हीरा फूल
स्टोरीलाइन
यह एक प्रतीकात्मक कहानी है, एक ऐसे लड़के की जिसकी दादी उसे अपने बाप की मौत का बदला लेने के लिए तैयार करती है। उस शख़्स से जो रिश्ते में दादी का छोटा बेटा और उसका चाचा है। लड़का दादी की हर बताई बात सीखता है और खु़द को इस क़ाबिल बनाने की कोशिश करता है कि वह बदला ले सके। उस फूल को ला सके, जो पता नहीं किस देस में है।
पता नहीं तुम्हें क्यों याद नहीं रहता कि जब मैं शह कहूं तो इसका मतलब है तुम्हारा बादशाह ज़द में है और तुम्हें... उसकी फ़िक्र करना चाहिए।
मैं क्या करूँ अग्नि दा मुझे याद ही नहीं रहता। मुझे ये हारने जीतने का खेल बकवास लगता है। मेरा बादशाह अगर ज़द में आगया है तो तुम जीत गईं। अब बिसात उठा दो। अगर तुम ये खेल न सीख सके। अपने मोहरों को बचाने की तुम्हें फ़िक्र न हुई तो मानो तुमने कुछ कभी न सीखा। देखो बात सुनो अब फिर से याद करो घोड़ा ढाई चाल चलता है। दा ने उठकर आँगन में बिखरी चीज़ें समेटना शुरू कीं।
इंदू, इंदू। उसने फिर पुकारा। पूरब की हवा है और काले बादल पानी लाए हैं।
मैंने झांक कर देखा। घटाऐं सुरमई अंधेरे को स्याह किए देती थीं तेज़ हवा और बहार की बसंती बॉस के साथ भीगी हुई महक थी जैसे पानी के कंधों पर उड़ती आई हो।
दा मेरी समझ में ये सब नहीं आसकता, ये ढाई चाल क्या हुई भला? मैं बिसात उठा कर पटख़ दूँगा।
सुनो जी, मुझसे ये नहीं चलेगा, जब तक तुम इसे समझ नहीं चुकते मैं तुम्हें कभी भी जाने नहीं दूँगी। रात की कहानी ख़त्म और अपने साथ तो तुम्हें हर्गिज़ नहीं सुलाऊंगी। अग्नि दा ज़िद की बहुत पक्की है और जब कभी मैं और वो किसी बात पर झगड़ते हैं जीत उसी की होती है। अब कई दिनों से ये शह और मात। प्यादे और फ़ील चल रहे हैं। लंबी होंकती हुई दोपहरों में जब भी नींद आने लगती दा बिसात बिछा कर बैठ जाती और मुझे सोने नहीं देती। वो कहती है मैं बहुत सी चालें बयक वक़्त सोचूं ताकि उसे दे सकूं। और मैं सिर्फ़ एक चाल सोच सकता हूँ। फिर अग्नि दा के सामने बैठे मुझे तो उसकी पर्वा भी नहीं होती कि मैं जीत या हार और फिर ये झंझट कि वज़ीर को बचाओ। फ़ील को बचाओ। प्यादे को बचाओ। रुख को बचाओ। दा चाहती है मैं उसके मुहरे पीटूं मगर में ये खेल किसी न किसी तरह जल्द ख़त्म हो, चाहे मैं ही क्यों न पिट जाऊं।
अग्नि दा मुझे इतना कठोर बनाना चाहती है इतना सख़्त कि मैं हर आफ़त सह लूं। सर्दी और गर्मी मुझ पर असर न करें। मेरी चीज़ों की करने की ताक़त बहुत हो, बेअंदाज़ मगर मैं खिड़की में से बाहर झांक कर देखता हूँ। स्याही बिजली के लहरियों से और गहरी हुई जाती है। किवाड़ हवा के ज़ोर से धड़ धड़ाए जा रहे हैं। बूँदों की चाप छत पर सुनाई दे रही है। वो हौले हौले फुवार बन कर ठंडक बन कर। मैं चाहता हूँ हवा को पकड़ लूं। मुट्ठीयाँ भर भर उसे अपने गर्द बिखेरों और बादलों की रोई में धंसता चला जाऊं वहां जहां दा कहती है पाताल है। लंबी तानों वाले रागों का एक क़ाफ़िला सा चल रहा है। मेरे साथ साथ बढ़ता है और तारीकी में सनसनाती गोलियां सी इधर उधर उड़ रही हैं। यूं जैसे रात के परिंदे एक सी बोली बोल कर एक दूसरे को खोज रहे हैं जैसे मैं हीरा फूल खोजता हूँ।
हीरा फूल के बिना कोई इज़्ज़तदार नहीं हो सकता। कोई इस शहर की गलियों में सर उठा कर नहीं चल सकता। हीरा फूल के बिना कोई किसी को नहीं पहचान सकता और फिर तुम?
अग्नि दा की आवाज़ तुम कहते कहते जाने क्यों इतनी सख़्त हो जाती है। हुक्म देती हुई मेरे दफ़्तर को दहलाती हुई?
क्यों दा, अगर मुझे हीरा फूल खोजने पर भी न मिले। मैं दा से किसी न किसी सतह पर सुलह कर के अपना मतलब उसे बताना चाहता हूँ।
सारे आदमी उस फूल को खोजने निकलते हैं वर्ना उनका जीना-मरना सब बराबर है। दा बात करने के सारे राह बंद करके ख़ुद उस राह पर खड़ी हो जाती है । वो जिस फूल के खोजने के लिए मुझे तैयार करती है जाने वो किन बाग़ों में खिलता है?
पता नहीं वो फूल अब आफ़ताब और महताब में से किसी के पास हो जो मेरी तरह अग्नि दा के नहीं मेरी माँ और मेरे चाचा के बेटे हैं।
माँ भी एक सुंदर सपना थी, धान-पान सी जैसे कहानी की परी हो। डरी-डरी, सहमी-सहमी सी जैसे किसी देव की क़ैद में कोई राजकुमारी हो बड़ी बड़ी आँखों में आंसूओं की चमक लिये जाने उसे देखकर रोना क्यों आने लगता था। फिर वो आती भी तो सपने की तरह थी। ज़्यादा देर न रुकती उसने कभी मुझे ज़्यादा प्यार नहीं किया। एक जब वो मुझे अपने क़रीब खींच रही थी तो अग्नि दा ने कहा था,
बहू, क्या तुम्हें अच्छा लगता है कि ये तुम्हारे बिना रह न सके।
माँ के हाथ एक बेबस की तरह उसके पहलूओं में गिर गए थे। उसकी काजल से स्याह आँखें आंसूओं से भरी थीं और वो कोशिश कर रही थी कि आँसू गिरें नहीं।
अग्नि दा ने कहा था,
जाओ बहू अगर काजल फैल गया तो तुम क्या जवाब दोगी?
माँ के जाने के बाद मैंने दा से पूछा था, तुम्हें माँ अच्छी नहीं लगतीं न, तुम उसे यहां आने क्यों नहीं देतीं?
दा ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा था, बेटे रात के बाद दिन होता है। अंधेरे के बाद उजाला होता है। वक़्त का इंतिज़ार करो बेटे और ऐसी बहुत सब बातें जिनकी समझ न मुझे तब थी न अब है। परवाने मुझे ऐसी खोज पर क्यों लगाया है जिसका कोई अंत नहीं। भला हीरा फूल कैसा है। कौन जाने और आख़िर में जाने फूल किस के हाथ लगे।
ख़ाली और लंबी दोपहरों में अग्नि दा ने मुझे सही निशानेबाज़ बनाने के लिए कितनी मेहनत की थी। आज जो मैं आवाज़ पर निशाना लगाता हूँ वो नहीं चूकता तो ये सब अग्नि दा की मेहनत है जो उसने मेरे साथ की थी। उस दिन भी मैंने दोनों बाज़ों को लड़ते देखकर निशाना लिया और फिर ग़रूर से मैंने ज़मीन पर बैठी अग्नि दा की तरफ़ देखा मगर वो मेरी तरफ़ नहीं देख रही थी वो अपने एक हाथ को दूसरे में लिये बैठी थी।
मैं भाग कर उसके गले से लटक गया। दा, देखती हो मैंने क्या किया है? देखा मेरा निशाना? फिर उसका रंग यूं ज़र्द हो गया जैसे उसने कोई भूत देख लिया हो। बेटे तुमने क्या किया है। बेटे तुमने ये क्यों किया है। अभी वक़्त नहीं आया बेटे मगर होनी को कौन रोक सकता है। मेरे बच्चे तुमने तो बाज़ की टांग तोड़ दी है। अब मैं क्या करूँगी तुम्हें कहाँ छुपाऊंगी।
फिर मैंने अपने चचा को देखा कि झूमता हुआ आया है।
हूँ, कर के उसने मुझे और दा को देखा और फिर उसकी नज़र अपने ज़ख़्मी बाज़ पर पड़ी वो सारी लंबी दास्तान अजीब तरह से अंधेरे में है। रोती हुई अग्नि दा, चीख़ती हुई माँ और ज़मीन पर पटख़नियां खाता हुआ मेरा अपना जिस्म। एक अजीब आवाज़ से मैं दीवारों दरवाज़ों फ़र्श पर लग रहा था। कुछ महसूस ही नहीं हो पाता था। जैसे मैं कोई और हूँ, जिस्म से बाहर परे और फ़र्श पर लुढ़कनियां खाते हुए किसी पत्थर के जिस्म को अपनी आँखों से देख रहा हूँ। वो चीख़ें भी मैंने अपने कानों से सुनीं फिर हौले हौले सब कुछ थम गया। कोई आवाज़ नहीं आती थी!
पर आज तक भी जब मुझे कोई ठोकर लगी है जब भी मैं ज़ख़्मी हुआ हूँ मुझे सदा यही लगा है जैसे ये मैं नहीं कोई और है जिस पर ये सब बीत रही है मुझे कुछ महसूस ही नहीं होता। आँख खुली है तो मैंने माँ को अपने पर झुके देखा, वो रो रही थी और हाथ मल रही थी, उसके वो हाथ जैसे चांदनी को गूँध कर बनाए गए हों। उसके सफ़ेद चेहरे पर काजल फैला हुआ था और उसके बाल खुले थे। मैंने ज़मानों के बाद उसे देखा था और वो मुझे बहुत अच्छी लगी।
तुम कैसे हो बेटे, मेरे मेरे बेटे, मेरे लाल, उसकी आवाज़ मुझे ऐसी सुहानी लगी जैसे घंटियों की मद्धम सी सनसनाहट हो, वो आवाज़ मेरे ख़ून में ऐसी सनसनाहट पैदा करने लगी जैसी स्याह घोड़े पर बैठ कर तारीक रात में सर्द हवा के थपेड़े खाने से होती है। ये मेरी माँ थी। मेरा जी चाहा वो मुझे गले से लगा ले। अग्नि दा की तरह वो मुझे अपने सीने से चिमटाये, मैं उस में समा जाऊं!
मगर अगले ही लम्हे एक बांदी ने कहा, रानी आप चल कर सिंगार करलें, वो बेबसी और बेचारगी की नज़र जैसे नज़र न हो ख़ून का आँसू हो। मुझे अपना दिल ठहरता हुआ मालूम दिया। फिर अग्नि दा ने कहा, बहू, तुम जाओ, मेरे बच्चे पर दया करो।
माँ ने बड़ी मिन्नत से दा की तरफ़ देखा और झुक कर मेरा माथा चूम लिया।
वो जगह जहां माँ के होंट पड़े थे, वो जगह मेरे अपने माथे पर इतनी पवित्र लगती है कि मुझे कभी-कभार अपने आप पर मंदिर होने का शुबहा होता है!
उन दिनों घटाऐं झूम कर आती थीं, अपने कमरे की छोटी सी खिड़की में से मुझे जो आकाश दिखाई देता वो स्याह होता। हवा एक अजीब तरह के ज़ोर से चलती जैसे अपने साथ सब कुछ बर्बाद कर देगी।
मैं बहुत कमज़ोर था और फिर दा मुझसे बात भी बहुत कम करती थी, उस घड़ी के बाद से वो मुझसे आँख भी नहीं मिलाती थी। अपने सफ़ेद हिलते सर को और झुकाए तक़रीबन दोहरी होती जब वो कमरे में इधर से उधर चलती तो मैं उसे देखता रहता। कभी मेरे लिए दवा ला रही है कभी मेरे जिस्म को सेंक रही है। मुझे चादर में लपेट रही है, उन बूढ़े हाथों में गर्मी भी नहीं थी, मेरे ज़ख़्म मुंदमिल होने में ही नहीं आते थे। कभी मैं दर्द की शिद्दत से रोने लगता तो दा बहुत ख़फ़ा हो कर मेरी तरफ़ देखती।
बेटे ये तुम हो, रोते हुए क्या अच्छे लगते हो?
दा यहां यहां दुख जो होता है। मैं ज़ोर से कहता और चोटों को छूने की कोशिश करता।
तुम्हें तो जाने क्या कुछ सहना है अभी और तुम इतनी सी बात नहीं सहार सकते? वो चोट की जगह पर हाथ फेरते हुए कहती।
दा क्या इस से भी ज़्यादा दुख हो सकता है? क्यों मुझे क्यों दुख होगा भला? मैं बेयक़ीनी से पूछता। कई जिस्म बहुत सख़्त बनाए जाते हैं जो बहुत कुछ सह सकें, दा बड़े रसान से कहती, तुम किस शय से बनी हो दा? मैंने उसे अपने कमज़ोर हाथ से छू कर कहा।
मैंने बहुत कुछ सहा है, अभी बहुत कुछ सहना है। इन आँखों ने क्या नहीं देखा। उसने हौले से कहा और मैं हैरत से उसे देखता और जी ही जी में कहता, दा मुझे धोका दे रही है, ख़ुद मुझे कहती है कि झूट नहीं बोलो, पाप होगा। पर ख़ुद तो पाप से ज़रा नहीं डरती। ये काग़ज़ की तरह के मुड़े तुड़े खड़ खड़ाते हुए हाथ सफ़ेद सर और पपोटों के बोझ से बंद होती आँखें। चला तो इस से जाता नहीं और अपने आपको सख़्त कहती है। एक ठोकर लगने से गिर जाती है, हवा में उड़ सकती है, और फिर मैं सोचने लगा, कैसे हो अगर दा उड़ जाये और बरगद की शाख़ में अटक जाये और ज़ोर से रोने लगे और मैं जो इतना बहादुर सूर बीर हूँ यूं चुटकी बजाते मैं उसे नीचे उतार लाऊं और कहूं, देखा तुमने, अब बताओ कौन सख़्त बना है, तुम या मैं?
मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा तो दा ने कहा, बेटे, यूं नहीं हंसते, जब तक कोई बात न हो।
तुम्हें क्या पता क्या बात है। दा मैं तुमसे बहुत बड़ा हूँ। मैं तुमको दरख़्त से उतार कर ला सकता हूँ!
दा ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा था, मैं तो तुम्हारी बांदी हूँ बेटे। तुम मुझसे बहुत बड़े हो फिर भी मुझे उसी जगह पर भटकना है और तुम्हें आगे जाना है!
कहाँ आगे जाना है दा। तुम मुझे अपने से दूर क्यों भेज रही हो?
क्योंकि तुम्हें अपने फूल की खोज में निकलना है। फूल जिसका रंग कभी कम नहीं पड़ता, फूल जिसकी बॉस सदा रहने वाली है और जिसका रंग कभी मद्धम नहीं होता।
दा तुम मुझे अकेला क्यों भेजना चाहती हो। तुम ख़ुद मेरे साथ क्यों जाना नहीं चाहतें? मैं तुम्हारे बिना भला कहाँ जाऊँगा?
मेरे बेटे, उसने अपना झुर्रियों भरा हाथ सर पर रखकर मुझे कहा था, तुम्हें हर चीज़ के लिए अपने को तैयार करना होगा, बेटे तुम्हारी ज़िंदगी बहुत कठिन होगी, बच्चे, बहुत ही कठिन! उसका हाथ बालों में काँप रहा था।
दा तुम्हारा निचुड़ा हुआ कमज़ोर हाथ क्यों है, माँ की तरह का ख़ूबसूरत क्यों नहीं!
अभी तुम्हें इन हाथों की ज़रूरत है, हाँ जब तुम बड़े हो जाओगे?
हाँ दा, जब मैं बड़ा हो जाऊं और उस नीले घोड़े पर ही तो चढ़ सकूँगा। बताओ न मुझे नीले घोड़े पर कब चढ़ने दोगी?
जब तुम बदला ले सकोगे, अपने बाप की मौत का बदला। उसकी आवाज़ बमुश्किल सुनी जा सकती थी। तुम्हें अपने चाचा से, आफ़ताब से माहताब से बदला लेना है, बेटे उन्होंने तुम्हारे जवाँ बाप को यूं मसल दिया जैसे वो कोई चियूंटी हो। उन्होंने ज़रा तरस नहीं खाया। सुन सुनकर के ख़ून मेरी रगों में दौड़ने लगा। कान जलने लगे और सर घूम गया।
माँ, तुमने आज से पहले मुझे ये सब क्यों नहीं बताया?
आज से पहले और अब भी वक़्त कहाँ है बेटे? मगर मुझे क़ौल दो कि तुम बदला लोगे।
तुम्हारी बातें मेरी समझ से बाहर हैं? मैंने घबरा कर कहा।
ज़रूरी नहीं कि सब तुम्हें समझ आए, सारी बातें कभी किसी की समझ में नहीं आया करतीं। मगर रास्ते इन्हीं अंधेरों से गुज़रते हैं। अग्नि दा ने उठकर दीया बुझा दिया। अंधेरे में मुझे डर मालूम होता है। मैंने मिन्नत से उसे कहा। मुझे लगा जैसे बाहर की सारी आवाज़ें थम गई हों।
मुझे क़ौल दो, इस अंधेरे की तरह की बेयक़ीनी से मुझे और अपने को निकालोगे। तुम इज़्ज़त का फूल लेकर दिन की रोशनी में निकलोगे। उस की आवाज़ मज़बूत थी और सख़्त कोड़े की तरह मुझे लग रही थी।
फिर हौले हौले बाहर की सारी आवाज़ें थम गईं, मेरे अंदर सिर्फ़ प्यास थी और कोई मुझे सीने से लगाए था।
दीया जला कर अग्नि दा ने हमें देखा। मैं माँ को दीवानावार चूम रहा था, ये मेरी माँ थी। आफ़ताब-महताब की नहीं, मेरी माँ। मैं इस एक घड़ी के बदले लाखों अग्नि दा क़ुर्बान कर सकता था। माँ के आँसू मेरे बालों मेरे होंटों पर गिर रहे थे और मेरा जी चाहता था मैं उसके सीने में समा जाऊं।
माँ ने उठते हुए कहा, अग्नि क्या तुम मुझे कभी माफ़ नहीं कर सकतीं, मैं इसकी माँ हूँ!
अग्नि दा ने चौकी पर बैठते हुए कहा, बहू तुम्हें मुझसे शर्मिंदा होने की क्या ज़रूरत है, तुम उसकी माँ होने के साथ साथ उसके चाचा की सुहागन भी तो हो, आफ़ताब और महताब की माँ हो, यहां के हाकिम की बीवी हो, मेरा क्या मुँह है कि मैं तुम्हें माफ़ कर सकूँ। मैं एक अदना बांदी हूँ मगर इसके बाप ने मेरा दूध पिया था, वो इसी तरह मुझे प्यारा था जिस तरह तुम्हें तुम्हारे बेटे हैं। मेरा दिल ख़ून के आँसू रोता है और इसकी रगों में इस का ख़ून है बहू। ख़ून ख़ून के लिए जागे का बहू!
माँ खड़ी थी, वहीं ज़मीन पर बैठ गई और बैन करने लगी,
अग्नि, दूसरी बार मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपना सुहाग लुटा सकूँ!
दा ने बहुत हौले से कहा, मेरे बेटे ने तुम्हारा क्या लिया था, तुम्हें कौन सा दुख पहुंचाया था, और जब उसकी याद का दामन भी मैला नहीं हुआ था तो तुमने दूसरे सुहाग की ख़ुशियां कीं। तुमने कैसे पोर पोर सिंगार किया था जैसे पहली बार सुहागन बनने जा रही थीं।
माँ ने कहा, अग्नि मैं तुम्हारे पांव पकड़ती हूँ, मेरे बेटे को वो सब नहीं बताओ जो उसे मालूम नहीं!
अग्नि दा ने बहुत नफ़रत से कहा, क्या तुम समझती हो ये सदा बच्चा ही रहेगा, वो जवान हो कर उन ऊंची नीची जगहों में घूमना नहीं चाहेगा और ये गलियाँ उससे कुछ नहीं कहेंगी और फिर तुम्हारा सुहाग जो उसके ख़ून का प्यासा है? ये यहां क्या बन कर रह सकेगा बहू। उसे जाना है बहू। वो चुप हो गई जैसे सांस ठीक करने को रुकी हो।
माँ का सर उसके घुटनों पर रखा था और बालों की स्याही में दीये की लौ से शोले से पिरोए लगते थे और उसकी लंबी चोटी तारों से गुँधी लगती थी दीये की लौ की ओट से परे अग्नि दा थी। उसका सफ़ेद सर और भी झुक गया था। वो काँप रही थी जैसे तेज़ हवा की लहरों पर बहता कोई तन्हा ज़र्द पत्ता हो।
अग्नि दा ने माँ का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा, बहू, इज़्ज़त की किताब का सबक़ उसे भी पढ़ने दो। अगर तुम्हारे नसीब में यही बदर है तो उसे कौन मिटा सकता है, मैं जो एक बांदी हूँ उससे दग़ा नहीं कर सकती, तुम तो उसकी माँ हो।
माँ ने झुका हुआ सर उठा कर मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में आँसू थे मगर चेहरे पर सुकून था। फिर उसने ने मेरे सर पर हाथ रखकर कहा, दा ठीक कहती है बेटे, जो इज़्ज़त की राह है इस पर चलो, चाहे इस राह पर कोई भी आए उसकी पर्वा न करो। मैं माँ हो कर तुमसे धोका कैसे कर सकती हूँ?
और आज भी वो मुझे दिखाई देती है मेरी यादों के पर्दे पर वो इसी तरह उभरती है, आंसूओं से भरी आँखें जैसे पानी की झीलें हों। चेहरे के मुक़ाबले में बालों की काली घटा से भी गहरी स्याही और जोश से सफ़ेदी में झलकती हुई जो चेहरे को फूलों के रंग का बनाए देती है।
स्कूल जाने के दिन क़रीब आरहे थे। मैं और अहसन टीलों के परे अपने स्याह घोड़े को ख़ूब तेज़ दौड़ाते टीलों में आँख मिचोली खेलते। सहरा अपनी सारी वुसअतों समेत हमारे सामने फैला हुआ होता। चरवाहों की बाँसुरियों की सदाएँ और जानवरों के गले में पड़ी घंटियों की टनटनाहटें मुझे सपनों में सुनी आवाज़ों की तरह जान पड़तीं। लाने और फोग, जंडी और लाई की झाड़ियों में मधुर सी ख़ुशबू और फिर बसेरा करती कावंतियों और चिड़ियों के शोर से टीले आबाद होते। हम दोनों इस भूल-भुलय्याँ में गुम हो जाते। कभी डाहर पर घोड़ों को दौड़ाते चले जाते। मेरा सांस रुकने लगता। ज़मीन घोड़ों के सुमों के नीचे लोहे की तरह बजती और उनकी दुमें हवा में यूं उठी हुई होतीं जैसे वो किसी साँचे में ढले खिलौने हों।फिर हम दोनों ख़ामोश हो कर चलने लगते और सूरज हमारे सामने ग़ुरूब होने लगता। बादलों में आग लगती और रेत के ज़र्रे उस सुर्ख़ रंग में नहा जाते, झाड़ियाँ सुर्ख़ रोशनी से भर जातीं और परिंदे बसेरा करने के लिए तेज़ तेज़ पर मारते अपने ठिकानों को लौटते। फिर हौले हौले हवा घुलने लगती। बादल इतने सुर्ख़ हो जाते, थरथराते स्याल की तरह जैसे आग पर तपाए जा रहे होँ, शोला रंग मरगोले से उड़ते और सब कुछ ख़ून में नहा जाता और सूरज के सफ़ेद थाल में आग लग जाती। रेत के पहाड़ और टीले धुंए की स्याही में डूबने लगते। काली रात के धुआँ धुआँ दामन दिन को ढांपने बढ़ते और ख़ामोशी की लहरें सी फैलती जातीं।
दीये की लौ में किताबों के वर्क़ पलटते देखकर दा कहती, जाने इन किताबों में वो सब लिखा है कि नहीं जो मेरा जी चाहता है तुम सीखो।
तुम्हें तो कभी पता ही नहीं चल सकता कि किताबों में क्या लिखा है! मेरा सर ग़रूर से तन जाता। हीरा फूल की कहानी तो उनमें होगी? वो किताबों के सफ़े बड़ी आस से उलटती पलटती। तुम तसल्ली रखो दा, घोड़े पर चढ़ना, निशाना लगाना, ये सब तो मुझे आ ही गया है, किसी दिन जब मैं चाचा के बराबर ऊंचा हो जाऊँगा तो देखना मैं हीरा फूल लेकर घर पलटूंगा, और अग्नि दा ठंडा सांस भर कर कहती, क्या ही अच्छा होता अगर फूल लाना इतना आसान होता!
सर्दी घूम गरज कर पड़ रही थी जब मुझे स्कूल भेजा गया। उस रात दा देर तक मुझे कुछ समझाती रही, मगर मैं बिस्तर में दुबका लेटा था और चौमुखिया दीये को देख रहा था जिसकी लौ घटती-बढ़ती और कभी दुर्ज़ों से अंदर आने वाली हवा के रुख पर झुक जाती थी जो बाहर बरगद की शाख़ों में शोर मचाती बड़े ज़ोरों में थी जैसे कोई मुँह ज़ोर घोड़ा हो। झनघाड़ती हुई वो अपना सर दरवाज़ों से दे मारती थी। यूं मालूम होता था अग्नि दा की कहानियों के सारे देव आज़ाद हो कर घूम रहे हैं।
हुजूम में मिलकर चलने में मज़ा भी आता है मगर आदमी अकेला ही होता है, अपने अंदर के वसीलों के सहारे सहरा में घूमने वाले ख़ाना बदोश की तरह राहों की तलाश में और अपने बचाओ में लगा रहा और इसीलिए जब बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया हूँ तो मैंने ज़िद नहीं की और रो-रो कर मैडम को परेशान नहीं किया और अगले दिन राऊंड पर आने वाले सुपरिटेंडेंट ने मुझसे पूछा, तुम उदास तो नहीं हो, तो मैंने कहा था, मैं ठीक हूँ बिल्कुल।
मैंने अपने तर्ज़-ए-अमल से उन्हें ख़ासा मायूस किया।
कभी-कभार घर से कोई मिलने आता तो हम मुलाक़ात के कमरे में बैठे अपने सामने तकते रहते। मैं उससे पूछना चाहता था, माँ कैसी है? मगर फिर अंदर से मुझे कोई रोकता। वो आफ़ताब और महताब की माँ थीं, भला मैं उसकी ख़ैरियत क्यों पूछता?
पहली टर्म के ख़त्म होने पर मुझे कोई लेने नहीं आया।
ख़ाली कमरों में हवा साएँ साएँ करती रही। बर्तानवी वज़ा की इस पुरानी इमारत में जिसका संग-ए-बुनियाद डेढ़ सदी पहले रखा गया था लड़कों को इंतिहाई शान-ओ-शौकत से रहने की तर्बियत दी जाती। उन्हें दुनियादारी के सब तरीक़ों के साथ अंग्रेज़ी का सही तलफ़्फ़ुज़ और मुकम्मल लहजा सिखाया जाता। उस्ताद तैरना सिखाते हुए अंग्रेज़ी बोलते। मैडम अंग्रेज़ी में सुबह बख़ैर कहती। चपड़ासी से लेकर प्रिंसिपल तक सब उसी ज़बान में बात करते। ख़ास लिबास पहन कर घोड़ों पर सवारी की जाती। शहर के इन हंगामों में भला घोड़े कब भाग सकते हैं और मैं कहता बेकार ही यहां भिजवाया गया हूँ। यहां वो जोश और गर्मी कहाँ थी जो ख़ून को रगों में चलने की हद तक गर्म कर दे।
दा की कहानियों में तो हीरा फूल किसी और देस में, किसी और कोने में खिलता था। कितनी ही वादियों, आग के समुंद्रों और जंगलों के पार एक वीरान से उजाड़ बाग़ के किसी तन्हा छिपे हुए कोने में टहनी पर अकेला फूल था... और मैं यहां था। और फिर दा की कहानियां मेरे ज़ह्न में अजीब तरह गड मड हो जातीं। कभी रातों को मेरे सारे बादशाह और प्यादे मिलकर भाग खड़े होते और बिसात ख़ाली रह जाती। मैं ये तमाशा देखता मगर कुछ कर न सकता। फिर दा की आवाज़ अंधेरे के पार से सुनाई देती,
पता नहीं तुम्हें क्यों पता नहीं चलता, जब मैं शह कहूं तो इसका मतलब है तुम्हारा बादशाह ज़द में है और तुम्हें उसकी फ़िक्र करना चाहिए।
फिर माँ की सूरत दिखाई देती, जो ख़्वाबों के उजालों में निखरी निखरी और अपनी लगती, मगर मैं और मैडम कैनवस पर स्याह घोड़ों, नीले घोड़ों, भागते घोड़ों की तस्वीरें बनाते रहते और सड़क पर से मोटरें गुज़रती रहतीं। दरख़्तों में कोयलें कुहू कुहू बोलतीं और आम के दरख़्तों तले नज़र न आने वाली ख़ुशबुएँ डोलतीं। मेरी मंज़िल अभी दूर थी और रास्ते पर कोई दीया भी तो न था। जाने मेरी मंज़िल कहाँ थी, हीरा फूल कौन से देस में था।
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