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होटल सिलाज़ार

अतिया सय्यद

होटल सिलाज़ार

अतिया सय्यद

MORE BYअतिया सय्यद

    वाशिंगटन स्क्वायर के जुनूब मशरिक़ी कोने से जो सड़क फूटती है, उस पर चंद फ़र्लांग के फ़ासले पर होटल सिलाज़ार वाक़ा है। ये इस सदी के अवाइल के तर्ज़ तामीर का नमूना, एक सादा, बेरंग इमारत है जिसकी दीवारें मुसलसल बारिशों से काई ज़दा हैं। इस का ऊपर वाला हिस्सा काले सियाह रंग का है। सुना है कि ये बीस बरस पहले आग की लपेट में गया था। जाने क्यों, इसे उसी रंग में महफ़ूज़ कर दिया गया और अब ये ख़स्ताहाल सुरमई आख़िरी मंज़िल अपनी अंधी आँखों से इर्दगिर्द की जदीद तर इमारतों में क़दामत की इन्फ़िरादियत लिये, राहगीरों की तवज्जो खींचती है।

    होटल की तंग डेयुढ़ी में दाख़िल होते ही दाईं जानिब लकड़ी का तंग ज़ीना गुज़रे वक़्तों की याद दिलाता है। बाएं जानिब इस्तिक़बालिया (Reception) का लकड़ी से बना डिब्बा नुमा कमरा है जिसकी खिड़की ड्योढ़ी में खुलती है। उस खिड़की में हर वक़्त या तो लहीम शहीम हब्शी मेहमानदार (Receptionist) या मोटी तोंद वाला ब्राज़ीलियन मैनेजर बिराजमान रहता है। ज़ीने और इस लकड़ी से बने डिब्बा नुमा कमरे के दरमियान एक नन्ही मिनी लिफ़्ट मौजूद है। अगर कोई चीज़ होटल की गुज़शता घटिया शान-ओ-शौकत की याद दिलाती है तो वो होटल की यही लिफ़्ट है जिसकी अंदरूनी दीवारों पर स्याही माइल कलेजी रंग वेलवेट मंढी है। लिफ़्ट की तीन दीवारों पर क़द-ए-आदम आईने भी जड़े हैं और दरवाज़े का एहतिमाम यूं है कि जब दोनों पट बंद हो जाएं तो दो नीम आईना यक-जान हो कर बाक़ी तीन दीवारों की मानिंद साबित-ओ-सालिम क़द-ए-आदम आईने का रूप धार लेता है। इस लिफ़्ट की ख़ूबी ये है कि आप नर्गिसियत का शिकार हों या हों अपने अक्स से महफ़ूज़ नहीं रह सकते।

    लिफ़्ट बहुत पुरानी होने के सबब हर वक़्त कराहती रहती है। उसके कल पुर्जे़, चूलें, सब वक़्त के हाथों ज़ख़्म ख़ुर्दा हैं। इसी लिए ये चूं चूं करती इंतिहाई सुस्त रवी से ऊपर की तरफ़ सफ़र करती है जैसे कोई बुढ़िया हाँफती काँपती चढ़ाई चढ़ रही हो। होटल के अक्सर गाहक अपने हक़ में बेहतर समझते हैं कि वो लकड़ी के ज़ीने से ऊपर-नीचे आएं जाएं। वैसे भी लिफ़्ट तंगी दामन की बिना पर एक वक़्त में सिर्फ़ एक मुसाफ़िर बे-सर-ओ-सामान की मुतहम्मिल हो सकती है। अगर मुसाफ़िर मा सामान है तो उसे कौन उतारेगा, अगर ख़ुद लिफ़्ट में चला जाता है तो सामान कैसे पहुँचेगा। इसलिए अक्सर गाहक लकड़ी के ज़ीने को आज़माते हैं जो अपनी क़दामत के बावजूद इतना फ़राख़ ज़रूर है कि गाहक और उसके सामान दोनों को सहार सकता है।

    ऊपर पहली मंज़िल पर पहुंचने के बाद ज़ीने के दहाने से दो कोरीडोर्ज़ निकलते नज़र आते हैं। ज़ीने की बिल्कुल सीध में एक लंबा बल खाता हुआ कोरीडोर है, जिसके पेच-ओ-ख़म के सबब उसका आख़िरी सिरा नज़रों से ओझल है। जाने वो कहाँ जा कर ख़त्म होता है। दाएं जानिब सिर्फ़ दीवार है जिसमें कोई दरवाज़ा नहीं। ज़ीने के बिल्कुल साथ ही लिफ़्ट का दरवाज़ा है जिसके क़रीब से ज़ीना बल खाता हुआ ऊपर की मंज़िलों को चला जाता है। बाएं जानिब जो कोरीडोर है वो आगे जाकर एक लंबी गैलरी के साथ जुड़ता है। इस में कई गैलरियों के दरवाज़े खुलते हैं जो इस मर्कज़ी गैलरी के ज़रिये से एक दूसरे से मुंसलिक हैं। बाक़ी तमाम मंज़िलों पर इसी नक़्शे की तकरार नज़र आती है। ग़रज़ कि कोरीडोर्ज़ और गैलरियों की भूल-भुलय्याँ से मालूम होता है कि होटल सिलाज़ार की तंगी का जो तास्सुर उसकी ड्योढ़ी से पैदा होता है, दर हक़ीक़त सही नहीं। इसका ग्रांऊड फ़्लोर यानी ड्योढ़ी वाला हिस्सा यक़ीनन रक़बे में बेहद महदूद है, लेकिन जूँ-जूँ हम ऊपर की तरफ़ जाते हैं उसके फैलाव में पुरअसरार तरीक़े से इज़ाफ़ा होता चला जाता है। शुमालन जुनुबन, शिरक़न ग़रबन, कमरे गैलरियों के ज़रिये से मिले हुए हैं। यूं महसूस होता है कि कोरीडोर्ज़ और गैलरियों का एक मुअम्मा बक्स तैयार किया गया है जिसमें इन्सान बिल्कुल इसी तरह भटक सकता है जिस तरह माहिरीन तबइयात की तजुर्बाती भूल भुलैयों में चूहा। बज़ाहिर होटल सिलाज़ार की तामीराती साख़्त का अंदाज़ा लगाना मुम्किन नहीं। लेकिन उसके अंदर घूमने के बाद तसव्वुर की आँख से देखा जा सकता है कि ये एक तिकोन की तरह है जो अपने किसी कोने पर सीधी खड़ी हो या जैसे एहराम अपनी नोक के बल खड़े हों। ग़ालिबन ये अमरीकन तिजारती ज़ह्न की तौसीअ पसंदी के रवैय्ये का करिश्मा है कि सिलाज़ार के मालिक को जिस मुल्हिक़ा इमारत का कोई अपार्टमंट हासिल हुआ वो उसे होटल में शामिल करता गया और गैलरियों के ज़ररिये बाहम मिलाता चला गया।

    मुख़्तलिफ़ मंज़िलों में जो गैलरियां और कोरीडोर्ज़ हैं, उनमें घिसी-पिटी दरियां बिछी हैं जो जूतों की मुसलसल रगड़ से तारतार हैं। इन दरियों का कोई ख़ास मक़सद समझ में नहीं आता। सिवाए उज़्र ज़ेबाइश के, जिसे पूरा करने में ये नाकाम हैं गैलरियों की दीवारों पर जो वॉलपेपर चढ़ा है वो कभी निखरे आसमानी रंग का होगा लेकिन अब वो मटियाले रंग में ढल चुका है। इस वॉलपेपर पर खड़ी जल-परियों का नक़्श है, जो इस क़दर घिस पिट गई हैं कि अपने ग्लैमर से महरूम हो चुकी हैं। इस पर तुर्रा ये कि ज़माने के हाथों किसी का सर ग़ायब है और किसी का धड़, उमूमन आने-जाने वालों को इतनी फ़ुर्सत नहीं कि वो इस तख़्युली मख़लूक़ की तरफ़ तवज्जो दे सकें, लेकिन कभी उन पर भूले से नज़र पड़ जाये कि दिल दहल जाता है कि देखने वाला शख़्स अपने आपको सैंकड़ों अजीब उल-ख़लक़त अपाहिज जलपरियों के ग़ोल दर ग़ोल में घिरा पाता है।

    बह्ज़ाद जब नौकरी की तलाश में इस शहर में वारिद हुआ तो उसकी जेब भारी थी। चुनांचे वो लिंकन सैंटर के बिलमुक़ाबिल एक ऊंचे मुतवस्सित दर्जे के होटल में आकर उतरा। मगर जूँ-जूँ दिन गुज़रते गए, नौकरी नापैद रही और जेब हल्की होने लगी तो उसे किसी ऐसे होटल की जुस्तजू हुई जो कम किराए पर कमरे उठाता हो। बाद अज़ बिसयार वक़्त-ओ-तलाश उसे गौहर-ए-मक़्सूद होटल सिलाज़ार की शक्ल में नसीब हुआ। उसे महज़ इत्तिफ़ाक़ कहिए या ख़ूबी-ए-तक़दीर समझिए कि जिस दिन बह्ज़ाद ने पूछा उसी दिन एक कमरा मौजूद था...वो फ़ौरन वहां उठ आया। लहीम शहीम हब्शी ने उसे बताया कि जो कमरा ख़ाली है वो चौदहवीं मंज़िल पर वाक़े है। जब बह्ज़ाद अपना सामान ड्योढ़ी में हब्शी के हवाले कर के कमरा देखने की ग़रज़ से लिफ़्ट के ज़रिये ऊपर जाने लगा, तो उसे बेहद हैरत हुई कि लिफ़्ट में मंज़िलों की नंबर प्लेट पर बारहवीं मंज़िल के फ़ौरन बाद चौदहवीं मंज़िल का नंबर लिखा था। उसने सोचा कि ग़लती से तेरहवीं को चौदहवीं लिख दिया गया था, अगरचे उस क़ौम की मेकानिकियत की हद तक मुकम्मल कारकर्दगी की इस्तिदाद से इस क़िस्म की ग़लती की तवक़्क़ो नहीं की जा सकती थी। फिर भी इन्सान इन्सान है और ख़ता का पुतला है। इसलिए बह्ज़ाद ने अपनी तीसरी दुनिया की क़दीम सोच के मुताबिक़ इसे इन्सानी कोताही जान कर कोई ख़ास अहमियत दी। अलबत्ता जब वो होटल के अमले से बात करते हुए कहता कि उसका कमरा तेरहवीं मंज़िल पर है तो वो लाहौल पढ़ते हुए ग़ायब हो जाते। आख़िर उससे रहा गया और एक दिन उसने होटल के ब्राज़ीलियन मैनेजर से ये पहेली बुझवाने की कोशिश की। मैनेजर ने उसके सवाल के जवाब में अगरचे अहमक़ या जाहिल का लफ़्ज़ इस्तिमाल नहीं किया। लेकिन उसकी आँखों से ज़ाहिर था कि वो उसे अहमक़ या जाहिल या दोनों की आमेज़िश ख़याल कर रहा था। फिर भी मैनेजर ने ज़्यादा इल्म रखने की बिना पर एहसास-ए-बरतरी के तहत उस पर ये मुनकशिफ़ किया कि बेवक़ूफ़ क्या तुम नहीं जानते कि तेरह का अदद मनहूस होता है, इसलिए यहां किसी इमारत में भी तेरहवीं मंज़िल का ज़िक्र नहीं होता, बल्कि तेरहवीं को चौदहवीं के नाम से पुकारा जाता है।

    बह्ज़ाद की समझ में ये मंतिक़ आई कि अगर तेरहवीं मंज़िल मौजूद होती ही है तो उसके चौदहवीं पुकारने से आई बला कैसे टल जाती है। बहरहाल ये मुनकशिफ़ हो गया कि चांद पर पहुंचने वाले इंतिहाई तरक़्क़ी याफ़्ता अमरीकन वैसे ही तवह्हुम परस्त हैं जैसे बर्र-ए-सग़ीर के किसी पसमांदा गोशे में बसने वाले जहां अब तक कौरवों- पांडवों की रथ गुड और रीड़े की शक्ल में चल रही है। इस तरह ख़लाई दौर और क़ुरून-ए-ऊला का बाहम फ़ासिला घट कर सिफ़र रह जाता है।

    जब बह्ज़ाद अपने कमरे में पहुंचा तो रात हो चुकी थी। उसने बिजली का बटन दबाकर कमरे में रोशनी की तो इसका दिल दहल गया। कमरे की दीवारें पर हैबत सियाह रंग की थीं। खिड़की सड़क की जानिब खुलने के बजाय साथ वाली बिल्डिंग की छत पर खुलती थी जिसकी चादर ज़ंग की वजह से कहीं से भूरे रंग की थी और बारिश का पानी जमा हो जाने के सबब कहीं से स्याह थी। इस खिड़की में जो शीशे लगे थे वो छोटे छोटे रंग बिरंगे टुकड़ों की सूरत में थे। लेकिन काली दीवारों के पस-ए-मंज़र में आग के दहकते अंगारों की मानिंद दिखाई दे रहे थे। कमरे में एक पलंग, एक तिपाई, एक कुर्सी और एक अलमारी थी। कमरा साफ़-सुथरा होने के बावजूद बह्ज़ाद को बोसीदगी के इलावा अजीब तरह की घुटन का एहसास हुआ। कमरे में कपड़ों के ऐसे बंद ट्रंक की सी बू थी जिसे बड़ी मुद्दत के बाद खोला गया हो। उसने अलमारी खोली तो उसमें से भी बंद बू रही थी। उसने फ़ौरन अलमारी बंद कर दी। बिस्तर में भी काफ़ूर की गोलियों की हुमक थी।

    बह्ज़ाद को कमरे की हर चीज़ से कराहत महसूस हो रही थी। हालाँकि वो बड़ी मेहनत से साफ़ की गईं थी। वो बहुत थका हुआ था सो बिस्तर पर लेट गया, मगर नींद उससे कोसों दूर थी। वो सोचने लगा कि आख़िर उसे इस कमरे और इसमें रखी हर चीज़ से तनफ़्फ़ुर का एहसास क्यों हो रहा है। जबकि उसकी कोई ठोस वजह मौजूद नहीं। यक़ीनन ये कमरा आतिशज़दगी की बाक़ियात में से था। लेकिन उसे उसी हालत में महफ़ूज़ रखने का क्या जवाज़ था। भला कौन उसके आसेब ज़दा माहौल में रहना पसंद करेगा। शायद होटल के मालिक को उसमें कोई ख़ास कशिश और अनोखापन महसूस होता हो। वैसे भी इस मुल्क के बासियों का एहसास-ए-जमाल नाक़ाबिल-ए-फ़हम है। जिन चीज़ों को उमूमन भद्दा, बदसूरत हत्ता कि करीह-उल-मंज़र समझा जाता है, ये उन्हें हसीन, ख़ूबसूरत और दिलफ़रेब तसव्वुर करते हैं।

    बह्ज़ाद सारी रात अजीब कैफ़ियत से गुज़रा। एक अनजाने ख़ौफ़ से उसे ठंडे पसीने आते रहे। बिलआख़िर वो थक हार कर सोया भी तो ऐसी नींद कि ज़ह्न नीम बेदार था। वो सुब्ह-सवेरे उठ गया। अंग अंग टूट रहा था। सर में शदीद दर्द था। सोचा कि ताज़ा दम होने के लिए ग़ुसल कर लिया जाये। इस ग़रज़ से जब ग़ुस्लख़ाने गया तो 'लाहौल' पढ़ कर पलट आया। हर चंद के ग़ुस्लख़ाने की हर चीज़ साफ़ सुथरी थी, लेकिन इतनी पुरानी थी कि गंदगी का तास्सुर देती थी। टब, सिंक और फ्लश की चीनी जगह जगह से उखड़ चुकी थी और नीचे से ज़ंगआलूद स्याही झांक रही थी। इस पर तुर्रा ये कि सफ़ाई के बावजूद नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बू रही थी जैसे मुर्दा चूहे का ताफ़्फ़ुन।

    आख़िर बह्ज़ाद के सब्र का पैमाना लबरेज़ हो गया। वो बड़बड़ाता हुआ मैनेजर के पास पहुंचा और सारा माजरा कह सुनाया। मोटी तोंद वाले ब्राज़ीलियन मैनेजर को यक़ीन तो आया कि कोई मुर्दा चूहा ग़ुस्लख़ाने में लेटा बदबू के भभके उड़ा रहा है, मगर बह्ज़ाद के ग़ुस्से को ठंडा करने के ख़याल से उसने जनीटर को उसके साथ ग़ुस्लख़ाने में भेजा तककि बदबू का मुअम्मा हल किया जा सके। जनीटर ने लाख कोशिश की किसी मुर्दा तो क्या किसी ज़िंदा चूहे का सुराग़ भी मिल सका, लेकिन बह्ज़ाद इतनी जल्द हार मानने को तैयार था। उसने तहय्या कर लिया था कि इस झुलसे हुए आसेबज़दा कमरे, बंद बू वाले बिस्तर और मरे हुए चूहे के ताफ़्फ़ुन से हर सूरत छुटकारा हासिल करेगा। सो वो दुबारा मैनेजर के पास पहुंचा और कुछ इस मूसिर और क़ाबिल-ए-रहम अंदाज़ में अपनी वकालत की कि उसका दिल पसीज गया और उसने पहली मंज़िल पर एक नन्हे मुन्ने से कमरे की पेशकश की। बह्ज़ाद फ़ौरन राज़ी हो गया। उसने सोचा कि हर कमरा इस कमरे से बेहतर होगा। चुनांचे वो मैनेजर से चाबी लेकर अपना बक्स उठाए हुए नए कमरे में आन पहुंचा।

    ये इंतिहाई छोटा यानी 7x7 फुट का कमरा था जिसमें बमुश्किल एक बेड रखा जा सकता है। बेड के इलावा उसमें सिर्फ़ एक कुर्सी थी और बस। कमरे की कुल औक़ात यही थी। उस कमरे से मुंसलिक ग़ुस्लख़ाने आला दर्जे का सही, मगर कम अज़ कम क़ाबिल-ए-बर्दाश्त तो था। कमरे में दो पटों वाली एक खिड़की थी जो बाहर सड़क की जानिब खुलती थी। इस खिड़की से वाशिंगटन स्क्वायर के कुछ हिस्से का नज़ारा भी मुम्किन था बशर्तिके खिड़की में से उचक के सर बाहर निकाल कर देखा जाये। इस के इलावा बिस्तर पर लेटे हुए खिड़की से सामने वाले चर्च की बेल फ़्री का मीनार भी दिखाई देता था।

    बह्ज़ाद को इस नए कमरे में मुंतक़िल हुए कई रोज़ बीत गए। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता चला गया, मुसाफ़तों के दर खुलते चले गए, बह्ज़ाद नास्तलजिया की ज़द में आता चला गया। इस अज़दहा की तरह बहुत बड़े कास्मोपोलेटीन शहर के रोज़मर्रा से बे रब्ती का एहसास शिद्दत इख़्तियार करता चला गया। जितना ये एहसास गहरा होता गया, उतना ही अपने देस की याद कसक की शक्ल में ढलती गई। शायद इन दोनों के दरमियान 'बराबर तनासुब' का रिश्ता था। फ़ासले वैसे भी जज़्बों को मुनकशिफ़ करते हैं। ज़्यादा क़ुरबत मानेअ बसारत और कातेअ बसीरत होती है। जब घर में रखी अशिया हर रोज़ अपने मुक़ाम पर मिलें, तो आहिस्ता-आहिस्ता अपनी मानूसियत की बिना पर जाज़िब-ए-तवज्जो नहीं रहती हैं, लेकिन उनमें से कोई चीज़ अपनी जगह से ग़ायब हो, तो उसकी अदम मौजूदगी बुरी तरह खटकती है। कुछ ऐसी ही सूरत-ए-हाल बह्ज़ाद की थी। जब वो वतन में था तो इसकी हर चीज़ से बेज़ार था और अब इन तमाम चीज़ों के लिए बेक़रार जिन्हें उसने कभी दरखोर एतना नहीं समझा था। पान से उसने हमेशा तनफ़्फ़ुर महसूस किया, लेकिन अब बा'ज़ दफ़ा बैठे बिठाए उसकी ज़बान पान के पत्ते का ज़ायक़ा महसूस करती और सौंफ-सुपारी की ख़ुशबू उसके नथनों में कहीं से घुसती। एक दिन टाइम स्क्वायर के क़रीब चलते चलते अचानक जाने कहाँ से चम्बेली-मोतीए और गुलाबों की महक उसके साथ हो ली, रातों को अक्सर उसे अपने कमरे में बिस्तर पे लेटे लेटे नीचे सड़क पर लोग उर्दू बोलते सुनाई देते, जिस पर वो फ़ौरन बिस्तर से उठकर खिड़की से झाँकता और उसे बड़ी मायूसी होती, ये जान कर कि नीचे सड़क पर उर्दू में नहीं, अंग्रेज़ी में गुफ़्तगु हो रही है। अक्सर औक़ात सुब्ह-सवेरे नीम बेदारी में वो महसूस करता जैसे वो अपने देस में अपने घर में लेटा हुआ है।

    ग़रज़ कि बह्ज़ाद के दिल-ओ-दिमाग़ मुकम्मल तौर पर नास्तलजिया की दिलदोज़ गिरिफ्त में जकड़े हुए थे। उसके आसाब मग़्लूब होते जा रहे थे। वो उमूमन ग़नूदगी हालत में रहता। सुबह जब घड़ी अलार्म बजाती तो वो आँखें खोलता, लेकिन उसका वजूद हिलने से इंकारी हो जाता। उसके पपोटे बंद हो जाते, ज़ह्न नीम ग़नूदगी हालत में होता और जिस्म के पट्ठे मज़ीद आराम की ख़्वाहिश में ढीले पड़ जाते। ये कैफ़ियत सारा दिन उस पर तारी रहती और वो अक्सर बारह बजे से पहले उठने के क़ाबिल होता। इस नीम बेदारी, नीम ग़नूदगी की नबाताती हालत में उसका ज़ह्न गुम-गश्ता माज़ी के पछतावे से महफ़ूज़ रहता। शायद ये उसके वजूद का दिफ़ाई हथकंडा था।

    अगरचे बारह बजे के क़रीब उसकी आँख खुल जाती, मगर रोज़मर्रा में शिरकत से गुरेज़ अब भी मौजूद रहता, सो वो बिस्तर पर लेटे लेटे खिड़की से बाहर सामने स्क्वायर की परली तरफ़ वाक़े चर्च की बेल फ़्री को तकता रहता, जिसमें लगी देव-हैकल घंटी जब बज उठती तो फ़्री बेल में बसेरा करने वाले सफ़ेद कबूतर ग़ोल दर ग़ोल फड़फड़ाते हुए बेल फ़्री की चारों खिड़कियों से तूफ़ान की तरह फट पड़ते और आसमान को पल-भर के लिए बर्फ़ के गालों की तरह सफ़ेद कर डालते। जाने क्यों बह्ज़ाद को इन कबूतरों को देख कर बहा उद्दीन ज़करिया के मज़ार के गुंबद पर उड़ने वाले कबूतर याद आते जिनकी डारें चराग़ वाले सेहन में दाना चुगने उतरती थीं।

    एक दिन इसी कैफ़ियत में उसे साथ वाले कमरे से बातों की आवाज़ सुनाई दी। उसके और साथ वाले कमरे के दरमियान जो दीवार थी वो इस क़दर पतली थी कि आवाज़ साफ़ रही थी।

    हेलो लिंडा स्वीट हार्ट! हाव आर यू।

    ग़ालिबन फ़ोन पर गुफ़्तगु हो रही थी। क्योंकि जवाब में मुख़ातब की आवाज़ नहीं आरही थी।

    हाँ मैं, मैं ठीक हूँ।

    गुफ़्तगु जारी रही, क्या? आजकल क्या लिख रहा हूँ? एक पुर्तगाली लड़की और स्याह फ़ाम की दास्तान। स्याह फ़ाम को एक पुर्तगाली लड़की से बेपनाह मुहब्बत है और वो उसे पा भी लेता है, मगर वस्ल की क़ुरबत ही से फ़िराक़ की शिद्दत जन्म लेती है, जिसकी कहानी मैं लिखना चाहता हूँ। क्या कहा? वस्ल से फ़िराक़ कैसे? वो यूं, लिंडा डियर! कि पुर्तगाली तबअन क़ुनूती होते हैं और स्याह फ़ाम बुनियादी तौर पर ख़ुश तबा और रजाई। इसी लिए उनके तमद्दुन की रूह, इतनी मुख़्तलिफ़ है। यही तमद्दुनी और नफ़सियाती फ़ासले उनके दरमियान बड़ी ढिटाई से हाइल हैं जिनका एहसास उस वक़्त ज़्यादा शिद्दत से उभरता है, जब दोनों फ़रीक़ एक ही छत तले ज़िंदगी बसर करना शुरू करते हैं और उनके जिस्मानी मिलन से रुहानी बैराग जन्म लेता है...

    क्या? हाँ, ये एक मस्हूर कुन मौज़ू है।

    अच्छा, ख़ुदा-हाफ़िज़। मुझे अभी बहुत सा काम करना है। फिर बात होगी, बाई...

    कुछ दिनों तक बह्ज़ाद को साथ वाले कमरे में होने वाली रोज़मर्रा की गुफ़्तगु सुनने का मौक़ा मिल सका या शायद गुफ़्तगु हुई ही हो। ग़ालिबन कहानी निगार कमरे में मौजूद नहीं था या फिर इतना मसरूफ़ कि उसे अपनी दोस्त लिंडा को फ़ोन करने की फ़ुर्सत ही थी। उमूमन तख़लीक़कार जब किसी तख़लीक़ की ज़द में होता है तो तख़लीक़ी अमल उसे शाज़ो नादिर ही मुआशरती मेल-जोल और रसमियात की मोहलत बख़्शता है...ये भी मुम्किन था कि वो सिलाज़ार से जा चुका हो।

    काफ़ी अर्से बाद एक दिन बह्ज़ाद को कहानी निगार की आवाज़ फिर सुनाई दी। वो हस्ब-ए-मामूल लिंडा से मह्व-ए-गुफ़्तुगू था और अपनी तहरीरों का ज़िक्र कर रहा था।

    यस, लिंडा डार्लिंग! वो पुर्तगाली और स्याह फ़ाम की कहानी...हाँ मुकम्मल हो गई... और फिर बह्ज़ाद को खिसियानी हंसी की आवाज़ आई।

    ख़ैर, उसका तज़किरा अब क्या। सुनो, इस वक़्त मैं न्यूयार्क के टीवी नैटवर्क नंबर 2 के लिए एक सीरियल लिखने की सोच रहा हूँ। क्या?...वो किस क़िस्म का होगा?...वो सैंट हिल्ज़ ब्लयू की तर्ज़ पर लिखा जाएगा। मर्कज़ी ख़याल?...अमरीकी नौजवानों में 1960 के इर्दगिर्द जो तशख़्ख़ुस का बोहरान पैदा हुआ था उसके सयाक़-ओ-सबॉक् पर रोशनी डालने की कोशिश करूँगा।

    फिर ज़रा तवक़्क़ुफ़ से कहानी निगार बोला, बस लिंडा मेरे लिए दुआ करो कि मैं इस ख़याल को ख़ूबसूरती से तहरीर कर सकूँ...तुम ऐसा करोगी...यक़ीनन...शुक्रिया, मुझे ख़ुशक़िस्मती की इंतिहाई ज़रूरत है...और फ़ोन बंद हो गया।

    अभी तक बह्ज़ाद को कहानी निगार की शक्ल-ओ-सूरत देखने का मौक़ा मिला था, अगरचे वो उसका और लिंडा का मुकालमा अक्सर सुनता था। लेकिन एक दिन उसने कहानी निगार को देख ही लिया। वो अपने कमरे से निकल रहा था, बह्ज़ाद को अपनी तरफ़ मुतवज्जा पाया तो उसने रस्मी अंदाज़ में मुस्करा कर हाय कहा। वो एक लाँबे क़द, छरेरे बदन, क्रियो कट बालों वाला सादा-लौह सेंकी दिखाई देता था, जिसने टख़नों तक लंबा ओवरकोट और जागर पहने हुए थे। उस दिन के बाद वो अक्सर उसे कोरीडोर, लिफ़्ट या होटल की ड्योढ़ी में मिलता और रस्मी ख़ुशअख़लाक़ी का मुज़ाहरा करते हुए मौसम का ज़िक्र करते हुए, हलकोरे खाते हुए तेज़ी से उसके पास से गुज़र जाता।

    कहानी निगार का कमरा बह्ज़ाद के कमरे से पहले आता था। इसलिए बह्ज़ाद को अपने कमरे से बाहर जाने और बाहर से अपने कमरे की तरफ़ आने के लिए उसके कमरे के सामने से गुज़रना पड़ता था। वो अक्सर कहानी निगार के कमरे का दरवाज़ा नीम वा था। तजस्सुस ने उसके पांव पकड़ लिये और वह बड़ी दिलचस्पी से कमरे के अंदर देखने लगा। कहानी निगार मसले हुए काग़ज़ों के ढेर बीच फ़र्श पर आलती पालती मारे घुटने पर कुहनी टिकाए, हथेली पर ठोढ़ी जमाए किसी गहरी सोच में ग़र्क़, अपनी धुन में मगन बैठा था। थोड़ी देर बाद बह्ज़ाद की टकटकी ने उसे चौंका दिया। उसने अध खुले दरवाज़े में से बह्ज़ाद की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में उदासी और लबों पर खिसियानी हंसी थी। इससे पहले कि बह्ज़ाद रूमी के इस ढेर का राज़ दरयाफ्त करता जिस के बीचों बीच वो बिराजमान था, वो ख़ुद ही बोला...दरअसल मैं कहानी लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।

    उसने बड़ी बेचारगी से मुचड़े हुए काग़ज़ों के अंबार की तरफ़ देखते हुए कहा, ये अजीब वारदात है कि नाज़ुक सुबुक सोचें अलफ़ाज़ के क़ालिब में ढल कर जब काग़ज़ पर स्याह नक़्श की सूरत उभरती हैं तो वो भद्दी, बेडौल और बेमानी हो जाती हैं। जज़्बे उर्यानी इज़हार के बाद किस क़दर बे-जान और फ़र्सूदा लगते हैं। ख़ुद मुझे उनके झूट का यक़ीन होने लगता है...और एक बेतुकेपन, अजीब शर्मिंदगी और ख़जालत का एहसास जैसे मैं भरे बाज़ार बीच, लोगों के हुजूम के सामने गिर पड़ा हूँ और कीचड़ से लत-पत हो गया हूँ...एक एहसास-ए-ज़वाल मुझे अपनी लपेट में ले लेता है।

    और लिंडा? बह्ज़ाद ने पूछा।

    हाँ, लिंडा? कहानी निगार ने चौंक कर उसे गहरी नज़रों से देखते हुए दोहराया।

    यक-दम बह्ज़ाद का चेहरा सुर्ख़ हो गया। उसे याद रहा था कि एहतिराम ख़लवत के आदाब के पेश-ए-नज़र उसे कहानी निगार और लिंडा की बातें सुननी नहीं चाहिए थीं। लेकिन कहानी निगार ने अपनी ख़लवत के हक़ की पामाली पर मुतवक़्क़े चिड़चिड़ाहट के बजाय अजीब गंभीरता से जवाब दिया, मेरे कमरे में तो कोई फ़ोन नहीं है।

    इस पर बह्ज़ाद भौंचक्का सा रह गया, क्योंकि कमरे में नज़र हर तरफ़ दौड़ाने पर उसे वाक़ई कहीं कोई फ़ोन दिखाई दिया।

    तो इसका मतलब है... बह्ज़ाद ने अफ़्सुर्दा हैरत से बाक़ी जुमला हवा में लटकता छोड़ दिया। उसे मासूम आँखों वाले कहानी निगार पर बेहद रहम आया जो इतना अकेला था कि इस भरे शहर में, एक ख़याली दोस्त से नादीदा फ़ोन पर पहरों बातें करता था...और इतना बेबस था कि लफ़्ज़ उसका साथ नहीं देते थे। बह्ज़ाद को एक नाक़ाबिल-ए-फ़हम एहसास ज़या हुआ और उसने उदास शाइस्तगी के साथ कमरे के खुले दरवाज़े को बंद कर दिया।

    अगले दिन बह्ज़ाद कहानी निगार के कमरे के सामने से गुज़रा तो सफ़ाई करने वाली औरत को कमरे की सफ़ाई करते और मसले हुए काग़ज़ों का ढेर पोलीथीन बैग में डालते हुए देखा। घड़ी भर को बह्ज़ाद कमरे के खुले दरवाज़े के सामने ठिटक गया। सफ़ाई करने वाली औरत ने सर उठा कर उसे ग़ौर से देखा फिर वो जैसे उसका इंदिया भाँप गई, कहने लगी, वो यहां नहीं है। आज सुब्ह-सवेरे अपना बिल अदा करने के बाद होटल छोड़ गया है।

    कहाँ गया है? बह्ज़ाद के मुँह से बेसाख़्ता ये सवाल निकला। ग़ालिबन ये सवाल सफ़ाई करने वाली को अहमक़ाना और नापसंदीदा लगा क्योंकि उसने बड़ी रुखाई से जवाब दिया, मुझे क्या मालूम।

    इस पर बह्ज़ाद को ख़याल आया कि किसी की नक़ल-ओ-हरकत से दिलचस्पी रखना यहां के आदाब शाइस्तगी के ख़िलाफ़ था। नतीजतन वो ख़ामोश हो गया और कोरीडोर में लिफ़्ट की सिम्त चलने लगा मगर उसे कहानीकार की रुख़्सती से नाक़ाबिल-ए-तशरीह आज़ुर्दगी हो रही थी जैसे कोई बरसों का आश्ना बिछड़ गया हो।

    एक रात बह्ज़ाद सोने की नाकाम कोशिश कर रहा था कि उसे सड़क से लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें सुनाई दीं। उसने उठकर खिड़की से नीचे झाँका। रात के उस पहर सड़क सुनसान पड़ी थी। खिड़की के ऐन नीचे फ़ुटपाथ पर भी कोई नहीं दिखाई देता था, फिर बह्ज़ाद को ख़याल आया कि शायद आवाज़ें होटल की ड्योढ़ी से आरही थीं, क्योंकि उसका कमरा ड्योढ़ी के ऊपर पहली मंज़िल पर वाक़ा था और खिड़की ऐन सदर दरवाज़े पर खुलती थी। अगरचे सदर दरवाज़े के छज्जे की वजह से दरवाज़े में खड़े लोग नज़र नहीं आते थे।

    इतने में आवाज़ आई, मुझे मालूम है कि तुम मुझसे क्यों जलते हो। किसी ने सीटी की तरह चीख़ती हुई आवाज़ में कहा।

    वो भला क्यों? दूसरे ने फुंकारते हुए पूछा।

    इसलिए कि तुम मेरे रंग से जलते हो। ये तुम्हारा काम्प्लेक्स है जो तुमसे ये सब कुछ करवा रहा है।

    अच्छा और भला वो कौनसा रंग है जिसकी वजह से मुझे काम्प्लेक्स है। ग़ुस्से से दाँत पीसते हुए दूसरा शख़्स बोला।

    अब बह्ज़ाद ने पहचान लिया था कि ये आवाज़ होटल के हब्शी की थी। ज़ह्न पर ज़रा ज़ोर देने से उसने शनाख़्त करली कि पहली आवाज़ एक मदक़ूक़ नशई की थी, जिससे अक्सर उसकी मुड़भेड़ ज़ीने पर या लिफ़्ट में होती। ये एक मुनहनी पीली आँखों, पीले दाँतों वाला मैला कुचैला सफ़ेद फ़ाम था, जो अपने यर्क़ान-ज़दा वजूद के साथ आसेब की तरह सिलाज़ार के इर्दगिर्द मंडलाता रहता था।

    इतने में फिर आवाज़ आई, मेरा रंग सफ़ेद है और तुम्हारा काला। ये एक हक़ीक़त है जिसे तुम झुटला नहीं सकते और इसी लिए तुम मुझसे नफ़रत करते हो।

    उनके दरमियान नसल दर नसल फलती फूलती हुई नफ़रत उनकी आवाज़ों में उमँड आई थी।

    बकवास बंद करो वर्ना... ग़ुस्से से रुँधी हुई आवाज़ में हब्शी ने चिल्लाते और ग़ालिबन नशई को गिरेबान से पकड़ते हुए कहा।

    तुम ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि मैंने कमरे का एक दिन रात का पूरा किराया अदा किया है...पूरे इक्कीस डालर, इसलिए मुझे हक़ है कि मैं पूरे चौबीस घंटे कमरे में गुज़ारूँ। नशई ने अपने नहीफ़ फेफड़ों की पूरी क़ुव्वत से चीख़ कर कहा।

    जवाब में कुछ ऐसी आवाज़ें आईं जैसे हाथा पाई हो रही हो। फिर क़वी-उल-जुस्सा हब्शी ने अपने आबाओ अज्दाद से विरसे में मिली हुई क़दीम ताक़त का मुज़ाहरा करते हुए सफ़ेद फ़ाम नशई को उठा कर सड़क पर पटख़ दिया। वो ग़ालिबन नशे की हज़ यानी सरमस्ती में था सो सड़क पर लुढ़क कर दूसरे किनारे के फुटपाथ से टकराया और गठरी की सूरत वहीं ढेर हो रहा। शायद वो इतना बेसुध था कि उसमें उठने की हिम्मत थी और रात के इस पहर ट्रैफ़िक मफ़क़ूद था। सो उसने सोचा कि उठकर क्या करना है, रात यहीं बसर हो जाये तो क्या मज़ाइक़ा। मगर वो आज़ाद के फ़ौजी की तरह रात-भर बाआवाज़ बुलंद हब्शी को धमकियां देता रहा जिससे बह्ज़ाद को काफ़ी बे आरामी हुई। अलबत्ता यूं लगता था कि हब्शी ग़ुस्सा फ़र्द होने के बाद इन गीदड़ भबकियों को नज़रअंदाज करके गहरी नींद सो गया, क्योंकि उसके फ़लक शि्गाफ़ ख़र्राटों की आवाज़ बह्ज़ाद को पहली मंज़िल पर साफ़ सुनाई दे रही थी।

    इस वाक़े के कुछ दिन बाद बह्ज़ाद होटल सिलाज़ार की तरफ़ बोझल ज़ह्न और थके क़दमों से आरहा था। दिन-भर की थकावट दर्द बन कर उसके अंग अंग में धड़क रही थी। होटल सिलाज़ार की ड्योढ़ी में दाख़िल होते ही उसने सोचा कि वो लिफ़्ट से ऊपर जाएगा। उमूमन वो लिफ़्ट का इंतिज़ार किए बग़ैर ज़ीने ही से ऊपर चला जाता था। इस वक़्त इत्तिफ़ाक़न लिफ़्ट मौजूद नहीं थी नीचे ही खड़ी थी। उसके अंदर रोशनी नहीं थी। ग़ालिबन अंदर की लाइट्स फ्यूज़ हो गई थीं। ये सोचते हुए बह्ज़ाद लिफ़्ट में दाख़िल हो गया। इससे पहले कि वो मंज़िल का बटन दबाता। लिफ़्ट का दरवाज़ा खटाक से बंद हो गया और वो ख़ुदबख़ुद चलने लगी।

    बह्ज़ाद ने देखा कि लिफ़्ट तेज़ी से किसी मंज़िल पर रुके बग़ैर ऊपर चली जा रही थी। उसने यके बाद दीगरे मुख़्तलिफ़ मंज़िलों के बटन दबाए मगर लिफ़्ट थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लिफ़्ट की तेज़ रफ़्तारी भी हैरानकुन थी। फिर लिफ़्ट आख़िरी मंज़िल पर झटके से ठहर गई। अभी बह्ज़ाद सँभलने भी पाया था कि उसकी पुश्त से कोई चीज़ टकराई। वो तेज़ी से पीछे मुड़ता कि मालूम कर सके कि वो किस चीज़ से टकराया था। उसे अंधेरे में कुछ सुझाई दे रहा था। बदबू का एक भबका उठा और साथ ही दो ईस्तिख़वानी बाज़ुओं ने उसे अपनी गिरिफ्त में ले लिया। बह्ज़ाद ने बहुतेरी कोशिश की कि उस बदबूदार वजूद की बाँहों से निकल जाये मगर उन सूखे हुए बाज़ुओं में जुनूनी क़ुव्वत थी। उनके आहनी चंगुल से फ़रार मुश्किल था। थक-हार के उसने ये कोशिश तर्क कर दी, लेकिन वो बह्र-सूरत लिफ़्ट में लगे इमरजैंसी अलार्म तक पहुंचना चाहता था जो अंधेरे में उससे चिमटे हुए जिस्म की वजह से दुशवार था कि वो इमरजैंसी अलार्म और बह्ज़ाद के बीच हाइल था।

    एक दिक़्क़त तलब जिस्मानी करतब के बाद वो इस पुर तअफ़्फ़ुन जिस्म की बग़ल से एक हाथ निकालने में कामयाब हो गया और अंधेरे में टटोलते हुए इमरजैंसी अलार्म का स्विच ऑन कर दिया। फ़ौरन अलार्म चीख़ने लगा और इसके साथ इमरजैंसी लाइट्स जल गईं। उनकी मद्धम मद्धम सी रोशनी में बह्ज़ाद ने देखा कि वो मदक़ूक़ नशई उससे लिपटा हुआ था जिसका कुछ दिन पहले हब्शी मेहमानदार से झगड़ा होता था। नशई की आँखें बंद थीं और सीने से सांस की खड़खड़ाहट साफ़ सुनाई दे रही थी। किसी वजह से उसका जिस्म ठंडा होने लगा था और उसने अपना सर बह्ज़ाद के सर पर टिका दिया था। बह्ज़ाद को यूं महसूस हो रहा था कि बर्फ़ के किसी बदबूदार तोदे से लिपटा हुआ है। ये सारी सूरत-ए-हाल उसके लिए अज़ीयतनाक थी।

    थोड़ी देर में होटल का ब्राज़ीलियन मैनेजर ज़ीने के रास्ते ऊपर आया और बाहर से बटन दबा कर लिफ़्ट का दरवाज़ा खोलने की कोशिश की, मगर नाकाम रहा। यूं लगता था कि वो जाम हो गया था। फिर उस की आवाज़ आई, जो कोई भी अंदर है, मत घबराए, हमने लिफ़्ट ठीक करने वाले को बुला भेजा है।

    बह्ज़ाद ने जवाब में कहा, अच्छा। मगर बराए मेहरबानी ज़रा जल्दी करें।

    हाँ, हाँ। कोशिश करेंगे।

    इस गुफ़्तगु के बाद ब्राज़ीलियन मैनेजर ज़ीने के रास्ते नीचे चला गया।

    फिर जैसे वक़्त ठहर गया। बह्ज़ाद को यूं लगा जैसे सदीयां गुज़र गईं। वो इधर उधर की सोचने लगा...।बेकार बातें। उसने दुनिया-भर की बातें सोच डालीं, मगर अज़ाब की साअत थी कि ख़त्म होने को आती थी...आहिस्ता-आहिस्ता वो ख़ाली-उल-ज़ह्न होने लगा। वक़्त क़तरा-क़तरा रग-ए-जाँ पर गिरने लगा...हर क़तरे में, हर पल में एक ख़त्म होने वाली अज़ीयत पिनहां थी। उसका जिस्म दुखने लगा, टांगें शल होने लगीं। हर मर्तबा उसे यूं महसूस होता कि वह अभी गिर पड़ेगा, क्योंकि उसमें खड़ा होने की मज़ीद सकत थी।

    इसी अज़ाब के दौरान उसकी नज़र यकदम उस आईने पर पड़ी जो लिफ़्ट में चारों तरफ़ लगा हुआ था और आईने का एक हिस्सा नशई की पुश्त पर भी मौजूद था, जिसमें उसका चेहरा नज़र रहा था, मगर...क्या ये उसी का चेहरा था? क्या उसके बाल कनपटियों पर से सफ़ेद थे? क्या उसके माथे और आँखों के नीचे लकीरों का जाल बिछ चुका था? क्या उसके होंटों की दोनों अतराफ़ दो बड़ी सलवटें पहले भी मौजूद थीं? नहीं...ऐसा तो था...या फिर शायद इस शहर में आने के बाद ये सब निशानियां ज़ाहिर हुई हों। इस शहर के ज़ालिम रोज़मर्रा और ग़म-ए- रोज़गार ने ये सब कुछ देखने की मोहलत ही दी हो।

    एक बर्क़ी झटके से बह्ज़ाद पर इस घड़ी सारी सूरत-ए-हाल की मजहोलियत यूं वाज़िह हुई जैसे सूरज सवा-नेज़े पर आगया हो और उसकी रोशनी आँखों में चुभने लगी हो, उसने सोचा ये कितना मज़हकाख़ेज़ है कि वो करोड़ों के इस शहर में एक घटिया होटल की बोसीदा लिफ़्ट में एक नशई के पर तअफ़्फ़ुन वजूद से यूं बग़लगीर है जैसे कोई आशिक़ अपनी महबूबा से...और नीचे सड़कों पर हुजूम इसी तरह रवां है। वाल स्ट्रीट में लेन-देन इसी तरह ज़ोर शोर से जारी है। यू एन में दुनिया भर के डिप्लोमैट्स जाने किन मसाइल पर हंस हंसकर एक दूसरे को ठगने की कोशिश में मसरूफ़ हैं, एम्पायर स्टेट बिल्डिंग इसी तरह सर उठाए खड़ी है, फ़लकबोस मुजस्समा आज़ादी अपने हाथ में मशाल लिए अपनी जगह पर क़ायम है...और किसी को ख़बर तक नहीं कि वो...बह्ज़ाद...घंटों से तीसरे दर्जे के एक होटल में उम्र रसीदा लिफ़्ट में एक मदक़ूक़ नशई से मजबूरन हमआग़ोश, जाने कौन सा अज़ाब झेल रहा है।

    इन्किशाफ़ की इस साअत बह्ज़ाद ने आईने में देखा कि एक भूरा ठगना, देव क़ामत सफ़ेद फ़ाम अजनबी के बदबूदार जिस्म से ख़ुद चिमटा हुआ है। उसे अपने आप से घिन आने लगी। उसने सोचा वो यहां इस शहर ग़द्दार, इस दयार-ए-ग़ैर में क्या कर रहा है जहां किसी को उसके जीने-मरने की ख़बर है, पर्वा। ये सरज़मीन जहां उसके आबाओ अज्दाद के ख़ून का एक क़तरा भी मिट्टी में जज़्ब नहीं हुआ जहां उसकी जड़ें नहीं हैं, वो यहां क्या कर रहा है? उन लोगों के दरमियान जिन्होंने उसे गुम-गश्ता माज़ी में मदफ़ून कर दिया है, वो यहां क्या कर रहा है?

    और उसने फ़ैसला कर लिया कि वो वापस चला जाएगा, अपने वतन, अपने घर, अपने अज़ीज़ों के दरमियान।

    बेल फ़्री में नस्ब घंटी बज उठी। उसमें बसेरा करने वाले कबूतर ग़ोल दर ग़ोल फड़फड़ाते हुए, उसकी चारों खिड़कियों से तूफ़ान की तरह फट पड़े। आसमान पल भर के लिए बर्फ़ के गालों से सफ़ेद हो गया...फिर बह्ज़ाद ने देखा कि बहाउद्दीन ज़करिया के मज़ार के चराग़ वाले सेहन में कबूतर दाना चुगने उतर आए हैं।

    ग़ालिबन लिफ़्ट में पैदा होने वाला नुक़्स मिस्त्री ने रफ़ा कर दिया था, उसका जाम दरवाज़ा खटाक से खुल गया।

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    મધ્યકાલથી લઈ સાંપ્રત સમય સુધીની ચૂંટેલી કવિતાનો ખજાનો હવે છે માત્ર એક ક્લિક પર. સાથે સાથે સાહિત્યિક વીડિયો અને શબ્દકોશની સગવડ પણ છે. સંતસાહિત્ય, ડાયસ્પોરા સાહિત્ય, પ્રતિબદ્ધ સાહિત્ય અને ગુજરાતના અનેક ઐતિહાસિક પુસ્તકાલયોના દુર્લભ પુસ્તકો પણ તમે રેખ્તા ગુજરાતી પર વાંચી શકશો

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