हिन्दुस्ताँ हमारा
स्टोरीलाइन
जंग-ए-आज़ादी के ज़माने में अंग्रेज़ों के रंग भेद और हिंदुस्तानियों से भेदभाव को इस कहानी में बयान किया गया है। जगजीत सिंह एक लेफ्टिनेंट है जो अपनी गर्भवती पत्नी के साथ शिमला घूमने जा रहा है। सेकेंड क्लास में एक अकेला अंग्रेज़ बैठा हुआ है लेकिन वो जगजीत सिंह को डिब्बे में घुसने नहीं देता और किसी और डिब्बे में जाने के लिए कहता है। पुलिस वाले और रेलवे का अमला भी जब उसे समझाने बुझाने में नाकाम हो जाता है तो जगजीत सिंह अंग्रेज़ को डिब्बे से उठा कर प्लेटफ़ार्म पर फेंक देता है और फिर अपनी पत्नी को डिब्बे में बिठा कर, सामान रखकर नीचे उतरता है और अंग्रेज़ की पिटाई करता है।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा
(इक़बाल)
जगजीत सिंह अपनी बीवी की तलाश में था। भला इतने बड़े जोड़ मेले में एक ‘औरत को ढूँढ निकालना भी कोई आसान काम था। सिखों का जोड़ मेला एक बरस में एक ही मर्तबा लगता था। गुरू अर्जुन देव जी महाराज की याद में बड़े-बड़े दीवान लगते। पंजाब के दूर उफ़्तादा मुक़ामात से प्रेमी सिख जौक़-दर-जौक़ आते। दो दिन तो इस जगह तिल फेंकने को जगह न मिलती थी। मर्द, ‘औरतें, बच्चे, बूढ़े सभी जम’ होते थे। इतनी भीड़ में भला जगजीत सिंह की बीवी का क्या पता चल सकता था।
लेकिन वो बीवी को ढूँढे बग़ैर वापिस न जा सकता था। वो कुछ ‘अर्सा तक बर्मा के महाज़ पर जाने वाला था। उसने ब-मुश्किल दो हफ़्ते की छुट्टी हासिल की थी। वो चाहता था कि इन छुट्टियों में वो अपनी बीवी को हमराह लेकर शिमले चला जाए। उसकी बीवी की ख़्वाहिश थी कि वो किसी पहाड़ी मुक़ाम की सैर करे। हिज़ मैजिस्टी की फ़ौज का लेफ़्टिनेंट होने की हैसियत से ना-मा’लूम कितने ‘अर्से तक उसे अपनी क़ौम और मुल्क की ख़िदमत करनी पड़े। हिन्दोस्तान की ख़ाक-ए-पाक को लालची और ख़ूँख़ार दुश्मनों से बचाने के लिए नीज़ हिन्दोस्तान की आज़ादी बर-क़रार रखने के लिए ना-मा’लूम कब तक उसे शमशीर-ब-कफ़ रहना पड़े। इन हालात में उसने मुनासिब समझा कि चंद रोज़ अपनी बीवी की सोहबत में किसी पुर-फ़िज़ा मुक़ाम पर गुज़ारे।
वो आज ही घर पहुँचा था लेकिन बीवी मौजूद न थी। सिर्फ़ माँ बैठी चर्ख़ा कात रही थी। घर पहुँचते ही उसने इधर-उधर देखना शुरू’ किया। वो मुँह से कुछ कहने से शरमाता था। शादी को ज़ियादा ‘अर्सा नहीं हुआ था। माँ भाँप गई। सूत के साथ नई पूनी लगा कर बोली, “लड़कियाँ जोड़ मेले पर गई हैं। मेरा भी जी चाहता था लेकिन मेले के दिनों में घर अकेला छोड़कर जाना मुनासिब नहीं, इसलिए मैंने आज उन्हें भेज दिया। कल मैं ख़ुद जाऊँगी।”
फिर माँ ने बलाएँ लेकर कहा, “अच्छा अब नहा धो कर कुछ खा पी लो।”
“लेकिन वो कब आएँगी माँ?”
माँ हँसने लगी।
“छोकरिया हैं कौन कह सकता है कब आएँ। मुझे उम्मीद है कि वो शाम से पहले नहीं आएँगी। आज दोपहर का खाना भी वो लंगर ही से खाएँगी।”
जगजीत सिंह ‘उजलत में था। उसने माँ को अपना सारा प्रोग्राम बताया।
माँ कहने लगी, “अब वो तेरे साथ पहाड़ पर नहीं जा सकती।”
“नहीं जा सकती...? क्यों?”
“अहमक़!”, उसकी माँ पुर-मा’नी अंदाज़ में हँसने लगी, “कह जो दिया वो नहीं जा सकती।”
वो कुछ न समझा। लेकिन वो बिला कुछ खाए पिए बीवी की तलाश में निकल खड़ा हुआ।
शादी हुए चार पाँच महीने ही गुज़रे थे। शादी के बा’द वो एक माह के क़रीब अपनी बीवी के साथ रहा। फिर उसे मुलाज़िमत पर जाना पड़ा। अब यही एक मौक़ा’ था। इसके बा’द ना-मा’लूम कब मुलाक़ात हो या न हो। उसे अपनी बीवी से उतनी ही मुहब्बत थी जितनी किसी नौ-‘उम्र जोशीले नौजवान को हो सकती है। उसे उसका ख़ूबसूरत तीखे ख़द्द-ओ-ख़ाल वाला चेहरा ब-ख़ूबी याद था। उसे यक़ीन था कि वो जहाँ कहीं भी होगी, वो उसे पहचान लेगा।
भीड़ में से रस्ता बनाता हुआ वो चला जा रहा था। पहले वो ख़ेमों के ‘आरिज़ी बाज़ार में से इधर-उधर नज़रें दौड़ाता हुआ गुज़र गया। उसकी बीवी चटपटी चीज़ें खाने की बहुत शौक़ीन थी। उसने दूर चाट वाले की दुकान पर चंद ‘औरतों का जमघटा देखा। वो लपक कर वहाँ पहुँचा। ‘औरतों की ख़ासी भीड़ लगी हुई थी। उनमें उसकी बीवी शामिल हो या न हो। अगर वो यूँही नज़र उठा कर किसी ग़ैर-मर्द को देख ले तो वो हाथ धोकर उसके पीछे ही पड़ जाए। चुनाँचे वो दो पैसे के दही बड़े लेकर एक तरफ़ खड़ा हो गया और कनखियों से ‘औरतों का जायज़ा लेने लगा। लेकिन उनमें उसकी बीवी मौजूद न थी।
वहाँ से निकला तो परे मछली बेचने वाले की दुकान नज़र आई। उसे मा’लूम था कि उसकी बीवी मछली के पकौड़े या तली हुई मछली भी बड़ी रग़बत से खाती थी। मुम्किन है वहाँ बैंच पर उँगलियाँ चाटती हुई सी-सी कर रही हो। उसकी बीवी अभी नौ-’उम्र लड़की ही थी। यही सोलह-सतरह का सिन था। बड़ी चंचल और तरह-दार। उसे देख पाएगी तो भला वो किस अंदाज़ से मुस्कुराने लगेगी। वो भागा-भागा पहुँचा। लेकिन उसकी बीवी उस जगह भी मौजूद न थी। इसी तरह भागम-भाग उसकी पगड़ी भी ढीली हो गई। गर्दन की जिल्द सुर्ख़ हो गई।
बड़े गुरूद्वारे के इर्द-गिर्द दूर तक ‘अलैहिदा-‘अलैहिदा शामियानों के नीचे दीवान लगे हुए थे। उन दीवानों में मर्द भी शामिल थे ‘औरतें भी। उसने सोचा मुम्किन है वो किसी दीवान ही में बैठी हो। वो भागा-भागा एक दीवान में घुस गया। स्टेज पर नई रोशनी का एक सिख जैंटलमैन खड़ा हुआ था। वो सिख क़ौम के किसी मसअले पर जदीद रोशनी में बहस कर रहा था। वो एक छोटे से क़द का मुख़्तसर-सा आदमी था। अगरचे वो बड़े जोश में बोल रहा था लेकिन ये बात रोज़-ए-रौशन की तरह ‘अयाँ थी कि देहातों से आए हुए अक्खड़ सिख उसके लेक्चर में ख़ास दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। उसकी कमज़ोर पतली-पतली बाहें और छोटी-छोटी कसी हुई मुट्ठियाँ, उसकी बारीक ज़नाना आवाज़ और फिर उसकी उर्दू मिली पंजाबी बोली या पंजाबी मिली उर्दू सोने पे सुहागा का काम कर रही थी।
“मैं आप नूँ यक़ीन दिलाता हूँ। बल्कि हम ऐसी बात पर मजबूर हो गए हैं। असी ये नतीजा निकालन में हक़-ब-जानिब हैं कि सिख क़ौम बड़ी बहादुर क़ौम थी और हुन भी है, लेकिन सुख राजनीति के मु’आमले विच कोरे ही हैं। सियासत में कोई टावाँ-टावाँ आदमी समझदार भी नज़र आ जांदा है पर इस बात की पंथ नूँ हमेशा ही कमी रहंदी है... जे आप बघेल सिंह की गल पर ग़ौर करो। बघेल सिंह ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लीता। दिल्ली पर पंथ का निशान लहराँ लग पिया। तो ख़ालिसा साहिबो! दीवाली के दिन आ गए। सब सिखों ने कहा कि एस दीवाली अमृतसर मनावनी है जी। इस गल नूँ सुनकर बघेल सिंह जी बोले, ख़ालिसा जी बात हम स्वीकार करते हैं। हुन ख़ालिसा जी अमृतसर जी की तरफ़ कूच कर दियो। उस वक़्त किसे ने कहियो, सरदार साहिब दिल्ली दा क्या बनेगा? सरदार बघेल जी कहन लगे, फिर फ़त्ह कर लेंगे। तो जी जयकारे बुलांदे और वापिस अमृतसर आन धमके...”
जगजीत सिंह उचक-उचक कर ‘औरतों की तरफ़ देखता रहा। उसे अपनी बीवी कहीं भी नज़र न आई। बेचारा बहुत परेशान था। वहाँ से हट कर भीड़ में धक्के खाता हुआ चला जा रहा था। कोई ‘औरत उसकी नज़र से न बचती थी। वो और एक दीवान में जा निकला। वहाँ भी लेक्चर हो रहा था। ये लेक्चर देने वाले सरदार साहिब ख़ूब लंबा सा लठ हाथ में थामे हुए थे। वो बड़े जोश में बोल रहे थे। उनकी आवाज़ गरजदार थी और सूरत से रौ’ब टपकता था। उसने अपने मुँह के दहाने के आगे से अपनी घनी और बड़ी-बड़ी मूँछें हाथ से हटाते हुए कहा।
“पंथ जियो! मुझे एक बड़े विद्वान प्रोफ़ैसर ने ये बात बताई थी। वो कहते थे कि हिन्दोस्तान की हिस्ट्रियाँ लिखने वाले सब अंग्रेज़ मुसन्निफ़ इस बात को तस्लीम करते हैं कि उस ज़माने में उन्हें मशरिक़ में सबसे सख़्त दुश्मन सिख ही मिले थे। ये बात कट्टर से कट्टर अंग्रेज़ भी तस्लीम करते हैं... आख़िर ये जोश और ताक़त सिखों में कहाँ से आ गई? ये श्री गुरु कलग़ीधर का भरा हुआ जोश है और ये सब श्री गुरू अर्जुन देव जी महाराज की क़ुर्बानियों का नतीजा है... मैं आपको एक मज़े की बात सुनाता हूँ।”, ये कह कर वो ज़रा ज़ोर के साथ खाँसा।
जगजीत सिंह ‘औरतों के झुरमुट के क़रीब चला गया, “ये महाराजा रणजीत सिंह के ज़माने की बात है। उस वक़्त महाराजा जी के जरनैल हरी सिंह नलवे की धूम मची हुई थी। ये वही नलवा था जिसने काबुल क़ंधार तक सिखों की तलवार का सिक्का बिठा दिया था... पठान माएँ अपने रोते हुए बच्चों को उसका नाम लेकर चुप कराती थीं। उन्हीं दिनों की बात है कि अंग्रेज़ों ने कलकत्ता में एक कान्फ़्रैंस बुलाई। उसमें हिन्दोस्तान के बड़े-बड़े हुक्मराँ या उनके नुमाइंदे भी मदऊ’ किए गए। महाराजा रणजीत सिंह ने नलवे को रवाना कर दिया। जिस दिन पहली मीटिंग होने वाली थी सरदार हरी सिंह नलवा वक़्त से कुछ पहले ही वहाँ जाकर बैठ गए। हरी सिंह बहुत भारी डील-डौल वाला शख़्स था। सूरत ऐसी हैबतनाक और पुर-जलाल थी कि देखकर दिल थर्रा जाता था। आँखों में ऐसी तेज़ी थी कि कोई शख़्स उससे आँख नहीं मिला सकता था।
ख़ैर इस मीटिंग में सभी लोग जम’ होने शुरू’ हो गए। जो कोई नलवे को देखता हैरत से उसकी आँखें खुली की खुली रह जातीं। मीटिंग की कारवाई का वक़्त आन पहुँचा लेकिन हाज़िरीन को जैसे साँप सूँघ गया हो। हर तरफ़ ख़ामोशी तारी थी। हरी सिंह नलवा कुछ देर तक तो मुंतज़िर रहे फिर वो कुछ बुरा मान गए और उसी दिन पंजाब की तरफ़ रवाना हो पड़े और लाहौर पहुँच कर महाराज से इस बात की शिकायत की। महाराज ने उसी वक़्त अंग्रेज़ों को चिट्ठी लिखी कि आप लोगों ने हमारे नुमाइंदे की तज़हीक की है। वो आपकी कान्फ़्रैंस में शामिल हुआ और सब चुप-चाप बैठे रहे। इस बात पर अंग्रेज़ों ने जवाब दिया कि हम मु’आफ़ी के ख़्वास्तगार हैं लेकिन हम लाचार थे। आपके जरनैल का दबदबा ही कुछ ऐसा था कि यहाँ पर किसी को ज़बान हिलाने की जुरअत तक न हुई। सब मैंबरान यही सोचते रह गए कि मुम्किन है वो कोई बात कहीं जो नलवे को पसंद न आए और वो ख़फ़ा हो जाए... सो ये था हमारे जरनैल हरी...”
जगजीत सिंह आगे बढ़ गया। गर्मियों के दिन थे। उसने सुब्ह से कुछ खाया पिया भी नहीं था। उसका ख़याल था कि वो जल्दी से अपनी बीवी को ढूँढ कर ले आएगा। फिर वो नहा धो कर खाना खाएगा और उसकी बीवी भी शाम तक तैयारी कर लेगी। अगर इस तरह ढूँडते-ढूँडते ही शाम हो गई तो वो आज न जा सकेंगे। जिसके मा’नी हैं एक दिन ज़ाए’ हो जाएगा। ये सोच कर वो और भी सरगर्मी से बीवी की तलाश करने लगा। उसकी परेशानी देखकर कोई सेवादार पूछ बैठता, “क्यों सरदार जी ख़ैरियत तो है। कोई बच्चा-वच्चा तो नहीं खो गया।”
वो मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाता। वाक़’ई इतने बड़े मेले में बीवी को तलाश करना बहुत मुश्किल था।
परे घास के टुकड़े पर दरख़्त की छाँव तले रंग-बिरंग के कपड़ों वाली ‘औरतें बैठी थीं। उसे कुछ इस क़िस्म का धोका हुआ जैसे उसकी बीवी भी उन्हीं में शामिल हो। वो बड़ी उम्मीदों के साथ वहाँ पहुँचा। लेकिन मायूस आना पड़ा। कई तरह-दार बाँकी ‘औरतों को पीछे से देखकर उसे शक गुज़रता मुम्किन है ये मेरी बीवी ही हो। मगर जब क़रीब पहुँच कर उनकी तरफ़ देखता तो शर्मिंदा होना पड़ता। उधर वो ‘औरतें अपनी ख़ूबसूरत आँखें एक मर्तबा तो हैरत से उसके चेहरे पर गाड़ देतीं। फिर वो जल्दी से मुँह फेर कर चल देतीं।
एक और बड़े मजमे’ में बहुत ‘औरतें बैठी दिखाई दें। वो ख़ुद लंबे क़द का शख़्स था। लेकिन उसके आगे खड़े हुए तुर्रा-बाज़ सिख नौजवानों की पगड़ियों के फैले हुए कलग़े उसके रास्ते में हाइल हो जाते थे। वो भी मजमे’ में घुस कर खड़ा हो गया। यहाँ ढड सारंगी वालों ने समाँ बाँध रखा था। ढड छोटी ढोलक सी होती है जिसे एक हाथ में पकड़ कर दूसरे हाथ की उँगलियों से उसे बजाया जाता है। उसके साथ सितार बजता है। ये दोनों साज़ रज़्मिया और जोशीले गानों के लिए मख़्सूस हैं। सबसे ज़ियादा भीड़ उसी जगह थी। ‘औरतों की ता’दाद भी बहुत ज़ियादा थी। जगजीत सिंह को पूरा यक़ीन था कि उसकी बीवी उस जगह ज़रूर मिल जाएगी।
वो कुछ आगे बढ़ा फिर रुक गया। उसने सोचा कि अगर उसने ज़ियादा धमाचौकड़ी मचाई तो लोग उसे निकाल बाहर करेंगे। वो ऐसे ज़ाविए पर खड़ा होना चाहता था जहाँ से वो ‘औरतों को ब-ख़ूबी देख सके। वो कुछ देर के लिए ढड सारंगी वालों के गीत सुनने के लिए खड़ा हो गया। वो ता’दाद में तीन थे। तीनों शख़्स ख़ूब पले हुए भैंसों की तरह मोटे ताज़े थे। रंग ताँबे के मानिंद सुर्ख़। गर्दन की रगें फूली हुईं। जोश में बिफरे हुए शेरों की तरह दिखाई देते थे। उस वक़्त वो मशहूर शा’इर शाह मुहम्मद की लिखी हुई रज़्मिया नज़्म सुना रहे थे। उस नज़्म में शाह मुहम्मद ने बड़े पुर-जोश अंदाज़ में सिखों और अंग्रेज़ों की लड़ाई का हाल बयान किया है।
उन तीन अश्ख़ास में से एक के हाथ में सितार था और दो के हाथ में ढड की धपा-धप की आवाज़ के साथ उनके हाथ और सर भी हिल रहे थे। हाज़िरीन बैठे झूम रहे थे। ढड वालों में एक शख़्स कभी नस्र में जंग का नक़्शा खींचता और फिर कोई बोल वो तीनों हम-आवाज़ हो कर एक साथ पुर-जोश अंदाज़ में गाने लगते।
“साहिबाँ ये एक ग़लत बात है कि महाराजा रणजीत सिंह की वफ़ात के बा’द सिखों ने जंग का आग़ाज़ किया। हक़ीक़त ये है कि ख़ुद अंग्रेज़ों की निय्यत ख़राब थी। उन्होंने रिश्वत देकर चंद सिख सरदारों को अपने साथ मिला लिया था। मजबूरन सिखों को भी लड़ना पड़ा। ये अंग्रेज़ों की ख़ुश-क़िस्मती थी उस वक़्त सिखों का कोई रहनुमा न था। अगर ये लड़ाई महाराजा शेर-ए-पंजाब की ज़िंदगी में शुरू’ हो गई होती तो यक़ीनन आज हिन्दोस्तान की तारीख़ कुछ और ही होती। एक तरफ़ फ़िरंगियों ने कुछ ऐसे हालात पैदा कर दिए कि सिखों के लिए जंग ना-गुज़ीर हो गई और जब सिख मरने या मारने पर तैयार हो गए तो अंग्रेज़ों ने चाहा कि तूफ़ान थम जाए। चुनाँचे शाह मुहम्मद फ़रमाते हैं :
चिट्ठी लिखी फ़िरंगियाँ खालसे नूँ
तुसी कास नूँ जंग मचौनें ओ
(अंग्रेज़ों ने सिखों को चिट्ठी लिखी कि आप जंग क्यों छेड़ रहे हैं)
होर दिए जो नस फ़रमांदे ओ
(हमसे लाखों रुपया ले जाओ और इसके ‘‘इलावा जो कुछ आप तलब करें हम देने को तैयार हैं)
जगजीत सिंह मायूस हो कर मजमे’ से बाहर निकल आया। अब कोई चारा बाक़ी न रहा था। उसके होंट ख़ुश्क हो रहे थे। पसीना इस क़दर ज़ियादा आया था कि उसकी बग़लों में उसका ख़ाकी कोट तक भीग गया था। पेट पीठ से जा लगा था। शिद्दत की प्यास महसूस हो रही थी। उसे अपनी बीवी पर सख़्त ग़ुस्सा आने लगा। ना-मा’लूम कम्बख़्त कहाँ छुप कर बैठ रही है। उसका सारा प्रोग्राम दरहम-बरहम हुआ जा रहा था... उसने सबील से दूध की कच्ची लस्सी पी और लाहौर के क़िले’ की दीवार से पीठ लगा कर खड़ा हो गया। उसकी टांगें शल हो गई थीं। वो ज़ियादा देर तक खड़ा न रह सका। इस क़दर शोर-ओ-ग़ुल और धक्कम-धक्के में वो भूका प्यासा सुब्ह से घूम रहा था। उसने सोचा कि कहीं लेट कर कमर सीधी कर ले।
ये सोच कर वो मेले से ज़रा हट कर एक दरख़्त की तरफ़ बढ़ा। बरगद के फैले हुए दरख़्त के नीचे गाँव से आई हुई ‘औरतें बैल-गाड़ियों के नीचे बैठी हुई रोटियाँ खा रही थीं। वो मायूस थका हारा क़दम बढ़ाए चला जा रहा था कि इतने में एक लड़की भागती हुई उनके सामने आन खड़ी हुई... उसने आँखें उठाईं... अरे उसकी छोटी बहन...
“सत्तू-सत्तू तुम लोगों को सुब्ह से ढूँढ रहा हूँ। कहाँ बैठी हो तुम लोग?”, बहन ने उँगली से दूर इशारा किया। वो उसके साथ चल दिया और वहाँ उसकी दूसरी बहन और बीवी साहिबा भी बिराजमान थीं। बीवी हस्ब-ए-मा’मूल चटोरी बिल्ली की तरह अपने सामने कई चटपटी चीज़ें रखे पूरियाँ खाने में मसरूफ़ थी। दोनों की नज़रें मिलें तो बीवी दिल-फ़रेब अंदाज़ से मुस्कुरा कर शर्मा गई। कितनी मेहनत के बा’द बीवी की सूरत नज़र आई थी। वो पहले की तरह साँवली सलोनी ही थी। सुर्ख़-रंग की शलवार और तंग सी क़मीस पहने हुए जिसमें उसकी छातियों की उभरी हुई गोलाइयाँ साफ़ नज़र आ रही थीं। उसका जिस्म पहले ही की तरह जाज़िब था...
जगजीत सिंह उनके पास बैठ गया और दो तीन पूरियाँ भी खा लीं और साथ ही साथ अपना रोना भी रोता गया। बीवी बोली, “आख़िर में कहीं गुम तो न हो जाती, आप घर ही पर क्यों न बैठे रहे... इस क़दर धूप में... ख़्वाह-मख़ाह।”
उसने बहनों की नज़रें बचा कर उसकी बग़ल में चुटकी ले ली और वो बल खा कर परे सरक गई। उसने बताया कि वो दोनों शिमला को जाने वाले थे। उसकी बीवी हैरान रह गई। उसके मुँह का निवाला मुँह ही में रह गया। हल्क़ से उतरा ही नहीं। बड़ी ख़ुशी हुई। वो जानता था कि उसकी बीवी कितनी ख़ुश होगी।
वो लोग जल्दी से मेले को ख़ैर-बाद कह कर घर आए। आते ही उसकी बीवी ने सामान बाँधना शुरू’ कर दिया। माँ ने कहा वो तेरे साथ कैसे जा सकती है। एक तू तुम अहमक़ हो और तुमसे ज़ियादा वो अहमक़ है जो झट तुम्हारे साथ चलने पर आमादा हो गई।”
उधर उसकी बहनें भी वावैला करने लगीं कि वो भी चलेंगी। नहीं तो भाबी को भी न जाने देंगी। ये नया झंझट आन पड़ा।
उसने माँ से कहा, “आख़िर हर्ज ही क्या है। पहाड़ पर चली जाएगी तो इसकी सेहत और अच्छी हो जाएगी।”
इस पर उसकी माँ ने नाक चढ़ा कर कहा, “बाहेगुरू, बाहेगुरू, लैफ़्टीनैंट बन गया है पर इतनी ‘अक़्ल भी नहीं सर में...”
फिर वो उसे घर के एक कोने में ले गई और उसके कान में खुसर-फुसर करने लगी। जगजीत सिंह की आँखें फैल गईं। उसके मुँह से मसर्रत की हल्की सी चीख़ निकल गई। उसकी बीवी हामिला थी।
उसने माँ को बाज़ुओं में जकड़ कर ऊपर उठा लिया, “उफ़्फ़ुह! मेरी अच्छी माँ... मेरी बहुत ही अच्छी माँ... बोल तो किस चीज़ से मुँह मीठा करेगी।”
माँ ख़ुशी से फूल कर कुप्पा हो गई। बोली, “अरे पगले मुँह तो मीठा कर ही लूँगी, तू ये बता कि मेरा मतलब भी समझ गया कि मैं क्यों तुझे उसे साथ ले जाने से मना’ करती थी।”
“लेकिन माँ इससे क्या होता है। वो चलेगी मेरे साथ, अच्छा हुआ जो तूने बता दिया। मैं उसका सब ख़याल रखूँगा... मैं सब कुछ समझता हूँ।”
माँ बिगड़ गई, “फिर वही मुर्गे की एक टाँग। जब मैंने कह दिया नहीं जाएगी।”
“क्यों माँ क्यों नहीं जाएगी?”
“नहीं जाएगी। हज़ार बार लाख बार कह दिया नहीं जाएगी।”
ये नई मुश्किल आन पड़ी। उसने मिन्नत कर के कहा, “माँ आख़िर तुझे हो क्या गया है।”
“अरे जाहिल, होश के दवा ले। ‘औरत के पेट में बच्चा हो और पहाड़ों पर क़ुलाँचें भरती फिरे। तेरी ‘अक़्ल घास चरने गई है क्या।”
वो आगे बढ़कर माँ को समझाने लगा, “माँ धीरज कर के मेरी बात भी तो सुन... तीन चार महीने का बच्चा तो है ही। इसमें परेशानी की बात क्या है?”
इस पर माँ झुँझला कर कुछ कहने ही वाली थी कि उसने उसका मुँह-बंद कर के कहा, “मेरी बात तो सुन ले पहले। मुझे ये बता कि तू पहाड़ को समझती क्या है। वहाँ हमवार सड़कें होती हैं। फिर हर क़िस्म की सवारी मसलन रिक्शा-डांडी वग़ैरह। भला मैं उसे पैदल घुमाऊँगा। तूने भी मुझे ऐसा ही बेवक़ूफ़ समझा है। मैं तुझसे वा’दा करता हूँ कि अगर दस क़दम भी जाना होगा तो मैं उसे रिक्शा पर बिठा ले जाऊँगा।”
अनपढ़ माँ ने रोनी आवाज़ में कहा, “अरे बेटा रिक्शा क्या होती है। मैंने तो आज ही नाम सुना है। क्यों बनाता है मुझे...”
जगजीत सिंह ने माँ को समझाने में अपनी सारी क़ाबिलिय्यत सर्फ़ कर दी। माँ बड़ी मुश्किल से रज़ामंद तो हो गई लेकिन उसके दिमाग़ में अब भी वही ख़याल बैठा हुआ था कि बेटा ग़लती कर रहा है। माँ से जान छूटी और सामान बँधने लगा तो बहनें बिसूरने लगीं। आज उसे बहनों पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। उन्हें इतनी ता’लीम भी नहीं दी गई कि अगर मियाँ बीवी किसी जगह तफ़रीह के लिए जा रहे हों तो दूसरों को ख़्वाह-मख़ाह इसमें अपनी टाँग न अड़ानी चाहिए। वो बहनों को कुछ कह नहीं सकता था। लेकिन इस मौक़े’ पर इसकी माँ ने दोनों लड़कियों को झाड़कर बिठा दिया, “ख़बरदार चोटी काट कर फेंक दूँगी अगर तुम में से किसी ने साथ जाने का नाम भी लिया तो।”
अब बहनें भाई की तरफ़ देखने लगीं। भाई ने सर और आँखों के इशारे से ज़ाहिर किया कि अब वो क्या कर सकता था। बेचारी सीधी-सादी बहनें समझती रहें कि भैया बेचारा तो उन्हें ले जाने के लिए तैयार था। माँ ने नहीं जाने दिया। इन सब बातों से फ़राग़त पाकर उसने घड़ी देखी तो चार बजे थे। साढ़े आठ बजे गाड़ी रवाना होती थी। अभी काफ़ी वक़्त बाक़ी था। लेकिन वो दिल में डर रहा था कि कहीं कोई नई रुकावट खड़ी न हो जाए। इसलिए उसने नौकर को उसी वक़्त ताँगा लाने के लिए भेज दिया। माँ कहने लगी, “बेटा ऐसी भी किया जल्दी है?”
उसने बहाना किया कि गाड़ी में बहुत थोड़ा वक़्त बाक़ी रह गया है। ताँगा आया और वो जल्दी से सामान रखकर ताँगे में बैठ गए। माँ ने बलाएँ लीं। दोनों को ताँगा चल देने पर भी पुकार-पुकार कर क़ीमती नसीहतें करती रही।
जब घर से दूर चले आए तो वो हाथ जोड़ कर कहने लगा, “भई शुक्र है। हज़ार-हज़ार जान छूट ही गई।” उसकी बीवी हँसकर उसके क़रीब हो गई। उसने बीवी की आँखों में आँखें डाल कर कहा, “अच्छा अब तुम भी मुझसे बातें छिपाने लगीं?”
“मैंने क्या बात छुपाई?”, उसकी बीवी ला-‘इल्मी में आँखें झपका कर बोली। जगजीत सिंह ने पेट की तरफ़ आँख से इशारा किया और वो दोनों हाथों से मुँह छुपा कर रूठ गई, “आप बहुत बे-शर्म हैं और नहीं तो।”
“हो-हो।” जगजीत ने कहा, “तुम रूठ गईं। भई तुम्हें मना लेना क्या मुश्किल है। अभी दो पैसे के गोलगप्पे खिला दूँ तो ख़ुश हो जाओगी।”
इस पर उसकी बीवी उँगलियों के बीच में से देख देखकर हँसने लगी।
“अच्छा वाक़’ई बताओ तो क्या खाओगी? दही बड़े, पकौड़े, कुल्फी, रसगुल्ले, आइसक्रीम... बताओ मेरी चटोरी बिल्ली!”
“खाने बैठ जाएँगे तो गाड़ी जो चल देगी।”
“हाहा... आ गईं चकमे में... भई अभी तो बहुत वक़्त पड़ा है। मैंने यूँही गप उड़ा दी थी। सोचा ज़रा उन लोगों से जान छुड़ा कर भागें।”
वो दोनों एक बहुत बड़े होटल में घुस गए। वो जान-बूझ कर बीवी को इस होटल में ले गया था। अब वो लेफ़्टिनेंट हो गया। वो चाहता था ज़रा बीवी भी उसकी शान देख ले। वो एक ‘अलैहिदा बॉक्स में बैठ गए। उसकी बीवी के तर-ओ-ताज़ा हसीन चेहरे पर हैरत के आसार किस क़दर भले मा’लूम होते थे। पहले भी उसने होटलों में खाना खाया था लेकिन ऐसे शानदार होटल में आने का इत्तिफ़ाक़ ना हुआ था। जगजीत सिंह ने बटन दबाया। घंटी बजी। बैरा हाज़िर हुआ। उसने आर्डर दिया। आज वो बहुत ख़ुश था। अपनी महबूब बीवी के साथ न पहले कभी अकेले सफ़र किया था, न वो कभी अकेले किसी मुक़ाम पर जा कर रहे थे। फिर शिमला जैसे मुक़ाम पर वो दोनों किस क़दर लुत्फ़-अंदोज़ होंगे।
मौजूदा लम्हे से लेकर मुकम्मल दो हफ़्तों की छुट्टियाँ ख़त्म होने तक वो एक-एक लम्हा मसर्रत और शादमानी में गुज़ारना चाहता था। आज सुब्ह से वो ‘अजब सरासीमगी में घूमता रहा। वो समझने लगा कि ये भी वाहेगुरू अकाल पुरख की कृपा थी कि उसकी सब मुश्किलात आँख झपकते में दूर हो गईं। खाना आया और वो आपस में बातें करने लगे। उसकी बीवी की शीरीं आवाज़ उसके कानों में अमृत टपकाती थी। वो भी तो अज़-हद ख़ुश थी। मैना की तरह चहक-चहक कर बातें कर रही थी। उसकी तिफ़्लाना हरकतें और भी ज़ियादा मज़ा दे रही थीं।
वो बोली, “क्यों जी हम गुरूद्वारे में ठहरेंगे जाकर?”
“नहीं माई डार्लिंग। हम किसी शानदार होटल में ठहरेंगे। गुरूद्वारे का ना-जायज़ फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए। गुरूद्वारे पर बोझ डालने के बजाए हमें अपने हाथ से वहाँ दान करना चाहिए।”
फिर उसने बीवी को पहाड़ी मुक़ामात की बाबत सब बातें बताईं, “वहाँ मकानात ऊपर तले बने हुए होते हैं। जब बारिश होती है तो वहाँ हमारे शहरों की तरह कीचड़ नहीं होती बल्कि पानी फ़ौरन बह जाता है। सड़कें धुल कर साफ़ हो जाती हैं... वहाँ हम ज़मीन से बहुत ऊँचे हो जाएँगे समझी... ये बादल जो आसमान पर नज़र आते हैं। हमारे नीचे नज़र आने लगेंगे... हाँ।”
उसकी बीवी ये बातें सुनकर बहुत हैरान हुई। खाना खाने के बा’द वो दोनों ख़ुश-ख़ुश बातें करते हुए स्टेशन की तरफ़ चल दिए। ताँगे से सामान उतरवा कर क़ुलियों के हवाले किया। अभी गाड़ी जाने में आध घंटा बाक़ी था। उसने सेकंड क्लास के दो टिकट ख़रीद लिए।
जंग की वज्ह से भीड़भाड़ बहुत ज़ियादा थी, इसलिए वो दोनों फ़ौरन प्लेटफार्म की तरफ़ चल दिए। बीवी शौहर के पीछे-पीछे चल रही थी। उसका ताक़तवर और चौड़े चकले जिस्म वाला ख़ाविंद उसकी रहनुमाई कर रहा था। गाड़ी ठसा-ठस भरी हुई थी। सेकंड क्लास के सिर्फ़ एक डिब्बा में एक अंग्रेज़ के सिवा और कोई नज़र न आता था। जगजीत सिंह दरवाज़ा खोल कर अंदर जाने लगा तो अंग्रेज़ उठकर दरवाज़े पर आन खड़ा हुआ, “किसी और डिब्बे में बैठिए जा कर।”
वो बहुत हैरान हुआ, “और कोई डिब्बा ख़ाली नहीं है।”
“ख़ैर इस डिब्बे में नहीं बैठने दूँगा।”
“क्यों, क्या ये रिज़र्व हो चुका है?”, अंग्रेज़ ने नथुने फला कर कहा, “रिज़र्व ही समझ लो।”
जगजीत सिंह बहुत परेशान हुआ। उसने इधर-उधर देखा, कहीं भी रिज़र्व लिखा हुआ नज़र न आया।
“ये रिज़र्व नहीं है।”, ये कह कर वो अंदर दाख़िल होने लगा, तो साहिब ने फिर रास्ता रोक दिया। इस बात पर कुछ तू-तू मैं-में हो गई। कुछ लोग भी जमा’ हो गए। स्टेशन का बाबू भी आ निकला। जगजीत सिंह ने बाबू को सारी बात समझाई। साहिब ने चिल्ला कर कहा, “मैं इसे अपने डिब्बे में सफ़र करने की इजाज़त नहीं दे सकता।”
बाबू ने कहा स्टेशन मास्टर से कहिए। जगजीत सिंह स्टेशन मास्टर के पास गया। उसने आकर साहिब को समझाया लेकिन साहिब ने सौ सवालों का जवाब एक “नहीं” में दे दिया। पुलिस के कांस्टेबल चुप-चाप इधर-उधर खिसक गए। स्टेशन मास्टर ने सपरिंटेंडेन्ट पुलिस को फ़ोन किया। वो दफ़्तर में नहीं था। उसने भी लाचारी ज़ाहिर की। आख़िर हो भी क्या सकता था। गाड़ी चलने में अभी पाँच मिनट बाक़ी रह गए थे। जगजीत सिंह प्लेटफार्म पर खड़ा था। क़ुली सामान ज़मीन पर रखे चुप-चाप बैठे थे। उसकी सुर्मगीं आँखों वाली बीवी सरासीमगी से उसकी तरफ़ देख रही थी। साहिब खिड़की के क़रीब बैठा इत्मीनान से चुरट पी रहा था।
मादर-ए-वतन के सीने पर मादर-ए-वतन की रेल-गाड़ी खड़ी थी और मादर-ए-वतन के एक बेटे को इस सर-ज़मीन से हज़ार-हा मील पर रहने वाला अजनबी गाड़ी के अंदर दाख़िल नहीं होने देता था। उसका ये जायज़ हक़ कोई क़ानून वापिस न दिला सकता था। जगजीत सिंह का जिस्म तंग वर्दी में जकड़न सी महसूस करने लगा... दफ़’अतन उसने क़ुलियों को सामान उठाने के लिए कहा और बीवी को साथ लेकर गाड़ी के उसी डिब्बे की तरफ़ बढ़ा। पेशतर इसके कि साहिब उठकर उसका रास्ता रोके वो फुर्ती से दरवाज़ा खोल कर अंदर दाख़िल हो गया। साहिब की गर्दन पकड़ी और उसकी टाँगों में हाथ दिया और उछाल कर प्लेटफार्म पर फेंक दिया। बीवी का हाथ पकड़ा। उसे सीट पर बिठाया। क़ुली सामान लेकर अंदर आ गए और उसने साहिब का सामान उठा-उठा कर प्लेटफार्म पर फेंकना शुरू’ कर दिया।
साहिब गाड़ी की तरफ़ लपका। जगजीत सिंह ने गाड़ी से नीचे उतर कर उसे रास्ता ही में जा लिया।
उसके गंदुम-गूँ हाथों की गिरफ़्त में साहिब की टाई आ गई और दूसरे फ़ौलादी हाथों में दो ज़न्नाटे के थप्पड़ उसके मुँह पर पड़े। साहब की बत्तीसी हिल गई और उसे दिन में तारे नज़र आने लगे। वो थप्पड़ खा कर लड़खड़ाता हुआ पीछे की तरफ़ अपने खुले सूटकेस में जा धँसा... इस कशमकश में उसके सर से हैट गिर कर जो लुढका तो एक बाज़ारी कुत्ता उसे मुँह में दाब कर ले भागा।
इसके बा’द साहिब को आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई। जूँही जगजीत सिंह ने पाएदान पर पाँव रखा, गाड़ी चल दी।
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