस चली तो सारा कुछ पीछे छूटने लगा। ताड़ी पी कर अम्मां की इकलौती चीज़ चांदी की पायल, चुराने वाले मामूं और हवा पी कर नशा करने वाले झूमते ताड़ के दरख़्त, खेत-खलियान, तालाब, ढिटाई से रास्ते में खड़ी गायें, इमरती साओ की दुकान पर जलती ढीबरी और बिला वजह भौंकते कुत्ते, और जब ट्रेन चली तो जो पीछे छूट रहा था उसके छूटने की रफ़्तार और तेज़ हो गई। हाँ चांद उस के साथ साथ चल रहा था और वो सितारा भी जो उसके घर के ठीक ऊपर से झाँका करता था। क्या ये उसके साथ साथ पटना शहर तक जाऐंगे? उन लोगों के घर से भी दिखाई देंगे?
अम्मां ने कहा था उन लोगों को भय्या, भाभी कहना। उन्होंने उसे खाना खिलाया फिर उसका बिस्तर बिछा दिया। ट्रेन अलग झूला झुला रही थी। पहले उसे लग रहा था आज की रात बहुत भारी है लेकिन ऐसी नींद आई कि सुबह झिंझोड़ कर जगाया गया।
स्टेशन, घर, गर्द-ओ-पेश देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। तलाओ की मच्छी को किसी ने उछाल कर गंगा में डाल दिया था।
घर में एक बड़ी शफ़ीक़ बुज़ुर्ग औरत थीं। जिन्हें लोग अम्मां कहते थे। ये दोनों थे जो उसे लाए थे। अम्मां के बेटा, बहू, दो छोटे लड़के थे। एक पाँच बरस का और दूसरा कोई ढाई तीन साल का। बच्चे ऐसे ख़ूबसूरत, सेहतमन्द और ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम लेकिन उसके ज़ख़ीरा-ए-अलफ़ाज़ में सेहतमन्द और ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम जैसे अल्फ़ाज़ थे ही नहीं।
सब लोग रोज़ नहा धो कर कपड़े बदला करते थे। इतने कपड़े? उसे भी तो एक साथ दो जोड़े दिए गए और एक जोड़ कपड़े भाभी यहां से लेकर भी गई थीं जो उसे पहना कर लाई थीं। उसका कसीफ़, पुराना जोड़ा वहीं छोड़ दिया गया था। नए चप्पल, बालों के लिए रिबन। उसे एक छोटा बक्स दिया गया। उसमें सारा सामान था। ये हमारा है? वो हकलाई थी। बहुत देर लगा कर उसे यक़ीन हुआ कि ये चीज़ें उसी की हैं।
सब उसके साथ अच्छा बर्ताव कर रहे थे। बस मोटी मुलाज़िमा जो सुबह शाम आकर झाड़ू बुहारु करती और खाना पकाती, कुछ टेढ़ी सी रहा करती थी। पहले दिन भी उसने कहा था, “ए छोकरी, ख़ाली बैल जैसी आँखों से ताके है कि कुछ काम धाम भी जाने है।” इस पर उन बुज़ुर्ग ख़ातून ने तंबीह की थी।
“सीख लेगी, सीख लेगी। और काम है भी क्या। दोनों बच्चों को ही तो सँभालना है।”
कई दिन गुज़र जाने के बाद भी वो इस सारे कारख़ाने को फटी फटी आँखों से यूं देखती रहती थी जैसे उनमें सारे जहां की हैरत सिमट आई हो। एक दिन वहां उन बच्चों के मामूं आए। उनको भी वो देर तक घूरती रही।
मामूं कहीं ऐसे भी होते हैं उ’म्दा पैंट-शर्ट में मल्बूस, हँसमुख, बच्चों के लिए बहुत से चॉकलेट लाने वाले मामूं क्या अपनी बहन का ज़ेवर चुराएँगे?
“अरे ये कहाँ से मिल गई।” उन्होंने बुज़ुर्ग ख़ातून से कहा। उन्हें वो अम्मां कह रहे थे।
“किशनगंज वाली ग़रीब रिश्तेदारों की लड़की है। उनके यहां ज़रूरत नहीं थी। यहां रखवा दिया।”
“अरे तो एक हमें भी दिलवा दें।”
“लो भला। बाज़ार में बिक रही हैं क्या।”
“इसकी कोई बहन नहीं है?”
“है तो लेकिन माँ-बाप अब देंगे नहीं। लड़की को बाहर भेजना बड़े दल गुर्दे का काम है। किशनगंज वाली पर उन्हें पूरा भरोसा था इसलिए भेज दिया।”
“अम्मां, आप हमारा ख़्याल नहीं कर रहीं।”
“मियां पहले अपना ख़्याल। इस उम्र में दो बच्चे तन्हा हम पाल रहे थे। दुल्हन बेगम दिन-भर नौकरी पे। अपने बच्चों को पाल-पोस के बड़ा कर दिया था। अब बुढ़ापा ख़राब।”
“अरे तुम अपनी बहन को बुला सकती हो?” उन्होंने बराह-ए-रास्त उससे सवाल किया।
वो तकती रही।
“ऐसे ही ताके है टूकर टूकर। कोई काम थोड़ी करे है। ख़ाली खाए को आई है। खा है डबरा भर के,” मोटी बुआ मुँह ही मुँह में बड़बड़ाईं।
“बुआ ऐसे मत कहिए।” वो जो अम्मां कहलाती थीं उनके कान बड़े तेज़ थे। “बच्चों को यही देखेगी अभी तो हम उसे काम सिखा रहे हैं। रहा खाना तो अभी भूकी है जब नीयत सैर हो जाएगी तो हम लोगों जैसी हो जाएगी।” इसकी तर्बियत शुरू हो चुकी थी।
बड़ा बच्चा स्कूल जाता था। (वो ख़ुद कभी स्कूल नहीं गई थी। इसके बाद जो भाई था वो कभी मस्जिद में मौलवी-साहब के मदरसे जा निकलता था।( यहां पाँच बरस का बच्चा स्कूल जाता है वो भी रोज़ाना बिलानागा...) या मज़्हरुल अ'जाइब! (मगर उसे या मज़्हरुल अ’जाइब कहना नहीं आता था।) उसको स्कूल के लिए तैयार करना, बैग में टिफिन का डिब्बा और पानी की बोतल डालना, जूते पालिश करना और उसके जाने के बाद छोटे का ख़्याल रखना उस के इब्तिदाइ सबक़ थे। छोटे को बोतल में दूध भर कर देना था जो वो दिन में तीन चार मर्तबा पीता था। जितनी मर्तबा वो बोतल में दूध डालती इतनी मर्तबा साबुन से हाथ धोने पड़ते। घर पर तो वो उपले पाथ कर भी साबुन से हाथ नहीं धोती थी।
उन बच्चों के पास एक बड़ी टोकरी भर कर खिलौने थे। उनके बावजूद हफ़्ते में एक-आध नया खिलौना आही जाता। कभी माँ बाप में से कोई ले आता, कभी वो साथ घूमने निकलते तो बच्चे ख़ुद फ़र्माइश कर के ले लेते। वो ज़्यादा-तर गाड़ियां लेकर आते। कार, ट्रक, बस, पुलिस का बाईक, फिर बंदूक़ें, रीवालवर, उनकी नक़ली गोलियां, पटरी पर गोल गोल घूमती ट्रेन, बाल गेंदें लड़के थे ना इसलिए उनके खिलौनों में कोई गुड़िया नहीं थी। एक-बार उसने मेले में प्लास्टिक की एक गुड़िया ख़रीदने की ज़िद की थी। अब्बा ने उसे भद्दी सी मिट्टी की गुड़िया ले दी। प्लास्टिक की गुड़िया बहुत महंगी थी। मिट्टी की गुड़िया से खेलने में इतना मज़ा नहीं आया और भय्या से लड़ाई हुई तो तीसरे दिन उसने गुड़िया तोड़ भी दी।
लेकिन एक दिन लड़कों के इस घर में भी उसकी हैरान आँखों ने गुड़िया ढूंढ निकाली। बहुत बड़ी तक़रीबन नौज़ाईदा इन्सानी बच्चे के साइज़ की, मोटी, गदबदी, नीली आँखों और सुनहरे बालों वाली उसने सच-मुच की फ़्राक पहन रखी थी और उसके जूते भी बिलकुल असली थे, बालों में सुर्ख़-रंग का रिबन बंधा हुआ था। अभी इस घर में और क्या-क्या देखना बाक़ी है। ऐसी भी गुड़ियाँ होती हैं? इतनी हसीन, ऐसी कि मा’लूम हो ज़िंदा हैं, बस अभी बोल उट्ठेंगी। उसका दिल उसे गोद में उठाने को मचल गया।
अब उसे भाभी ने अपने कमरे में झाड़ पोंछ का काम भी सौंप दिया था। कुछ दिन से मोटी मुलाज़िमा काम बढ़ जाने की शिकायत कर रही थी। वो पहले दिन कमरे में दाख़िल हुई तो सबसे पहले नज़र गुड़िया पर ही, पड़ी शीशे की अलमारी में रखी हुई थी। वो देर तक उसे तकती रही तो भाभी ने बताया कि ये उनकी गुड़िया थी। शादी के कुछ दिन बाद वो उसे अपने घर से ले आई थीं। हैरत से उ’मूमन उस की ज़बान गुंग रहती थी और वैसे भी वो एक ख़ामोश-तबीअ’त लड़की थी। हालाँकि भाभी अभी नौजवान थीं। बिल्कुल लड़की जैसी लगती थीं लेकिन शादीशुदा थीं। उनके दो बच्चे थे। क्या उनकी उम्र की औरतें गुड़िया खेलती हैं जो वो अपनी गुड़िया उठा लाई थीं? ऐसी गुड़िया मिलती कहाँ है और कितने पैसों में मिलती है? ये सारे सवाल उसके ज़ेह्न की तहों से उठ उठकर वापस इन्हीं में दफ्न होते रहे। हाँ इस गुड़िया को छूने, इससे खेलने की ख़्वाहिश जुनून की हद तक सर पर सवार होने लगी।
उन्हीं दिनों एक दोपहर में अम्मां हस्ब-ए-मा’मूल अपने कमरे में लेटने जा चुकी थीं। भय्या-भाभी अपने अपने दफ़्तर में थे और वो दोनों बच्चों को ले उनके कमरे में उन्हें सुलाने की कोशिश कर रही थी जबकि दोनों में से कोई सोने पर आमादा नहीं था।
“ए, हमारे साथ खेलोना।”
“बाबू गुड़िया खेलेंगे?”
“हम लड़की नहीं हैं। गुड़िया से तो लड़कियां खेलती हैं। चोर सिपाही खेलते हैं।”
“हमारे साथ खेलिए ना। हम तो लड़की हैं—लाएं?” उसे भाभी के कमरे में दाख़िला मिल चुका था।
उसने ड्रेसिंग टेबल के सामने रखा हुआ अखरोट की लकड़ी का सुबुक स्टूल खिसकाया और उस पर चढ़ कर गुड़िया उतार ली। गोद में लिया तो महसूस हुआ जैसे जन्म जन्म की प्यास मिट गई हो। उसने उसके बालों में उंगलियों से कंघी की। रिबन खोल कर फिर से बाँधा, फ़्राक दुबारा पहनाई। लड़के ने कभी गुड़िया नहीं खेली थी लेकिन अभी उसे भी बड़ा मज़ा आया। छोटा लड़का अपने लकड़ी के घोड़े पर बैठा झूल रहा था। बड़े ने गुड़िया उसे दी। “लो उसे अपने घोड़े पर बैठा लो। सैर करा के ले आते हैं।”
तीनों खिलखिला कर हँसे। यहां आने के बाद पहली मर्तबा वो इस तरह दिल की गहराइयों से खिलखिला कर हंसी थी। ऐसी हंसी तो उसके अपने घर में भी शायद ही गूँजती हो।
“अब रख दो।” बड़े ने कहा। “मम्मी देखेंगी तो डाँटेंगी।”
लेकिन उस दिन उसकी ज़िंदगी में एक नया वर्क़ खुला था। गुड़िया अक्सर दोपहर में ख़ामोशी से उतर कर नीचे आ जाती और तीनों मिलकर गुड़िया से खेलते। उसने उसे दोनों बच्चों की छोटी बहन बना दिया था। छोटे के ना सही लेकिन बड़े बच्चे के ज़ेह्न में बहन का तसव्वुर था। गुड़िया मोटर में सवार होती। घोड़े पर साथ बैठ कर घूमने निकलती। एक दिन उसकी फ़्राक और रिबन धो कर सुखाए गए। उधर लड़की को बच्चों के कपड़ों पर इस्त्री करना सिखाया गया था। उसने इस्त्री लगाई और दोनों चीज़ें प्रेस कीं। उन्हें नए सिरे से पहनाया गया। रिबन को दूसरे अंदाज़ में बाँधा गया और फिर वापस रखने से पहले, पहले जैसा कर दिया गया। ये गुड़िया हम अपनी बहन को दिखाते। वो भी इससे खेलती। मेरी बेचारी नन्ही बहन। आठ साल की हो गई उसे कोई गुड़िया नहीं मिली। उसे देखेगी तो वो कैसी ख़ुश होगी, उसने सोचा। अब उसकी आँखों की हैरानी कम होने लगी थी लेकिन दिल में ख़्वाहिशात का तूफ़ान उठने लगा था। आज उन लोगों ने स्कूल-स्कूल खेला था। ये आइडीया बड़े लड़के का था। वो टीचर बना। लड़की और गुड़िया स्टूडेंट। थोड़ी देर को छोटा लड़का भी अपना हैलीकाप्टर उड़ाना भूल कर ‘क्लास’ में आ बैठा था। इन लड़कों के पास सच-मुच का बोर्ड था। काफ़ी बड़ा। लेकिन वो स्याह नहीं बल्कि सफ़ेद रंग का था। उस पर लिखने का ख़ास क़लम था जो ख़ूब मोटे हुरूफ़ लिखता। जब चाहो साफ़ कर दो और दूसरा कुछ लिखो या तस्वीर बना लो। लड़के के पास रंगीन तस्वीरों वाली बहुत ही ख़ूबसूरत किताबें थीं। अब तो एक चमकीली सी तस्वीरों वाली किताब छोटे बच्चे के लिए भी आ गई थी। वो अब साढे़ तीन साल का हो रहा था। और उसे स्कूल में डालने की बात हो रही थी। वो किताब बड़ी लुभावनी थी। उसका भाई मदरसे में जो किताब पढ़ता था वो तो शक्ल से ही ऐसी लगती थी कि पढ़ने से इन्सान भागे। बस काले काले हुरूफ़, मलगजा काग़ज़। हाथ लगाओ तो फटे। बाबू जिस किताब से टीचर बन कर ए बी सी डी पढ़ा रहे थे वो अगर भय्या को मिलती तो पढ़ने से ना भागता।
यहां अम्मां ने उसके लिए यस्सरनल-क़ुरआन मंगा दिया था। शाम को थोड़ी देर बिठा कर पढ़ाती थीं। उसका जी चाहता उन तस्वीरों वाली किताबों से भी पढ़े इसलिए बाबू ने जो स्कूल वाला खेल शुरू किया तो उसे बहुत ही अच्छा लगा।
“कहते हैं अच्छा नौकर भी क़िस्मत से मिलता है,” एक दिन अम्मां के पास से वो पढ़ कर हटी तो वो किसी से कह रही थीं। शायद कोई मिलने वाली आ निकली थीं।“ ये लड़की बस अल्लाह की भेजी आ गई। दोनों बच्चों को सँभाल लेती है। बड़ा आराम हो गया है। असल घर में सबसे बड़ी थी। कोई नौ, दस बरस की। उसके बा’द उनकी अम्मां के चार चुनेगी पोटे। उन्हें यही सँभालती थी। बस यहां के तौर-तरीक़े सीखने थे। है ज़हीन। जल्दी सीख लिये।”
अब क्या नौकरों को भी नज़र लगती है। ले भला हो। कल ही तो अम्मां ने ये बात कही थी या शायद परसों और आज सुबह वो घर से ग़ायब पाई गई।
लोग ऐसे परेशान हुए कि चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। पराई लड़की। और आजकल जो हाल है ना पाँच बरस की महफ़ूज़ ना पच्चास की। घर में हड़कंप मच गया।
“अजी, लड़की से पहले सामान तो देखिए। हम पहले ही न कहते थे। बैल जैसे दीदों से हर चीज़ ताके थी। रात दुल्हन शादी से आकर ज़ेवर उतार कर बाहर ही रखन हैं।” मोटी मुलाज़िमा ने कहा।“ कोई लगा रहा होगा साथ।” भाभी ने जल्दी से सिंगार मेज़ की दराज़ खोली। वो जब झुमके उतार रही थीं तो वो पास खड़ी टूकर टूकर मुँह देख रही थी।
झुमके वहीं थे। सोने की चूड़ियां भी।
“दुल्हन तुमने परसों बैंक से पैसा निकाला था। लापरवाह हो। कहाँ रखा था?” अम्मां भी बोल पड़ी।
भाभी ने जल्दी से बैग टटोला। पाँच पाँच सौ के नोटों की गड्डियां। रुपये गिने। पूरे थे। उसे कपड़े रखने के लिए जो अटैची दी गई थी वो वहीं थी। उसमें कपड़े भी थे। तब?
“तब कौन चीज़? किसी के साथ निकल गई है।” मुलाज़िमा ने कहा।
“ए हे बुआ! ख़ुदा से डरो। दस एक साल की बच्ची।” अम्मां ने कहा।
“अजी आजकल टीवी देख देख के दस बरस में पूरी औरत हो जां हैं”, बुआ ने जवाब दिया।
मियां-बीवी दोनों ने छुट्टी ली। पुलिस में रिपोर्ट करें तो चाइल्ड लेबर वाले पकड़ेंगे। ख़ैर उसकी नौबत आई तो कह दिया जाएगा कि ग़रीब रिश्तेदार है। माँ-बाप ने यहां पढ़ाने के लिए भेजा है। मुसीबत कर दी लड़की ने। अम्मां बहुत लाड करती थीं। सबसे ज़्यादा आराम उन्हीं को था। डरती थीं अगर दिल न लगाया ना-आसूदा रही तो चल देगी। अब भुगतें बल्कि सबको भुगतवाएँ। गाड़ी लेकर निकले। क्या पता ट्रेन या बस से कहीं निकल गई वो तो क्या हश्र होगा। घर पहुंच गई तो ख़ैर, न पहुंची तो उसके माँ बाप को क्या मुँह दिखाएँगे। ग़रीब बेचारे। भरोसे पर लड़की सौंपी थी। चलते वक़्त रुख़्सत करने को खड़ी माँ ने मैले कुचैले आँचल से न जाने किन ख़ामोश आँसूओं को पोंछा था।
सारे दिन की तग-ओ-दू के बा’द स्टेशन पर बैठी मिली। फटी फटी हैरान आँखों की हैरानी बिखेरती, आती जाती गाड़ीयों को देखकर ये समझने की कोशिश करती कि कौन सी गाड़ी उसके गांव जाएगी। होंटों पर पपड़ीयाँ बंधी हुई थीं। गालों पर आँसू ख़ुश्क हो चुके थे। बग़ल में गुड़िया दबी हुई थी और ए बी सी डी वाली प्राइमरी।
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