हराम जादी
दरवाज़े की धड़ धड़ और किवाड़ खोलो की मुसलसल और ज़िद्दी चीख़ें उसके दिमाग़ में इस तरह गूंजी जैसे गहरे तारीक कुएँ में डोल के गिरने की तवील, गरजती हुई आवाज़। उसकी पुर-ख़्वाब-व-नीम रज़ामंद आँखें आहिस्ता आहिस्ता खुलीं लेकिन दूसरे लम्हे ही मुँह अंधेरे के हल्के हल्के उजाले में मिली हुई सुरमा जैसी सियाही उसके पपोटों में भरने लगी और वो फिर बंद हो गईं। आँखों के पर्दे बोझल कम्बलों की तरह नीचे लटक गए और डलों को दबा दबा कर सुलाने लगे लेकिन कान आँखों की हम-आहंगी छोड़कर भिन-भिना रहे थे। वो इस सहर ख़ेज़ हमला आवर की ताज़ा योरिश के ख़िलाफ़ अपने रौज़न बंद कर लेना चाहते थे और फिर भी भिनभिना रहे थे।
उम्मीद-व-बीम की ये कशमकश जिसे नींद शायद जल्द ही अपने धारे में ग़र्क़ कर लेती, ज़्यादा देर जारी न रही। अब के तो दरवाज़े की चूलें तक हिली जा रही थीं और आवाज़ें ज़्यादा बे-सब्र, बे-ताब, करख़्त और भर्राए हुए गले से निकल रही थीं, खोलो खोलो। ये आवाज़ें पतली, नोकदार तितलियों की तरह दिमाग़ में घुस कर नींद के पर्दों को तार तार किए दे रही थीं। वो ये भी सुन रही थी कि पुकारने वाला खोलो- खोलो के वक़्फ़े के दरमियान आहिस्ता ना-ख़ुशगवार इरादों का इज़हार भी कर देता था। यही नहीं बल्कि कोई शख़्स उसे सड़क के ढ़ेलों को इस्तेमाल करने की तर्ग़ीब दे रहा था। आख़िर उसने आँखें पूरी खोल दीं और हाथों को चारपाई पर झटकते हुए कहा, नसीबन देखो तो कौन है?
ये उसके लिए कोई नई बात न थी जब से वो इस क़स्बे में मिडवाइफ़ हो कर आई थी ये सब कुछ रोज़ होता था यही चीख़ें, यही धड़ धड़ाहट फ़र्ज़ और आराम की यही तल्ख़ कश्मकश यही झल्लाहट और पसपाई सब इसी तरह, उसे सुब्ह ही उठ कर जाना पड़ता था और फिर उसका सारा दिन नौ-वारिदों को एहतिजाजन चीख़ते चिल्लाते, हाथ पांव फेंकते दुनिया में आते हुए देखने में, कुछ दिन आए हुओं की रफ़्तार के मुआइने में और आमद-व-रफ़्त के इंदिराज के लिए टाउन एरिया के दफ़्तर तक बार बात दौड़ने में गुज़रता था। उसे दोपहर को खाना खाने और आराम करने का वक़्त भी हज़ार खींच-तान के बाद मिलता था और वो भी यक़ीनी न था क्योंकि बच्चे पैदा होने में मौक़े का मुतलक़ लिहाज़ नहीं करते। सुब्ह चार बजे, दोपहर के बारह बजे, रात के दो बजे हर घंटा हर घड़ी उसे कोह-ए-निदा की आवाज़ पर लब्बैक कहने के लिए तैयार रहना पड़ता था और बच्चे थे कि ऐसी तेज़ी से चले आ रहे थे जैसे पहाड़ी नदी में लुढ़कते हुए पत्थर, ज़ब्त-ए-तौलीद के चर्चे दौलत नगर को शहर से मिलाने वाली कच्ची और गढ़ों वाली सड़क को तय न कर सकते थे और अगर बिलफ़र्ज़ मुहाल ओ रेंगते हुए वहाँ तक पहुँच भी जाते तो ये यक़ीनी बात थी कि क़स्बे वाले उन्हें ज़रा भी क़ाबिल-ए-एतिना न समझते। क्योंकि वो अच्छी तरह जानते थे कि बच्चे ख़ुदा के हुक्म से पैदा होते हैं। इसमें इंसान का क्या दख़ल। 18 साला लड़के, 56 साला बूढ़े, अल्हड़ लड़कियाँ, अधेड़ औरतें, सब के सब हैरत अंगेज़ तनदही और यकजह्ती के साथ सड़कों की नालियों में खेलने वाले बच्चों की तादाद में इज़ाफ़ा किए चले जा रहे थे। गोया वो क़ौमी दिफ़ा की ख़ातिर कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर हैं और फिर वो बेचारे करते भी क्या। वो तो ख़ुदा के हुक्म से बेबस थे। ग़रज़ ये कि बच्चे चले आ रहे थे। काले बच्चे, पीले बच्चे, परंचे मुर्ग़ की तरह सुर्ख़ बच्चे और कभी कभी गोरे बच्चे दुबले पतले, हड्डियों का ढांचा या बा'ज़ मोटे ताज़े बच्चे, मुड़े हुए बालों वाले चपटी नाक वाले, छछूंदर की तरह गुलगुले, लकड़ी जैसे सख़्त, हर रंग और हर क़िस्म के बच्चे...
एमली ने अपनी दादी से सुना था कि उनके बचपन में एक मर्तबा पाव पाव भर के मेंढ़क बरसे थे। वो कभी कभी सोचा करती थी और उस वक़्त उसे बे-साख़्ता हंसी भी आ जाती थी कि ये बच्चे वही बरसने वाले मेंढ़क हैं। पाव पाव भर के ज़र्द ज़र्द मेंढ़क।
और उसे इन्ही ज़र्द मेंढ़कों की बारिश के हर क़तरा को बरसते हुए देखने के लिए क़स्बे की टूटी फूटी रोड़ों की सड़कों, तंग-व-तारीक, सीली हुई गलियों, गर्द-व-गुबार, कूड़े करकट के ढेरों, भौंकते हुए लाल पीले कुत्तों और किसानों की गाड़ियों और घास दालियों से ठुँसे हुए बाज़ारों में सारा सारा दिन घूमना पड़ता था। पतली पतली सड़कों पर दोनों तरफ़ रेत का हाशिया ज़रूर बना होता था और फिर नालियाँ तो ठीक सड़कों के बीचों बीच बहती थीं जिनकी सियाही किसी गंवार दिन के बहे हुए काजल की तरह सड़क का काफ़ी हिस्सा ग़स्ब किए रहती थी। सफ़ाई के भंगी नालियों की गंदगी समेट समेट कर सड़क पर फैला देते थे जिनसे अपनी साड़ी को महफ़ूज़ रखने के लिए एमली को हल्के हल्के फ़ीरोज़ी सैंडल के बजाय ऊंची एड़ी वाला जूते पहनना पड़ता था। गो इस सूरत में सड़क के उभरे हुए लातादाद कंकर उसके पैरों को डगमगा देते थे। रास्ते में गिल्ली-डंडा और कबड्डी खेलने वाले लौंडों का ला उबाली पन उसके कपड़ों पर हर दफ़ा अपना निशान छोड़ जाता था। मगर ख़ैर शुक्र था कि वो हमेशा अपनी आँखें और दाँत सलामत ले आती थी और यहाँ की गर्मी! उसे मालूम होता था कि वो यक़ीनन पसीनों में घुल घुल कर ख़त्म हो जाएगी। इन तंग सड़कों पर भी सूरज इस तेज़ी से चमकता था कि उसके बदन पर चिनगारियाँ नाचने लगतीं और उसकी नीले फूलों वाली छतरी महज़ एक बोझ बन जाती। जब वो अपनी ऊंची एडियों पर लड़खड़ाती, संभलती, धूप में जलती भुन्ती सड़कों पर से गुज़रती तो उसे दूर आल्हा गाने की आवाज़, ढोल की खट खट और दरख़्त के नीचे ताश की पार्टियों के बुलंद और करख़्त क़हक़हे दोपहर की नींद हराम कर देने वाली बोझल मक्खियों की भनभनाहट की तरह बेज़ार कुन और पुर इस्तेहज़ा मालूम होते और वो चार महीने पहले छोड़े हुए शहर का ख़याल करने लगती। मगर शहर उस वक़्त ख़्वाबों की वो सरज़मीन बन जाता है जिसे सुब्ह उठ कर हज़ार कोशिशों के बावजूद कुछ याद नहीं किया जा सकता और जिसकी लताफ़त का यक़ीन दिन भर दिल को बेचैन किए रखता है। उसे कुछ रौशनी सी मालूम होती, एक चमक, एक कुशादगी, एक पहनाई कुछ हरियाली उसके सामने तैरती और वो फिर उसी तप्ती हुई कंकरों, नालियों और रेत वाली सड़क पर लड़खड़ाती, संभलती चल रही होती। बिजली के पंखे वाले कमरे का तसव्वुर उस तपिश और सोज़िश को कम करने में उसकी मदद न करता था लेकिन, हाँ! जब कभी वो ख़ुशक़िस्मती से रात को फ़ारिग़ होती और उसे अपने बिस्तर पर कुछ देर जागने का मौक़ा मिल जाता तो उस वक़्त शहर की ज़िंदगी की तस्वीरें सिनेमा के पर्दे की तरह पूरी तरह रौशनी और सफ़ाई के साथ उसकी नज़रों के सामने गुज़रने लगतीं और वो जिस तस्वीर को जितना देर चाहती ठहरा लेती लेकिन जब वो इन तस्वीरों से लुत्फ़ उठाने के दरमियान इन मनाज़िर को याद करती जिन से उसे हर वक़्त दो चार होना पड़ता था तो उसकी ख़स्तगी और बेज़ारी आहिस्ता आहिस्ता ऊद कर आती। घर की दीवारें मअ रात की तारीकियों के उस पर झुक पड़तीं। दिल भिंचने लगता, सांस गर्म और दुशवार हो जाता और उसका सर कमननी खा खा कर नींद की बेहोशी में ग़र्क़ हो जाता और वो ख़्वाब में देखती कि वो फिर इसी शहर के हस्पताल में पहुंच गई है, मगर उन दर-व-दीवार से बजाए रिफ़ाक़त के कुछ बे-गानगी सी टपकती है और ख़ुद उसके आज़ा मुंजमिद और नाक़ाबिल हरकत हो गए हैं और कोई नामालूम ख़ौफ़ उसके दिल पर मुसल्लत था। वो सुब्ह तक यही ख़्वाब तीन चार मर्तबा देखती और दरअसल उसके लिए इन ज़िंदगियों का इंतेक़ाल होना भी चाहिए था। ऐसे ही असरात पैदा करने वाला, माना कि शहर में भी ऐसी ही मिली हुई गलियाँ, टूटी फूटी सड़कें, गर्द-व-ग़ुबार, शरीर लड़के मौजूद थे और वो उनके वजूद से बे-ख़बर न थी लेकिन वो तो हवा की चिड़ियों की तरह उन सब से बे-परवाह और मुतमइन तांगे के गद्दों पर झूलती हुई उन अतराफ़ से कभी दसवीं पंद्रहवीं निकल जाया करती थी। उसकी दुनिया तो उन इलाक़ों से दूर ज़िला के सदर हस्पताल में थी। कितनी खुली हुई जगह थी वो; और वहाँ का लुत्फ़ तो सारी उम्र न भूल सकेगी। हस्पताल के सामने तारकोल की चौड़ी सड़क थी जिस पर दिन में दो मर्तबा झाड़ू दी जाती थी और जो हमेशा शीशे की तरह चमका करती थी जब वो अपनी सहेली डैना के साथ उस पर टहलने के लिए निकलती थी तो दूर दूर तक फैले हुए खेतों और मैदानों पर से आने वाली ठंडी हवा के झोंके चेहरे और आँखों पर लग लग कर दिमाग़ को हल्का कर देते थे। उसकी साड़ी फड़फड़ाने लगती, माथे पर बालों की एक लड़ी तैरती और उसकी रफ़्तार सुबक और तेज़ हो जाती।
ऐसे वक़्त बातें करना कितना ख़ुश-गवार और पुरलुत्फ़ होता था। गर्द-व-ग़ुबार का तो यहाँ नाम भी न था। मई-जून के झक्कड़ भी हस्पताल की सफ़ेद और शीशों वाली इमारत पर से संसनाते हुए शहर की तरफ़ गुज़रते चले जाते थे और बिजली के पंखे से सर्द रहने वाले कमरे में दोपहर की सख़्ती और उदासी अपना साया तक न डाल सकती थी। जब वो पुरवक़ार अंदाज़ से साड़ी का पल्ला संभाले गुज़रती थी तो हस्पताल के नौकर चारों तरफ़ से उसे मेम साहब कह कर सलाम करने लगते थे। गो यहाँ भी उसे सब लोग मेम साहब ही कहते थे। सड़कों पर झाड़ू देने वाले भंगी उसे आते देख कर थम जाते थे बल्कि क़स्बा के ज़मींदार तक उसे आप से मुख़ातिब करते थे। मगर फिर भी यहाँ वो बात कहाँ हासिल हो सकती थी। वो रोब, वो दबदबा, वो मालिकाना एहसास, वहाँ तो उसकी शख़्सियत हस्पताल का एक जुज़-ला-यनफ़क थी। इस सफ़ेद, सर्द और मतीन इमारत और इसके ग़ैर मरई मगर अटल कानूनों और उसूलों का एक ज़िंदा मुजस्समा। हस्पताल के नश्तर के सामने आने के बाद कोई शख़्स एहतिजाजन हरकत नहीं कर सकता था। इसी तरह उसकी हुदूद में दाख़िल होने वाली हर चीज़ को उसकी मर्ज़ी का पाबंद होना पड़ता था। जब उसका मरीज़ों के मुआइने का वक़्त आता था तो वार्ड में पहले ही से तैयारियाँ होने लगती थीं। वो दो रुपये रोज़ाना किराया देने वालियों तक को झिड़क देती थी क्योंकि उसे साफ़ कमरों में पान की पीक तक देखना गवारा न था। वो बड़ी बड़ी नाज़ुक मिज़ाजों को ज़रा सी बे-एहतियाती और हिदायात की ख़िलाफ़वर्ज़ी पर बेतरह डाँटती थी और हमेशा सब से तुम कह कर बोलती थी। मगर यहाँ की औरतें तो बहुत ही मुँह फट थीं। वो उससे हरासाँ और ख़ौफ़ज़दा तो ज़रूर थीं मगर उसे दू बदू जवाब देने से न चूकती थीं। थोड़े दिन तक उन पर अपना इख़्तियार जमाने की कोशिश करने के बाद अब वो दिखा चुकी थी और उनकी बातों में ज़्यादा दख़ल न देती थी और सफ़ाई और सलीक़ा की तो उन औरतों को हवा तक न लगी थी। ज़च्चा को गर्मी में भी फ़ौरन एक कमरे में बंद कर दिया जाता था जिसमें जाड़ों के लिहाफ़ पंखो ने, चारों ओर दूसरी जिंसों के सट के, टूटी हुई चारपाइयाँ, बर्तन, कोयलों का घड़ा, सूत और रोलड़ की गठरियाँ, सब अल्लम ग़ल्लम भरे होते थे और एक अँगीठी पर घट्टी चढा दी जाती थी। बा'ज़ बा'ज़ जगह तो जल्दी जल्दी कमरे में गोबरी होने लगती थी जो पैरों से उखड़ उखड़ कर फ़र्श को चलने के क़ाबिल भी न रहने देती थी और जिसकी सीलन अँगीठी की गर्मी से मिल कर सांस लेना दुशवार कर देती थी। घर की सब औरतें और वो कम से कम चार होती थीं, अपने बदबूदार कपड़ों समेत कमरे में घुस आती थीं और घबराहट में सारे सामान को ऐसा उलट पलट कर देती थीं कि ज़रा सी कतर तक न मिलती थी। अंदर की खुसर फुसर, घड़ड़ बड़र, कराहों या अल्लाह या अल्लाह और औरतों के बार बार किवाड़ खोल कर अंदर-बाहर आने जाने से घर के बच्चे जाग जाते थे और अपने आप को अम्माँ के क़रीब न पा कर चीख़ना शुरू कर देते थे और उनकी बड़ी बहनें चुमकार चुमकार कर और थपक-थपक कर उन्हें बहलाने की कोशिश करती थीं।
अरे चुप चुप देख भैया आया है सुब्ह को देखो मुन्ना सा भैया मगर सुब्ह को मुन्ना सा भैया देख सकने की उम्मीद उन्हें उस वक़्त तक कोई तस्कीन न दे सकती और उनकी रों रों धाड़ों की शक्ल में तब्दील हो कर कमरे के ख़लफ़िशार में और इज़ाफ़ा कर देती। ये तो ख़ैर जो कुछ था सो था, कसीफ़ बिस्तरों पर लेप चढ़े हुए तकियों, पसीने में सड़े हुए कपड़ों और मुद्दतों से न धुले हुए बालों की बदबू से जैसे गर्मी और भी दो आतिशा कर देती थी, उसका जी उलटने लगता था। वो तमाम वक़्त हर चीज़ से दामन बचाती हुई खड़ी खड़ी फिरती थी। उस कमरे में एक घंटा गुज़ारना गोया जहन्नूम के अज़ाबों के लिए तैयारी करना था ये माना कि ख़ुद उसे कुछ नहीं करना पड़ता था। क्योंकि क़स्बे की औरतें अपने आप को नए नए अंग्रेज़ी तजुर्बों के लिए पेश करने और अपने आपको एक अजनबी और ईसाई मेडवाइफ़ के, जो अनदेखे और मुश्तब्हा आलात से मुसल्लह थी, हाथों में दे देने के लिए क़तअन तैयार न थीं, उन्हें तो क़स्बे की पुरानी दाई और छूटे हुए घड़े के ठीकरों पर ही एतिक़ाद था ताहम उनके मर्दों ने टाउन एरिया से डर कर उन्हें इस पर राज़ी कर लिया था कि वो नई ईसाई मेडवाइफ़ के कमरे में मौजूदगी बर्दाश्त कर लें। इस तरह अमली हैसियत से तो उसका काम बहुत कम हो गया था लेकिन आख़िर ज़िम्मेदारी तो उसकी ही थी और वही टाउन एरिया कमेटी के सामने हर बुराई-भलाई के लिए जवाबदेह थी और इस ज़िम्मेदारी से ओह्दा-बरा होना हवाओं से लड़ना था। अक्सर नौ गिरफ़्तार इतना चीख़ती चिल्लातीं और हाथ पैर फेंकती थीं कि उन्हें क़ाबू में करना दूभर हो जाता था, ये फिर ऐसी सहम जाती थीं कि वो डर के मारे ज़रा सी हरकत न करती थीं। तीन-तीन चार-चार बच्चों की माएँ तो और भी आफ़त थीं। वो अपने तजुर्बों के सामने इस साड़ी पहन कर बाहर घूमने वाली ईसाई औरत की अनोखी हिदायतों को कोई वक़अत देने पर तैयार न थीं।
वो अपनी आहों के दरमियान भी रुक कर दाई को मश्वरा देने लगती थीं और एमली को दाँतों से होंट चबा चबा कर ख़ामोश रह जाना पड़ता था और दाई तो भला उसकी कहाँ सुनने वाली थी। उसे अपनी बरतरी और मेडवाइफ़ की न अह्लियत का यक़ीन तो ख़ैर था ही मगर उसकी मौजूदगी से अपनी आमदनी पर असर पड़ता देख कर उसने एमली की हर बात की तर्दीद करना अपना फ़र्ज़ बना लिया था। गो एमली ने उसके तंज़िया जुमलों को पीने की आदत डाल ली थी लेकिन उसका दिल कोई पत्थर का थोड़े ही था। दाई के तर्ज़-ए-अमल को देख देख कर दूसरी औरतें भी दिलेर हो गई थीं। उसकी तरफ़ तवज्जो किए बगै़र ही वो पलंग को घेर लेती थीं। और वो सब से पीछे छोड़ दी जाती थी। अब इसके सिवा क्या रह जाता था कि वो झुँझला झुँझला कर पैर पटख़े और उन्हें पुकार पुकार कर अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने की कोशिश करे।
इन सब आज़माइशों से गुज़रने के बाद उसे हर बार इंदिराज के लिए टाउन एरिया के दफ़्तर जाना पड़ता था। उसे देख कर बख़्शी जी की आँखें चमकने लगतीं और उनके पान में सने हुए काले दाँत नीम तमसख़्ख़ुराना अंदाज़ में उनको छोटी दाढ़ी और बड़ी बड़ी मूंछों से बाहर निकल आते और वो उसकी तरफ़ कुर्सी खिसकाते हुए कहते, कहो मेम साहब! लड़का कि लड़की? मूंछों के उन घने काले बालों की क़ुर्बत उसे हरासाँ कर देती और उसे ऐसा मालूम होने लगता जैसे इन बालों में यका यक बिजली की लहर दौड़ जाएगी और वो सीधे हो कर उसके चेहरे से आ मिलेंगे। वो नफ़रत और ख़ौफ़ से पीछे सिमट जाती और बख़्शी जी से नज़रें बचाती हुई जल्द से जल्द अपना काम ख़त्म करने की कोशिश करती।
ये सारे मरहले तय करती हुई वो उमूमन आठ नौ बजे रात को थकी हारी अपने घर पहुँचती थी। जब पैर कहीं से कहीं पड़ रहे हों, सर भन्नाया हुआ हो, जब जिस्म का कोई भी अज़ू एक दूसरे का साथ देने को तैयार न हो, तो भला भूक क्या ख़ाक लग सकती है। वो जूता खोल कर पैर से कोने में उछाल देती और कपड़े इस तरह झुंझला-झुंझला कर उतारती कि दूसरे दिन नसीबन को उन्हें धोबी के यहाँ इस्त्री कराने ले जाना पड़ता। उल्टा-सीधा खाना हलक़ के नीचे उतार कर वो बिस्तर पर गिर पड़ती। तकिए पर सर रखते ही दीवारें, पेड़, सारी दुनिया उसके गिर्द तेज़ी से घूमने लगते। भेजा धरा धड़ धरा धड़ा कर खोपड़ी में से निकल भागने की कोशिश करता। सर तकिए में घुसा जाता मगर तकिया उसे ऊपर उछालता मालूम होता। बाज़ू शल हो जाते। हथेलियों में सीसा सा भर जाता और हाथ ऊपर न उठ सकते। इसी तरह टांगें भी हरकत से इनकार कर देतीं और कमर तो बिल्कुल पत्थर बन जाती। वो अपने पुराने हस्पताल को याद करना चाहती, मगर वो किसी चीज़ को भी पूरी तरह याद न कर सकती खिड़की का किवाड़, मरीज़ों की आहनी चारपाई का पाया, मोटर के पहिए, नीम के पेड़ की चोटी, पान में सने हुए काले दाँत और घनी सख़्त मूंछें, ये सब बारी बारी बिजली के कौंदे की तरह सामने आते और आँख झपकते में ग़ायब हो जाते वो खिड़की के किवाड़ में एक कमरा जोड़ना चाहती। मगर इसमें ज़्यादा से ज़्यादा एक चटख़्नी का इज़ाफ़ा कर सकती बल्कि बा'ज़ औक़ात आहनी चारपाई का एक पाया तो एक खूंटे की तरह उसके दिमाग़ में गड़ जाता और कोशिश के बावजूद भी टस से मस न होता, नीम की चोटी को कभी तना हासिल न हो सकता फिर नीम की हरी हरी चोटी पर एक रेत के हाशिया वाली नाली बहने लगती और खिड़की के शीशे पर पान में सने हुए काले दाँत मुस्कुराते और घने सख़्त बालों वाली मूंछें बेताबी से हिलतीं मुख़्तलिफ़ शक्लें एक दूसरे से दस्त-ओ-गिरेबान हो जातीं और दिमाग़ के एक सिरे से दूसरे तक लड़ती झगड़ती, टकराती, रौंदती, दौड़ती सियाह आसमान पर रौशन अनगिनत तारों के गुच्छे के गुच्छे भंगों की तरह आँखों में घुस घुस कर नाचने लगते और जलती हुई आँखें कनपटियों की ख़्वाब आवर भद्द भद्दे से आहिस्ता आहिस्ता बंद हो जातीं, सोने के बाद तो उन शक्लों के और भी छोटे छोटे टुकड़े हो जाते जो बारी बारी आते और उसके दिमाग़ पर मुसल्लत हो जाना चाहते। इतने ही में एक दूसरा आ पहुँचता और पहले वाले को धक्के दे कर बाहर निकाल देता। अभी ये कशमकश ख़त्म भी न होती कि एक तीसरा आ धमकता। इन सब की हरीफ़ाना ज़ोर आज़माइयाँ उसे बार बार चौंका देतीं और वो हल्की सी कराह के साथ आँखें खोल देती फिर आँखों में तारों के गुच्छे के गुच्छे भरने लगते कहीं सुब्ह के क़रीब जा कर ये शक्लें थमतीं और अपनी रज़्मगाह से रुख़्सत होतीं हल्की हल्की हवा भी चलनी शुरू हो जाती और एमली नींद में बिल्कुल बेहोश हो जाती मगर उसकी नींद पूरी होने से पहले किवाड़ खोलो की मुसलसल और ज़िद्दी चीख़ें उसके दिमाग़ में गूंजतीं वही चीख़ें, वही धड़ धड़ाहट, फ़र्ज़ और आराम की वही तल्ख़ कश्मकश, वही झल्लाहट और पसपाई।
नसीबन बिहार से लौट आई थी। उसे शेख़ सफ़दर अली के हाँ बुलाया गया था और पुकारने वाले ने बार बार कहा था, जल्दी बुलाया है जल्दी, हर एक यही कहता हुआ आता है जल्दी आख़िर वो क्यों जल्दी करे? क्या वो उनकी नौकर है? या वो उसे दौलत बख़्श देते हैं। हुंह जल्दी! वो न पहुँचेगी तो क्या सब मर जाएँगे? और फिर वो करेंगे ही क्या उसे बुला कर? कहती हैं चुड़ैलें, उसे क्या ख़ाक आता है, क्या ख़ाक आता है कुछ नहीं आता अच्छा फिर? बैठें अपने घर, कौन उनकी ख़ुशामद करने जाता है कुछ नहीं आता? जैसे जैसे आए उसने देखे हैं उन लोगों के तो ख़्वाब-व-ख़्याल में भी न गुज़रे होंगे चमकदार, तेज़, हाथीदांत के दस्ते वाले और वो डाक्टर कार्ट फ़ील्ड के लेक्चर, वो नक़्शे दिखा दिखा कर जिस्म के हिस्सों को समझाती थी कुछ नहीं आता हूँह!
एमली के होंटों पर मुस्कुराहट आ गई। पहले तो उसका जी चाहा कि कहलवा दे वो जल्दी नहीं आ सकती। वो बिल्कुल नहीं आएगी। मगर फिर उसे ख़याल आया कि ये लोग महज़ जाहिल ही तो हैं। उनके कहने से उसका बिगड़ता क्या है और आख़िर ज़िम्मेदारी तो ख़ुद उसकी ही है। चुनांचे उसने नसीबन से कहा, कह दो कि चलो मैं आ रही हूँ। मुतमइन हो कर उसने करवट ले ली। सर को तकिए पर ढीला छोड़ दिया। आँखें बंद कर लीं, एक बाज़ू बिस्तर की ठंडी चादर पर फैला दिया और हाथ चेहरे पर रख लिया। उसने चाहा कि दिमाग़ को बिल्कुल ख़ाली कर ले और साकित हो जाए मगर उसके दिल की खट-खट खट-खट कानों में बज रही थी और थोड़ी थोड़ी देर बाद यका यक एक पत्थर सा दिमाग़ में आ कर लगता था। जल्द जिससे उसके माथे और कनपटियों की नसें तन जाती थीं और टूटती हुई मालूम होने लगती थीं। उसे जल्दी जाना था जल्दी और इसी बात के तो वो टाउन एरिया कमेटी से तीस रुपये माहवार पाती थी। जल्द जाना था लेकिन आख़िर वो फ़र्ज़ पर सेहत को तो नहीं क़ुर्बान कर सकती थी। कल रात ही उसे बहुत देर हो गई थी। वो इंसान ही तो थी न कि मशीन अब वो महसूस कर रही थी कि उसके सर में दर्द हो रहा है, कमर बैठी जा रही है, कंधे और टांगें बे-जान हो गए हैं। ऐसी हालत में इतनी जल्दी बहुत मुज़िर होगा और ख़ुसूसन इस क़स्बे जैसी आब-व-हवा में जहाँ उसकी सेहत रोज़ बरोज़ गिरती जा रही है। अभी आख़िर चार महीने में उसे चार दिन बुख़ार आ चुका था और फिर वो वहाँ जा कर बना ही क्या लेगी, उन लोगों को ऐसी क्या ख़ास ज़रूरत है उसकी थोड़ा सा और सो लेना ही बेहतर होगा।
वो सो जाती मगर उंगलियों के बीच में हो कर सुब्ह की रौशनी आ रही थी और उसकी आँखों को बंद न होने देती थी। उसने हाथ आँखों पर खिसका लिया और आँखें ख़ूब भींच कर बंद कर लीं। अब उसे झपकियाँ आना शुरू हो गईं। मगर हर दफ़ा दूध और दूध अबे ओ कल्लू मुए। उठ! उठ! अबे पढ़ने नहीं जाने का? की सदाओं और नसीन की लकड़ियाँ तोड़ने और देगचियाँ उठाने की आवाज़ों से वो चौंक पड़ती थी। सोने की कोशिश करते करते उसकी आँखों में पानी भर आया। सर में दर्द होने लगा और माथा जलने लगा। वो मायूस हो कर सीधी लेट गई और आँखों पर दोनों बाज़ू रख लिये। अब उसके आज़ा और भी बोझल और नाक़ाबिल-ए-हरकत हो गए और वो इन सदाओं, आवाज़ों, इन तहक्कुमाना तलबियों जल्दी बुलाया है। इस सुब्ह के चांद ने, उस क़स्बे पर दाँत पीसने लगी। वो चाहती थी कि कोई ऐसी चादर ओढ़ ले कि उसको इन सदाओं, आवाज़ों, इन तहक्कुमाना तलबियों। जल्दी बुलाया है उस सुब्ह के चांद ने, उस क़स्बे, सब से छुपा के। जिसके नीचे उनमें से किसी की भी पहुँच न हो, जहाँ वो इन सब से अपने आप से ग़ाफ़िल हो जाए अपने को खो दे, उसे महसूस हो कि दो मज़बूत और मुद्दत के आश्ना बाज़ू उसके जिस्म का हलक़ा किए भींच रहे हैं सर के दर्द को गोया यका यक किसी ने पकड़ लिया। दो आँखें भी ज़रा दूर चमकीं, मुस्कुराती हुई मालूम हुईं और उसने अपने आपको उन बाज़ुओं की गिरफ़्त में छोड़ दिया जिस्म हवा की तरह हल्का हो गया था। सर हल्के हल्के झकोले खाता मौजों पर बहा चला जा रहा था। सुकून था, ख़ामोशी थी और सिर्फ़ दिल के मसर्रत से धड़कने की आवाज़ आ रही थी, दो बाज़ू उसके जिस्म को भींच रहे थे। वो मज़बूत और मुद्दत के आश्ना बाज़ू।
उसने डरते डरते आँखें खोलीं। सुब्ह के चाँद में चमक आ गई थी। नसीबन ने चूल्हे पर देगची रखी। बकरी वाला मोहल्ला से जाने के लिए बकरियाँ जमा कर रहा था और कुंएँ की गरारी ज़ोर ज़ोर से चल रही थी। उसकी आँखें ऊपर उठीं और हवा में किसी चीज़ को तलाश करने लगीं।
दो बादामी साये उतरने लगे। आँखों के पर्दे फड़के और पलकें आहिस्ता आहिस्ता एक दूसरे से मिल गईं गोया वो उन सायों को फंसा लेना चाहती हैं साये कुछ दूर पर रुक गए, वो डगमगाए और धुँदले होते होते हवा में तहलील हो गए। आँखें सुब्ह बे-रंग आसमान को देख रही थीं। उसकी गर्दन ढलक गई और बाज़ू दोनों तरफ़ गिर पड़े वो मुद्दत के आश्ना बाज़ू मगर वो यहाँ कहाँ!
चंद लम्हे बे-हिस पड़े रहने के बाद वो वलीमन को याद करने लगी। लंबे लंबे पीछे उल्टे हुए बाल, चौड़ा सीना, सुर्ख़ डोरों वाली जिल्द, फिर्ती हुई आँखें, मोटा सा निचला होंट, कान की लौ तक कटी हुई क़लमें, सांवले रंग पर मंढी हुई दाढ़ी का गहरा निशान, आँखों के नीचे उभरी हुई हड्डियाँ और मज़बूत बाज़ू दिन में कितनी कितनी मर्तबा उसके बाज़ू उसे भींचते थे और उनके दरमियान वो बिल्कुल बे-बस हो जाती थी और बा'ज़ दफ़ा तो झुँझला पड़ती थी मगर उसके जवाब में उसका प्यार और बढ़ जाता था और उसके दोनों गालों पर वो गर्म और नम आलूद बोसे और दिन में कितनी कितनी मर्तबा उसके मुँह से शराब की तेज़ बदबू तो ज़रूर आती थी। मगर वो कैसे जोश से उसे अपने बाज़ुओं में उठा लेता था और पागलों की तरह उसके चेहरे, हाथों, गर्दन, सीने सब पर बोसे दे डालता था और फिर क़हक़हे मार मार कर हँसता था, मेरी जान हाहाहा हाए मेरी डियर प्यारी प्यारी हाहा हाहा और वो उसकी कैसी निगहदाश्त करता था। वो उससे अपने बाज़ुओं में पूछता, इस महीने में कैसी साड़ी लोगी, मेरी जान? हैं? इस सीने पर तो सुर्ख़ खिलेगी! कहो कैसी रही? हा हा हा हा और वो उसे दोपहर में तो कभी न निकलने देता था अगर उसे ऐसे वक़्त हस्पताल से बुलाया जाता तो वो कहलवा देता कि मिस वलीमन सो रही हैं और वो उसके उठने से पहले चाय तैयार करा के अपने आप उसके क़रीब मेज़ पर ला रखता था और वो उसे कितने प्यार से भेजता था मगर वो यहाँ कहाँ! अगर वो यहाँ होता तो वो उसे इतने सवेरे कहीं न जाने देता। वो यहाँ होता तो वो ख़ुद कहीं न जाती। वो तो ऐसे किवाड़ पीट कर जगाने वाले का सर तोड़ देता लेकिन वो यहाँ होता वो उसके पास होता तो वो ख़ुद यहाँ क्यों होती। लेकिन कुछ दूसरी शक्लें उभरीं अच्छा ही है कि वो उसके पास नहीं है, उसके बाल उलझे हुए और परेशान थे और वो इस तरह दाँतों से होंट चबा रहा था गोया उनका क़ीमा कर के रख देगा और उसने उसे कैसी बेरहमी से बेद से पीटा था। ले और लेगी बड़ी बन कर आई है वहाँ से वो, अगर मेम-साहब शोर सुन कर न आ जातीं तो न मालूम वो अभी और कितना मारता। एमली अपने बाज़ुओं पर निशान ढ़ूडने लगी ऐसे ज़ालिम से तो छुटकारा ही अच्छा, कैसी ख़ूनी आँखें और आख़िर में वो शराब कितनी पीने लगा था मगर वो होता तो उसे इतने सवेरे कहीं न जाने देता माना कि वो रोडा के साथ रात को बड़ी देर टहलता रहता था लेकिन ज़ाहिरन तो उसके साथ उसका बरताव वैसा ही रहा था। अगर वो ख़ुद इतना न बिगड़ती और उसे उठते बैठते ताने न देती तो शायद बात यहाँ तक न पहुँचती। वो उसे कितने प्यार से भींचता था लेकिन वो लंबे मुँह पर हड्डियाँ निकली हुई, सूखी जैसे लकड़ी हो और फ़राक़ पहनने का बड़ा शौक़ था आप को, बड़ी मेम-साहब बनती थीं। चार हर्फ़ अंग्रेज़ी के आ गए थे तो ज़मीन पर क़दम न रखती थी मारे शेखी के न मालूम ऐसी क्या चीज़ लगी हुई थी उसमें जो वो ऐसा लट्टू हो गया था। उसने ख़्वाह मख़्वाह फ़िक्र की, वो ख़ुद उसे थक कर छोड़ देता वो उसे थोड़े दिन यूँ ही चलने देती तो क्या था, मगर उसने कैसी बेरहमी से उसे मारा था। हाँ एक दफ़ा मार ही लिया तो क्या हो गया। वो ख़ुद भी शर्मिंदा मालूम होता था और उसके सामने न आता था और अगर डैना उसे इतना न बहकाती तो वो शायद तलाक़ भी न लेती। बस वो अपना ज़रा मज़ा लेने को उसे उकसाती रही, ये अच्छी दोस्ती है अब वो डैना से नहीं बोलेगी और अगर वो मिलेगी भी तो वो मुँह फेर कर दूसरी तरफ़ चल देगी और जो डैना उससे बोली तो वो साफ़ कह देगी कि वो धोका देने वालों से नहीं बोलना चाहती डैना बिगड़ जाएगी तो बिगड़ा करे। अब वो शहर के हस्पताल से चली ही आई, अब कोई रोज़ का काम काज तो है नहीं कि बोलना ही पड़े वो इसी तरह डैना की मक्कारी पर पेच-व-ताब खाती रहती, अगर नसीबन उसे न पुकारती। अजी मेमसाहब उठो, सूरज निकल आया। वो हड़बड़ा कर उठ बैठी और चारों तरफ़ देखा अब तो वाक़ई उसे चलना चाहिए था मगर फिर भी पलंग से नीचे उतरने से पहले उसने कई मर्तबा अंगड़ाइयाँ लीं और तकिया पर सर रगड़ा।
वो मुंह धोकर चाय के इंतिज़ार में फिर बिस्तर पर आ बैठी। नसीबन लकड़ियों को चूल्हे में ठीक करती हुई बोली, वो मनियायन कह रही थीं कि तुम्हारी मेम साहब तो ईद का चांद हो गईं। कभी आ के भी नहीं झाँकती अजी हो ही आओ उनकी तरफ़ मेम साहब किसी दिन; बड़ा याद करें हैं तुम्हें!
हो ही आए उनकी तरफ़ क्या करे वो जा कर मैले कुचैले पलंगों पर बैठना पड़ता है। टूटे टॉटे यहाँ की औरतों से वो क्या बातें करे? बस उन्हें तो तू क़िस्से सुनाते जाओ कि उसके बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। उसको इतनी तकलीफ़ हुई। उसको ऐसी बीमारी थी। वो कहाँ तक लाए ऐसे क़िस्से सुनाने को और कोई बात तो जैसे आती ही नहीं उन्हें और फिर ये लोग कितनी बदतमीज़ हैं। सड़े हुए कपड़े लेकर सिर पर चढ़ी जाती हैं उसे उन लोगों के हाथ का पान खाते हुए कितनी घिन आती है मगर मजबूरन खाना ही पड़ता है, जब वो उस से बातें करती हैं तो हल्के हल्के मुस्कुराते जाती हैं जैसे उसका मज़ाक़ उड़ा रही हों। किन आँखों से एक दूसरे को और सारे घर को देखती जाती हैं गोया वो चोर है और उनकी आँख बचते ही कोई चीज़ उड़ा देगी या उससे सब औरतें झिजकती क्यों हैं? क्या वो उनकी तरह औरत नहीं है? या वो कोई हवा है अजीब बेवक़ूफ़ हैं ये औरतें। और हाँ जब वो उनके हाँ जाती है तो उनके इशारे से जवान लड़कियाँ जल्दी जल्दी भाग कर कमरे में छुप जाती हैं। वो अंदर से झांक झांक कर उसे देखती हैं और अगर कहीं उसकी नज़र पड़ जाए तो वो फ़ौरन हट जाती हैं और अंदर से हंसने की आवाज़ आती है और अगर उन्हें उसके सामने आना ही पड़ जाए तो वो बदन चुराती हुई ऊपर से नीचे तक ख़ूब दुपट्टा ताने हुए आती हैं जैसे उसकी नज़र उनमें से कुछ घटा लेगी या उसकी निगाह पड़ जाने से उनमें कोई गंदगी लग जाए। ज्ञान की ये हरकत उसे बिल्कुल ना पसंद है। क्या उन्हें उस पर एतिमाद नहीं और वो उस पर शक करती हैं? इससे तो उनके हाँ न जाना ही अच्छा। बैठें अपनी लड़कियों को लेकर अपने घर में और वो गंदे बच्चे, मिट्टी से सने, नाक बहती, आधे नंगे, पेट निकला हुआ, वो सामने आकर खड़े हो जाते हैं और उसे ऐसे ग़ौर से देखते रहते हैं जैसे वो नया पकड़ा हुआ अजीब-व-ग़रीब जानवर है और जब वो उनसे बोलती है तो वो सीधे बाहर भाग जाते हैं, वहशी हैं बिल्कुल, जानवर बिल्कुल और ये ख़ूब है कि उसके पहुँचते ही वहाँ झाड़ू शुरू हो जाती है। मारे गर्द के सांस लेना मुश्किल हो जाता है। ज़रा ख़याल नहीं तंदुरुस्ती का उन्हें और कोई क्यों उनके हाँ जा कर बीमारी मोल ले और उनके मर्द, कितनी शर्म आती है उसे उन हरकतों से। वो हमेशा डेयुढ़ी में रास्ता घेरे बैठे रहते हैं और जब तक वो बिल्कुल क़रीब न पहुँच जाए नहीं हटते अरे हुक़्क़ा हटाओ, हुक़्क़ा हटाओ उठते उठते ही इतनी देर लगा देते हैं कि वो घबरा जाती है जान के करते होंगे ये ऐसी बातें, ताकि खड़ी रहे वो थोड़ी देर वहाँ और जब वो अंदर पहुँच जाती है तो उसे क़हक़हों की आवाज़ आती है। अजीब बदतमीज़ हैं अंग्रेज़ों के हाँ कितनी इज़्ज़त होती है औरतों की। वो बुड्ढे पादरी साहिब जो आया करते थे, बहुत अच्छे आदमी थे बेचारे, हर एक से कोई न कोई न बात ज़रूर करते थे, बल्कि उसे तो वो पहचान गए थे। सब मिल कर जाया करते थे इतवार को गिरजा वो ख़ुद, डैना, कैटी, मेरी, शीला और हाँ मर्सी मिसेज़ जेम्स का कितना मज़ाक़ उड़ाते थे सब मिल कर, सब से पीछे चलती थीं, छतरी हाथ में लिए हांपती हुई और उनमें था ही क्या। हड्डियों का ढांचा थीं बस और गिरजा से लौटते हुए तो और भी बड़ा मज़ा आता था। सब चलते थे, आपस में हंसते, मज़ाक़ करते ओफ़्फ़ो, शीला किस क़दर हन्सोड़ थी, कैसे कैसे मुँह बनाती थी। जब हँसने पर आती थी तो रुकने का नाम न लेती थी मगर यहाँ वो सब बातें कहाँ अब तो जैसे वो आदमियों में रहती ही नहीं और वाक़ई क्या आदमी हैं यहाँ वाले? अव्वल तो उसे इतनी फ़ुर्सत ही कहाँ मिलती है। हर वक़्त पाँव में चक्कर रहता है और फिर ऐसों से कोई क्या मिले? जैसे जानवर न कोई बात करने को, न कोई ज़रा हँसने बोलने को, बस आओ और पड़ रहो ले दे के रह गई नसीबन, तो उसे इसके सिवा कोई बात ही नहीं आती कि उसका बेटा भाग गया, उसकी अपने मियाँ से लड़ाई हो गई। उसके यहाँ बरात बड़ी धूम धाम से आई, उसे क्या इन बातों से, हुआ करे, उससे मतलब या बहुत हुआ तो उसे ख़्वाह मख़्वाह डराती रहेगी चोरों के क़िस्से सुना सुना कर, एक दफ़ा उसने सुनाया था कि एक दूसरे क़स्बे की मिडवाइफ़ को कुछ लोग कैसे बहका कर ले गए थे।
और उसके साथ कैसा सुलूक किया था। बकती है भला कहीं यूँ भी हुआ है, लेकिन अगर कहीं उसके साथ मगर नहीं, बेकार का डर है, जो यूँ हुआ करे तो लोग घर से निकलना छोड़ दें, भला दुनिया का काम कैसे चले। पागल है बुढ़िया, बहका दिया है किसी ने उसे मगर ऐसी जगह का क्या एतिबार, न मालूम क्या हो गया न हो। कोई साथ भी तो नहीं अगर वो मिडवाइफ़ न बनती तो अच्छा था और वो तो ख़ुद टीचर बनना चाहती थी बल्कि पापा भी यही चाहते थे मगर मामा ही किसी तरह राज़ी न हुईं कितने दिन हो गए पापा को भी मरे हुए बारह साल, कितना ज़माना गुज़र गया और मालूम होता है जैसे कल की बात हो। कितना प्यार करते थे वो उसे रोज़ स्कूल पहुँचाने जाते थे, साथ क्लास में उसकी सीट मेज़ के पास थी और वो अंग्रेज़ी के मास्टर साहब बहुत अच्छे आदमी थे बेचारे, चाहे वो काम कर के न ले जाए, मगर कभी कुछ नहीं कहते थे और लड़के तो न जाने उसे क्या समझते थे। सारे स्कूल में वो अकेली ही लड़की थी न, सब के सब मास्टर साहब की नज़रें बचा बचा कर उसकी तरफ़ देखते रहते थे अरे वो मोटा करम चंद, भला वो भी तो उसकी तरफ़ देखता था जैसे वो बड़ा ख़ूबसूरत समझती थी उसे और हाँ वो अज़ीम! याद भोला था। बेचारा, सूखा सा ज़र्द, मगर आँखें बड़ी बड़ी थीं उसकी। देखता तो वो भी रहता था उसकी तरफ़, मगर जब कभी वो उसे देख लेती थी तो वो फ़ौरन शर्मा कर नज़रें नीची कर लेता था और रूमाल निकाल कर मुँह पोंछने लगता था और उस दिन वो दिल में कितना हंसी थी। उस दिन वो इत्तिफ़ाक़ से जल्दी आ गई थी। बरामदे में दूसरी तरफ़ से वो आ रहा था, जब वो क़रीब आया तो उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया और घबरा घबरा कर चारों तरफ़ देखने लगा। उसके पास पहुँच कर वो रुक गया और कुछ कहने सा लगा। डरते डरते अज़ीम ने उसका हाथ पकड़ लिया और फिर जल्दी से छोड़ दिया, उसे घबराया हुआ देख कर वो ख़ुद परेशान हो गया था और उसने बहुत गिड़गिड़ा कर कहा था, कहिएगा नहीं। वो कितने दिन इस बात को याद कर के हंसती रही थी कितना सीधा था। वाक़ई वो अभी स्कूल ही में रहती तो कितना मज़ा रहता मगर वो ज़माना तो अब गया अब तो वो यहाँ दुनिया से अलग पड़ी है। कोई बात तक करने को नहीं किसी का ख़त भी जवाब वही नहीं और जो आया भी तो बस वही लंबे बादामी लिफाफे आन हिज मेजिस्टीज़ सर्विस डिस्ट्रिक्ट हैल्थ ऑफिसर की हिदायतें, यूँ करो और यूँ करो कोई उसकी माने भी जो वो यूँ करे ख़्वाह मख़्वाह की आफ़त और फिर ख़त आए भी कहाँ से अगर आंटी ही दिल्ली से ख़त भेज दिया करें तो क्या है, मगर वो तो बरसों भी ख़बर नहीं लेतीं। एक दफ़ा जाना चाहिए उसे दिल्ली अच्छा शहर है, क्या चौड़ी सड़कें हैं और सिनेमा किस कसरत से हैं और वो वो ख़ैर है ही मगर हो काएं, काएं, काएं ने उसे चौंका दिया। धूप आधी दीवार तक उतर आई थी, कव्वा ज़ोर ज़ोर से चीख़ रहा था और वो बिस्तर पर पैर नीचे लटकाए लेटी थी। उसे जल्दी जाना था और उसने बेकार लेटे लेटे इतनी देर लगा दी थी। वो नसीबन पर अपना ग़ुस्सा उतारने लगी कि उसने चाय क्यों नहीं ला कर रखी मगर वो समझ रही थी कि मेम-साहब सो रही हैं और वाक़ई, उसने ख़याल किया। उससे तो वो इतनी देर सो ही लेती तो अच्छा था। बहरहाल उसने नसीबन को जल्दी से चाय लाने को कहा।
उसने दोबारा मुँह धोया और उल्टी सीधी चाय पीने के बाद वो कपड़े बदलने चली। ट्रंक खोल कर वो सोचने लगी कि कौन सी साड़ी पहने सफ़ेद, सुर्ख़ किनारों वाली। मगर क्या रोज़ रोज़ एक ही रंग और फिर सफ़ेद साड़ी मैली कितनी जल्दी होती है। उसकी बहार तो बस एक दिन है। अगले दिन काम की नहीं रहती नीली साड़ी नीचे से चमक रही थी उसे ही क्यों न पहने? मगर उसे नीली साड़ी पहने देख कर तो लोग और भी बावले हो जाएँगे वो जिधर से निकलती है सब के सब उसे घूरने लगते हैं। उसे बड़ी बुरी मालूम होती है उनकी ये आदत और उन ज़मींदारों को देखो, बड़े शरीफ़ बनते हैं? ख़ैर ये तो जो कुछ है सो है, जब वो आगे बढ़ जाती है तो वो हंसते हैं और तरह तरह के आवाज़े कसते हैं कहो यार! अबे मजीद ज़रा लीजो! कोई खांसने लगता है; क्या वो समझती नहीं, ज़रा शहर में कर के देखते ऐसी बातें वो मज़ा चखा देती उन्हें, मगर यहाँ वो क्या करे, मजबूर हो जाती है।
उनकी ही वजह से तो उसने रंगदार साड़ियाँ छोड़ दीं और सफ़ेद पहनने लगी, मगर फिर भी नहीं मानते अब अगर आज वो नीली साड़ी पहन कर जाएगी तो न मालूम क्या क्या करेंगे तो फिर सफ़ेद ही पहन ले मगर रोज़ रोज़ सफ़ेद और क्या, वो कोई उनसे डरती है। हंसते हैं तो हंसा करें, कोई उसे खा थोड़ी लेंगे, भला क्या बिगाड़ सकते हैं वो उसका? अब वो फिर रंगदार साड़ियाँ पहना करेगी देखें वो उसका क्या बनाते हैं, हंसेंगे तो ज़रूर मगर इस से होता ही क्या है। आज ज़रूर नीली साड़ी पहनेगी! नीली साड़ी पहन क्रास ने बाल बनाने के लिए आइना सामने रखा। कम ख़्वाबी से उसकी आँखें लाल और कुछ सूजी हुई सी थीं। वो हाथ में आइना उठा कर ग़ौर से देखने लगी मगर ये उसका रंग क्यों ख़राब होता चला जा रहा था और खाल भी खुरदरी हो चली थी। जब वो लड़की थी तो उसके चेहरे पर कितनी चमक थी, रंग साँवला था तो क्या, चमकदार तो था। उसकी आंटी हमेशा मामा से कहा करती थीं, तुम्हें बेटी अच्छी मिली है मगर अब उसने आइना रख दिया और अपने जिस्म को ऊपर से नीचे तक ऐसी हसरत से देखने लगी जैसे मोर अपने परों को, उसके बाज़ुओं का गोश्त लटक आया है और ठोढ़ी भी मोटी हो गई है और हाथ अब कितने सख़्त हैं। बाल भी सूखे साखे और हल्के रह गए हैं और तेज़ी तो उसमें बिल्कुल नहीं रही है। पहले वो कितना कितना दौड़ती भागती थी और फिर भी न थकती थी। मगर अब तो थोड़ी ही देर में उसकी कमर टूटने लगती है।
उसने एक लंबी सी अंगड़ाई और फिर एक गहरा सांस लिया। बे-रौनक चेहरे और पिलपिले बाज़ुओं ने नीली साड़ी का रंग उड़ा दिया था। उसने बाल ऐसी बे-दिली से बनाए कि बहुत से तो इधर उधर उड़ते रह गए। बाल बन चुके थे मगर वो बराबर आइने को तके जा रही थी और उसका दिमाग़ सिमट कर आँखों के पपोटों में आगया था जिनमें एक ही जगह ठहरे ठहरे मिर्चें सी लगने लगी थीं।जब उसने आइना रखा तो उसे मेज़ के कोने पर दीवार के क़रीब बाइबल रखी नज़र आई। ये बचपन में सालगिरह के मौक़े पर उसके पापा ने उसे दी थी। मुद्दतों में उसने उसे खोला तक न था और वो गर्द से अटी पड़ी थी। उस किताब ने उसे फिर पापा की याद दिला दी और वो उसे उठाने पर मजबूर हो गई। पहले ही सफ़ा पर उसका नाम लिखा था। ये देख कर इसे हंसी आई कि वो उस वक़्त कैसे टेढ़े मेढ़े हुरूफ़ बनाया करती थी। उसे ये भी याद आया कि उस ज़माने में उसके पास हरा क़लम था। उसका इरादा हुआ कि अब के जब वो शहर जाएगी तो एक हरा क़लम ज़रूर ख़रीदेगी मगर उसे ख़याल आया कि वो क़लम लेकर करेगी ही किया। अब उसे कौन सा बड़ा लिखना पढ़ना रहता है।
उसके पापा उसे बाइबल पढ़ने की कितनी हिदायत किया करते थे। उसे अपनी बेपरवाई पर शर्म सी महसूस हुई और वो बाइबल के वर्क़ से उल्टे जाने लगे इस्तिस्ना रोत यरमियाह हुक़ूक़ मती लौका रसूलों के आमाल कहाँ से पढ़े आदम नूह तूफ़ान इब्राहीम कशती सलीब मसीह यसू राजा आए गिरजा का घंटा सब मिल कर गिरजा जाते थे, हंसते मज़ाक़ करते आख़िर वो फ़ैसला न कर सकी कि कौन सी जगह से पढ़े और उसे जल्दी जाना था, इतना वक़्त भी नहीं था लेकिन उसने इरादा कर लिया कि वो अब रोज़ सुब्ह को बाइबल पढ़ा करेगी वर्ना कम से कम इतवार को ज़रूर, लेकिन दुआ तो माँग ही लेनी चाहिए, बहुत बुरी बात है, मामा कभी बगै़र दुआ मांगे नहीं सोने देती थीं और फिर उसमें वक़्त भी कुछ नहीं लगता और लगे भी तो क्या दुनिया के धंदे तो होते ही रहते हैं।
उसने दिमाग़ को साकिन बनाना चाहा और आँखें बंद कर लीं मगर बावजूद इसके आँखें पट फटाने से पहले तो उसकी मामा उसकी आँखों में घुस और फिर पापा और उनके पीछे पीछे गिरजा की सड़क, घंटा और सब मिल कर गिरजा जाया करते थे हंसते, मज़ाक़ करते।
उसने आँखें खोल कर सर को इस तरह झटके दिया गोया इन सब को अपनी आँखों में से झाड़ रही है आख़िर दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली हो गया और ख़ामोश। सिर्फ़ कानों और सर में दिल के धड़कने की आवाज़ आ रही थी। उसने दोबारा आँखें बंद कर लीं। दोनों हाथ जोड़ लिये और दुआ को दोहराती चली गई। ऐ मेरे बाप तू जो आसमान पर है तेरा नाम पाक माना जाए तेरी बादशाही आए। तेरी मर्ज़ी जैसे आसमान पर पूरी होती है वैसे ही ज़मीन पर हो। हमारी रोज़ की रोटी आज हमें दे और हमारे क़सूरों को माफ़ कर जैसे हम भी अपने क़सूरों को माफ़ करते हैं। क्योंकि क़ुदरत जलाल-ए-अबद तक तेरा ही है। आमीन!
आँखें खोलने पर उसने कुछ इत्मिनान सा महसूस किया और मुस्कराने की कोशिश करने लगी। उसने फिर आइने में झांका और चाहा कि किसी ख़ास चीज़ के लिए दुआ मांगे लेकिन क्या चीज़? कोई! उसका तबादला शहर में हो जाए मगर वहाँ उसे फिर वलीमन का सामना करना पड़ेगा। उससे तो ये क़स्बा ही बेहतर है फिर और क्या? वो एक कहानी थी कि एक परी ने एक आदमी से तीन ख्वाहिशें पूरी करने का वअदा किया था फिर आख़िर क्या?
उसने बहुत बाज़ू मले। मगर कोई बात याद न आई। उसे देर हो रही थी इसलिए उसने अपनी दुआओं और ख़्वाहिशों को छोड़ दिया और छतरी उठा कर चल पड़ी।
सड़क पर पहुँच कर उस पर महज़ एक जल्दी पहुंचने का ख़्याल ग़ायब था। सुब्ह की इस तमाम काहिली और सुस्ती के बाद उसे आज़ा को हरकत देने में फ़रहत महसूस हो रही थी। सूरज की हल्की सी गर्मी और चलने से उसके ख़ून की हरकत तेज़ हो गई थी और वो सड़क की नाली रेत कंकरों सब से बे-पर्वा अपना रास्ता तय करने में लगी हुई थी। अगर उसे अपनी रफ़्तार में कभी कुछ सुस्ती मालूम होती तो वो और क़दम बढ़ाने की कोशिश करती। सड़क पर खेलने वाले लड़के अभी तक न निकले थे। इसलिए अपनी आँख-नाक की हिफ़ाज़त की ज़रूरत न थी। जब वो दीवारों के साये में से गुज़रती तो उसके पैर और भी तेज़ उठने लगते थे।
वो जल्दी ही बाज़ार में पहुँच गई। शेख़ सफ़दर अली का मकान अब थोड़ी ही दूर रह गया था और इत्मिनान सा हो गया था कि ज़्यादा देर नहीं हुई। वो चली जा रही थी कि उसकी नज़र एक दुकानदार पर पड़ी। वो अपने सामने वाले को आँख से इशारा कर रहा था और मुस्कुरा रहा था। क्या ये उसे देख रहा था? मुम्किन है वो पहले से किसी बात पर हंस रहे हों और उसे देर भी हो गई थी वो आगे बढ़ी ही थी कि आवाज़ आई, आज तो आसमान नीला है भई, बड़े दिन में ऐसा हुआ है आज। उसने चाहा पलट कर छतरी रसीद करे उस बदतमीज़ के चाहे कुछ हो आज वो खड़ी हो जाए और साफ़ साफ़ कह दे कि वो उन लोगों की बातें अच्छी तरह समझती है और अब वो ज़्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती। आख़िर कहाँ तक पैर मन मन भर के हो गए थे और टांगें थरथरा रही थीं जिससे वो कई दफ़ा चलते चलते डगमगा गई, मगर उन आँखों ने जो अब हर तरफ़ से उसकी तरफ़ देख रही थीं उसे रुकने न दिया। वो अपनी साड़ी में कुछ सिकुड़ सी गई। उसने पल्लू अच्छी तरह सीने पर खींच लिया और सर झुका कर क़दमों को सड़क पर से उखाड़ने लगी।
जब वो शेख़ सफ़दर अली के मकान पर पहुँची तो वो डेयुढ़ी में कुछ लोगों के साथ बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। उसे देखते ही वो खड़े हो गए और ऐसे शिकायत आमेज़ लहजे में जैसे उसने कोई नायाब मौक़ा हाथ से निकल जाने दिया था जिस पर शेख़ जी को उससे हमदर्दी थी बोले,
अख़ाह मेम साहब! बड़ी ही देर कर दी तुमने तो!
जी हाँ वो ज़रा देर हो गई। कहती हुई वो ज़नाने की तरफ़ बढ़ी। जब वो दरवाज़े पर पहुंची तो उसने देखा कि क़स्बे की पुरानी दाई बाएं हाथ पर कपड़े उठाए और दाहिने हाथ में लोटा हिलाती सहन से गुज़र रही है, ये कहती हुई, जरा देख तो अभी तक न निकली घरवे से हराम जादी!
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