हिन्दुस्तान से एक ख़त
स्टोरीलाइन
आज़ादी अपने साथ केवल विभाजन ही नहीं बर्बादी और तबाही भी लाई थी। ‘हिंदुस्तान से एक ख़त’ ऐसे ही एक तबाह-ओ-बर्बाद ख़ानदान की कहानी है, जो भारत की तरह (हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) खु़द भी तीनों हिस्सों में तक़्सीम हो गया है। उसी ख़ानदान का एक फ़र्द पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदार को यह ख़त लिखता है, जो महज़ ख़त नहीं, बल्कि दास्तान है एक ख़ानदान के टूटने और टूटकर बिखर जाने की।
अज़ीज़ अज़ जान, सआदत-ओ-इक़बाल निशान, बरखु़र्दार कामरान तूला-उरुहू, बाद दुआ और तमन्ना-ए-दीदार के ये वाज़ेह हो कि ये ज़माना ख़ैरियत तुम्हारी न मालूम होने की वजह से बहुत बेचैनी में गुज़रा। मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से ख़ैरियत भेजने और ख़ैरियत मंगाने की कोशिश की मगर बेसूद।
एक चिट्ठी लिख कर इब्राहीम के बेटे यूसुफ़ को भेजी और ताकीद की, कि उसे फ़ौरन कराची के पते पर भेजो और उधर से जो चिट्ठी आए मुझे ब वापसी-ए-डाक रवाना करो। तुम्हें पता होगा कि वो कुवैत में है और अच्छी कमाई कर रहा है। बस इसी में वो अपनी औक़ात को भूल गया और पलट कर लिखा ही नहीं कि चिट्ठी भेजी या नहीं भेजी, और उधर से जवाब आया या नहीं आया।
शेख़ सिद्दीक़ हसन ख़ाँ का बेटा लंदन जा रहा है तो उसे भी मैंने एक ख़त लिख कर दिया था कि उसे कराची के लिए लिफ़ाफ़े में बंद करके लंदन के लैटर-बॉक्स में डाल देना। उस हरामख़ोर ने भी कुछ पता न दिया कि ख़त उसने भेजा या न भेजा।
सबसे ज़्यादा तशवीश इमरान मियाँ की तरफ़ से रही के वो वहाँ पहुँचे या नहीं पहुँचे। पहुँचे तो किसी तौर, तो उन्हें अपनी ख़ैरियत का ख़त भिजवाना था। अहवाल ये है कि इमरान मियाँ उधर से गुज़रे थे। ये जंग के दो सवा दो माह बाद की बात है। ये समझ लो कि वो गुलाबी जाड़ा था। मैं अपना पलंग कमरे से दालान में ले आया था। रात गए दस्तक हुई। मैं परेशान हुआ कि इलाही ख़ैर। इस ग़ैर वक़्त में कौन आया और क्यों आया। जाकर दरवाज़ा खोला। दस्तक देने वाले को सर से पैर तक देखा। हैरान-ओ-परेशान कि ये कौन आ गया है। ख़ून ने ख़ून को पहचाना वरना वहाँ अब पहचानने के लिए कुछ नहीं रह गया था। तब मैंने उसे गले लगाया और कहा कि बेटे हमने तुम्हें इन हालतों तो पाकिस्तान नहीं भेजा था, तुम क्या हाल बनाकर आए हो। मगर मैं फिर अपने कहे पर आप नादिम हुआ। ये क्या कम था कि हमारी अमानत हमें वापिस मिल गई।
बंदे को चाहिए कि हर हाल में शुक्र-ए-ख़ुदा करे। हर्फ़-ए-शिकायत ज़बान पर न लाए कि माबादा कलमा-ए-कुफ़्र बन जाये और कहने वाला मुस्तहिक़-ए-अज़ाब ठहरे। इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान ने इस दुनिया में आने के बाद वो कुछ किया है कि उसके साथ जो भी हो उस पर शिकायत की गुंजाइश नहीं। आदमी बस चुप रहे और जब्बार-ओ-क़ह्हार के किब्र से डरता रहे।
तुम्हारी चची ने इमरान मियाँ को देखा तो हक़ दक़ रह गईं। गले लगाया और बहुत रोईं। मैं तो चुप रहा था मगर वो पूछ बैठीं कि बहू कहाँ हैं? बच्चों को कहाँ छोड़ा? इस पर उस अज़ीज़ की हालत ग़ैर हो गई। मैं और तुम्हारी चची दोनों घबरा गए। फिर एहतियात बरती कि ऐसा कोई हवाला दरमयान में न आए।
इमरान मियाँ यहाँ तीन दिन रहे मगर क्या रहे। न बोलना न हँसना, बस गुम-सुम। तीसरे दिन इमरान मियाँ को ख़्याल आया कि मियाँ जानी की क़ब्र पे चला जाये। मैंने सर पे हाथ फेरा और कहा कि बेटे तुम पच्चीस बरस बाद दादा की क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ोगे। मगर दिन में उस तरफ़ जाना क़रीन-ए-मस्लेहत नहीं। तुम इसी मिट्टी में पैदा हुए हो पहचाने जाओगे। इस पर वो अज़ीज़ ज़हर ख़ंदा हुआ और बोला कि चचा जान मैं घर आने से पहले बस्ती में घूम फिर लिया हूँ। इस मिट्टी ने मुझे नहीं पहचाना। मैंने कहा कि बेटे अब इसी में आफ़ियत है कि ये मिट्टी तुम्हें न पहचाने। ख़ैर तो मैं शाम पड़े इमरान मियाँ को क़ब्रिस्तान ले गया। नई क़ब्रों से मैंने मुतआरफ़ कराया, पुरानी क़ब्रों को उन्होंने ख़ुद पहचान लिया। अंधेरा था इसलिए बाज़ क़ब्रों की शनाख़्त में क़दरे दिक़्क़त पेश आई। मियाँ जानी की क़ब्र पर पहुँच कर इमरान का मन भर आया। मेरी भी आँख भीग गई। वो क़ब्र अब बहुत ख़स्ता हो गई है। सिरहाने खड़ा हुआ हार सिंघार का पेड़ गिर चुका है।
तुम्हें याद होगा कि मियाँ जानी को हार सिंघार का बहुत शौक़ था। उन्होंने बाग़ में बहुत शौक़ से कई पेड़ लगाए थे और उनसे इतने फूल उतरते थे कि साल भर तक घर की बच्चियों के दुपट्टे उनमें रंगे जाते थे और हर दावत पर बिरयानी में डाले जाते थे। फिर भी बच रहते थे। मगर हार सिंघार तवज्जो चाहता है। मैं अकेला किस-किस चीज़ पर तवज्जो दूँ। हार सिंघार का ये आख़िरी पेड़ था जो मियाँ जानी के सिरहाने खड़ा रह गया था। जंग से पहले वाली बरसात में वो भी गिर गया। अब हमारा बाग़ और हमारा क़ब्रिस्तान दोनों हार सिंघार से ख़ाली हैं। रहे नाम अल्लाह का।
बाग़ बचा रह गया तो यही बहुत है। क़ब्रिस्तान से मुत्तसिल होने की बिना पर क़ब्रिस्तान में शुमार हुआ और हाथ से जाते-जाते बच गया। मगर इन सत्ताईस बरसों में इतने पेड़ गिरे हैं और उनके साथ इतनी यादें दफ़्न हो गई हैं कि अब इस बाग़ को भी क़ब्रिस्तान समझाना चाहिए। जो पेड़ बाक़ी रह गए हैं वो गुज़रे दिनों के कुन्बे नज़र आते हैं। बहर-हाल जो बाग़ का हाल है वो इमरान मियाँ देख गए हैं। अगर पहुँच गए होंगे तो बताया होगा। यहाँ से तो वो उसी सुबह को चले गए थे। रात भर मियाँ जानी की क़ब्र के सिरहाने बैठ कर गुज़ार दी, मैं भी बैठा रहा। जब झटपटा हुआ और चिड़ियाँ बोलीं तो वो अज़ीज़ झुरझुरी लेकर उठा और मुझसे रुख़सत चाही। मैंने हैरत से पूछा कि क्यों जा रहे हो? आ गए हो तो रहो। फीके पन से बोला कि यहाँ तो मुझे कोई पहचानता ही नहीं। मैंने कहा कि अज़ीज़ अब न पहचाने जाने ही में आफ़ियत है। मगर वो मेरी बात से क़ाइल नहीं हुआ। सफ़र उस पर सवार था। मैंने पूछा, “मगर बेटे जाओगे कहाँ?” बोला कि जहाँ क़दम ले जाऐंगे। मैंने उसकी बातों से अंदाज़ा लगाया कि काठमांडू जाकर वहाँ से कराची जाने की सूरत निकालने की नीयत है। दिल तो बहुत दुखा मगर कुछ उसका इसरार और कुछ मेरा ये डर कि कहीं ये ख़बर निकल जाये। सो मैंने सब्र किया। अपने बाज़ू से दुआ-ए-नूर खोल कर उसके बाज़ू पर बाँधी और अल्लाह के हिफ़्ज़-ओ-अमान में उसे रुख़सत किया। चलते-चलते ताकीद की थी कि सरहद से निकलते ही जिस तरह भी हो ख़ैरियत की इत्तिला देना। मगर वो दिन है और आज का दिन, ख़ैरियत की ख़बर नहीं मिली।
उधर की ख़बर इधर कम-कम पहुँचती है, और पहुँचती भी है तो इस तरह कि उस पर एतबार करने को जी नहीं चाहता। एक रोज़ शेख़ सिद्दीक़ हसन ने आकर ख़बर सुनाई कि पाकिस्तान में सब सोशलिस्ट हो गए हैं और प्याज़ पाँच रुपय सेर बिकते हैं। ये ख़बर सुनकर दिल बैठ गया मगर फिर मैंने सोचा कि शेख़-साहब पुराने कांग्रेसी हैं, पाकिस्तान के बारे में जो ख़बर सुनाएँगे ऐसी ही सुनाएँगे। उनके बयान पर एतबार न करना चाहिए। चंद ही दिनों बाद एक ऐसी ख़बर सुन ली जिससे बुरी अफ़वाहों की तरदीद हो गई? ख़बर सुनी कि मिरज़ाइयों को ग़ैर-मुस्लिम क़रार दे दिया गया। शेख़ साहब को मैंने ये ख़बर सुनाई तो वो अपना सा मुँह लेकर रह गए। अल्लाह तआला पाकिस्तान पर अपनी रहमत करे और इस क़ौम को इसकी नेकी की जज़ा दे। हम तो कुफ़्रिस्तान में हैं। ग़ैर इस्लामी रसूम-ओ-अत्वार रखते हैं और बोल नहीं सकते। हमारी हवेली के क़रीब ही ग़ैर मुक़ल्लिदों ने अपनी मस्जिद बना ली है। वहाँ वो बुलंद आवाज़ से आमीन कहते हैं और हम चुप रहते हैं।
हाँ शेख़ सिद्दीक़ हसन भी तुम्हारे मुताल्लिक़ भी एक मर्तबा ख़बर लाए, ख़बर सुनाई कि तुमने कोठी बनवाई है। बैठक में सोफ़े बिछे हुए हैं और टेली-विज़न रखा है। ये ख़बर सुनकर ख़ुशी हुई। ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि यहाँ की तलाफ़ी वहाँ हो गई है। यहाँ हवेली का हाल अच्छा नहीं है। पिछली बरसात में झुकी हुई कड़ियाँ और झुक गईं। दीवान-ख़ाने का हाल ये है कि छत की तरफ़ देखो तो आसमान नज़र आता है। हमारी बेकारी और ज़ेर माली का हाल तुम्हें अच्छी तरह मालूम है। तुम कुछ रक़म भेज सको तो मियाँ जानी की क़ब्र की मुरम्मत करा दी जाये और दीवान-ख़ाने की छत पर मिट्टी डलवा दी जाये। इससे ज़्यादा फ़िलहाल करना भी नहीं चाहिए।
हवेली के मुक़द्दमे का ताहाल फ़ैसला नहीं। क़िबला भाई साहब मरहूम ४७-ए-में चलते वक़्त मुक़द्दमे के काग़ज़ात मेरे सपुर्द कर गए थे। अल्हम्दुलिल्लाह कि उस वक़्त से अब तक मैंने सब पेशियाँ कामयाबी में भुगताई हैं और हमेशा लायक़ वकीलों से रुजूअ किया है। ख़ुदा की ज़ात से उम्मीद है कि मुक़द्दमे का फ़ैसला जल्दी होगा और हमारे हक़ में होगा। मगर पैकर-ए-अजल का पता नहीं कि किस रोज़ सर पे आ खड़ा हो। कभी-कभी बहुत फ़िक्रमंद होता हूँ कि मेरे बाद ये मुक़द्दमा कौन लड़ेगा।
जिस तरफ़ नज़र डालता हूँ तारीकी ही तारीकी नज़र आती है। हमारे साहबज़ादे अख़तर के लच्छन ये हैं कि अपना नाम प्रेमी रख लिया है और रेडीयो पर जाकर ड्रामों में पार्ट अदा करता है। छोटे भइया मरहूम की साहबज़ादी खालिदा ने एक हिंदू वकील से शादी कर ली है। अब वो बे-हिजाबी की साड़ी बाँधती है और माथे पे बिंदी लगाती है। पाकिस्तान में जो ख़ानदान का नक़्शा है वो तुम पर मुझसे ज़्यादा रौशन होना चाहिए। सुना था कि आपा जानी की लड़की नर्गिस ने अपनी मर्ज़ी से शादी की है और जिससे की है वो वहाबी है। ख़ुद आपा जानी का अहवाल मैंने ये सुना है कि वो खुले मुँह बेटे की मोटर में बैठती हैं और हज़ारों से मुँह दर मुँह बात करके कपड़ा खरीदती हैं।
ये सब कुछ देखने के लिए एक मैं ही ज़िंदा रह गया हूँ। क़िबला भाई साहब मरहूम और छोटे भइया दोनों अच्छे दिनों में सिधार गए। जब मैं क़ब्रिस्तान जाता हूँ और मियाँ जानी और छोटे भइया की क़ब्रों पर फ़ातिहा पढ़ता हूँ तो क़िबला भाई साहब बहुत याद आते हैं। क्या वक़्त आया है कि अब हम में से कोई जाकर उनकी क़ब्र पर फ़ातिहा भी नहीं पढ़ सकता। जो ख़ानदान एक जगह जिया, एक जगह मरा अब उनकी क़ब्रें तीन क़ब्रिस्तानों में बटी हुई हैं। मैंने क़िबला भाई साहब से मुअद्दबाना अर्ज़ किया था कि अगर आप हमें छोड़ ही रहे हैं तो फिर मुनासिब ये है कि आप कामरान मियाँ के पास कराची जाइए, मगर छोटे बेटे की मुहब्बत उन्हें ढाका ले गई। उनकी बेवक़्त मौत हम सब के लिए बड़ा सदमा थी। मगर अब मैं सोचता हूँ कि उनके जल्दी उठ जाने में भी अल्लाह ताला की मस्लिहत थी। वो नेक रूह थे। क़ुदरत को ये मंज़ूर नहीं था कि वो इबरत-ओ-अज़ीयत के दिन देखने के लिए ज़िंदा रहें। ये दिन तो मुझ गुनहगार को देखने थे।
अब जब कि बड़ों का साया सर से उठ चुका है और हमारा ख़ानदान हिन्दोस्तान और पाकिस्तान और बंगला देश में बंट कर बिखर गया है और मैं लब-ए-गोर बैठा हूँ। सोचता हूँ कि मेरे पास जो अमानत है उसे तुम तक मुंतक़िल कर दूँ कि अब तुम ही इस ख़ानदान के बड़े हो। मगर अब ये अमानत हाफ़िज़े के वास्ते ही से मुंतक़िल की जा सकती है। ख़ानदान की यादगारें मअ शिजरा-ए-नसब के क़िबला भाई साहब अपने हमराह ढाका ले गए थे जहाँ अफ़राद ख़ानदान के ज़ाए हुए वहाँ वो यादगारें भी ज़ाया हो गईं। इमरान मियाँ बिलकुल ख़ाली हाथ आए थे। सबसे बड़ा सानेहा ये हुआ कि हमारा शिजरा-ए-नसब गुम हो गया। हमारे अजदाद ने कि सादत उज़्ज़ाम में से थे, तारीख़ में बहुत मसाइब-ओ-आलाम देखे हैं मगर शिजरे के गुम होने का अलम हमें सहना था। अब हम एक आफ़त ज़दा ख़ानदान हैं जो अपना ठिकाना और शिजरा गुम कर चुका है और इंतिशार का शिकार है। कोई हिन्दोस्तान में खेत हुआ, कोई बंगला देश में गुम हुआ और कोई पाकिस्तान में दर-बदर फिरता है। अक़ीदे में ख़लल पड़ चुका है। ग़ैर इस्लामी तौर अत्वार अपना लिए हैं। दूसरे मज़हबों और फ़िर्क़ों में शादियाँ कर रहे हैं। यही हाल रहा तो थोड़े अरसे में हमारे ख़ानदान की अस्ल-नस्ल बिलकुल ही नाबूद हो जाएगी और कोई ये बताने वाला भी न रहेगा कि हम कौन हैं और क्या हैं।
सो ऐ फ़र्ज़न्द सुन कि हम नजीबुत-तरफ़ैन सय्यद हैं। हज़रत इमाम मूसा काज़िम से हमारा सिलसिला-ए-नसब मिलता है। मगर अल्हम्दुलिल्लाह कि हम राफ़ज़ी नहीं हैं। सहीह-उल-अक़ीदा हनफ़ी मुसलमान हैं। अस्हाब किबार को मानते हैं और अह्ल-ए-बैत से मुहब्बत रखते हैं। मियाँ जानी का तरीक़ चला आता था कि आशूर के दिन रोज़ा रखते और दिन-भर मुसल्ले पे बैठे रहते। हमारे घर में एक तस्बीह थी कि आशूर के दिन अस्र के हंगाम सुर्ख़ हो जाया करती थी। मियाँ जानी बताया करते थे कि ये ख़ास उस मुक़ाम की मिट्टी के दाने हैं जहाँ हमारे जद्द-ए-अमजद सय्यदना हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलात-ओ-वस्सलाम घोड़े से फर्श-ए-ज़मीन पर आए थे। इस तस्बीह के सुर्ख़ होने के साथ वालिद मरहूम का इस्तिग़राक़ बढ़ जाता मगर सीना-कोबी और गिरये से इजतिनाब करते थे कि ये बिदअत है। हाँ खिचड़े की देगें पकती थीं जो ग़ुरबा-ओ-मसाकीन में तक़सीम होती थीं।
तक़सीम के बाद बस एक देग रह गई थी। पिछले बरस हम उस देग से भी गए। क़ुबूली का देगचा पकवाया और ग़ुरबा में बांट दिया। अगले बरस का हाल अल्लाह को मालूम है। महंगाई बढ़ती चली जा रही है और हमारा हाल ख़स्ता होता चला जा रहा है।
बेटे हमें ये तो मालूम है कि पाकिस्तान में प्याज़ अब किस भाव बिक रही है, मगर एक बात सुन लो क़ीमतें चढ़ कर गिरा नहीं करतीं और अख़लाक़ गिर कर सँभला नहीं करते। बस पनाह माँगो उस वक़्त से जब चीज़ों की क़ीमतें चढ़ने लगें और लोगों के अख़लाक़ गिरने लगें। जब ऐसा वक़्त आ जाए तो बंदों को चाहिए कि तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार करें और तिलावत कलाम पाक करें कि आद-ओ-समूद की बस्तियों के ज़िक्र में फ़ह्म रखने वालों के लिए बहुत सी निशानीयाँ हैं।
ख़ैर में ज़िक्र अपने ख़ानदान का कर रहा था। उस ख़ानदान का जिसे मैंने इकट्ठा भी देखा मगर बिखरते हुए ज़्यादा देखा। बयान किया हम तीनों भाईयों से अपने हुज़ूर बिठाकर मियाँ जानी ने कि ख़ुदा उनकी क़ब्र को हार सिंघार की सुगंध से बसाए रखे। वो फ़रमाते थे कि मुझसे बयान किया मेरे वालिद बुजु़र्गवार सय्यद हातिम अली ने उस वक़्त जब कि उनका वक़्त क़रीब आया। फ़रमाया उस जनाब ने कि मुझसे बयान किया मेरे बाप सय्यद रुस्तम अली ने इस तज़किरे के हवाले से कि जिसमें हमारे ख़ानदानी हालात-ए-तमाम-ओ-कमाल दर्ज थे और जो ज़ाए हो गया इस हंगाम जो किए उन्होंने सन सत्तावन में बाईस ख़्वाजा की चौखट को छोड़ा और बरस-बरस ख़ाक-बसर दर-बदर फिरे और हवाले से उन बुज़ुर्गों के बयान करता हूँ मैं तुमसे कि हम अस्ल में इस्फ़िहान की मिट्टी हैं। जब आवारा वतन शहनशाह हुमायूँ ने अपनी सलतनत के हुसूल के लिए उस दरिया में अपना लश्कर आरास्ता किया तो हमारे मूरिस-ए-आला मीर मंसूर मुहद्दिस कि ख़ुरमा फ़रोश थे और इल्म-उल-हदीस का बहर-ए-बे-कराँ थे, इस्फ़िहान निस्फ़ जहाँ से इस फ़लक जनाब के हम-रिकाब हुए और ज़ुल्मत कद-ए-हिंद में पहुँच कर मीनारा-ए-नूर ईमान बने। अकबराबाद में उनका मज़ार आज भी मरजअ ख़लाइक़ है। क़ब्र कच्ची है। कुंवारियाँ मिट्टी उठाकर मांग में डालती हैं जो बरस के अंदर अंदर माँग का सींदूर बन जाती है। ख़ाली गोद ब्याहियाँ मिट्टी आँचल में बांध कर ले जाती हैं और बरस बाद हरी गोद के साथ वापिस आती हैं और चादर चढ़ाती हैं।
शाहजहाँ के अह्द में उस बुज़ुर्ग की औलाद ने अकबराबाद से रख़्त-ए-सफ़र बाँधा और जहानाबाद पहुँची। फिर वहाँ से सन सत्तावन की रुस्ता-ख़ेज़ में निकली। हमारे जद्द-ए-मीर रुस्तम अली ने अपनी दौलत में से दमड़ी साथ न ली बस शिजरा-ए-नसब को पटके के साथ कमर पर मज़बूत बाँधा, काग़ज़ात-ओ-दस्तावेज़ात का पुलंद बग़ल में दबाया और निकल खड़े हुए। उसी पुलंदे में ख़ानदान का तज़किरा भी था। राह में बटमारों से मुक़ाबला हुआ। उस अफ़रा-तफ़री में पुलंदा बिखर गया। कुछ काग़ज़ात गिर गए, कुछ रह गए। गिर जाने वाले काग़ज़ों में तज़किरा भी था। मगर शुक्र सद-शुक्र कि शिजरे का हर्फ़ भी मैला न हुआ।
बहुत ख़ाक छानने के बाद उस बस्ती से कि जहाँ अब अकेला तुम्हारा चचा ख़ाक नशीन है, गुज़र हुआ। यहाँ की ज़मीन को मेहरबान पाकर डेरा किया। जानना चाहिए कि ज़मीन जब मेहरबान होती है तो महबूबा की आग़ोश की तरह नर्म और माँ की गोद के समान कुशादा हो जाती है। जब ना मेहरबान होती है तो जाबिर हाकिम की मिसाल सख़्त और हासिद के दिल की मानिंद तंग हो जाती है। हक़ ये है कि इस ज़मीन ने एक मुद्दत तक हम पर दया की। उसने हमारे बढ़ते-फैलते ख़ानदान को बरस-बरस तक उस तरह अपनी आग़ोश में समेटे रखा जैसे तसर्रुफ़ पसंद माँ बच्चों को सीने से लगाए रखती है और किसी को आँखों से ओझल नहीं होने देती।
तक़सीम से पहले इस ख़ानदान के सिर्फ तीन फ़र्द बाहर निकले थे। भाई अशरफ़ अली, भइया फ़ारूक़ और प्यारे मियाँ। भाई अशरफ़ अली हमारे चचा जानी के बेटे थे और उम्र में क़िबला भाई साहब से एक साल बड़े थे। इस एतबार से तुम्हारे ताया हुए। माशे अल्लाह से डिप्टी कलैक्टर थे और बाहर के अज़ला में तैनात रहते थे। मगर डाली यहीं पहुँचती थी। भइया फ़ारूक़ उनके छोटे भाई थे और मेरे हम उम्र थे। महकमा-ए-जंगलात में थे। उम्र सी पी में गुज़री। हमारी हवेली में लकड़ी का जितना सामान तुमने देखा वो उन्हीं का बनवाया और भिजवाया हुआ था। दोनों भाई फ़ख़्र-ए-ख़ानदान थे। उम्र बाहर गुज़ारी मगर आख़िर में आराम अपनी मिट्टी में आकर किया।
प्यारे मियाँ अपनी फूफी अम्माँ के लाडले बेटे थे। लाड प्यार में ऐसे बिगड़े कि सातों ऐब करने लगे। हमारे ख़ानदान में वो पहले फ़र्द थे जिन्हों ने बायस्कोप देखा। एक दफ़ा में भी उनके कहे में आकर बहक गया। माधुरी को देखकर दिल बहुत बेक़ाबू हुआ। मगर मैंने अपने आपको सँभाला और फिर उस तरफ़ का रुख नहीं किया। प्यारे मियाँ आगे नाटक के मतवाले थे, बायस्कोप शहर में आया तो उसके रसिया बन गए।
“बम्बई की बिल्ली” देखकर सुलोचना पर मर मिटे। एक रोज़ फूफी अम्माँ की सोने की बालियाँ चुराकर घर से निकल गए और सीधे बम्बई पहुँचे। मियाँ जानी ने कहला भेजा कि साहबज़ादे अब इधर का रुख न करना। बम्बई में एक नटनी ने उन्हें झाँसा दिया कि तुम्हें सुलोचना से मिलाऊंगी। सुलोचना से तो न मिलाया, ख़ुद गले पड़ गई। सारी जवानी बम्बई में गुज़ारी। फूफी अम्माँ के मरने की ख़बर पहुँची तो आए। बुढ़ापा आ चुका था। लंबी सफ़ेद दाढ़ी, हाथ में तस्बीह। माँ को बहुत रोए। हम सबने कहा कि अब तुम यहीं रहो। बोले कि मियाँ जानी की इजाज़त के बग़ैर यहाँ कैसे रुक सकता हूँ। मियाँ जानी दुनिया से पहले ही सिधार चुके थे, इजाज़त कौन देता। फिर बम्बई चले गए। आग लग चुकी थी और गाड़ियों में हादिसे हो रहे थे। सबने बहुत समझाया, न माने। गाड़ी में सवार हो गए, मगर बम्बई तो पहुँचे नहीं। जाने रास्ते में उन पर क्या गुज़री।
प्यारे मियाँ हमारे ख़ानदान की तरफ़ से ४७-इ के फ़सादाद में पहली भेंट थे। मैंने आदाद-ओ-शुमार जमा किए हैं। तब से अब तक हमारे ख़ानदान के इकत्तीस अफ़राद अल्लाह को प्यारे हुए। इक्कीस मक़्तूल हुए। नौ तिब्बी मौत मरे। सात को हिंदुओं ने हिन्दोस्तान में शहीद किया। चौदह पाकिस्तान जाकर बिरादरान-ए-इस्लाम के हाथों अल्लाह को अज़ीज़ हुए। उन चौदह में से एक को कराची में अय्यूब ख़ाँ के आदमियों ने इलेक्शन के मौक़े पर मोहतरमा फ़ातिमा जिन्ना की हिमायत करने की पादाश में गोली मार दी। बाक़ी दस अफराद मशरिक़ी पाकिस्तान में हलाक हुए। उन अफ़राद में मैंने इमरान मियाँ को शुमार नहीं किया है। बंदे को अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए। मेरा दिल कहता है कि वो हमारे जिगर का टुकड़ा अगर अभी तक कराची नहीं पहुँचा है, तो काठमाँडू में है। काठमाँडू से याद आया कि भइया फ़ारूक़ का लड़का शराफ़त भी यहाँ से गुज़रा था। ढाका से बच निकला था और काठमाँडू जा रहा था कि रास्ते में यहाँ रुक गया। वो बना बनाया प्यारे मियाँ है। इस सानहे ने उस पर ज़रा जो असर किया हो। जितने दिन यहाँ रहा है, बे-धड़क बायस्कोप देखता रहा। चलने के लिए तैयार हुआ तो काठमाँडू की बजाय बम्बई के लिए बिस्तर बाँधा। मैंने बम्बई जाने का सबब पूछा तो कहा कि वहाँ राजेश खन्ना से मिलूँगा। मैंने कहा कि ऐ बेईमान राजेश खन्ना कौन सा ई बिल्मोरिया डी बिल्मोरिया है जो तू उससे मिलने के लिए बेताब है। मगर उसने मेरी एक कान सुनी और दूसरे कान उड़ाई और बम्बई रवाना हो गया। बाद में उसका लंका से ख़ैरियत का ख़त आया। पता नहीं किन-किन रास्तों पर भटक कर वो वहाँ पहुँचा।
शराफ़त को ज़िंदा देखकर ख़ुदा का शुक्रिया अदा किया। मगर उसके लच्छन देखकर दिल ख़ुश नहीं हुआ। वैसे मैंने जो कुछ सुना है उससे ये ज़ाहिर होता है कि पाकिस्तान में जाकर हमारे ख़ानदान की लड़कीयाँ ज़्यादा आज़ाद हुई हैं।
मैं तो जिस लड़की के मुताल्लिक़ सुनता हूँ, यही सुनता हूँ कि उसने अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली है। हमारे ख़ानदान में तक़सीम से पहले बस एक वाक़ेया ऐसा हुआ था जो ख़ानदान को बदनाम कर सकता था मगर उसे भी ख़ुश-उस्लूबी से दबा दिया गया। छोटी फूफी की छत पर एक रोज़ कनकव्वा आके गिरा। और तुम जानो कि जिस घर में कोई लड़की जवान हो रही हो उस घर की अंगनाई में रोड़े का गिरना और छत पर कन्कव्वे का ख़म खाना कुछ अच्छी अलामत नहीं है। उन दिनों छोटी फूफी की बड़ी लड़की ख़दीजा क़द निकाल रही थी। छोटी फूफी ने इस वाक़ए का ज़िक्र मियाँ जानी से आकर किया। कन्कव्वे के साथ जो रुक़्क़ा छत पर गिरा था वो भी सामने रख दिया। मियाँ जानी आग बगूला हो गए। बहुत गरजे-बरसे कि रज़ा अली के बेटे की ये मजाल कि हमारी छत पे कनकव्वा गिराता है। मगर जब छोटी फूफी ने ऊँच नीच समझाई तो नीचे पड़े। अब इसके सिवा चारा ही क्या था कि उस ओबाश के साथ दो बोल पढ़ाए जाएँ और लड़की को रुख़स्त कर दिया जाये। रज़ा अली साहब तो ख़्वाब में भी नहीं सोच सकते थे कि इस घर की बेटी उनकी बहू बनेगी। तुरंत निकाह पे रज़ामंद हो गए। मगर ऐन वक़्त पर सवाल उठाया कि सबग़ा पढ़ाया जाएगा। मियाँ जानी ख़ून का सा घूँट पी कर रह गए मगर क्या करते, हाँ कर दी। मगर उसका नतीजा क्या हुआ? यही कि ख़दीजा की औलाद आधी तीतर, आधी बटेर है। एक ग्यारहवीं शरीफ़ की नियाज़ दिलाता है तो दूसरा मुहर्रम में अज़ादारी करता है। मगर ख़ैर अब तो हमारा पूरा ख़ानदान ही आधा तीतर, आधा बटेर है और हम सब अज़ादार हैं कि शिजरा हमारा खोया गया और अस्ल-नस्ल का अता-पता ग़ारत हुआ। ख़ानदानों में ये ख़ानदान आगे कैसे पहचाना जाएगा। अब ये ख़ानदान काहे को है, दरख़्त से झड़े हुए पत्ते हैं कि हवा में उड़ते-फिरते हैं और ख़ाक में रुलते-पिलते हैं।
अज़ीज़ अब मैं उड़ते पत्तों का मातम-दार हूँ। उन दिनों को जब ये ख़ानदान बर्ग-ओ-समर से लदा फंदा दरख़्त था, याद करता हूँ और आवारा पत्तों का शुमार करता हूँ। मैंने मरने वालों ही के आदाद-ओ-शुमार जमा नहीं किए हैं जिनका ज़िंदों में शुमार है उनको भी शुमार किया है। सब के नाम पते और कवाइफ़ क़लम-बंद किए हैं। तहक़ीक़ की है कि इस वक़्त कौन अहल-ए-ख़ानदान किस मुल्क में आवारा है और किस नगर में ख़ाक-बसर है। ये इबरत भरा चिट्ठा मैं तुम्हें भेज दूँगा। अपना क्या एतबार कि चराग़-ए-सहरी हूँ। चिराग़ बुझा चाहता है। और आँख बंद हुआ चाहती है। तुम इस सीसा बख़्त ख़ानदान के नए चश्म-ओ-चिराग़ हो। अंधेरे में भटकते हुओं को अगर तुम उजाले में लाने की सई करो तो ये तुम्हारी सआदत मंदी होगी। वैसे तो मुशाहिदे में यही आया है कि तिनके बिखर गए सो बिखर गए। तितर बितर ख़ानदान कभी सिमटते नहीं देखे गए। मगर कोशिश करना इन्सान का फ़र्ज़ है। इस दरमांदा ख़ानदान के सर्व हरे बनो। आवारों की ख़ैर-ख़बर रखो। अब कि रस्ते खुलने लगे हैं, इधर का भी एक फेरा लगा जाओ। अपनी सूरत दिखा जाओ, हमारी सूरत देख जाओ। तुम्हारी चची का तक़ाज़ा है कि दुल्हन को साथ ले कर आओ। हाँ मियाँ अकेले मत चले आना। इस बहाने तुम्हारे बच्चों को भी देख लेंगे कि किस की क्या शक्ल-ओ-सूरत है? कौन गोरा है, कौन काला है? एक बात और, पाकिस्तान जाकर इस ख़ानदान में जो इज़ाफ़ा हुआ है, उसकी तफ़सील मैंने नामों की हद तक क़लम-बंद की है। शक्ल-ओ-सूरत के कवाइफ़ दर्ज नहीं किए जा सकते।
ये ख़ाना तुम ख़ुद पुर कर लेना। इस ढाई पौने तीन साल के अर्से में जो ख़ानदान में कमी बेशी हुई उसका इंदिराज भी ज़रूरी है। तुम ऐसा करो कि इस अर्से में इधर जो गुज़र गए और जो ताज़ा वारिद हुए उनकी तफ़सील मालूम करके मुझे लिक्खो। मैं अलग-अलग कहाँ ख़त लिखूँ। डाक खुली तो है मगर इतनी महंगी कि अब हक़ीर सा पोस्टकार्ड लिखते हुए भी ये लगता है कि तार-ए-बर्क़ी भेज रहे हैं।
ये क्या सुन रहा हूँ कि ख़दीजा की छोटी बेटी ने शौहर से ख़ुला ले लिया है और ख़ानदानी मंसूबा बंदी के दफ़्तर में भर्ती हो गई है। ख़ुद तो काम से गई, दूसरों के वज़ीफ़ा-ए-ज़ौजीयत में खंडित डालती फिरती है।
हाँ मियाँ शिजरा तो खोया गया, अब ये ख़ानदान जो भी करे थोड़ा है। मगर सुनता हूँ दूसरे ख़ानदानों वाले इससे बढ़कर कर रहे हैं। कोई बता रहा था कि इब्राहीम ने आटे में चूरी और चरी पीस-पीस कर एक और मिल बना ली है। और मियाँ फ़ैज़ उद्दीन कि यहाँ फटे हालों फिरते थे काले पैसों से कोठियाँ खड़ी कर ली हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या पाकिस्तान में सब ही ख़ानदानों के शिजरे खो गए? अजब सुम्मा अल-अजब कि हमने दयार-ए-हिंद में सदियाँ बसर कीं, ऐश का ज़माना भी गुज़रा, इदबार के दिन भी देखे। उसकी शान के क़ुर्बान, हुकूमतें भी कीं, मह्कूम भी रहे मगर शिजरा हर हाल में हर्ज़-ए-जान रहा। फिर उधर लोगों ने पाओ सदी में अपने शिजरे गुम कर दिए। ख़ैर ख़ुश रहें।
क्या-क्या लिखूँ, लिखने को बहुत है, मगर तुम इस कम लिखे को बहुत जानो, अपनी ख़ैरियत भेजो। आने की इत्तिला दो। रुक़्क़ा तमाम करता हूँ कि अब नमाज़ का वक़्त हो रहा है और इसके बाद मुक़द्दमे के काग़ज़ात तरतीब देने हैं। कल फिर पेशी है। ये चार-सौ स्ताईसवीं पेशी है। इंशाअल्लाह उल-अज़ीज़ ये भी ख़ुश-उस्लूबी से भुगताई जाएगी। शायद मैं इन्हीं पेशियों के लिए ज़िंदा हूँ वर्ना अब तुम्हारे बूढ़े चचा में कुछ बाक़ी नहीं रह गया है हत्ता कि जीने की ख़्वाहिश भी बाक़ी नहीं। दुनिया में आकर बहुत कुछ देखा। जो न देखना था वो भी देखा। कहीं जल्दी आँख बंद हो कर वो देखें जो देखने की मुद्दत-उल-उम्र से आरज़ू है।
तुम्हारा दूर उफ़्तादा चचा
गुमनाम क़ुर्बान अली
मौरिर्ख़ा २८ रमज़ान उल-मुबारक १३९४ह
मुताबिक़ १५अक्तूबर १९७४-ई-
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