ज़नान-ए-मिस्र और ज़ुलैख़ा
स्टोरीलाइन
यह कहानी इस्लामी परम्परा के नबी यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा के मोहब्बत की दास्तान को पुनर्परिभाषित करती है। हालाँकि इस कहानी में उस दास्तान को एक मर्द की बजाए एक औरत के दृष्टिकोण से देखा गया है। इस कहानी में ज़ुलैख़ा का यूसुफ़ से मिलना और फिर युसुफ़ के बंदी बनाए जाने तक की हर घटना को ज़ुलैख़ा अपने दृष्टिकोण से बयान करती हुई साबित करती है कि उन दोनों के बीच जो कुछ भी हुआ वह ज़ुलैखा ने अपने स्वार्थवश नहीं बल्कि ख़ुदा के हुक्म से किया।
“यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा की कहानी मज़हबी किताबों में रम्ज़ और किनाए में बयान हुई है लेकिन बहुत से शाइरों और अदीबों ने इस क़िस्से को कहानी की सूरत में नज़्म-ओ-नस्र में लिखा है मगर वो सब चीज़ें मर्द के नुक़्ता-ए-नज़र की तर्जुमान हैं जिसमें हर चीज़ का इल्ज़ामकार औरत पर आइद किया जाता है। उस कहानी में उन रम्ज़-ओ-अलामात को नए अंदाज़ से देखने की कोशिश की है।”
मिस्र की सब ख़ूबसूरत और मुअज़्ज़िज़ औरतों ने कहा, हाशा ये इंसान नहीं कोई बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है और उन्होंने यूसुफ़ को देखकर मारे हैरत के अपने अँगूठे काट लिये और उनके अँगूठों से ख़ून रिसने लगा। ज़ुलेख़ा ने कहा वो एक जीता जागता आदमी है जो खाता पीता और सोता है। वो फ़रिश्ता नहीं, फ़रिश्तों से बड़ा है। मैं चाहती हूँ तुम सब उसे सज्दा करो इस तरह तुम्हारे अंगूठों से ख़ून बहना बंद हो जाएगा और तुम्हारे ज़ख़्म भर जाएँगे।
ज़ुलेख़ा बशर थी और बशर तो शक, रश्क और हसद आग का पुतला है। इसलिए ज़ुलेख़ा सोच में पड़ गई कि ज़नान-ए-मिस्र की हैरत की वजह यूसुफ़ का हुस्न है या उसे यहाँ देखने की हैरत में ख़ौफ़ शामिल है। ज़ुलेख़ा ने सोचा कि आख़िर उसने भी तो यूसुफ़ को देखकर अपने होश-ओ-हवास बरक़रार रखे हैं। फिर ये औरतें होश-ओ-हवास क्यों खो बैठीं। अज़ीज़-ए-मिस्र और सारे दरबार ने भी यूसुफ़ का हुस्न देखा था फिर आख़िर शहर की मुअज़्ज़िज़ बेगमात ने अपने अँगूठे क्यों काट लिए। क्या वो यूसुफ़ से डरती हैं? क्या वो उनके राज़ों का अमीन है और उस लम्हा ज़ुलेख़ा बद-गुमानी में मुब्तिला हो गई। उसने सोचा कि यूसुफ़ उन औरतों को देखकर घबरा क्यों गया था। वो हैरान और परेशान सा जल्दी से वहाँ से निकल गया था। अगर खड़ा होजाता, ठहर जाता तो शायद फिर वो अंगूठे न काटतीं। क्या यूसुफ़ उन औरतों को पहले से जानता था। उस रम्ज़ को जानने के लिए ज़ुलेख़ा मचल उठी। आख़िर अंगूठे काटे जाने में क्या मज़ा है? फिर उसने सोचा अब वो यूसुफ़ को लाएगी और उन सब औरतों को सज्दे का हुक्म देगी, देखें वो उसे सज्दा करती हैं या नहीं... ज़ुलेख़ा दौड़ी दौड़ी यूसुफ़ के पीछे पीछे गई और भागते हुए यूसुफ़ का दामन पकड़ कर बोली, ठहरो... वो एक लम्हे को रुका। ज़ुलेख़ा ने कहा, “ज़रा मेरे साथ अंदर आओ।”
यूसुफ़ हैरान परेशान घबराया था। वो ज़ुलेख़ा का मतलब नहीं समझ सका। उसने सोचा वो इन सब औरतों से कैसे पीछा छुड़ाए। उसने दुआ की कि ख़ुदा मुझे इन औरतों के शर से महफ़ूज़ रखे। ज़ुलेख़ा की नीयत का हाल ख़ुदा ही जानता था। वो इतनी मासूमियत से उस का दामन पकड़े उसे अंदर बुला रही थी मगर यूसुफ़ ज़ुलेख़ा को भी मिस्र की दूसरी मुअज़्ज़िज़ औरतों की तरह समझा और भाग खड़ा हुआ।
तब ज़ुलेख़ा ने भागते हुए यूसुफ़ का दामन ज़ोर से पकड़ लिया। यूसुफ़ तेज़ी से दरवाज़े की तरफ़ भागा। दामन की धज्जी फट कर ज़ुलेख़ा के हाथ में रह गई। ज़ुलेख़ा अंदर आई तो उसने देखा कि मिस्र की मुअज़्ज़िज़ बेगमात अपने अंगूठे पकड़े दर्द से तड़प रही थीं। ज़ुलेख़ा ने दामन की वो धज्जी फाड़-फाड़ कर सब औरतों को बाँट दी और कहा कि लो अपने अंगूठों पर पट्टी बाँध लो। औरतों ने अँगूठों पर पट्टियाँ बाँध लीं तो ख़ून बहना बंद हो गया और उनके अँगूठे चमक उठे, वो पट्टी रोशन हो गई। इसलिए कि यूसुफ़ के दामन की धज्जी तो बस रोशनी की एक लकीर थी। ज़ुलेख़ा ने मुस्कुराकर उन औरतों से कहा, “अगर तुम अँगूठे की जगह हाथ काट देतीं तो तुम्हारा पूरा हाथ रोशन हो जाता।” फिर ज़ुलेख़ा ने बारी बारी सब औरतों को गले लगाया और वो अपने रोशन अँगूठों को देखती हुई ख़ुशी-ख़ुशी रुख़्सत हुईं।
जब काहिन आज़म को बताया गया कि मिस्र की मुअज़्ज़िज़ औरतों के अँगूठों से रोशनी की शुआएँ निकलती हैं तो काहिन आज़म ने कहा वो सब इस्मत मआब औरतें हैं और उनके साथ मुक़द्दस रोशनी है। ये सुनकर मिस्र के शरीफ़ और बड़े आदमी अपनी अपनी औरतों पर फ़ख़्र करने लगे और उन औरतों को देवदासियों से भी बड़ा मर्तबा दिया गया, हर तरफ़ उनकी इस्मत और बुजु़र्गी की धूम मच गई।
अज़ीज़-ए-मिस्र ने ज़ुलेख़ा से कहा कि मिस्र की सब इस्मत मआब और पाक दामन औरतों के अँगूठे रोशन होगए हैं, तुम अपना अँगूठा दिखाओ। ज़ुलेख़ा ने मुस्कुराकर हाथ बढ़ाया तो उस का अँगूठा रोशन नहीं था, वो तो एक मामूली हाथ था। तब अज़ीज़-ए-मिस्र ने दुख से कहा, “मैं तुम्हें ऐसा नहीं समझता था। आज मिस्र के सब मर्दों के सामने मेरा सर झुक गया।” काहिन आज़म ने जब सुना कि ज़ुलेख़ा का हाथ एक मामूली औरत का हाथ है और उसके अंगूठे से रोशनी की शुआएँ नहीं निकलतीं तो उसने कहा, “अफ़सोस! अज़ीज़-ए-मिस्र की बीवी ऐसी हो।”
उधर सब लोगों ने यूसुफ़ का फटा हुआ कुरता देखा तो ज़ुलेख़ा के मुजरिम होने में किसी को शक न रहा। बुज़ुर्गों ने गवाही दी कि कुरता पीछे से फटा है इसलिए ज़ुलेख़ा मुजरिम है। ज़ुलेख़ा का दिल दुख से भर गया, उसने सोचा कि यूसुफ़ के दिल में कोई चोर था। आख़िर वो भागा क्यों, क्यों खड़ा न रहा। इसके साथ अंदर क्यों न आया, न वो भागता न कुरता फटता। मगर वो किसी से क्या कहती, वो मुजरिम बनी ख़ामोश खड़ी रही। ज़ुलेख़ा का जी चाहा कि वो उन सब बुज़ुर्गों को ये राज़ बता दे कि अगर वो यूसुफ़ का दामन न फाड़ती तो उन सब औरतों के अंगूठे रोशन न होते मगर वो ख़ामोश रही, उसे अपनी छोटी सी नेकी का ढ़ींडोरा पीटना अच्छा न लगा। ये कम-ज़र्फ़ी थी और लोग नीयत नहीं देखते, वो ज़ाहिर अमल देखते हैं और उसका नाम उन्होंने इन्साफ़ रख लिया है लेकिन ज़ुलेख़ा को दुख इस बात का था कि यूसुफ़ भी उसे नहीं पहचाना और वो उसे ग़लत समझा। वो तो सबको उसके सामने सज्दा कराना चाहती थी।
ज़ुलेख़ा चुप रही। वो किसी से क्या कहती, कोई उसकी बात समझने वाला न था। ज़ुलेख़ा पर तोहमत लग गई हालाँकि उसका अँगूठा सही सालिम था। शायद उसका जुर्म यही था कि उसने अँगूठा नहीं काटा था और यूसुफ़ को देखकर भी अपने होश-ओ-हवास बरक़रार रखे थे। अज़ीज़-ए-मिस्र ने ज़ुलेख़ा की रोशन आँखों में देखे बग़ैर नफ़रत से मुँह मोड़ लिया और बोला, “तुमने बुरी नज़र से ग़ैर की तरफ़ देखा है।” ज़ुलेख़ा ने कहा, “मुझे कोई ग़ैर नज़र ही नहीं आता।” फिर उसने अज़ीज़-ए-मिस्र और सब बुज़ुर्गों की आँखों में आँखें डाल कर देखा और अपना सर बुलंद रखा।
फिर वो सब यूसुफ़ को सामने लाए और उसका पीछे से फटा हुआ करता दिखाया गया। यूसुफ़ ने ज़ुलेख़ा की तरफ़ देखा, ज़ुलेख़ा मुस्कुराई। यूसुफ़ अपना सर ऊँचा उठाए चल रहा था। अज़ीज़-ए-मिस्र ने ज़ुलेख़ा से कहा, “अब तुम क्या कहती हो?” ज़ुलेख़ा मुस्कुराकर बोली, “बेशक ये सच्चा है।” और अपना सर झुका लिया। ज़ुलेख़ा दिल से यूसुफ़ की सदाक़त पर ईमान ले आई थी और वो यूसुफ़ के वहाँ से भागने का रम्ज़ समझ गई थी। अज़ीज़-ए-मिस्र ने कहा, “तो मान गई कि तू ने बुरी निगाह से ग़ैर को देखा है।” ज़ुलेख़ा ने फिर वही बात दुहराई, “मैंने आज तक किसी ग़ैर को नहीं देखा, मुझे ग़ैर नज़र ही नहीं आता। मेरी आँखें तो बस आपको देखती हैं।” अज़ीज़-ए-मिस्र ने कहा, “लेकिन मैं तो यहाँ हूँ।” ज़ुलेख़ा ने मुस्कुराकर यूसुफ़ की तरफ़ देखा और बोली, “मैं यहाँ हूँ।”
यूसुफ़ उसकी बात समझ गया और उसका सर झुक गया। उसने कहा, “मुझे जेलख़ाने जाना मंज़ूर है।” ज़ुलेख़ा ने अपना झुका हुआ सर उठा लिया और मुस्कुराने लगी। ज़ुलेख़ा अपने महल में आकर सोचने लगी कि क़ाफ़िले वाले जब यूसुफ़ को मिस्र लेकर आए तो रास्ते में उन्होंने जगह जगह पड़ाव डाला होगा, काश, वो घूम फिर कर देख सकती कि और कहाँ-कहाँ किन किन औरतों ने मारे हैरत के अंगूठे काटे थे। ज़ुलेख़ा का जी चाहा कि वो एक इनाम मुक़र्रर करे ताकि सब औरतें उसे अपने कटे हुए अँगूठे दिखाने आएँ और इनाम ले लें। फिर उसने सोचा कि इनाम के लालच में तो हर एक अपना अँगूठा काट कर आजाएंगी और ये काम ज़ुलेख़ा के मर्तबा और शान के ख़िलाफ़ था कि वो सारे जहाँ की औरतों के अँगूठे देखती फिरे और फिर उसने सोचा आख़िर ये जान कर क्या करेगी। उसकी बला से। अरे जहाँ की औरतें अपने अंगूठे काट डालें। जीत उस वक़्त यूसुफ़ की होती अगर ज़ुलेख़ा भी अपना अँगूठा काट लेती। मगर उसका अँगूठा सलामत है। इसलिए जीत