हड्डियों का ढ़ाँच
एक साल शहर में सख़्त क़हत पड़ा कि हलाल-ओ-हराम की तमीज़ उठ गई। पहले चील कव्वे कम हुए, फिर कुत्ते बिल्लियाँ थोड़ी होने लगीं। कहते हैं कि क़हत पड़ने से पहले यहाँ एक शख़्स मरकर जी उठा था। वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसके तसव्वुर में समा गया। उसने इस तसव्वुर को फ़रामोश करने की बहुत कोशिश की। लेकिन वो तसव्वुर किसी सूरत फ़रामोश न हुआ। हड्डीयों का ढांच, वो नदीदी आँखों वाली भूकी सूखी औरत बार-बार नज़रों में फिर जाती। इस क़िस्से की एक-एक तफ़सील उसके ज़हन में उभरने लगती। वो शख़्स जो मरकर जी उठा था। जब मरा तो उसकी बालीं पे कोई न बैठा। न यासीन पढ़ी गई, न गिर्या-ओ-ज़ारी हुई, न किसी ने आँख बंद की। जब लोग सुबह होने पर वहाँ आए तो देखा कि जो शख़्स रात मर गया था वो उठकर बैठ गया है। उस मंज़र पर उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं। वहशत आई मगर फिर वो इस दुबारा ज़िंदगी पर मसरूर हुए। और फिर दूर दूर से देखने आए कि क्या वो शख़्स जो मर गया था सच-मुच जी उठा है।
वो शख़्स जो मर कर जी उठा था भूका था। उसने खाना माँगा। मर कर जी उठने के बाद ये पहली ख़्वाहिश थी। जब सामने खाना आया तो वो इस तरह टूटा जैसे सदियों से भूका चला आता है। खाते-खाते उसे पसीना आ गया और दस्तर-ख़्वान ख़ाली हो गया। शाम को उसने इससे भी ज़्यादा खाया और दूसरे दिन उसे पिछले दिन से भी ज़्यादा भूक लगी। फिर वो हर वक़्त भूका रहने लगा।
वो शख़्स जो मरकर जी उठा था हर वक़्त हर सूरत भूका दिखाई देता। हर घर से रोटी आती और जितनी रोटी आती उसे वो चट कर जाता। खाने को इस तरह जुटता जैसे सदियों का भूका है। और सारे शहर की ग़िज़ा चाट जाएगा। निवाला इस तरह तोड़ता जैसे दरिंदे शिकार फाड़ते हैं। उसे इस बुरी तरह खाते देखकर देखने वालों के दिलों में नामालूम सी दहश्त पैदा होती और वो कभी-कभी तो गच गचा कर आँखें बंद कर लेते।
घरों में ये हुआ कि खाते-खाते खाना कम पड़ जाता और जब बी-बी से पूछा जाता तो वो कहती कि खाना उस शख़्स के लिए भी तो निकला है जो मरकर जी उठा था। फिर उस शख़्स का हिसाब रखकर घरों में खाना ज़्यादा पकने लगा। मगर खाना फिर भी कम पड़ जाता और पूछने पर बी-बी वही जवाब देती कि खाना उस शख़्स के लिए भी तो निकला है जो मर कर जी उठा था। तो लोग दस्तर-ख़्वानों से भूके उठने लगे। और रिज़्क़ की कमी का एहसास होने लगा। उन्हें गुमान होने लगा कि घर जो रोटी पकती है इसमें से वो शख़्स जो मरकर जी उठा है ज़्यादा हिस्सा बटा लेता है। इस गुमान ने ये असर दिखाया कि हर शख़्स भूका-भूका दिखाई देने लगा और रिज़्क़ की कमी का ख़्याल दामन-गीर हो गया।
वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसे भूक ही की ख़्वाहिश बहुत थी। किसी से हँसना बोलना, न मिलना-जुलना, न ग़ुस्सा करना, न ग़म खाना, दुख-सुख से बे-नियाज़, मुहब्बत-ओ-नफ़रत से ना-आशना। तो जिस रोज़ उस शख़्स ने जो उसे खाना भेजने पर बहुत कुढ़ने लगा था उसे खाना न भेजा तो उसे न तो ग़ुस्सा आया न ग़म खाया। हाँ वो ख़ामोश घर से निकल खड़ा हुआ। मरकर जी उठने के बाद ये पहला दिन था कि वो घर से निकला था। गली के नुक्कड़ पर एक कुत्ता उसे देखकर आहिस्ता-आहिस्ता ग़ुर्राया। मगर जब उसने कुत्ते की आँखों में आँखें डाल कर देखा तो कुत्ते ने अपनी दुम टांगों में समेट ली और वहाँ से भाग गया।
वो शख़्स जिसने आज उस शख़्स को जो मारकर जी उठा था खाना नहीं भेजा था, दस्तक होने पर बाहर आया। उसने देखा कि वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसके दरवाज़े पे खड़ा है। ये देखकर उस पर ऐसी हैबत तारी हुई कि घर में जो कुछ पका पकाया था वो उसे उठा लाया और इस शख़्स के हवाले करके उसे रुख़स्त किया।
वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उस रोज़ से बाहर निकलने लगा। जब वो बाहर निकलता तो उसके रूखे सूखे बदन में रेंगती हुई साल-हा-साल की भूक उसकी आँखों में खिंच आती। हर खाने की चीज़ को वो ऐसी मरियल और नदीदी नज़रों से देखता कि चीज़ वाले का चीज़ से जी फिर जाता। वो गर्म तन्नूरों के पास से गुज़रता और रोटियों की भीनी ख़ुश्बू इस नदीदे पन से सूँघता कि ताज़ा सिकी हुई रोटियों की महक उड़ जाती और ज़ायक़ा ज़ाइल हो जाता। वो हलवाइयोँ की दूकानों के बराबर से गुज़रता और इस नदीदे पन से देखता कि रंग-बिरंगी मिठाईयों के रंग मैले पड़ जाते और मिठास ग़ायब हो जाती। वो फलों की दुकानों के क़रीब से निकलता और इस नदीदे पन से नज़र डालता कि फलों का रूप उतर जाता और ताज़गी जाती रहती। यूँ खाने पीने की चीज़ों के रंग, महक और ज़ाइक़े ग़ायब होने लगे। चीज़ें खाने में कभी बेमज़ा लगतीं कभी मज़ा बदला हुआ मालूम होता। पेट अट जाता। मगर भूक जूँ की तूँ क़ायम रहती। पस लोगों के मुँह का ज़ायक़ा बिगड़ता चला गया और भूक बढ़ती चली गई। ज़्यादा खाते और जितना खाते उतने ही बेमज़ा होते।
वो शख़्स जो मरकर जी उठा था एक रोज़ बाज़ार से गुज़रता था कि एक कुत्ते से जो बड़े इन्हिमाक से गोश्त से भरी एक हड्डी को चचोर रहा था। मुड़भेड़ हो गई। कितने ने पहले तो दाँत निकाले और गिराया लेकिन उस शख़्स ने जो मरकर जी उठा था जब ख़ूँख़ार नज़रों से उसे देखा तो वो दुम दबाकर वहाँ से भाग गया, अगर-चे दूर की गली में जाकर देर तक भौंकता रहा।
इस वाक़िए से लोगों की तबीयत ऐसी मुनग़्ग़िज़ हुई कि उन्हें खाने पीने की चीज़ों में नजासत का एहसास रहने लगा। ये नजासत का एहसास उनके दिल-ओ-दिमाग़ में इस तरह समाया कि वो हर चीज़ को उस भूकी नदीदी नज़र से बचाकर रखने की कोशिश करते। पस जब वो शख़्स जो मरकर जी उठा था। बाज़ार की तरफ़ चलता तो हलवाई अपनी मिठाई की थालों पर ख़्वान ढाँप देते और नानबाई अपने तन्नूरों के आगे पर्दे गिरा लेते। इस एहतियात के बाद भी उन्हें एहसास रहता कि मरियल नदीदी नज़रें पर्दे को चीरती हुई रोटियों, मिठाईयों और फलों में पैवस्त हो रही हैं और ख़ुश्बू और ज़ायक़ा खिचता चला जा रहा है और नजासत सरायत कर रही है। इस एहसास ने ये असर किया कि लोग उस शख़्स से जो मरकर जी उठा था बेज़ार रहने लगे। वो उससे बेज़ार भी थे और उसे रिवाज के मुताबिक़ रोटियाँ भी भेजते थे। सुबह-ओ-शाम ख़ामोशी से उसे बंधी हुई मिक़दार में रोटियाँ भेजते और दिल ही दिल में कुढ़ते। मगर किसी को मजाल न थी कि रोटियाँ भेजने से हाथ रोके कि उन्हें मालूम था कि इस सूरत में वो शख़्स जो मरकर जी उठा है, सूँघता हुआ आएगा और उनके दरवाज़े पे दस्तक देगा।
एक रोज़ एक आमिल का गुज़र उस शहर में हुआ। वो बाज़ार से गुज़र रहा था कि उसने इस शख़्स को जो मरकर जी उठा था देखा और भरे बाज़ार में इसाटीक कर खड़े हो गया। इस आमिल ने इसकी आँखों में आँखें डालीं और नारा मारा “बता तू कौन है” फिर तकबीर का नारा बुलंद किया और वो शख़्स जो मरकर जी उठा था ये नारा सुनकर लड़खड़ाया और चीख़ मार कर गिर पड़ा। सहमे हुए लोगों ने जब डरते-डरते उसे क़रीब जाकर देखा तो ये देखकर सहम गए कि वो शख़्स जो मर कर जी उठा था मरा पड़ा है और उस आमिल ने उन लोगों से ख़िताब किया कि “ऐ लोगो ख़ुदा तुम पर रहम करे तुम मरने वालों को अकेला छोड़ देते हो। तुम्हारे शहर में एक शख़्स मरा और तुम उसकी बालीं पे न बैठे और एक बद-रुह ने आकर इसमें बसेरा कर लिया। ख़ुदा तुम्हारे शहर पर रहम करे।”
उसी बरस इस शहर में क़हत पड़ा। देखते-देखते इस शहर में चील कव्वे उनका बन गए और कुत्ते क़हत ज़दों को देखकर दुम दबाकर भागने लगे।
वो शख़्स जो मरकर जी उठा था, जिसके तसव्वुर में समा गया था। उसने उसे भुलाने की बहुत कोशिश की। इस वाक़िए को तो वो उसी रात जब ये सुनाया गया रद्द कर चुका था। उसने अपने आपसे बहुत मलामत की कि जिस बात को उसकी अक़्ल नहीं मानती उस पर आख़िर वो क्यों बार-बार ध्यान देता है। मगर वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसके तसव्वुर में रूप बदल बदल कर आया, उसे जाने कब-कब की बातें याद आईं और किस-किस तरफ़ ध्यान गया। उसे इस लंबे तड़ंगे सांसे का ख़्याल आया जो कहीं बचपन में काले आम के बाग़ के पास मिला था। इस टीका टेक सुनसान दो-पहरी में वो अचानक जाने किस तरफ़ से सामने आ गया? काला भुजंग, बड़ी-बड़ी सफ़ेद आँखें, सरुपा बड़ा सा पग्गड़, बाहर निकले हुए लंबे लंबे बाल, कानों में बड़े बड़े बाले, वो क़रीब से गुज़रता चला गया। और जब वो गुज़र गया तो थोड़ी देर बाद एक लड़के ने मुड़ कर देखा “यार” उसने हैरत से कहा, “वो आदमी कहाँ गया?”
उन सबने एक दम मुड़कर देखा। पगडंडी सुनसान पड़ी थी। उनके मुँह पर हवाईयां उड़ने लगीं। फिर किसी ने डरते-डरते सवाल किया, “कौन था वो?” और सब एक दूसरे का मुँह तकने लगे। फिर एक ये ज़ाहिर करते हुए जैसे वो बिलकुल नहीं डरा है कहने लगा, “यार कोई भी नहीं सांसिया था।”
“सांसिया था?”
“हाँ सांसिया था।”
“तूने उसके पैर देखे थे?”
“नहीं”
“उस्ताद उसके पैर पीछे की तरफ़ थे।”
पीछे की तरफ़?” सबने यक ज़बान पूछा।
“क़सम अल्लाह की,” फिर उसकी आवाज़ यकायक धीमी पड़ गई। उसने सरगोशी वाले लहजे में कहा, “ये बड़े बड़े पैर तलवा आगे था और पाँव पीछे।”
सब दम-ब-ख़ुद रह गए। उनकी आँखें फैलती चली गईं। यहाँ तक कि वो सिमट कर सिर्फ आँखें रह गए, बड़ी-बड़ी आँखें जो एक दूसरे को तक रही थीं। फिर उन्होंने बिजली की तेज़ी से अपने-अपने पैरों की जूतियाँ, खड़ाऊँ और चप्पल उतारे और भाग खड़े हुए। वो जो अभी ख़ालिस और महज़ आँखें थे अब ख़ालिस और महज़ टांगें थे... और अब उसे इस हिमाक़त पर हंसी आ रही थी। बचपन में भी आदमी क्या-क्या अहमक़ाना बात सोचता है। जंगल में चलता हुआ हर आदमी उसे जिन नज़र आता है। इस जंगल में जो शहर से ऐसा दूर नहीं था। सुनसान दो-पहरियों में कोई बड़ा सा बंदर अचानक दरख़्त से ज़मीन पर कूद पड़ता तो लगता कि आदमी है और जितना उस बंदर से, जो आदमी मालूम होता था डर लगता उससे ज़्यादा आदमी को देखकर ख़ौफ़ आता कि क्या ख़बर है वो आदमी न हो। मगर, उसने सोचा, सांसिए तो शहर में पहुँच कर भी इतने ही डरावने नज़र आते हैं। उसे याद आया कि किस तरह वो नमूदार हुआ करते थे। अचानक किसी दिन आबादी से ज़रा परे इस सड़क पर जिस पर लारियाँ चला करती थीं किनारे-किनारे दूर तक बैल गाड़ियाँ खड़ी दिखाई देतीं, बैल खुले हुए गाड़ीयों के उठे हुए डंडों के साथ मैली चादरें और चीथड़े तोवड़े तने हुए, और यहाँ से वहाँ तक धुआँ और धुएं और धूप में लिपटा हुआ कूटने पीटने का शोर जैसे किसी पुराने क़बीला ने आकर शहर की नाक़ा बंदी कर ली है। लंबे बाल, कानों में बड़े-बड़े बाले काली भुजंग सूरतों, उन हड्डियों निकले हुए सुंते हुए चेहरों में डला सी सफ़ेद-सफ़ेद आँखें कि बाहर अब निकलें और अब निकलें। लोहे की मोटी-मोटी सुर्ख़ अंगारा ऐसी सलाख़ें और उन पर हथौड़ों की पड़ती हुई मुसलसल चोटें। पसीने में डूबे हुए उन लंबे-लंबे हाथों में थामा हुआ हथौड़ा उसी एक रफ़्तार से ज़र्बें लगाता रहता यहाँ तक कि अंगारा ऐसा लोहा ख़म खाने लगता। दोनों हफ़्तों वो गाड़ीयों के साय में बने हुए खे़मे इसी तरह पड़े रहते और धुएं, धूप और पसीने में सना हुआ कूटने पीटने का शोर उठता रहता। फिर किसी दिन अचानक वो खे़मे ग़ायब हो जाते बस बहुत से टूटे हुए चूल्हे, मुर्दा राख़ की ढेरियाँ और कुछ सूखा कुछ गीला गोबर पड़ा रह जाता।
“यार सांसिए चले गए।” उन लड़कों को जितना उन साँसियों के अचानक आ जाने पर ताज्जुब होता इतना ही उनके अचानक चले जाने पर ताज्जुब होता। जंगल की तरफ़ रवाँ-दवाँ टोली के क़दम चलते-चलते रुक जाते। उन्हें लगता गोया जुनूँ का एक क़ाफ़िला था कि आया, ठहरा और गुज़र गया। उजड़े चूल्हों और ठंडी भट्टियों को वो हैरत से तकने लगते।
“यार ये सांसिए बहुत गंदे होते हैं। छिपकली खा जाते हैं।”
“छिपकली, अबे वो तो साँप तक खा जाते हैं।”
“साँप... नहीं यार।”
“मत मानो।”
“मगर यार साँप कोई कैसे खा सकता है।”
“क़सम अल्लाह की, मैंने अपनी आँखों से देखा है। ये लंबा साँप। सांसिए ने उसे क़त्ले-क़त्ले कर दिया। फिर उसे कढ़ाई में...” वो मुँह बिगाड़ कर चुप हो गया।
उस याद ने इस पर कुछ बहुत ही ना-ख़ुशगवार असर किया कि तबीयत गिजगिजाने लगी। उसने अपने जी में कहा कि आदमी क्या इल्ला-बिल्ला अपने पेट में भरता रहता है। छिपकली, मेंढ़क, साँप, बिच्छू... हर चीज़... तो आदमी भी फिर वहशी ही हुआ न? और आदमी का पेट? ये पेट आख़िर है क्या बला? इसके हाफ़िज़े ने फिर पीछे ज़क़ंद लगाई।।
“ए अम्माँ जी देखो ए, रोटियों की थई की थई साफ़ कर दी।”
“बेटा बस कर। ज़्यादा नहीं खाते हैं।”
“अम्माँ जी आज इसका पेट नहीं भरेगा। इसके पेट में तो जिन बैठा है।” तो जिन बहुत खाते हैं? और इस सवाल के साथ उसे उस शख़्स का ख़्याल आ गया जिसके आगे से जिन रोटियाँ उठाले गया था और उसके बाद वो सूखता चला गया। और उस शख़्स से इसका ध्यान भटका तो एक और शख़्स की तरफ़ चला गया।
“बी-बी मुर्दे को साथ खाते देखना अच्छा नहीं।” अम्माँ जी डरे-डरे लहजे में बोलीं, “मौलवी-साहब ने ये ख़्वाब सुना तो चुप हो गए। फिर फ़रमाया कि सदक़ा दो। डूबे ने सदक़ा तो बहुत दिया, पर होनी तो हो कर रहती है। सारी जायदाद ऊजड़ हो गई। बस इसी ग़म में दिमाग़ उलट गया। क़ब्रिस्तानों में मारा-मारा फिरता था और देखने में हड्डियों का ढांच रह गया था। बस ये समझ लो कि ग़रीब जीते-जी मर गया।”
वो शख़्स जो जीते-जी मर गया था उसकी आँखों में फिर गया। पतली खप्पच ऐसा आदमी, आँखों में हल्क़े पड़े हुए, भदमैले बाल, हाथ में तौलिया में लिपटी हुई रोटियाँ, लपक झपक क़ब्रिस्तान वाली मस्जिद की तरफ़ जाना, फिर किसी को वहाँ ना पाकर आप ही हैरान होता और फिर हैरान-हैरान गली-गली फिरता। उस शख़्स ने जो जीते-जी मर गया था इस मस्जिद के पास एक फ़क़ीर को खड़े देखा था। कि सदा लगाता था “बाबा मैं भूका।” और उस शख़्स ने इस भिकारी से कहा कि “बाबा तुम यहाँ ठहरो। मैं तुम्हारे लिए खाने को लाऊँगा।”
फिर वो वहाँ से बहुत तेज़ी से चला और रोटी के लिए पैसे जमा करता फिरा। उसने तीन दिन तक कोड़ी-कोड़ी जमा की और जब तीसरे दिन रोटी ख़रीद कर वो वहाँ पहुँचा तो ये देखकर हैरान रह गया कि वो फ़क़ीर तो वहाँ है ही नहीं। कहाँ गया वो? पहले उसे ताज्जुब हुआ। फिर वो हैरान-ओ-परेशान उसे गली गली ढूँढता रहा। जब उसका कहीं खोज न मिला तो फिर उसी मुक़ाम पर आया जहाँ से चला था और फ़क़ीर की तलाश में क़ब्रिस्तान की तरफ़ निकल गया। फिर उसका ये मामूल ठहरा कि मांगे हुए पैसों से मांगने वाले के लिए रोटी ख़रीदना लंबे-लंबे क़दम भरते हुए क़ब्रिस्तान वाली मस्जिद तक जाना, फिर माँगने वाले को वहाँ न पाकर शहर में ढूंडते फिरना और फिर वापिस आकर क़ब्रों में निकल जाना... और वो शख़्स जिसके अंदर बद-रूहें थीं झील के पार क़ब्रों और पहाड़ों में चिल्लाता और अपने तईं पत्थरों से ज़ख़्मी करता फिरता था। वो शख़्स कश्ती से उतरने वाले को क़ब्रों से निकल कर मिला और बड़ी आवाज़ से चिल्लाया कि क़सम तुझे रब की मुझे अज़ाब में ना डाल और जब बद-रूहें उसके अंदर से निकल गईं तो लोग उसे देखने आए। लोग उसे कपड़े पहने और होश में बैठे देखकर डर गए... ये कब का क़िस्सा उसे याद आ गया वो चौंक पड़ा। कब के क़िस्से उसके ज़हन में आ रहे हैं। उसे ताज्जुब होने लगा कि ध्यान का सिलसिला कहाँ कहाँ पहुँचा है और कितनी अनमोल यादों को इकट्ठा कर दिया है। ध्यान का सिलसिला भी कितना बे-सिलसिला होता है और उसे अपने ध्यान से डर आने लगा। उसने सोचा कि क्यों ना उस वक़्त बाहर चल कर जी और सा किया जाये कि ध्यान बटे और दिल बहले।
वो गली-गली गुज़रता गया। फिर दफ़्अ‘तन ठिठक गया। ये वो लंबे-लंबे डग भरता हुआ किधर जा रहा है? क़ब्रिस्तान की तरफ़? और ये मस्जिद कौन सी है, ये फ़क़ीर वही तो... मगर फिर फ़ौरन उसे अपनी बे-ध्यानी का एहसास हुआ । ये रास्ता क़ब्रिस्तान की तरफ़ नहीं, माल रोड की तरफ़ जाता है। यूँ मस्जिद जहाँ भी हो उसके साए में खड़ा हुआ फ़क़ीर एक ही तरह का लगता है। सामने एक होटल देखकर उसके क़दम बे-इरादा इस तरफ़ उठ गए। उसने सोचा कि थोड़ी देर बैठ कर सुस्ताओ और चाय पियो। तन्हा-तन्हा फिरने से जो ध्यान आवारा होता है उससे भी निजात मिल जाएगी।
मलगजी सफ़ेद दाढ़ी, चेहरे पे झुर्रियाँ, कमर ज़रा झक्की हुई, बदन पर ढीली मैली उचकन, वो शख़्स खाने पे मंढा हुआ था और इधर-उधर देखे बग़ैर बे-तहाशा खाए जा रहा था। उसे यूँ बे-तरह खाते देखकर वो बहुत बेज़ार हुआ कि अजब शख़्स है। क़हत ज़दों की तरह खाने पे टूटा पड़ा है। उसे कितने दिन से रोटी नहीं मिली थी? बे-तहाशा खाने वाले शख़्स ने खाना ख़त्म होने पर जल्दी जल्दी उंगली से प्लेट को साफ़ किया, फिर पाँचों उंगलियों को होंटों से साफ़ किया और इससे फ़ारिग़ हो, अलग एहतियात से रखी हुई मींग की हड्डी उठाई और इतमीनान से चचोड़ना शुरू कर दिया। पहले तो वो बे-तहाशा खाने वाले शख़्स को ताज्जुब से टिकटिकी बाँधे देखता रहा। फिर उसके नदीदे पन को देखकर उसकी तबीयत मालिश करने लगी। उसने इस तरफ़ से नज़रें फेर तो लें। लेकिन कभी होंटों की चप-चप पर, कभी हड्डी चचोड़ने की आवाज़ पर, नज़र ख़्वाह-म-ख़्वाह उस तरफ़ उठ जाती। उसने एक-बार बहुत हक़ारत से उस पर नज़र डाली और दिल ही दिल में कहने लगा कि ये आदमी है या बला। फिर उस हक़ारत की कैफ़ीयत पर कुछ शक और हैरत की मिली जुली कैफ़ीयत ग़ालिब आ गई। क्या ख़बर है वो आदमी न हो। उसने बहुत ग़ौर से उसका सर से पैर तक जायज़ा लिया। क्या वो ज़िंदा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो... उसका ध्यान भटकने लगा था मगर फिर उसे फ़ौरन ही ख़्याल आ गया कि ये तो फिर वही औहाम में उलझना हुआ। उसने वो मेज़ ही बदल दी और दूसरी मेज़ पर उसकी तरफ़ पीठ करके जा बैठा कि न उस पर नज़र जाएगी न ध्यान बटेगा। उसने बैरे से मुख़्तलिफ़ मेज़ों पे बिखरे हुए अख़बार मंगाए, उन्हें इकट्ठा किया और यकसूई से पढ़ना शुरू कर दिया।
अख़बार पढ़ते-पढ़ते एहसास हुआ कि होटल में शोर कुछ बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। उसने अख़बार से नज़रें उठाईं। इर्द-गिर्द की सारी मेज़ें घिर गई थीं और बैरे लपक-झपक मेज़-मेज़ घूमते फिरते थे। उसकी नज़र सामने टंगी हुई घड़ी पर पड़ गई। तो गोया लंच का वक़्त हो गया है। दरवाज़ा बार-बार खुलता और हर बार ऊंची आवाज़ों में बातें करते हुए क्लरकों की कोई नई टोली अंदर आ जाती और मज़ीद एक मेज़ घर जाती। अचानक कुछ ख़्याल आ जाने पर उसने मुड़कर देखा। गया वो शख़्स? अच्छा उसने इतमीनान का साँस लिया।
देखते-देखते होटल इतना भर गया कि बाद में आने वाले कोई मेज़ ख़ाली न पाकर वापिस हो गए। हर मेज़ पर प्लेटों और चमचों का एक बेहंगम शोर था और लोग जल्दी-जल्दी खा रहे थे, बल्कि सटक रहे थे। उसने एक-एक मेज़ को, हर मेज़ के एक-एक चेहरे को ग़ौर से देखा। क्या हो गया है उन लोगों को। आदमी हैं या बलाऐं और रफ़्ता-रफ़्ता उसे यूँ लगा कि मुख़्तलिफ़ चेहरे लंबे होते जा रहे हैं और जबड़े फैल रहे हैं। इसके तसव्वुर में फिर कुछ परछाईयाँ मंडलाने लगी थीं। मगर उसने जल्दी से झुरझुरी ली और इतनी ज़ोर से बैरे को आवाज़ दी कि आस-पास के मेज़ों वालों ने चौंक कर उसे देखा वो ख़ुद भी अपनी इस हरकत पर इतना सटपटा गया था कि बैरे के आने पर यक लख़्त खाने का आर्डर दे डाला हालाँकि उस वक़्त उसने सिर्फ एक प्लेट शामी और चाय पर गुज़ारा करने का तहय्या किया था।
आर्डर देने के बाद उसकी नज़र ना-दानिस्ता फिर इर्द-गिर्द की मेज़ों पर गई। मगर अब उसका मूड बदला हुआ था। उसने जल्दी-जल्दी खाने वालों को हमदर्दी से देखा। वो सोच रहा था कि लंच के लिए ले दे के एक घंटा तो मिलता है। इस वक़्फ़े में खाया-पिया क्या जा सकता है, बस पेट की दोज़ख़ को भर लीजीए।
उसने बे-ध्यानी में खाना शुरू किया और खाता चला गया। वो इतने बड़े-बड़े लुक़्मे इस तेज़ी से मुँह में ले जा रहा था कि एक दफ़ा उसके हल्क़ में फंदा लगा और उसे यूँ लगा कि उसने पानी न पिया तो उसकी आँखें निकल पड़ेंगी। पानी पीते हुए उसे ख़्याल आया कि मैं इस बे-तहाशा पन से क्यों खा रहा हूँ और फिर उसे एक निराला ख़्याल आया। ये मैं ही हूँ? वो शख़्स जो इस वक़्त इस मेज़ पर खाना खा रहा है वो मैं हूँ? उसने एहतियात से निवाला तोड़ा। उसी एहतियात से उसे मुँह में रखा और इस बे-तअल्लुक़ी से मुँह चलाना शुरू किया जैसे मुँह इससे अलग कोई मशीन है जिसके हैंडल को वो घुमा रहा है। उस वक़्त वो सोच रहा था कि काश हम निवाले के पूरे सफ़र का मुताला कर सकते। फिर उसने सोचा कि क्या ये नहीं हो सकता कि मैं खाना-खाने वाले को छोड़कर बे-तहाशा खाने वाले शख़्स की मेज़ पर जा बैठूँ और वहाँ से देखूँ कि यहाँ जो शख़्स खाना खा रहा है वो कौन है? क्या मैं, मैं ही हूँ? काश हम जान सकते कि हम अगर हैं तो क्या वो हम ही हैं और काश हमें अपनी ज़ात के मुल्क को बदरूहों से निजात दिलाने के लिए रूहुल्लाह की ज़रूरत हुआ करती और वो शख़्स जो मर कर जी उठा था उसके तसव्वुर में फिर मंडलाने लगा। मगर अब वो इस शक में पड़ गया था कि वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसके तसव्वुर में आया हुआ है या वो उस शख़्स के तसव्वुर में समाया हुआ है जो मर कर जी उठा था।
उसने जिस तेज़ी से खाना शुरू किया था अब उसी आहिस्तगी से खा रहा था। अचानक उसकी सारी भूक मर गई थी। भूक क्या रहती, उस पर तो अब ये दहश्त सवार थी कि वो ख़ुद भी इस बे-तहाशा खाने वाले शख़्स से मुख़्तलिफ़ नहीं है। फिर वो इस सोच में पड़ गया कि वो खा क्या रहा है। उसे उन मुख़्तलिफ़ होटलों वालों की ख़बरें याद आईं जो ग़ैर हलाल गोश्त पकाने के इल्ज़ाम में पकड़े गए थे। इस ख़्याल ने ऐसा असर किया कि फिर उसके मुँह में निवाला ही नहीं चला।
जब वो बाथरूम से हाथ धोकर बाहर आया तो उसने देखा कि होटल कम-ओ-बेश ख़ाली हो चुका है। इक्का-दुक्का मेज़ पर कोई-कोई कस्टमर किसी क़दर आसूदगी के एहसास के साथ बैठा चाय पी रहा है। बैरे ग़ाइब ग़ुल्ला हैं। सिर्फ एक बैरा बड़े इतमीनान-ओ-फ़राग़त के साथ साफ़ी से मेज़ें साफ़ करता फिरता है। अलग एक गोशे में ख़ामोशी से चाय पीते हुए एक शख़्स को देखकर उसे गुमान हुआ कि ये उसे तो नहीं तक रहा था। लेकिन उसे अपना ये गुमान ख़ुद ही अहमक़ाना नज़र आने लगा। मुझे क्यों देखता है। मेरे क्या सींग लगे हुए हैं। फिर उसे बैरे को आवाज़ देने पर चौंक कर देखा था। उसने उड़ती नज़र उस शख़्स पर डाली और मुत्म‘इन हो गया। नहीं ये वो शख़्स नहीं है। वैसे इस ख़्याल के बाद उसे बेकली सी ज़रूर होने लगी। फिर उसने ये भी सोचा कि होटल में आख़िर कब तक जमे बैठे रहोगे। किसी क़दर उजलत से बिल अदा करके वो बाहर निकल गया।
सामने बस स्टॉप पर अभी एक बस आकर रुकी थी। उसने दौड़ लगा दी और स्टॉप पर जल्दी से पहुँच कर हुजूम के साथ अंदर घुस गया और पिछली सीट पर सबसे अलग जा बैठा। मगर अगले स्टॉप पर मुसाफ़िर इतने सवार हुए कि पिछली नशिस्तें सब भर गईं और वो जो सबसे अलग बैठा था हुजूम का हिस्सा बन गया। बराबर में एक शख़्स का मुँह बराबर चले जा रहा था। वो चने की फंकियाँ पे फंकियाँ लगा रहा था। उसके मुँह से आती हुई चनों की ख़ुश्बू से उसकी तबीयत मुकद्दर होने लगी। इस जल्दी-जल्दी से चलते हुए मुँह को देखकर उसे बे-तहाशा खाने वाले शख़्स का ख़्याल आ गया। मगर अब वो ऐसे ख़्यालात से बिलकुल बोर हो चुका था उसने सोचा कि सोचना भी कितना थका देने वाला मशग़ला है। कोई ख़्याल बला बन कर चिमट जाता है, दिमाग़ के अंदर जा घुसता है। फिर बला से बला पैदा होती है और बलाओं का हुजूम हो जाता है और इस ख़्याल से उसे एक और ख़्याल आया। बदरूह आदमी के अंदर समाकर कहाँ ठिकाना करती है? पेट में? या दिमाग़ में? दिमाग़? दिमाग़ ख़ुद ही तो बदरुह नहीं कि आदमी के अंदर समा गया है? इस बदरुह से निजात मुम्किन है? और उसने इस ख़्याल से शह पाकर ऐसे आदमी का तसव्वुर बाँधने की कोशिश की जिसका दिमाग़ नहीं है। उसके तसव्वुर ने कई बेढंगी शक्लें बनाईं और बिगाड़ दीं।
और फ़र्ज़ कीजीए कि आदमी का सर ही नहीं? ये ख़्याल पहले तो उसे बहुत अजीब सा लगा लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता वो एक सूरत में ढलता गया। सर से महरूम एक मादर-ज़ाद बरहना शख़्स। उस मादर-ज़ाद बरहना शख़्स ने अपना सर हथेली पे टिका रखा था और मस्जिद की सीढ़ीयों पर चढ़ रहा था। मगर इस तसव्वुर से वो फ़ौरन दहल सा गया। जिस तेज़ी से तस्वीर उसके ज़हन में उभरी थी उसी तेज़ी से उसने उसे रद्द कर दिया। हुजूम की वजह से उसका दम रुकने लगा था। घड़ी-भर के लिए उसने हुजूम से क़त-ए-नज़र करके खिड़की के बाहर सर निकाल कर देखा। यूँ कुछ ताज़ा हवा लगी और साँस में साँस आया। सोचना भी अच्छा-ख़ासा एक डरावना अमल है, उसने सोचा और अगले पिछले सारे ख़्यालात को दिमाग़ से रफ़ा करने की कोशिश की और अब वाक़ई वो कुछ नहीं सोच रहा था। हाँ बहुत सी बे जोड़ यादों, ख़यालों, और तस्वीरों के बिखरे शीराज़े से दिमाग़ के अंदर एक धुंद सी अट गई थी। ये धुंद देर तक यूँ अटी रही जैसे वो जम गई है। मगर फिर रफ़्ता-रफ़्ता छिद्री पड़ने लगी और कुछ मिट्टी मिट्टी सी कद्दावर परछाईयां तसव्वुर में उभरने लगें, वो शख़्स जो मरकर जी उठा था, वो शख़्स जो जीते-जी मर गया, वो शख़्स जो मरकर भी न मरा, मादरज़ाद बरहना सर कटा शख़्स। तसव्वुर को फिर शह मिल गई थी। मगर वो जो ख़यालों से डर गया था इस नरगे से निकल भागा। उसने एक मर्तबा फिर खिड़की से सर निकाला। ये बस आख़िर कब तक चलती रहेगी। ग़लत बस का टर्मेंस अभी दूर था। मगर उसे ऐसा ख़फ़क़ान हुआ कि अगले ही स्टॉप पर उतर गया।
अब शाम हो चली थी। शोर मचाते हुए सरासीमा कव्वे दरख़्तों पर बैठते और बग़ैर किसी वजह के भरा खाकर फ़िज़ा में बिखर जाते थे। अबाबीलों का एक झुरमुट उड़ते-उड़ाते इतनी बुलंदी पर पहुँच गया था कि अब ठहरा हुआ दिखाई देता था। सड़क के नुक्कड़ पर इतमीनान से बैठे हुए कुत्ते ने आहट सुनकर सर उठाया, उसे घूर कर देखा और बहुत आहिस्ता-आहिस्ता ग़ुर्राने लगा। घूरते ग़ुर्राते कुत्ते से कतराकर उसने सड़क उबूर की और आगे निकल गया। आगे जाकर उसे घूरते ग़ुर्राते कुत्ते का सरसरी ख़्याल आया और साथ ही याद आया कि आज तो जुमेरात है और अब वो याद करने की कोशिश करने लगा कि क्या वो कुत्ता काला था। क़दम ठिटके। वो पलट पड़ा। पलट पड़ने की कोई ऐसी वजह नहीं थी। बस उसे ये ख़्याल आ गया था कि अब रात होती है। शहर कहाँ जाओगे घर वापिस चले चलो। अलबत्ता सड़क के नुक्कड़ को उबूर करते हुए उसने आस-पास का एहतियात से जायज़ा लिया और सामने सड़क पर दूर तक निगाह दौड़ाई। वो बहुत हैरान हुआ कि इतनी सी देर में वो कुत्ता कहाँ छू हो गया। उसे अब याद आ रहा था कि वो कुत्ता तो काला था और ये जुमेरात की शाम है तो ये कहीं कोई बदरुह तो नहीं थी? वो देर तक इस शक में गिरफ़्तार रहा कि आया वो कुत्ता था या कुत्ता नहीं था और जब गली में मुड़ा और उस नानबाई की दुकान से गुज़रा जिसने पकती हुई हंडिया से अभी-अभी ढक्कन उठाया था तो उसकी सोंधी-सोंधी भाप के साथ उसे ख़्याल आया कि उसने दोपहर का खाना बरा-ए-नाम खाया था। उसे यकायक भूक लग आई और उसके क़दम जल्दी जल्दी घर की तरफ़ उठने लगे। मगर इसी के साथ उसे ग़ायब हो जाने वाले कुत्ते का फिर ख़्याल आ गया। वो कुत्ता था या कुत्ता नहीं था? फिर उसकी घूरती ग़ुर्राती सूरत उसकी आँखों में फिर गई। वो कुत्ता मुझे देखकर अजीब तरह से ग़ुर्राया था। वो कुत्ता, कुत्ता नहीं था या मैं... और वो शश-ओ-पंज में पड़ गया। मैं कौन हूँ? क्या मैं, मैं ही हूँ? उसे ठंडा-ठंडा पसीना आने लगा। फिर उसे लगा कि वो हड्डियों का ढांच रह गया है। और टांगें लंबी लंबी हो गई हैं। बे-तहाशा भूक लग आई है।
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